अन्तर्वासना - मोल की एक औरत - Page 5 - SexBaba
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अन्तर्वासना - मोल की एक औरत

राजगढ़ी गाँव में राणाजी के घर की तरह तरह की चर्चाएं हो रही थीं. पहली उनके जमीन बेचने की और दूसरी उनकी नवविवाहिता माला और मानिक के इश्क की चर्चे. मोहल्ले की कुछ औरतों ने मानिक और माला को छत पर इशारे करते हुए देख लिया था. साथ ही कुछ लोगों ने उनको द्वार पर गले मिलते भी देख लिया था.

लोगों में तो यहाँ तक चर्चाएँ थीं कि माला के पेट में जो बच्चा है वो मानिक का ही है. जानकार लोगों का मानना था कि राणाजी इस उम्र में बाप बन ही नही सकते. राणाजी की उम्र ने इस बात को सब लोगों की नजरों में सही सिद्ध कर दिया था.

राणाजी से जलने वाले लोग गाँव में बहुत थे. हालाँकि राणाजी जब से जेल से छूट कर आये थे तब से बहुत ही सज्जनता से रहते थे लेकिन लोगों का सोचना उनके लिए अच्छा नही था. किसी को नीचा दिखाने में लोगो को कुछ ज्यादा ही आनंद आता है. गाँव के एक आदमी ने राणाजी जी को इन बातों से अवगत करा दिया था. ये आदमी राणाजी काशुभचिंतकथा.राणाजीइन बातों को सुन सोच में पड़ गये लेकिन माला के प्रति उन्हें कोई शक नही था.

लेकिन गाँव में हो रही चर्चाओं को भी तो राणाजी नज़रंदाज़ नही कर सकते थे. माला उनके खानदान की बहू थी और बहू घर की इज्जत होती है. राणाजी की इज्जत जमीन बेचने से बहुत घट गयी थी. लोग उनके मुंह फेरते ही सौ तरह की बातें करते थे. ऊपर से ये माला और मानिक के इश्क के चर्चों ने राणाजी को और ज्यादा नीचे गिरा दिया था.
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अच्छा तुम खुद अपना हाथ लगाकर देखो कैसा लगता है. आओ मेरे पेट पर अपना हाथ लगाकर देखो.”
मानिक को माला के पेट को हाथ से छूने की हिम्मत नही हो रही थी लेकिन माला थोडा सा आगे आई और मानिक का हाथ अपने हाथों में ले अपने पेट पर रख लिया. माला के कोमल शरीर का स्पर्श मानिक को बेखबर किये जा रहा था. माला उसके हाथ को अपने हाथ से पकड़े अपने पेट पर रखे हुए थी. पागल तो माला भी हुई जा रही थी. दरअसल हम जिसको दिल से चाहते हैं उसका स्पर्श हमेसा ही हमें बहुत आनन्दित करने वाला होता है. उसकी हर एक छुअन हमें किसी दूसरे जहाँ में ले पहुंचती है.

दोनों मन की मौज में खोये हुए थे. इन्हें आसपास का कोई ध्यान ही नही था. सामने सडक से राणाजी घर के द्वार की तरफ चले आ रहे थे. वो दूर वेशक थे लेकिन उन्हें ये सारा नजारा साफ साफ दिखाई दे रहा था. वो आज आये ही जल्दी इसलिए थे ताकि अपनी आँखों से वो बात देख लें जिसकी गाँव में हर घर द्वार पर चर्चा है वो बात सही है या नही. आज उन्हें उस बात का प्रमाण इन दोनों को देख लग गया था.

राणाजी घर की तरफ बढ़ रहे थे लेकिन एक मन बात को खुद जानने का मन बना लिया. वो माला के ऊपर तब तक शक नहीं कर सकते थे जब तक कि वो खुद उसे कुछ भी करते अपनी आँखों से न देख लें. दोपहर का समय हो रहा था. मानिक घर पर स्कूल का बस्ता रख सीधा माला के पास आ पहुंचा. माला भी तो उसी का इतंजार कर रही थी. आते ही दोनों एक दूसरे से लिपट गये. मानो बर्षों के बिछड़े आज मिले हों. माला आज बहुत खुश थी और मानिक का भी हाल कुछ ऐसा ही था.

दोनों को गाँव में हुई चर्चाओं का कोई अता पता नहीं था और होता भी तो दोनों एकदूसरे से मिले विना रह ही नही सकते थे. माला का पेट गर्भवती होने के कारण काफी फूला हुआ महसूस होता था और यहाँ के अच्छे खानपान और रहन सहन के कारण उसका शरीर भी भर गया था. मानिकको न जाने क्या मस्ती सूझी. बोला, "माला तुम्हारा ये पेट इतना क्यों निकलता जा रहा है? क्या मोटी होती जा रही हो तुम?"
 
माला का चेहरा शर्म से थोडा लाल हो गया. वो मानिक को प्यार से डपटती हुई बोली, “चुप रहो बुधू कहीं के. ये भी नही जानते कि औरत का पेट इस तरह बाहर क्यों निकलता है? अरे मैं माँ बनने वाली हूँ. मेरे पेट में नन्हा बच्चा है. जो कुछ महीनों बाद पैदा हो जायेगा.”

मानिक को माला की डांट से बड़ा आनंद आया. वो फिर से मजाक में बोला, "लेकिन मैने तो ठीक से तुम्हें छुआ भी नही फिर ये बच्चा...?"

माला ने आँखें तरेर कर मानिक की बात को बीच में ही काट दिया और बोली, “चुप रहो मानिक. हमें परेशान न करो. ऐसी बातों से हमें शर्म आती है.”

