desiaks
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उस वक्त बेताल कहां गया। होश में आने के बाद मैंने अपने को सीखचों वाले कोठरी में पाया … मैंने बेताल को बहुत याद किया पर उसकी उपस्थिति का कोई आभास नहीं मिला। न हीं मैंने उसकी आवाज सुनी।
मैंने महसूस किया कि मेरी टांगों की शक्ति नष्ट हो गई है और मैं फिर से पंगुल हो गया हूं। फिर लोगों की भीड़ मुझे देखने आई…. फिर मेरी शिनाख्त करने वाले आते रहे…. उसके बाद पुलिस के डंडो का सामना करना पड़ा…. मैंने अपने सारे अपराध स्वीकार कर लिये थे।
इस समय मुझे विनीता और सेठ निरंजन दास दिखाई दिये।
इंस्पेक्टर ने जब मुझे उनके सामने पेश किया तो विनीता चीख पड़ी।
“नहीं… यह नहीं हो सकता… यह झूठ है…. तुम लोगों ने एक महात्मा को पकड़ लिया है….. नहीं….. नहीं….. मैं अपने बेटे का खून किसी देवता के सिर नहीं मढ सकती। इंस्पेक्टर इन्हें तुरंत छोड़ दीजिए।”
“क्या आप इसे जानती हैं ?”
“इन्हें कौन नहीं जानता…. देखिए इंस्पेक्टर…. आप इन्हें छोड़ दीजिए… और अगर आप अपने सिर यह आप पाप मढना ही चाहते हैं तो मेरा दामन पाक-साफ रहने दीजिए….।”
मैं खामोश रहा।
इंस्पेक्टर ने तुरंत मुझे हवालात में भेज दिया। उसके बाद एक बार विनीता मुझसे क्षमा मांगने आई। मैं आश्चर्य के भंवर में डूबा था। उसे अब भी मुझ पर विश्वास था कि मैंने खून नहीं किया - और वह मुझसे पूछना चाहती थी कि मैं चुप क्यों हूं - पर उन दिनों मैंने मौन साध लिया था। मैं कुछ भी नहीं बोलता था। अब मैंने अपने आपको ईश्वर के हवाले छोड़ दिया था।
उसके बाद मुझे जेल की हवालात में भेज दिया गया। वहां मैं असहाय कालकोठरी में पड़ा रहा। फिर अचानक मेरी टांगों की डॉक्टरी परीक्षा हुई। डॉक्टरों ने रिपोर्ट दे दी कि यह कब से बेकार है।
अदालत में पहली पेशी हुई और मेरी टांगों की डॉक्टरी ने मुझे बचा लिया। अदालत में विनीता की तरफ से एक याचिका दर्ज थी की पुलिस ने गलत आदमी को गिरफ्तार किया है और उसकी टांगे तोड़ दी है। इस पर पुलिस ने स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी के पहले उसे अचानक लकवा मार गया था। डॉक्टरी रिपोर्ट सबसे निराली थी, उसके अनुसार मेरी टांगे लकवे से नहीं किसी चोट से बेकार हुई है और यह चोट गिरफ्तारी से लगभग एक महीना पूर्व की है। और यह सिद्ध हो गया कि पुलिस के सारे गवाह झूठे हैं - जब मेरी टांगें पहले से इस योग्य नहीं थी कि मैं चल फिर सकूं तो मैं उतनी दूर जाकर बच्चे का अपहरण करके उसे कैसे जंगल में काट सकता था। मेरे बयानों से पहले की अदालत ने मुकदमा झूठा करार दे दिया।
परंतु पुलिस के पास मेरे खिलाफ दूसरे केस भी थे, यह मुकदमें सूरजगढ़ से संबंधित थे। इंस्पेक्टर ने वह रिपोर्ट ही दिखाई जिसमें मैंने कभी ठाकुर प्रताप पर आरोप लगाया था। यह वही इंस्पेक्टर था जिसने मुझे ठाकुर से दूर रहने की सलाह दी थी।
इसी रिपोर्ट को उसने दुश्मनी का मुद्दा प्रकट किया।
