hotaks444
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कामुक-कहानियाँ
शादी सुहागरात और हनीमून
लेखक -क्यूट रानी
दोस्तो मैं यानी आपका दोस्त राज शर्मा फिर हाजिर हूँ इस कहानी के साथ दोस्तो ये कहानी मैने बहुत समय पहले पढ़ी थी कहानी इतनी अच्छी लगी कि मैं इसे हिन्दी मे डब करने नही रोक पाया दोस्तो ये कहानी क्यूट रानी ने हिंगलिश मे लिखी थी
बात उन दिनो की है जब मे जवानी की दहलीज पे तो कदम रख चुकी थी पर अभी बचपन को अलविदा नही कहा था. बरस पंद्रह या सोलह का सीन, जवानी की राते मर्दों के दिन वाली उमर थी. बिना बात के दुपट्टा सीने से ढालकता था, अंगड़ाइया आती थी. नहाते समय जब मे अपनी गोलाइयाँ देखती तो खुद शर्मा जाती थी, लेकिन फिर उन्हे प्यार से, हल्के से कभी छूती थी कभी सहलाती थी. और कभी नीचे झुक के अपनी थोड़ी थोड़ी केसर क्यारी आ चुकी थी, उसे देख के खुद लजा जाती.. ऐसी बात नही थी कि मुझे देह के बारे मे कुछ पता नही था. भाभी के कमरे से 'स्त्री पुरुष' और ऐसी ही एक दो और कहानियाँ पढ़ के, औरतो की कितनो से, ख़ासकर सलाह और डाक्टर से पूछिए, ऐसे कलमो से और सबसे बढ़कर घर मे ही इतना खुला माहौल था कुछ भी परदा या बड़े छोटे का लिहाज या छिपाव दुराव नही था. खास कर काम करने वालियाँ, उंगली के इशारे से, गंदे खुले मज़ाक से, जब मे अकेली होउ या अपनी सहेलियो के साथ तो सब कुछ खुल के कह देती थी. उन्हे ही क्यो मेरी भाभी भी, सिर्फ़ मज़ाक नही उनकी चिकोतियाँ, चिडाने बिराने और यहाँ वहाँ मौका पाके हाथ रगड़ने लेकिन सच बताऊ तो जवानी की दस्तक का अहसास कराया मुझे फ़िकरे कसने और सिटी बजाने वाले लड़को ने. 'न सोलह से ज़्यादा ने पंद्रह से कम' जब वो कहते तो हम शरम से गर्दन झुका के अपनी चुन्नियाँ कस के अपने सीने से दबा के निकल जाती. लेकिन उनके दूर होते ही एक दूसरे को छेड़ती, और कहती, हे ये तेरा वाला था. न जाने किस किस तरह के ख्वाब थे, बार बार छज्जे पे जा के खड़ी हो जाती. इवनिंग बुलेटिन की जगह अब एम & बी ने ले ली थी. लेकिन उसके साथ ही ये बात भी थी, बड़े अभी भी मुझे बच्ची ही समझते. मम्मी अक्सर टोक देती अभी तो तुम बच्ची हो ये बडो की तरह बात मत करो और ये बात सही भी थी कि मे अभी भी कभी कभी छत पे रस्सी कुदति या मन करता तो मुहल्ले के बच्चो के साथ इक्कत दुक्कत भी खेल आती. लेकिन मुझे बस ये मन करता था कि घर के लोग तो मुझे अब बच्ची मानना बंद कर दे.
ये एक दिन हो गया. लेकिन जिस तरह से हुआ, मेने कभी सोचा भी नही था. हुआ ये कि मेरी दादी आई, उनकी कुछ तबीयत खराब थी. गाव मे ठीक से उनका इलाज हो नही पा रहा था. मेरी तो चाँदी हो गयी क्योंकि वो मेरी फैवरेत दादी थी, मे उनकी फेवोवरिट पोती. लेकिन उन्होने एक दिन एलान कर दिया और उस एलान का असर किसी मुल्क के ऐलाने जंग से कम नही था. वो एलान ये था कि उनके ख्याल से मे बड़ी हो गयी हू और यहाँ तक तो उनसे मेरा पूरा इत्तेफ़ाक था, लेकिन उसके साथ उन्होने ये भी जोड़ दिया कि, मेरी शादी तुरंत कर देनी चाहिए. उसमे उन्होने एक एमोशनल तुरुप का पत्ता जड़ दिया कि उनकी तबीयत खराब रहती है, इसलिए उन्हे कुछ हो जाय तो उसके पहले वो अपनी इकलौती पोती की शादी देखने चाहेंगी. पापा तो अपनी मा के एकलौते लड़के थे, इसलिए दादी की बात टालने तो वो सोच भी नही सकते थे, पर मम्मी ने कुछ रेज़िस्ट किया कि शादी कोई गुड्डे गुडियो का खेल तो है नही. फिर बड़ी हिम्मत कर के वो दादी से बोली,
"अभी इसकी उमर ही क्या है. अभी कुछ दिन पहले सत्रहवा लगा है, बारहवे मे अभी गयी है. अभी तो.."
