desiaks
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जलन
लेखक कुशवाहा कांत
"चलिए, भोजन कर लीजिए!"
"भोजन की इच्छा नहीं है।" -मैंने कहा।
"इच्छा क्यों नहीं है? भला इस तरह भी कोई क्रोध करता है? दादी ने जरा-सी बात कह दी, बस आप रूठ बैठे।
"मैं नहीं खाऊंगा।" -मैंने पूर्ववत् हठ किया।
उसके मुंह से एक सर्द आवाज निकली। बोली, “मत खाइए, मैं भी नहीं खाऊंगी।"
*...तुम...तुम भी...?" मैंने आश्चर्य और हैरानी से उस चौदह वर्ष की बालिका के मुंह की ओर देखा। यह भी कितनी नादान है कि बात-बात में जिद! आखिर इसे मुझमें इतनी ममता क्यों है? यह क्यों मेरे लिए इतना परेशान रहती है? अभी चार ही दिन हए, मेरे एक गरीब रिश्तेदार की यह लडकी मेरे घर आई है -और इन चार दिनों में ही मेरी सारी फिक्र अपने ऊपर ले ली है। नाम है उसका 'तोरणवती', मगर लोग उसे तुरन ही कहकर पुकारते हैं। अब तक तो मेरे रूठ जाने पर कोई मनाने वाला न था, मैं दो-एक दिन बिन खाए ही रह जाता था, मगर तुरन के आ जाने से मुझे रोज खाना पडता है। वह ऐसी हठ लड की है कि...
यौवन-रश्मि द्वारा प्रोद्भासित उसके भोले चेहरे की ओर मैंने देखा। वह उदास और गीली आंखें लिये खडी थी। मैंने कहा- “मेरे लिए इतना अफसोस क्यों करती हो तुरन, चलो मैं खाए लेता हूं।"
मैं उन अभागे व्यक्तियों में से हं, जिनके साथ नियति ने गहरा मजाक किया है। अपनी श्रीमती जी ऐसी मिली कि मुझे घर से पूरी उदासीनता हो गईं। प्रेम की दो बातें कभी मेरे कानों में न पड में अभागा लेखक, केवल अपना शरीर लिये कुर्सी पर बैठा-बैठा लिखा करता था-परंतु तुरन के आते ही मेरा उजड संसार हरा-भरा हो गया। दिल के बिखरे हुए टुकड एकत्रित होकर तुरन की ओर आकर्षित हो गए। हृदय को स्वच्छ प्रेम पाकर शांति मिली।
तुरन को मेरा काम करने में आनंद आता था। वह मेरा कमरा नित्य साफ कर दिया करती थी। मेरी धोतियों पर साबुन मल देती थी।--मैं हर्षातिरेक से विभोर हो उठता था।
तुरन के हर काम से यही प्रकट होता था कि वह भी मेरी और आकर्षित है। कभी-कभी मैं उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर 'सामुद्रिक' देखता, तो कितना आनंद आता!
उस दिन अपने कमरे में बैठा हुआ, मैं लिखने में निमग्न था। तुरन दरवाजे के सामने आई। उसने मुझे देखा नहीं और अपने सिर से धोती हटाकर कुर्ती पहनने लगी। मेरी दृष्टि उधर जा पड। देखा- जी भर के देखा। पराए की खूबसूरती देखना पाप है, मगर वह तो मेरे लिए पराई थी नहीं।
रात को मैंने उससे कहा- "तुरन, तुम्हारे चले जाने पर घर सूना हो जाएगा। वह हंस पड। बोली- "मेरे जैसी कितनी ही दासियां आपके घर रोज आती-जाती है।"
लेखक कुशवाहा कांत
"चलिए, भोजन कर लीजिए!"
"भोजन की इच्छा नहीं है।" -मैंने कहा।
"इच्छा क्यों नहीं है? भला इस तरह भी कोई क्रोध करता है? दादी ने जरा-सी बात कह दी, बस आप रूठ बैठे।
"मैं नहीं खाऊंगा।" -मैंने पूर्ववत् हठ किया।
उसके मुंह से एक सर्द आवाज निकली। बोली, “मत खाइए, मैं भी नहीं खाऊंगी।"
*...तुम...तुम भी...?" मैंने आश्चर्य और हैरानी से उस चौदह वर्ष की बालिका के मुंह की ओर देखा। यह भी कितनी नादान है कि बात-बात में जिद! आखिर इसे मुझमें इतनी ममता क्यों है? यह क्यों मेरे लिए इतना परेशान रहती है? अभी चार ही दिन हए, मेरे एक गरीब रिश्तेदार की यह लडकी मेरे घर आई है -और इन चार दिनों में ही मेरी सारी फिक्र अपने ऊपर ले ली है। नाम है उसका 'तोरणवती', मगर लोग उसे तुरन ही कहकर पुकारते हैं। अब तक तो मेरे रूठ जाने पर कोई मनाने वाला न था, मैं दो-एक दिन बिन खाए ही रह जाता था, मगर तुरन के आ जाने से मुझे रोज खाना पडता है। वह ऐसी हठ लड की है कि...
यौवन-रश्मि द्वारा प्रोद्भासित उसके भोले चेहरे की ओर मैंने देखा। वह उदास और गीली आंखें लिये खडी थी। मैंने कहा- “मेरे लिए इतना अफसोस क्यों करती हो तुरन, चलो मैं खाए लेता हूं।"
मैं उन अभागे व्यक्तियों में से हं, जिनके साथ नियति ने गहरा मजाक किया है। अपनी श्रीमती जी ऐसी मिली कि मुझे घर से पूरी उदासीनता हो गईं। प्रेम की दो बातें कभी मेरे कानों में न पड में अभागा लेखक, केवल अपना शरीर लिये कुर्सी पर बैठा-बैठा लिखा करता था-परंतु तुरन के आते ही मेरा उजड संसार हरा-भरा हो गया। दिल के बिखरे हुए टुकड एकत्रित होकर तुरन की ओर आकर्षित हो गए। हृदय को स्वच्छ प्रेम पाकर शांति मिली।
तुरन को मेरा काम करने में आनंद आता था। वह मेरा कमरा नित्य साफ कर दिया करती थी। मेरी धोतियों पर साबुन मल देती थी।--मैं हर्षातिरेक से विभोर हो उठता था।
तुरन के हर काम से यही प्रकट होता था कि वह भी मेरी और आकर्षित है। कभी-कभी मैं उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर 'सामुद्रिक' देखता, तो कितना आनंद आता!
उस दिन अपने कमरे में बैठा हुआ, मैं लिखने में निमग्न था। तुरन दरवाजे के सामने आई। उसने मुझे देखा नहीं और अपने सिर से धोती हटाकर कुर्ती पहनने लगी। मेरी दृष्टि उधर जा पड। देखा- जी भर के देखा। पराए की खूबसूरती देखना पाप है, मगर वह तो मेरे लिए पराई थी नहीं।
रात को मैंने उससे कहा- "तुरन, तुम्हारे चले जाने पर घर सूना हो जाएगा। वह हंस पड। बोली- "मेरे जैसी कितनी ही दासियां आपके घर रोज आती-जाती है।"