अन्तर्वासना - मोल की एक औरत - Page 6 - SexBaba
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अन्तर्वासना - मोल की एक औरत

पूरी बैठक में बैठे लोगों में सन्नाटा छा गया था. राणाजी के चेहरे पर खौंफ और आश्चर्य के डोरे थे. आँखों में पानी का होना बताता था कि उन्हें इस पंचायत के फैसले से कितनी परेशानी हुई है. लेकिन कहते क्या? अगर वो आज की पंचायत के पंच होते तो शायद उन्हें भी लोगों की सोच के हिसाब से ही फैसला करना पड़ता. उनकी भी पहले की सोच यही थी कि हमेशा अपनी जाति में ही रिश्ता करना चाहिए लेकिन मजबूर हालात और समय के पहिये ने उन्हें इन सब को मानने से इनकार कर दिया था. आज उनकी सोच पहले से पूरी तरह अलग थी. लेकिन माला को अपने घर से निकाल फेंकना उनसे नहीं हो सकता था. कैसे उस गर्भवती लडकी को अपने घर से निकाल बाहर कर देते जिसके पेट में उनका खुद का खून पल रहा था. गलती तो खुद उनकी थी जो माला को व्याह कर अपने घर लाये. फिर उसकी सजा माला को क्यों मिले?

माला तो निर्दोष और नादान थी. लोग उनसे जलते हैं फिर माला क्यों इस जलन का फल भुगते. वो तो बेचारी इस गाँव के किसी आदमी से लडी तक नही. फिर गाँव के लोगों ने उनको बर्वाद करने के लिए माला को दांव पर क्यों लगा दिया? राणाजी ने पंचों की तरफ याचना भरी नजरों से देखते हुए कहा, “पंच लोगों क्या उस निर्दोष लडकी के लिए यह सजा कुछ ज्यादा नही है? क्या आपको नही लगता कि मुझे मेरे दोष से ज्यादा सजा दी गयी है? वो लडकी एक औरत है और औरत को इस तरह की सजा देकर आप लोग कितना ठीक कर रहे हैं ये मैं नहीं जानता लेकिन उस औरत की हाय जरुर लगेगी आप लोगों को. मैं फिर से एक बार आप को इस फैसले पर विचार करने के लिए कहता हूँ."

कुछ पंच लोग चाहते थे कि राणाजी पर कुछ रुपयों का जुरमाना लगा उन्हें बख्श दिया जाय लेकिन अधिकतर इस बात से इत्तेफाक नही रखते थे. उन्हें तो राणाजी को बर्बाद करना ही करना था. पंचों ने एक स्वर में कहा कि अब फैसला बदला नही जा सकता. इतना सुन राणाजी वहां से चल दिए. लोगों में फिर से खुसर पुसर होनी शुरू हो गयी. राणाजी से जलने वाले लोग कहते थे कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. अब होगी इसकी बर्बादी.

राणाजी का दिमाग बिजली के करंट की तरह दौड़ रहा था. वो अपने घर की वजाय सीधे गुल्लन के घर पहुंचे.

गुल्लन के घर गुल्लन की बीबी थी लेकिन गुल्लन नही थे. गुल्लन की बीबी ने उनको बताया कि गुल्लन कुछ दिनों के लिए कही बाहर गये हुए हैं. राणाजी को गुल्लन से कुछ हल मिलने की उम्मीद थी लेकिन अब वो भी खत्म सी हो गयी.

राणाजी गुल्लन के घर से थोडा आगे ही चले थे कि एक आदमी ने उनको बताया कि गुल्लन को गाँव के मुखिया लोगों ने गाँव से बाहर भेजा है. जिससे आपका कोई फायदा न हो सके और दूसरी बात गुल्लन ने ही पंचायत के लालच में आ आपके बारे में सारी बात इन लोगों को बताई है.
 
राणाजी ने उस आदमी का शुक्रिया अदा किया और अपने घर की तरफ चल दिये. उन्हें गुल्लन से इस तरह की आशा नही थी. राणाजी गुल्लन पर खुद से ज्यादा भरोसा था लेकिन गुल्लन की एक हरकत ने उनके जीवन को काँटों भरे रास्ते पर ला दिया था. राणाजी ने एक जिगरी दोस्त इस वक्त खो दिया था लेकिन इसमें राणाजी की गलती नही थी.

इतनी उलझन होने पर राणाजी के दिमाग ने तो काम करना ही छोड़ दिया था और दिल ऐसा कुछ भी करने से मना करता था जो किसी का दिल दुखाये. आज राणाजी को अपनी माँ की याद आ रही थी. वो राणाजी की समस्याओं का हल बहुत जल्दी निकाल देती थी. साथ ही किसी भी मुश्किल में राणाजी का साथ भी देतीं थी. माँ के रहते वे कभी किसी के सामने झुके नही थे लेकिन आज वो पंचों के गलत फैसले के सामने भी चुप हो चले आये थे.

माला के प्रति राणाजी का दिल इस वक्त भी नर्म था जबकि माला की वजह से ही उन्हें इन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था. परन्तु माला उनकी पत्नी का दर्जा लिए हुई थी. इस वक्त वो उनकी अपनी थी. उसकी कोख में राणाजी का अपना बच्चा था. इस कारण ये बात तो लाज़मी थी कि पंचों के फैसले से माला की अहमियत कहीं ज्यादा होनी थी.

दूसरा राणाजी माला के बारे में हर बात जानते थे. उसकी गरीबी भुखमरी और राणाजी जितनी उम्र के आदमी के साथ शादी करने की मजबूरी भी उनसे छुपी नही थी. कोई भी लडकी हमेशा अपना हमउम्र दूल्हा चाहती है. हालाँकि वो बात अलग है कि कभी कभी बूढ़े आदमी से उसे भी इश्क हो जाता है लेकिन जीवन साथी तो हर लडकी को अपने हमसाये जैसा ही चाहिए होता है. इस कारण से भी राणाजी को माला के प्रति सहानुभूति थी.

राणाजी घर आकर कमरे में लेट गये. महरी खाना बना चुकी थी. माला ने आकर राणाजी से खाना खाने के बारे में पूंछा तो राणाजी ने मना कर दिया. माला ने राणाजी की उदासी देख ली थी लेकिन वो नादान ये नही जानती थी कि इस उदासी का कारण क्या है? राणाजी उस उदासी में अंदर ही अंदर घुले जा रहे थे. सोच रहे थे कि इस मुश्किल से छुटकारा कैसे पाया जाय?