दादी सरौते से छ्चालियाँ कुटर रही थी, बिने रुके बोली, "अरे, इसकी उमर की बात कर रही है. तुम्हारी क्या उमर थी, जब ब्याह के मे इस घर मे ले आई थी. मुश्किल से सोलहवा पूरा किया था, और शादी के ठीक नौ महीने गुज़रे जब तुम इसकी उमर की थी तो ये चार महीने की तुम्हारी गोद मे थी."
भाभी तो खुल के मम्मी को देख के मुस्करा रही थी और मे दूसरी तरफ देखने लगी जैसे किसी और के बारे मे बात हो रही हो. दादी को अड्वॅंटेज मिल चुका था और उसे कायम रखते हुए, उन्होने मुस्कराते हुए बात जारी रखी, "और पहले दिन से ही शायद ही कोई दिन बचा हो जब नागा हुआ हो याद है कभी अगर मे तुम्हे थोड़ी देर भी ज़्यादा रोक लेती थी तो तुम्हे जम्हाईयाँ आने लगती थी" मम्मी नई नेवेली दुल्हन की तरह शर्मा गयी और अब मे और भाभी खुल के मुस्करा रहे थे. सीधे मुक़ाबले में तो अब कुछ हो नही सकता था, इसलिए संधि प्रस्ताव लेके मुझे दादी के पास भेजा गया. तय ये हुआ कि पोती और दादी मिल कर तय करेगिं और जो फ़ैसला होगा वही अंतिम होगा. जैसे लड़ाई जीत लेने के बाद विजेता फूल कर कुप्पा हो जाता है, वही हालत दादी की थी. सिर्फ़ हम दोनो कमरे मे थे. दादी ने बहोत मेरी मन मन्नोवल की और मुझसे पूछा कि मुझे क्या डर है.
मे बोली, " कल आप कहेंगी कि मुझे तेरे बच्चे का मूह देखने है तो फिर मुझे नही करना है ये सब."
वो मान गयी. तय ये हुआ कि शादी के अगले 4-5 साल तक बच्चे की कोई बात नही होगी और तब तक दादी ना सिर्फ़ कोई शर्त रखेगी, बल्कि बीमार क्या उन्हे जुकाम बुखार भी नही होना चाहिए. जो हालत अगस्त मुनि की थी जो उन्होने विंध्याचल पर्वत से शर्त रखी थी वही मेरी हुई. ये भी मेरी बात मान ली गयी कि लड़का मे देखूँगी, मेरी पसंद से ही शादी तय की जाएगी. मे ग्रॅजुयेशन तक पढ़ाई जारी रखूँगी, आगे हम दोनो की मर्ज़ी.
मेने ये भी कहा कि मे ड्रेस भी पहनने जारी रखूँगी तो दादी ने मेरे गालो पे प्यार से चिकोटी काट के कहा, "अरे मुझ मालूम है तू अपने दूल्हे को पटा लेगी, फिर तो ये तुम दोनो के हाथ मे है," भाभी ने बात पूरी की,
" क्या पहनो या क्या ना पहनो वैसे बन्नो मेरी मानो तो वो तुम्हे कुछ भी नही पहनने देगा. शादी के बाद कुछ दिन तो कपड़ो की ज़रूरत पड़ती नही." अब भाभी और दादी के साथ मम्मी भी ठहाको मे शामिल हो गयी थी और शरमाने की बारी मेरी थी.
दादी ने अपनी वसीयत का पत्ता भी खोल दिया. गाव की सारी प्रॉपर्टी, खेत, बगीचे, मकान सब कुछ बाबा ने दादी के नाम कर दिया था. पापा, दादी के अकेले लड़के और मे अपने मम्मी पापा की अकेली. दादी ने सब कुछ मेरे नाम कर दिया था बस शर्त ये थी कि वो मेरी शादी के अगले दिन से मेरा होगा.
उसी दिन, बल्कि उसी समय से मे बडो मे शुमार कर ली गयी.
