Sex Hindi Story स्पर्श ( प्रीत की रीत ) - Page 4 - SexBaba
  • From this section you can read all the hindi sex stories in hindi font. These are collected from the various sources which make your cock rock hard in the night. All are having the collections of like maa beta, devar bhabhi, indian aunty, college girl. All these are the amazing chudai stories for you guys in these forum.

    If You are unable to access the site then try to access the site via VPN Try these are vpn App Click Here

Sex Hindi Story स्पर्श ( प्रीत की रीत )

सांझ अभी ढली न थी-किन्तु वर्षा के कारण अभी से अंधकार के साए फैलने लगे थे। राज ने लौटते ही शिवानी से डॉली के विषय में पूछा। शिवानी बोली- 'नानीजी बीमार हो गई हैं।'

'क्या मतलब?'

'भीग गई थीं। मैंने छूकर देखा तो जिस्म तवे की भांति तप रहा था। चाय भी नहीं पी।'

'क्यों?'

'कहती थी-मन ठीक नहीं।'

'किन्तु चाय से मन का क्या संबंध?'

'पूछकर देखिए।'

'हां, पूछना तो पड़ेगा ही।' इतना कहकर राज ने अपनी व्हील चेयर घुमाई और दूसरे कमरे में आ गया। डॉली बिस्तर पर लेटी थी। आंखें बंद थी-शायद सो रही थी। राज उसे ध्यान से देखने लगा। डॉली वास्तव में इतनी सुंदर थी कि उससे अधिक सुंदरता की कल्पना भी नहीं हो सकती थी। गुलाब की पंखुड़ियों की भांति एक-दूसरे से जुड़े उसके होंठ, लालिमा युक्त पारदर्शी कपोल और झील-सी आंखें। तकिए पर फैले उसके रेशमी केश तो इतने सुंदर थे कि देखते ही काली घटा का भ्रम होता। यह सब देखते-देखते राज के हृदय में आंदोलन-सा छिड़ गया। भावनाएं मचल-मचल उठी और रक्त में कोई तूफान-सा चीख उठा। दिल में आया-अभी नीचे झुके और डॉली के मधु भरे सुर्ख होंठों पर एक चुंबन अंकित कर

तभी शिवानी कमरे में आ गई। उसने एक नजर डॉली पर डाली और फिर राज से पूछा- 'क्या हुआ भैया?'

'क-कुछ नहीं शिवा!' राज ने चौंककर कहा। चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो चोरी करते पकड़ा गया हो।

शिवानी फिर डॉली पर झुक गई और उसके मस्तक पर फैले बालों को पीछे हटाने लगी। एकाएक वह चौंक गई। बुखार के कारण डॉली का जिस्म तवे की भांति तप रहा था। पीछे हटकर उसने राज से कहा- 'भैया! डॉली को तो बहुत तेज बुखार है।'

'तू ऐसा कर-चौराहे से डॉक्टर खान को ले आ। वर्षा भी अब रुक गई है जल्दी कर।' राज ने कहा।

शिवानी तुरंत तैयार हो गई और चली गई। उसके चले जाने पर राज ने अपनी व्हील चेयर आगे बढ़ाई और डॉली के मस्तक को छूकर देखा। शिवानी ने झूठ न कहा था। डॉली को वास्तव में तेज बुखार था।

राज ने उसे पुकारा– 'डॉली!'

डॉली ने आंखें खोल दीं। पुतलियां घुमाकर राज को देखा- 'किन्तु कुछ कहा नहीं।

राज ने फिर कहा- 'मैंने कहा था न-जल्दी घर चली जाना। वर्षा की संभावना है।'

'शिवा कहां है?' डॉली के होंठ खुले। धीरे से पूछा।

'डॉक्टर को लेने गई है।'

'व्यर्थ ही कष्ट किया उसने।'

'कष्ट कैसा? यह तो फर्ज था और हां, आपने मेरे उस प्रस्ताव पर ध्यान दिया?'

'प्रस्ताव कौन-सा?'

'मैंने कहा था न कि आप मेरे ही ऑफिस में काम करेंगी।'

'नहीं, यह ठीक नहीं।'

'लेकिन क्यों?'

'मन की बात है।'

राज को आघात-सा लगा। बोला- 'अर्थात् नहीं चाहतीं कि...।'

'विवशता भी है।'

'वह क्या?"

'यह न बता सकूँगी।' डॉली ने कहा और बिस्तर से उतर गई।

राज ने कहा- 'लेटी रहिए न, आपकी तबीयत...।'
.
"
'अब ठीक हूं।' डॉली ने धीरे से कहा और बाहर चली गई। राज को फिर आघात-सा लगा। मन में कई प्रश्न चीख उठे- 'क्या डॉली को उसके साथ अकेले में बैठना पसंद नहीं? क्या डॉली के हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं? क्या-क्या डॉली उसे बिलकुल भी पसंद नहीं करती।' हां, शायद ऐसा ही था। और इन सब बातों के पीछे मुख्य कारण यह था कि वह विकलांग था-विकलांग। सोचते ही राज के अस्तित्व में पीडा की लहर-सी उठी। इसके पश्चात वह कमरे में न रुका और व्हील चेयर के पहिए घुमाता हुआ बाहर चला गया।
00
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
फिर वही विवशता, फिर वही उलझनें और फिर दुर्भाग्य की वही परछाइयां। कई दिन बीत गए। डॉली ने अनेक दफ्तरों के चक्कर लगाए-किन्तु नौकरी उसे न मिली। इन उलझनों के कारण उसके व्यवहार में भी काफी परिवर्तन आ गया था। अब वह बाहर से लौटकर रसोई का कुछ काम न देखती और अपने कमरे में चली जाती।

