desiaks
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सुबह का समय था. रोज की ही तरह आज भी माला छत पर चारपाई पर बिछाने वाले कपड़े लेने गयी थी. साथ ही उसे मानिक को देखने का भी मन हो रहा था. भागती हुई छत पर पहंची तो देखा मानिक आज चारपाई पर बैठा उसी की छत की तरफ देख रहा था.
आज मानिक अन्य दिन से जल्दी उठ गया था. माला के छत पर दिखाई देते ही सावधान हो बैठ गया. माला की नजर उससे मिली. देखते ही मुस्कुरा पड़ी. इशारों में हैरत करते हुए कुछ बोली. मानो कहना चाहती हो कि आज इतनी जल्दी उठ गये.
मानिक भी कम रसीला नही था. उसने भी मुस्कुरा कर, थोडा शरमाकर इशारे में कहा, "बस ऐसे ही आज जल्दी उठ गया था.” माला जानती थी कि मानिक उसी को देखने के लिए आज जल्दी उठा है और मानिक भी जानता था कि माला जानती है कि वह आज इतनी जल्दी क्यों उठा है?
लेकिन जानबूझ कर अनजान बनने का आनंद भी तो पूरी तरह निराला होता है. जिसका अनुभव ये दो प्यार के पंक्षी किये जा रहे थे. न रत्ती भर इधर कम था और न रत्ती भर उधर कम था. और जब कोई तराजू दोनों तरफ बराबर होती है तो उसका कांटा कांटे की सीध पर होता है. ___
माला ने इशारों में ही मानिक से पूछा, “तुम आज दोपहर में आओगे न?”
मानिक थोडा मुस्कुराया और इशारे में ही बोला, "हाँ मुझे ध्यान है. मैं जरुर आऊंगा. तुम चिंता मत करो."
माला उसकी तरफ देख मुस्कुरा पड़ी. मानो उसे धन्यबाद कह रही हो.
मानिक से जब से माला मिली थी तब से उसके अंदर जीवन जीने की एक नई कला उत्पन्न हो गयी थी. समझदारी का भरपूर विकास हो गया था. खुशियाँ तो मानो उसे छप्पर फाड़ कर मिलीं थीं. शायद इस अनपढ़ अभागन लडकी का भाग्य ही बहुत तेज था. सच बात तो ये थी कि इस लडकी का दिल राणाजी का अदब तो करता था लेकिन मानिक से जो उसका बंधन शुरू हो चुका था वो राणाजी से कभी बंधा ही नही था. राणाजी पैसे दे उसके शरीर को खरीद लाये थे लेकिन मानिक ने विना किसी कीमत के उसका दिल खरीद लिया था.
वास्तव में ये बात सच है कि आदमी को पैसे से खरीदा जा सकता है लेकिन उसका मन. मन तो वेमोल होता है. अनमोल होता है. लेकिन मिले तो मुफ्त में भी मिल जाए और न मिले तो सारा शरीर बिक जाने पर भी मन न मिल पाए.
माला ने मानिक से इशारे में कहा, "अच्छा मैं अब जा रही हूँ. दोपहर में आना नहीं भूलना. वरना देख लेना."
मानिक इशारे में अपने कानो पर हाथ ले गया. मानो कहना चाहता हो कि ऐसी गुस्ताखी मैं नही कर सकता माला रानी. भला तुम से बैर मोल ले में कहाँ रहूँगा.
माला उसकी इस हरकत पर मुस्कुरायी. अपनी चोटी को झटका और चारपाई के कपड़े समेट नीचे जाने को हुई. लेकिन जाते हुए मुस्कुराकर मानिक को देख लिया और सीढियों से नीचे चली गयी. मानिक भी फटाफट चारपाई से खड़ा हुआ और नीचे घर में चला गया.
दोपहर का समय होने को था. राणाजी तो सुबह खाना खा कर ही घर से निकल गये थे और महरी भी खाना बना और बर्तन धो जा चुकी थी. माला अपने कमरे में बैठी खुद को सजाने संवारने में लगी हुई थी. वैसे सजने संवरने का तो उसे बचपन से ही शौक था लेकिन अपने पिता के घर की तंगी के कारण कभी दो रूपये की नाखूनी खरीद कर भी न लगा सकी.
राणाजी के घर में तो इन सब चीजों में से किसी चीज की कमी ही नही थी. नाखूनी से लेकर बिंदी, खुसबू का पाउडर और सर में डालने का बढिया महक वाला तेल सब कुछ मौजूद था.
माला को आज इसलिए भी सजना था क्योकि आज मानिक आने वाला था, मानिक जो उसके दिल का चोर था. माला नही जानती थी कि वो ये सब गलत कर रही है. जो आदमी उसको पैसे दे उसके पिता से खरीद कर लाया था. जिसने उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारा था. दरअसल उससे माला को कोई दिली मोहब्बत थी ही नही. माला को राणाजी की फिक्र रहती थी. उनकी हर बात का वो खयाल रखती थी. राणाजी की हर बात उसके सर माथे रहती थी लेकिन उनसे मन का मेल नही हो पाया था.
