desiaks
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पियूष ढिठाई से हँसा, “तो यह परेशानी है पिहू को… इसे तो मैं भी दूर कर सकता था।” वह करण की तरह जेंटलमैन नहीं था।
‘नहीं, यह परेशानी नहीं है !’ हीना ने आगे बढ़कर टोका।
“तो फिर?”
“इसके अन्दर केला फँस गया है। देखते नहीं?”
करण मेरे नीचे दुबका था। मेरे दोनों पाँव सहारे के लिए करण की जांघों के दोनों तरफ बिस्तर पर जमे थे। टांगें समेटते ही गिर जाती। पियूष बिना संकोच के कुछ देर वहाँ पर देखा। फिर उसने नजर उठाकर मुझे, फिर पिहू को देखा। हम दोनों के मुँह पर केला लगा हुआ था। मुझे लग गया कि वह समझ गया है। व्यंग्य भरी हँसी से बोला, “तो केले का भोज चल रहा है!!” उंगली बढ़ाकर उसने मेरे मुँह पर लगे केले को पोछा और मेरी योनि की ओर इशारा करके बोला, “इसमें पककर तो और स्वादिष्ट हो गया होगा?”
हममें से कौन भला क्या कहता?
“मुझे भी खिलाओ।” वह हमारे हवाइयाँ उड़ते चेहरे का मजा ले रहा था।
“नहीं खिलाना चाहते? ठीक है, मैं चला जाता हूँ।”
रक्त शरीर से उठकर मेरे माथे में चला आया। बाहर जाकर यह बात फैला देगा। पता नही मैंने क्या कहा या किया कि हीना ने पियूष को पकड़कर रोक लिया। वह बिस्तर पर चढ़ी, मेरे पैरों को फैलाकर मेरी योनि में मुँह लगाकर चूसकर एक टुकड़ा काट ली। पियूष ने उसे टोका, ‘मुँह में ही रखो, मैं वहीं से खाऊँगा।’ उसने हीना का चेहरा अपनी ओर घुमा लिया।
दोनों के मुँह जुड़ गए।
यह सब क्या हो रहा था? मेरी आंखों के सामने दोनों एक-दूसरे के चेहरे को पकड़कर चूम चूस रहे थे। हीना उसे खिला रही थी, वह खा रहा था।
पियूष मुँह अलग कर बोला, “आहाहा, क्या स्वाद है। दिव्य, सोमरस में डूबा, आहाहा, आहाहा… दो दो जगहों का।” फिर मुँह जोड़ दिया।
दो दो जगहों का? हाँ, मेरी योनि और हीना के मुख का। सोमरस। मेरी योनि की मुसाई गंध के सिवा उसमें हीना के मुँह की ताजी गंध भी होगी। कैसा स्वाद होगा? छि: ! मैंने अपनी बेशर्मी के लिए खुद को डाँटा।
“अब मुझे सीधे प्याले से ही खाने दो।”
हीना हट गई। पियूष उसकी जगह आ गया। मैंने न जाने कौन सेी हिम्मत जुटा ली थी। जब सब कुछ हो ही गया था तो अब लजाने के लिए क्या बाकी रहा था। मैंने उसे अपने मन की करने दिया। अंतिम छोटा-सा ही टुकड़ा अन्दर बचा था। अंतिम कौर।
“मेरे लिए भी रहने देना।” मेरे नीचे से करण ने आवाज लगाई। अब तक उसमें हिम्मत आ गई थी।
“तुम कैसे खाओगे? तुम तो फँसे हुए हो।” पियूष ने कहकहा लगाया, “फँसे नहीं, धँसे हुए…..”
हीना ने बड़े अभिभावक की तरह हस्तक्षेप किया, “पियूष, तुम करण की जगह लो। करण को फ्री करो।”
क्या ????
हैरानी से मेरा मुँह इतना बड़ा खुल गया। हीना यह क्या कर रही है?
पियूष ने झुककर मेरे खुले मुँह पर चुंबन लगाया, “अब शोर मत करो।”
उसने जल्दी से बेल्ट की बकल खोली, पैंट उतारी। चड़ढी सामने बुरी तरह उभरी तनी हुई थी। उभरी जगह पर गीला दाग।
वह मेरे देखने को देखता हुआ मुसकुराया, “अच्छी तरह देख लो।” उसने चड्डी नीचे सरका दी। “यह रहा, कैसा है?”