राज तो उससे कुछ कहने का साहस ही न जुटा पाता। शिवानी कुछ कहती तो वह तबीयत खराब होने का बहाना बना देती।

अंततः एक शाम जब डॉली बाहर से लौटी तो शिवानी स्वयं को रोक न सकी और उससे बोली- 'डॉली! पिछले कई दिनों से देख रही हूं। न तो तू ठीक से खाना खाती है और न ही सो पाती है। यहां तक कि तू मुझसे और भैया से भी बोलना पसंद नहीं करती। क्या मैं जान सकती हूं कि ऐसा क्यों है?' 'अतीत की पीड़ाएं हैं-जो बेचैन कर डालती हैं?'

'अतीत तो बीत चुका है।'

'किन्तु उसकी स्मृतियां तो अब भी दु:ख देती है।'

'दु:ख तो बांटे भी जाते हैं।'

'सभी दु:ख एक जैसे नहीं होते।'

'किन्तु तेरे इन दुखों ने मुझे और भैया को कितना दुखी कर रखा है-यह तू नहीं जानती। एक बात मानेगी?'

'वह क्या?' डॉली ने पूछा। खिड़की के सामने खड़ी वह आकाश पर फैली लालिमा को देख रही थी।

'अपना यह हाथ किसी के हाथ में दे दे।' शिवानी ने कहा।

'इससे क्या होगा?'

'तेरी पीड़ाएं मिट जाएंगी। वर्तमान की खुशियों को गले लगाएगी तो अतीत भी याद न रहेगा।'

'कौन थामेगा मेरा हाथ?'

शिवानी को उसके इस वाक्य से प्रसन्नता हुई। वह बोली- 'पगली! तू इतनी सुंदर है कि तुझे तो कोई भी अपना सकता है। तू एक बार मुंह से हां तो कर। फिर देख तुझे किस प्रकार सजा-संवारकर दुल्हन बनाती हूं।'

डॉली ने दीर्घ निःश्वास ली और बोली- 'हां, अब तो यह सब करना ही पड़ेगा शिवा! बनना ही पड़ेगा दुल्हन। इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग भी तो नहीं।। जिंदगी ने नाटक ही इतना भयानक खेला है कि सब कुछ सहना ही पड़ेगा।' डॉली के इन शब्दों में अथाह पीड़ा थी।

शिवानी उसके मन की पीड़ा न जान सकी और उसे अपनी ओर खींचकर बोली- 'तो फिर एक बात मान।'

'वह क्या?'

'इस घर से सदा के लिए अपनेपन का नाता ले।' 'क्या मतलब?'

'लक्ष्मी बन जा इस घर की।'

'तेरा मतलब है।'

'हां, मेरा संकेत भैया की ओर है। बहुत चाहते हैं तुझे। कई बार कह चुके हैं मुझसे।'

'तू क्या चाहती है?'

'मैं भी यही चाहती हूं। सच कहती हूं तेरे रहने से यह घर स्वर्ग बन जाएगा। हमेशा खुशियों के फूल खिलेंगे इस आंगन में।'

'क्या-क्या वास्तव में ऐसा हो जाएगा शिवा?'

'पगली! कैसी बातें करती है।' इतना कहकर शिवानी ने डॉली के गाल पर स्नेह से हल्की-सी चपत लगाई और इसके उपरांत वह खुशी-खुशी कमरे से बाहर चली गई।

किन्तु डॉली के चेहरे पर कोई खुशी न थी। शिवानी के जाते ही उसकी आंखों में आंसुओं की बूंदें चमकी और फिर यह आंसू उसके कपोलों पर उतर आए। काश! शिवानी ने उसके यह आंसू देखे होते। काश! किसी ने उसकी पीड़ा और विवशता को समझा होता।

दूसरी ओर शिवानी तुरंत राज के कमरे में पहुंची और उसकी व्हील चेयर थामकर बोली 'भैया! आज बुधवार ही है न?'

'हूं क्यों?' राज ने अनमने ढंग से पूछा। व्हील चेयर पर बैठा वह किसी पुस्तक के पृष्ठ उलट रहा था।

'और।' शिवानी फिर बोली- 'सुना है बुधवार का दिन आपके लिए बहुत शुभ होता है।'

'नहीं शिवा! अब ऐसा नहीं। अब तो मुझे अपना हर दिन अशुभ नजर आता है।'

'भैया! आप तो बहुत जल्दी निराश हो जाते हैं। आप यह क्यों नहीं सोचते कि प्रत्येक रात के पश्चात सुबह का उजाला अवश्य आता है और मैं यह कहने आई हूं कि आपके जीवन में उजाला आ चुका है।'

'अच्छा! वह क्यों कर?' राज ने पुस्तक बंद कर दी और पूछा।

'ऊंडं यों न बताऊंगी।'

'और?'

