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- Dec 5, 2013
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सांझ अभी ढली न थी-किन्तु वर्षा के कारण अभी से अंधकार के साए फैलने लगे थे। राज ने लौटते ही शिवानी से डॉली के विषय में पूछा। शिवानी बोली- 'नानीजी बीमार हो गई हैं।'
'क्या मतलब?'
'भीग गई थीं। मैंने छूकर देखा तो जिस्म तवे की भांति तप रहा था। चाय भी नहीं पी।'
'क्यों?'
'कहती थी-मन ठीक नहीं।'
'किन्तु चाय से मन का क्या संबंध?'
'पूछकर देखिए।'
'हां, पूछना तो पड़ेगा ही।' इतना कहकर राज ने अपनी व्हील चेयर घुमाई और दूसरे कमरे में आ गया। डॉली बिस्तर पर लेटी थी। आंखें बंद थी-शायद सो रही थी। राज उसे ध्यान से देखने लगा। डॉली वास्तव में इतनी सुंदर थी कि उससे अधिक सुंदरता की कल्पना भी नहीं हो सकती थी। गुलाब की पंखुड़ियों की भांति एक-दूसरे से जुड़े उसके होंठ, लालिमा युक्त पारदर्शी कपोल और झील-सी आंखें। तकिए पर फैले उसके रेशमी केश तो इतने सुंदर थे कि देखते ही काली घटा का भ्रम होता। यह सब देखते-देखते राज के हृदय में आंदोलन-सा छिड़ गया। भावनाएं मचल-मचल उठी और रक्त में कोई तूफान-सा चीख उठा। दिल में आया-अभी नीचे झुके और डॉली के मधु भरे सुर्ख होंठों पर एक चुंबन अंकित कर
तभी शिवानी कमरे में आ गई। उसने एक नजर डॉली पर डाली और फिर राज से पूछा- 'क्या हुआ भैया?'
'क-कुछ नहीं शिवा!' राज ने चौंककर कहा। चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो चोरी करते पकड़ा गया हो।
शिवानी फिर डॉली पर झुक गई और उसके मस्तक पर फैले बालों को पीछे हटाने लगी। एकाएक वह चौंक गई। बुखार के कारण डॉली का जिस्म तवे की भांति तप रहा था। पीछे हटकर उसने राज से कहा- 'भैया! डॉली को तो बहुत तेज बुखार है।'
'तू ऐसा कर-चौराहे से डॉक्टर खान को ले आ। वर्षा भी अब रुक गई है जल्दी कर।' राज ने कहा।
शिवानी तुरंत तैयार हो गई और चली गई। उसके चले जाने पर राज ने अपनी व्हील चेयर आगे बढ़ाई और डॉली के मस्तक को छूकर देखा। शिवानी ने झूठ न कहा था। डॉली को वास्तव में तेज बुखार था।
राज ने उसे पुकारा– 'डॉली!'
डॉली ने आंखें खोल दीं। पुतलियां घुमाकर राज को देखा- 'किन्तु कुछ कहा नहीं।
राज ने फिर कहा- 'मैंने कहा था न-जल्दी घर चली जाना। वर्षा की संभावना है।'
'शिवा कहां है?' डॉली के होंठ खुले। धीरे से पूछा।
'डॉक्टर को लेने गई है।'
'व्यर्थ ही कष्ट किया उसने।'
'कष्ट कैसा? यह तो फर्ज था और हां, आपने मेरे उस प्रस्ताव पर ध्यान दिया?'
'प्रस्ताव कौन-सा?'
'मैंने कहा था न कि आप मेरे ही ऑफिस में काम करेंगी।'
'नहीं, यह ठीक नहीं।'
'लेकिन क्यों?'
'मन की बात है।'
राज को आघात-सा लगा। बोला- 'अर्थात् नहीं चाहतीं कि...।'
'विवशता भी है।'
'वह क्या?"
'यह न बता सकूँगी।' डॉली ने कहा और बिस्तर से उतर गई।
राज ने कहा- 'लेटी रहिए न, आपकी तबीयत...।'
.
"
'अब ठीक हूं।' डॉली ने धीरे से कहा और बाहर चली गई। राज को फिर आघात-सा लगा। मन में कई प्रश्न चीख उठे- 'क्या डॉली को उसके साथ अकेले में बैठना पसंद नहीं? क्या डॉली के हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं? क्या-क्या डॉली उसे बिलकुल भी पसंद नहीं करती।' हां, शायद ऐसा ही था। और इन सब बातों के पीछे मुख्य कारण यह था कि वह विकलांग था-विकलांग। सोचते ही राज के अस्तित्व में पीडा की लहर-सी उठी। इसके पश्चात वह कमरे में न रुका और व्हील चेयर के पहिए घुमाता हुआ बाहर चला गया।
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'क्या मतलब?'