मानिक माला की इस बात पर खिलखिला कर हंस पड़ा. माला भी चोरी चोरी मानिक को देख हँसने लगी. माहौल खुशनुमा हो गया. ____ मानिक ने गम्भीर हो माला से पूंछा, “अच्छा माला एक बात बताओ. अगर कल को राणाजी चाचा को पता पड़ जाए तो तुम क्या करोगी? क्या उनके डर से मुझे भूल जाओगी या फिर भी ऐसे ही चाहोगी?"

माला भी गम्भीर हो गयी. बोली, “मैं तुमसे पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं अपनी तरफ से पीछे नही हटंगी. अगर उन्हें पता पड़ा तो मैं उन्हें भी ये बात साफ साफ बोल दूंगी और मुझे उम्मीद है कि वो मेरी बात को समझ जायेंगे."

मानिक को माला की बात में दृढ़ता साफ़ साफ़ दिखाई देती थी लेकिन वो अब इस माहौल को थोडा हल्का करना चाहता था. बोला, “अच्छा माला तुम्हें इस हालत में लगता कैसा है? क्या पेट में बच्चा होने से कुछ अजीब सा नही लगता?"

माला उसकी बात पर मुस्कुरा पड़ी. बोली, “अजीब सा तो लगता है

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राणाजी ने देखा माला और मानिक को और सोचा कि वापस फिर से खेतों की तरफ लौट जाएँ. किन्तु इस बात से कोई हल नही निकलना था. उन्होंने द्वार से पहले ही गला खंखार दिया और इतनी जोर से खंखारा कि माला और मानिक का ध्यान उस तरफ चला गया.

माला और मानिक ने देखा कि राणाजी सर झुकाए सामने से चले आ रहे हैं तो मानिक को लगा कि वो इसी वक्त वेहोश हो जायेगा. वो झट से उठा और वहां से चल दिया. माला के भी होश पूरी तरह से उड चुके थे. समझ नही आता था कि वो क्या करे लेकिन अंदर जाने की जगह वहीं जमी खडी रही.

मानिक ने राणाजी की बगल से गुजरते समय उनसे दुआ सलाम की. राणाजी जी ने विना उसकी तरफ देखे उसके रामराम' का जबाब दे दिया और अपने द्वार की तरफ बढ़ गये. मानिक ने मुड़कर भी फिर से माला की तरफ न देखा. लेकिन माला को भी राणाजी की तरफ देखने की हिम्मत न हो रही थी. उसे लगता था जैसे कयामत आने वाली लेकिन राणाजी ने माला से कुछ न कहा. पास आकर थोड़े से रुके और बोले, “आओ माला अंदर चलते हैं. यहाँ क्यों बैठी हो?"

माला की समझ न आया कि राणाजी ने उससे कुछ भी क्यों नहीं कहा. जबकि उन्होंने मानिक को उसके पास बैठा देख लिया था. माला का मन हल्का होने की जगह और ज्यादा उलझ गया. तूफ़ान तो राणाजी के दिमाग में भी था और राणाजी जैसे हर पुरुष के दिमाग में यह सब देख तूफ़ान ही होता लेकिन समय राणाजी को कुछ भी करने की इजाजत नहीं देता था. माला की कोख में उनका दिया बच्चा पल रहा था. वो नही चाहते थे कि उनसे कोई ऐसी गलती हो जाए जिससे कुछ अनर्थ हो.

माला थके कदमों से राणाजी के पीछे पीछे घर के अंदर चल दी. राणाजी अपने कमरे में जा पलंग पर बैठ गये. माला रसोई में जा उनके लिए एक गिलास पानी ले आई. राणाजी ने पानी पिया और माला से बोले, “माला थोड़ी देर मेरे पास बैठोगी? तुमसे थोड़ी बात करनी थी.” माला की धुकधुकी चल पड़ी. उसे पता था राणाजी क्या बात करेंगे लेकिन राणाजी का शांत लहजा उसे ढाढस बंधा रहा था. वो पलंग के दूसरी तरफ बैठ गयी.
 
राणाजी थोड़ी देर जमीन की तरफ देखते रहे फिर धीरे से बोले, “माला एक समय था जब इस गाँव में लोग हमारे घर को सम्मान देते थे. लोग हमारे घर के लोगों को बहुत इज्जत की नजर से देखते थे. हमारे पास बहुत सारा धन हुआ करता था. रुतवा भी बहुत हुआ करता था लेकिन आज उसमे से बहुत सी चीजें हमारे पास नहीं हैं. तुम्हें तो पता है अभी थोड़े दिन पहले ही मैने जमीन का कुछ हिस्सा बेच दिया है. इस जमीन को बेचने से मेरे बारे में लोगों की सोच और ज्यादा घटिया हो गयी है. लोग सोचते हैं कि मैं बर्वाद होने की कगार पर खड़ा हूँ लेकिन सच कहूँ माला तो मुझे लोगों की इन बातों से कोई फर्क नही पड़ता. मैं लोगों की बातों पर ध्यान देना ही नही चाहता.

लेकिन आजकल गाँव एक और तरह की चर्चा जोरों पर है कि तुम्हारे साथ इस लडके मानिक का कोई चक्कर है. लोग तो यहाँ तक भी कहते हैं कि तुम्हारे पेट में जो बच्चा है वो भी...लेकिन मुझे उनकी इस बात से भी कोई असर नही हुआ. क्योंकि में जब तक अपनी आँखों से नही देख लेता तब तक गाँव के लोगों की बात पर भरोसा नहीं करता

आज मैं जब जल्दी घर आया तो वो लड़का मैने तुम्हारे पास देखा लेकिन अब भी मुझे इस बात पर यकीन नही होता. में फिर भी तुम्हारे मुंह से जानना चाहता हूँ कि ये बात सही है या नही. क्या तुम उस लडके से अपने मन से मिलती हो?"