'पहले मेरा इनाम।'

'वाह! यह खूब रही। बात से पहले इनाम।'

'मर्जी आपकी। नहीं देना! तो मत दीजिए। लेकिन मैंने फैसला किया है कि मैं इनाम से पहले कोई बात न बताऊंगी।'

'चलो उधार मान लो।'

'प्रॉमिस?'

'एकदम पक्का ।'

'तो सुनिए!' शिवानी ने राज के कान में कहा- 'डॉली को मैंने भाभी बना लिया है। भाभी-अर्थात् अपने आंगन की गृहलक्ष्मी।'

'क्या!' राज चौक पड़ा। होंठों पर खुशियों की मुस्कुराहट फैल गई।
 
'हां भैया! डॉली ने मेरी बात मान ली है। बस अब तो आप जल्दी से विवाह की तैयारी कीजिए।'

राज कुछ न कह सका और शिवानी हंसते हुए बाहर चली गई।
00
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
फिर वही मंजर, फिर वही तड़प और फिर वही पीड़ाएं। डॉली मूर्तिमान-सी सलाखों के पीछे खड़े जय को देख रही थी। कुछ ही समय में वह वर्षों का बीमार नजर आता था। आंखें अंदर को धंस गई थीं और उसके कामदेव जैसे चेहरे पर मैल की इतनी परतें जम चुकी थीं कि पहचाना न जाता था। जय को देखते-देखते डॉली का हृदय भर आया। मन के किसी कोने में धुंधली-सी खुशी भी थी और दर्द का सागर भी। अपनी बेबसी से लड़ते-लड़ते वह इतनी थक चुकी थी कि उसने राज से विवाह करने का निश्चय कर लिया था। उसे खुशी थी कि वह राज की पत्नी बनकर बड़ी सरलता से जय का मुकदमा लड़ सकेगी, किन्तु दु:ख यह था कि उसने जय के संबंध में जो सपने संजोये थे वे सब टूटकर बिखर गए थे। उसके अंदर तो इतना भी साहस न था कि वह अपना यह निर्णय जय को बता पाती। जानती थी-सहन न कर पाएगा वह। शायद उसके हृदय में जीने की एक भी लालसा शेष न रहेगी। लेकिन जय को बचाने के लिए अपनी भावनाओं का परित्याग तो उसे करना ही था।

जय के सामने खड़ी डॉली अब भी यही सब सोच रही थी। वह समझ न पा रही थी कि जो कुछ होने वाला है-उस पर ठहाका लगाए अथवा आंसू बहाए।

तभी जय ने अपनी आवाज में उसे झिंझोड़ दिया। वह कह रहा था- 'डॉली! तुम्हारी यह खामोशी और उदासी बता रही है कि मेरी तरह तुमने भी परिस्थितियों से हार मान ली है। तुमने भी समझौता कर लिया है अपने दुर्भाग्य से।'

'न–नहीं जय!' डॉली बोली- 'मैंने हार नहीं मानी और हारने का तो प्रश्न ही नहीं है। मुझे आज भी यह आशा है कि तुम बरी हो जाओगे। मैंने इस संबंध में कई वकीलों से बात की है। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया है कि तुम्हें कुछ न होगा।'

'मुझे अपनी नहीं तुम्हारी चिंता है। मैं तो खैर जेल में हूं-इसलिए स्वास्थ्य गिर गया है किन्तु तुम तो खुली हवा में हो–फिर तुम्हारा स्वास्थ्य क्यों गिर गया? क्या इसका अर्थ यह नहीं कि परिस्थितियों ने तुम्हें थका दिया है?'

'नहीं जय!'

'खैर!' जय ने सलाखें थाम लीं-डॉली की आंखों में देखते हुए बोला- 'अब मेरी एक बात मान लो।'

'वह क्या?'

‘अपने लिए किसी साथी का चुनाव कर लो।'

'व-जय!' डॉली की आवाज कांप गई। आवाज के साथ-साथ उसका हृदय भी कांपकर रह गया। सोचा, कहीं ऐसा तो नहीं कि जय को उसके निर्णय का पता चल गया हो।

जय फिर बोला- 'डॉली! यह सब मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जीवन के रास्ते बहुत लंबे होते हैं। अकेले चलोगी तो थककर गिर जाओगी और फिर यह संसार भी तो ऐसा है कि किसी को अकेले नहीं जीने देता। पग-पग पर गिद्ध बैठे हैं यहां।'

'जय प्लीज!' डॉली तड़पकर बोली- 'भगवान के लिए मुझसे यह सब न कहो-न कहा जय! तुम नहीं जानते कि यह सुनकर मुझ पर क्या बीतती है। कितनी तड़प उठती है हृदय में।'

'तुम-तुम समझती नहीं हो डॉली!'

'मैं समझना भी नहीं चाहती जय! कुछ और कहो।'

'हां, एक बात कहनी है।'

'वह क्या?'