आज मानिक अन्य दिन से जल्दी उठ गया था. माला के छत पर दिखाई देते ही सावधान हो बैठ गया. माला की नजर उससे मिली. देखते ही मुस्कुरा पड़ी. इशारों में हैरत करते हुए कुछ बोली. मानो कहना चाहती हो कि आज इतनी जल्दी उठ गये.
मानिक भी कम रसीला नही था. उसने भी मुस्कुरा कर, थोडा शरमाकर इशारे में कहा, "बस ऐसे ही आज जल्दी उठ गया था.” माला जानती थी कि मानिक उसी को देखने के लिए आज जल्दी उठा है और मानिक भी जानता था कि माला जानती है कि वह आज इतनी जल्दी क्यों उठा है?
लेकिन जानबूझ कर अनजान बनने का आनंद भी तो पूरी तरह निराला होता है. जिसका अनुभव ये दो प्यार के पंक्षी किये जा रहे थे. न रत्ती भर इधर कम था और न रत्ती भर उधर कम था. और जब कोई तराजू दोनों तरफ बराबर होती है तो उसका कांटा कांटे की सीध पर होता है. ___
माला ने इशारों में ही मानिक से पूछा, “तुम आज दोपहर में आओगे न?”
मानिक थोडा मुस्कुराया और इशारे में ही बोला, "हाँ मुझे ध्यान है. मैं जरुर आऊंगा. तुम चिंता मत करो."
माला उसकी तरफ देख मुस्कुरा पड़ी. मानो उसे धन्यबाद कह रही हो.
मानिक से जब से माला मिली थी तब से उसके अंदर जीवन जीने की एक नई कला उत्पन्न हो गयी थी. समझदारी का भरपूर विकास हो गया था. खुशियाँ तो मानो उसे छप्पर फाड़ कर मिलीं थीं. शायद इस अनपढ़ अभागन लडकी का भाग्य ही बहुत तेज था. सच बात तो ये थी कि इस लडकी का दिल राणाजी का अदब तो करता था लेकिन मानिक से जो उसका बंधन शुरू हो चुका था वो राणाजी से कभी बंधा ही नही था. राणाजी पैसे दे उसके शरीर को खरीद लाये थे लेकिन मानिक ने विना किसी कीमत के उसका दिल खरीद लिया था.
वास्तव में ये बात सच है कि आदमी को पैसे से खरीदा जा सकता है लेकिन उसका मन. मन तो वेमोल होता है. अनमोल होता है. लेकिन मिले तो मुफ्त में भी मिल जाए और न मिले तो सारा शरीर बिक जाने पर भी मन न मिल पाए.
माला ने मानिक से इशारे में कहा, "अच्छा मैं अब जा रही हूँ. दोपहर में आना नहीं भूलना. वरना देख लेना."
मानिक इशारे में अपने कानो पर हाथ ले गया. मानो कहना चाहता हो कि ऐसी गुस्ताखी मैं नही कर सकता माला रानी. भला तुम से बैर मोल ले में कहाँ रहूँगा.
माला उसकी इस हरकत पर मुस्कुरायी. अपनी चोटी को झटका और चारपाई के कपड़े समेट नीचे जाने को हुई. लेकिन जाते हुए मुस्कुराकर मानिक को देख लिया और सीढियों से नीचे चली गयी. मानिक भी फटाफट चारपाई से खड़ा हुआ और नीचे घर में चला गया.
दोपहर का समय होने को था. राणाजी तो सुबह खाना खा कर ही घर से निकल गये थे और महरी भी खाना बना और बर्तन धो जा चुकी थी. माला अपने कमरे में बैठी खुद को सजाने संवारने में लगी हुई थी. वैसे सजने संवरने का तो उसे बचपन से ही शौक था लेकिन अपने पिता के घर की तंगी के कारण कभी दो रूपये की नाखूनी खरीद कर भी न लगा सकी.
राणाजी के घर में तो इन सब चीजों में से किसी चीज की कमी ही नही थी. नाखूनी से लेकर बिंदी, खुसबू का पाउडर और सर में डालने का बढिया महक वाला तेल सब कुछ मौजूद था.
माला को आज इसलिए भी सजना था क्योकि आज मानिक आने वाला था, मानिक जो उसके दिल का चोर था. माला नही जानती थी कि वो ये सब गलत कर रही है. जो आदमी उसको पैसे दे उसके पिता से खरीद कर लाया था. जिसने उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारा था. दरअसल उससे माला को कोई दिली मोहब्बत थी ही नही. माला को राणाजी की फिक्र रहती थी. उनकी हर बात का वो खयाल रखती थी. राणाजी की हर बात उसके सर माथे रहती थी लेकिन उनसे मन का मेल नही हो पाया था.