माला की नजरें नीचे झुकी हुई थी. वो राणाजी की बात को बड़े गौर से सुन रही थी लेकिन वो जो बात पूंछ रहे थे वो बात आधी सच्ची थी और आधी झूठी. ये बात सच थी कि वो मानिक से प्यार करती थी लेकिन उसके पेट में जो बच्चा था वो राणाजी का ही था. क्योंकि मानिक ने तो ठीक से उसे छुआ भी न था. साथ ही जब वो गर्भवती हुई थी तब वो मानिक को जानती तक थी.

राणाजी से माला बोली, “आप को मैं कुछ भी झूठ नही बताऊँगी. ये बात सच है कि में मानिक से मिलकर बहुत अच्छा महसूस करती हूँ लेकिन मानिक ने आज तक मुझे कोई गलत शब्द तक नही बोला तो उसका बच्चा मेरी कोख में होने का सवाल ही नही उठता. ये बात आप भी जानते हैं. मैं इससे ज्यादा और कुछ नहीं कह सकती."

राणाजी जानते थे माला की कोख में जो बच्चा है वो उन्ही का है लेकिन माला के मुंह से भी इस बात को जानना चाहते थे. बोले, "मुझे पता था कि ये बच्चा मेरा ही है लेकिन एक माँ ही सबसे ज्यादा जानती है कि उसकी कोख में आया बच्चा किसका है. तुम्हारे कहने के बाद अब मुझे किसी से यह नही जानना कि ये बच्चा किसका है. लेकिन अब मैं यह भी जानना चाहता हूँ कि तुम मुझसे क्या चाहती हो? तुम्हारा मन क्या चाहता है. तुम मेरे साथ रहना चाहती हो या नही. ये मत समझना कि मैं तुमसे कुछ कहूँगा. मैं तुम्हे तुम्हारे घर से वेशक लाया हूँ लेकिन तुम्हें बाँध कर अपने घर में रखना नही चाहता. आज से बीस साल पहले तुम मेरी पत्नी होती और तुमने ये हरकत कर दी होती तो शायद मैं तुम्हें अपने सामने खड़े कर गोली मार देता लेकिन आज मैं परिपक्व हो गया हूँ. मैं आज शांति और समझदारी से हर बात का हल निकलना चाहता हूँ. तुम्हें पता है कि मेरे मरने के बाद इस घर का नाम चलाने वाला कोई और नही है. मुझे तुम्हारी कोख में आये बच्चे में अपने घर का चिराग दिखाई देता है आज मैं तुमसे तुम्हारे मन की बात जानना चाहता हूँ. तुम चाहती क्या हो?"

माला सोच में थी कि राणाजी से क्या कहे? देवता समान आदमी से उसे कुछ गलत कहना भी अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन उसका मन अपना अलग मत रखता था. वो मानिक के लिए मरता था. राणाजी का तो मन में सिर्फ सम्मान था. बोली, “मैं आपसे कोई भी धोखेबाजी नही करना चाहती हूँ. ये बात सच है कि मैं मानिक को दिल में बहुत चाहती हूँ लेकिन मैं आपका भी बहुत सम्मान करती __आप मुझे उस भुखमरी से निकाल कर अपने घर में लाये और मुझे अपने घर के सदस्य की तरह रखा. मेरा मन आपको देवता की तरह पूजता है. मैं आपको छोड़ कर भी नही जाना चाहती और मानिक को भी नही छोड़ सकती. मेरी समझ में कुछ नही आता कि मैं क्या करु? आप जैसा कहो मैं वैसा ही करने को तैयार हूँ."
 
राणाजी माला की बात को समझ सकते थे. उनका एक मन होता था कि गुल्लन और उसकी पत्नी को बुला माला को समझवा दें लेकिन अगर माला फिर से यही कर बैठी तो क्या करेंगे? बोले, “अच्छा तुम मुझे थोडा सोचने का मौका दो और तुम खुद भी सोचो. शायद तुम्हें कुछ हल मिल जाए और हो सकता है तो कुछ ऐसा सोचो जिससे इस घर की लाज बच जाए. लेकिन आज से तुम अपना बिस्तर बगल के कमरे में लगा लो. मैं तब तक तुम्हारे साथ नहीं सोना चाहता जब तक तुम्हारा मन मुझसे न मिले. तुम आज से इसके बगल वाले कमरे में सो जाया करो.”

इतना कह राणाजी बाहर निकल कर चले गये. माला हतप्रभ हो उस देवता पुरुष को देखती रह गयी. उसने ख्यालों तक में ये नही सोचा था कि राणाजी इतनी आसानी से इस बात को पचा जायेंगे. शायद उसके खुद के माँ बाप भी होते तो इतनी आसानी से उसे नही छोड़ देते. उसको बुरी तरह पीटा जाता. घर में बंद कर दिया जाता लेकिन राणाजी ने ऐसा कुछ भी नही किया था. क्या कहे वो इस महापुरुष को? सोच सोच कर माला का दिमाग फटा जाता था.
 
भाग -6

सुन्दरी भागी भागी कौशल्यादेवी के घर आ पहुंची. पुरानी सी साड़ी जो पैरों से काफी ऊँची थी और मैली भी बहुत थी. मुंह पर अपार ख़ुशी और आँखें ख़ुशी से भीगी हुईं थी. आते ही कौशल्यादेवी से लिपट गयी. उनकी समझ में कुछ न आया. उन्होंने जैसे तैसे सुन्दरी को अपने से अलग किया और बोली, “अरे सुन्दरी क्या हआ? ऐसे क्यों भागे फिर रही हो? कुछ बता भी दो.”

