Horror Sex Kahani अगिया बेताल - Page 2 - SexBaba
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Horror Sex Kahani अगिया बेताल

“तू मुझे ठीक करेगा... मैं तेरा खून पी जाउंगी... मैं ब्रह्म राक्षस की बीवी हूँ... ही... ही... ही...।

“अरे इसे पकड़ो... यह तो पागल है।” मैं चिल्लाया।

बड़ी कठिनाई से उसे पुनः पकड़ा गया। वह अब बैठे-बैठे झूम रही थी।

मैं कपडे झाड़ कर खड़ा हुआ। अब मुझे उससे डर लग रहा था।

“यह कब से पागल है ?” मैंने अपनी झेंप मिटाने के लिए पूछा।

“पागल... चार रोज पहले तो ठीक थी... पागल नहीं साहब... ब्रह्म राक्षस है... यह रात को पीपल के पेड़ तक गई थी... शौच करने... बस वहीं राक्षस ने इसे पकड़ लिया। अब बताओ... इस हालत में मैं इसे ससुराल कैसे भेजूंगा... मेरी तो नाक कट जायेगी।”

“ससुराल जाना चाहती है ये।”

“अरे साहब ठीक हो जाये तो इसका बाप भी जाएगा।”

अचानक मेरे दिमाग में एक युक्ति आई। वह बीमार तो बिलकुल नहीं लगती थी, फिर भी मैंने एक बार देख लेना उचित समझा।
“अच्छा मैं अभी आता हूँ।” मैं भीतर चला गया। डाक्टरी का छोटा-मोटा सामान मैं हर वक़्त अपने साथ रखता था।

जब मैं अन्दर पहुंचा तो बुढ़िया ने पूछा – “भगा दिया राक्षस को।”

“अभी भाग जायेगा”

“मैं कहती हूँ उससे टक्कर न लेना।”

मैं बिना कुछ जवाब दिये अपना सामान लेकर बाहर पहुंचा, फिर मैंने उसे चेक करना शुरू कर दिया। वह सचमुच सामान्य थी। उसे कुछ नहीं हुआ था। वे लोग आश्चर्य से भूत-प्रेत उतारने की इस नई प्रणाली को देख रहे थे।

“हूँ तो ये बात है।” मैंने कहा।

“क्या बात है...?” बूढा चौंका।

“फिक्र न करो... इसका पति कहाँ है?”

“पति... पति क्या करेगा... अरे साहब – वह तो बड़ा खतरनाक आदमी है... मेरे तो गले आ रही है...।”

“कोई बात नहीं... अब मैं देखता हूँ इस राक्षस को।”

बस एक युक्ति दिमाग में आ गई और मुझे उसी की संभावना लग रही थी।

“इसे जरा अन्दर के कमरे में ले चलो।”

मेरी आज्ञा का तुरंत पालन हुआ। वह जाना नहीं चाहती थी पर अब मैं उसका भूत उतारने के लिए पूरी तरह तैयार हो गया था।
 
उस कमरे में एक लंबा चिमटा रखा था। मैंने वह उतार लिया और सब लोगों को बाहर निकल जाने के लिए कहा। सब उसे छोड कर बाहर निकल गए।

वह मुझ पर दुबारा झपटी, पर जैसे ही उस पर एक चिमटा पड़ा, वह वहीं बैठ गई। मैंने दरवाज़ा बंद कर लिया।

फिर उसके पास पहुँचकर जोरों से चिमटा जमीन पर मारा।

“मैं तुझे मारना नहीं चाहता। मैंने कहा – मैं जानता हूँ तूने यह ढोंग क्यों रचा है... लेकिन तूने अगर सच-सच बात नहीं बताई तो कस कर मारूंगा... बोल तू ससुराल नहीं जाना चाहती न... मुझे सब मालुम है।”

वह कुछ सकुचाई फिर चिमटा देखते ही फूट-फूट कर रोने लगी। तत्काल ही उसने मेरे पाँव पकड़ लिये।

“मुझे माफ़ कर दो बाबू... मुझे मत मारो... आप तो अन्तर्यामी हैं। आप सब जानते है, मुझ पर ससुराल वाले क्या-क्या जुल्म करते है।”

मेरे होंठो पर मुस्कान आ गई।

“तो तू वहां नहीं जाना चाहती।”

“हाँ... वे मुझे मारते है। मेरा खसम बहुत जालिम है। मैं उसको सीधे रास्ते पर लाना चाहती हूँ... अगर वह मान गया तो ससुराल वाले तंग नहीं करेंगे।”

“वह सीधे रास्ते पर कैसे आएगा... ?”

“बस अगर मैं दो तीन महीने वहां नहीं गई तो वह मुझे मनाने आएगा, फिर मैं उसे सीधा कर दूंगी। बस दो तीन महीने तक मेरा नाटक चलने दो बाबू।”

“नाटक की जरूरत नहीं।

तू दो तीन महीने अपने घर रहना चाहती है न ?”

