hotaks444
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दोनो ने नाश्ता कर लिए.. उसके बाद राज ने अपना बॅग उठाया और बाहर लगी अपनी कार की तरफ चल दिया.. स्नेहा भी उसके पीछे पीछे कार तक गयी.. कार के पास पहुँचकर राज ने स्नेहा के होठों पर एक छोटा सा चुंबन लिया और कार मे बैठकर कार स्टार्ट कर दी और हाथ हिलाकर स्नेहा को बाइ कहा..
स्नेहा ने भी बदले मे हाथ हिलाकर उसे बाइ कहा मगर उसका मन अब बहुत खराब लग रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ बहुत बुरा होने वाला है.
वो हाथ हिलाती हुई कार को जाती हुई देखती रही मगर उसे ये नही पता था कि शायद ये उसकी राज से आख़िरी मुलाकात हो. या नही भी.
ऑफीस मे काम कुछ ज़्यादा था इसलिए राज को 5 ऑफीस मे ही बज गये..
"ओह नो.. मैं कहीं वहाँ पहुँचते पहुँचते वो चला ना जाए.." उसने अपनी घड़ी की ओर देखते हुए कहा और कार मे बैठ गया.
उसने करीब करीब 100 किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से गाड़ी को भगाया. चूँकि वो जगह सहर के बाहर थी इसलिए उधर ज़्यादा ट्रॅफिक भी नही था इसलिए उसे कोई प्राब्लम भी नही हो रही थी. करीब 15 मिनिट की ड्राइविंग के बाद वो उस खंडहर् मंदिर के सामने खड़ा था.
उस खंडहर को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि किसी जमाने में वो राजनगर के लोगों के लिए सम्मान का प्रतीक रहा होगा.
मंदिर की छत और दरवाज़े पर लंबी लंबी झाड़ियाँ उग गयी थी. बाहर की दीवारें काली पड़ गयी थी.. बाहर से ही देखने पर वो किसी भूत बंगले से कम नही लग रहा था. राज धीरे धीरे उस खंडहर के दरवाज़े की ओर बढ़ रहा जो अत्यधिक झाड़ियों के कारण करीब करीब बंद होने वाला था.. और उन झाड़ियों मे साँप या अन्य किसी ज़हरीले और ख़तरनाक जानवर के होने की अच्छी ख़ासी संभावनाएँ थी मगर फिर भी राज को अपने मा बाप के कातिल का पता लगाना था या जिसने भी ये झूठी कहानी बनाकर उसका समय बर्बाद किया था, उसे पकड़कर सबक सिखाना था.. राज ने दरवाज़े के पास पहुँचकर अपने हाथों और पैरों की मदद से उन झाड़ियों को एक तरफ किया.. और फिर मदिर के प्रांगण मे घुस गया.. मंदिर के अंदर का द्रिश्य और भी डरावना था.. चारों तरफ झाड़ियाँ उगी हुई थी, दीवारों पर बने हुए चित्रा अब काले पड़ गये थे, छत पर लटके चमगादड़(बॅट) द्रिश्य को और डरावना बना रहे थे.. तभी राज ने जैसे ही अपने कदम बढ़ाए ना जाने कहाँ से कबूतरों का एक झुंड उसके ऊपर से गुज़र गया. डर के मारे राज की हालत खराब हो गयी मगर फिर भी वो आगे बढ़ता रहा..मंदिर के अंदर एक भी मूर्ति नही थी, ऐसा कहा जाता था कि वहाँ एक बार राजनगर की सबसे बड़ी लूट हुई थी जिसमें उस मंदिर की सारी मूर्तियाँ डकैतों ने लूट ली थी... जिसमें से ज़्यादातर मूर्तियाँ सोने की थी और आज के जमाने मे उनकी कीमत करोड़ों मे होती..
खैर वो तो दूसरी बात थी.. राज अबतक पूरे मंदिर मे घूम चुका था पर उसे अब तक कोई नही दिखा था..
"पूरा मंदिर छान मारा.. पर कोई नही मिला.. अब तो अंधेरा भी घिरने लगा है और शाम के 6:00 बज चुके हैं.. लगता है किसी ने जान बूझ कर कोई मज़ाक किया है मेरे साथ.." उसने सर पर आ रहे पसीने को पोंछते हुए कहा और फिर मंदिर से बाहर निकालने के लिए दरवाज़े की तरफ घुमा..
मगर जैसे ही उसने अपना सर घुमाया तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी..
