SexBaba Kahan विश्‍वासघात - Page 6 - SexBaba
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SexBaba Kahan विश्‍वासघात

“इंस्पेक्टर साहब”—श्रीकान्त बोला—“मुझे कुछ चोरी के हीरे-जवाहरात का सुराग मिला है। मुझे स्पष्ट संकेत मिले हैं कि वे जवाहरात वही हैं जो आसिफ अली रोड पर हुए कामिनी देवी के कत्ल के बाद उसके फ्लैट से चुराये गए थे।”
“कहां हैं वे जवाहरात?”
“वे जवाहरात एक आदमी के पास हैं।”
“उसका नाम-पता बोलो।”
“ऐसे नहीं, साहब। पहले यह बतायें कि उन जवाहरात की बरामदी में मदद करने के बदले में मुझे क्या मिलेगा?”
“तुम्हें क्या मिलेगा!”
“जी हां। मुझे भी तो कोई ईनाम-इकराम मिलना चाहिए!”
“उन जवाहरात की बरामदी पर कोई ईनाम नहीं है।”
“पुलिस की तरफ से नहीं होगा लेकिन होगा जरूर।”
“और कहां से होगा?”
“कामिनी देवी इतनी रईस औरत थी। यह नहीं हो सकता कि उसके इतने कीमती जेवरात इंश्‍योर्ड न हों। अगर वे इंश्‍योर्ड थे तो इंश्‍योरेन्स कम्पनी माल की कीमत का कम-से-कम नहीं तो दस प्रतिशत तो खुशी से ईनाम में दे देगी।”
“तुम इंश्‍योरेन्स कम्पनी से ईनाम हासिल करने की फिराक में हो?”
“और क्या मैं वालंटियर हूं जो इतनी महत्वपूर्ण जानकारी किसी को फोकट में दूंगा!”
“हर नेक शहरी का फर्ज बनता है कि वह अपराध की रोकथाम और उसकी तफ्तीश में पुलिस की मदद करे।”
“मैं उतना नेक शहरी नहीं। और फिर मैं कोई नाजायज या गैरकानूनी बात नहीं कह रहा। इंश्‍योरेन्स कम्पनी से ईनाम हासिल करने का मुझे हक पहुंचता है।”
“ठीक है। तुम यहां आ जाओ। हम तुम्हें इंश्‍योरेंस कम्पनी वालों से मिलवा देंगे।”
“जी नहीं। आप मुझे उस इंश्‍योरेन्स कम्पनी का नाम बतायें जिसके पास कामिनी देवी के जेवरात इंश्‍योर्ड थे।”
“पहले तुम अपना नाम तो बताअो।”
“अपना नाम बताना मैं जरूरी नहीं समझता।”
“तुमने जवाहरात अपनी आंखों से देखे हैं या तुम्हें सिर्फ खबर है कि वे किसी के पास हैं?”
“मैंने अपनी आंखों से देखे हैं।”—श्रीकान्त ने साफ झूठ बोला।
“वे जेवरों की सैटिंग में हैं या खुले?”
“खुले।”
“कैसे हैं वो?”
“कैसे क्या मतलब?”
“मेरा मतलब है वे हीरे हैं या मोती हैं या...”
“हीरे-पन्ने, पुखराज, नीलम, मानक, मोंगा, मोती सब कुछ है उन जवाहरात में।”
“मोती भी खुले हैं?”
“नहीं। वे एक लड़ी की सूरत में हैं।”
“सिर्फ एक लड़ी?”
“हां।”
“उनमें कोई एक बहुत बड़ा हीरा भी था?”
“मैंने ध्यान नहीं दिया था। शायद रहा हो।”
“वह हीरा इतना बड़ा है कि ध्यान दिए बिना भी उसकी तरफ ध्यान जाए बिना नहीं रह सकता।”
“मेरा ध्यान नहीं गया था।”
“यही इस बात का सबूत है कि बड़ा हीरा, जो कि फेथ डायमंड के नाम ले जाना जाता है, उन जवाहरात में नहीं था।”
“तो नहीं होगा।”
“तुम यह कैसे कह सकते हो कि वे जवाहत चोरी के हैं, कि वे उस आदमी की अपनी मिल्कियत नहीं जिसके पास कि तुमने उन्हें देखा है।”
“ऐसा मैं उस आदमी का औकात की वजह से कह सकता हूं। आज की तारीख में एक चांदी का छल्ला खरीदने की हैसियत नहीं है उसकी।”
“लेकिन तुम यह दावा कैसे कर सकते हो कि वे आसिफ अली रोड वाले केस से ताल्लुक रखते जवाहरात हैं?”
एकाएक श्रीकान्त को लगा कि इंस्पेक्टर खामखाह उसे बातों में फंसाए रखने की कोशिश कर रहा था। पुलिस वाले दूसरे फोन से एक्सचेंज में रिंग करके मालूम कर सकते थे कि पुलिस स्टेशन के चतुर्वेदी वाले फोन पर जो काल लगी हुई थी, वह कहां से की गई थी।
यानी कि उसको पकड़ने के लिए पुलिस किसी भी क्षण वहां पहुंच सकती थी।
“मुझे बातों में मत उलझाइए, इंस्पेक्टर साहब।”—वह जल्दी से बोला—“मुझे कामिनी देवी की इंश्‍योरेन्स कम्पनी का पता बताइए नहीं तो मैं फोन बन्द करता हूं।”
“कामिनी देवी के जेवरात”—उसके कान में आवाज पड़ी—“न्यू इण्डिया इंश्‍योरेन्स कम्पनी, जनपथ के पास इंश्‍योर्ड थे।”
“शुक्रिया।”—श्रीकान्त बोला। उसने फौरन रिसीवर वापिस हुक पर टांग दिया।
वह कम्पाउण्ड से बाहर निकल आया।
 
वह डाकखाने पहुंचा।
वहां उसने डायरेक्टरी में न्यू इण्डिया इंश्‍योरेन्स कम्पनी, जनपथ का नम्बर देखा।
फिर वहां के पब्लिक टेलीफोन से उसने उस नम्बर पर टेलीफोन किया। ऑपरेटर ने उत्तर दिया तो उसने मैनेजर से बात करने की इच्छा व्यक्त की।
ऑपरेटर ने उसे मैनेजर की सेक्रेट्री से मिला दिया।
बड़ी कठिनाई से वह सेकेट्री को समझा पाया कि उसका मैनेजर से ही बात करना जरूरी था और वह उनकी कम्पनी के भले की बात थी।
मैनेजर लाइन पर आया।
श्रीकांत ने सारी दास्तान उसे भी सुनाई कि वह कामिनी देवी के फ्लैट से चोरी गए जवाहरात की बरामदी में उनकी मदद कर सकता था।
“इस सेवा के बदले में आपकी कम्पनी मुझे क्या ईनाम देगी?”—फिर उसने पूछा।
“कम्पनी के नियमों के मुताबिक आपको बरामद माल की कीमत का दस प्रतिशत ईनाम में मिल सकता है।”—मैनेजर बोला।
“यह बात आप मुझे अपनी कम्पनी के लेटर हैड पर अपने हस्ताक्षरों के साथ लिख कर दे सकते हैं?”
“हां, हां। क्यों नहीं?”
“फिर ठीक है।”
“तो आप आ रहे हैं?”