अगर वो माला को अपने घर रखते भी हैं तो गाँव के पंचायती लोग अपनी धौंस जमायेंगे लेकिन अगर वो कानूनी केस करें तो गाँव के बड़े लोगों से दुश्मनी हो जाएगी. माला के लिए दुश्मनी भी मोल ले सकते थे लेकिन माला तो मानिक को चाहती थी. फिर उसे घर रखने से फायदा क्या था? आज नही तो कल माला अपना रूप दिखाएगी ही. फिर क्यों चार दिन के लिए सारे गाँव से रार मोल लें?

राणाजी की सोच का समुन्दर हिलोरे ले रहा था. न तो परेशानी का कोई हल मिलता था और न गाँव की सत्ता से लड़ने की हिम्मत होती थी. हिम्मत भी तब होती जब माला उनके साथ कंधे से कन्धा मिलाये खड़ी होती. वो तो उनको चाहती ही नहीं थी. मानिक से उसका दिल लग चुका था. फिर राणाजी को क्या पड़ी कि उसके लिए अपना जीवन दांव पर लगा दें?*
 
भाग -8
बल्ली ने नई दुल्हन लाने से पहले भोले बाबा को गंगाजल चढ़ाने के लिए बोल दिया था. बल्ली का मानना था कि भोलेनाथ से मन्नत मांगने के कारण ही वो नई दुल्हन ला पाया था. फिर उनपर गंगाजल क्यों न चढ़ाता?

ये गंगाजल कोई वो गंगाजल नही चढना था जो घर पर रखा होता है. ये गंगाजल तो सीधा गंगाजी से भर के लाना था. जो शिवरात्रि को लाया जाता है. उसी दिन लोग कावड भी लेकर आते हैं. बल्ली के गाँव से गंगाजी की दूरी अस्सी किलोमीटर की थी. जहाँ से पैदल घर तक आना पड़ता था.

दूसरे दिन शिवरात्रि थी. बल्ली ने एकदिन पहले ही तैयारी कर ली लेकिन काली उसके साथ जाने की जिद कर रही थी. वो बल्ली को एक पल भी अपने से दूर नही भेजना चाहती थी. बल्ली का मन काली को साथ ले जाने के लिए नही करता था परन्तु काली का प्यार भरा निवेदन टाल भी तो नही सकता था. काली से बोला, "ठीक है काली तू जिद करती है तो चली चल लेकिन पैदल न चल सकी तो वाहन में बैठ कर आना पड़ेगा?”

काली अपने पति बल्ली के इश्क में अंधी थी. वावली को ये भी खबर नही थी कि अस्सी किलोमीटर पैदल कैसे चलेगी. लेकिन ये मेहनती काली अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहती थी, पति को इतना प्यार कर बैठी जैसे वो उसकी बचपन की प्रेमिका हो और बल्ली ने भी काली के आने से लेकर आज तक उसपर हाथ नहीं उठाया था.

कारण दो थे. एक तो काली ने कभी गलती का मौका दिया ही नही और थोड़ी बहुत गलती हो भी जाती तो उसे पहली बीबी की याद आ जाती थी. दूसरा काली का उसके प्रति असीम प्रेम भी तो था जो ये सब करने के लिए रोकता था. सच कहा जाय तो बल्ली को भी काली से बेपनाह इश्क हो गया था.

दूसरे दिन काली को ले बल्ली गंगाजल की कावड लेने चल दिया. कावड लेने वाले लोग इधर से गाँव के ट्रैक्टर में बैठकर जाते थे और उधर से पैदल आते थे. बल्ली अपनी प्यारी सी बीबी काली को ले गाँव के ही ट्रैक्टर में बैठ गया.

गाँव के मसखरे लडके काली को अपनी 'भौजी' बना पूरे रास्ते मजाक करते गये. काली भी पूरे रस्ते हसती खिलखिलाती रही. बल्ली को भी काली को खुश देख आनंद आ रहा था. मसखरे लडके तो काली का मुंह भी देखना चाहते थे. उन्होंने अपनी मुंहबोली 'भौजी' काली से लाख बार कहा लेकिन काली ने एक भी बार अपना धुंघट उठा उनको अपना मुंह न दिखाया.

ट्रैक्टर सब लोगों को गंगाजी के किनारे उतार वापस चला आया, क्योंकि उधर से लोगों को पैदल ही आना होता था. हालांकि कावड़ियों को ढोने के लिए संस्थाए फ्री में बाहन भी चलाती थी. बल्ली और काली दोनों मिलकर गंगा नहाये. खाना खाया. कावड सजा कर पूजा भी की.

शाम होने को आ रही थी. ये समय कावड़ियों के घर जाने का समय होता था. काली और बल्ली भी चल पड़े. पैरों में कावड़ियों वाली पायलें 'छन्न छन्न' करती जा रहीं थीं. चारो तरफ 'जय भोले की जय भोले की होती जा रही थी.

काली और बल्ली दोनों के पैर भी छनक छनक उठ रहे थे लेकिन दस बारह किलोमीटर चलने के बाद काली की हालत ढीली पड़ गयी. पहले वो इतनी दूर पैदल चली ही नही थी और उसे यह भी नहीं पता था कि अस्सी किलोमीटर कितने होते हैं. वो तो अस्सी तक गिनती नही जानती थी.

अब पढ़ी लिखी होती तो गिनती जानती. वो तो ये जानती थी कि अस्सी किलोमीटर थोड़ी बहुत दूर होती होगी लेकिन उसने बल्ली से ये न कहा कि वो थक गयी हैं परन्तु बल्ली पूरा बल्ली था. उसने अपनी प्रियतमा के चेहरे पर पीड़ा की लकीरें देख ली थीं..

बल्ली कंधे पर कावड रखा हुआ था. बोला, “काली तू थक तो नही गयी कहीं? थक गयी हो तो बता देना तुझे किसी वाहन में बिठा दूंगा." काली का मन तो नही होता था कि किसी वाहन में बैठे लेकिन वो सचमुच में थक गयी थी. टांगें सूज सी गयीं थी. ऊपर से गर्भवती भी थी लेकिन ये अच्छा था कि गर्भ शुरूआती था. बोली, “हाँ थक तो गयी हूँ लेकिन तुम्हें छोड़ कर जाने का मन नही करता. मैं अकेले वाहन में नही बैलूंगी. तुम भी बैठ जाओ मेरे साथ."
 