सुन्दरी की सांसे फूली हुई थीं. मुंह ख़ुशी से भरा हुआ लेकिन बात करने लायक नही था. फिर बोलती क्या?
सुन्दरी ने अपने ब्लाउज में हाथ डाला और एक लिफाफा निकाल कौशल्यादेवी की तरफ बढ़ा लिया लेकिन बोली अब भी नही. सुन्दरी को खुशी थी या वो रोने की कगार पर थी. उसे देखकर कोई बता ही नही सकता था कि आखिर वो करने क्या जा रही है. वोरोएगी या हँसेगी? कौशल्यादेवी ने लिफाफे को देखा तो उन्हें मालूम पड़ा कि किसी की चिट्ठी है. बोली, “सुन्दरी इस चिट्ठी की वजह से इतनी वावली हुई जा रही हो या और कोई बात है?"

सुन्दरी ने जल्दी से हाँ में सर हिलाया और हकलाती सी बोली, "मेरे...गाँव..घर से." इतना कह सुन्दरी ने फिर से अपनी छाती थाम ली. सुन्दरी को शादी हो यहाँ आये दस साल से ऊपर हो गये थे लेकिन आज तक उसके घरवालों ने एक बार भी उसकी खबर न ली थी. परन्तु आज जब यह चिट्ठी उसके घर से आई तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा. ख़ुशी के मारे मर जाने को दिल करने लगा. लगा कि आज जीवन की सारी मुरादें पूरी हो गयी फिर और ज्यादा जी कर क्या फायदा. छोटे लोग बेचारे छोटी सी ख़ुशी से खुश हो जाते हैं और अमीर बड़ा आदमी तो दुनिया की दौलत पा कर भी रोया चेहरा लिए घूमता है.

सुन्दरी की ख़ुशी अब काबू में आ गयी थी लेकिन चिट्ठी में क्या लिखा है ये जानने की अधीरता बलबती होती जा रही थी. वो कौशल्यादेवी से बोली, "जीजी पढ़कर बताओ न क्या लिखा है? हमारी तो जान ही निकली जा रही है."

कौशल्यादेवी बेचारी कैसे पढ़ पाती उस चिट्ठी में लिखाई ही अलबेली थी. लगता था किसी छोटे बच्चे ने लिखी है. ऊपर से पांचवी से भी कम पढ़ी लिखी कौशल्यादेवी. लेकिन इसका भी हल निकाला गया. मोहल्ले में हिंदी का प्रकांड पंडित कौशल्यादेवी का लड़का छोटू भी तो था. कौशल्यादेवी ने जोरदार आवाज से छोटू को पुकारा. उन्हें डर था कि अगर सुन्दरी को जल्दी से यह चिट्ठी न पढ़कर सुनाई गयी तो उसे दिल का दौरा भी पड़ सकता है. छोटू तो पूरा छोटू था. माँ की आवाज कानों में पड़ी तो भागा चला आया. कौशल्यादेवी ने उसके आते ही कहा, "ले बेटा ये सुन्दरी को ये चिट्ठी पढ़कर सुना दे.” छोटू ने लिफाफा अपने हाथ में लिया और उसे गौर से देखा. किसी बच्चे के हाथ की लिखाई. चीटियों की टांगो की तरह अक्षर. आधी हिंदी और आधी भोजपुरी मिक्स. लेकिन उसमे जो लिखा था वो गजब का था. लिखाई वेशक अच्छी न थी लेकिन लिखने वाला कोई गजब का आदमी था.

छोटू अभी लिफाफे को देख ही रहा था कि सुन्दरी ने उसे झकझोर कर कहा, “अरे छोटू थोडा जोर से पढो. मुझे तो सुनाई ही नही देता और थोडा जल्दी जल्दी पढो क्योंकि मुझे इस चिट्ठी को दो तीन बार सुनना है." ___

छोटू ने तो चिट्ठी पढना शुरू ही नहीं की थी फिर सुन्दरी ये क्यों कहने लगी कि थोडा जोर जोर से पढो. क्या सचमुच वो ख़ुशी से वावली हो गयी थी? छोटू उससे बोला, “अरे चाची अभी पढना शुरू करता हूँ थोडा धीरज रखो."
 
सुन्दरी को धीरज ही तो नही था. वो तो उस चिट्ठी को एक साँस में पढ़ डालती लेकिन बुरी किस्मत से पढ़ी लिखी नही थी. छोटू ने चिट्ठी को जोर जोर पढना शुरू किया, "मेरी आदरणीय प्यारी जिज्जी. तुम कैसी हो? हम लोग तो जैसे हैं वैसे हैं ही लेकिन तुम ठीक तरह से होंओगी. मुझे सपने में एक बार तुम दिखाई दी थी. तब तुमने मुझसे कहा कि मैं तुम्हारे लिए एक चिट्ठी लिखू लेकिन तब मैं लिखना नही जानता था.

आज में आठवीं मैं पढता हूँ और लिखना भी सीख गया हूँ. तुम मुझे पहचान पायीं या नही. बताओ मैं कौन हूँ? अरे पागल जिज्जी मैं संजू हूँ. तेरा छोटा भाई संजू, जिज्जी..”. ___

चिट्ठी के बीच में ही सुन्दरी ने छोटू को रोककर पूंछा, "कहाँ पर लिखा है संजू?” छोटू ने लिफाफे पर संजू लिखा हुआ दिखा दिया.

सुन्दरी ने सजल नेत्रों से उस संजू लिखे हुए शब्द को देखा और छोटू से बोली, "ये मेरा भाई है. छोटा वाला. बहुत होशियार लड़का है. छोटा था तभी भी बहुत होशियार था."