“अभी नहीं। मैं दोपहरबाद आऊंगा। आप बरायमेहरबानी ऐसा इन्तजाम करके रखिएगा कि मेरे आप तक पहुंचने में कोई अड़ंगा न हो।”
“कोई अड़ंगा नहीं होगा।”
“शुक्रिया।”
“अगर आप मुझे अपना नाम पता बता दें तो मैं एक एग्रीमेंट की सूरत में आपकी चिट्ठी आपके लिए तैयार रखूंगा।”
श्रीकांत ने उसे अपना नाम पता बता दिया।
फिर उसने सम्बन्धविच्छेद किया और वापिस अपनी केमिस्ट शॉप पर आ गया।
डेढ़ बजे तक वह वहां बहुत वयस्त रहा।
डेढ़ से तीन बजे तक शॉप लंच के लिए बन्द रहती थी।
शॉप के शीशे के दरवाजे पर ‘क्लोज फॉर लंच’ का बोर्ड टंगते ही वह सड़क पर आ गया।
लाजपतराय मार्केट के सामने से वह एक फटफटे पर सवार हुआ और कनाट प्लेस पहुंचा।
जनपथ पर न्यू इण्डिया इन्श्‍योरेन्स कम्पनी का ऑफिस तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई।
वह रिसैप्शन पर पहुंचा।
“मेरा नाम श्रीकांत है।”—वह बोला—“मैंने मैनेजर साहब से मिलना है।”
रिसैप्शनिस्ट मुस्कराई। उसने मेज पर रखी घण्टी को तीन बार बजाया।
मुख्यद्वार के पास एक स्टूल पर बैठा एक चपरासी फौरन उठा लेकिन रिसैप्शन की तरफ बढ़ने के स्थान पर वह दरवाजा खोल कर इमारत से बाहर निकल गया।
श्रीकान्त को वह बात बड़ी अजीब लगी।
“मैंने”—वह तनिक बेचैनी से बोला—“मैनेजर साहब से...”
“अभी मिलवाते हैं, साहब।”—रिसैप्शनिस्ट मधुर स्वर में बोली।
श्रीकान्त बेचैनी से पहलू बदलता रिसैप्शन काउन्टर के सामने खड़ा रहा।
तभी दरवाजे में से एक सूटधारी व्यक्ति भीतर दाखिल हुआ। वह लम्बे डग भरता हुआ सीधा श्रीकांत के सामने पहुंचा।
“मिस्टर श्रीकांत?”—वह बोला।
“हां।”—श्रीकांत घबरा कर बोला।
“मेरा नाम पुलिस इन्स्पेक्टर चतुर्वेदी है। सुबह हमारी फोन पर बात हुई थी।”
एकाएक श्रीकांत की टांगें कांपने लगीं और गला सूखने लगा। उसका दिल हथौड़े की तरह उसकी पसलियों से टकराने लगा।
“आओ।”—इन्स्पेक्टर उसकी बांह थामता बोला—“मैं ले चलूं तुम्हें मैनेजर के पास।”
“ल... लेकिन”—श्रीकान्त फंसे कण्ठ से बोला—“लेकिन, साहब...”
“घबराओ नहीं।”—इन्स्पेक्टर आश्‍वासनपूर्ण स्वर में बोला—“जिस काम के लिए तुम यहां आए हो, वह हो जाएगा।”
सहमा सा श्रीकांत उसके साथ हो लिया।
इन्स्पेक्टर उसे विशाल वातानुकूलित कमरे में ले आया। वहां मेज के पीछे एक सफेद बालों वाला व्यक्ति बैठा था। उसके सामने बिछी कुर्सियों में से एक पर एक वर्दीधारी पुलिस अधिकारी बैठा था।
“ये मैनेजर साहब हैं।”—इन्स्पेक्टर सफेद बालों वाले की तरफ संकेत करता बोला—“मिस्टर स्वामीनाथन। और आप मिस्टर भजन लाल हैं, असिस्टैंट कमिश्‍नर ऑफ पुलिस।”
श्रीकान्त के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। उसे अपनी टांगें अपना वजन संभालने में असमर्थ लगने लगीं।
“बैठो।”—भजनलाल बोला।
श्रीकान्त एक कुर्सी पर ढेर हो गया।
इन्स्पेक्टर चतुर्वेदी उसकी बगल में एक अन्य कुर्सी पर बैठ गया।
मैनेजर ने एक ट्रे में से कम्पनी के लेटर हैड पर टाइप की हुई एक तहरीर निकाली और उस पर अपने हस्ताक्षर घसीट कर उसे श्रीकांत के सामने रख दिया।
“देख लो।”—वह बोला—“जो तुमने कहा था, वही लिखा है।”
श्रीकान्त ने कांपती उंगलियों से कागज उठा लिया।
“पढ़ो।”
श्रीकांत पढ़ने लगा।
“ठीक है?”
श्रीकांत ने सहमति में सिर हिलाया।
मैनेजर फिर न बोला।
“इसे अपनी जेब में रख लो।”—भजनलाल ने आदेश दिया।
बड़ी मुश्‍किल से श्रीकांत कागज को तह कर पाया। फिर उसने उसे अपनी जेब के हवाले किया।
“अब जबकि”—भजनलाल उसे घूरता हुआ बोला—“ईनाम के बारे में तुम्हारी तसल्ली हो चुकी है तो बात आगे बढ़ाई जाए?”
श्रीकांत खामोश रहा।
“वैसे ऐसा ईनाम हासिल करने की कोशिश जानलेवा भी साबित हो सकता है। जानते हो?”
श्रीकांत के मुंह से बोल न फूटा।
“कोई लाश का पता नहीं लगने देगा।”
श्रीकांत ने बेचैनी से पहलू बदला।
“उस आदमी का नाम बोलो जिसके पास जवाहरात हैं।”
“रंगीला।”—श्रीकांत बड़ी कठिनाई से कह पाया—“रंगीला कुमार।”
“कहां रहता है?”
“चांदनी महल।”
“क्या करता है?”
“पहले अमरीकी दूतावास में ड्राइवर की नौकरी करता था, अब कुछ नहीं करता।”
“चोरी का माल उसने कहां छुपाया हुआ है?”
“माल उसकी जेब में ही है। एक शनील की थैली में जिसे कि वह अपने कोट की बायीं ओर की भीतरी जेब में रखता है।”
“और वह थैली और थैली के भीतर जवाहरात तुमने अपनी आंखों से देखे हैं?”
श्रीकांत ने फिर बेचैनी से पहलू बदला।
“जवाब दो।”—भजनलाल कठोर स्वर में बोला।
श्रीकांत व्याकुल भाव से परे देखने लगा।
“यानी कि जवाहरात तुमने अपनी आंखों से नहीं देखे।”
श्रीकांत खामोश रहा।
“सर”—चतुर्वेदी बोला—“इसने यह भी कहा था कि यह कामिनी देवी के कत्ल के बारे में कोई महत्वपूर्ण जानकारी रखता था।”
“मैं कत्ल के बारे में कुछ नहीं जानता।”—श्रीकांत बौखला कर बोला।
“तो फिर तुमने ऐसा कहा क्यों?”
“उस बात से मेरा मतलब जवाहरात की बाबत जानकारी से ही था।”
“तुम यह दावा कैसे कर सकते हो कि जो जवाहरात रंगीला नाम के उस शख्स के पास हैं, वही कामिनी देवी के फ्लैट से चोरी गए जवाहरात हैं?”
“मेरा ऐसा खयाल है।”
“इस खयाल की कोई वजह तो होगी? कोई बुनियाद तो होगी?”