"कौन हो तुम..?" उसने चिल्लाते हुए कहा मगर इससे पहले की वो कुछ समझ पाता, किसी ने उसके सर पर पीछे से वॉर किया और उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया..
***********
"अरे जग्गू काका.. आप आ गये..? राज कहाँ है..?" स्नेहा ने जग्गू काका के आते ही उनसे पूछा..
हालाँकि उसे पता था कि राज खंडहर की तरफ गया है मगर उसने कह दिया था कि खंडहर से वो सीधा ऑफीस आएगा और फिर ऑफीस से काका के साथ ही घर आएगा..
"काहे बिटिया..? ऊ अभी तक घर नई आया है का..? ऊ ता हम से पहले ही आफिसे से निकल गया था..?" जग्गू काका ने हैरानी से कहा..
"नही काका.. वो तो अभी तक नही आए.. पता नही कहाँ रह गये.." स्नेहा को चिंता होने लगी..
"ऊ देखो आ गया राज.." अचानक जग्गू काका ने दरवाज़े की तरफ इशारा करते हुए कहा..
स्नेहा ने सर घूमकर देखा तो पाया कि राज अंदर चला आ रहा है..
"ठीक है बिटिया अब तुम दोनो बात करो.. हम तनिक फिरेश हो के आते हैं.." इतने दिनो मे जग्गू काका ने टूटे फूटे ही सही मगर कुछ अँग्रेज़ी शब्द सीख ज़रूर लिए थे.
"आ गये आप..? पर आप तो जग्गू काका के साथ आने वाले थे.. मंदिर से सीधा ऑफीस नही गये क्या..?" स्नेहा ने काका के जाते ही पूछा..
"अरे क्या बताऊ जान.. ऑफीस मे बहुत ज़्यादा काम था और फिर मंदिर गया तो पाया कि वहाँ कोई नही है.. शायद किसीने घटिया मज़ाक किया था और देखो ये पैसे भी साथ ही लाने पड़े.." राज ने बॅग दिखाते हुए कहा..
"होगा कोई शैतान जिसने इतना बेकार मज़ाक किया.. आप जाकर हाथ मुह्न धो लीजिए, मैं आपके लिए खाना लगा देती हू.." ये बोलकर स्नेहा वहाँ से जाने लगी मगर राज ने उसे अपनी बाहों मे खिच लिया..
"इतनी जल्दी भी क्या है..?" ये बोलकर राज ने उसके होठों पर अपने होंठ रखे और उन्हे बड़ी बेरहमी से चूसने लगा..
"छ्चोड़ो मुझे... जब देखो शुरू हो जाते हो.. जग्गू काका ने देख लिया तो क्या सोचेंगे..?" स्नेहा ने अपना मुह्न अलग करते हुए कहा..
"दुनिया वालों के डर से हम प्यार करना तो नही छ्चोड़ सकता ना मेरी जान.." इतना बोलकर राज ने फिर उसे चूमने की कोशिश की मगर इस बार स्नेहा ने अपना हाथ छुड़ा लिया और राज को चिढ़ाती हुई वहाँ से भाग गयी..
राज ने एक शैतानी मुस्कान भरी और उसके मुह्न से ये शब्द निकले.."आज रात तो तेरी चूत मारके ही रहूँगा.. ना जाने कब से ये लंड तेरी चूत मे घुसने के लिए तड़प रहा है.." ये बोलकर वो अपना लंड मसल्ने लगा.. और अपने कमरे मे चला गया और अचानक ही पागलों की तरह ज़ोर ज़ोर से हस्ने लगा..
"आज रात मेरी ज़िंदगी की सबसे मज़ेदार रात होने वाली है.." ये सोचता हुआ राज खाना खा रहा था और बार बार स्नेहा की तरफ देख रहा था जो उसे अपनी तरफ देखता हुआ पाकर शर्मा रही थी क्यूंकी जग्गू काका भी वहीं पर बैठे हुए थे और राज का इस कदर घूर्णा उसे थोड़ा अजीब लग रहा था क्यूंकी जग्गू काका के सामने उसने कभी स्नेहा को ऐसे भूखी नज़रों से नही देखा था.
स्नेहा ने आँखों ही आँखों मे राज को कुछ इशारा किया जिससे वो समझ गया कि वो उसे खाना खाने के लिए बोल रही है और अपनी नज़र उस पर से हटाने को बोल रही है..
"इस तरह काका के सामने घूर्ने मे तुम्हें शरम नही आती..? अगर वो देख लेते तो क्या सोचते.." दोनो अपने कमरे मे सोने आ गये थे और स्नेहा ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की..