“हाँ बाबू।”

“मैं तेर बापू को समझा दूंगा...”।”

“ना...ना बाबू – उसे यह सब मत बताना।”

“तू फिक्र न कर... मैं दूसरे ढंग से समझा दूंगा... और वह मान जायेगा... अब जैसा मैं कहूँ – वैसा ही करना...।”

“ठीक है – आप जैसा कहें, मैं करुँगी।”

थोड़ी देर बाद मैं उसे ले कर बाहर निकला। अब वह सामान्य थी।

उसे सही हालत में देख कर सभी अचंभित हो गये।

“क्या उतर गया साहब?” उसके बापू ने पूछा।

“उतर गया। अगिया बेताल ने उसे भगा दिया।”

“हे भगवान – तेरा लाख-लाख शुक्र... साहब आप तो सचमुच देवता आदमी है।”

“सुनो... अभी ख़ुशी मनाने की जरूरत नहीं... अभी मामला पूरी तरह सुलझा नहीं।”

“क्या मतलब... यह तो अब बिलकुल ठीक है।”

“ठीक है मगर इसकी आवाज चली गई... अब इसके भीतर अगिया बेताल छा गया है।”

“हे भगवान... क्या यह गूंगी हो गई।”
 
“हाँ... लेकिन घबराने की जरुरत नहीं। और वह तब तक इसे आवाज नहीं देगा जब तक इसका पति इसके सामने गिड़गिड़ा कर माफ़ी नहीं मांगेगा। और अगर दो महीने के भीतर उसने ऐसा नहीं किया तो इसके पति का सारा खानदान नष्ट हो जायेगा। अगिया बेताल किसी को नहीं छोड़ेगा। उन्हें बता देना और जब तक यह काम नहीं होता इसे घर से निकलने न देना वरना सारे गाँव पर आफत आ जाएगी। और तुम लोग तब तक बेताल की पूजा करते रहना...।”

“ज...जी...लेकिन इसका पति... क्या वह मानेगा।”

नहीं मानेगा तो उसके घर का विनाश होगा। बेताल उससे बहुत कुपित है। इसका पति इसे प्यार नहीं करता इसलिए ब्रह्मराक्षस ने धावा बोल दिया... अब बेताल कभी ब्रह्मराक्षस को आने नहीं देगा परन्तु यह तभी हो पायेगा जब इसका पति अपने किये की माफी मांगे---।”

उनके चेहरे लटक गये।

एक चौधरी ने कहा – “घबराता क्यों है धीरू... हम इसके पति को तो क्या उसके बाप को भी खींच लायेंगे... इस काम में सारा गाँव साथ होगा।”

बाकी लोग बूढ़े को समझाने लगे।

फिर बूढ़े ने अपनी पोटली खोली।
“आपकी क्या सेवा करूँ ?”

“कुछ नहीं। दो महीने बाद जब समस्या सुलझ जाय तो बेताल के नाम पर गरीबों को खाना खिला देना।”

“जी – वो तो करूँगा ही – मगर आप -।”

“मुझे कुछ नहीं चाहिए – अब तुम लोग जाओ।”

कुछ देर बाद वे लोग चले गये। मुझे उन अहमकों पर बड़ा तरस आया। अगर मैं उन्हें दूसरे ढंग से समझाता तो शायद उनकी समझ में नहीं आता। लेकिन मैं इस बात से अनभिज्ञ था कि शाम तक यह बात चारों तरफ प्रसिद्ध हो गई थी कि साधुनाथ का बेटा रोहताश तो अपने बाप से एक गज आगे है, उसने “अगिया बेताल” सिद्ध किया है। यह खबर जंगल की आग की तरह फ़ैल गई थी, जबकि मुझे इसकी कोई खबर नहीं थी।

न जाने क्यों बुढ़िया ने भी अपना ताम-झाम समेटा और रात होते-होते घर से खिसक गई।

रात का खाना स्वयं चन्द्रावती परोसने आई।

“क्या आप सचमुच अगिया बेताल के स्वामी है।” उसने घरघराते स्वर में पूछा।

मैं एकदम ठहाका मार कर हँस पड़ा।

उसके चेहरे पर तैरने वाली भय की छाया और भी गहरी हो गई।

“आपको किसने बताया ?”

“दादी कह रही थी – मारे डर के वह यहाँ से चली गई।”

“अरे - कब - ?”

“अभी कुछ देर पहले।”

“सुबह दादी को ले आना... भला मैं शहर में पढने वाला क्या जानूं “अगिया बेताल” क्या है... कमबख्तों ने कैसे-कैसे ढोंग रच रखे है। बड़ी हंसी आती है इन लोगों पर... जाने कौन-सी दुनिया में रहते है।”

“तो क्या यह झूठ है ?”

“हद हो गई – आप भी ऐसी बातों पर विश्वास करती हैं।”

“विश्वास...।” उसकी निगाहें शून्य में ठहर गई – जिसने अपनी आँखों के सामने ऐसी बातें घटती देखी हों, वह भला क्यों विश्वास नहीं करेंगी ?”

मैं भी तनिक मूड में आ गया – “अच्छा, भला बताइए यह ‘अगिया बेताल’ क्या बला है ?”