श्रीकान्त फिर खामोश हो गया।
 
“यूं चुप रहने से काम नहीं चलेगा, मिस्टर।”—भजनलाल कर्कश स्वर में बोला—“हम तुम्हारे साथ इसलिए नर्मी से पेश आ रहे हैं ताकि हमें तुम्हारा सहयोग हासिल हो। यहां हमारा शाम तक बैठे रहने का कोई इरादा नहीं है। मैनेजर साहब का टाइम बहुत कीमती है। अगर तुमने एक सवाल का जवाब देने में दस मिनट लगाने हैं तो हम तुम्हें थाने ले चलते हैं।”
“नहीं, नहीं।”—श्रीकान्त आतंकित भाव से बोला।
“तो फिर जबड़ा जरा जल्दी-जल्दी चलाओ।”
“कामिनी देवी का कत्ल और उसके यहां चोरी का वाकया सोमवार रात को हुआ था। सोमवार सारी रात रंगीला घर नहीं आया था। सोमवार शाम को गया हुआ वह मंगलवार सुबह दस बजे घर लौटा था।”
“तुम्हें कैसे मालूम है?”
“बस, मालूम है। लेकिन जो मैं कह रहा हूं, हकीकत है।”
“यह रंगीला कितनी उम्र का आदमी है?”
“होगा कोई तीसेक साल का।”
“तुम्हारा दोस्त है वो?”
“दोस्त तो नहीं है।”
“फिर तुम कैसे जानते हो उसे?”
“यूं ही जानता हूं।”
“शादीशुदा है?”
“हां।”
“बच्चे?”
“नहीं।”
“बीवी खूबसूरत है?”
“हां।”
“खूब?”
“ह-हां।”
“हूं।”—भजनलाल उसे घूरता हुआ बोला—“तो तुम बीवी के यार हो।”
श्रीकान्त का चेहरा कानों तक लाल हो गया।
“और इसीलिए तुम मियां के बारे में इतनी जानकारी रखते हो।”
श्रीकान्त खामोश रहा।
“बीवी का क्या नाम है?”
“कोमल।”
“रंगीला की जेब में मौजूद जवाहरात की थैली के बारे में तुम्हें कोमल ने बताया है?”
श्रीकान्त बगले झांकने लगा।
“कबूल करो”—भजनलाल कर्कश स्वर में बोला—“कि तुम्हें जो कुछ मालूम हुआ है, कोमल से मालूम हुआ है?”
“ज-जी... जी हां। जी हां।”
“क्या जी हां?”
“रंगीला की जेब में मौजूद जवाहरात के बारे में मुझे कोमल ने ही बताया था।”
“और कोमल को कैसे मालूम हुआ था? उसे रंगीला ने बताया था?”
“जी नहीं।”
“तो?”
“उसने रंगीला के सोते में उसके कोट की जेबें टटोली थीं।”
“हूं। राम मिलाई जोड़ी...”
श्रीकान्त ने फिर पहलू बदला।
“यानी कि रंगीला को फंसवाकर ईनाम की रकम तुम और कोमल आपस में बांटने वाले हो?”
“नहीं।”
“नहीं?”
“कोमल को इस बारे में कुछ मालूम नहीं।”
“आई सी। यानी कोमल ने अपने पति को धोखा दिया और अब तुम कोमल को धोखा दे रहे हो!”
वह खामोश रहा।
“कोमल ने तुम्हें और क्या बताया?”
“कुछ नहीं।”
“जो कुछ उसने तुम्हें बताया है, वह किसी और को भी बता सकती है?”
“नहीं। मैंने उसे खास तौर से मना किया है कि वह इस बात का जिक्र किसी से न करे।”
“और वह तुम्हारा कहना मानती है?”
जवाब फिर नदारद।
“रंगीला आजकल कतई बेकार है?”
“हां।”
“वक्तगुजारी के लिये भी कुछ नहीं करता?”
“न।”
“तो वक्त गुजारता कैसे है अपना?”
“यूं ही इधर उधर भटक कर।”
“उसका कोई खास ठिकाना?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“उसका हुलिया बयान करो।”
श्रीकान्त ने किया।
“अब तुम जा सकते हो।”
श्रीकान्त ने छुटकारे की एक मील लम्बी सांस ली। वह गेंद की तरह उछल कर खड़ा हो गया।
“लेकिन एक बात याद रखना।”—भजनलाल कर्कश स्वर में बोला।
श्रीकान्त सकपकाया। उसने व्याकुल भाव से भजनलाल की तरफ देखा।
“इस बारे में किसी के सामने तुमने अपनी जुबान खोली तो तुम्हारी खैर नहीं। समझ गए?”
श्रीकान्त ने सहमति में सिर हिलाया।
“फूटो।”
श्रीकान्त लम्बे डग भरता वहां से बाहर निकल गया।
शनिवार : दोपहरबाद
और आधे घण्टे बाद इन्सपेक्टर चतुर्वेदी चांदनी महल के इलाके में मौजूद था। अपने साथ जो पुलिसिए वह लाया था, उनमें से अधिकतर सादे कपड़ों में थे।
अपने अधिकतर लोगों को पीछे छोड़कर एक वर्दीधारी सब-इन्स्पेक्टर और एक हवलदार के साथ चतुर्वेदी आगे बढ़ा।
उसने रंगीला के मकान के दरवाजे पर दस्तक दी।
दरवाजा कोमल ने खोला।
“रंगीला घर पर है?”—चतुर्वेदी ने पूछा।
“नहीं।”—कोमल तनिक सकपकाए स्वर में बोली।
“कहां गया है?”
“आप कौन हैं?”
“पुलिस।”
पुलिस का नाम सुनकर कोमल बौखलाई।
“तुम उसकी बीवी हो?”—चतुर्वेदी ने पूछा।
कोमल ने सहमति में सिर हिलाया।
“हमें भीतर आने दो।”
 
वह सहमी-सी एक तरफ हट गई।
पुलिसिए भीतर दाखिल हुए।
वे सारे मकान में फिर गए।
रंगीला वाकई घर पर नहीं था।
एक दीवार पर एक तसवीर लगी हुई थी जो श्रीकान्त के बयान किए हुलिए के मुताबिक चतुर्वेदी को रंगीला की लगी। उसने कोमल से उस तसवीर के बारे में पूछा।
तसवीर रंगीला की ही थी।
चतुर्वेदी ने वह तसवीर अपने अधिकार में कर ली।
चाहते हुए भी कोमल विरोध न कर सकी।
“रंगीला कहां गया है?”—चतुर्वेदी ने अपना सवाल दोहराया।
“मुझे नहीं मालूम।”—कोमल बोली।
“कितनी देर हुई है गए हुए?”
“कोई एक घण्टा हो गया है।”
“वह बताकर तो गया होगा कि कहां जा रहा था और कब तक लौटने वाला था?”
“नहीं, मुझे कुछ बताकर नहीं गए वो।”
“अमूमन इस वक्त कहां जाता है वो?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“मालूम नहीं या बताना नहीं चाहतीं?”
“मालूम नहीं।”
“हूं।”
“आप भी तो कुछ बताइए, क्यों तलाश है आपको उनकी? क्या कर दिया है उन्होने?”