बल्ली मुस्कुराते हुए बोला, “अब इतना भी मुझसे प्यार न कर मेरी जान, नही तो मैं पागल हो जाऊंगा. मैंने मन्नत मांगी थी इसलिए में वाहन में नही बैठ सकता. मुझे घर तक पैदल ही जाना होगा. ऐसा कर तू बैठ जा और गाँव से पहले पड़ने वाले मेन चौराहे पर उतर जाना. चल तू केवल बैठ जा. मैं कंडक्टर को सब समझा दूंगा. वो तुझे ठीक जगह पर उतार देगा.”

काली ने न चाहते हुए हाँ में सर हिला दिया. मन में सोचती थी कि अगर उसका वश चलता तो कभी इस तरह बल्ली से अलग हो न जाती..

बल्ली ने रोड पर आ रही एक जीप रुकवा ली. इस जीप में सिर्फ कावड़ियों का ही जमावड़ा था. बल्ली ने कंडेक्टर से कहा कि वो इस औरत यानि काली को सज्जनपुर के चौराहे पर उतार दे. कंडेकटर ने हां कह दिया. काली की आँखें दुखी हिरनी जैसी हो गयी. उसने बल्ली को बड़ी हसरत से देखा. बल्ली के दिल में भी हूक सी उठ गयी. काली की आँखें नम हो गयी जिन्हें बल्ली ने देख लिया था. बल्ली के कंधे पर भोलेनाथ को चढाये जाने के लिए गंगाजल वाली कावड रखी थी और दिल में काली बसी थी. जीप आगे को बढ़ चली. काली ने चलती बार बल्ली को दिल भर के देखा और बल्ली ने भी दिल भर के अपनी काली को देखा. दोनों थोड़ी देर और देखते रहते तो हिल्की भर भर के रो पड़ते. जीप बल्ली से दूर निकली चली गयी.

बल्ली फिर तेज कदमो से चल पड़ा. मानो वो जीप से पहले अपने गाँव के चौराहे पर पहुंच जाएगा और वहां पहुंच अपनी काली की अगवानी करेगा. दिल में अपने से दूर जा रही काली को फिर से मिलने की घोर आशा थी. बल्ली को रोजाना बीस किलोमीटर चलने की आदत थी. वो तो वैसे ही एक दिन में अस्सी किलोमीटर चल सकता था. रोज़ लोगों से मांगता था लेकिन आज भगवान से मांग रहा था.

कुछ ही घंटो बाद बल्ली सज्जनपुरकेचौराहे परजा पहुंचा. मन में काली से मिलने की अपार खुशी थी. आँखों ने गिरगिट की तरह इधर उधर अपनी काली की काली आँखों को देखना शुरू कर दिया. यहाँ सब बल्ली के गाँव और आसपास के गाँव के लोग थे लेकिन बल्ली को उनसे कोई सरोकार न था.

वो भाग भाग कर सिर्फ अपनी काली को ढूंढ रहा था. बल्ली के गाँव के लोगों ने उससे कावड ले ली. जिससे वो थोडा आराम कर सके लेकिन उसे आराम कहाँ था? दिल तो धडाधड धडक रहा था. डर भी लगता था कि कभी बाहर न जाने वाली काली किस तरह यहाँ तक पहुंचेगी. वैसे कंडेक्टर ज्यादातर लोगों को उसके सही ठिकाने पर पहुंचा
लेकिन काली अभी तक क्यों नही पहुंची थी?

बल्ली ने बहुत से लोगों से काली के बारे में पूंछा लेकिन ज्यादातर लोगों ने मना कर दिया. कुछ मसखरे लोग कहते थे कि भौजी के विना बल्ली की ये हालत हुई जा रही है. ऐसा लगता है कि भौजी बल्ली को छोड़कर किसी और के साथ भाग गयी हो. बल्ली को ये मजाक कतई पसंद नही आ रहा था.

उसे सिर्फ हाँ या ना में जबाब सुनना था. हँसी तो चेहरे पर आ ही नही रही थी. होंठों पर सूख कर पपड़ी पड़ गयी थी. अस्सी किलोमीटर चलने के बाद इतनी परेशानी सहना किसी के लिए भी इतना आसन नही होता है. लेकिन बल्ली को सिर्फ काली चाहिए थी जो इस वक्त उसे कही नही मिल रही थी.

बल्ली ने रोड पर जा इधर उधर भी देखा लेकिन न तो कोई जीप आ रही थी और न ही काली का कोई अता पता ही था. बल्ली की आँखों में आंसू आने शुरू हो गये. लोगों ने उसे बहुत समझाया. कहा कि हो सकता है काली जीप में बैठी चली गयी हो. हो सकता है कंडेक्टर को उसे यहाँ उतरने का ध्यान ही न रहा हो. अगर ऐसा हुआ है तो कल तक वो लोग काली को यहाँ छोड़ जायेंगा. तू घर चल भोलेनाथ को गंगाजल चढ़ा सब ठीक हो जायेगा.

लोगों ने लाख समझाया लेकिन बल्ली एक भी बात को मानने के लिए तैयार न था. रात से सुबह होने को आ रही थी लेकिन बल्ली सज्जनपुर के चौराहे से टस से मस नही हुआ. गाँव के लोग बल्ली की कावड लेकर चले गये. बल्ली सज्जनपुर के चौराहे पर ही बैठा रह गया.

पिछली वाली पत्नी होती तो बल्ली इतना परेशान न होता लेकिन इस वाली बीबी से उसे सच्चा इश्क हो गया था.

वो बिहारिन बल्ली की जिंदजान बन गयी थी. बल्ली सज्जनपुर के चौराहे पर पड़ा पड़ा पछाड़े खाता था. रोंना तो उसका बंद ही नही होता था. ___ गाँव के लोग बड़ी मुश्किल से बल्ली को चौराहे से पकड़ गाँव लेकर आये लेकिन बल्ली की हालत पागलों जैसी हो गयी थी. वो रोते हुए सिर्फ काली का नाम ही लेता था. गाँव के लोगों ने पुलिस में भी इस बात की खबर कर दी. बल्ली तो फिर से उस रास्ते पर पैदल भागकर जाना चाहता था.