सूरजगढ़ के मुकदमे भी चले। सारे गवाह भी आते रहे - अपने बयान देते रहे, परंतु किसी ने भी यह बात नहीं कही की उन घटनाओं के पीछे मेरा हाथ था। यहां तक कि कमलाबाई नामक वेश्या ने भी मुझे पहचानने से इंकार कर दिया। पुलिस को आश्चर्य था कि सारे गवाह कैसे टूट गए। और मैं जो फांसी की सजा का इंतजार कर रहा था - मुझे भी कम अचरज ना हुआ।
विनीता ने मेरे लिये बकायदा वकील की व्यवस्था की थी और वह हर पेशी पर अदालत में मौजूद होती। उसे देख देख कर आत्मग्लानि हो उठती। वह मेरे लिये उपहार लाती और उसी आदर स्वर में बात करती। तब तक मैं भी मौन धारण किए था। उसका ख्याल था कि पुलिस ने मुझे पंगु बनाया है।
फिर वह दिन भी आ गया जब मुझे रिहा कर दिया गया।
गांव वासी सामूहिक रुप से मुझे पुष्पमालाएं डालकर जुलुस बना कर ले गए। उन अभागों की नजर में मैं ईश्वर का अवतार था। बिक्रमगंज की सड़कों से गुजरता रहा। मैंने अपना मौन अभी तक नहीं तोड़ा था।
मुझे उसी बस्ती में ले जाया गया।
उन लोगों ने मेरे चरणों को धोकर चरणामृत का पान किया। मुझे उन लोगों के भोलेपन पर तरस आ रहा था, जो मुझ पापी को ईश्वर का अवतार मान बैठे थे। परंतु कभी-कभी ऐसा भी होता है, जब किसी पापी को समाज इतनी प्रतिष्ठा दे देता है तो उसके मन से आप ही पाप की छाया निरंतर दूर हटती चली जाती है और वह ईश्वर से अपने गुनाहों की क्षमा मांग कर ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाता है।
विनीता कितनी भोली थी।
मैं कशमकश के द्वार पर जूझ रहा था। घृणा, पाप और पुण्य का संघर्ष निरंतर जारी था। शाम हो रही थी और धुंधलके में मुझे अंधेरे के अज्ञात भय का आभास हो रहा था। वृक्षों के साये लंबे होकर लालिमा में बदलते जा रहे थे। जुलूस उसी मंदिर में समाप्त हुआ।
सारे गांव वासी वहां एकत्रित हो गए। बच्चे बूढ़े जवान सभी मुझे देख रहे थे। मुझे प्रणाम कर रहे थे, आशीर्वाद ग्रहण कर रहे थे। अचानक मेरी निगाह इन सब के पीछे खड़े भय की प्रतिमा अगिया वेताल पर पड़ी। क्रोधित नजर आता था। मेरा दिल बैठने लगा, क्या मैं उसी जाल में फंसता जा रहा हूं, क्या बेताल मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा। मैंने हिम्मत बटोरी और तय किया कि उसके आगे नहीं झुकूंगा।
“विनीता मुझे मंदिर की सीढ़ियों पर ले चलो।” मेरे मुंह से निकला।
मैंने महसूस किया कि मेरी टांगों की शक्ति नष्ट हो गई है और मैं फिर से पंगुल हो गया हूं। फिर लोगों की भीड़ मुझे देखने आई…. फिर मेरी शिनाख्त करने वाले आते रहे…. उसके बाद पुलिस के डंडो का सामना करना पड़ा…. मैंने अपने सारे अपराध स्वीकार कर लिये थे।
इस समय मुझे विनीता और सेठ निरंजन दास दिखाई दिये।
इंस्पेक्टर ने जब मुझे उनके सामने पेश किया तो विनीता चीख पड़ी।
“नहीं… यह नहीं हो सकता… यह झूठ है…. तुम लोगों ने एक महात्मा को पकड़ लिया है….. नहीं….. नहीं….. मैं अपने बेटे का खून किसी देवता के सिर नहीं मढ सकती। इंस्पेक्टर इन्हें तुरंत छोड़ दीजिए।”
“क्या आप इसे जानती हैं ?”