"अरे क्या सोचते..? यही सोचते कि दो प्यार करने वाले आँखों ही आँखों मे अपने प्यार का इज़हार कर रहे हैं.." राज ने उसे आँख मारते हुए कहा..
"ढत्त" ये सुनकर स्नेहा शर्मा गयी और अपना चेहरा राज के सीने मे दबा दिया..
इसके बाद शुरू हुआ वासना का एक ऐसा खेल जो रात भर चला.. आज राज उसे इस तरह चोद रहा था जैसे ना जाने उसका लंड कितने दिनो से प्यासा हो.. हर धक्के मे इतना ज़ोर लगा रहा था कि स्नेहा का दर्द के मारे बुरा हाल हो रहा था..
"ओह्ह... आज मार डालोगे क्या..?" स्नेहा ने दर्द मे तड़प्ते हुआ कहा..
"इरादा तो कुछ ऐसा ही है.." राज ने धक्कों का ज़ोर और बढ़ा दिया..
स्नेहा की हालत खराब हो गयी थी उसके धक्के खाते खाते और ना जाने वो कितनी बार झाड़ चुकी थी..
***********
"ऐसे लंगड़ा के क्यूँ चल रही हो..?" सुबह राज उठा तो देखा कि स्ने'हा बाथरूम से बाहर आ रही है और उसे चलने मे तकलीफ़ हो रही है.
"खुद करते हो और अब मुझे पूछते हो कि लंगड़ा क्यूँ रही हो..?" स्नेहा ने मुह्न बनाते हुए कहा..
"अब गुस्सा क्यूँ होती हो जान.. माफ़ कर दो.. आअज रात से ऐसा नही करूँगा. प्रॉमिस.." राज ने उसे अपनी तरफ खींचने की कोशिस की मगर स्नेहा थोड़ा दूर हॅट गयी..
"कल रात तुम्हें हो क्या गया था ? पहले तो कभी ऐसा नही किया था ?" स्नेहा की आवाज़ से सॉफ पता चल रहा था कि वो नाराज़ है.. अओर इतना बोलकर वो कमरे से बाहर चली गयी..
"सच मे कल कुछ ज़्यादा ही जोश आ गया था मुझे.. आज से ऐसा नही करूँगा वरना शक़ बढ़ सकता है मेरे ऊपर" ये सोचकर राज ने अपनी चादर हटाई और उठ कर बाथरूम मे चला गया..
क्रमशः.........................
स्नेहा ने भी बदले मे हाथ हिलाकर उसे बाइ कहा मगर उसका मन अब बहुत खराब लग रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ बहुत बुरा होने वाला है.
वो हाथ हिलाती हुई कार को जाती हुई देखती रही मगर उसे ये नही पता था कि शायद ये उसकी राज से आख़िरी मुलाकात हो. या नही भी.
ऑफीस मे काम कुछ ज़्यादा था इसलिए राज को 5 ऑफीस मे ही बज गये..
"ओह नो.. मैं कहीं वहाँ पहुँचते पहुँचते वो चला ना जाए.." उसने अपनी घड़ी की ओर देखते हुए कहा और कार मे बैठ गया.
उसने करीब करीब 100 किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से गाड़ी को भगाया. चूँकि वो जगह सहर के बाहर थी इसलिए उधर ज़्यादा ट्रॅफिक भी नही था इसलिए उसे कोई प्राब्लम भी नही हो रही थी. करीब 15 मिनिट की ड्राइविंग के बाद वो उस खंडहर् मंदिर के सामने खड़ा था.
उस खंडहर को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि किसी जमाने में वो राजनगर के लोगों के लिए सम्मान का प्रतीक रहा होगा.