इस बार डर और आश्चर्य से मेरा मुँह खुला रह गया।
वह बिस्तर पर चढ़ गया और मेरे खुले मुँह के सामने ले आया,”लो, चखो।”
मैंने मुँह घुमाना चाहा पर उसने पकड़ लिया,”मैंने तुम्हारा वाला तो स्वाद लेकर खाया, तुम मेरा चखने से भी डरती हो?”
मेरी स्थिति विकट थी, क्या करूँ, लाचार मैंने हीना की ओर देखा, वह बोली, “चिंता न करो। गो अहेड, अभी सब नहाए धोए हैं।”
मुझे हिचकिचाते देखकर उसने मेरा माथा पकड़ा और उसके लिंग की ओर बढ़ा दिया।
पियूष का लिंग करण की अपेक्षा सख्त और मोटा था। उसके स्वभाव के अनुसार। मुँह में पहले स्पर्श में ही लिसलिसा नमकीन स्वाद भर गया। अधिक मात्रा में रिसा हुआ रस। मुझे वह अजीब तो नहीं लगा, क्योंकि करण के बाद यह स्वाद और गंध अजनबी नहीं रह गए थे लेकिन अपनी असहायता और दुर्गति पर बेहद क्षोभ हो रहा था। मोटा लिंग मुँह में भर गया था। पियूष उसे ढिठाई से मेरे गले के अन्दर ठेल रहा था। मुझे बार बार उबकाई आती। दम घुटने लगता। पर कमजोर नहीं दिखने की कोशिश में किए जा रही थी। हीना प्यार से मेरे माथे पर हाथ फेर रही थी लेकिन साथ-साथ मेरी विवशता का आनन्द भी ले रही थी। जब जब पियूष अन्दर ठेलता वह मेरे सिर को पीछे से रोककर सहारा देती। दोनों के चेहरे पर खुशी थी। हीना हँस रही थी। मैं समझ रही थी उसने मुझे फँसाया है।
अंतत: पियूष ने दया की। बाहर निकाला। आसन बदले जाने लगे। मुझे जिस तरह से तीनों किसी गुड़िया की तरह उठा उठाकर सेट करने लगे उससे मुझे बुरा लगा। मैंने विरोध करते हुए पियूष को गुदा के अन्दर लेने से मना कर दिया,”मार ही डालोगे क्या?”
मुझे करण की ही वजह से अन्दर काफी दुख रहा था। पियूष के से तो फट ही जाती। और मैं उस ढीठ को अन्दर लेकर पुरस्कृत भी नहीं करना चाहती थी।
केला इतनी देर में अन्दर ढीला भी हो गया था। जितना बचा था वह आसानी से करण के मुँह में खिंच गया। वह स्वाद लेकर केले को खा रहा था। उसके चेहरे पर बच्चे की सी प्रसन्नता थी।
उसने हीना की तरह मुझे फँसाया नहीं था, न ही पियूष की तरह ढीठ बनकर मुझे भोगने की कोशिश की थी। उसने तो बल्कि आफर भी किया था कि मैं नहीं चाहती हूँ तो वह चला जाएगा। पहली बार वह मुझे तीनों में भला लगा। योनि खाली हुई लेकिन सिर्फ थोड़ी देर के लिए। उसकी अगली परीक्षाएँ बाकी थीं। करण को दिया वादा दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहा था,‘जो इज्जत केले को मिली है वह मुझे भी मिले।’
समस्या की सिर्फ जड़ खत्म हुई थी, डालियाँ-पत्ते नहीं।
काश, यह सब सिर्फ एक दु:स्वप्न निकले। मां संतोषी !
