desiaks
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शराब मेरे दिमाग को घुमा जरूर रही थी, परन्तु इतना नशे में न था कि बहकने लगूं या कदम लड़खड़ाने लगें।
बस से कनॉट प्लेस पहुंचा।
स्टॉप से पैदल ही उस कोठी की तरफ जिसे देखकर मेरे दिल पर सांप लोटा करते थे—यूं कोठियां तो बहुत थीं, उससे भी सुन्दर, मगर मेरी डाह का केन्द्र 'सुरेश की कोठी' थी।
वह, जिसने कनॉट प्लेस जैसे महंगे इलाके के दो हजार गज भूखण्ड को घेर रखा था—चारदीवारी के अंदर, चारों ओर फैले लॉन से घिरी तीन-मंजिली इमारत 'ताजमहल' की डमी-सी मालूम पड़ती थी।
मैं लोहे वाले गेट पर पहुंचा।
गेट पर जाना-पहचाना दरबान खड़ा था—वर्दीधारी दरबान के कंधे पर लटकी बन्दूक, कमर पर बंधी गोलियों वाली चौड़ी बैल्ट, ऊंचा कद, स्वस्थ शरीर, चौड़ा रौबदार चेहरा और बड़ी-बड़ी और सुर्ख आंखों में जो भाव उभरते, वे हमेशा जहर बुझे नश्तर की तरह मेरे जिगर की जड़ों तक को जख्मी करते रहे हैं।हमेशा ग्लानि हुई है मुझे।
और।
ऐसा वह अकेला व्यक्ति नहीं है जिसकी आंखों में मुझे देखते ही नफरत और हिकारत के चिन्ह उभर आते हैं, बल्कि अनेक व्यक्ति हैं।
सुरेश का हर नौकर।
हां, मैं उन्हें नौकर ही कहूंगा।
मुझ पर नजर पड़ते ही उसके ऑफिस के हर कर्मचारी, वाटर ब्वॉय से जनरल मैनेजर तक के चेहरे पर एक ही भाव उभरता है—ऐसा भाव जैसे किसी आवारा कुत्ते को दुत्कारने जा रहा हो।
सुरेश की पत्नी भी मुझे कुछ ऐसे ही अंदाज में देखती है।
वे नजरें, वह अंदाज मेरे दिल को जर्रे-जर्रे कर डालता है—सहन नहीं होता वह सब कुछ, मगर फिर भी वहां पहुंचा।
लोहे वाले गेट के इस तरफ ठिठका।
उस तरफ खड़े दरबान ने सदाबहार अंदाज में मुझे देखा, चेहरे पर ऐसे भाव उत्पन्न हुए जैसे मेरे जिस्म से निकलने वाली बदबू ने उसके नथुनों को सड़ाकर रख दिया हो, अक्खड़ अंदाज में बोला वह—"क्या बात है?"
"सुरेश है?" मैंने अपने लिए उसके चेहरे पर मौजूद हिकारत के भावों को नजरअन्दाज करने की असफल चेष्टा के साथ पूछा।
"हां हैं.....मगर इस वक्त साहब बिजी हैं।"
"मैं उनसे मिलना चाहता हूं।"
वह मुझे इस तरह घूरता रह गया जैसे कच्चा चबा जाना चाहता हो। कुछ देर उन्हीं नजरों से घूरता रहा, फिर दुत्कारने के-से अन्दाज में बोला— "अच्छा, मैं कह देता हूं, तू यहीं ठहर।"
पलटकर वह चला गया।
करीब पांच मिनट बाद लौटा।
नजदीक पहुंचकर गेट खोलता हुआ बोला— "जाओ।"
मेरे दिलो-दिमाग से जैसे कोई बोझ उतरा।
कोठी की चारदीवारी में कदम रखा।
दरबान उपेक्षित भाव से बोला— "ड्राइंगरूम में बैठना, साहब तुमसे वहीं मिलेंगे।"
बिना जवाब दिए मैं यूं आगे बढ़ गया जैसे उसके शब्द सुने ही न हों।
खूबसूरती से सजे ड्राइंगरूम में मौजूद एक-से-एक कीमती वस्तु को मैं उन्हीं नजरों से देखने लगा जिनसे पहले भी अनेक बार देख चुका था।
मुझे खुद याद नहीं कि वहां कितनी बार जा चुका हूं?