छोटू ने सुन्दरी के चेहरे को देखा. उसका चेहरा अपने भाई पर गर्व कर रहा था. लगता था जैसे उसके भाई ने चिट्ठी लिखकर कोई बहुत बड़ा काम कर दिया हो. ___ छोटू अभी सोच ही रहा था कि सुन्दरी ने उसे फिर से हिलाकर कहा, "अरे पढो छोटू. रुक कैसे गये?" छोटू ने बड़े आश्चर्य से सुन्दरी को देखा. मानो वो खुद ही शौक में रुक गया था लेकिन उसने सुन्दरी से विना कुछ कहे फिर से लिफाफा पढना शुरू कर दिया, "जिज्जी जब से तू गयी है तब से हम लोगों को तेरी बहुत याद आती है. ____ माँ भी तेरे जाने के बाद बहुत रोई और जिज्जी वो अपना भाई था न सबसे छोटा. जो मुझसे छोटा था. वो गर्मियों में मर गया. उसे कोई बीमारी हो गयी थी. माँ के पास पैसे नही थे. बस घर घर सोता सोता ही मर गया. जिज्जी मरने के बाद उसे बस्ती के लोगों ने गड्ढे में गाढ़ दिया था.

जिज्जी मुझे उसकी बहुत याद आती है. अब अपनी झोपडी में मैं और माँ ही रहते हैं लेकिन जिज्जी यहाँ इस बार धान की फसल भी ठीक से नही हुई. चावल बहुत मंहगा हो गया है. माँ अब चावलों में बहुत सारा पानी डालकर उन्हें पकाती है. मैं और माँ चावल कम खाते हैं उसका पानी ज्यादा पीते हैं. इससे दोनों समय का खाना आराम से हो पाता है. जिज्जी तू यहाँ अब दोबारा मत लौट कर आना. नही तो तू भी ऐसे ही भूखी रहा करेगी. माँ पहले से बहुत कमजोर हो गयी है. वो पहले मुझे पेट भर चावल खिलाती है और फिर खुद खाती है. कभी कभी न बचे तो भूखा ही सो जाती है. लेकिन जिज्जी अब मैं भी चालाक हो गया हूँ. मैं पहले पेट भरकर पानी पी लेता हूँ तब चावल खाने बैठता हूँ. इससे मुझसे ज्यादा चावल नहीं खाए जाते और माँ के लिए भी बहुत बच जाते हैं.

जिज्जी जिस दिन यहाँ सब ठीक हो जायेगा उस दिन मैं खुद तुझे बुलाने आऊंगा. तेरी कसम खाकर कहता हूँ, जिज्जी लोग कहते हैं कि नई सरकार यहाँ की बस्ती के लिए भर पेट खाना दिया करेगी. कोई भी आदमी भूखा नही रहा करेगा. तब तू यहाँ आ जाना लेकिन जिज्जी माँ को सरकार पर कतई भरोसा नही. वो कहती है कि कोई हरामी कुछ काम नही करता. लेकिन जिज्जी मुझे भरोसा है. हो सकता है इस बार खाना मिलना शुरू हो जाए और जिज्जी तेरे यहाँ तो बहुत बढिया बढिया खाना होता होगा.तू तो बहुत मोटी हो गयी होगी. मैं तुझे मोटी मोटी कहकर चिढाया करूँगा.
 
जिज्जी अपनी सबसे बड़ी बहन थी न. उसको उसके ससुराल वाले फिर से यही छोड़ गये थे. उसके एक बच्चा भी था लेकिन फिर वो बच्चा यहाँ आकर मर गया. माँ ने उसे फिर से एक जगह भेज दिया. उन लोगों से हमको पैसे भी मिले थे. जिज्जी अपनी बड़ी जिज्जी बहुत रोती थी. मेरा मन तो करता था कि वो फिर से कहीं न जाय लेकिन माँ की वजह से कुछ भी न कह सका और फिर यहाँ उसके खाने का भी तो कोई जुगाड़ नही था.

वो जाते समय तेरे बारे में पूंछ रही थी. कहती थी कि सुन्दरी आये तो मुझे खबर करना और जिज्जी मैं अपनी पढाई कर रहा हूँ. इसबार मैंने आठवीं का इम्तिहान पास किया है. वैसे मेरी पढाई रुक गयी थी लेकिन बड़ी जिज्जी के दोबारा किसी के साथ शादी करने से आये पैसों से माँ ने मुझे फिर से पढ़ने को बिठा दिया.

जिज्जी मैं पढाई करने के बाद पुलिस में भर्ती हो जाऊंगा. फिर घर मैं बहुत सारे पैसे आया करेंगे. और जिज्जा से कह देना कि अब तुझे मारें पीटें नही क्योंकि मैं अब बड़ा हो रहा हूँ. और फिर में पुलिस वाला भी तो बनूगा. तुझे पता है जिज्जी यहाँ पर पुलिस वाला बस्ती में आ किसी को भी पीट डालता है. उसका बहुत रौब होता है लेकिन में किसी भी बस्ती वाले को नही मारूंगा क्योंकि यहाँ सब गरीब लोग रहते हैं.

अच्छा जिज्जी तू ठीक से रहना. माँ कहती है कि तू यहाँ की तरह वहां किसी से गुस्सा मत होना और न ही अपने पति से लड़ाई करना. तू वहां पेट भर के खाना खाया कर. पता नही कब वहां भी यहाँ की तरह सब लोग गरीब हो जांय? कब वहां पर भी खाने की किल्लत हो जाय? चल अब फिर कभी तुझे चिट्ठी लिखूगा, तुम्हारा भाई संजू कुमार बेरा."

