desiaks
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राजन का जी चाहा कि वह छोकरे का मुंह नोच ले, उसका कलेजा खा जाए, उसका खून पी जाए।
डेजी विपरीत दिशा से गली में दाखिल होकर तभी वहां पहुंची थी और अब उस संकरी गली में दाखिल होने ही वाली थी जिसमें कि उसका घर था कि शंकर ने उसे राजन की ‘चैंट’ बता दिया था। पुलिसियों का रत्ती भर भी उसकी तरफ ध्यान नहीं था लेकिन अब वे सब के सब गौर से उसकी तरफ देखने लगे।
“श्रीपत।”—सब-इन्स्पेक्टर एक हवलदार से बोला—“जरा बुलाना तो उस लड़की को।”
श्रीपत नाम का हवलदार फौरन डेजी की तरफ बढ़ गया।
राजन का दिल डूबने लगा।
“यह लड़की क्या है इसकी?”—सब-इन्स्पेक्टर ने पूछा।
“चैंट।”—शंकर पूर्ववत् धूर्त भाव से बोला।
“वो क्या होती है?”
“माशूक।”
“माशूक।”—सब-इन्स्पेक्टर ने दोहराया। वह राजन की तरफ घूमा और उसे घूरता हुआ बोला—“तेरी जेब से सिनेमा की दो टिकटें बरामद हुई थीं। लड़का कह रहा है यह तेरी माशूक है। यह भी तकरीबन उसी वक्त घर लौटी है जिस वक्त तू लौटा है। कहीं तू इसी के साथ तो सिनेमा नहीं गया था?”
“अपना अमिताभ बच्चन जरूर गया होगा।”—शंकर चहककर बोला—“अभी परसों मैंने गोलचा पर इसे क्रिस्तान मेम की इस छोकरी के साथ देखा था। बहुत फिल्में दिखाता है यह इसे। फिल्में अंधेरे में जो होती हैं। और अन्धेरे में...”
शंकर बड़ी कुत्सित हंसी हंसा।
राजन बड़ी मुश्किल से उस पर झपट पड़ने से अपने-आपको रोक सका।
“तूने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।”—सब-इन्स्पेक्टर निगाहों से भाले बछियां बरसाता राजन से बोला—“अबे लौंडे, मैंने तुझसे कुछ पूछा है। इसी को सिनेमा दिखाने ले गया था न कश्मीरी गेट?”
राजन खामोश रहा।
तभी श्रीपत बद्हवास, भयभीत डेजी को साथ लेकर वहां पहुंचा।
“तुम इसी गली में रहती हो?”—सब-इन्स्पेक्टर नम्र स्वर में बोला।
डेजी ने भयभीत भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“इतनी रात गए कहां से आई हो?”
“एक रिश्तेदार के यहां से।”—वह बोली।
शंकर बड़ी तिरस्कारभरी हंसी हंसा। उसने बोलने के लिए मुंह खोला।
“खबरदार!”—सब-इन्स्पेक्टर आंखें तरेरकर बोला।
शंकर ने होंठ भींच लिए।
तभी आसपास के दो तीन दरवाजे खुले और कुछ लोग बाहर गली में आ गए। वे उत्सुक भाव से पुलिसियों को और बाकी लोगों को देखने लगे।
“तुम इसे जानती हो?”—सब-इन्स्पेक्टर राजन की तरफ इशारा करता बोला।
डेजी हिचकिचाई।
“झूठ मत बोलना।”—सब-इन्स्पेक्टर ने चेतावनी दी।
डेजी ने सहमति में सिर हिलाया। वह राजन से निगाह मिलाने की ताब न ला सकी। अपना पर्स उसने यूं हाथों मे जकड़ा हुआ था कि उसकी उंगलियों में से खून निचुड़ गया था।
“अभी तुम इसके साथ रिट्ज सिनेमा, कश्मीरी गेट से प्रेम रोग फिल्म का इवनिंग शो देखकर लौटी हो? ठीक?”
यूं सीधा सवाल पूछे जाते ही डेजी के छक्के छूट गए। वह यही समझी कि पुलिस वाले पहले ही राजन से सब कुछ कुबूलवा चुके थे।
“मैंने कुछ नहीं किया।”—वह आर्तनाद करती हुई बोली—“मैंने तो किसी पर गोली नहीं चलाई। मैंने तो...”