उसे लगता था कि काली जरुर उस रास्ते पर ही कहीं खड़ी होगी लेकिन लोगों ने जैसे तैसे बल्ली को रोका. बोलते थे चल एक गयी तो क्या एक और ले आना. लेकिन बल्ली को तो सिर्फ काली ही चाहिए थी. दूसरी कोई नही. चाहे वो मुफ्त में ही क्यों न मिल रही हो?
 
भाग-१
राणाजी कमरे में लेटे थे लेकिन दिमाग में कुछ ऐसा विचार आया कि झट से उठ कर बैठ गये. खड़े कर कमरे से बाहर आये और माला को आवाज दी. माला बगल के कमरे में लेटी हुई मानिक के दोपहर में आने के बारे में सोच रही थी. राणाजी की आवाज सुन तुरंत उठ बाहर आ गयी. राणाजी बाहर खड़े दिखाई दे गये. वो माला को देखते ही बोले, “माला तुमसे कुछ बात करनी है. मेरे साथ आओ."

इतना कह राणाजी अपने कमरे में घुस गये. माला भी उनके साथ साथ कमरे में चली गयी. राणाजी अंदर पहुंच पलंग पर बैठ गये और माला को अपने सामने पलंग पर बैठने के लिए इशारा कर दिया. माला भी विना हीलहुज्जत के राणाजी के सामने पलंग पर बैठ गयी.

राणाजी को बात कहने में बहुत सकुच हो रही थी जिसे माला भी महसूस कर रही थी. राणाजी बोले, “माला मैं तुमसे बहुत जरूरी बात कहने जा रहा हूँ. बहुत ध्यान और शांति से सुनना. थोड़ी देर पहले जो आदमी मुझे बुलाने आया था वो मुझे पंचायत के लिए बुलाकर ले गया था. पंचायत में हमारे बारे मैं ही बात हुई थी. उन लोगों ने फैसला दिया है कि मैं तुम्हें अपने घर से बाहर निकाल दूं. नही तो पंचायत वाले मुझे भी इस गाँव से बाहर कर देंगे लेकिन मुझे किसी का ज्यादा डर नही है. बस मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ. मैंने तुम्हारे लिए लिए कुछ सोचा है."

इतना कह राणाजी रुक गये. अपनी सांसे थामी और फिर बोल पड़े, “अच्छाये मानिक से कैसे बात हो पाएगी. क्या आज मानिक आयेगा तुम्हारे पास?"

माला का तो गला ही सूख गया. उसे लगा जैसे वो सपना देख रही है. सोचती थी राणाजी को मानिक से क्या काम? बोली, "ये क्या कह रहे हैं आप? उससे आपको क्या कहना है?"

राणाजी गंभीरता से बोले, “पहले तुम मुझे बताओ तो सही? आज मानिक आएगा या नही?"

माला ने हैरत में हो सर हाँ में हिलाया और बोली, “दोपहर को आएगा.”

राणाजी ने घड़ी की तरफ देखा और बोले, "लेकिन दोपहर तो हो चुकी है.”

माला ने एक झटके से कहा, "दोपहर हो गयी. फिर तो..." इतना कह माला झट से बाहर निकली चली गयी. राणाजी उसे देखते थे रह गये,

माला ने बाहर निकल कर देखा, मानिक सडक के किनारे खड़े पेड़ों की टेक लिए खड़ा था. शायद उसे इतनी देर से माला का ही इन्तजार था. माला उन्हीं पांव लौट कर राणाजी के पास कमरे में पहुंची और हडबडा कर बोली, "वो..मानिक...बाहर है."

राणाजी ने विना कुछ सोझे समझे कह दिया, “उसे अंदर बुला लो फटाफट."

माला को लगा जैसे राणाजी ने ये बात बोली ही नही है.

उसने फिर से पूंछा, “क्या कह रहे थे आप?"

राणाजी माला का डर बहुत अच्छी तरह से जानते थे.
वेधीरे धीरे शब्दों को बोलते हुए बोले, “तुम जल्दी से मानिक को अंदर बुला लाओ.”

माला का मन काँप रहा था लेकिन फिर भी बाहर गयी और मानिक की तरफ देख अपने पास आने का इशारा कर दिया. ____

मानिक भी तेज कदमों से उसकी तरफ बढ़ चला. मानिक के अपने पास आते ही वो उससे बोली, “तुम्हें 'वो बुला रहे हैं. कुछ बात करनी है."

मानिक के पैर वहीं के वहीं जम गये. बोला, “अरे पागल हो गयी हो. मरवाओगी क्या मुझे?"

माला ने अधीरता से उसे समझाया, “ऐसा कुछ भी नही है. तुम चलो तो सही.”

आज मानिक को माला पर भरोसा नही हो रहा था. उसे लग रहा था कि ये राणाजी की कोई चाल है. अभी मानिक कुछ कहता उससे पहले ही राणाजी बाहर निकल आये.
 
राणाजी को देखते ही मानिक को लगा कि उसकी पेंट गीली हो जाएगी लेकिन राणाजी ने बड़े प्यार से मानिक से कहा, “आओ भाई मानिक अंदर आओ. तुमसे कुछ बात करनी है.”

मानिक के पैर तो बाहर खिंच रहे थे लेकिन राणाजी की बात को डर के मारे टाल न सका. डरते डरते उनके पीछे पीछे चल दिया. माला मानिक के पीछे पीछे चली आई.

राणाजी ने कमरे में पहुंच मानिक को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और खुद पलंग पर बैठ गये. माला दरवाजे से टिक कर खड़ी हो गयी लेकिन राणाजी ने उसे अपने सामने पलंग पर बैठने के लिए इशारा कर दिया. मानिक की टाँगे काँप रहीं थीं. उसने राणाजी के गुस्से के किस्से लोगों से सुन रखे थे. राणाजी ने भी मानिक की पतली हालत को परख लिया और बोले, "मानिक आराम से बिना डरे बैठ जाओ. मैने कुछ खास बात करने के लिए तुम्हें बुलाया है."

मानिक को दिल में थोड़ी तसल्ली हुई लेकिन डर अब भी बरकरार था.