छोटू के साथ कौशल्यादेवी और सुन्दरी की आँखों में इस चिट्ठी को सुन आंसू आ गये थे. सुन्दरी तो कुछ ज्यादा ही रोये जा रही थी. उसे अपने भाई पर गर्व भी था और अपने घर की यादें फिर से ताज़ा भी हो गयीं थीं. सुन्दरी ने छोटू से वो लिफाफा ले उसे फिर से अपने कलेजे से लगा लिया. मानो ये लिफाफा उसका सगा भाई हो या फिर ये लिफाफा उसका पूरा परिवार हो. सुन्दरी तो इस चिट्ठी को पा तृप्त हो उठी थी लेकिन उन लाखों हजारों लडकियों का क्या जिनका कोई चिट्ठी लिखने का पता ही नही होता. वो जिंदगीभर एक चिट्ठी के इन्तजार में बैठी रहती हैं. उनके हिसाब से सुन्दरी बहुत भाग्य वाली थी जिसे उसके भाई ने एक चिट्ठी लिख भेजी.*
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बल्ली ने फिर से बहुत सा रुपया इकट्ठा किया और फिर से अपनी शादी कर लाया. इस बार की दुल्हन पहले से कम सुंदर थी. इस बार बल्ली का खर्चा भी कम हुआ था लेकिन इस बार उसने कसम खा ली थी कि अब कभी भी अपनी बीबी के पेट पर लात नही मरेगा. न ही छोटी छोटी बात पर उससे लड़ेगा. बल्ली की नई बीबी का नाम काली था.

काली जैसे ही व्याह कर बल्ली के घर आई वैसे ही उसे बल्ली से प्यार हो गया. बल्ली की छोटी से छोटी बात का खयाल उसको रहता था. सुबह के नहाने के पानी से लेकर पीठ को पत्थर से रगड़ना और शाम को सीधा मांगकर थके मांदे आए बल्ली के पैर दबाने तक हर काम काली बड़े सलीके से करती थी. बल्ली तो उसकी बलंईया लेते न थकता था. उसको अपनी प्रेमिका समझ प्यार करता. रोज कुछ न कुछ उसके लिए लेकर आता था. कभी टिक्की तो कभी पकौड़ी.

बल्ली की जिन्दगी फिर से हरी भरी होती जा रही थी. वो अपनी पुरानी बीबी को भूलता जा रहा था. उसका दुःख तो पहले भी ज्यादा नहीं था लेकिन जितना भी था काली से सब धो डाला. काली घर के काम में भी बहुत होशियार थी.

बल्ली ने घर के दूध का प्रबंध करने के लिए एक गाय भी ले ली थी. काली ने गाय को अपनी सहेली बना लिया था. उसका दूध अब काली ही निकालती थी. बल्ली का घर गाँव का सबसे सुखी घर बनता जा रहा था. काली ने बल्ली के घर में आ उसकी किस्मत ही बदल दी थी.
 
भाग -7
सुबह हो चुकी थी. आज माला राणाजी के पास नही सोयी थी. उसने राणाजी के कहने पर अपने रहने का प्रबंध उनके बगल वाले कमरे में कर लिया था. चूंकि गर्मी में छत पर सोते थे लेकिन राणाजी की चारपाई अलग थी और माला की चारपाई अलग. सुबह माला के जगने से पहले ही राणाजी जागकर नीचे आये चले आये. माला बाद में जागी और जागते ही सबसे पहले उसकी नजर राणाजी की चारपाई पर गयी. राणाजी उसको पूरी छत पर कहीं भी दिखाई न दिए लेकिन सामने की छत पर मानिक अधलेटा चारपाई पर बैठा उसे देखे जा रहा था.

माला ने छत के चारों तरफ देखा. कुछ लोग अभी भी अपनी अपनी छतों पर खड़े. बैठे और लेटे हुए थे लेकिन माला आज से पहले किसी भी तरफ नही देखती थी. परन्तु माला को अब ज्यादा डर भी नही था. उसने मुस्कुराकर मानिक को देखा.

मानिक को अचरज हो रहा था कि कल जब राणाजी ने उन दोनों को देख लिया तो माला आज फिर उसकी तरफ देख क्यों मुस्कुरा रही है? क्योंकि राणाजी ने जरुर उससे कुछ न कुछ कहा होगा. माला ने इशारा कर मानिक को पूंछा, "कैसे हो मानिक?" मानिक ने इशारे में माला से कहा, “ठीक हूँ लेकिन कल क्या हुआ? क्या राणाजी ने कुछ कहा?" ___

माला ने इशारे में मानिक को बताया, “ज्यादा कुछ नही हुआ लेकिन राणाजी को पता पड़ गया है.”

मानिक का दिल धडक उठा. उसकी समझ में ये न आ रहा था कि जब राणाजी को पता पड गया तो उन्होंने कुछ कहा क्यों नही.

माला ने उसको हैरत में देखा तो इशारे से बोली, “आज दोपहर में आना तब बात करेंगे." मानिक ने हां में सर तो हिला दिया लेकिन आश्चर्य कम नही हुआ था.

माला यह इशारा करते हुए नीचे चली गयी. मानिक अधलेटा पड़ा हुआ उसे देखता रह गया. गाँव में यह पहली बार था कि किसी लडके लडकी का चक्कर चल रहा था लेकिन किसी भी गाँव वाले ने इस बात पर कोई आपत्ति नही की थी और खुद राणाजी ने भी बड़ी धीरता से काम लिया था. मानिक अपनी सोच में उलझा जा रहा था. उसे खुद नही लगता था कि उसके और माला के प्यार की डगर इतनी आसान होगी.

माला रसोई में चाय बना चुकी मेहरी से चाय ले राणाजी के कमरे में जा पहुंची. राणाजी अपनी आँखों पर हाथ रखे लेटे हुए थे. माला के कमरे में पहुंचने की आहट सुन आँखों से हाथ हटाकर देखा और उठ कर बैठ गये. माला राणाजी के सामने खुद को बहुत शर्मिंदा पा रही थी लेकिन उसे जब तक इस घर में रहना था तब तक राणाजी से सामना करना ही था. माला ने चाय का कप राणाजी की तरफ बढ़ाया और धीरे से बोली, “चाय पी लीजिये."