“उसका मजाक न उड़ाओ रोहताश ! तुम्हारे पिता उसे सिद्ध करते-करते पागल हो गए थे और अगर वे पागल ना होते तो शायद उनकी जगह ठाकुर प्रताप ने ले ली होती... ठाकुर चिरकाल के लिये इस दुनिया से बिदा हो चुके होते, किन्तु भैरव ने ऐसा नहीं होने दिया और तुम्हारे पिता की मृत्यु हो गई।”

“क्या मतलब- क्या मेरे पिता को ठाकुर ने मारा है।”

“हाँ.. जादू-टोने में बहुत शक्ति है। यह बात हर कोई मुँह पर लाने से डरता है, पर मैं क्यों डरूं... मेरा जीवन तो उसने नष्ट कर दिया है। मैं तो अब मरी सामान हूँ। अगर मेरा वश चलता तो उस ठाकुर के बच्चे का खून पी जाती। लेकिन मैं स्त्री हूँ जिसे बोलने का भी अधिकार नहीं।”

“लेकिन किसी की हत्या करना कानूनन जुर्म है।”

“कानून सिर्फ शहरों में बसता है... यहाँ इतनी हिम्मत किसमें है जो गढ़ी वालों से दुश्मनी मोल ले।”

“क्या गढ़ी वाले आज भी इतने शक्तिशाली हैं।”

“ओह ! रोहताश – मैं भी कैसी बहकी-बहकी बातें करने लगी जब मुझे मालूम हुआ कि तुमने “अगिया बेताल” सिद्ध कर रखा है तो वे बातें याद आ गई। मैंने सोचा कहीं गढ़ी वाले तुम्हारे भी शत्रु न हो जायें, इसलिए मैं डर गयी थी – अभी तुमको काफी लम्बा जीवन जीना है। सिर्फ मुझे यह बातें नहीं छेड़नी चाहिए थी। रोहताश ! तुम भी उन बातों को भूल जाओ।”
 
एक तीव्र कम्पन के साथ मेरी आँख खुल गई, मैं एकदम उठ कर बैठ गया और आँखे मलने लगा।

वह कैसा कम्पन था। मेरे कान अब भी झनझना रहे थे। ऐसे जैसे शीशे का फानूस फर्श पर आ गिरा हो और टुकड़े-टुकड़े हो गया हो। कुछ इसी प्रकार की आवाज़ थी। शरीर का रोम-रोम झनझना उठा था।

मैंने अन्धकार में डूबे कमरे को देखा और उस आवाज के बारे में सोचने लगा, जिसने मुझे झकझोर कर जगा दिया था। अभी मैं इस बारे में निर्णय भी नहीं कर पाया था कि कोई घुटी-घुटी चीख मेरे कानों में पड़ी। यह चीख निश्चय ही बाहर से उत्पन्न हुई थी। मैं अपने आपको बिस्तरे में अधिक देर तक न रोक सका, तुरंत दरवाजे की तरफ बढ़ा।

जैसे ही मैंने द्वार खोलना चाहा मुझे यह जानकार आश्चर्य हुआ कि दरवाज़ा बाहर से बंद है। मेरे दिल की धड़कने तेज़ हो गई।

मैं हड़बड़ाया सा पलटा और खिड़की के पास आ पहुंचा। मैंने तुरन्त खिड़की खोल दी। हवा का एक तेज़ झोंका मेरे चेहरे पर पड़ा और मैंने एक मशाल जलती देखी। एक लम्बे कद का इंसान मकान के पिछले हिस्से की तरफ खड़ा था और सर पर पग्गड़ था... चेहरा कपडे में छिपा हुआ।

फिर मुझे दो तीन साए और दिखाई पड़े।

“क्या हो रहा है ?” मैंने मन ही मन कहा – “ये लोग कौन है ?”

अचानक मुझे विचित्र सी गंध का आभास हुआ। यह गंध निश्चित रूप से पेट्रोल की थी। मेरा मस्तिष्क एकदम जाग उठा।

ख़तरा... मेरे दिमाग में एक ही शब्द गूजा... जो कुछ होने का अंदेशा था, उससे मन काँप उठा। ह्रदय बैठने लगा।

अचानक मुझे ध्यान आया कि भीतर के कमरे में वह अभागी स्त्री सो रही है... और कुछ क्षणों के फासले पर मौत नाच रही है। न जाने कितने सेकंड शेष थे... पर मिनट की दूरी कदापि नहीं थी। मुझे बंद दरवाजे का ख्याल आया और समझते देर नहीं लगी कि दरवाज़ा क्यों बंद किया गया, ताकि मैं कमरे से बाहर निकल ही न सकूँ...।

आखिर क्यों...?
यह सब क्यों हो रहा है?

एकाएक मुझे अपनी और चन्द्रा की जिंदगी का ख्याल आया। मेरे भीतर छिपे पुरुष ने मुझे ललकारा, क्या तबाही बच सकती है।

एक ही उपाय और एक ही रास्ता था।

खिड़की से नीचे जमीन की दूरी लगभग पंद्रह गज थी... यह मेरा अंदाजा था... उस वक़्त यह दूरी अगर पचास गज भी होती तो भी मेरा निर्णय नहीं बदल सकता था।

मैंने एकदम अँधेरे में ही खिड़की पर लटकने का प्रयास किया और जरा भी विलम्ब किये बिना नीचे कूद गया।

संयोगवश नीचे घास थी... सूखी घास... ओर मैं न सिर्फ चोट खाने से बचा अपितु मेरे कूदने की आवाज भी उत्पन्न नहीं हुई।

मैं घास से बाहर निकला और अपने आपको अन्धकार में छिपाता हुआ उस तरफ भागा जहाँ मशालची खड़ा था।

मैंने यह भी देख लिया था कि तीन आदमी मकान के चारो तरफ दीवारों पर पेट्रोल छिड़क रहें हैं। यह अनुमान तो मुझे पहले ही हो गया था की वे मकान पर आग लगाने आये हैं।