राणाजी ने सीधा सवाल मानिक से किया, “मानिक एक बात सच सच बताना क्या तुम माला को सच में चाहते हो या ये सब लडकपन के कारण कर रहे हो? तुम्हें मेरी बात का सच्चा उत्तर देना है. तुम्हारे इस उत्तर से तुम्हारी और माला के जीवन की दिशा और दशा तय होनी है. इसलिए मुझे सिर्फ सच ही बताना?"

मानिक को समझ न आया क्या कहे. वो कभी माला की तरफ देखता कभी राणाजी की तरफ. माला भी भौचक्की हो राणाजी का मुंह देखे जा रही थी. मानिक को लगता था कि अगर उसने कह दिया कि सचमुच में वो माला से प्यार करता है तो राणाजी आज ही उसमें गोली मार देंगे और अगर न करता है तो माला हाथ से जाती रहेगी. मानिक का दिल प्रेमी का दिल था और प्रेमी के दिल में डर एक सीमित समय तक ही रह सकता है. मानिक अपने कलेजे को मजबूत कर बोला, "हाँ...वो..."

राणाजी तो शांत बैठे थे लेकिन माला का हाल मानिक के हाँ वाले जबाब से पतला हो गया. उसे इस बात की उम्मीद ही नही थी कि मानिक हाँ बोल देगा.

राणाजी गम्भीर हो बोले, “तुम मुझे इस बात का भरोसा दे सकते हो कि अगर मैं माला को तुम्हारे साथ रख दूं तो तुम जिन्दगी भर उसे खुश रखोगे? कभी उसे दुःख नही दोगे. कभी उसे छोड़कर नही जाओगे?"

मानिक को राणाजी की बात पर अपार भरोसा हो उठा. उसे राणाजी की गम्भीरता में सच्चाई नजर आती थी. बोला, "मैं अपनी कसम खाकर कहता हूँ कि मैं माला को कभी दुखी नही होने दूंगा लेकिन चाचा आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? ये तो आपकी..."

राणाजी ने बीच में ही उसकी बात को काट दिया. बोले, "मैं जो पूंछ रहा हूँ सिर्फ उसका उत्तर दो. बाकी की कोई बात हमारे बीच नही होगी. अब ये बताओ तुम माला को ले गाँव से बाहर रह सकते हो लेकिन ये सब तुम्हें कल सुबह से पहले करना होगा. अगर तुम इस बात पर राजी हो तो मुझे बताओ फिर मैं तुम्हें आगे की बात बताउं?"

मानिक राणाजी की बात को बड़े आश्चर्य से सुन रहा था. उसकी समझ में ये न आया कि राणाजी ये सब क्यों कर रहे हैं. भला कोई अपनी बीबी को किसी और को क्यों देने लगा. लेकिन मानिक ने हाँ में सर हिला दिया. उसे सच में माला चाहिए थी जिसके लिए वो कहीं भी रह सकता था.

राणाजी सोचते हुए बोले, "लेकिन तुम माला को लेकर जाओगे कहाँ? क्या कोई तुम्हारा जानने वाला ऐसा है जो तुम्हें अपने पास रख सके?"

माला मानिक के बोलने से पहले ही बोल पड़ी, “ये सब आप क्या कह रहे हैं मेरी समझ में कुछ नही आ रहा?"

राणाजी ने माला को शांत रहने का इशारा किया और मानिक की तरफ जबाब सुनने के लिए देखने लगे. मानिक गंभीर था. बोला, “मैं माला को नानी के घर में लेकर रह सकता हूँ."

राणाजी ने थोडा सोचा फिर बोले, "नही तुम्हारा वहां जाना ठीक नही रहेगा. तुम्हारे पिता तुम्हें वहां से पता कर सकते हैं. तुम ऐसा करो कि मेरी बताई जगह पर चले जाओ. मैं अपने एक मिलने वाले के पास तुम्हें भेजे देता हूँ और साथ में एक चिट्ठी भी लिख दूंगा. वो तुम्हें आराम से रख लेगा. ये जगह मथुरा शहर में है. तुम बस से वहां पहुंच जाओगे. मैं पूरा पता ठिकाना लिख तुम्हें दे दूंगा. तुम मुझे ये बताओ कि कब निकलना चाहते हो यहाँ से?"

मानिक क्या बताता, अभी तो उसमें लडकपन वाला ही दिमाग था. आसपास के गाँव तक घूमा मानिक इतनी दूर दूसरे जिले में जाने की कैसे सोच लेता. बोला, "आप जैसा ठीक समझो वैसा ही बता दो. मैं आप के कहे अनुसार ही चला जाऊँगा."

राणाजी जानते थे कि उनके पास सिर्फ यही रात है कुछ भी करने के लिए. बोले, "तुम आज शाम को ही निकल लो. जैसे ही अँधेरा हो वैसे ही इस गाँव को पार कर जाओ. दिन भर तुम अपने घर रहो और शाम होते ही यहाँ आ माला को ले चल देना. मैं खुद तुम लोगों को गाँव से बाहर तक छोड़ आऊंगा.”

मानिक ने हाँ में सर हिला दिया. राणाजी बोले, “अच्छा अब तुम अपने घर पहुँचो और सावधानी से शाम को आ जाना. ठीक है?"

मानिक ने हाँ में सर हिलाया और उठकर बाहर चला गया. माला अब भी भौचक्की थी. उसे यकीन नही हो रहा था कि राणाजी ये सब करने जा रहे हैं और वो खुद मानिक के साथ हमेशा के लिए जा रही है. उसे मन में अपार ख़ुशी भी थी और राणाजी को छोड़ने का दुःख भी था. राणाजी की सहृदयता उसे अंदर से कचोट रही थी.

राणाजी ने सामने बैठी माला से कहा, “माला तुम कुछ कह रही थी. अब बताओ क्या कहना चाहती हो?"
 
माला तो बहुत देर से बहुत कुछ कहना चाहती थी. सवालों पर सवालों ने उसके दिमाग पर सवालिया निशान लगा दिया था. बोली, “आप ये सब सोच समझ कर कर रहे हैं? मुझे तो आपके इस फैसले से बहुत डर सा लग रहा है. मैं यहाँ से जाना नहीं चाहती."

राणाजी ने माला की बात को बहुत शांति से सुना और बोले, "ठीक है मत जाओ लेकिन आज ये वादा कर दो कि आज के वाद सारी जिन्दगी तुम मेरे अलावा किसी और के बारे में सोचोगी भी नही. मानिक के बारे में भी. बताओ?"