“इन्हें कौन नहीं जानता…. देखिए इंस्पेक्टर…. आप इन्हें छोड़ दीजिए… और अगर आप अपने सिर यह आप पाप मढना ही चाहते हैं तो मेरा दामन पाक-साफ रहने दीजिए….।”
मैं खामोश रहा।
इंस्पेक्टर ने तुरंत मुझे हवालात में भेज दिया। उसके बाद एक बार विनीता मुझसे क्षमा मांगने आई। मैं आश्चर्य के भंवर में डूबा था। उसे अब भी मुझ पर विश्वास था कि मैंने खून नहीं किया - और वह मुझसे पूछना चाहती थी कि मैं चुप क्यों हूं - पर उन दिनों मैंने मौन साध लिया था। मैं कुछ भी नहीं बोलता था। अब मैंने अपने आपको ईश्वर के हवाले छोड़ दिया था।
उसके बाद मुझे जेल की हवालात में भेज दिया गया। वहां मैं असहाय कालकोठरी में पड़ा रहा। फिर अचानक मेरी टांगों की डॉक्टरी परीक्षा हुई। डॉक्टरों ने रिपोर्ट दे दी कि यह कब से बेकार है।
अदालत में पहली पेशी हुई और मेरी टांगों की डॉक्टरी ने मुझे बचा लिया। अदालत में विनीता की तरफ से एक याचिका दर्ज थी की पुलिस ने गलत आदमी को गिरफ्तार किया है और उसकी टांगे तोड़ दी है। इस पर पुलिस ने स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी के पहले उसे अचानक लकवा मार गया था। डॉक्टरी रिपोर्ट सबसे निराली थी, उसके अनुसार मेरी टांगे लकवे से नहीं किसी चोट से बेकार हुई है और यह चोट गिरफ्तारी से लगभग एक महीना पूर्व की है। और यह सिद्ध हो गया कि पुलिस के सारे गवाह झूठे हैं - जब मेरी टांगें पहले से इस योग्य नहीं थी कि मैं चल फिर सकूं तो मैं उतनी दूर जाकर बच्चे का अपहरण करके उसे कैसे जंगल में काट सकता था। मेरे बयानों से पहले की अदालत ने मुकदमा झूठा करार दे दिया।
परंतु पुलिस के पास मेरे खिलाफ दूसरे केस भी थे, यह मुकदमें सूरजगढ़ से संबंधित थे। इंस्पेक्टर ने वह रिपोर्ट ही दिखाई जिसमें मैंने कभी ठाकुर प्रताप पर आरोप लगाया था। यह वही इंस्पेक्टर था जिसने मुझे ठाकुर से दूर रहने की सलाह दी थी।
इसी रिपोर्ट को उसने दुश्मनी का मुद्दा प्रकट किया।
सूरजगढ़ के मुकदमे भी चले। सारे गवाह भी आते रहे - अपने बयान देते रहे, परंतु किसी ने भी यह बात नहीं कही की उन घटनाओं के पीछे मेरा हाथ था। यहां तक कि कमलाबाई नामक वेश्या ने भी मुझे पहचानने से इंकार कर दिया। पुलिस को आश्चर्य था कि सारे गवाह कैसे टूट गए। और मैं जो फांसी की सजा का इंतजार कर रहा था - मुझे भी कम अचरज ना हुआ।
विनीता ने मेरे लिये बकायदा वकील की व्यवस्था की थी और वह हर पेशी पर अदालत में मौजूद होती। उसे देख देख कर आत्मग्लानि हो उठती। वह मेरे लिये उपहार लाती और उसी आदर स्वर में बात करती। तब तक मैं भी मौन धारण किए था। उसका ख्याल था कि पुलिस ने मुझे पंगु बनाया है।
फिर वह दिन भी आ गया जब मुझे रिहा कर दिया गया।
गांव वासी सामूहिक रुप से मुझे पुष्पमालाएं डालकर जुलुस बना कर ले गए। उन अभागों की नजर में मैं ईश्वर का अवतार था। बिक्रमगंज की सड़कों से गुजरता रहा। मैंने अपना मौन अभी तक नहीं तोड़ा था।
मुझे उसी बस्ती में ले जाया गया।
उन लोगों ने मेरे चरणों को धोकर चरणामृत का पान किया। मुझे उन लोगों के भोलेपन पर तरस आ रहा था, जो मुझ पापी को ईश्वर का अवतार मान बैठे थे। परंतु कभी-कभी ऐसा भी होता है, जब किसी पापी को समाज इतनी प्रतिष्ठा दे देता है तो उसके मन से आप ही पाप की छाया निरंतर दूर हटती चली जाती है और वह ईश्वर से अपने गुनाहों की क्षमा मांग कर ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाता है।
विनीता कितनी भोली थी।
मैं कशमकश के द्वार पर जूझ रहा था। घृणा, पाप और पुण्य का संघर्ष निरंतर जारी था। शाम हो रही थी और धुंधलके में मुझे अंधेरे के अज्ञात भय का आभास हो रहा था। वृक्षों के साये लंबे होकर लालिमा में बदलते जा रहे थे। जुलूस उसी मंदिर में समाप्त हुआ।
सारे गांव वासी वहां एकत्रित हो गए। बच्चे बूढ़े जवान सभी मुझे देख रहे थे। मुझे प्रणाम कर रहे थे, आशीर्वाद ग्रहण कर रहे थे। अचानक मेरी निगाह इन सब के पीछे खड़े भय की प्रतिमा अगिया वेताल पर पड़ी। क्रोधित नजर आता था। मेरा दिल बैठने लगा, क्या मैं उसी जाल में फंसता जा रहा हूं, क्या बेताल मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा। मैंने हिम्मत बटोरी और तय किया कि उसके आगे नहीं झुकूंगा।
“विनीता मुझे मंदिर की सीढ़ियों पर ले चलो।” मेरे मुंह से निकला।