मशालची शायद इस बात का इंतज़ार कर रहा था, जब पेट्रोल छिड़कने वाले अपना काम समाप्त करके अलग हट जाए और वह अपना काम कर दे। मेरी समझ में नहीं आया कि वे लोग कौन है... और ऐसा भयंकर कृत्य क्यों कर रहें है... क्या वे हमें ज़िंदा जला देने का इरादा रखते हैं।
 
यह मकान भी तो ऐसी जगह था,जिसके पीछे कोई आबादी नहीं थी और छोटी-बड़ी झाड़ियों का सिलसिला प्रारंभ हो जाता था

एक घुटी-घुटी आवाज फिर सुनाई दी... जो हवा के साथ घुल मिल गई। यह आवाज काफी पीछे कड़ी झाडी के पीछे से आई थी। किन्तु आवाज इतनी अस्पष्ट थी की उसके बारे में कोई अनुमान लगा पाना कठिन था, बस इतना आभास होता था, जैसे किसी का मुँह बंधा हो और वह पुरजोर शक्ति से चीखने का प्रयास कर रहा हो।

मेरा ध्यान मशालची की ओर एकाग्र हो गया। अचानक मैं उसके पीछे पहुँचकर ठिठक गया और उसके साथी आ गये थे।

“हो गया।” किसी ने पूछा।

“हाँ...।” जवाब मिला।

“अब तुम लोग पीछे हट जाओ... मैं आता हूँ।”

वे लोग एक दिशा में बढ़ गये। मशालची ने दायें- बाएं देखा फिर जैसे आगे बढ़ा मैंने अपना दिल मजबूत करके पीछे से उसकी गर्दन दबोच ली। फिर सारी शक्ति लगाकर उसे झाड़ी की तरफ धकेल दिया।

वह झाड़ी की तरफ लड़खड़ाया अवश्य पर मेरा हमला उसके लिए इतना जबरदस्त सिद्ध न हुआ जितना मैं समझता था मेरा ख्याल था कि जैसे ही वह झाड़ी में गिरेगा मैं उसे दबोच लूँगा।

लेकिन जो कुछ मैंने सोचा था, वह नहीं हुआ, अलबत्ता वह सावधान हो गया। मैं दूसरी बार शोर मचाता हुआ उसकी तरफ झपटा। जैसे ही मैं उसके करीब पहुंचा, उसने मशाल की भरपूर चोट मेरी पीठ पर मारी और मैं बिल-बिला उठा। अवसर पाते ही उसने मशाल मकान की तरफ उछाल दी। आग का एक भभका उठा और चंद क्षणों में ही मकान पर आग की लपटें चढ़ने लगी।

मैं उसे रोक पाने में असफल रहा और न अब आग पर काबू पाया जा सकता था। अपना काम ख़त्म करके वह व्यक्ति भागा। आग की लपटों को देखता हुआ मैं कराह कर खड़ा हो गया।

मैंने उस शैतान का पीछा पकड़ लिया। अब तक मैं यह समझ चुका था कि मैंने जो घुटी -घुटी चीख सुनी थी वह निश्चित रूप से चन्द्रावती की थी। इसका अर्थ यह था कि वे लोग चन्द्रावती का अपहरण करके ले गए हैं। इसका एक प्रमाण यह भी था कि इतना शोर मचने के बाद भी मकान के भीतर वैसा ही सन्नाटा छाया था, जबकि आस-पड़ोस के लोग जाग चुके थे और सारे कस्बे में आग-आग का शोर गूंज रहा था।

अब मैं उस व्यक्ति का पीछा उसे पकड़ने के इरादे से नहीं कर रहा था, बल्कि यह जानना चाहता था कि इन लोगो का ठिकाना कहाँ है और इस भयंकर कृत्य के पीछे किसका हाथ है। अगर मैं यह सब जान जाता तो पुलिस कार्यवाही करने में आसानी होती साथ ही चन्द्रावती को उन जालिमों के पंजे से मुक्त किया जा सकता था।

वह व्यक्ति झाड़ियाँ फलांगता हुआ आगे बढ़ता रहा। पहले उसकी गति तेज रही फिर जैसे-जैसे वह घटना स्थल से दूर होता गया उसकी गति में धीमापन आता गया।

वह एक बीहड़ मार्ग से चलता हुआ सूरजगढ़ी के पार्श्व भाग में पहुँच गया। जैसे ही वह सूरज गढ़ी की विशालकाय दीवार के साए में रूका – मैं चौंक पड़ा।

तो क्या इन घटनाओं के पीछे गढ़ी वालों का हाथ है ?

ठाकुर घराने का ध्यान आते ही मेरा रोम-रोम काँप उठा। वह व्यक्ति दीवार के साए में धीरे-धीरे चलने लगा। फिर वह एक खंडहर जैसे स्थान में जा कर गायब हो गया।
 
गढ़ी की ऊँची दीवार को पार कर पाना आसान काम नहीं था और मेरे लिए यह जानना आवश्यक था कि चन्द्रावती कहाँ है... उस पर क्या बीत रही है। मैं बिना हथियार आगे बढ़ने की मूर्खता कर बैठा और उसी खँडहर में उतर गया। खंडहर में एक पतला सा रास्ता था जो अन्धकार में डूबा था। मैं उसी पर बढ़ गया। हाथों से मार्ग टटोलता हुआ बढ़ता चला गया।