“कुछ नहीं। लेकिन एक केस के सिलसिले में हमें उसके बयान की जरूरत है।”
कोमल आश्‍वस्त न हुई। जरूर वह पुलिसिया झूठ बोल रहा था। बयान लेने का सरासर बहाना था, जरूर वह रंगीला को गिरफ्तार करने वहां आया था।
“ठीक है।”—अन्त में चतुर्वेदी बोला—“हम फिर आएंगे। जब वह लौटे तो उसे घर पर रोककर रखना।”
कोमल ने सहमति में सिर हिलाया।
“और उसे कहना कि डरने की कोई बात नहीं। एक केस के सिलसिले में हमने सिर्फ बयान लेना है उसका।”
कोमल खामोश रही।
चतुर्वेदी दोनों पुलिसियों के साथ मकान से बाहर निकल गया।
उसने अपने आदमियों को रंगीला की तसवीर दिखाई और उन्हें उस इलाके में फैला दिया। रंगीला कहीं भी गया था, उसने कभी तो घर लौटना ही था। और लौटते ही वह गिरफ्तार किया जा सकता था।
फिर वहां का इन्तजाम सब-इन्स्पेक्टर के हवाले करके चतुर्वेदी वापिस थाने लौट गया।
उसने अपने आदमियों को कोमल की भी निगरानी करने का आदेश दिया था क्योंकि वह रंगीला के बारे में जानती हो सकती थी कि वह कहां था और उसे पुलिस के आगमन के बारे में सावधान करने की कोशिश कर सकती थी।
वास्तव में पीछे घर में बैठी कोमल सोच भी यही रही थी। पुलिस के आगमन ने उसे दहला दिया था और पता नहीं क्यों उसके दिल से यह पुकार उठ रही थी कि रंगीला के सिर पर मंडराते खतरे के लिए वही जिम्मेदार थी।
क्या श्रीकान्त ने जवाहरात का जिक्र आगे किसी से कर दिया था?
नहीं, नहीं। श्रीकान्त ऐसा नहीं कर सकता था। श्रीकान्त उससे प्यार करता था, वह उसके विश्‍वास की हत्या नहीं कर सकता था।
कैसे वह रंगीला को पुलिस के आगमन से आगाह करे?
रंगीला से बेवफाई करना और बात थी लेकिन वह जानते-बूझते रंगीला को किसी मुसीबत में फंसता नहीं देख सकती थी। आखिर वह उसका पति था, उसका सुहाग था और अपने सुहाग की रक्षा करना उसका परम कर्तव्य था।
वह सोचने लगी कि रंगीला उस वक्त कहां हो सकता था?
फिर उसे एक जगह सूझी।
अजमेरी गेट के बाहर कमला मार्केट में एक रेस्टोरन्ट था जिसका मालिक रंगीला का दोस्त था। दिन में अगर रंगीला काफी देर तक घर से बाहर रहता था तो वह अक्सर वहीं जाता था।
उसने वहां जाने का फैसला कर लिया।
उसने कपड़े बदले, थोड़ी लीपापोती से अपना हुलिया सुधारा और घर से निकल पड़ी।
पैदल चलती वह चौक में पहुंची।
तब तक उसे अपने आसपास कोई पुलिसिया दिखाई नहीं दिया था।
वह तनिक आश्‍वस्त हुयी।
चौक से वह एक रिक्शा पर सवार हो गयी।
रिक्शा भीड़भरे बाजार से गुजरता अजमेरी गेट की दिशा में आगे बढ़ा।
उसे नहीं मालूम था कि उसके पीछे आती काले रंग की एम्बैसेडर कार पुलिस की थी और वह उसी की निगरानी के लिए रिक्शा के पीछे लगी हुई थी।
 
कोमल की निगाह रिक्शा पर सवार होते समय उस कार पर पड़ी थी लेकिन उसे क्योंकि उसके भीतर कोई पुलिस की वर्दी पहने व्यक्ति बैठा नहीं दिखाई दिया था इसलिए उसने लगभग फौरन ही उस पर से अपनी निगाह फिरा ली थी।
अजमेरी गेट पहुंचकर कोमल रिक्शा से उतर गयी।
उसने जल्दी से सड़क पार की और कमला मार्केट की तरफ बढ़ी।
रंगीला के दोस्त का रेस्टोरेन्ट मार्केट के बाहर के बरामदे में था।
रेस्टोरेन्ट में दाखिल होने से पहले उसने एक बार सड़क पर निगाह दौड़ाई तो वही काली एम्बैसेडर, जो उसने तिराहा बैरम खां पर तब खड़ी देखी की जबकि वह रिक्शा पर सवार हुई थी, उसे वहां भी दिखाई दी।
कोमल का दिल धक्क से रह गया।
तब पहली बार उसे सूझा कि जरूरी नहीं था कि पुलिस वर्दी में ही हो या पुलिस वालों की कार पर पुलिस लिखा ही हो।
अपनी नादानी पर वह अपने आपको कोसने लगी।
अब अगर रंगीला भीतर था तो पुलिस को उस तक पहुंचाने के लिए सरासर वही जिम्मेदार थी।
लेकिन पुलिस वाले अभी रेस्टोरेन्ट से काफी परे थे।
अभी वह वक्त रहते रंगीला को खबरदार कर सकती थी।
रेस्टोरेन्ट का दरवाजा धकेलकर वह झपटकर भीतर घुसी।
एक तो वैसे ही भीतर नीमअन्धेरा था, ऊपर से धूप की चकाचौंध में से उसने वहां कदम रखा था। एकबारगी तो उसे भीतर कुछ भी न दिखाई दिया।
भीतर रेस्टोरेन्ट लगभग तीन चौथाई भरा हुआ था। उसके पृष्ठभाग में दो दरवाजों की बगल में एक छोटा सा काउन्टर लगा हुआ था जिसके सामने काउन्टर के पीछे बैठे आदमी से बातें करता उसे रंगीला दिखाई दिया। रंगीला की सूरत उसे दिखाई नहीं दे रही थी, उसने उसे उसके कोट से और उसके कद काठ से ही पहचाना था।
मेजों के बीच में से गुजरती वह झपटकर उसके समीप पहुंची और उसकी बांह पकड़कर उसे झिंझोड़ती हुई आतंकित भाव से बोली—“भागो! पुलिस!”
वह चिहुंककर सीधा हुआ और उसकी तरफ घूमा।
तब कोमल को उसकी सूरत दिखाई दी।
वह रंगीला नहीं था।
लेकिन उस आदमी पर कोमल की चेतावनी का बड़ा अप्रत्याशित प्रभाव पड़ा। वह फौरन यूं दरवाजे की तरफ भागा जैसे उसने भूत देख लिया हो।
अभी वह दरवाजे से दूर ही था कि दरवाजा भड़ाक से खुला और चार सादी वर्दी वाले पुलिसियों ने भीतर कदम रखा। उन्होंने उस आदमी को दबोच लिया और उसे घसीटकर बाहर ले चले।
रेस्टोरेन्ट में बैठे सारे ग्राहकों ने बातें और भोजन करना भूलकर अपलक वह नजारा देखा था।
काउन्टर के पीछे बैठा व्यक्ति हक्का बक्का सा कभी अब बन्द हो चुके दरवाजे की तरफ और कभी कोमल की तरफ देख रहा था।
कोमल चेहरे पर खिसियाहट के भाव लिए जड़ सी अपनी जगह पर खड़ी रही।
तभी काउन्टर की बगल के दो दरवाजों में से एक, जिस पर कि टायलेट लिखा था, खुला और रंगीला ने रेस्टोरेन्ट में कदम रखा।
कोमल की निगाह उस पर पड़ी। वह झपटकर उसके पास पहुंची।
रंगीला ने उसे देखा तो वह दरवाजे के पास ही थमककर खड़ा हो गया।
“तुम!”—वह हैरानी से बोला—“तुम यहां क्या कर रही हो?”