मगर।
मौजूदा चीजों को देखने से कभी नहीं थका—हां, दिलो-दिमाग अंगारों पर जरूर लोटा है—सारी जिन्दगी डाह से सुलगता रहा हूं मैं।
कम-से-कम पच्चीस हजार के कालीन को अपनी हवाई चप्पलों से गन्दा करता हुआ करीब दस हजार के सोफे पर कुछ ऐसे भाव जेहन में लिए 'धम्म' से गिरा कि वह टूट जाए।
परन्तु।
डनलप की गद्दियां मुझे झुलाकर रह गईं।
जेब से माचिस और बीड़ी का बण्डल निकालकर एक बीड़ी सुलगाई, हालांकि तीली विशाल सेन्टर टेबल के बीचों-बीच रखी सुनहरी ऐश ट्रे में डाल सकता था मगर नहीं, तीली मैंने लापरवाही से कालीन पर डाल दी।
¶¶,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
सुरेश ने ड्राइंगरूम में कदम रखा।
मैं खड़ा हो गया।
डाह की एक तीव्र लहर मेरे समूचे अस्तित्व में घुमड़ती चली गई—वह 'मैं' ही था—शक्ल-सूरत, कद-काठी और स्वास्थ से 'मैं' ही।
मगर नहीं।
'वह' मैं नहीं था।
वह सुरेश था, मैं मुकेश हूं।
उसके पास जिस्म भले ही मुझ जैसा था, उस पर मौजूद कपड़े मेरे कपड़ों के ठीक विपरीत—'फर' का बना काला कोट पहने था वह, गले में 'सुर्ख नॉट'—अत्यन्त महंगे कपड़े की सफेद पैन्ट और आइने की माफिक काले जूतों में वह सीधा आकाश से उतरा फरिश्ता-सा लग रहा था।
और मैं।
आवारा कुत्ता-सा।
हम एक-दूसरे के हमशक्ल थे—एक ही सूरत, एक ही जिस्म और एक जैसा ही स्वास्थ्य होने के बावजूद हममें गगन के तारे और कीचड़ में पड़े कंकड़ जितना फर्क था।
दोनों के पास एक ही चेहरा था, एक ही रंग।
मगर फिर भी, मेरी गर्दन से जुड़ा चेहरा सूखा और निस्तेज नजर आता था, सुरेश की गर्दन से जुड़े चेहरे पर चमक थी, प्रकाश-रश्मियां-सी फूटती मालूम पड़ती थीं उसमें।
यह फर्क पैसे का था।
पैसे के पीछे था—नसीब।
मेरा दुश्मन।
"बैठो भइया।" सुरेश ने हमेशा की तरह आदर देने के अंदाज में कहा, जबकि मैं जानता था कि वह आदर देने का सिर्फ नाटक करता है, उसके दिल में मेरे लिए कोई कद्र नहीं है।
मैं बैठ गया।
आगे बढ़ते हुए उसने जेब से ट्रिपल फाइव का पैकेट निकालकर सोने के लाइटर से सिगरेट सुलगाई—मैंने अपनी उंगलियों के बीच दबी बीड़ी का सिरा कुछ ऐसे अंदाज में, मेज पर रखी ऐशट्रे में कुचला जैसे वह मेरे नसीब का सिर हो, बोला— "मुझे तुमसे कुछ बातें करनी हैं सुरेश।"
"कहिए।" उसने पुनः सम्मान दर्शाया।
उसके इस अभिनय पर मैं तिलमिलाकर रह जाता। कसमसा उठता, मगर कुछ कह न पाता.....जी चाहता कि चीख पड़ूं, चीख-चीखकर कहूं कि मुझे बड़ा भाई मानने का ये नाटक बन्द कर सुरेश, परन्तु हमेशा की तरह आज भी इस सम्बन्ध में कुछ न कह सका।
मुझे चुप देखकर उसने पूछा—"क्या सोचने लगे मिक्की भइया?"