मुझे इसका आभास भी नहीं था की मैं जिस रास्ते पर बढ़ रहा हूँ यह रास्ता मुझे कहाँ ले जायेगा। अभी मैं कुछ ही दूर बढ़ पाया था की सहसा मेरी आँखों पर तेज़ चुंधिया देने वाला प्रकाश पड़ा और मैंने तेजी के साथ दोनों हथेलियों से आँखे ढांप ली पर उसी क्षण बिजली सी टूट पड़ी। सर पर प्रहार हुआ, जाने किधर से....... कंठ से चीख निकली...... हाथ फैलते चले गए, जैसे हवा में तैरने का प्रयास... फिर गहरा खड्ड... जहाँ चेतन संसार विदा हो गया था और लाल पीले सितारों के बीच मेरा अस्तित्व डूबता चला गया।

अस्तित्व एक बार डूबा तो चिरकाल के लिए डूब गया। वे दिन मेरी नादानी के दिन थे किसी का वजूद न देखा... किसी की शक्ति न परखी और खतरे में कूद गया।

यह खुदकुशी वाली बात नहीं तो और क्या थी। मैं इस प्रकार के खेल खेलने का आदी नहीं था। मेरे पुरूष में ऐसी कोई बात नहीं थी, जो असाधारण रही हो। वे लोग तो और ही होते हैं जो जान लेना जानते है, तो देना भी जानते है। मैं तो सिर्फ जान देना जानता था। मेरे पास ऐसा था ही क्या जो आग से खेलूं।

और इस नादानी का अंजाम क्या कम भयानक था.. इसलिए कहता हूँ कि वह खुदकशी थी।

किन्ही भयानक क्षणों में मेरी निंद्रा टूटी... मैं अचेतन से लौट रहा था... धीरे....धीरे.... सारा बदन फोड़े के सामान दुख रहा था। कराहट गले से बाहर नहीं निकल पा रही थी।

फिर चेहरे पर ठंढी बौछार हुई... तो मैंने झट आँखें खोल दी... श्याह वातावरण... कहीं कुछ नजर नहीं आ रहा था... लगा तन्द्रा अभी टूटी नहीं... अंग निष्प्राण पड़े हैं। कुछ देर और राहत मिलेगी... तब कहीं कुछ देख पाने योग्य होऊँगा।

ठंडी फुहार फिर पड़ी।

मैं समझ गया कोई चेहरे पर पानी का छपाका मार रहा है।

साथ ही साथ धीमा स्वर कानों में पड़ा – यूँ लगा जैसे बहुत दूर से आ रहा हो। फिर स्वर स्पष्ट होता चल गया।

कोई बार-बार कह रहा था – “क्या तुम होश में हो....क्या तुम?”

“हाँ...।” मैं कराहा– मैं सुन रहा हूँ।”

मैंने नेत्र बंद कर लिए थे।

“थैंक्स गॉड... अब आँखे खोलो...।

मैंने आँखे खोली।

अब भी वैसा ही अन्धकार... घुप्प...निराकार...।
 
“मैं कहाँ हूँ...।” मैं कराहा।

“सुरक्षित... अगर मैं ठीक समय पर न देखता तो आदमखोर बाघ तुम्हे ख़त्म कर देता... मैं पूरे पच्चीस रोज से उसके पीछे पड़ा हूँ... आज भी बच निकला... क्या तुम डर से बेहोश हो गए थे ?”

नहीं दोस्त... पर...पर क्या इस समय रात हो रही है।”

“रात... नहीं तो... इस वक़्त तो धूप चढ़ आई है।”

“धूप... तो मुझे कुछ नजर क्यों नहीं आ रहा है।”

“कभी-कभी बेहोशी टूटने के बाद ऐसा ही होता है।” वह बोला – “थोड़ी देर में सब कुछ नजर आने लगेगा।”

“तुम्हारा नाम क्या है दोस्त?”

“अर्जुन सिंह... मैं शिकारी हूँ... एक रिटायर फौजी। रात दिन जंगलों की ख़ाक छानना ही मेरा कार्य है।”

थोड़ी देर बाद उसने गर्म कहवा मुझे पीने को दिया। लेकिन तब तक भी मेरे आँखों के आगे अँधेरा पर्दा ही छाया रहा।

मुझे पूर्णतया होश आ गया था। हालांकि पीड़ा उसी प्रकार हो रही थी पर मेरे सभी अंग कार्य कर रहे थे, सिर्फ नेत्रों को छोड़ कर।

थोड़ी देर बाद मेरा दिल बैठने लगा।

“मिस्टर अर्जुन।” मैंने कांपते स्वर में कहा - “मैं तो अब भी नहीं देख पा रहा हूँ।”

“क्या...?” वह दूर से बोला।

“मैं कुछ भी नहीं देख पा रहा हूँ।”

“इम्पॉसिबल...।”

उसके क़दमों की चाप समीप आई।

“क्या मेरा हाथ नजर नहीं आ रहा है ?”

“नहीं बिलकुल नहीं... यह मुझे क्या हो गया है ?”

“त... तुम मजाक तो नहीं कर रहे हो... तुम्हारी आँखें तो बिलकुल ठीक है।”

“नहीं...नहीं... मैं सच कह रहा हूँ।” मैंने कांपते हांथों से उसे टटोला।

“ओह्ह माय गॉड... क्या तुम पहले अच्छी प्रकार देख लेते थे।”

“हाँ... यह क्या हो गया मुझे...।” मैं चीख पड़ा – “मिस्टर अर्जुन मैं... मैं... अँधा हो गया हूँ... मुझे कुछ नजर नहीं आता... मेरी आँखे... हे भगवान्... मैं क्या करूँ।”

मैंने उठाना चाहा परन्तु उसने मुझे उत्तेजित न होने दिया और उसी जगह बिठा दिया।

“सब्र से काम लो।” वह बोला – “और मुझे पूरी बात बताओ... तुम कौन हो और इस जंगल में क्यूँ आये ?”