“यहां से चलो।”—कोमल उसकी बांह थामकर हांफती हुई बोली—“फौरन। फिर बताती हूं।”
“लेकिन...”
“मैं कहती हूं चलो।”
“अच्छा।”
रंगीला ने आगे कदम बढ़ाने का उपक्रम किया।
“यहां से निकलने का कोई और रास्ता नहीं है?”—कोमल ने पूछा।
“क्यों?”—रंगीला बोला—“सामने वाले रास्ते को क्या हुआ है?”
“बाहर”—वह फुसफुसाई—“पुलिस मौजूद है।”
“पुलिस!”—रंगीला के मुंह से निकला।
“वह अभी तुम्हारे धोखे में यहां से किसी और को पकड़कर ले गई है। वह आदमी कद-काठ में तुम्हारे जैसा था लेकिन शक्ल में नहीं। उन लोगों के पास तुम्हारी तसवीर है। जल्दी ही उन्हें अपनी गलती मालूम हो जाएगी और वे फिर यहां लौट आएंगे।”
“यहां क्यों?”
“क्योंकि मैं यहां हूं।”
“ओह! तो पुलिस तुम्हारे पीछे लगकर यहां तक पहुंची है?”
“क्यों बातों में वक्त बरबाद कर रहे हो?”—वह रुआंसे स्वर में बोली—“भगवान के लिए यहां से तो निकलो!”
“आओ।”
रंगीला उसके साथ दूसरे दरवाजे में घुस गया। वह दरवाजा किचन का था। किचन का एक और दरवाजा पिछवाड़े में खुलता था।
दोनों उधर से बाहर निकल गए।
मार्केट का कम्पाण्ड पार करके वे परली तरफ निकल गए।
वहां एक तनहा जगह पर रंगीला ठिठका।
“पुलिस का क्या किस्सा है?”—रंगीला ने व्यग्र भाव से पूछा—“उनने पास मेरी तसवीर कहां से आई?”
“वे घर पर आए थे।”—कोमल बोली—“वहीं से वे जबरन तुम्हारी वो तसवीर ले गए थे जो दीवार पर टंगी हुई थी।”
“सारी बात बताओ, क्या हुआ था?”
 
कोमल ने पुलिस के आगमन की और खुद अपने यहां तक पहुंचने की सारी दास्तान कह सुनाई।
“पुलिसिये तुम्हारी वजह से यहां तक पहुंचे।”—रंगीला तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला।
“वे वर्दी में नहीं थे।”—कोमल फरियाद-सी करती बोली—“मुझे बड़ी देर बाद सूझा कि वे पुलिसिये थे।”
“तुम यहां आयीं क्यों?”
“तुम्हें चेतावनी देने के लिए। तुम्हें यह खबर करने के लिए कि पुलिस तुम्हारी तलाश में थी।”
“तुम्हें मालूम था कि मैं यहां होऊंगा?”
“मुझे उम्मीद थी तुम्हारे यहां होने की।”
“और अब वे किसी और आदमी को मुझे समझकर यहां से ले गए हैं?”
“हां। पीठ से मैंने भी यही समझा था कि वह तुम थे। पुलिस का नाम सुनकर वह भागा भी यूं था जैसे तोप से गोला छूटा हो। उसे भागने की कोशिश करता पाकर ही तो पुलिसियों ने उसे दबोच लिया था और उसे वहां से बाहर ले गए थे वर्ना वे उससे दो-तीन सवाल ही करते तो उन्हें मालूम हो जाता कि वह तुम नहीं थे।”
“ओह!”
“अभी तक उन्हें मालूम हो चुका होगा कि वह तुम नहीं थे और वे तुम्हारी तलाश में फिर रेस्टोरेण्ट में पहुंच गए होंगे।”
“और तुम्हारी तलाश में भी।”—रंगीला वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला—“उन्होंने तुम्हें रेस्टोरेण्ट में घुसते देखा ही होगा। अब जब तुम उन्हें वहां नहीं दिखाई दोगी तो वे समझ जाएंगे कि तुम किसी और रास्ते से वहां से खिसकी हो। और तुम्हारा यूं खिसकना इस बात का सबूत होगा कि मैं वहां था। चलो यहां से। वे अभी सारा इलाका छानना शुरू कर देंगे।”
दोनों सड़क पर पहुंचे।
वहां से वे एक आटो पर बैठ गए।
रंगीला ने आटो वाले को लाल किला चलने को कहा।
“अब बेचारे रेस्टोरेण्ट वाले की भी खामखाह शामत आ जाएगी।”—रंगीला बड़े असंतोषपूर्ण स्वर में बड़बड़ाया।
कोमल भयभीत-सी खामोश बैठी रही।
“पुलिस हमारे घर पहुंची कैसे?”—एकाएक रंगीला उसे घूरता हुआ बोला।
“मुझे क्या पता!”—कोमल हड़बड़ाकर बोली—“मैं तो खाना बनाकर हटी थी कि वे लोग एकाएक वहां पहुंच गए थे।”
“कमाल है! ऐसा क्या जान गए हैं वो?”
“मैंने उन्हें कुछ नहीं बताया।”
“तुमने कुछ नहीं बताया?”—रंगीला की तीखी निगाह फिर उसके चेहरे पर टिक गई।
“न। मैंने कतई कुछ नहीं बताया उन्हें।”
“किस बारे में?”
कोमल सकपकाई। तब उसे सूझा कि उसने खामखाह जरूरत से ज्यादा मुंह फाड़ दिया था।
“किस बारे में?”—रंगीला ने अपना सवाल दोहराया।
“किसी भी बारे में।”—कोमल मरे स्वर में बोली।
“हरामजादी!”—रंगीला दांत पीसता दबे स्वर में बोला ताकि आटो ड्राइवर न सुन लेता—“तूने जरूर मेरे कोट की जेबें टटोली हैं।”
“नहीं।”—कोमल ने आर्तनाद किया।
“और जेब में जो कुछ देखा है, उसके बारे में जरूर तूने किसी को बताया है।”
“नहीं।”
“और मुझे यह भी मालूम है कि अपना मुंह तूने किसके सामने फाड़ा है। तूने यह बात अपने यार को बताई है।”
“मेरा यार! क्या कह रहे हो?”
“ठीक कह रहा हूं, कमीनी। वह सूटबूट वाला खरगोश जैसा लौंडा जो परसों शाम हमें सिनेमा के रास्ते में मिला था, क्या तेरा यार नहीं है? सिनेमा से मेरे उठकर चले आने के बाद क्या वह तेरे साथ आकर नहीं बैठा था?”
कोमल के हाथ-पांव ठन्डे पड़ गए। उसका दिल डूबने लगा।
इसे तो सबकुछ मालूम था। कब से जानता था सबकुछ?
“तूने उस लौंडे को नहीं बताया था”—रंगीला आंखें निकाल कर बोला—“कि मेरे कोट की जेब में तूने क्या देखा था?”
“मैंने तो”—वह रुआंसे स्वर में बोली—“सिर्फ उससे उसकी राय पूछी थी।”
“राय की बच्ची।”—रंगीला गुर्राया—“तेरा बाप लगता था वो जो तूने उससे उसकी राय पूछी थी?”