'उस दिन तुम कह रही थीं जब पापा का खून हुआ तो वहां कोई तीसरा और था।'

डॉली ने चौंककर पूछा- 'तुम जानते हो उसे?'

'जानता तो नहीं केवल संदेह है। रामगढ़ के चौधरी को तो तुम जानती होगी। दरअसल पापा और चौधरी के बीच पिछले कई वर्षों से मुकदमेबाजी चल रही थी। झगड़ा किसी जमीन पर था और आज से एक वर्ष पहले हरिया भी चौधरी के पास ही काम करता था।'

डॉली यह सुनकर चौंक गई। उसे याद आया, उस दिन हरिया ही चौधरी को लेकर आया था।

जय कहता रहा- 'मुझे संदेह है कि कहीं। हरिया चौधरी से न मिल गया हो और पापा का खून चौधरी ने ही न किया हो, लेकिन मैं जानता हूं कि इस संबंध में तुमसे कुछ न हो सकेगा। चौधरी वैसे भी ठीक आदमी नहीं।' डॉली ने कुछ न कहा।
+

जय फिर बोला- 'तुम तो उसके पश्चात रामगढ़ गई न होगी?'

'अब मेरा उस नरक से संबंध नहीं।'

'दीना के परिवार में और भी कोई था?'

'नहीं।'

'उसके पास संपत्ति तो होगी?'

'यह मैं नहीं जानती।'

तभी मुलाकात का समय समाप्त हो गया। यह जानकर डॉली के हृदय को आघात-सा लगा और वह जय का हाथ अपने हाथों में लेकर । बोली- 'जय! क्या मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती?'

'मेरे साथ?'

'हां, जेल में।'

'पगली!' दर्द भरी मुस्कुराहट के साथ जय ने कहा- 'भला ऐसा भी कभी हुआ है? और वैसे भी जेल तो अपराधियों के लिए होती है और जिसने अपने जीवन में कोई अपराध ही न किया हो...?'

'अपराध तो मैंने भी किया है जय!'

'वह क्या?'

'चाहा है तुम्हें तुमसे प्यार किया है।'

जय छटपटाकर रह गया और तभी संतरी ने उसे पीछे हटा दिया। डॉली की आंखें सावन-भादो बन गईं।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
न कोई बारात सजी, न कहीं शहनाई बजी और दो दिन पश्चात ही डॉली दुल्हन बन गई। केवल फेरों की रस्म अदा हुई थी और राज के दोस्तों ने वर-वधु को मुबारकबाद दी थी। इस अवसर पर राज के मित्रों ने कहकहे भी लगाए थे और तरह-तरह के तोहफे भी दिए थे किन्तु इनमें से शायद ही किसी ने डॉली की विवशता और पीड़ा को समझा हो।

संध्या होते-होते राज के मित्र एवं शिवानी की सहेलियां विदा हो गईं। तभी शिवानी ने कमरे में आकर एक डिब्बा डॉली के हाथों में थमा दिया और कहा- 'भाभी! यह तोहफा मम्मी की ओर से।'

डॉली ने कुछ न पूछा। केवल प्रश्नवाचक नजरों से डिब्बे को देखती रही। शिवानी फिर बोली 'अपने अंतिम क्षणों में मम्मी ने यह डिब्बा मुझे दिया था। कहा था-राज दूसरा विवाह करे तो यह जेवर बहू को दे देना। वैसे तो इन जेवरों पर ज्योति भाभी का ही अधिकार था, किन्तु क्योंकि भैया ने प्रेम विवाह किया था और ज्योति का घर की बहू बनना उन्हें बिलकुल पसंद न था अतः यह जेवर ज्योति को न मिल पाए थे किन्तु आज इन पर ज्योति का नहीं तुम्हारा अधिकार है। संभालकर रखना।' डॉली ने फिर भी कुछ न कहा किन्तु जेवरों का डिब्बा देखकर एकाएक एक विचार उसके मस्तिष्क में कौंध गया। उसने सोचा, यदि उसे राज से कुछ न मिला तो वह इन जेवरों को बेचकर जय का मुकदमा लड़ लेगी। तभी शिवानी ने उसके हाथों से डिब्बा लेकर मेज पर रखा और खोल दिया।
-
डॉली की आंखें चुंधिया गईं। डिब्बे के अंदर पुराने ढंग के कई जेवर जगमगा रहे थे।

'अच्छे हैं न भाभी?' शिवानी ने पूछा।

'शिवा!' डॉली बोली।
__

'तू मेरा नाम नहीं ले सकती क्या?'

'ऊंहु! अब यह सब ठीक नहीं। अब तुम लक्ष्मी हो इस घर की।'

'लेकिन तेरे लिए तो...।'

'समय के साथ रिश्तों का बदलना जरूरी होता है।' इतना कहकर शिवानी ने डिब्बा बंद कर दिया और बोली- 'अब चलूं। तुम्हारा कमरा भी ठीक करना है। नहीं तो कहेगी कि शिवा ने मेरे लिए कुछ न किया और हां एक बात और सुन लो। अभी कुछ समय तक तुम घर के किसी भी काम को हाथ न लगाओगी।'

'क्यों?'