म... मैं एक डॉक्टर हूँ... और...।” उसके बाद मैंने सारी बात कह सुनाई।

“सूरजगढ़... सूरजगढ़ तो यहाँ से तीस मील दूर है... यह तो काली घाट इलाका है... इस क्षेत्र का सबसे बीहड़ इलाका... यहाँ तो सिर्फ शिकारी आते है या डाकू बसते हैं। और तुम्हारी कहानी बहुत विचित्र है।”

मैंने उसे यह नहीं बताया था की मेरा बाप तांत्रिक था। बहुत सी बातें मैं छिपा गया था, परन्तु आग लगने से लेकर बेहोश होने तक की सारी घटनाएँ उसे बता दी थी।

“और यह कौन सी तारीख की बात है।”
मैंने तारीख बता दी।
“इसका मतलब तीन रोज पहले का वाक्या है। अजीब बात है... तुम इतने लम्बे समय तक बेहोश रहे और बेहोशी में इतनी दूर पहुँच गए। खैर फिक्र करने की बात नहीं... पहले इस मामले की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज करवाते है... घबराओ नहीं मैं तुम्हारे साथ हूँ।”
“और आँखें... मेरी आँखें...।”
 
“तुम तो डॉक्टर हो, इतना अधिक निराश होने से बात नहीं बनेगी... आजकल तो आँखें कोई बड़ी समस्या नहीं। इंसान यदि जन्मजात अँधा न हो तो उसे नेत्र ज्योति दी जा सकती है। कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि लम्बी बेहोशी या बीमारी में कोई अंग काम करना बंद कर देता है पर वह अस्थाई होता है, परन्तु इलाज़ करने से हल निकल आता है। इस बारे में तुम तो मुझसे अधिक जानते होगे। मैं तो इतना जानता हूँ इसी प्रकार एक बार मेरा दायाँ हाथ बेकार हो गया था पर दो महीने बाद ठीक हो गया। हौसला छोड़ने से काम नहीं बनता।”

वह मुझे सान्त्वना देता रहा।

कुछ समय बाद उत्तेजना कम हुई और बुद्धि काबू में आई।

“हम आज ही सूरज गढ़ के लिए रवाना हो जाते है।”

“तुम मेरे साथ क्यों कष्ट कर रहे हो ?”

“यह कष्ट नहीं कर्त्तव्य है। आज की दुनिया में तो इश्वर भी इतना व्यस्त हो गया है कि वह अपने बन्दों को कर्त्तव्य निभाने का अवसर ही नहीं देता और जब देता है तो इंसान कर्त्तव्य भूल कर अपने स्वार्थ में डूबा रहता है या उसे अपने ही कामों से फुर्सत नहीं मिलती और वह नरक का भोगी बन जाता है। क्या जाने यह मेरी परीक्षा ही हो... क्या जाने तुम्हारे स्वर्गीय पिता की आत्मा ने मुझे तुम्हारी सहायता के लिए प्रेरित किया हो।”

“तुम बहुत अच्छे विचारों के आदमी मालूम पड़ते हो, काश कि मैं तुम्हें देख सकता।”

“देखने में मेरे पास कोई ख़ास बात नहीं। न मैं बांका छबीला नौजवान हूँ और न बड़ी दाढ़ी और लम्बी बाल वाला धर्मात्मा... मैं तो चेहरे से खूसट नजर आने वाला व्यक्ति हूँ... जिसके चेहरे पर दाढ़ी की जगह झाड़ी के सूखे तिनके है... और भद्दी मूंछे.... गाल पर बारूद से जल जाने के कारण धब्बा है और आँखे किसी क्रूर फौजी जनरल जैसी... शरीर पर खाकी पोशाक है... हाथ में बन्दूक... मेरा हुलिया एक डकैत से भी बदतर है... हाँ शारीर मजबूत अवश्य है, इसलिए जंगली जानवरों से नहीं डरता।”

“काफी दिलचस्प आदमी लगते हो।”

“हद से अधिक जानवर भी यही सोचते है, इसलिए पास भी नहीं फटकते... अच्छा तुम थोड़ी देर आराम करो, इतने मे मैं तैयारी करता हूँ।

मेरी पीठ के नीचे रबर के तकिये रख कर वह कहीं चला गया।

शाम को हमने यात्रा शुरू की और अगले दिन सूरजगढ़ पहुँच गए। मेरे बताये पते के अनुसार वह कस्बे में गया। इस बीच उसने मुझे कस्बे से बाहर ही छोड़े रखा।

जब वह लौटा तो बोला – “तुमने सच कहा। वह मकान जल कर राख हो गया है। कोई आदमी कुछ बताता ही नहीं। क्या सूरज गढ़ी के ठाकुर का इतना दबदबा है ?”