मंदिर की छत और दरवाज़े पर लंबी लंबी झाड़ियाँ उग गयी थी. बाहर की दीवारें काली पड़ गयी थी.. बाहर से ही देखने पर वो किसी भूत बंगले से कम नही लग रहा था. राज धीरे धीरे उस खंडहर के दरवाज़े की ओर बढ़ रहा जो अत्यधिक झाड़ियों के कारण करीब करीब बंद होने वाला था.. और उन झाड़ियों मे साँप या अन्य किसी ज़हरीले और ख़तरनाक जानवर के होने की अच्छी ख़ासी संभावनाएँ थी मगर फिर भी राज को अपने मा बाप के कातिल का पता लगाना था या जिसने भी ये झूठी कहानी बनाकर उसका समय बर्बाद किया था, उसे पकड़कर सबक सिखाना था.. राज ने दरवाज़े के पास पहुँचकर अपने हाथों और पैरों की मदद से उन झाड़ियों को एक तरफ किया.. और फिर मदिर के प्रांगण मे घुस गया.. मंदिर के अंदर का द्रिश्य और भी डरावना था.. चारों तरफ झाड़ियाँ उगी हुई थी, दीवारों पर बने हुए चित्रा अब काले पड़ गये थे, छत पर लटके चमगादड़(बॅट) द्रिश्य को और डरावना बना रहे थे.. तभी राज ने जैसे ही अपने कदम बढ़ाए ना जाने कहाँ से कबूतरों का एक झुंड उसके ऊपर से गुज़र गया. डर के मारे राज की हालत खराब हो गयी मगर फिर भी वो आगे बढ़ता रहा..मंदिर के अंदर एक भी मूर्ति नही थी, ऐसा कहा जाता था कि वहाँ एक बार राजनगर की सबसे बड़ी लूट हुई थी जिसमें उस मंदिर की सारी मूर्तियाँ डकैतों ने लूट ली थी... जिसमें से ज़्यादातर मूर्तियाँ सोने की थी और आज के जमाने मे उनकी कीमत करोड़ों मे होती..
खैर वो तो दूसरी बात थी.. राज अबतक पूरे मंदिर मे घूम चुका था पर उसे अब तक कोई नही दिखा था..
"पूरा मंदिर छान मारा.. पर कोई नही मिला.. अब तो अंधेरा भी घिरने लगा है और शाम के 6:00 बज चुके हैं.. लगता है किसी ने जान बूझ कर कोई मज़ाक किया है मेरे साथ.." उसने सर पर आ रहे पसीने को पोंछते हुए कहा और फिर मंदिर से बाहर निकालने के लिए दरवाज़े की तरफ घुमा..
मगर जैसे ही उसने अपना सर घुमाया तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी..
"कौन हो तुम..?" उसने चिल्लाते हुए कहा मगर इससे पहले की वो कुछ समझ पाता, किसी ने उसके सर पर पीछे से वॉर किया और उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया..
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"अरे जग्गू काका.. आप आ गये..? राज कहाँ है..?" स्नेहा ने जग्गू काका के आते ही उनसे पूछा..
हालाँकि उसे पता था कि राज खंडहर की तरफ गया है मगर उसने कह दिया था कि खंडहर से वो सीधा ऑफीस आएगा और फिर ऑफीस से काका के साथ ही घर आएगा..
"काहे बिटिया..? ऊ अभी तक घर नई आया है का..? ऊ ता हम से पहले ही आफिसे से निकल गया था..?" जग्गू काका ने हैरानी से कहा..
"नही काका.. वो तो अभी तक नही आए.. पता नही कहाँ रह गये.." स्नेहा को चिंता होने लगी..
"ऊ देखो आ गया राज.." अचानक जग्गू काका ने दरवाज़े की तरफ इशारा करते हुए कहा..
स्नेहा ने सर घूमकर देखा तो पाया कि राज अंदर चला आ रहा है..
"ठीक है बिटिया अब तुम दोनो बात करो.. हम तनिक फिरेश हो के आते हैं.." इतने दिनो मे जग्गू काका ने टूटे फूटे ही सही मगर कुछ अँग्रेज़ी शब्द सीख ज़रूर लिए थे.
"आ गये आप..? पर आप तो जग्गू काका के साथ आने वाले थे.. मंदिर से सीधा ऑफीस नही गये क्या..?" स्नेहा ने काका के जाते ही पूछा..
"अरे क्या बताऊ जान.. ऑफीस मे बहुत ज़्यादा काम था और फिर मंदिर गया तो पाया कि वहाँ कोई नही है.. शायद किसीने घटिया मज़ाक किया था और देखो ये पैसे भी साथ ही लाने पड़े.." राज ने बॅग दिखाते हुए कहा..
"होगा कोई शैतान जिसने इतना बेकार मज़ाक किया.. आप जाकर हाथ मुह्न धो लीजिए, मैं आपके लिए खाना लगा देती हू.." ये बोलकर स्नेहा वहाँ से जाने लगी मगर राज ने उसे अपनी बाहों मे खिच लिया..
"इतनी जल्दी भी क्या है..?" ये बोलकर राज ने उसके होठों पर अपने होंठ रखे और उन्हे बड़ी बेरहमी से चूसने लगा..