'यह हमारे वंश की परंपरा है। ठीक! अब मैं चलती हूं।' कहते हुए शिवानी ने डॉली के कपोल का एक चुंबन लिया और हंसते हुए कमरे से बाहर चली गई।

डॉली कुछ क्षणों तक तो बाहर की दिशा में देखती रही और फिर उसकी नजरें सामने रखे डिब्बे पर जम गईं। डॉली के विचार में जेवरों की कीमत पचास हजार रुपए से कम न होगी। सोचते हुए उसने डिब्बे की ओर हाथ बढ़ाया किन्तु तभी शिवानी ने अंदर प्रवेश किया और उसे आते देखकर डॉली ने शीघ्रता से हाथ पीछे खींच लिया।

शिवानी के हाथ में एक लिफाफा था। समीप आकर उसने लिफाफा डॉली को थमाया और बोली- 'तुम्हारा यह तोहफा तो रह ही गया भाभी!

' 'क्या है इसमें?'

'वे रुपए जो भैया के मित्रों ने दिए हैं। ढाई हजार होंगे।' डॉली को लिफाफा पाकर खुशी हुई। उसे याद आया, कपूर साहब ने उस फीस के रूप में दो हजार रुपए मांगे थे। डॉली ने सोचा 'इसमें से दो हजार वह कपूर साहब को दे देगी और शेष अन्य किसी काम आ जाएंगे।'

'कमाल है भाभी! तुम तो न जाने किन सोचों में गुम हो गईं।' एकाएक शिवानी ने कहा और डॉली पत्ते की भांति कांप गई। चेहरे पर ऐसे भाव फैल गए जैसे उसे चोरी करते पकड़ लिया गया हो।

'भाभी!' शिवानी फिर बोली।

'खाना तो अभी खाएंगी न?'

'नहीं शिवा! मन नहीं है।'

'मन को क्या हुआ?'

'यह तो वही जाने।'

तभी राज ने शिवानी को पुकारा और उसे बाहर जाना पड़ा। डॉली हाथ में थमे लिफाफे को देखती रही।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
शिवानी ने डॉली के कमरे को अपने हाथों से सजाया था। कमरे में कई स्थानों पर ताजा फूलों के गुलदस्ते रखे थे और बिस्तर पर धनिया तथा चमेली की कलियां मुस्कुरा रही थीं।

किन्तु डॉली का ध्यान इस सबकी ओर न था। सुर्ख जोड़े में लिपटी वह अपनी ही किन्हीं सोचों में गुम खिड़की से बाहर देख रही थी। आकाश में चांद न था। स्याह अंधेरी रात थी और डॉली इस अंधकार से अपने जीवन की तुलना कर रही थी। आज तक अंधेरों में ही तो जीयी थी वह। कभी कोई खुशी न देखी-कभी कोई उजाला न देखा। उन अंधेरों से घबराकर वह रामगढ़ से निकली तो अंधकार के सायों ने फिर भी साथ न छोड़ा। जय के मिल जाने से एक खुशी मिली थी-उसके मन में आशाओं की किरण चमकी थी। सोचा था जय उसके जीवन को उजालों से भर देगा किन्तु फिर वही हुआ।

आशाओं ने सिसक-सिसककर दम तोड़ दिया और उजाले की किरणें फिर उसी अंधकार में हो गईं। जिंदगी ने फिर करवट बदली।

दुर्भाग्य ने उसे एक बार फिर छला और उसे अपनी तमाम आशाओं को कुचलकर राज से विवाह करना पड़ा। सच तो यह था कि वह विवशताओं एवं परिस्थितियों के ऐसे चक्रव्यूह में फंस गई थी जिससे निकलने का अन्य कोई मार्ग न था।

जय को बचाना आवश्यक था उसके लिए। इसलिए नहीं कि वह उसे मन-ही-मन चाहने लगी थी। इसलिए नहीं कि वह उसके जीवन का सबसे पहला प्यार था, बल्कि इसलिए क्योंकि जय ने उसकी आबरू बचाई थी। इसलिए क्योंकि जय ने सिर्फ और सिर्फ उसे बचाने के लिए अपने पिता से झगड़ा किया था और जेल चला गया था।

डॉली यह भी सोच रही थी कि भले ही उसने केवल जय को बचाने के लिए ही राज से विवाह किया था किन्तु ऐसा करके उसने जय के साथ विश्वासघात भी किया था।
तभी उसकी विचारधारा भंग हुई। उसने देखा-व्हील चेयर के पहिए घुमाते हुए राज ने अंदर प्रवेश किया। राज को सहारा देने के लिए डॉली को बिस्तर से उतरना पड़ा। उसने आगे बढ़कर द्वार बंद किया और राज को सहारा देकर बिस्तर पर बैठा दिया। राज ने बैठते ही डॉली का हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोला- 'एक बात पूछू?'

'पूछिए।'

'कैसा लगा यह सब?'

'क्या?'

'यह विवाह। तुम्हारा संयोगवश यहां आना और विवाह बंधन में बंध जाना।'

'यह संयोग न था।'

'और?'