लेकिन दु:स्वप्न किसी न समाप्त होने वाली हॉरर फिल्म की तरह चलता जा रहा था। मैं उसकी दर्शक नहीं, किरदार बनी सब कुछ भुगत रही थी। मेरी उत्तेजना की खुराक बढ़ाई जा रही थी। करण मेरी केले से खाली हुई योनि को पागल-सा चूम, चाट, चूस रहा था। उसकी दरार में जीभ घुसा-घुसाकर ढूँढ रहा था। गुदगुदी, सनसनाहट की सीटी कानों में फिर बजनी शुरू हो गई। होश कमजोर होने लगे।
क्या, क्यों, कैसे हो रहा है….. पता नहीं। नशे में मुंदती आँखों से मैंने देखा कि मेरी बाईं तरफ पियूष, दार्इं तरफ हीना लम्बे होकर लेट रहे हैं।
उन्होंने मेरे दोनों हाथों को अपने शरीरों के नीचे दबा लिया है और मेरे पैरों को अपने पैरों के अन्दर समेट लिया है। मेरे माथे के नीचे तकिया ठीक से सेट किया जा रहा है और ….. स्तनों पर उनके हाथों का खेल। वे उन्हें सहला, दबा, मसल रहे हैं, उन्हें अलग अलग आकृतियों में मिट्टी की तरह गूंध रहे हैं। चूचुकों को चुटकियों में पकड़कर मसल रहे हैं, उनकी नोकों में उंगलियाँ गड़ा रहे हैं।
दर्द होता है, नहीं दर्द नहीं, उससे ठीक पहले का सुख, नहीं सुख नहीं, दर्द। दर्द और सुख दोनों ही।
वे चूचुकों को ऐसे खींच रहे हैं मानों स्तनों से उखाड़ लेंगे। खिंचाव से दोनों स्तन उल्टे शंकु के आकार में तन जाते हैं। नीचे मेरी योनि शर्म से आँखें भींचे है। करण उसकी पलकों पर प्यार से ऊपर से नीचे जीभ से काजल लगा रहा है। उसकी पलकों को खोलकर अन्दर से रिसते आँसुओं को चूस चाट रहा है। पता नहीं उसे उसमें कौन-सा अद़भुत स्वाद मिल रहा है। मैं टांगें बंद करना चाहती हूँ लेकिन वे दोनों तरफ से दबी हैं।
विवश, असहाय। कोई रास्ता नहीं। इसलिए कोई दुविधा भी नहीं।
जो कुछ आ रहा है उसका सीधा सीधा बिना किसी बाधा के भोग कर रही हूँ। लाचार समर्पण। और मुझे एहसास होता है- इस निपट लाचारी, बेइज्जंती, नंगेपन, उत्तेजना, जबरदस्ती भोग के भीतर एक गाढ़ा स्वाद है, जिसको पाकर ही समझ में आता है।
शर्म और उत्तेजना के गहरे समुद्र में उतरकर ही देख पा रही हूँ आनन्दानुभव के चमकते मोती। चारों तरफ से आनन्द का दबाव। चूचुकों, योनि, भगनासा, गुदा का मुख, स्तनों का पूरा उभार, बगलें… सब तरफ से बाढ़ की लहरों पर लहरों की तरह उत्तेकजना का शोर।
पूरी देह ही मछली की तरह बिछल रही है। मैं आह आह कर कर रही हूँ वे उन आहों में मेरी छोड़ी जा रही सुगंधित साँस को अपनी साँस में खीच रहे हैं। मेरे खुलते बंद होते मुँह को चूम रहे हैं।
पियूष, हीना, करण…. चेहरे आँखों के सामने गड्डमड हो रहे हैं, वे चूस रहे हैं, चूम रहे हैं, सहला रहे हैं,… नाभि, पेट,, नितंब, कमर, बांहें, गाल, सभी… एक साथ..। प्यार? वह तो कोई दूसरी चीज है- दो व्यक्तियों का बंधन, प्रतिबद्धता। यह तो शुद्ध सुख है, स्वतंत्र, चरम, अपने आप में पूरा। कोई खोने का डर नहीं, कोई पाने का लालच नहीं। शुद्ध शारीरिक, प्राकृतिक, ईश्वर के रचे शरीर का सबसे सुंदर उपहार।
ह: ह: ह: तीनों की हँसी गूंजती है। वे आनन्दमग्न हैं। मेरा पेट पर्दे की तरह ऊपर नीचे हो रहा है, कंठ से मेरी ही अनपहचानी आवाजें निकल रही हैं।