शादी सुहागरात और हनीमून
लेखक -क्यूट रानी
दोस्तो मैं यानी आपका दोस्त राज शर्मा फिर हाजिर हूँ इस कहानी के साथ दोस्तो ये कहानी मैने बहुत समय पहले पढ़ी थी कहानी इतनी अच्छी लगी कि मैं इसे हिन्दी मे डब करने नही रोक पाया दोस्तो ये कहानी क्यूट रानी ने हिंगलिश मे लिखी थी
बात उन दिनो की है जब मे जवानी की दहलीज पे तो कदम रख चुकी थी पर अभी बचपन को अलविदा नही कहा था. बरस पंद्रह या सोलह का सीन, जवानी की राते मर्दों के दिन वाली उमर थी. बिना बात के दुपट्टा सीने से ढालकता था, अंगड़ाइया आती थी. नहाते समय जब मे अपनी गोलाइयाँ देखती तो खुद शर्मा जाती थी, लेकिन फिर उन्हे प्यार से, हल्के से कभी छूती थी कभी सहलाती थी. और कभी नीचे झुक के अपनी थोड़ी थोड़ी केसर क्यारी आ चुकी थी, उसे देख के खुद लजा जाती.. ऐसी बात नही थी कि मुझे देह के बारे मे कुछ पता नही था. भाभी के कमरे से 'स्त्री पुरुष' और ऐसी ही एक दो और कहानियाँ पढ़ के, औरतो की कितनो से, ख़ासकर सलाह और डाक्टर से पूछिए, ऐसे कलमो से और सबसे बढ़कर घर मे ही इतना खुला माहौल था कुछ भी परदा या बड़े छोटे का लिहाज या छिपाव दुराव नही था. खास कर काम करने वालियाँ, उंगली के इशारे से, गंदे खुले मज़ाक से, जब मे अकेली होउ या अपनी सहेलियो के साथ तो सब कुछ खुल के कह देती थी. उन्हे ही क्यो मेरी भाभी भी, सिर्फ़ मज़ाक नही उनकी चिकोतियाँ, चिडाने बिराने और यहाँ वहाँ मौका पाके हाथ रगड़ने लेकिन सच बताऊ तो जवानी की दस्तक का अहसास कराया मुझे फ़िकरे कसने और सिटी बजाने वाले लड़को ने. 'न सोलह से ज़्यादा ने पंद्रह से कम' जब वो कहते तो हम शरम से गर्दन झुका के अपनी चुन्नियाँ कस के अपने सीने से दबा के निकल जाती. लेकिन उनके दूर होते ही एक दूसरे को छेड़ती, और कहती, हे ये तेरा वाला था. न जाने किस किस तरह के ख्वाब थे, बार बार छज्जे पे जा के खड़ी हो जाती. इवनिंग बुलेटिन की जगह अब एम & बी ने ले ली थी. लेकिन उसके साथ ही ये बात भी थी, बड़े अभी भी मुझे बच्ची ही समझते. मम्मी अक्सर टोक देती अभी तो तुम बच्ची हो ये बडो की तरह बात मत करो और ये बात सही भी थी कि मे अभी भी कभी कभी छत पे रस्सी कुदति या मन करता तो मुहल्ले के बच्चो के साथ इक्कत दुक्कत भी खेल आती. लेकिन मुझे बस ये मन करता था कि घर के लोग तो मुझे अब बच्ची मानना बंद कर दे.
ये एक दिन हो गया. लेकिन जिस तरह से हुआ, मेने कभी सोचा भी नही था. हुआ ये कि मेरी दादी आई, उनकी कुछ तबीयत खराब थी. गाव मे ठीक से उनका इलाज हो नही पा रहा था. मेरी तो चाँदी हो गयी क्योंकि वो मेरी फैवरेत दादी थी, मे उनकी फेवोवरिट पोती. लेकिन उन्होने एक दिन एलान कर दिया और उस एलान का असर किसी मुल्क के ऐलाने जंग से कम नही था. वो एलान ये था कि उनके ख्याल से मे बड़ी हो गयी हू और यहाँ तक तो उनसे मेरा पूरा इत्तेफ़ाक था, लेकिन उसके साथ उन्होने ये भी जोड़ दिया कि, मेरी शादी तुरंत कर देनी चाहिए. उसमे उन्होने एक एमोशनल तुरुप का पत्ता जड़ दिया कि उनकी तबीयत खराब रहती है, इसलिए उन्हे कुछ हो जाय तो उसके पहले वो अपनी इकलौती पोती की शादी देखने चाहेंगी. पापा तो अपनी मा के एकलौते लड़के थे, इसलिए दादी की बात टालने तो वो सोच भी नही सकते थे, पर मम्मी ने कुछ रेज़िस्ट किया कि शादी कोई गुड्डे गुडियो का खेल तो है नही. फिर बड़ी हिम्मत कर के वो दादी से बोली,
"अभी इसकी उमर ही क्या है. अभी कुछ दिन पहले सत्रहवा लगा है, बारहवे मे अभी गयी है. अभी तो.."