'कुछ परिस्थितियां और कुछ मेरी विवशताएं।'

'विवशताएं क्यों?'

'जीवन का सफर अकेले न कटता।'
...
'ओह!' राज को डॉली के इस उत्तर से आघात-सा लगा। उसने डॉली का हाथ छोड़ दिया और बोला- 'किन्तु मेरी चाहत-मेरा प्रेम?'

'यह आपकी भावनाएं थीं-मेरी नहीं।'
-
'तो क्या मैं यह समझू कि तुम्हारी कोई इच्छा न थी?'

'जो बीत चुका है-आप उसे क्यों दोहरा रहे हैं।' डॉली ने कहा। फिर एक पल रुककर वह बोली- 'और वैसे भी संसार में प्रत्येक दिन इतनी शादियां होती हैं-क्या सभी शादियां लड़के-लड़की की इच्छा से होती हैं? क्या यह आवश्यक होता है कि विवाह से पूर्व एक-दूसरे को पसंद करते हों अथवा चाहते हों?'

'यह तो है।' राज बोला- 'फिर भी जिससे विवाह का बंधन बांधा जाए, उसके हृदय में अपने साथी के लिए प्रेम की भावना न हो, यह भी तो ठीक नहीं। खैर छोड़ो! फिलहाल तो सोचने वाली बात यह है कि हमने अग्नि को साक्षी मानकर एक-दूसरे को जीवनसाथी के रूप में स्वीकार किया है, आज हमारे मिलन की पहली रात है।'

डॉली मौन चेहरा झुकाए रही।

'और।' राज फिर बोला- 'आज की इस रात हमें यह वायदा करना चाहिए कि हम एक-दूसरे के प्रति ईमानदार बने रहेंगे।'

डॉली ने पूछा- 'इस संबंध में बेईमानी क्या हो सकती है?'

राज को इस प्रश्न का उत्तर न सूझ सका। साथ ही उसे यह भी अनुभव हुआ कि उसे डॉली से ऐसी बात न कहनी चाहिए थी। अतः बात बदलकर वह बोला- 'नहीं, मेरा मतलब था कि हम-दूसरे को जीवन भर यूं ही चाहते रहेंगे। वैसे मुझे तुम पर पूरा भरोसा है।' इतना कहकर उसने डॉली को अपनी ओर खींच लिया और बोला- 'क्या सोच रही हो?'

'कुछ भी तो नहीं।'

'वैसे एक बात कहूं?'

'वह क्या?'

'तुम्हारे आने से मेरा यह घर उजालों से भर गया है। यों लगता है मानो आकाश का चांद हमारे आंगन में उतर आया हो।'

'पहले क्या था?'

'घोर अंधकार, निराशा की बदलियां और पीड़ाएं।' राज ने कहा। इसके पश्चात डॉली के कपोलों को अपनी हथेलियों में लेकर वह बोला- 'सच कहता हूं-जीना कठिन हो गया था मेरे लिए। इतनी पीड़ाएं थीं कि हर पल बेचैनी बनी रहती और ऊपर से वह अतीत जब भी अवसर मिलता वार कर बैठता।'

'ज्योति की वजह से?' डॉली बोली।

'हां, उसी की वजह से। बहुत चाहता था मैं उसे। उसकी स्मृतियां मेरे हृदय में इतने गहरे तक समा गई थीं कि लाख प्रयास करने पर भी उन्हें निकाल न सका।'
 
'फिर चली क्यों गई वह?'

'विचारों में असमानता आ गई थी। मुझे सादगी पसंद थी और वह किसी पंछी की भांति आकाश में उड़ना चाहती थी। प्रतिदिन शॉपिंग, सिनेमा और क्लब इन सब बातों के कारण दूरी बढ़ती गई और फिर एक दिन वह आया जब वह मुझसे हमेशा के लिए अलग हो गई।'

'विवाह कर लिया होगा?'

'शायद।'

'और आपका बेटा?'

'उसे भी ले गई। खैर! यह तो बीती हुई कहानी है। दोहराने से कोई लाभ नहीं। बीती हुई राहों को भूल जाना ही ठीक रहता है।' इतना कहकर राज लेट गया और डॉली को बाहों में भरकर बोला- 'आओ देखें कि यह रात हमारे लिए क्या लेकर आई है।' कहते हुए राज ने अपने होंठ डॉली के होंठों से सटा दिए। डॉली ने घबराकर आंखें मूंद लीं। यों लगा मानो वह विवशताओं के कुहरे में फंस गई हो।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
फिर कई दिन बीत गए। राज तो सुबह ही अपने ऑफिस चला जाता था किन्तु क्योंकि शिवानी घर ही रहती थी-अंतत: डॉली को घर से बाहर जाने का अवसर न मिला।

किन्तु एक सप्ताह बाद वह अवसर उसे मिल गया। शिवानी को अपनी सहेली की बर्थडे पार्टी में जाना था। पार्टी दिन में थी। अत: वह सुबह ही तैयार हुई और चली गई। डॉली को उसके जाने से प्रसन्नता हुई। अब उसके पास कई घंटों का समय था। इतने समय में वह कपूर साहब एवं जय दोनों से मिल सकती थी। राज को भी पांच बजे के बाद ही लौटना था। अतः वह शीघ्रता से तैयार हुई और एक ऑटोरिक्शा में बैठकर कोर्ट आ गई। कोर्ट आकर वह कपूर साहब से मिली और उसने पर्स से निकालकर दो हजार के नोट उनके सामने रख दिए।

'यह?' कपूर साहब ने उससे पूछा।

'आपकी फीस।'

'अच्छा-अच्छा।'

'अंकल!'

