hotaks444
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चेतावनी ........... ये कहानी समाज के नियमो के खिलाफ है क्योंकि हमारा समाज मा बेटे और भाई बहन और बाप बेटी के रिश्ते को सबसे पवित्र रिश्ता मानता है अतः जिन भाइयो को इन रिश्तो की कहानियाँ पढ़ने से अरुचि होती हो वह ये कहानी ना पढ़े क्योंकि ये कहानी एक पारवारिक सेक्स की कहानी है
बदनाम रिश्ते
दोस्तों मैं यानि आपका दोस्त राज शर्मा बदनाम रिश्ते में एक और नई कहानी लेकर हाजिर हूँ
मैं उत्तर भारत में एक जमींदार परिवार का हूं. हमारी बहुत बड़ी खेती है. हमारे परिवार में सभी मर्द और औरतें अच्छे ऊंचे पूरे हैं. हमारे परिवार में मेरी मां, मामाजी, मैं और मेरी छोटी बहन प्रीति है. पिताजी बचपन में ही गुजर गये थे, तब से हम लोग मामाजी के साथ रहते हैं. मामाजी भी अकेले हैं, शादी नहीं की.
घर के काम के अलावा मेरी मां खेतों में भी काम करती है इसलिये उसका शरीर बड़ा तंदुरुस्त और गठा हुआ है. उसका अच्छा कसा हुआ पेट है, लंबी लंबी मजबूत टांगें हैं और बड़े बड़े चौड़े कूल्हे हैं. मम्मे तो अच्छे भरावदार और मोटे हैं.
जब मैंने अम्मा के सजीले बदन को एक मर्द की निगाह से देखना शुरू किया तब मैं उन्नीस बरस का था. अपनी मां को मैं बहुत प्यार करता था और उसके रूप को अपनी जांघों और बांहों में भर लेना चाहता था. हमारा घर खेतों के बीच था और चारों ओर ऊंची दीवालें थीं जिससे कोई अंदर ना देख सके. इसलिये मां और प्रीति गरमी के मौसम में ज्यादा कपड़े पहने बिना ही घूमतीं थीं. बारीक कपड़े पहनकर दोनों बिना ब्रेसियर या जांघिये के ही रहती थीं.
मेरी अम्मा का शरीर काफ़ी मांसल और भरा पूरा है और वह बड़ी टाइट और बारीक कपड़े की सलवार कमीज़ पहनती है. जब मां गरमी में रसोई में बैठ कर खाना बनाती थी, तब मुझे मां के सामने बैठ कर उसकी ओर देखना बहुत अच्छा लगता था. अम्मा बिलकुल पतले टाइट पारदर्शक कपड़ों में चूल्हे के सामने बैठ जाती थी. गरमी से उसे जल्द ही खूब पसीना छूटने लगता था. मां की बड़ी बड़ी चूंचियां उसकी लो कट की कमीज के ऊपर उभर आतीं थीं. पसीने से भीगी कमीज में से उसके मांसल स्तन साफ़ दिखने लगते थे.
मैं नजर गड़ा कर पसीने की बहती धारों को देखता था जो उसके गले से चूंचियों के बीच की गहरी खाई में बहने लगती थीं. अब तक पसीने से गीले बारीक कपड़े में से उसके उभरे हुए निपल भी दिखने लगते थे और मां के मतवाले उरोजों का पूरा दर्शन मुझे होने लगता था. पहले अम्मा मुझे इस गरमी में बैठने के लिये डांटती थी पर मैं उसे प्यार से कहता. "मम्मी जब आप इतनी गर्मी में बैठ सकती हैं हमारे लिये, तो मैं भी आपकी गर्मी में पूरा साथ दूंगा".
मां इस बात पर मुस्कराकर बोलती "बेटा मैं तो गरम हो ही गई हूं, मेरे साथ तू भी गरम हो जायेगा". अब असली नाटक शुरू होता था. मां मेरी ओर बड़े प्यार से देखते हुए कहती "देख कितना पसीना आ गया है" और अपनी कमीज का किनारा उठाकर मुझे वह अपना पसीने से तरबतर थोड़ा फ़ूला हुआ नरम नरम पेट दिखाती.
वह एक पटे पर पिशाब करने के अंदाज़ में अपनी जांघें खोल कर बैठती और फ़टाफ़ट चपाती बनाती जाती. मैं सीधा उसके सामने बैठ कर उसकी जांघों के बाच टक लगा कर देखता था. मेरी नजर खुद पर देख कर अम्मा अपना हाथ पीछे चूतड़ पर रखकर अपनी सलवार खींचती जिससे टाइट होकर वह सलवार उसकी मस्त फ़ूली फ़ुद्दी पर सट कर चिपक जाती.
