hotaks444
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शीतल ने ऐसे ही पैंटी नीचे कर दी और अपने चुतड़ पीछे धकेल दिए। लंड अपनी
जगह पर जाकर सेट हो गया।
आशीष ने शीतल की एक टांग को घुटने से मोड़ कर आगे कर दिया। इससे एक तो
चूत थोड़ी बाहर को आ गयी दूसरे उसका मुंह भी खुल गया।
आशीष को रास्ता बताने की जरुरत ही न पड़ी। लंड खुद ही रास्ता बनाता अन्दर
सरकता चला गया।
इस प्यार में मज़बूरी न होने की वजह से शीतल को ज्यादा मजे आ रहा था। वो
अपनी गांड को आशीष के लंड के धक्कों की ताल से ताल मिला कर आगे पीछे करने
लगी। दोनों जैसे पागल से हो गए। धक्के लगते रहे। लगाते रहे। कभी आशीष
तेज़ तो कभी शीतल तेज़। धक्के लगते रहे। और जब धक्के रुके तो एक साथ।
दोनों पसीने में नहाए हुए थे। एक दुसरे से चिपके हुए से। आशीष ने भी यही
किया। उसकी चूत को एक बार फिर से भर दिया। दोनों काफी देर तक चिपके रहे।
फिर उठकर गुसलखाने की और चले गए। वहां राजपूत कविता को अपने तरीके सिखा
रहा था।
**********************************************************
अगले दिन ट्रेन मुंबई रेलवे स्टेशन पर रुकी। कविता ने नीचे उतरते ही आशीष
का हाथ थाम लिया और उसकी ओर मुस्कुराती हुयी बोली- "तुम कह रहे थे
तुम्हारा यहाँ कोई नहीं है। अगर तुम चाहो तो हमारे साथ चल सकते हो।"
आशीष की तो पाँचों उंगलियाँ अब घी में थी- "ठीक है, तुम कहती हो तो चल
पड़ता हूँ।" उसने कविता का हाथ दबाते हुए उसकी ओर आँख मारी।
"हाँ। हाँ। क्यूँ नहीं। तुम शहर में अजनबी हो बेटा। कुछ दिन हमारे साथ
रहोगे तो तुम्हे इधर-उधर का ज्ञान हो जायेगा। चलो हमारे साथ। कुछ दिन
आराम से रहना-खाना।" ताऊ न कहा और चारों साथ-साथ स्टेशन से बाहर निकल गए!
लगभग आधे घंटे बाद चारों एक मैली कुचैली सी बस्ती में पहुँच गए। हर जगह
गंदगी का आलम था। मकानों के नाम पर या तो छोटे-छोटे कच्चे घर थे। या फिर
झुग्गी झोपड़ियाँ।
"हम यहाँ रहेंगे?" आशीष ने मरी सी आवाज में पूछा।
"अरे चलो तो सही। अपना घर ऐसा नहीं है। अच्छा खासा है भगवान की दया से।
तुम्हें कोई समस्या नहीं होगी वहां" बूढ़े ने आशीष की ओर खिसियाते हुए
कहा।
"हम्म्म! !" आशीष ने हामी भरी और रानी की और देखा। वो भी इस जगह से अनजान
थी। इसीलिए उनके पीछे-पीछे चल रही थी।
"लो भाई, ये आ गया अपना घर, ठीक है न?" बूढ़ा मुस्कुराते हुए घर के बाहर खड़ा हो गया।
घर वास्तव में ही काफी बड़ा था। पुराना जरूर था। पर उन झुग्गी-झौपड़ियों
के बीच खड़ा किसी महल से कम नहीं लग रहा था।
"ए बापू आ गए, चलो उठो!" अन्दर से किसी लड़की की आवाज आई। दरवाजा खुला और
चारों अन्दर चले गए।
जगह पर जाकर सेट हो गया।
आशीष ने शीतल की एक टांग को घुटने से मोड़ कर आगे कर दिया। इससे एक तो
चूत थोड़ी बाहर को आ गयी दूसरे उसका मुंह भी खुल गया।
आशीष को रास्ता बताने की जरुरत ही न पड़ी। लंड खुद ही रास्ता बनाता अन्दर
सरकता चला गया।
इस प्यार में मज़बूरी न होने की वजह से शीतल को ज्यादा मजे आ रहा था। वो
अपनी गांड को आशीष के लंड के धक्कों की ताल से ताल मिला कर आगे पीछे करने
लगी। दोनों जैसे पागल से हो गए। धक्के लगते रहे। लगाते रहे। कभी आशीष
तेज़ तो कभी शीतल तेज़। धक्के लगते रहे। और जब धक्के रुके तो एक साथ।
दोनों पसीने में नहाए हुए थे। एक दुसरे से चिपके हुए से। आशीष ने भी यही
किया। उसकी चूत को एक बार फिर से भर दिया। दोनों काफी देर तक चिपके रहे।
फिर उठकर गुसलखाने की और चले गए। वहां राजपूत कविता को अपने तरीके सिखा
रहा था।
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अगले दिन ट्रेन मुंबई रेलवे स्टेशन पर रुकी। कविता ने नीचे उतरते ही आशीष
का हाथ थाम लिया और उसकी ओर मुस्कुराती हुयी बोली- "तुम कह रहे थे
तुम्हारा यहाँ कोई नहीं है। अगर तुम चाहो तो हमारे साथ चल सकते हो।"
आशीष की तो पाँचों उंगलियाँ अब घी में थी- "ठीक है, तुम कहती हो तो चल
पड़ता हूँ।" उसने कविता का हाथ दबाते हुए उसकी ओर आँख मारी।
"हाँ। हाँ। क्यूँ नहीं। तुम शहर में अजनबी हो बेटा। कुछ दिन हमारे साथ
रहोगे तो तुम्हे इधर-उधर का ज्ञान हो जायेगा। चलो हमारे साथ। कुछ दिन
आराम से रहना-खाना।" ताऊ न कहा और चारों साथ-साथ स्टेशन से बाहर निकल गए!
लगभग आधे घंटे बाद चारों एक मैली कुचैली सी बस्ती में पहुँच गए। हर जगह
गंदगी का आलम था। मकानों के नाम पर या तो छोटे-छोटे कच्चे घर थे। या फिर
झुग्गी झोपड़ियाँ।
"हम यहाँ रहेंगे?" आशीष ने मरी सी आवाज में पूछा।
"अरे चलो तो सही। अपना घर ऐसा नहीं है। अच्छा खासा है भगवान की दया से।
तुम्हें कोई समस्या नहीं होगी वहां" बूढ़े ने आशीष की ओर खिसियाते हुए
कहा।
"हम्म्म! !" आशीष ने हामी भरी और रानी की और देखा। वो भी इस जगह से अनजान
थी। इसीलिए उनके पीछे-पीछे चल रही थी।
"लो भाई, ये आ गया अपना घर, ठीक है न?" बूढ़ा मुस्कुराते हुए घर के बाहर खड़ा हो गया।
घर वास्तव में ही काफी बड़ा था। पुराना जरूर था। पर उन झुग्गी-झौपड़ियों
के बीच खड़ा किसी महल से कम नहीं लग रहा था।
"ए बापू आ गए, चलो उठो!" अन्दर से किसी लड़की की आवाज आई। दरवाजा खुला और
चारों अन्दर चले गए।