माला सोच में पड़ गयी. मानिक को तो वो मर कर भी नही भुला सकती थी. चुप होकर बस राणाजी को देखती रह गयी. शर्त बहुत कठिन थी और दिल बड़ा नाजुक, न तो। माला हाँ कह सकती थी और न ही ना. लेकिन राणाजी अब भी अपने सवाल का जबाब पाने के लिए माला की तरफ देख रहे थे और माला. माला तो मौन थी. मानो उसके पास कोई जबाब ही न हो लेकिन राणाजी ने दुनिया देखी थी. उन्हें अपने सवाल का जबाब मिल गया था. माला मानिक के साथ जाना चाहती थी. राणाजी कमरे से निकल बाहर चले गये और माला उन्हें देखती रह गयी.*
 
भाग -10

सुबह के नौ दस बज रहे थे. संतराम मजदूरी करने सुबह आठ बजे ही चला गया था और जाते समय सुन्दरी से उसकी जमकर लड़ाई हुई थी. सुन्दरी उसे कहती थी कि सुबह एक पाव(ढाई सौ ग्राम) दूध ले लिया करे. जिससे घर में एकाध बार चाय बन जाये लेकिन संतराम एक भी पाई खर्च करना नही चाहता था. सुन्दरी अन्य पड़ोसियों की तरह सुबह चाय पीना चाहती थी जो संतराम को कतई गंवारा नही था. सुन्दरी इस लड़ाई के बाद रूठ कर कमरे में बैठ गयी और संतराम अपने काम पर चला गया.

लेकिन उसके जाने के बाद जाने के बाद सुन्दरी को अपने अँधेरे कमरे में भूत दिखाई देने लगे. तरह तरह की आवाजें आने लगी. वो डरकर कमरे से बाहर निकल आई. पहले तो घर में जोर जोर से खूब चिल्लाई. रोई लेकिन किसी ने उसकी बातों पर गौर नही किया.

हां एकाध गाँव का मसखरा उसके घर के बाहर जमीन पर अपने पैर पटपटा कर जरुर चला गया. सुन्दरी ने उसे खूब गलियां सुनाईं, क्योंकि वो इन बातों से बहुत चिढ जाती थी लेकिन लोगों को इसमें बहुत मजा आता था. ऊपर से आज सुन्दरी वैसे ही वावली हो रही थी. वो अपने घर से निकल सीधी कौशल्यादेवी के घर की तरफ चल दी. अभी उनके दरवाजे पर ही पहुंची थी कि उनका लड़का छोटू लडकों के साथ बैठा दिखाई दे गया. सुन्दरी ने छोटू से सारी बात कह डाली. वैसे छोटू समझदार सा लगता था लेकिन था तो छोटी उम्र का लड़का ही. दोस्तों संग सुन्दरी के साथ उसके घर चल दिया. बच्चों में भूत को लेकर डर भी था और जिज्ञासा भी. बच्चों ने भूत का नाम तो बहुत सुना था लेकिन कभी उससे भेंटा न हुआ था.

छोटू बच्चो की मंडली ले सुन्दरी के घर पहुंच गया. छोटू सुन्दरी के घर को देख बोला, “चाची किधर है भूत?" सुन्दरी ने अंदर कमरे की तरफ इशारा कर दिया. छोटू ने वही पड़ा हुआ एक डंडा उठाया और डरते हुए कमरे की तरफ बढ़ गया. एकाध बहादुर लड़का भी छोटू के पीछे पीछे हो लिया. कमरे में घनाकार अँधेरा था. छोटू ने सुन्दरी से कह कर दीया जलवाया और साथ ही एक टार्च भी ले ली. सब तरह से देखने के बाद भी कमरे में भूत नाम की कोई चीज न मिली.

छोटू ने सुन्दरी को समझाते हुए कहा, “चाची यहाँ कोई भूत भूत नही है. तुम आराम से रहो." लेकिन सुन्दरी मानने को तैयार न थी. अब वो कमरे की जगह चूल्हे और उसकी चिमनी में भूत बताने लगी. ये चिमनी संतराम ने बहुत मेहनत से बनाई थी. गाँव के बाहर बने तालाब से चिकनी मिटटी लाया था और कई दिनों की छुट्टी कर ये चूल्हा और चिमनी बनाई थी. जबकि संतराम बीमार होने पर भी मजदूरी पर जाने से छुट्टी नहीं करता था.

बच्चों ने छोटू को थोडा फुसलाया कि वो सुन्दरी से उसका चूल्हा और चिमनी तुड़वा दे. छोटू भी बच्चों के रंग में रंग गया. उसने सुन्दरी से कहा, "चाची इसमें सच में भूत है तुम ये डंडा लो और एव चिमनी और चूल्हा तोड़ डालो."

सुन्दरी ने छोटू के हाथ से डंडा लिया और भूत पर गुस्सा निकालने लिए चूल्हे और चिमनी में डंडा बजाना शुरू कर दिया. थोड़ी ही देर में चूल्हा और चिमनी कुटी हुई मिटटी की तरह हो गये लेकिन सुन्दरी फिर भी गुस्से में उसमे डंडा बजाती रही.

जब डंडा बजाना बंद हुई तो उसे घर की अन्य चीजों में भी भूत नजर आने लगा. फिर विना किसी के कहे उसने वो चीज भी तोडनी शुरू कर दी और कुछ ही देर में घर की हालत उल्टी सीधी कर डाली. बच्चे खूब खुश हो हो कर नाचे और सुन्दरी को घर की अन्य चीजों में भूत होना बताते रहे. सुन्दरी भी पागलों की तरह घर की चीजों को तोडती रही.

सब कुछ शांत होने के बाद सुन्दरी आराम से बैठ गयी. शाम को संतराम थक हार कर मजदूरी से घर लौटा. वो आकर बैठा ही था कि उसने घर की हालत देखी तो सन्न रह गया. थके बदन होने के कारण दिमाग भी खराब था. साथ ही मेहनत से बनाई हुई चिमनी और चूल्हा तो पूरी तरह मिटटी के ढेर में तब्दील हो चुका था. उसे देख संतराम गुस्से से पागल हो उठा. उसने सुन्दरी पर भडकते हुए पूंछा, "क्यों री सुंदरिया, ये चूल्हा और चिमनी किसने तोड़ी और ये घर का ये सब हाल किसने किया?"