कोई और वक्त होता तो रंगीला ने मार-मारकर कोमल की चमड़ी उधेड़ दी होती। गुस्से में वह उसकी जान भी ले लेता तो कोई बड़ी बात न होती लेकिन उस वक्त तो उस को अपनी जान के लाले पड़े दिखाई दे रहे थे। उस वक्त उसे कोमल की खबर लेने की कहां फुरसत थी।
“नाम क्या है उस छोकरे का?”—रंगीला ने पूछा।
“श्रीकान्त।”—कोमल ने बताया।
“कहां रहता है?”
कोमल ने बताया।
“क्या करता है?”
कोमल ने वह भी बताया।
“वही हरामजादा पुलिस के पास पहुंचा है। उसी ने पुलिस को सबकुछ बताया है।”
“वह ऐसा क्यों करेगा?”—कोमल हिम्मत करके बोली—“उसे ऐसा करने से क्या मिलेगा?”
“ईनाम! ईनाम मिलेगा उसे। चोरी का माल पकड़वाने पर ईनाम मिलता है। समझी!”
 
कोमल को विश्‍वास न हुआ कि श्रीकान्त ईनाम की खातिर उसके साथ वादाखिलाफी कर सकता था, यूं उसके विश्‍वास की हत्या कर सकता था।
“मैं उससे पूछूंगी।”—उसके मुंह से अपने आप ही निकल गया।
“क्या पूछेगी, कम्बख्त? किससे पूछेगी? अब क्या वो मिलेगा तुझसे? देख लेना, अब वह तेरे पास भी नहीं फटकेगा। उसने तेरे से जितना मिलना था, मिल लिया। लेकिन”—रंगीला सांप की तरह फुंफकारा—“अभी उसका मुझसे मिलना बाकी है।”
श्रीकान्त के किसी भीषण अंजाम के भय से कोमल का शरीर पत्ते की तरह कांपा।
“कहीं यह तुम दोनों की मिली भगत तो नहीं?”—एकाएक रंगीला सन्दिग्ध भाव से बोला—“ईनाम की रकम के लालच में तुम दोनों कोई सांझी खिचड़ी तो नहीं पका रहे?”
“नहीं। नहीं।”—कोमल कातर स्वर में बोली—“ऐसा तो मैं सपने में नहीं सोच सकती।”
रंगीला खामोश रहा।
“तुम्हारा शक बेमानी भी तो हो सकता है।”—कोमल धीरे से बोली—“क्या पता श्रीकान्त ने कुछ भी न किया हो!”
“जो कुछ किया है, उसी ने किया है। नहीं किया है तो भी सामने आ जाएगा। लेकिन तू एक बात कान खोलकर सुन ले। अगर अब फिर किसी के सामने इस बारे में मुंह फाड़ा तो मैं तेरी लाश के टुकड़े-टुकड़े करके चील-कौवों को खिला दूंगा। समझ गई?”
कोमल ने कांपते हुए सहमति में सिर हिलाया।
तभी आटो दिल्ली गेट पहुंचा।
“यहां उतर जा।”—वह आटो वाले को रुकने का संकेत करता बोला—“और सीधी घर जा। याद रखना। दोबारा जुबान पर वो बात न आए!”
“अच्छा।”—वह व्याकुल भाव से बोली—“तुम क्या करोगे?”
“मैं अभी सोचूंगा। अब जा।”
उसे वहां रुकना बहुत खतरनाक लग रहा था। सामने दरियागंज का थाना जो था।
कोमल आटो से उतर गई।
रंगीला के इशारे पर आटो आगे बढ़ा।
अपमान से जलती हुई, अंजाम से डरी हुई, विश्‍वास की हत्या से दुखी कोमल भारी कदमों से चितली कबर बाजार में आगे बढ़ चली। जहां उसे इस बात से राहत महसूस हो रही थी कि रंगीला ने श्रीकान्त से आशनाई से ताल्लुक रखता कोई सवाल उससे नहीं पूछा था, वहां ऐसा कोई सवाल न पूछा जाना उसे अपनी नाकद्री भी लग रहा था—यानी कि रंगीला को कोई परवाह ही नहीं थी कि वह किसके साथ कैसा रिश्‍ता रखती थी।
परवाह रंगीला को पूरी थी। पुलिस के फेर में वह न पड़ा होता तो वह पता नहीं क्या कर डालता। लेकिन मौजूदा हालात में उस बारे में कुछ करना तो दूर, अब तो उसे यही उम्मीद नहीं थी कि उस घड़ी के बाद वह फिर कभी कोमल से मिल पाएगा।
जिस राह नहीं जाना, उसका पता क्या पूछना!
वह जानता था कि रेस्टोरेन्ट में हुई घटना के बाद कोमल के घर पहुंचते ही पुलिस ने उस पर चढ़ दौड़ना था लेकिन अब रंगीला को कोई परवाह नहीं थी कि कोमल पुलिस को उसके बारे में क्या बताती थी। उसका जो नुकसान वह कर सकती थी, वह पहले ही कर चुकी थी। अब उसके और मुंह फाड़ने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।
अपना अगला कदम वह पहले ही निर्धारित कर चुका था।
उसे फिलहाल कहीं छुप जाना था।
और छुपने के लिए उसे एक ही जगह सूझ रही थी।
 
राजन का घर।
राजन को उसे पनाह देनी ही होगी, चाहे इस काम के लिए उसे अपने बाप को भी राजदार क्यों न बनाना पड़े।
लाल किला उतरने के स्थान पर वह आटो वाले को दरीबे से आगे तक ले गया। वहां उसने आटो वाले को भाड़ा चुका कर विदा किया और स्वयं चारहाट की गली में घुस गया।
तब पहली बार एक बड़ा अप्रिय खयाल उसके मन में आया।
अगर ऐसा अप्रत्याशित हंगामा उसके साथ हो सकता था तो ऐसा कुछ राजन के साथ भी तो हो सकता था!
क्या पता वह पहले ही पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जा चुका हो और पुलिसिये उसके घर की निगरानी कर रहो हों!
लेकिन उस खयाल से राजन के घर की आरे बढ़ते उसके कदम न ठिठके।
आखिर कहीं तो उसने जाना ही था।
गिरफ्तारी का खतरा तो हर जगह था।
और जगहों के मुकाबले में वह खतरा वहां फिर भी कम था।
शनिवार : शाम
अपनी निगाह में जो वाकचातुर्य कौशल ने पुलिस के सामने दिखाया था, उससे वह बहुत खुश था। वह खुश था कि वह पुलिस को पूरी तरह विश्‍वास दिला चुका था कि पायल के कत्ल या आसिफ अली रोड वाली चोरी से उसका कोई रिश्‍ता नहीं था।
लेकिन भविष्य की चिन्ता उसे अभी भी सता रही थी।
आगे क्या करेगा वह?