एकाएक वह खामोश हो गई और अपने दांतों से अपने होंठ काटने लगी।
“गोली!”—सब-इन्स्पेक्टर के कान खड़े हो गए।
डेजी खामोश रही।
तभी सब-इन्स्पेक्टर की तजुर्बेकार निगाह डेजी के हाथों में थमे पर्स पर पड़ी जिसे वह एक नवजात शिशु की तरह अपनी छाती से लगाए खड़ी थी।
“पर्स में क्या है?”—उसने कठोर स्वर में कहा।
“मुझे नहीं मालूम।”—डेजी घबराकर बोली।
“नहीं मालूम क्या मतलब? तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारे पर्स में क्या है?”
“वह तो मालूम है लेकिन...”
उसने भयभीत भाव से राजन की तरफ देखा।
“तुम इससे बिलकुल मत डरो।”—सब-इन्स्पेक्टर उसकी निगाह का मन्तव्य समझकर बोला—“साफ-साफ बोलो तुम्हारे पर्स में क्या है?”
“मुझे नहीं मालूम।”—डेजी कम्पित स्वर में बोली।
“फिर वही बात!”—सब-इन्स्पेक्टर आंखें निकालता बोला।
“सर, बाई जीसस, मैंने थैली को खोल कर नहीं देखा।”—डेजी ने फरियाद की—“थैली जैसी इसने मुझे दी थी, वैसी ही मैंने अपने पर्स में रख ली थी।”
“इसने तुम्हें कोई थैली दी थी?”
“हां।”
“हरामजादी!”—एकाएक राजन दांत किटकिटाता हुआ डेजी पर झपटा—“कमीनी! कुतिया!”
डेजी चीख मारकर पीछे हट गई।
दो पुलिसियों ने राजन को रास्ते में ही पकड़ लिया।
“अब”—सब-इन्स्पेक्टर उसकी नाक के सामने घूंसा लहराता हुआ बोला—“अपनी जगह से हिला भी तो मार-मार कर कचूमर निकाल दूंगा।”
राजन खामोश रहा। वह खा जाने वाली निगाहों से डेजी को घूरने लगा।
“परे देखो।”—सब-इन्स्पेक्टर गरजा।
राजन ने डेजी की तरफ से गरदन फिरा ली।
“इसने तुम्हें कोई थैली दी थी?”—सब-इन्स्पेक्टर नर्मी से डेजी से सम्बोधित हुआ।
“हां।”—डेजी कम्पित स्वर में बोली।
“कब?”
“अभी थोड़ी देर पहले।”
“जब तुम दोनों आगे-पीछे चलते गली के दहाने पर पहुंचे थे?”
“हां।”
“थैली निकालो।”
डेजी विपरीत दिशा से गली में दाखिल होकर तभी वहां पहुंची थी और अब उस संकरी गली में दाखिल होने ही वाली थी जिसमें कि उसका घर था कि शंकर ने उसे राजन की ‘चैंट’ बता दिया था। पुलिसियों का रत्ती भर भी उसकी तरफ ध्यान नहीं था लेकिन अब वे सब के सब गौर से उसकी तरफ देखने लगे।
“श्रीपत।”—सब-इन्स्पेक्टर एक हवलदार से बोला—“जरा बुलाना तो उस लड़की को।”
श्रीपत नाम का हवलदार फौरन डेजी की तरफ बढ़ गया।
राजन का दिल डूबने लगा।
“यह लड़की क्या है इसकी?”—सब-इन्स्पेक्टर ने पूछा।
“चैंट।”—शंकर पूर्ववत् धूर्त भाव से बोला।
“वो क्या होती है?”
“माशूक।”
“माशूक।”—सब-इन्स्पेक्टर ने दोहराया। वह राजन की तरफ घूमा और उसे घूरता हुआ बोला—“तेरी जेब से सिनेमा की दो टिकटें बरामद हुई थीं। लड़का कह रहा है यह तेरी माशूक है। यह भी तकरीबन उसी वक्त घर लौटी है जिस वक्त तू लौटा है। कहीं तू इसी के साथ तो सिनेमा नहीं गया था?”
“अपना अमिताभ बच्चन जरूर गया होगा।”—शंकर चहककर बोला—“अभी परसों मैंने गोलचा पर इसे क्रिस्तान मेम की इस छोकरी के साथ देखा था। बहुत फिल्में दिखाता है यह इसे। फिल्में अंधेरे में जो होती हैं। और अन्धेरे में...”
शंकर बड़ी कुत्सित हंसी हंसा।
राजन बड़ी मुश्किल से उस पर झपट पड़ने से अपने-आपको रोक सका।
“तूने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।”—सब-इन्स्पेक्टर निगाहों से भाले बछियां बरसाता राजन से बोला—“अबे लौंडे, मैंने तुझसे कुछ पूछा है। इसी को सिनेमा दिखाने ले गया था न कश्मीरी गेट?”