सुन्दरी फूले हुए मुंह से बोली, “इसमें भूत था इसलिए मैने ही तोड़ दिया.” संतराम का दिमाग सनक गया. सुबह वो सुन्दरी से लड कर गया था. उसकी आग अभी ठंडी भी नही हुई थी कि ये नया ववाल और आ खड़ा हुआ. संतराम गुस्से से फुफकारता हुआ उठा और वही डंडा उठा लिया जिससे सुन्दरी ने सब तोड़ फोड़ दिया था.

संतराम डंडा ले सुन्दरी को पीटने फैल पड़ा. उसने सुन्दरी को बुरी तरह पीटना शुरू कर दिया. डंडा बहुत तेज लग रहा था. सुन्दरी कीचीखें आधेगाँव को सुनाई देने लगी. थोड़ी ही देर में आसपास के घरों से औरतें सुन्दरी की चीख सुन संतराम के घर जा पहुंची और बड़ी मुश्किल से सुन्दरी को संतराम से छुड़ाया.
 
धीरे धीरे पूरा गाँव संतराम के घर आ जुटा, सुन्दरी का मुंह पूरा सूजा हुआ था. सारी देह पर डंडे ही डंडे छपे दिखाई देते थे. लोग वेशक सुन्दरी को चिढाते थे लेकिन इसका मतलब ये नही था कि वे लोग सुन्दरी से दुश्मनी मानते थे.

सिसकती सुन्दरी को देख हर आदमी का दिल पिघल गया. लोगों ने गाँव के पंचों को जा सारी खबर सुना डाली. पंचों ने एक घंटे बाद पंचायत बुलाने का फैसला कर लिया. जहाँ संतराम और सुन्दरी को भी बुलाया गया था.

पंचायत ठीक समय पर लग गयी. संतराम और सुन्दरी के साथ साथ पूरा गाँव पंचायत में जा पहुंचा. पंचों ने सारी बात सुनी और सुन्दरी का पक्ष पूंछा. सुन्दरी संतराम के साथ रहना ही नहीं चाहती थी. आज उसने संतराम का राक्षसपना देख लिया था. कहती थी कि वो अपने घर अपने गाँव जायेगी. गाँव के महिलाएं भी सुन्दरी का भला चाहती थी. उन्हें पता था कि उसकी संतराम से आये दिन लड़ाई होती है और संतराम उसको मारता है. सब कहतीं थी कि जैसा सुन्दरी कहे वैसा ही किया जाय. पंचों ने संतराम से कहा कि कल सुबह भी वो जाकर सुन्दरी को उसके गाँव छोड़कर आये.

इस बात से सुन्दरी तो खुश हो गयी लेकिन संतराम को न तो ज्यादा दुःख हुआ और न ही ख़ुशी. शायद उसे अपने पैसों की थोड़ी चिंता रही होगी. जिनसे वो सुन्दरी को खरीद कर लाया था. लेकिन पंचायत के सामने कुछ न कह सका. उसने सबके सामने हां कह दी. पंचायत बर्खास्त हो गयी. गाँव के सब लोग खुश थे और सुन्दरी की ख़ुशी का तो ठिकाना ही नही था.
 
भाग - 11
मानिक ने देखा कि शाम के अँधेरे ने उसके राजगढ़ी गाँव को अपने आगोश में ले लिया है तो घर पर अपने पिता से विना कुछ कहे चुपचाप घर से निकल आया. उसने घर से दो सौ रूपये के करीब भी निकाल लिए थे. जिससे सफर में कोई दिक्कत न हो.

मानिक सीधा राणाजी के घर आकर रुका. राणाजी कमरे में इधर से उधर घूमते हुए उसी का इन्तजार कर रहे थे. उन्होंने जैसे ही मानिक को देखा वैसे ही अपने पास बुला कर बिठा लिया और बोले, “मानिक तुम तैयार हो जाने के लिए?" मानिक ने हाँ में सर हिला दिया.

राणाजी ने तुरंत माला को आवाज दी. माला लगभग भागती हुई राणाजी के कमरे में आ पहुंची. राणाजी ने माला को देखते ही कहा, "माला तुम फटाफट तैयार हो जाओ. एक बैग में अपने पहनने के जितने कपड़े रखना चाहो रख लो लेकिन ये काम बहुत जल्दी करो. रात होने पर सफर में खतरा रहेगा. जाओ अब जल्दी से.”

माला के कदम डगमगा रहे थे. मन बहक रहा था. दिमाग सुन्न था लेकिन राणाजी के कहे अनुसार करने लगी.

थोड़ी ही देर में माला ने रोज़ पहनने वाली साड़ियाँ और कपड़े एक बैग में रख लिए और राणाजी के कमरे में आ खड़ी हो गयी. आँखों में डर था लेकिन शरीर ठीक ठाक काम कर रहा था. राणाजी चेहरे से वेशक न दिखा रहे हों लेकिन दिल उनका फटा जा रहा था. मन करता था कि रोने लगें या कहीं जा चुपचाप बैठ जाए और सिर्फ अपनी माँ को याद करते रहें. माँ की याद बुरे वक्त में उन्हें सहारा देती थी.

राणाजी ने माला को दरवाजे पर खड़ा देखा तो थोड़े हिल गये लेकिन यह सब तो उन्हें करना ही था. माला के हाथ में लग रहे बैग में बहुत कम कपड़े थे. राणाजी ने अधीर हो माला से पूछा, “माला कितनी साड़ियाँ रखी तुमने इस बैग में?" ___

माला धीरे से बोली, “तीन साड़ियाँ.”

राणाजी उसकी तरफ आते हुए बोले, “लाओ बैग मुझे दो. तुम भी न जाने कब तक वावली रहोगी."

माला ने आश्चर्य के साथ बैग राणाजी की तरफ बढ़ा दिया. राणाजी बैग ले माला के कमरे की तरफ बढ़ गये. कमरे में बहुत बढ़िया बढिया साड़ियाँ रखी थीं. जो राणाजी की माँ ने अपनी बहू के लिए ले ले कर रख लीं थीं. जब राणाजी की शादी भी नही हुई थी तब से उनकी माँ अपनी होने वाली बहू के लिए साड़ियाँ ले ले कर रख लेती थीं. इससे उनके दिन में राणाजी की शादी न होने से हो रहा मलाल कम हो जाता था.