दिल्ली शहर में रहना भी उसे अब अच्छा नहीं लग रहा था। यहां तो पुलिस जब चाहती उसे दोबारा तलब कर सकती थी। उसके यहां न रहने पर कम-से-कम यह झंझट तो खतम हो सकता था।
एक तो वैसे ही नाकामयाबी की कालिख मुंह पर पोते वह हिसार नहीं जाना चाहता था, ऊपर से पुलिस को उसका वहां का पता मालूम था जिसकी वजह से वह जब चाहती हिसार पुलिस की सहायता से उसे वापिस दिल्ली तलब कर सकती थी।
पिछले रोज वह अखाड़े गया था। वहां बातों-बातों में उसके एक दोस्त ने उसे बताया था कि मुम्बई का एक फिल्म यूनिट शूटिंग के लिए दिल्ली आया हुआ था जिन्हें अपनी फिल्म की शूटिंग के लिए कुछ स्टण्टमैनों की जरूरत थी। सौ रुपये दिहाड़ी जमा लंच का काम था और काम पसन्द किया जाने पर मुम्बई ले जाए जाने की भी सम्भावनायें थीं।
उस वक्त वह पहाड़गंज से, जहां की एक निहायत मामूली लॉज में एक गुसलखाने जितने बड़े कमरे में वह उन दिनों रह रहा था, पैदल ही बाराटूटी की तरफ जा रहा था जहां कि उसका वह पहलवान दोस्त रहता था जो कि उसे फिल्म में स्टण्टमैन का काम दिलवा सकता था।
उसे नहीं मालूम था कि उसका पीछा किया जा रहा था।
उसे नहीं मालूम था कि वह एक नहीं ,दो-दो पार्टियों की निगाहों में था।
उसके पीछे पुलिसिये भी लगे हुए थे और दारा के आदमी भी।
पुलिसिये कौशल के पीछे लगे हुए थे और पुलिसियों के पीछे दारा के आदमी लगे हुए थे। दारा के आदमियों के लिए वह काम बहुत सहूलियत का था। पुलिसिये कौशल को अपनी निगाहों से ओझल न होने देने में इस कदर लीन थे कि उन्हें यह सोचने की फुरसत ही नहीं थी कि कोई उनके पीछे भी लगा हो सकता था। आखिर लगा तो चोर बदमाशों के पीछे जाता था—जैसे कि वे कौशल के पीछे लगे हुए थे—पुलिसियों के पीछे थोड़े ही लगा जाता था।
उस काम को दारा के चार आदमी कर रहे थे। उन चारों में एक बाकियों का सरगना था, जिसका नाम रईस अहमद था। रईस अहमद दारा का दायां हाथ माना जाता था। रईस अहमद को दारा के किसी अंजाम की फिक्र हो, ऐसी बात नहीं थी। उसकी तमाम कोशिशों के बावजूद अगर वह जेल की सजा पा जाता था या फांसी चढ़ जाता था तो कम-से-कम वह दारा के लिए सिर धुनने वाला नहीं था क्योंकि दारा के न रहने पर दारा की जगह जिस आदमी ने लेनी थी वह रईस अहमद खुद था। वह दारा के लिए वफादार न हो, यह बात भी नहीं थी। उसको उसकी मौजूदा दुश्‍वारी से निजात दिलाने के लिए वह हरचन्द कोशिश कर सकता था, कर रहा था। यह उन लोगों के धन्धे का दस्तूर था कि जितना बड़ा गैंगस्टर होता था, उतने ही बड़े तरीके से उसका बेड़ागर्क होता था। इसीलिए दारा के अंजाम से वह फिक्रमन्द नहीं था और अपने अंजाम से वह नावाकिफ नहीं था।
दारा के लिए वह जो कुछ कर रहा था, दारा के लिए महज अपनी वफादारी की ही वजह से नहीं कर रहा था बल्कि उस धमकी की वजह से भी कर रहा था जो कि दारा ने जेल में से भिजवाई थी। उसके नाम दारा का पैगाम था कि पायल के कत्ल के केस में अगर उसे सजा हुई तो वह पुलिस का ऐसा ज्ञानवर्धन करेगा कि या तो रईस अहमद उसकी बगल की कोठरी में बैठा नमाज पढ़ रहा होगा और या उसके साथ फांसी पर चढ़ रहा होगा।
सरल शब्दों में दारा का पैगाम था :
मुझे बचाओ नहीं तो अपनी खैर मनाओ।
अपनी खैर मनाने के अपने अभियान के अन्तर्गत ही वह उस वक्त अपने तीन साथियों के साथ कौशल के पीछे लगा हुआ था, हालांकि यह अभी भी उसके मस्तिष्क में स्पष्ट नहीं था कि कौशल के पीछे लगने से उसे क्या हासिल होने वाला था, यूं कैसे ऐसा कोई सबूत हासिल हो सकता था जो कि दारा को बेगुनाह सिद्ध कर सकता था।
वैसे एक बात पुलिसिये भी जानते थे और दारा के आदमी भी जानते थे :
कौशल उन्हें अपने साथियों तक ले जा सकता था।
 
रईस अहमद कौशल के माध्यम से उनके उस दो साथियों तक पहुंचना चाहता था जिन्होंने जुम्मन की धुलाई की थी। बाकी के जवाहरात उन दोनों आदमियों के पास हो सकते थे और कौशल के पीछे लगे रहने के पीछे उनका एक उद्देश्‍य लूट का बाकी माल हथियाना था।
जिस ढंग से उन्होंने कौशल से जवाहरात में उसका हिस्सा छीना था, उससे रईस अहमद सन्तुष्ट नहीं था। अब वह महसूस कर रहा था कि मंगलवार रात को कौशल से उसका माल छीनकर भाग खड़े होने की जगह अगर उन्होंने कौशल को भी अपने कब्जे में कर लिया होता और बाद में जबरन उससे दरकार जानकारी कुबुलवाई होती तो ज्यादा तसल्लीबख्श नतीजा सामने आ सकता था। फिर वे कौशल के साथियों के साथ उस जुबान में मुखातिब हो सकते थे जिसमें वे जुम्मन से मुखातिब हुए थे।
लेकिन उस रात वक्त की कमी की वजह से भी तो वह कोई लम्बी-चौड़ी स्कीम नहीं बना सका था। जुम्मन का फोन आते ही जो आदमी उसके काबू में आए थे, उन्हें साथ लेकर फौरन कौशल की मिजाजपुर्सी के लिए उसे चावड़ी की तरफ कूच कर जाना पड़ा था। वह हाथ-के-हाथ ही वहां पहुंच गया था। जरा-सी भी और देर हुई होती तो सूरत खिसक गया था वहां से।
उसी रोज, रईस अहमद को उड़ती-उड़ती यह खबर भी मिली थी कि चांदनी महल के इलाके में पुलिस का बड़ा भारी जमावड़ा लगा था और यह कि पुलिस को वहां रहने वाले रंगीला नाम के एक व्यक्ति की तलाश थी जो कि पुलिस के हाथ नहीं आया था।
रंगीला का जो हुलिया उसे बताया गया था, वह कौशल के उन दो साथियों में से एक से मिलता था जिसने मंगलवार रात को लाल किले की दीवार के साये में जुम्मन की धुनाई की थी।
अगर यह रंगीला नाम का कबूतर कौशल का जवाहरात की चोरी का साथी था तो अच्छा ही हुआ था कि वह पुलिस की पकड़ में नहीं आया था। पुलिस उसे पकड़ लेती तो उन लोगों का उस पर हाथ डालना नामुमकिन हो जाता।
अब मौजूदा हालात में रईस अहमद को और जवाहरात हाथ लगने की काफी उम्मीदें दिखाई दे रही थीं।