"मैं यह जानना चाहता हूं कि तुमने मेरी जमानत क्यों कराई?"
"क्या मैंने कोई ऐसा काम किया है, जो नहीं करना चाहिए था?"
"हां?"
दांत भिंच गए, वह अजीब-से आवेश में बोला—"मैं अनेक केसों में आपकी जमानत कराता रहा हूं—पहले तो आपने कभी कोई आपत्ति नहीं उठाई।"
मेरा तन-बदन सुलग उठा, मुंह से गुर्राहट निकली—"क्योंकि पहले तुम्हारे दिमाग पर मुझे सुधारने का भूत सवार नहीं था।"
"ओह! आप शायद पिछली मुलाकात का बुरा मान गए हैं—आपने दो हजार रुपये मांगे थे और मैंने इंकार कर दिया था।"
मेरे होंठों पर स्वतः जहरीली मुस्कराहट उभर आई, बोला— "उसमें बुरा मानने जैसी क्या बात थी, मदद करो या न करो.....यह तुम्हारी मर्जी पर है।"
"ऐसा न कहिए, भइया।"
"क्यों न कहूं.....क्या मैंने कुछ गलत कहा है?" मुंह से जहर में बुझे व्यंग्यात्मक शब्द निकलते चले गए—"हमारी शक्लें जरूर एक हैं, हमारे मां-बाप भले ही एक थे मगर नसीब एक-दूसरे से बहुत अलग हैं.....हमारे पैदा होने में सिर्फ दो मिनट का फर्क है और उन दो मिनटों में ही नक्षत्र साले इतने बदल गए कि आज तुम कहां हो है, मैं कहां—तुम कम-से-कम दस हजार रुपये वाला 'फर' का कोट पहनते हो—मैं पालिका बाजार से लेकर आठ रुपये की टी-शर्ट।"
"यह सब सोचकर मुझे भी दुख होता है भइया, मगर.....।"
"मगर—?"
"दो मिनट ही सही लेकिन आप मुझसे बड़े हैं और यदि सीना चीरना मेरे वश में होता तो दिखाता कि आपके लिए मेरे दिल में कितनी इज्जत है.....कितना सम्मान है।" सुरेश मानो भावुकता के भंवर में फंसता चला गया—"हमारे पिता सेठ जानकीनाथ के यहां मुनीम के घर जब एक साथ दो लड़कों का जन्म हुआ तो सेठजी ने उनमें से एक को गोद लेने की इच्छा जाहिर की।"
"और उन्होंने तुझे गोद ले लिया, मुझे नहीं—यह हम दोनों के नसीब का ही तो फर्क था वर्ना क्या फर्क था हममें, आज भी क्या फर्क है—सेठ ने अगर तेरी जगह मुझे गोद लिया होता तो आज मैं ट्रिपल फाइव पी रहा होता और तू बीड़ी।"
"म.....मगर इसमें मेरा क्या दोष है भइया, जब वह 'रस्म' हुई थी, तब हम दोनों इतने छोटे थे कि न तुम्हें यह मालूम था कि क्या हो रहा है, न मुझे—काश! मैं समझने लायक होता, अगर बोल सकता तो यही कहता मिक्की भइया कि मुझे नहीं, आपको गोद लिया जाए।"
मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई, बोला— "मैंने कब कहा कि तेरा दोष था—दोष तो मेरे नसीब का था, तू ऐसा नसीब लेकर आया कि मुनीम के यहां जन्म लेकर सेठ के यहां पला, उसका बेटा कहलाया—मैं उसी कीचड़ में फंसा रहा जहां पैदा हुआ था और, यह हम दोनों की परवरिश का ही फर्क है कि तुम, 'तुम' बन गए—मैं, 'मैं' रह गया।
"अगर मेरा कोई दोष नहीं तो आपकी ईर्ष्या, नफरत और डाह का शिकार क्यों होता हूं?