“मैं पहले ही कह चुका था।”

“न जाने तुम्हारी सौतेली मां का क्या हुआ... खैर... विक्रमगंज चलते है।वहीं थाना पड़ता है... वहाँ एक हाकिम से मेरी जान पहचान है। मैं नहीं चाहता की तुम्हें पुनः कोई चोट पहुंचे और रहा मेरा सवाल... तो मैं तब तक शिकार पर हाथ नहीं डालता जब तक उसकी ताकत का पूरा-पूरा हिसाब-किताब न लगा लूँ... मैं तो फौजी उसूलों पर चलता हूँ... वार सही जगह होनी चाहिये... फिर बड़े से बड़ा महारथी धराशाई हो जाता है।”

हम लोग विक्रमगंज की ओर चल पड़े। उसके पास अपनी जीप थी, जिसमे सभी जरूरी सामान हर समय रहता था। मेरे शरीर में हल्की-हल्की पीड़ा उस वक़्त भी थी।

हमने विक्रमगंज के थाने में रिपोर्ट लिखवाई। वे लोग गढ़ी वालों के खिलाफ कोई रिपोर्ट लिखने के लिए तैयार नहीं थे। परन्तु मेरे उस दोस्त ने फौजी रुआब दिखाया तो वे मान गए।

“अब मैं अपने उस हाकिम दोस्त से मिलूँगा –अरे हाँ... तुम यहीं तो रहते हो... मैं चाहता हूँ अब तुम आराम करो... यह दौड़धूप मैं कर लूंगा।

मैंने अपना पता बता दिया।

उस वक़्त मैं दो कमरों के एक सरकारी मकान में अकेला रहता था। अभी मैं यहाँ नया-नया आया था... नौकर नहीं रखा था... वहां मुझे बहुत कम लोग जानते थे। इन दिनों मैं पंद्रह रोज की छुट्टी पर था।
***
 
एक महीना बीत गया। मेरे कष्टप्रद दिनों का एक माह... यह तीस दिन तीस साल से भी अधिक भयानक थे। इस बीच मैंने अपनी आँखों की रौशनी पाने के लिए हर चंद दौडधूप की थी। पर कोई नतीजा नहीं निकला। जिस नेत्र विशेषज्ञ ने देखा , मेरी आँखों को सामान्य बताया और जब नेत्र सामान्य थे तो अंधेरा कैसा... मेरे केस को देखकर बड़े-बड़े डॉक्टर अचंभित हो गये थे।

इस बारे में मैंने चाचा जी को कोई खबर नहीं दी थी। मेरे साथ अर्जुन ने काफी दौड़धूप की थी, पर वह निराशावादी नहीं था।

एक दिन मैंने उससे कहा –
“अब तुम क्यों मेरे साथ समय नष्ट कर रहे हो... मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो अर्जुन।”

“मैंने आज तक हार नहीं मानी... और अब भी नहीं मानूंगा... मैं जानता हूँ इश्वर इतना बेरहम नहीं है... एक दिन तुम्हारी आँखों में रौशनी लौट आएगी।”

“हां सो तो है... फिर भी मैं अपना पता छोड़े जा रहा हूँ... तुम कहीं न जाना दोस्त और कोई मुसीबत हो तो किसी से पत्र लिखवाकर डाल देना... हालाँकि मैं घुमक्कड़ हूँ फिर भी जो पता छोड़ रहा हूँ , वहां से तुरंत मुझ तक खबर पहुँच जायेगी।”

अर्जुनदेव चला गया। मेरे लिए तो वह अब तक भी अजनबी था। वह मेरे उस वक़्त का मित्र था, जब मेरे नेत्रों की ज्योति छिन गई थी। मुसीबत के दिनों का साथी भुलाए नहीं भूलता। अर्जुनदेव तो एक अच्छा दोस्त था। वह मेरी डायरी में अपना पता अंकित कर गया था।

अर्जुनदेव के जाने के बाद तीन दिन बीते थे, कि एक पुलिस कांस्टेबल मेरे पास आया।

“आपको थाने बुलाया है।” उसने कहा।

“क्यों ?” मैंने पूछा।

“आपने जो रिपोर्ट दर्ज कराई थी,उस सम्बन्ध में दरोगा जी आपसे बात करना चाहते हैं।”

मैंने उसका हाथ पकड़ा और थाने पहुँच गया। मेरे साथ मेरा स्थानीय दोस्त भी था। मैं जसवीर सिंह नामक थानेदार के सामने जा पहुंचा। उसने मुझे बैठने के लिए कहा।

“मैंने उस केस की जांच पूरी कर ली है।” वह बोला “मैंने तो उसी रोज इशारा किया था कि कोई लाभ न होगा। लेकिन आपने हमारे एस० पी० से संपर्क करके जांच के लिए विवश करवाया और अब जांच पूरी हो गई है।”

“मैं जानना चाहता हूँ”

“इसीलिए बुलाया है। आपकी सौतेली मां चन्द्रावती का पता लग गया है। वह अपने नए मकान में रह रही है। उसके बयानों से आपकी रिपोर्ट झूठी साबित होती है।”

“जी...।”

“जी हाँ... चन्द्रावती का बयान है की आग उसकी गलती से लग गयी थी। हवा के कारण लालटेन कपड़ों के ढेर पर गिर गई थी और जब उसकी आँख खुली तो आग बेकाबू हो चुकी थी। किसी तरह वह अपनी जान बचा कर बाहर निकलने में सफल हो सकी। उसका कथन है कि उस रात तुम घर मे मौजूद नहीं थे।”

कुछ पल रुक कर वह बोला –
“और घर जल जाने के कारण वह अपने किसी रिश्तेदार के पास चली गई थी। कस्बे में उसका कहीं ठिकाना नहीं था। कुछ दिन बाद वह लौट आई और नए मकान में रहने लगी।