मैं आँखें खोलती हूँ, सीधी योनि पर नजर पड़ती है और उठकर करण के चेहरे पर चली जाती है, जो उसे दीवाने सा सहला, पुचकार रहा है। उससे नजर मिलती है और झुक जाती है। आश्चर्य है इस अवस्था में भी मुझे शर्म आती है।
वह झुककर मेरी पलकों को चूमता है। हीना हँसती है। पियूष, वह बेशर्म, कठोर मेरी बाईं चुचूक में दाँत काट लेता है। दर्द से भरकर मैं उठना चाहती हूँ। पर उनके भार से दबी हूँ। हीना मेरे होंठ चूस रही है।
करण कह रहा है,”अब मैं वह इज्जत लेने जा रहा हूँ जो तुमने केले को दी।”
मैं उसके चेहरे को देखती हूँ, एक अबोध की तरह, जैसे वह क्या करने वाला है मुझे नहीं मालूम।
हीना मुझे चिकोटी काटती है,”डार्लिंग, तैयार हो जाओ, इज्जत देने के लिए। तुम्हारा पहला अनुभव। प्रथम संभोग, हर लड़की का संजोया सपना।”
करण अपना लिंग मेरी योनि पर लगाता है, होंठों के बीच धँसाकर ऊपर नीचे रगड़ता है।
हीना अधीर है,”अब और कितनी तैयारी करोगे? लाओ मुझे दो।”
उठकर करण के लिंग को खींचकर अपने मुँह में ले लेती है।
मैं ऐसी जगह पहुँच गई हूँ जहाँ उसे यह करते देखकर गुस्सा भी नही आ रहा।
हीना कुछ देर तक लिंग को चूसकर पूछती है,”अब तैयार हो ना? करो !”
पियूष बेसब्र होकर होकर करण को कहता है,”तुम हटो, मैं करके दिखाता हूँ।”
मैं अपनी बाँह से पकड़कर उसे रोकती हूँ। वह मुझे थोड़ा आश्चर्य से देखता है।
हीना झुककर मेरे योनि के होंठों को खोलती है। पियूष मेरा बायाँ पैर अपनी तरफ खींचकर दबा देता है, ताकि विरोध न कर सकूँ।
मैं विरोध करूंगी भी नहीं, अब विरोध में क्या रखा है, मैं अब परिणाम चाहती हूँ।
करण छेद के मुँह पर लिंग टिकाता है, दबाव देता है। मैं साँस रोक लेती हूँ, मेरी नजर उसी बिन्दु पर टिकी है। केले से दुगुना मोटा और लम्बा।
छेद के मुँह पर पहली खिंचाव से दर्द होता है, मैं उसे महत्व नहीं देती।
करण फिर से ठेलता है, थोड़ा और दर्द। वह समझ जाता है मुझे तोड़ने में श्रम करना होगा।
हीना को अंदाजा हो रहा है, वह उसका चेहरा देख रही है। वह उसे हमेशा पियूष की अपेक्षा अधिक तरजीह देती है। मुझे यह बात अच्छी लगती है। पियूष जबर्दस्ती घुस आया है।
हीना पूछती है,”वैसलीन लाऊँ?” पर इसकी जरूरत नहीं, चूमने चाटने से पहले से ही काफी गीली है।
करण बोलता है,”इसको ठीक से पकड़ो।”
दोनों मुझे कसकर पकड़ लेते हैं। करण, एक भद्रपुरुष अब एक जानवर की तरह जोर लगाता है, मेरे अन्दर लकड़ी-सी घुसती है, चीख निकल जाती है मेरी।
मैं हटाने के लिए जोर लगाती हूँ, पर बेबस।
करण बाहर निकालता है, लेकिन थोड़ा ही। लिंग का लाल डरावना माथा अन्दर ही है। मेरा पेट जोर जोर से ऊपर नीचे हो रहा है।
मेरी सिसकियाँ सुनकर हीना दिलासा दे रही है,”बस पहली बार ही…… ”
पियूष- असभ्य जानवर क्रूर खुशी से हँस रहा है, कहता है,”बस, अबकी बार इसे फाड़ दे।”
हीना उसे डाँटती है।
ललकार सुनकर करण की आँखों में खून उतर आया है।
मुझे मर्दों से डर लगता है, कितने भी सभ्य हों, कब वहशी बन जाएँ, ठिकाना नहीं।
हीना करण को टोकती है,”धीरे से !”