राणाजी ने माला के हाथ से चाय का प्याला ले लिया लेकिन बोले कुछ नही. साथ ही माला से कोई बात भी नही की. माला चाय देने के बाद भी कमरे से बाहर न गयी. उसे राणाजी का इस तरह चुप चुप रहना अखर रहा था. उसके मन में सवाल भी बहुत थे लेकिन पूछने की हिम्मत नही होती थी. राणाजी ने माला को अभी तक कमरे में खड़े देखा तो खुद ही पूछ बैठे, “माला कुछ कहना है क्या तुम्हें?”

माला तो मानो इसी सवाल का इन्तजार कर रही थी. मुंह से बरबस ही निकल गया, "हाँ..मैं.."

राणाजी ने गम्भीर स्वर में उससे पूंछा, “हाँ कहो क्या कहना चाहती हो?"

माला का गला भर्राया हुआ सा था लेकिन बोली, "क्या आप मुझसे गुस्सा हैं? मैं जानती हूँ मुझसे गलती हुई है लेकिन मैंने ये सब जानबूझ कर नही किया. मुझे पता ही नही चला ये सब कब हो गया?"

राणाजी ने माला के चेहरे को गौर से देखा. उसके चेहरे पर पश्चाताप कम लेकिन मासूमियत ज्यादा थी. नादान लडकी की गलती तो थी लेकिन राणाजी ने उसे इतनी गम्भीरता से नही लिया था. उन्हें तो खुद से ज्यादा शिकायतें थीं न कि माला या किसी और से.

राणाजी ने माला के सवाल का जबाब देते हुए कहा, “माला अब जो हुआ सो भूल जाओ. सिर्फ आगे की सोचो. तुम्हारा जीवन अभी बहुत लम्बा है. मैंने बहुत कुछ देख लिया लेकिन तुम्हारी अभी शुरुआत है. जो भी करो उसे बहुत सोच समझकर करो. क्योंकि एकबार की गलती बहुत भारी पड़ सकती है. अब देखो मैंने आज से बीस साल पहले एक गलती की थी उसकी सजा मैं बीस साल से भुगत रहा हूँ. मेरा सारा परिवार तहस नहस हो गया. मेरा जीवन शून्य हो गया लेकिन अब भी जब तक जीऊंगा तब तक मुझे ये सजा भुगतनी पड़ेगी. हमारे जीवन की एक छोटी सी गलती हमें पूरी जिन्दगी का गम दे जाती है. इसका जीता जागता उदाहरण मैं खुद हूँ.”

माला बड़े ध्यान से राणाजी की बात सुन रही थी. लगता था जैसे उसके पिता बैठे उसे ये बात समझा रहे हों. सच में राणाजी की बात उसे बहुत अच्छी लग रही थी. अभी माला कुछ कहती उससे पहले ही द्वार से किसी ने राणाजी को आवाज दी. चाय का कप राणाजी ने अभी तक मुंह से भी न लगाया था. आवाज को सुनते ही उठ खड़े हुए और बाहर निकल गये. बाहर द्वार पर पड़ोस के गाँव के मुखिया का आदमी खड़ा था. राणाजी को देखते ही उसने दुआ सलाम की और बोला, "राणाजी आपको मुखिया जी ने आपके इसी गाँव की बैठक पर बुलाया है. कुछ जरूरी काम है तो आप इसी वक्त चलिए."

राणाजी के दिमाग में कई सवाल कौंध गये लेकिन उन्होंने उस आदमी से कहा, "अच्छा तुम रुको मैं अभी आता हूँ.” इतना कह राणाजी फिर से अपने कमरे में गये. माला वहां अभी भी खड़ी थी. राणाजी ने अपना सफेद रंग का चमचमाता कुरता पहना. गले में गमछा डाला और माला से बोले, "अच्छा माला में थोड़ी देर के लिए कहीं जा रहा हूँ, चाय भी लौट कर ही पीऊंगा. इतना कह राणाजी कमरे से बाहर निकल द्वार पर आये और उस आदमी के साथ चले गये.
 
गाँव की पंचायत के लिए गाँव के लोगों द्वारा एक जगह चुन ली गयी थी जिसे सब लोग बैठक कहकर पुकारते थे. जब गाँव में कोई गम्भीर बात होती तो गाँव के लोग मिलकर यहाँ बैठते थे और उस पर अपना फैसला तय करते थे. इस पंचायत में आसपास के गांवों के गणमान्य लोग भी शामिल किये जाते थे जिससे उस शख्स पर ज्यादा दवाव बनाया जा सके जिसने गलती की है. क्योंकि पहले ये होता था कि किसी एक गाँव से निकाले गये व्यक्ति को दूसरा गाँव रख लेता था लेकिन जब दूसरे गांवों के मुखिया ही फैसले में शामिल होंगे तो अपराधी आदमी को अपने गाँव में रखने का तो सवाल ही नही उठता.

राणाजी का अपराध तो ज्यादा बड़ा नही था लेकिन आज की पंचायत उनके खिलाफ किये गये षणयंत्र का परिणाम थी. राणाजी ने गाँव के बुद्धजीवियों को घास तो कभी नही डाली थी इसीलिए वो लोग राणाजी से पहले से ही जलते थे और आज जब उन्हें छोटा सा मुद्दा मिला तो तिल का पहाड़ बनाकर खड़ा कर दिया.

राणाजी की जाति के लोग तो उनसे खासे ही जलते थे. आज जब राणाजी का प्रभाव कम हुआ. उनपर तंगी आई और जमीन बिकी. उम्र भी ढलने लगी. घर में उनके अलावा कोई नही रहा. राणाजी का स्वभाव भी नर्म हुआ. कुलमिलाकर शेर जब बूढा हुआ तो सियारों को जोर आ गया था. उन्होंने राणाजी को मिटटी में मिलाने की सोच ली.