अगर मैं तेरी जगह होता तो तुझसे कभी वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा आज तू मुझसे करता है।"
"ऐसा क्या किया है मैंने?"
मैंने व्यंग्य कसा—"यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा?"
"आपके दिल में शायद वही, दो हजार के लिए इंकार कर देने वाली बात है?"
मैं चुप रहा।
"आपको वह तो याद रहा भइया जो मैंने नहीं किया, मगर वह सब भूल गए जो किया है?"
"हां, वह भी याद दिला दे—'ताने' नहीं मारे तो मदद देने का तूने फायदा क्या उठाया?"
"बात 'ताने' की नहीं मिक्की, सिद्धान्तों की है।" चहलकदमी-सी करता हुआ सुरेश कहता चला गया—"आज से सात साल पहले हमारी
मां मर गई, उसके दो साल बाद पिताजी भी चले गए—पिता की मृत्यु के बाद आपने मेरी कोई बात नहीं मानी—रोकने की लाख चेष्टाओं के बावजूद आप गलत सोहबत में पड़ते चले गए—आए दिन छोटे-मोटे जुर्म, गिरफ्तारी—चोरी, राहजनी और झगड़े आपकी जिन्दगी का हिस्सा बन गए—आपको जब भी, जितने भी पैसों की जरूरत पड़ी—मैंने कभी इंकार नहीं किया, हमेशा मदद की—मेरे ऐसा करने पर 'बाबूजी' नाराज होते थे, वे कहा करते थे कि अगर मैं आपकी यूं ही मदद करता रहा तो आप और ज्यादा जाहिल और नकारा होते चले जाएंगे।"
"और तुमने मुझे जाहिल, नकारा बना दिया?" मैं दांत भींचकर कह उठा।
बस से कनॉट प्लेस पहुंचा।
स्टॉप से पैदल ही उस कोठी की तरफ जिसे देखकर मेरे दिल पर सांप लोटा करते थे—यूं कोठियां तो बहुत थीं, उससे भी सुन्दर, मगर मेरी डाह का केन्द्र 'सुरेश की कोठी' थी।
वह, जिसने कनॉट प्लेस जैसे महंगे इलाके के दो हजार गज भूखण्ड को घेर रखा था—चारदीवारी के अंदर, चारों ओर फैले लॉन से घिरी तीन-मंजिली इमारत 'ताजमहल' की डमी-सी मालूम पड़ती थी।
मैं लोहे वाले गेट पर पहुंचा।
गेट पर जाना-पहचाना दरबान खड़ा था—वर्दीधारी दरबान के कंधे पर लटकी बन्दूक, कमर पर बंधी गोलियों वाली चौड़ी बैल्ट, ऊंचा कद, स्वस्थ शरीर, चौड़ा रौबदार चेहरा और बड़ी-बड़ी और सुर्ख आंखों में जो भाव उभरते, वे हमेशा जहर बुझे नश्तर की तरह मेरे जिगर की जड़ों तक को जख्मी करते रहे हैं।हमेशा ग्लानि हुई है मुझे।
और।
ऐसा वह अकेला व्यक्ति नहीं है जिसकी आंखों में मुझे देखते ही नफरत और हिकारत के चिन्ह उभर आते हैं, बल्कि अनेक व्यक्ति हैं।
सुरेश का हर नौकर।
हां, मैं उन्हें नौकर ही कहूंगा।
मुझ पर नजर पड़ते ही उसके ऑफिस के हर कर्मचारी, वाटर ब्वॉय से जनरल मैनेजर तक के चेहरे पर एक ही भाव उभरता है—ऐसा भाव जैसे किसी आवारा कुत्ते को दुत्कारने जा रहा हो।
सुरेश की पत्नी भी मुझे कुछ ऐसे ही अंदाज में देखती है।
वे नजरें, वह अंदाज मेरे दिल को जर्रे-जर्रे कर डालता है—सहन नहीं होता वह सब कुछ, मगर फिर भी वहां पहुंचा।
लोहे वाले गेट के इस तरफ ठिठका।
उस तरफ खड़े दरबान ने सदाबहार अंदाज में मुझे देखा, चेहरे पर ऐसे भाव उत्पन्न हुए जैसे मेरे जिस्म से निकलने वाली बदबू ने उसके नथुनों को सड़ाकर रख दिया हो, अक्खड़ अंदाज में बोला वह—"क्या बात है?"