दादी सरौते से छ्चालियाँ कुटर रही थी, बिने रुके बोली, "अरे, इसकी उमर की बात कर रही है. तुम्हारी क्या उमर थी, जब ब्याह के मे इस घर मे ले आई थी. मुश्किल से सोलहवा पूरा किया था, और शादी के ठीक नौ महीने गुज़रे जब तुम इसकी उमर की थी तो ये चार महीने की तुम्हारी गोद मे थी."
भाभी तो खुल के मम्मी को देख के मुस्करा रही थी और मे दूसरी तरफ देखने लगी जैसे किसी और के बारे मे बात हो रही हो. दादी को अड्वॅंटेज मिल चुका था और उसे कायम रखते हुए, उन्होने मुस्कराते हुए बात जारी रखी, "और पहले दिन से ही शायद ही कोई दिन बचा हो जब नागा हुआ हो याद है कभी अगर मे तुम्हे थोड़ी देर भी ज़्यादा रोक लेती थी तो तुम्हे जम्हाईयाँ आने लगती थी" मम्मी नई नेवेली दुल्हन की तरह शर्मा गयी और अब मे और भाभी खुल के मुस्करा रहे थे. सीधे मुक़ाबले में तो अब कुछ हो नही सकता था, इसलिए संधि प्रस्ताव लेके मुझे दादी के पास भेजा गया. तय ये हुआ कि पोती और दादी मिल कर तय करेगिं और जो फ़ैसला होगा वही अंतिम होगा. जैसे लड़ाई जीत लेने के बाद विजेता फूल कर कुप्पा हो जाता है, वही हालत दादी की थी. सिर्फ़ हम दोनो कमरे मे थे. दादी ने बहोत मेरी मन मन्नोवल की और मुझसे पूछा कि मुझे क्या डर है.
मे बोली, " कल आप कहेंगी कि मुझे तेरे बच्चे का मूह देखने है तो फिर मुझे नही करना है ये सब."
वो मान गयी. तय ये हुआ कि शादी के अगले 4-5 साल तक बच्चे की कोई बात नही होगी और तब तक दादी ना सिर्फ़ कोई शर्त रखेगी, बल्कि बीमार क्या उन्हे जुकाम बुखार भी नही होना चाहिए. जो हालत अगस्त मुनि की थी जो उन्होने विंध्याचल पर्वत से शर्त रखी थी वही मेरी हुई. ये भी मेरी बात मान ली गयी कि लड़का मे देखूँगी, मेरी पसंद से ही शादी तय की जाएगी. मे ग्रॅजुयेशन तक पढ़ाई जारी रखूँगी, आगे हम दोनो की मर्ज़ी.
मेने ये भी कहा कि मे ड्रेस भी पहनने जारी रखूँगी तो दादी ने मेरे गालो पे प्यार से चिकोटी काट के कहा, "अरे मुझ मालूम है तू अपने दूल्हे को पटा लेगी, फिर तो ये तुम दोनो के हाथ मे है," भाभी ने बात पूरी की,
" क्या पहनो या क्या ना पहनो वैसे बन्नो मेरी मानो तो वो तुम्हे कुछ भी नही पहनने देगा. शादी के बाद कुछ दिन तो कपड़ो की ज़रूरत पड़ती नही." अब भाभी और दादी के साथ मम्मी भी ठहाको मे शामिल हो गयी थी और शरमाने की बारी मेरी थी.
दादी ने अपनी वसीयत का पत्ता भी खोल दिया. गाव की सारी प्रॉपर्टी, खेत, बगीचे, मकान सब कुछ बाबा ने दादी के नाम कर दिया था. पापा, दादी के अकेले लड़के और मे अपने मम्मी पापा की अकेली. दादी ने सब कुछ मेरे नाम कर दिया था बस शर्त ये थी कि वो मेरी शादी के अगले दिन से मेरा होगा.
उसी दिन, बल्कि उसी समय से मे बडो मे शुमार कर ली गयी.