'अब आप बिलकुल चिंता न करें। मैं कल ही जय से मिलूंगा और पूरी फाइल देख लूंगा।'

'अंकल! मेरा मतलब था कि वह बरी तो हो जाएंगे?'

'बिलकुल हो जाएंगे डॉली जी! आप चिंता न करें।'

'थॅंक अंकल!' डॉली ने कहा और इसके उपरांत वह जब कपूर साहब के ऑफिस से बाहर निकली तो उसे यों अनुभव हुआ मानो उसके हृदय से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो।'

अब उसे जय से मिलना था। लगभग एक घंटे पश्चात वह जेल पहुंची।

मुलाकात वाले कक्ष में खड़े जय की आंखों में आज भी निराशा के भाव थे। डॉली ने उससे पूछा- 'कैसे हो जय?'

'अभी तो जिंदा हूं डॉली!' जय ने निराशा से कहा किन्तु एकाएक उसकी नजर डॉली की मांग में भरे सिंदूर और ललाट पर चमकती बिंदी पर पड़ी और वह चौंककर बोला- 'लेकिन-लेकिन यह सब...।'

'यह सब क्या?'

'मेरा मतलब है तुम्हारी मांग में सिंदूर। माथे पर बिंदिया और हाथों में कंगन?'

'ओह!' डॉली कांप-सी गई। इस ओर तो उसका ध्यान ही न गया था। उसने तो सोचा भी न था कि उसकी मांग के सूिंदर को देखकर जय के मन में शंकाओं का तूफान चीख सकता है किन्तु अगले ही क्षण उसे एक बात सूझ गई और वह बोली- 'यह सब तुम्हारा ही है जय! तुम्हारे ही है।'

'मेरे लिए?'

'हां, तुम्हारे लिए ही। यह बिंदिया, यह सिंदूर और कंगन।'

'लेकिन तुमने तो मुझसे...?'

'विवाह कर लिया है जय!' डॉली ने फिर झूठ का सहारा लिया और कहा- 'तुम्हें मन-ही-मन अपना देवता माना और विवाह कर लिया। सिंदूर भर लिया तुम्हारे नाम का। माथे पर बिंदिया सजाई और तुम्हारी प्रीत के कंगन भी पहन लिए।
 
'द-डॉली!' जय की आवाज कांप गई।

डॉली कहती रही- 'कुंआरी रहकर जीना कठिन हो गया था मेरे लिए। जहां काम करती हूं-वहां के लोग भी विचित्र-सी नजरों से देखते और जब संसार की कामुक नजरें मुझसे सहन न हुईं तो मैंने अपनी मांग में सिंदूर भरा-मस्तक पर बिंदी लगाई और स्वयं को शादीशुदा घोषित कर दिया।'

यह सुनकर जय पीड़ा से चीख उठा 'यह-यह तुमने क्या किया डॉली! तुम जानती हो मेरे जीवन का कोई भरोसा नहीं। मैं इस चारदीवारी से बाहर भी आ सकूँगा–यह भी कोई निश्चित नहीं। फिर तुमने मेरे नाम का सिंदूर क्यों सजा लिया डॉली? मेरे नाम के कंगन क्यों पहन लिए?'

'य-ये कंगन तो नकली हैं जय!'

'सिंदूर तो असली है। यह बिंदिया तो असली है डॉली!'

'जय!' डॉली इससे अधिक न कह सकी और सिसक उठी। जय ने मजबूरी से सलाखें थाम लीं। तड़पकर बोला- 'डॉली! तुम्हारे मन की दुर्बलता मैं समझता हूं लेकिन फिर भी जो कुछ तुमने किया है यह मेरे हृदय के लिए बहुत बड़ा बोझ है। बहुत बड़ा उपकार है तुम्हारा मुझ पर और यह एक ऐसा कर्ज है जिसे मैं इस जन्म में कदापि न उतार पाऊंगा। शायद जीना कठिन हो जाएगा मेरे लिए। मरना भी चाहा तो मर भी न पाऊंगा। जीवन एवं मृत्यु के बीच पिसकर रह जाएंगी मेरी समस्त भावनाएं।'

'जय!' डॉली ने आंसू पोंछ लिए और बातों का विषय बदलकर बोली- 'मैंने तुम्हारा मुकदमा कपूर साहब को सौंप दिया है। फीस के कुछ रुपए भी उन्हें दे दिए हैं। उनका कहना है कि तुम साफ छूट जाओगे-तुम्हें कुछ न होगा।'
-
'डॉली-डॉली! तुम वास्तव में पागल हो। यों लगता है, मानो तुम्हें मेरे अतिरिक्त अन्य किसी भी बात का ध्यान नहीं। न जाने फीस के रुपए किस प्रकार जुटाए होंगे।'