"सुरेश है?" मैंने अपने लिए उसके चेहरे पर मौजूद हिकारत के भावों को नजरअन्दाज करने की असफल चेष्टा के साथ पूछा।
"हां हैं.....मगर इस वक्त साहब बिजी हैं।"
"मैं उनसे मिलना चाहता हूं।"
वह मुझे इस तरह घूरता रह गया जैसे कच्चा चबा जाना चाहता हो। कुछ देर उन्हीं नजरों से घूरता रहा, फिर दुत्कारने के-से अन्दाज में बोला— "अच्छा, मैं कह देता हूं, तू यहीं ठहर।"
पलटकर वह चला गया।
करीब पांच मिनट बाद लौटा।
नजदीक पहुंचकर गेट खोलता हुआ बोला— "जाओ।"
मेरे दिलो-दिमाग से जैसे कोई बोझ उतरा।
कोठी की चारदीवारी में कदम रखा।
दरबान उपेक्षित भाव से बोला— "ड्राइंगरूम में बैठना, साहब तुमसे वहीं मिलेंगे।"
बिना जवाब दिए मैं यूं आगे बढ़ गया जैसे उसके शब्द सुने ही न हों।
खूबसूरती से सजे ड्राइंगरूम में मौजूद एक-से-एक कीमती वस्तु को मैं उन्हीं नजरों से देखने लगा जिनसे पहले भी अनेक बार देख चुका था।
मुझे खुद याद नहीं कि वहां कितनी बार जा चुका हूं?
मगर।
मौजूदा चीजों को देखने से कभी नहीं थका—हां, दिलो-दिमाग अंगारों पर जरूर लोटा है—सारी जिन्दगी डाह से सुलगता रहा हूं मैं।
कम-से-कम पच्चीस हजार के कालीन को अपनी हवाई चप्पलों से गन्दा करता हुआ करीब दस हजार के सोफे पर कुछ ऐसे भाव जेहन में लिए 'धम्म' से गिरा कि वह टूट जाए।
परन्तु।
डनलप की गद्दियां मुझे झुलाकर रह गईं।
जेब से माचिस और बीड़ी का बण्डल निकालकर एक बीड़ी सुलगाई, हालांकि तीली विशाल सेन्टर टेबल के बीचों-बीच रखी सुनहरी ऐश ट्रे में डाल सकता था मगर नहीं, तीली मैंने लापरवाही से कालीन पर डाल दी।
¶¶,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
सुरेश ने ड्राइंगरूम में कदम रखा।
मैं खड़ा हो गया।
डाह की एक तीव्र लहर मेरे समूचे अस्तित्व में घुमड़ती चली गई—वह 'मैं' ही था—शक्ल-सूरत, कद-काठी और स्वास्थ से 'मैं' ही।
मगर नहीं।
'वह' मैं नहीं था।
वह सुरेश था, मैं मुकेश हूं।
उसके पास जिस्म भले ही मुझ जैसा था, उस पर मौजूद कपड़े मेरे कपड़ों के ठीक विपरीत—'फर' का बना काला कोट पहने था वह, गले में 'सुर्ख नॉट'—अत्यन्त महंगे कपड़े की सफेद पैन्ट और आइने की माफिक काले जूतों में वह सीधा आकाश से उतरा फरिश्ता-सा लग रहा था।
और मैं।
आवारा कुत्ता-सा।
हम एक-दूसरे के हमशक्ल थे—एक ही सूरत, एक ही जिस्म और एक जैसा ही स्वास्थ्य होने के बावजूद हममें गगन के तारे और कीचड़ में पड़े कंकड़ जितना फर्क था।
दोनों के पास एक ही चेहरा था, एक ही रंग।