अम्मा की फ़ुद्दी कमेशा साफ़ रहती थी और झांटें न होने से सलवार उस चिकनी बुर पर ऐसी चिपकती थी कि फ़ुद्दी के बीच की गहरी लकीर साफ़ दिखती थी. उसके पेट से बह के पसीना जब फ़ुद्दी पर का कपड़ा गीला करता तो उस पारदर्शक कपड़े में से मुझे मां की बुर साफ़ दिखती. उसका खड़ा बाहर निकला क्लिटोरिस भी मुझे साफ़ दिखता और मैं नजर जमा कर सिर्फ़ वहीं देखता रहता.
अब तक मां की चूत में से चिपचिपा पानी निकलने लगता था और वह उत्तेजित हो जाती थी. बुर की महक से मेरा सिर घूमने लगता. हम दुहरे अर्थ की बातें करने लगते थे. मम्मी मेरी प्लेट पर एक चपाती रख कर पूछतीं "बेटा तेल लगा के दूं?". मैं कहता "मम्मी बिना तेल की ही ले लूंगा, तू दे तो". रात को यह बातें याद करके मैं बिस्तर में बैठ कर अपना लंड हाथ में लेकर मां के बारे में सोचता और उसकी चूत चोदने की कल्पना करते हुए मुठ्ठ मारता.
अब मैं असली बात बताता हूं कि हमारा आपस का कामकर्म कैसे शुरू हुआ. मामाजी बीज खरीदने को बाहर गये थे, करीब एक हफ़्ते के लिये. वैसे पहले भी मामाजी ऐसे जाते थे पर इस बार पहली बार मैंने गौर किया कि एक दो दिन में ही मां छटपटाने सी लगी. गायें जैसी गरम हो कर करती हैं बस वैसा ही बर्ताव मां का हो गया. एक छोटे खेत की जुताई बची थी. सुबह मैंने मां से कहा "मम्मी मैं वह छोटा खेत जोत के आता हूं". मां बोली "बेटा, अभी तो बहुत गर्मी होती है, वहां कोई भी तो नहीं आता है, आज कल तो कोई भी खेतों में नहीं जाता है, पूरा वीराना होगा."
मैंने उसके बोलने की तरफ़ ध्यान नहीं दिया और ट्रैक्टर तैयार करने लगा. जब मैं निकलने ही वाला था तो अम्मा ने पीछे से कहा "बेटा मैं दोपहर का खाना ले के आऊंगी". मैं बोला "ठीक है मम्मी पर देर मत करना". मैं फ़िर खेतों पर निकल गया.
बदनाम रिश्ते
दोस्तों मैं यानि आपका दोस्त राज शर्मा बदनाम रिश्ते में एक और नई कहानी लेकर हाजिर हूँ
मैं उत्तर भारत में एक जमींदार परिवार का हूं. हमारी बहुत बड़ी खेती है. हमारे परिवार में सभी मर्द और औरतें अच्छे ऊंचे पूरे हैं. हमारे परिवार में मेरी मां, मामाजी, मैं और मेरी छोटी बहन प्रीति है. पिताजी बचपन में ही गुजर गये थे, तब से हम लोग मामाजी के साथ रहते हैं. मामाजी भी अकेले हैं, शादी नहीं की.
घर के काम के अलावा मेरी मां खेतों में भी काम करती है इसलिये उसका शरीर बड़ा तंदुरुस्त और गठा हुआ है. उसका अच्छा कसा हुआ पेट है, लंबी लंबी मजबूत टांगें हैं और बड़े बड़े चौड़े कूल्हे हैं. मम्मे तो अच्छे भरावदार और मोटे हैं.
जब मैंने अम्मा के सजीले बदन को एक मर्द की निगाह से देखना शुरू किया तब मैं उन्नीस बरस का था. अपनी मां को मैं बहुत प्यार करता था और उसके रूप को अपनी जांघों और बांहों में भर लेना चाहता था. हमारा घर खेतों के बीच था और चारों ओर ऊंची दीवालें थीं जिससे कोई अंदर ना देख सके. इसलिये मां और प्रीति गरमी के मौसम में ज्यादा कपड़े पहने बिना ही घूमतीं थीं. बारीक कपड़े पहनकर दोनों बिना ब्रेसियर या जांघिये के ही रहती थीं.
