desiaks
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अगिया बेताल
मैं उस दृश्य को देख रहा था। इससे पहले भी मैंने लोगों के मुँह से सुना था, पर मुझे यह सब देखने का अवसर पहली बार मिला था। मैं स्तब्ध था कि यह सब जो मैं देख रहा हूँ - इसमें कितनी सच्चाई है। कल तक जो बात कानो सुनी थी, वह प्रत्यक्ष नजर आ रही थी।
हवा बर्फ की तरह सर्द थी। ऊपर से पानी बेहिसाब बरस रहा था। बादल आसमान का सीना फाड़े दे रहे थे और कुछ-कुछ समय का आराम दे कर इस प्रकार गड़गड़ा उठते जैसे पास की पहाड़ी पर सैकड़ो डायनामाइट फट गए हो। हवा की सायं-सायं उस वक़्त जब बदल शांत होते, महसूस होता कि जैसे बदल कुछ देर के लिए सांस ले रहे हो। एकाएक बिजली कौंधती और सारी धरती तेज़ उजाले में स्नान करती प्रतीत होती।
यह एक बेहद बरसाती तूफानी रात थी। हालाँकि मेरे शरीर पर बरसाती थी पर पानी से सराबोर हो चुकी थी। बरसाती यूँ जान पड़ती जैसे मैंने बर्फ की चादर ओढ़ ली हो।
हवा नश्तर बन कर चुभ रही थी। रह-रह कर मैं सिर से पांव तक दहल जाता। यदि मैं अकेला होता तो मेरे कदमो में ठहराव न रहता और कभी का ज़मीन पर लोट चुका होता। दहशत दिल में राज कर लेती, पर सौभाग्य से मेरे साथ लठैत थे, जिनके पास कहने को एक-एक गज का कलेजा हुआ करता था। सांझ होते ही जब मैं चला था तो मैंने उन्हें साथ ले लिया था। इसलिए नहीं कि मैं डरपोक था, इसलिए भी नहीं की रास्ते में चोर डाकुओं का भय रहा हो। असल बात यह थी की उस इलाके में जहाँ हमे जाना था आदमखोर चीते का आतंक फैला हुआ था और वह इक्के-दुक्के आदमी पर कहीं भी हमलावर हो सकता था। इस कारण मैंने दो लठैतो को साथ ले लिया था।
जब मैं चला तो सांझ घिर आई थी। बादल तो सुबह से ही आसमान पर अपना कब्ज़ा किये हुए थे और दो मील चलते-चलते बूंदा-बांदी भी होने लगी थी। अब तो चलते-चलते चार घंटे बीत गए थे। बारिश का अन्देशा पहले से ही था इसलिए बरसाती लेता आया था, साथ में शिकारी टार्च थी और कंधे पर आवश्यक सामन का एक थैला लटका हुआ था।
मुझे खबर मिली थी की मेरे पिता का देहांत हो गया है इसलिए जाना लाजमी था, क्योंकि मेरे अलावा पिता की कोई संतान नहीं थी। यूँ तो मेरे पिता ने बहुत बार मुझे बुलाने का प्रयास किया था परन्तु मैं कभी वहां गया ही नहीं था। बचपन तो वहां बीता ही था, जिसकी धुंधली सी स्मृतियाँ शेष थी। कभी कभार पिता की चिठ्ठी पत्री भी आ जाया करती थी। मैं शहरी आबोहवा में पला था। मेरे चाचा की कोई संतान नहीं थी। वे शहर में रहते थे और मुझे बहुत ज्यादा प्यार करते थे, और उन्होंने भरसक प्रयास किया था कि मैं अपने पिता की छत्र-छाया में न पलूं।
बचपन में कुछ घटनायें ऐसी भी घटी जिसके कारण मैं अपने पिता से भयभीत हो गया था और उनसे नफरत करने लगा था। जब थोड़ा समझदार हुआ तो मुझे इसका कारण भी समझ में आ गया कि मेरे चाचा ने क्यों मुझे पिता की छाया से दूर रखा और उनका यह सोचना मेरे हित में था। यदि ऐसा ना होता तो मैं विज्ञान का स्नातक न बन पाता और मेरी जिन्दगी में जो खुशहाली आने वाली थी, वह मुझसे दूर हो जाती और मैं भी अपने पिता सामान घृणित गन्दी जिंदगी व्यतीत कर रहा होता।
छः माह पहले मेरा अप्वाइन्मेंट विक्रमगंज में हुआ था। मुझे ख़ुशी हुई कि मैं अपने गाँव के करीब बनने वाले एक सरकारी अस्पताल में डॉक्टर की हैसियत से आया हूँ। पर इस दौरान मैं एक बार भी पिता से मिलने नहीं गया था। हलकी सी खबर मेरे कान में पड़ी कि मेरे पिता पागलों के समान आचरण करने लगे हैं। यह भी खबर सुनी थी की पिता ने तीसरा विवाह कर लिया है बुढ़ापे में किसी युवती को रख लिया है। ये उड़ती-उड़ती खबरें मुझे प्राप्त होती रहती थीं पर इस पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता था। मेरे पिता के आचरण को देखते हुए यह स्वाभाविक बात थी। इससे पहले सौतेली मां की मार तो बचपन में भी खा चुका था और अपनी मां की शक्ल तो जेहन में भी नहीं उभर पाती थी। बस सुना ही सुना था की मेरी मां धार्मिक विचारों की थी और उसकी मेरे पिता से कभी भी नहीं निभ पाई थी।