मगर फिर भी, मेरी गर्दन से जुड़ा चेहरा सूखा और निस्तेज नजर आता था, सुरेश की गर्दन से जुड़े चेहरे पर चमक थी, प्रकाश-रश्मियां-सी फूटती मालूम पड़ती थीं उसमें।
यह फर्क पैसे का था।
पैसे के पीछे था—नसीब।
मेरा दुश्मन।
"बैठो भइया।" सुरेश ने हमेशा की तरह आदर देने के अंदाज में कहा, जबकि मैं जानता था कि वह आदर देने का सिर्फ नाटक करता है, उसके दिल में मेरे लिए कोई कद्र नहीं है।
मैं बैठ गया।
आगे बढ़ते हुए उसने जेब से ट्रिपल फाइव का पैकेट निकालकर सोने के लाइटर से सिगरेट सुलगाई—मैंने अपनी उंगलियों के बीच दबी बीड़ी का सिरा कुछ ऐसे अंदाज में, मेज पर रखी ऐशट्रे में कुचला जैसे वह मेरे नसीब का सिर हो, बोला— "मुझे तुमसे कुछ बातें करनी हैं सुरेश।"
"कहिए।" उसने पुनः सम्मान दर्शाया।
उसके इस अभिनय पर मैं तिलमिलाकर रह जाता। कसमसा उठता, मगर कुछ कह न पाता.....जी चाहता कि चीख पड़ूं, चीख-चीखकर कहूं कि मुझे बड़ा भाई मानने का ये नाटक बन्द कर सुरेश, परन्तु हमेशा की तरह आज भी इस सम्बन्ध में कुछ न कह सका।
मुझे चुप देखकर उसने पूछा—"क्या सोचने लगे मिक्की भइया?"
"मैं यह जानना चाहता हूं कि तुमने मेरी जमानत क्यों कराई?"
"क्या मैंने कोई ऐसा काम किया है, जो नहीं करना चाहिए था?"
"हां?"
दांत भिंच गए, वह अजीब-से आवेश में बोला—"मैं अनेक केसों में आपकी जमानत कराता रहा हूं—पहले तो आपने कभी कोई आपत्ति नहीं उठाई।"
मेरा तन-बदन सुलग उठा, मुंह से गुर्राहट निकली—"क्योंकि पहले तुम्हारे दिमाग पर मुझे सुधारने का भूत सवार नहीं था।"
"ओह! आप शायद पिछली मुलाकात का बुरा मान गए हैं—आपने दो हजार रुपये मांगे थे और मैंने इंकार कर दिया था।"
मेरे होंठों पर स्वतः जहरीली मुस्कराहट उभर आई, बोला— "उसमें बुरा मानने जैसी क्या बात थी, मदद करो या न करो.....यह तुम्हारी मर्जी पर है।"
"ऐसा न कहिए, भइया।"
"क्यों न कहूं.....क्या मैंने कुछ गलत कहा है?" मुंह से जहर में बुझे व्यंग्यात्मक शब्द निकलते चले गए—"हमारी शक्लें जरूर एक हैं, हमारे मां-बाप भले ही एक थे मगर नसीब एक-दूसरे से बहुत अलग हैं.....हमारे पैदा होने में सिर्फ दो मिनट का फर्क है और उन दो मिनटों में ही नक्षत्र साले इतने बदल गए कि आज तुम कहां हो है, मैं कहां—तुम कम-से-कम दस हजार रुपये वाला 'फर' का कोट पहनते हो—मैं पालिका बाजार से लेकर आठ रुपये की टी-शर्ट।"
"यह सब सोचकर मुझे भी दुख होता है भइया, मगर.....।"
"मगर—?"