मगर करण के मुँह से ‘हुम्म’ की-सी आवाज निकलती है और एक भीषण वार होता है।
मेरी आँखों के आगे तारे नाच जाते हैं, पियूष और हीना मुँह बंद कर मेरी चीख दबा देते हैं।
कुछ देर के लिए चेतना लुप्त हो जाती है…
‘नहीं, यह परेशानी नहीं है !’ हीना ने आगे बढ़कर टोका।
“तो फिर?”
“इसके अन्दर केला फँस गया है। देखते नहीं?”
करण मेरे नीचे दुबका था। मेरे दोनों पाँव सहारे के लिए करण की जांघों के दोनों तरफ बिस्तर पर जमे थे। टांगें समेटते ही गिर जाती। पियूष बिना संकोच के कुछ देर वहाँ पर देखा। फिर उसने नजर उठाकर मुझे, फिर पिहू को देखा। हम दोनों के मुँह पर केला लगा हुआ था। मुझे लग गया कि वह समझ गया है। व्यंग्य भरी हँसी से बोला, “तो केले का भोज चल रहा है!!” उंगली बढ़ाकर उसने मेरे मुँह पर लगे केले को पोछा और मेरी योनि की ओर इशारा करके बोला, “इसमें पककर तो और स्वादिष्ट हो गया होगा?”
हममें से कौन भला क्या कहता?
“मुझे भी खिलाओ।” वह हमारे हवाइयाँ उड़ते चेहरे का मजा ले रहा था।
“नहीं खिलाना चाहते? ठीक है, मैं चला जाता हूँ।”
रक्त शरीर से उठकर मेरे माथे में चला आया। बाहर जाकर यह बात फैला देगा। पता नही मैंने क्या कहा या किया कि हीना ने पियूष को पकड़कर रोक लिया। वह बिस्तर पर चढ़ी, मेरे पैरों को फैलाकर मेरी योनि में मुँह लगाकर चूसकर एक टुकड़ा काट ली। पियूष ने उसे टोका, ‘मुँह में ही रखो, मैं वहीं से खाऊँगा।’ उसने हीना का चेहरा अपनी ओर घुमा लिया।
दोनों के मुँह जुड़ गए।
यह सब क्या हो रहा था? मेरी आंखों के सामने दोनों एक-दूसरे के चेहरे को पकड़कर चूम चूस रहे थे। हीना उसे खिला रही थी, वह खा रहा था।
पियूष मुँह अलग कर बोला, “आहाहा, क्या स्वाद है। दिव्य, सोमरस में डूबा, आहाहा, आहाहा… दो दो जगहों का।” फिर मुँह जोड़ दिया।
दो दो जगहों का? हाँ, मेरी योनि और हीना के मुख का। सोमरस। मेरी योनि की मुसाई गंध के सिवा उसमें हीना के मुँह की ताजी गंध भी होगी। कैसा स्वाद होगा? छि: ! मैंने अपनी बेशर्मी के लिए खुद को डाँटा।
“अब मुझे सीधे प्याले से ही खाने दो।”
हीना हट गई। पियूष उसकी जगह आ गया। मैंने न जाने कौन सेी हिम्मत जुटा ली थी। जब सब कुछ हो ही गया था तो अब लजाने के लिए क्या बाकी रहा था। मैंने उसे अपने मन की करने दिया। अंतिम छोटा-सा ही टुकड़ा अन्दर बचा था। अंतिम कौर।
“मेरे लिए भी रहने देना।” मेरे नीचे से करण ने आवाज लगाई। अब तक उसमें हिम्मत आ गई थी।
“तुम कैसे खाओगे? तुम तो फँसे हुए हो।” पियूष ने कहकहा लगाया, “फँसे नहीं, धँसे हुए…..”
हीना ने बड़े अभिभावक की तरह हस्तक्षेप किया, “पियूष, तुम करण की जगह लो। करण को फ्री करो।”
क्या ????
हैरानी से मेरा मुँह इतना बड़ा खुल गया। हीना यह क्या कर रही है?
पियूष ने झुककर मेरे खुले मुँह पर चुंबन लगाया, “अब शोर मत करो।”
उसने जल्दी से बेल्ट की बकल खोली, पैंट उतारी। चड़ढी सामने बुरी तरह उभरी तनी हुई थी। उभरी जगह पर गीला दाग।
वह मेरे देखने को देखता हुआ मुसकुराया, “अच्छी तरह देख लो।” उसने चड्डी नीचे सरका दी। “यह रहा, कैसा है?”