पायल के कत्ल के बारे में रईस अहमद का जाती खयाल था कि कत्ल दारा ने ही किया था। पुलिस बिना सबूत के खामखाह लोगों को गिरफ्तार नहीं करती फिरती। अलबत्ता वह उसके लिए हैरानी की बात भी थी कि उसके उस्ताद ने खुद अपने हाथ से कत्ल किया, ऐसा कत्ल किया जिससे उसको कोई माली फायदा नहीं पहुंचा था और इतनी लापरवाही से कत्ल किया कि वह लगभग फौरन पुलिस की गिरफ्त में आ गया। ऐसी जहालत का इजहार जिन हालात में उसके उस्ताद ने किया, वे उसकी समझ से परे थे। और अगर उसने उस छोकरी का कत्ल नहीं किया था तो यह बड़े शर्म की बात थी कि दर्जनों कत्लों और सैकड़ों संगीन जुर्मों के लिए जिम्मेदार दारा एक ऐसे कत्ल के इलजाम में जहन्नुमरसीद होने वाला था जो उसे नहीं किया था।
इसीलिए दारा का यूं अंगारों पर लोटना जायज भी था।
बहरहाल दारा की गिरफ्तारी से पुलिस को तसल्ली थी कि उनका मुजरिम उनकी गिरफ्त में था।
वही बात इस बात का पर्याप्त सबूत था कि पुलिसिये पायल के कत्ल के सिलसिले में कौशल के पीछे नहीं लगे हुए थे। उनकी निगाह में कत्ल का वह केस तो दारा की गिरफ्तारी के साथ हल हो चुका था। जरूर वे किसी और ही चक्कर में कौशल के पीछे लगे हुए थे।
पायल के कत्ल के केस में पुलिस दारा को अपराधी मान कर चल रही थी। पुलिस जो कुछ कर रही थी, अपनी उस धारणा की पुष्टि के लिए ही कर रही थी इसलिए दारा के हक में अगर कोई बात थी तो या तो पुलिस उसे जानती नहीं थी और या जान-बूझकर उसे नजरअन्दाज कर रही थी। रईस अहमद का अपना खयाल था कि अगर इस पूर्वाग्रह की भावना को त्यागकर केस की तफ्तीश की जाती तो दारा को बेगुनाह साबित कर सकने वाले सबूत भी सामने आ सकते थे।
वह तसवीर का दूसरा रुख टटोल रहा था।
उसकी निगाह में कौशल का कत्ल में कोई हाथ हो सकता था। वह पुलिसियों की शीशे में उतारने में कामयाब हो गया और इसीलिए आजाद घूम रहा था लेकिन वह उसे बेवकूफ नहीं बना सकता था। पुलिस उसके साथ सख्ती से पेश नहीं आई थी या पुलिस की पेश नहीं चली थी लेकिन रईस अहमद कौशल जो कुछ जानता था उसके हलक में हाथ देकर निकाल सकता था।
कौशल हर क्षण पुलिसियों की निगाहों में रहता था लेकिन उस रोज उसे पुलिसियों की निगाहों के सामने से ही भगाकर ले जाने की योजना रईस अहमद ने पहले से ही तैयार की हुई थी।
उनके पीछे एक सलेटी रंग की फियेट आ रही थी जिसमें दारा के गैंग के तीन और आदमी मौजूद थे और वे भी कौशल के अपहरण के प्रोग्राम में बड़ा सक्रिय योगदान देने वाले थे।
कौशल अब बाराटूटी चौक के करीब पहुंच रहा था।
वहां भीड़ और भी ज्यादा थी इसलिए पुलिसिये उसके और ज्यादा करीब होकर चल रहे थे।
 
रईस अहमद ने पीछे आती फियेट को आगे निकल जाने का संकेत किया। जब फियेट आगे निकल गई तो उसने अपने साथियों को समझाया कि उन्होंने क्या करना था। उसके साथी फौरन उससे अलग हुए और आगे बढ़े। वे तीनों कौशल के पीछे लगे दोनों पुलिसियों के सामने पहुंचे और उनमें से दो एकाएक झगड़ने लगे। फौरन झगड़ा हाथापायी में बदल गया और मां-बहन की गालियों का आदान-प्रदान होने लगा। तीसरा उन्हें छुड़ाने की कोशिश करने लगा। लड़ाई होती देखकर उत्सुक राहगीर रुकने लगे। पलक झपकते वहां लोगों का जमघट लग गया जिसमें कि वे दोनों पुलिसिये भी फंस गए। एक पुलिसिये ने भीड़ से निकलने की कोशिश की तो दारा के तीसरे आदमी ने उसे वापिस भीड़ में धकेल दिया और आंखें निकालकर उस पर चिल्लाने लगा—“साले, धक्का क्यों देता है?”
दोनों पुलिसिये व्याकुल भाव से उचक-उचक कर देखने की कोशिश कर रहे थे कि कौशल आगे किधर गया था। लड़ाई करते दारा के दोनों आदमियों में से कभी एक उन पर आ गिरता था, तो कभी दूसरा। फिर सम्भलने के बहाने वे पुलिसियों को थाम लेते थे। पुलिसिये घेरे से बाहर निकलने की कोशिश करते थे तो या तो तीसरा आदमी बहाने से उन्हें रोक लेता था, या फिर भीड़ का रेला ही उन्हें वापिस धकेल देता था।
ऐसा कोहराम मचा कि रास्ता बन्द हो गया।
कौशल पीछे मचे कोहराम से बेखबर आगे बढ़ता जा रहा था।
सलेटी फियेट में मौजूद आदमी कार को एक और खड़ा करके बाहर निकल आए।
कार रईस अहमद ने सम्भाल ली।
कौशल बाराटूटी चौक से पहाड़ी धीरज की तरफ घूमा।
सड़क पर खूब भीड़ थी।
तभी कार वाले तीन आदमियों में से दो कौशल के दाएं-बाएं पहुंचे। उन्होंने दोनों तरफ से कौशल की बांहें जकड़ लीं।
“यह क्या बेहूदगी है?”—कौशल झल्लाकर बोला—“कौन हो तुम लोग?”
“पुलिस।”—एक बोला—“तुम्हें थाने तलब किया गया है। चलो, कार में बैठो।”
“कौन से थाने तलब किया गया है मुझे?”
“दरियागंज।”
“किसने तलब किया है?”
“एसएचओ ने।”
“क्यों?”
“ज्यादा बातें मत बनाओ और चुपचाप कार में बैठो।”
“तुम तो मुझे पुलिसिये नहीं लगते।”
“कहा न, बातें मत बनाओ...”
“हाथ छोड़ो नहीं तो मार-मार कर भुस भर दूंगा।”
तीसरे आदमी ने जब देखा कि कौशल न केवल कार में सवार नहीं होने वाला था बल्कि वह उसके दोनों साथियों की गिरफ्त से भी छूटने वाला था तो उसने अपनी जेब से एक ब्लेड निकाला। उस मामूली ब्लेड को चलाने में यह सिद्धहस्त था और उसके हाथों में वह एक खतरनाक हथियार का दर्जा रखता था। उसने अपने बाएं हाथ की उंगलियों में ब्लेड को इस तरह फंसाया कि जब उसने उंगलियां बन्द कीं तो ब्लेड घूंसे से बाहर निकला हुआ था। उसने कौशल के सामने आकर घूंसा उस पर चलाया। दो आदमी क्योंकि कौशल को दाएं-बाएं से पकड़े हुए थे इसलिए न तो कौशल उस प्रहार को रोक सका और न उससे बच सका। अपने बचाव के लिए वह इससे ज्यादा कुछ न कर सका कि उसने अपना सिर नीचे झुका लिया। नतीजा यह हुआ कि उसकी आंखों को निशाना बनाकर चलाया गया ब्लेड उसके माथे से टकराया। ब्लेड उसके माथे में इतना गहरा धंसा कि वह उसे अपनी खोपड़ी की हड्डी से टकराता महसूस हुआ। तुरन्त उसके माथे से खून का फव्वारा-सा छूट पड़ा। खून उसकी आंखों पर, नाक पर, गालों पर, सब जगह बहने लगा और ठोडी से नीचे टपकने लगा।
 
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