"छ्चोड़ो मुझे... जब देखो शुरू हो जाते हो.. जग्गू काका ने देख लिया तो क्या सोचेंगे..?" स्नेहा ने अपना मुह्न अलग करते हुए कहा..
"दुनिया वालों के डर से हम प्यार करना तो नही छ्चोड़ सकता ना मेरी जान.." इतना बोलकर राज ने फिर उसे चूमने की कोशिश की मगर इस बार स्नेहा ने अपना हाथ छुड़ा लिया और राज को चिढ़ाती हुई वहाँ से भाग गयी..
राज ने एक शैतानी मुस्कान भरी और उसके मुह्न से ये शब्द निकले.."आज रात तो तेरी चूत मारके ही रहूँगा.. ना जाने कब से ये लंड तेरी चूत मे घुसने के लिए तड़प रहा है.." ये बोलकर वो अपना लंड मसल्ने लगा.. और अपने कमरे मे चला गया और अचानक ही पागलों की तरह ज़ोर ज़ोर से हस्ने लगा..
"आज रात मेरी ज़िंदगी की सबसे मज़ेदार रात होने वाली है.." ये सोचता हुआ राज खाना खा रहा था और बार बार स्नेहा की तरफ देख रहा था जो उसे अपनी तरफ देखता हुआ पाकर शर्मा रही थी क्यूंकी जग्गू काका भी वहीं पर बैठे हुए थे और राज का इस कदर घूर्णा उसे थोड़ा अजीब लग रहा था क्यूंकी जग्गू काका के सामने उसने कभी स्नेहा को ऐसे भूखी नज़रों से नही देखा था.
स्नेहा ने आँखों ही आँखों मे राज को कुछ इशारा किया जिससे वो समझ गया कि वो उसे खाना खाने के लिए बोल रही है और अपनी नज़र उस पर से हटाने को बोल रही है..
"इस तरह काका के सामने घूर्ने मे तुम्हें शरम नही आती..? अगर वो देख लेते तो क्या सोचते.." दोनो अपने कमरे मे सोने आ गये थे और स्नेहा ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की..
"अरे क्या सोचते..? यही सोचते कि दो प्यार करने वाले आँखों ही आँखों मे अपने प्यार का इज़हार कर रहे हैं.." राज ने उसे आँख मारते हुए कहा..
"ढत्त" ये सुनकर स्नेहा शर्मा गयी और अपना चेहरा राज के सीने मे दबा दिया..
इसके बाद शुरू हुआ वासना का एक ऐसा खेल जो रात भर चला.. आज राज उसे इस तरह चोद रहा था जैसे ना जाने उसका लंड कितने दिनो से प्यासा हो.. हर धक्के मे इतना ज़ोर लगा रहा था कि स्नेहा का दर्द के मारे बुरा हाल हो रहा था..
"ओह्ह... आज मार डालोगे क्या..?" स्नेहा ने दर्द मे तड़प्ते हुआ कहा..
"इरादा तो कुछ ऐसा ही है.." राज ने धक्कों का ज़ोर और बढ़ा दिया..
स्नेहा की हालत खराब हो गयी थी उसके धक्के खाते खाते और ना जाने वो कितनी बार झाड़ चुकी थी..
***********
"ऐसे लंगड़ा के क्यूँ चल रही हो..?" सुबह राज उठा तो देखा कि स्ने'हा बाथरूम से बाहर आ रही है और उसे चलने मे तकलीफ़ हो रही है.
"खुद करते हो और अब मुझे पूछते हो कि लंगड़ा क्यूँ रही हो..?" स्नेहा ने मुह्न बनाते हुए कहा..
"अब गुस्सा क्यूँ होती हो जान.. माफ़ कर दो.. आअज रात से ऐसा नही करूँगा. प्रॉमिस.." राज ने उसे अपनी तरफ खींचने की कोशिस की मगर स्नेहा थोड़ा दूर हॅट गयी..
"कल रात तुम्हें हो क्या गया था ? पहले तो कभी ऐसा नही किया था ?" स्नेहा की आवाज़ से सॉफ पता चल रहा था कि वो नाराज़ है.. अओर इतना बोलकर वो कमरे से बाहर चली गयी..
"सच मे कल कुछ ज़्यादा ही जोश आ गया था मुझे.. आज से ऐसा नही करूँगा वरना शक़ बढ़ सकता है मेरे ऊपर" ये सोचकर राज ने अपनी चादर हटाई और उठ कर बाथरूम मे चला गया..
क्रमशः.........................