राजन खामोश रहा।
तभी श्रीपत बद्हवास, भयभीत डेजी को साथ लेकर वहां पहुंचा।
“तुम इसी गली में रहती हो?”—सब-इन्स्पेक्टर नम्र स्वर में बोला।
डेजी ने भयभीत भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“इतनी रात गए कहां से आई हो?”
“एक रिश्तेदार के यहां से।”—वह बोली।
शंकर बड़ी तिरस्कारभरी हंसी हंसा। उसने बोलने के लिए मुंह खोला।
“खबरदार!”—सब-इन्स्पेक्टर आंखें तरेरकर बोला।
शंकर ने होंठ भींच लिए।
तभी आसपास के दो तीन दरवाजे खुले और कुछ लोग बाहर गली में आ गए। वे उत्सुक भाव से पुलिसियों को और बाकी लोगों को देखने लगे।
“तुम इसे जानती हो?”—सब-इन्स्पेक्टर राजन की तरफ इशारा करता बोला।
डेजी हिचकिचाई।
“झूठ मत बोलना।”—सब-इन्स्पेक्टर ने चेतावनी दी।
डेजी ने सहमति में सिर हिलाया। वह राजन से निगाह मिलाने की ताब न ला सकी। अपना पर्स उसने यूं हाथों मे जकड़ा हुआ था कि उसकी उंगलियों में से खून निचुड़ गया था।
“अभी तुम इसके साथ रिट्ज सिनेमा, कश्मीरी गेट से प्रेम रोग फिल्म का इवनिंग शो देखकर लौटी हो? ठीक?”
यूं सीधा सवाल पूछे जाते ही डेजी के छक्के छूट गए। वह यही समझी कि पुलिस वाले पहले ही राजन से सब कुछ कुबूलवा चुके थे।
“मैंने कुछ नहीं किया।”—वह आर्तनाद करती हुई बोली—“मैंने तो किसी पर गोली नहीं चलाई। मैंने तो...”
एकाएक वह खामोश हो गई और अपने दांतों से अपने होंठ काटने लगी।
“गोली!”—सब-इन्स्पेक्टर के कान खड़े हो गए।
डेजी खामोश रही।
तभी सब-इन्स्पेक्टर की तजुर्बेकार निगाह डेजी के हाथों में थमे पर्स पर पड़ी जिसे वह एक नवजात शिशु की तरह अपनी छाती से लगाए खड़ी थी।
“पर्स में क्या है?”—उसने कठोर स्वर में कहा।
“मुझे नहीं मालूम।”—डेजी घबराकर बोली।
“नहीं मालूम क्या मतलब? तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारे पर्स में क्या है?”
“वह तो मालूम है लेकिन...”
उसने भयभीत भाव से राजन की तरफ देखा।
“तुम इससे बिलकुल मत डरो।”—सब-इन्स्पेक्टर उसकी निगाह का मन्तव्य समझकर बोला—“साफ-साफ बोलो तुम्हारे पर्स में क्या है?”
“मुझे नहीं मालूम।”—डेजी कम्पित स्वर में बोली।
“फिर वही बात!”—सब-इन्स्पेक्टर आंखें निकालता बोला।
“सर, बाई जीसस, मैंने थैली को खोल कर नहीं देखा।”—डेजी ने फरियाद की—“थैली जैसी इसने मुझे दी थी, वैसी ही मैंने अपने पर्स में रख ली थी।”
“इसने तुम्हें कोई थैली दी थी?”
“हां।”
“हरामजादी!”—एकाएक राजन दांत किटकिटाता हुआ डेजी पर झपटा—“कमीनी! कुतिया!”
डेजी चीख मारकर पीछे हट गई।
दो पुलिसियों ने राजन को रास्ते में ही पकड़ लिया।
“अब”—सब-इन्स्पेक्टर उसकी नाक के सामने घूंसा लहराता हुआ बोला—“अपनी जगह से हिला भी तो मार-मार कर कचूमर निकाल दूंगा।”
राजन खामोश रहा। वह खा जाने वाली निगाहों से डेजी को घूरने लगा।
“परे देखो।”—सब-इन्स्पेक्टर गरजा।
राजन ने डेजी की तरफ से गरदन फिरा ली।
“इसने तुम्हें कोई थैली दी थी?”—सब-इन्स्पेक्टर नर्मी से डेजी से सम्बोधित हुआ।
“हां।”—डेजी कम्पित स्वर में बोली।
“कब?”
“अभी थोड़ी देर पहले।”
“जब तुम दोनों आगे-पीछे चलते गली के दहाने पर पहुंचे थे?”
“हां।”
“थैली निकालो।”