मेरी अम्मा का शरीर काफ़ी मांसल और भरा पूरा है और वह बड़ी टाइट और बारीक कपड़े की सलवार कमीज़ पहनती है. जब मां गरमी में रसोई में बैठ कर खाना बनाती थी, तब मुझे मां के सामने बैठ कर उसकी ओर देखना बहुत अच्छा लगता था. अम्मा बिलकुल पतले टाइट पारदर्शक कपड़ों में चूल्हे के सामने बैठ जाती थी. गरमी से उसे जल्द ही खूब पसीना छूटने लगता था. मां की बड़ी बड़ी चूंचियां उसकी लो कट की कमीज के ऊपर उभर आतीं थीं. पसीने से भीगी कमीज में से उसके मांसल स्तन साफ़ दिखने लगते थे.
मैं नजर गड़ा कर पसीने की बहती धारों को देखता था जो उसके गले से चूंचियों के बीच की गहरी खाई में बहने लगती थीं. अब तक पसीने से गीले बारीक कपड़े में से उसके उभरे हुए निपल भी दिखने लगते थे और मां के मतवाले उरोजों का पूरा दर्शन मुझे होने लगता था. पहले अम्मा मुझे इस गरमी में बैठने के लिये डांटती थी पर मैं उसे प्यार से कहता. "मम्मी जब आप इतनी गर्मी में बैठ सकती हैं हमारे लिये, तो मैं भी आपकी गर्मी में पूरा साथ दूंगा".
मां इस बात पर मुस्कराकर बोलती "बेटा मैं तो गरम हो ही गई हूं, मेरे साथ तू भी गरम हो जायेगा". अब असली नाटक शुरू होता था. मां मेरी ओर बड़े प्यार से देखते हुए कहती "देख कितना पसीना आ गया है" और अपनी कमीज का किनारा उठाकर मुझे वह अपना पसीने से तरबतर थोड़ा फ़ूला हुआ नरम नरम पेट दिखाती.
वह एक पटे पर पिशाब करने के अंदाज़ में अपनी जांघें खोल कर बैठती और फ़टाफ़ट चपाती बनाती जाती. मैं सीधा उसके सामने बैठ कर उसकी जांघों के बाच टक लगा कर देखता था. मेरी नजर खुद पर देख कर अम्मा अपना हाथ पीछे चूतड़ पर रखकर अपनी सलवार खींचती जिससे टाइट होकर वह सलवार उसकी मस्त फ़ूली फ़ुद्दी पर सट कर चिपक जाती.
अम्मा की फ़ुद्दी कमेशा साफ़ रहती थी और झांटें न होने से सलवार उस चिकनी बुर पर ऐसी चिपकती थी कि फ़ुद्दी के बीच की गहरी लकीर साफ़ दिखती थी. उसके पेट से बह के पसीना जब फ़ुद्दी पर का कपड़ा गीला करता तो उस पारदर्शक कपड़े में से मुझे मां की बुर साफ़ दिखती. उसका खड़ा बाहर निकला क्लिटोरिस भी मुझे साफ़ दिखता और मैं नजर जमा कर सिर्फ़ वहीं देखता रहता.
अब तक मां की चूत में से चिपचिपा पानी निकलने लगता था और वह उत्तेजित हो जाती थी. बुर की महक से मेरा सिर घूमने लगता. हम दुहरे अर्थ की बातें करने लगते थे. मम्मी मेरी प्लेट पर एक चपाती रख कर पूछतीं "बेटा तेल लगा के दूं?". मैं कहता "मम्मी बिना तेल की ही ले लूंगा, तू दे तो". रात को यह बातें याद करके मैं बिस्तर में बैठ कर अपना लंड हाथ में लेकर मां के बारे में सोचता और उसकी चूत चोदने की कल्पना करते हुए मुठ्ठ मारता.
अब मैं असली बात बताता हूं कि हमारा आपस का कामकर्म कैसे शुरू हुआ. मामाजी बीज खरीदने को बाहर गये थे, करीब एक हफ़्ते के लिये. वैसे पहले भी मामाजी ऐसे जाते थे पर इस बार पहली बार मैंने गौर किया कि एक दो दिन में ही मां छटपटाने सी लगी. गायें जैसी गरम हो कर करती हैं बस वैसा ही बर्ताव मां का हो गया. एक छोटे खेत की जुताई बची थी. सुबह मैंने मां से कहा "मम्मी मैं वह छोटा खेत जोत के आता हूं". मां बोली "बेटा, अभी तो बहुत गर्मी होती है, वहां कोई भी तो नहीं आता है, आज कल तो कोई भी खेतों में नहीं जाता है, पूरा वीराना होगा."
मैंने उसके बोलने की तरफ़ ध्यान नहीं दिया और ट्रैक्टर तैयार करने लगा. जब मैं निकलने ही वाला था तो अम्मा ने पीछे से कहा "बेटा मैं दोपहर का खाना ले के आऊंगी". मैं बोला "ठीक है मम्मी पर देर मत करना". मैं फ़िर खेतों पर निकल गया.