पंचायत की खुसर पुसर जोरों पर थी कि राणाजी वहां जा पहुंचे. राणाजी के पहुंचते ही सब लोग चुप हो गये. सभी की नजरें उनके चेहरे पर टिक गयी. राणाजी जी ने बैठक में आते ही मुखिया लोगों से दुआ सलाम की और वहीं पर बैठ गये.

ये वो पंचायत थी जो किसी समय राणाजी की हवेली पर होती थी. जिसमे मुख्य आदमी राणाजी के पिता और उससे पहले उनके दादाजी हुआ करते थे लेकिन आज एकदम उल्टा हिसाब था. आज और लोग मुख्य लोग थे और राणाजी मुजरिम.

पंचायत शुरू हुई. पडोस के गाँव के मुखिया ने राणाजी को पहले वो सारी बात बतानी शुरू की जिसके लिए उन्हें पंचायत ने बुलाया था, “राणाजी गाँव के लोगों को आपके द्वारा हुई कुछ बातों से खासी आपत्ति है. पहला ये कि आप अपनी जाति से छोटी जाति की औरत को व्याह कर घर लाये हैं. आप ने ऐसा कर सारी ठाकुर बिरादरी की नाक कटवा दी है. आसपास की पंचायतों में भी आपकी इस बात की चर्चा है. दूसरा उस लडकी का चाल चलन भी ठीक नहीं है. लोगों ने हमें अपनी आँखों की देखी बात बताई है कि उस औरत का गाँव के लडकों से खासा मिलना जुलना है. यहाँ तक कि लोगों ने छत पर खड़े होकर उसको इशारों से बात करते भी देखा है और साथ ही आप के खुद के द्वार पर वो लडकों के साथ ठिठोली करती देखी गयी है. उस औरत की ऐसी हरकतों से इस बिरादरी की इज्जत मिटटी में मिल गयी है. आपका घर नाचने गाने वाली औरत का कोठा बन कर रह गया है. अब पंचायत ने फैसला किया है कि सब लोग मिलकर इसका हल निकालें लेकिन उससे पहले आपका पक्ष भी जानना चाहते हैं. आप अपनी सफाई में जो भी कहना चाहें कह सकते हैं."

राणाजी पडोस के गाँव के मुखिया के किसी समय जिगरी यार हुआ करते थे लेकिन राणाजी और उसकी दोस्ती उनके जेल जाने के बाद ठंडी हो गयी थी. और जब राणाजी जेल से लौटकर आये तो दोस्ती का सम्बन्ध ही टूट गया. राणाजी का स्तर गिर रहा था और उसका स्तर दिनोंदिन उठ रहा था. यही वजह दोस्ती के अंत का कारण थी.

राणाजी ने अपना पक्ष कहना शुरू किया, “देखिये आप लोग पंच लोग है. मुझे आप के ऊपर पूरा भरोसा है कि आप जो भी करेंगे वो मेरे लिए उचित ही होगा लेकिन आप कोई भी फैसला देने से पहले उस पर पुनः विचार कर लें. ऐसा न हो कि किसी छोटे से गलत फैसले के कारण पंचायत की साख मिटटी में मिल जाए. लोग पंचायत पर भरोसा करना बंद कर दें.मैं खुद गाँव के मामलों को गाँव के स्तर पर ही निपटाने में विश्वास करता हूँ लेकिन गलती की गुंजायस कम से कम हो तो ये हम सब के लिए अच्छा है. बाकी का आपने कहा कि मैं गैर जाति की लडकी घर में लाया हूँ तो ये बात पूरी तरह सही है. दूसरी बात का जबाब में बस इतना ही देना चाहूँगा कि उस लडकी से गलती तो हुई है लेकिन जितना घिनौना कर उस बात को लोगों ने आप सब को बताया है वो झूठ है.बाकी का आप लोग खुद तय करें लेकिन किसी की जिन्दगी से खिलवाड़ न होने पाए इस बात का ध्यान रखते हुए."

पंचों को राणाजी की बात में दम लगा लेकिन आदमी कितना भी बढिया क्यों न हो, है तो आदमी ही. वो अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए भारी पलड़े का पक्ष लेता है. यहाँ राणाजी एक तरफ अकेले थे और दूसरी तरफ पूरा गाँव.

दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है और राणाजी इस वक्त ढलते सूरज समझे जाते थे. पंचों में घुसर पुसर होने लगी हालांकि फैसला तो पहले से ही तय हो गया था लेकिन राणाजी को सुनते हुए पंचों के दिल धुकुर धुकुर कर रहे थे. आखिर किसी समय इस गाँव में राणाजी का दबदवा हुआ करता था.

तभी पडोस के गाँव के मुखिया ने खड़े हो कर अपना फैसला सुनना शुरू कर दिया, "राणाजी पंचायत ने आपकी बात पर बहुत गौर किया है. पहले तो हमने काफी कठोर फैसला लिया था लेकिन आपकी बात को सुन हमने उसको थोडा नर्म कर दिया है. पहले हमने सोचा था कि आपको उस लडकी सहित इस गाँव से बाहर कर दें या फिर आप गाँव में रहें तो उस लडकी को गोली मार दें. लेकिन उस लडकी में गोली मारने से दो जाने जाती. एक उस लडकी की और दूसरी उसके पेट में जो बच्चा है .
. आज हम इस फैसले को हल्का करते हुए आपसे कहते हैं कि आप उस लडकी को अपने घर से निकाल बाहर कर दें. उसे उसके गाँव छुडवा दें. नही तो पंचायत को पहले किये गये फैसलों पर विचार करना पड़ेगा. अब पूरा फैसला आपके हाथ है कि आप दोनों में से क्या करना चाहते हैं."
 
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