'भीग गई थीं। मैंने छूकर देखा तो जिस्म तवे की भांति तप रहा था। चाय भी नहीं पी।'
'क्यों?'
'कहती थी-मन ठीक नहीं।'
'किन्तु चाय से मन का क्या संबंध?'
'पूछकर देखिए।'
'हां, पूछना तो पड़ेगा ही।' इतना कहकर राज ने अपनी व्हील चेयर घुमाई और दूसरे कमरे में आ गया। डॉली बिस्तर पर लेटी थी। आंखें बंद थी-शायद सो रही थी। राज उसे ध्यान से देखने लगा। डॉली वास्तव में इतनी सुंदर थी कि उससे अधिक सुंदरता की कल्पना भी नहीं हो सकती थी। गुलाब की पंखुड़ियों की भांति एक-दूसरे से जुड़े उसके होंठ, लालिमा युक्त पारदर्शी कपोल और झील-सी आंखें। तकिए पर फैले उसके रेशमी केश तो इतने सुंदर थे कि देखते ही काली घटा का भ्रम होता। यह सब देखते-देखते राज के हृदय में आंदोलन-सा छिड़ गया। भावनाएं मचल-मचल उठी और रक्त में कोई तूफान-सा चीख उठा। दिल में आया-अभी नीचे झुके और डॉली के मधु भरे सुर्ख होंठों पर एक चुंबन अंकित कर
तभी शिवानी कमरे में आ गई। उसने एक नजर डॉली पर डाली और फिर राज से पूछा- 'क्या हुआ भैया?'
'क-कुछ नहीं शिवा!' राज ने चौंककर कहा। चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो चोरी करते पकड़ा गया हो।
शिवानी फिर डॉली पर झुक गई और उसके मस्तक पर फैले बालों को पीछे हटाने लगी। एकाएक वह चौंक गई। बुखार के कारण डॉली का जिस्म तवे की भांति तप रहा था। पीछे हटकर उसने राज से कहा- 'भैया! डॉली को तो बहुत तेज बुखार है।'
'तू ऐसा कर-चौराहे से डॉक्टर खान को ले आ। वर्षा भी अब रुक गई है जल्दी कर।' राज ने कहा।
शिवानी तुरंत तैयार हो गई और चली गई। उसके चले जाने पर राज ने अपनी व्हील चेयर आगे बढ़ाई और डॉली के मस्तक को छूकर देखा। शिवानी ने झूठ न कहा था। डॉली को वास्तव में तेज बुखार था।
राज ने उसे पुकारा– 'डॉली!'
डॉली ने आंखें खोल दीं। पुतलियां घुमाकर राज को देखा- 'किन्तु कुछ कहा नहीं।
राज ने फिर कहा- 'मैंने कहा था न-जल्दी घर चली जाना। वर्षा की संभावना है।'
'शिवा कहां है?' डॉली के होंठ खुले। धीरे से पूछा।
'डॉक्टर को लेने गई है।'
'व्यर्थ ही कष्ट किया उसने।'
'कष्ट कैसा? यह तो फर्ज था और हां, आपने मेरे उस प्रस्ताव पर ध्यान दिया?'
'प्रस्ताव कौन-सा?'
'मैंने कहा था न कि आप मेरे ही ऑफिस में काम करेंगी।'
'नहीं, यह ठीक नहीं।'
'लेकिन क्यों?'
'मन की बात है।'
राज को आघात-सा लगा। बोला- 'अर्थात् नहीं चाहतीं कि...।'
'विवशता भी है।'
'वह क्या?"
'यह न बता सकूँगी।' डॉली ने कहा और बिस्तर से उतर गई।
राज ने कहा- 'लेटी रहिए न, आपकी तबीयत...।'
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'अब ठीक हूं।' डॉली ने धीरे से कहा और बाहर चली गई। राज को फिर आघात-सा लगा। मन में कई प्रश्न चीख उठे- 'क्या डॉली को उसके साथ अकेले में बैठना पसंद नहीं? क्या डॉली के हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं? क्या-क्या डॉली उसे बिलकुल भी पसंद नहीं करती।' हां, शायद ऐसा ही था। और इन सब बातों के पीछे मुख्य कारण यह था कि वह विकलांग था-विकलांग। सोचते ही राज के अस्तित्व में पीडा की लहर-सी उठी। इसके पश्चात वह कमरे में न रुका और व्हील चेयर के पहिए घुमाता हुआ बाहर चला गया।
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