"दो मिनट ही सही लेकिन आप मुझसे बड़े हैं और यदि सीना चीरना मेरे वश में होता तो दिखाता कि आपके लिए मेरे दिल में कितनी इज्जत है.....कितना सम्मान है।" सुरेश मानो भावुकता के भंवर में फंसता चला गया—"हमारे पिता सेठ जानकीनाथ के यहां मुनीम के घर जब एक साथ दो लड़कों का जन्म हुआ तो सेठजी ने उनमें से एक को गोद लेने की इच्छा जाहिर की।"
"और उन्होंने तुझे गोद ले लिया, मुझे नहीं—यह हम दोनों के नसीब का ही तो फर्क था वर्ना क्या फर्क था हममें, आज भी क्या फर्क है—सेठ ने अगर तेरी जगह मुझे गोद लिया होता तो आज मैं ट्रिपल फाइव पी रहा होता और तू बीड़ी।"
"म.....मगर इसमें मेरा क्या दोष है भइया, जब वह 'रस्म' हुई थी, तब हम दोनों इतने छोटे थे कि न तुम्हें यह मालूम था कि क्या हो रहा है, न मुझे—काश! मैं समझने लायक होता, अगर बोल सकता तो यही कहता मिक्की भइया कि मुझे नहीं, आपको गोद लिया जाए।"
मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई, बोला— "मैंने कब कहा कि तेरा दोष था—दोष तो मेरे नसीब का था, तू ऐसा नसीब लेकर आया कि मुनीम के यहां जन्म लेकर सेठ के यहां पला, उसका बेटा कहलाया—मैं उसी कीचड़ में फंसा रहा जहां पैदा हुआ था और, यह हम दोनों की परवरिश का ही फर्क है कि तुम, 'तुम' बन गए—मैं, 'मैं' रह गया।
"अगर मेरा कोई दोष नहीं तो आपकी ईर्ष्या, नफरत और डाह का शिकार क्यों होता हूं?
अगर मैं तेरी जगह होता तो तुझसे कभी वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा आज तू मुझसे करता है।"
"ऐसा क्या किया है मैंने?"
मैंने व्यंग्य कसा—"यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा?"
"आपके दिल में शायद वही, दो हजार के लिए इंकार कर देने वाली बात है?"
मैं चुप रहा।
"आपको वह तो याद रहा भइया जो मैंने नहीं किया, मगर वह सब भूल गए जो किया है?"
"हां, वह भी याद दिला दे—'ताने' नहीं मारे तो मदद देने का तूने फायदा क्या उठाया?"
"बात 'ताने' की नहीं मिक्की, सिद्धान्तों की है।" चहलकदमी-सी करता हुआ सुरेश कहता चला गया—"आज से सात साल पहले हमारी
मां मर गई, उसके दो साल बाद पिताजी भी चले गए—पिता की मृत्यु के बाद आपने मेरी कोई बात नहीं मानी—रोकने की लाख चेष्टाओं के बावजूद आप गलत सोहबत में पड़ते चले गए—आए दिन छोटे-मोटे जुर्म, गिरफ्तारी—चोरी, राहजनी और झगड़े आपकी जिन्दगी का हिस्सा बन गए—आपको जब भी, जितने भी पैसों की जरूरत पड़ी—मैंने कभी इंकार नहीं किया, हमेशा मदद की—मेरे ऐसा करने पर 'बाबूजी' नाराज होते थे, वे कहा करते थे कि अगर मैं आपकी यूं ही मदद करता रहा तो आप और ज्यादा जाहिल और नकारा होते चले जाएंगे।"
"और तुमने मुझे जाहिल, नकारा बना दिया?" मैं दांत भींचकर कह उठा।