“तुम्हारी रिपोर्ट में जो बातें दर्ज है वह उस रात की घटना से कोई तालमेल नहीं रखती, ऐसा लगता है तुमने वह रिपोर्ट ठाकुर से व्यक्तिगत रंजिश के कारण लिखवाई है”

“ऐसा नहीं है... हरगिज नहीं।” मैंने मुट्ठियाँ भींचकर कहा।

“उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं।”

“इंस्पेक्टर साहब ! आप मेरी आँखे देख रहें है – इन आँखों ने उस रात के बाद कोई दृश्य नहीं देखा। इन आँखों में आग का वह दृश्य आज भी मौजूद है, ये आँखें उस रात की घटना की साक्षी है।”

“मुझे तुमसे सहानुभूति है। कोई दूसरा होता तो मैं झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने के आरोप में उसे गिरफ्तार कर लेता।”

“मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता, उसने ऐसा बयान क्यों दिया ?”

“मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। मैंने अपनी छानबीन पूरी कर ली – तुम्हें यही सूचित करना था। अब तुम जा सकते हो।”

मेरे पास चारा भी क्या था, लेकिन मैं थाने से निकलते वक़्त बहुत उत्तेजित था। मेरा सर घूम रहा था और टांगे कांप रही थी। अगर मेरा दोस्त मुझे सहारा न दिया होता तो मैं लड़खड़ा कर गिर पड़ता। धीरे-धीरे लाठी का सहारा ले कर मैं गेट तक पहुंचा तभी जीप रुकने की आवाज सुनाई दी। जीप थाने से निकल रही थी, वह पीछे से आई थी।

“सुनो।” उसी थानेदार का स्वर सुनाई पड़ा।

मैं ठिठक कर रुक गया, शायद मुझे ही पुकारा हो।
 
उसने मुझे ही पुकारा था।

“तुम्हें एक नेक सलाह देना चाहूँगा।” वह बोला – “गढ़ी वालों से उलझ कर किसी ने सफलता प्राप्त नहीं की बल्कि खुद को मिटा दिया। मुझे पूरा विश्वास है की बात तुम्हारी समझ में आ गई होगी।”

जीप आगे बढ़ गई।

उसकी बातें नश्तर की तरह सीने में उतर गई। सूरजगढ़ी... गढ़ी का ठाकुर... उसने मेरी दुनिया बर्बाद कर दी है... और चन्द्रावती... उसने भी साथ नहीं दिया – क्या उसे मालूम नहीं की मैं अन्धा हो गया हूं। अवश्य मालूम होगा – तो उसने ऐसा बयान क्यों दिया....।”

“क्यों..?”

इस क्यों का जवाब मुझे नहीं मिल पा रहा था।

और ठाकुर प्रताप जिसकी मैंने शक्ल भी नहीं देखी, क्या वह इतनी बड़ी ताकत है कि जिसकी चाहे जिंदगी उजाड़ दे।

मेरे सीने में बगावत थी।

मैं इसका बदला लूंगा।

बदला...।

प्रतिशोध की आग सीने में धधकती जा रही थी।

अगर मुझे अपनी जान भी देनी पड़ी तो भी मैं उसे सबक पढ़ाऊँगा... मेरी जिंदगी की अब तो कोई कीमत रही ही नहीं है।
अनेक आशंकाओं के बादल दिमाग में घुमड़ रहे थे


आज फिर वैसा ही पानी बरस रहा है... वैसी ही तूफानी रात लगती है। मेरे लिए तो सारा संसार अँधेरे की दीवार है... पर आज तो अवश्य रात और भी भयानक काली होगी।

एक सवार आगे बढ़ रहा है।

वह सवार मैं ही तो हूं।

घोड़े की लगाम आज शम्भू ने थामी है... वह अच्छी काठी भी चला लेता है। मैंने उसे चिट्ठी डालकर गाँव से बुलाया है - क्योंकि वह मेरे भरोसे का आदमी है।

मुझे याद आया दो रोज पहले शम्भू मेरी हालत देख कर कितना रोया था, वह मेरे पिता का खैरख्वाह भी रह चुका था और मुझे साहब बहादुर कहता था।
वह मेरे लिए प्राणों की आहुति दे सकता था।

शम्भू मेरे हुक्म का पालन कर रहा था। बरसात तो इस क्षेत्र में अक्सर होती थी और आये दिन घटायें छाई रहती थी।

इस रात भी मूसलाधार पानी बरस रहा था।
और मैं दृढ संकल्प लिए आगे बढ़ रहा था।

बड़ी खामोशी से यात्रा जारी थी। कभी-कभी मैं उससे पूछ लेता की हम कहाँ तक आ पहुंचे हैं, तो वह संक्षिप्त सा जवाब दे देता।

मेरी यह यात्रा अत्यंत गोपनीय थी इसलिए रात का सफ़र तय किया था। जबकि मेरी समझ में अभी तक यह बात नहीं आई थी की मैं वहां जा कर क्या करूँगा।

बस इतनी ही बात तय समझी थी की मैं सर्वप्रथम चन्द्रावती से मिलूंगा जो मेरी नामचारे की मां है। मुझे उससे विश्वासघात का कारण पूछना था।

काफी देर बाद मैंने उससे पूछा।
“अब कितनी दूर है शम्भू ?”
 
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