राणाजी ने बैग में चार पांच और साड़ियाँ रख दीं. इसके बाद अपने कमरे में आ पहुंचे जहाँ माला और मानिक खड़े गुए थे. माला को राणाजी का ये अजीब सा व्यवहार बड़ा अजीब महसूस हो रहा था. उसकी समझ न आता था कि राणाजी ये सब क्यों कर रहे हैं. बोली, "अरे इतनी साड़ियाँ क्यों रख रहे हैं? मुझसे इतनी पहनी भी नही जाएँगी.

राणाजी ने अपनी पथरायी आँखों से माला की तरफ देखा और बोले, "तो यहाँ ही कौन पहनेगा? ये सब तुम्हारे लिए ही तो थी और अब तुम्ही...अच्छा लो अपना बैग पकड़ो में अपने जानने वाले के लिए चिट्ठी लिख दूं."

इतना कह राणाजी ने माला को कपड़ों का बैग पकड़ा दिया. माला भौचक्की सी उनको देखती रह गयी. पता नही माला को क्यूँ राणाजी की इस साड़ी वाली बात में बहुत दर्द नजर आया था. राणाजी ने फटाफट एक पेन और कागज लिया और अपने परिचित के नाम चिट्ठी लिख दी. साथ ही उस पर उसका पता भी लिख दिया. राणाजी मानिक को वो चिट्ठी देते हुए बोले, "देखो मानिक इसे सम्हाल कर रखना. मैंने इस चिट्ठी पर उस आदमी का पता लिख दिया है. बस से मथुरा तक पहुंचना और वहां से टेम्पो या रिक्शा कर इस पते पर पहुंच जाना."

मानिक ने हाथ में चिट्ठी ले ली. राणाजी फिर से बोले, "अच्छा मानिक तुम लोगों को थोड़े रुपयों की भी जरूरत होगी तो मैं उसका भी इंतजाम किये देता हूँ.” यह कह राणाजी मुड़ने को हुए तो मानिक बोल पड़ा, "चाचा मेरे पास रूपये हैं थोड़े से."

राणाजी ने रुक कर उसे देख पूंछा, “कितने? कितने रूपये हैं तुम्हारे पास?"

मानिक आतुरता से बोला, “करीब दो सौ रूपये होंगे.”

राणाजी मुस्कुराते हुए बोले, “बेटा इतने से तो हफ्ता भर भी काटना मुश्किल पड़ जाएगा. मैं थोड़े रूपये और दिए देता हूँ तुम्हें.”

राणाजी ने अपने सन्दूक से एक छोटा सा थैला निकाला और उसमे से सौ सौ के नोट गिनते हुए मानिक की तरफ बढ़ा दिए. बोले, “लो ये दो हजार रूपये हैं. अभी मेरे पास इतने ही हैं लेकिन जल्द ही मैं कुछ रूपये तुम्हें मनीआर्डर कर वहीं भिजवा दूंगा. शायद इन रुपयों के खत्म होने से पहले ही.”

मानिक ने दो हजार रूपये पहली बार अपने हाथ में पकड़े थे. उसने कांपते हाथों से रूपये जेब में रख लिए.
राणाजी का थैला रुपयों से खाली होता देख माला बीच में बोल पड़ी, “आप थोड़े से रूपये अपने पास भी रख लीजिये. यहाँ जरूरत पड़ी तो? वैसे कुछ रूपये पलंग के सिराहने रखे हुए हैं. अगर आपको जरूरत पड़े तो उन्हें भी निकाल लीजियेगा.”

राणाजी ने हैरत से पूंछा, “अरे पलंग के सिरहाने किसने रूपये रख दिए?"

माला थोडा झिझकते हुए बोली, “वो जब में यहाँ आई थी तब माँजी ने मुझे दिए थेन. पहली बार मुंह दिखाई के वक्त."

राणाजी ने अधीरता के साथ माला से कहा, "निकालो कहाँ रखे हैं वो रूपये?"

माला ने एक झटके में पलंग के सिरहाने गद्दे के नीचे हाथ डाला और सौ सौ के दो नोट बाहर निकाल लिए. साथ में एक एक रूपये का सिक्का भी था.

सावित्री देवी के दिए शगुन के दो सौ एक रूपये थे. ___ माला ने राणाजी की तरफ पैसों वाला हाथ बढ़ा दिया. राणाजी ने पैसों की तरफ देखा तक नही. बोले, “ये पैसे तुम अपने पास रखलो और हो सके तो इन्हें कभी खर्च न करना. इन्हें हमेशा अपने पास ही रखना. ये पैसे तुम्हें माँ ने दिए थे न. ये पैसे तुम्हारे लिए एक आशीर्वाद की तरह हैं. जो जिन्दगी भर तुम्हें मुसीबतों से बचायेंगे."

माला के साथ साथ मानिक और राणाजी भी भावुक हो उठे. सबकी आँखे नम हो गयीं.राणाजी इस वक्त किसी तरह की भावुकता नहीं चाहते थे. वो एक झटके के साथ उठ खड़े हुए और बोले, "अच्छा चलो तुम लोग अब वैसे ही देर हो रही है."

सब लोगों के शरीर में सिरहन दौड़ गयी. माला के पैर तो खड़े खड़े ही काँप रहे थे. तीनों लोग राणाजी के कमरे से बाहर आ गये. फिर घर से बाहर द्वार पर आ पहुंचे. राणाजी ने घर के बाहर लटक रहा ताला घर के मुख्य दरवाजे पर लगा दिया. आज पहली बार राणाजी अपने घर पर ताला लगा रहे थे. आज से पहले घर में कोई न कोई हरवक्त मौजूद रहता था.

फिर राणाजी मानिक और माला की तरफ मुड़ते हुए बोले, “देखो बहुत सावधानी से यहाँ से गाँव बाहर तक निकलना है. उसके बाद इतनी दिक्कत नही होगी. मुख्य सडक पर तो तांगा या कोई जीप बगैरह मिल जाएगी." राणाजी इतनी बात कह चुप भी न हो पाए थे कि उनकी नजर माला के चेहरे पर आकर रुक गयी. उन्हें माला के चेहरे से सारे गहने गायब मिले.
 
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