इस बार डर और आश्चर्य से मेरा मुँह खुला रह गया।
वह बिस्तर पर चढ़ गया और मेरे खुले मुँह के सामने ले आया,”लो, चखो।”
मैंने मुँह घुमाना चाहा पर उसने पकड़ लिया,”मैंने तुम्हारा वाला तो स्वाद लेकर खाया, तुम मेरा चखने से भी डरती हो?”
मेरी स्थिति विकट थी, क्या करूँ, लाचार मैंने हीना की ओर देखा, वह बोली, “चिंता न करो। गो अहेड, अभी सब नहाए धोए हैं।”
मुझे हिचकिचाते देखकर उसने मेरा माथा पकड़ा और उसके लिंग की ओर बढ़ा दिया।
पियूष का लिंग करण की अपेक्षा सख्त और मोटा था। उसके स्वभाव के अनुसार। मुँह में पहले स्पर्श में ही लिसलिसा नमकीन स्वाद भर गया। अधिक मात्रा में रिसा हुआ रस। मुझे वह अजीब तो नहीं लगा, क्योंकि करण के बाद यह स्वाद और गंध अजनबी नहीं रह गए थे लेकिन अपनी असहायता और दुर्गति पर बेहद क्षोभ हो रहा था। मोटा लिंग मुँह में भर गया था। पियूष उसे ढिठाई से मेरे गले के अन्दर ठेल रहा था। मुझे बार बार उबकाई आती। दम घुटने लगता। पर कमजोर नहीं दिखने की कोशिश में किए जा रही थी। हीना प्यार से मेरे माथे पर हाथ फेर रही थी लेकिन साथ-साथ मेरी विवशता का आनन्द भी ले रही थी। जब जब पियूष अन्दर ठेलता वह मेरे सिर को पीछे से रोककर सहारा देती। दोनों के चेहरे पर खुशी थी। हीना हँस रही थी। मैं समझ रही थी उसने मुझे फँसाया है।
अंतत: पियूष ने दया की। बाहर निकाला। आसन बदले जाने लगे। मुझे जिस तरह से तीनों किसी गुड़िया की तरह उठा उठाकर सेट करने लगे उससे मुझे बुरा लगा। मैंने विरोध करते हुए पियूष को गुदा के अन्दर लेने से मना कर दिया,”मार ही डालोगे क्या?”
मुझे करण की ही वजह से अन्दर काफी दुख रहा था। पियूष के से तो फट ही जाती। और मैं उस ढीठ को अन्दर लेकर पुरस्कृत भी नहीं करना चाहती थी।
केला इतनी देर में अन्दर ढीला भी हो गया था। जितना बचा था वह आसानी से करण के मुँह में खिंच गया। वह स्वाद लेकर केले को खा रहा था। उसके चेहरे पर बच्चे की सी प्रसन्नता थी।
उसने हीना की तरह मुझे फँसाया नहीं था, न ही पियूष की तरह ढीठ बनकर मुझे भोगने की कोशिश की थी। उसने तो बल्कि आफर भी किया था कि मैं नहीं चाहती हूँ तो वह चला जाएगा। पहली बार वह मुझे तीनों में भला लगा। योनि खाली हुई लेकिन सिर्फ थोड़ी देर के लिए। उसकी अगली परीक्षाएँ बाकी थीं। करण को दिया वादा दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहा था,‘जो इज्जत केले को मिली है वह मुझे भी मिले।’
समस्या की सिर्फ जड़ खत्म हुई थी, डालियाँ-पत्ते नहीं।
काश, यह सब सिर्फ एक दु:स्वप्न निकले। मां संतोषी !