'अगले सप्ताह मुकदमे की तारीख है।' डॉली ने जय की बात पर ध्यान न देकर अपनी बात कही- 'और मैं सिर्फ यह कहना चाहती हूं कि निराश मत होना। हार मत मानना जिंदगी से।'

'अब तो जीतना ही पड़ेगा डॉली! अपने लिए न सही किन्तु तुम्हारे लिए तो ईश्वर से कहना ही पड़ेगा कि वह मुझे जिंदा रखे। क्या करूं-तुमने रिश्ता ही ऐसा जोड़ा है जो मरने के पश्चात ही टूट सकता है।'

डॉली ने कुछ न कहा।
उसी समय मुलाकात का समय समाप्त हो गया और जय पीछे हट गया। डॉली ने देखा-उसकी आंखों में आंसुओं की मोटी-मोटी बूंदें झिलमिला रही थीं।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 
डॉली अपनी सोचों की धुंध में कुछ इस प्रकार फंसी कि उसे घर पहुंचने का पता ही न चला।
उसकी विचारधारा तो तब भंग हुई जब ऑटोरिक्शा चालक ने उससे कहा- 'मेमसाहब! डी-एक सौ बारह आ चुका है।' और इसके पश्चात ऑटोरिक्शा रुक गया।

रिक्शा रुकते ही डॉली ने नजरें उठाकर दाईं ओर देखा। घर आ चुका था किन्तु अगले ही क्षण वह सिर से पांव तक कांप गई और उसके चेहरे पर ऐसे भाव फैल गए जैसे किसी ने उसे रंगे हाथों पकड़ा हो। एक ऑटोरिक्शा पहले से गेट के । सामने खड़ा था और यह वही ऑटोरिक्शा था जो राज को ऑफिस से घर लाता था। ऑटोरिक्शा बाहर इसलिए था क्योंकि वह गेट का ताला लगाकर गई थी। डॉली समझ न पा रही थी कि राज आज तीन बजे ही क्यों लौट आया था जबकि वह पांच के पश्चात ही घर लौटता था।

तभी चालक ने उसे फिर संबोधित किया 'मेम साहब!'

'आं हां।'

'बीस रुपए।'

चालक ने कहा तो डॉली ने शीघ्रता से बीस रुपए का एक नोट उसकी हथेली पर रखा और बाहर आ गई। आगे बढ़कर उसने देखा-राज । ऑटोरिक्शा में बैठा था और उसका चालक बाहर खड़ा हुआ सिगरेट फूंक रहा था किन्तु डॉली ने ऐसा जाहिर नहीं किया कि उसने राज को देखा हो। उसने तुरंत गेट खोला और चलकर कमरे में आ गई। घबराहट एवं बेचैनी के भाव उसकी आंखों से अभी भी झांक रहे थे।

कुछ देर पश्चात राज भी व्हील चेयर के पहिए घुमाते हुए कमरे में आ गया और डॉली के समीप पहुंचकर बोला- 'हैलो डॉली!'

'ओह आप!' डॉली ने चौंकने का अभिनय किया-उठकर बोली- 'आप कब आए?'

'ठीक दो बजकर तीस मिनट पर अर्थात् ढाई बजे।'
__

'ऑफिस में काम न होगा?'

'काम तो था किन्तु...।'
-
|
'किन्तु?'

'काम में मन न लगा।'

'क्यों?' डॉली ने पूछा और दर्पण के सामने आकर अपने बाल संवारने लगी।

राज बोला- 'अपनी प्यारी-प्यारी दुल्हन की वजह से किन्तु दुर्भाग्य हमारा, घर आए तो...।'

'मैं बाजार चली गई थी।'

'शॉपिंग?'

'नहीं बस यूं ही। अकेली थी-घर में मन न लगा।'

'हमसे कह दिया होता।'

'क्या?'

'हम आज ऑफिस ही न जाते और दिन-भर तुम्हारा मन बहलाते।'

'ऊंडं! यह ठीक न था।' डॉली ने कहा। इसके पश्चात उसने ब्रुश रख दिया और मुड़कर राज से बोली- 'चाय तो लेंगे।'

'चाय नहीं।'

'और?'

'पहले करीब आओ।'

डॉली समीप आ गई। राज ने उसके गले में बांहें डाल दी और उसे अपने ऊपर झुकाते हुए वह शरारत से बोला- 'हमें चाहिए आपके इन होंठों से भरा यह सुर्ख अमृत।'

'शिवा आती होगी।'

'शिवा जिस पार्टी में गई है-वह संध्या से पहले समाप्त न होगी।'

'तो फिर दो मिनट ठहरिए।'

'क्यों?'

'चूल्हे पर चाय का पानी रख दूं।'

'यूं कहिए न कि आप बचना चाहती हैं?'

'बचने का प्रयास भी किया तो जाऊंगी कहां? जल की मीन को तो जल में ही रहना पड़ता है।'
 
Back
Top