लेकिन दु:स्वप्न किसी न समाप्त होने वाली हॉरर फिल्म की तरह चलता जा रहा था। मैं उसकी दर्शक नहीं, किरदार बनी सब कुछ भुगत रही थी। मेरी उत्तेजना की खुराक बढ़ाई जा रही थी। करण मेरी केले से खाली हुई योनि को पागल-सा चूम, चाट, चूस रहा था। उसकी दरार में जीभ घुसा-घुसाकर ढूँढ रहा था। गुदगुदी, सनसनाहट की सीटी कानों में फिर बजनी शुरू हो गई। होश कमजोर होने लगे।
क्या, क्यों, कैसे हो रहा है….. पता नहीं। नशे में मुंदती आँखों से मैंने देखा कि मेरी बाईं तरफ पियूष, दार्इं तरफ हीना लम्बे होकर लेट रहे हैं।
उन्होंने मेरे दोनों हाथों को अपने शरीरों के नीचे दबा लिया है और मेरे पैरों को अपने पैरों के अन्दर समेट लिया है। मेरे माथे के नीचे तकिया ठीक से सेट किया जा रहा है और ….. स्तनों पर उनके हाथों का खेल। वे उन्हें सहला, दबा, मसल रहे हैं, उन्हें अलग अलग आकृतियों में मिट्टी की तरह गूंध रहे हैं। चूचुकों को चुटकियों में पकड़कर मसल रहे हैं, उनकी नोकों में उंगलियाँ गड़ा रहे हैं।
दर्द होता है, नहीं दर्द नहीं, उससे ठीक पहले का सुख, नहीं सुख नहीं, दर्द। दर्द और सुख दोनों ही।
वे चूचुकों को ऐसे खींच रहे हैं मानों स्तनों से उखाड़ लेंगे। खिंचाव से दोनों स्तन उल्टे शंकु के आकार में तन जाते हैं। नीचे मेरी योनि शर्म से आँखें भींचे है। करण उसकी पलकों पर प्यार से ऊपर से नीचे जीभ से काजल लगा रहा है। उसकी पलकों को खोलकर अन्दर से रिसते आँसुओं को चूस चाट रहा है। पता नहीं उसे उसमें कौन-सा अद़भुत स्वाद मिल रहा है। मैं टांगें बंद करना चाहती हूँ लेकिन वे दोनों तरफ से दबी हैं।
विवश, असहाय। कोई रास्ता नहीं। इसलिए कोई दुविधा भी नहीं।
जो कुछ आ रहा है उसका सीधा सीधा बिना किसी बाधा के भोग कर रही हूँ। लाचार समर्पण। और मुझे एहसास होता है- इस निपट लाचारी, बेइज्जंती, नंगेपन, उत्तेजना, जबरदस्ती भोग के भीतर एक गाढ़ा स्वाद है, जिसको पाकर ही समझ में आता है।
शर्म और उत्तेजना के गहरे समुद्र में उतरकर ही देख पा रही हूँ आनन्दानुभव के चमकते मोती। चारों तरफ से आनन्द का दबाव। चूचुकों, योनि, भगनासा, गुदा का मुख, स्तनों का पूरा उभार, बगलें… सब तरफ से बाढ़ की लहरों पर लहरों की तरह उत्तेकजना का शोर।
पूरी देह ही मछली की तरह बिछल रही है। मैं आह आह कर कर रही हूँ वे उन आहों में मेरी छोड़ी जा रही सुगंधित साँस को अपनी साँस में खीच रहे हैं। मेरे खुलते बंद होते मुँह को चूम रहे हैं।
पियूष, हीना, करण…. चेहरे आँखों के सामने गड्डमड हो रहे हैं, वे चूस रहे हैं, चूम रहे हैं, सहला रहे हैं,… नाभि, पेट,, नितंब, कमर, बांहें, गाल, सभी… एक साथ..। प्यार? वह तो कोई दूसरी चीज है- दो व्यक्तियों का बंधन, प्रतिबद्धता। यह तो शुद्ध सुख है, स्वतंत्र, चरम, अपने आप में पूरा। कोई खोने का डर नहीं, कोई पाने का लालच नहीं। शुद्ध शारीरिक, प्राकृतिक, ईश्वर के रचे शरीर का सबसे सुंदर उपहार।
ह: ह: ह: तीनों की हँसी गूंजती है। वे आनन्दमग्न हैं। मेरा पेट पर्दे की तरह ऊपर नीचे हो रहा है, कंठ से मेरी ही अनपहचानी आवाजें निकल रही हैं।
मैं आँखें खोलती हूँ, सीधी योनि पर नजर पड़ती है और उठकर करण के चेहरे पर चली जाती है, जो उसे दीवाने सा सहला, पुचकार रहा है। उससे नजर मिलती है और झुक जाती है। आश्चर्य है इस अवस्था में भी मुझे शर्म आती है।
वह झुककर मेरी पलकों को चूमता है। हीना हँसती है। पियूष, वह बेशर्म, कठोर मेरी बाईं चुचूक में दाँत काट लेता है। दर्द से भरकर मैं उठना चाहती हूँ। पर उनके भार से दबी हूँ। हीना मेरे होंठ चूस रही है।
करण कह रहा है,”अब मैं वह इज्जत लेने जा रहा हूँ जो तुमने केले को दी।”
मैं उसके चेहरे को देखती हूँ, एक अबोध की तरह, जैसे वह क्या करने वाला है मुझे नहीं मालूम।
हीना मुझे चिकोटी काटती है,”डार्लिंग, तैयार हो जाओ, इज्जत देने के लिए। तुम्हारा पहला अनुभव। प्रथम संभोग, हर लड़की का संजोया सपना।”
करण अपना लिंग मेरी योनि पर लगाता है, होंठों के बीच धँसाकर ऊपर नीचे रगड़ता है।
हीना अधीर है,”अब और कितनी तैयारी करोगे? लाओ मुझे दो।”
उठकर करण के लिंग को खींचकर अपने मुँह में ले लेती है।
मैं ऐसी जगह पहुँच गई हूँ जहाँ उसे यह करते देखकर गुस्सा भी नही आ रहा।
हीना कुछ देर तक लिंग को चूसकर पूछती है,”अब तैयार हो ना? करो !”
पियूष बेसब्र होकर होकर करण को कहता है,”तुम हटो, मैं करके दिखाता हूँ।”
मैं अपनी बाँह से पकड़कर उसे रोकती हूँ। वह मुझे थोड़ा आश्चर्य से देखता है।
हीना झुककर मेरे योनि के होंठों को खोलती है। पियूष मेरा बायाँ पैर अपनी तरफ खींचकर दबा देता है, ताकि विरोध न कर सकूँ।
मैं विरोध करूंगी भी नहीं, अब विरोध में क्या रखा है, मैं अब परिणाम चाहती हूँ।
करण छेद के मुँह पर लिंग टिकाता है, दबाव देता है। मैं साँस रोक लेती हूँ, मेरी नजर उसी बिन्दु पर टिकी है। केले से दुगुना मोटा और लम्बा।
छेद के मुँह पर पहली खिंचाव से दर्द होता है, मैं उसे महत्व नहीं देती।
करण फिर से ठेलता है, थोड़ा और दर्द। वह समझ जाता है मुझे तोड़ने में श्रम करना होगा।
हीना को अंदाजा हो रहा है, वह उसका चेहरा देख रही है। वह उसे हमेशा पियूष की अपेक्षा अधिक तरजीह देती है। मुझे यह बात अच्छी लगती है। पियूष जबर्दस्ती घुस आया है।
हीना पूछती है,”वैसलीन लाऊँ?” पर इसकी जरूरत नहीं, चूमने चाटने से पहले से ही काफी गीली है।
करण बोलता है,”इसको ठीक से पकड़ो।”
दोनों मुझे कसकर पकड़ लेते हैं। करण, एक भद्रपुरुष अब एक जानवर की तरह जोर लगाता है, मेरे अन्दर लकड़ी-सी घुसती है, चीख निकल जाती है मेरी।
मैं हटाने के लिए जोर लगाती हूँ, पर बेबस।
करण बाहर निकालता है, लेकिन थोड़ा ही। लिंग का लाल डरावना माथा अन्दर ही है। मेरा पेट जोर जोर से ऊपर नीचे हो रहा है।
मेरी सिसकियाँ सुनकर हीना दिलासा दे रही है,”बस पहली बार ही…… ”
पियूष- असभ्य जानवर क्रूर खुशी से हँस रहा है, कहता है,”बस, अबकी बार इसे फाड़ दे।”
हीना उसे डाँटती है।
ललकार सुनकर करण की आँखों में खून उतर आया है।
मुझे मर्दों से डर लगता है, कितने भी सभ्य हों, कब वहशी बन जाएँ, ठिकाना नहीं।
हीना करण को टोकती है,”धीरे से !”
मगर करण के मुँह से ‘हुम्म’ की-सी आवाज निकलती है और एक भीषण वार होता है।
मेरी आँखों के आगे तारे नाच जाते हैं, पियूष और हीना मुँह बंद कर मेरी चीख दबा देते हैं।
कुछ देर के लिए चेतना लुप्त हो जाती है…