hotaks444
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छतरपुर महरौली रोड पर कुतुबमीनार से आगे एक गांव था। वहां और उसके रास्ते में दिल्ली के कई रईस लोगों के फार्म थे जो कि प्रायः उन लोगों की तफरीहगाह के तौर पर इस्तेमाल होते थे।
चावला के फार्म का ग्यारह नंबर का नियोन साइन मुझे दो फर्लाग से ही चमकता दिखाई दे गया।
वह कई एकड़ में फैला एक विशाल फार्म था जिसके पृष्ठभाग में एक जमीन में कोई छ: फुट ऊपर उठे प्लेटफार्म पर
एक खूबसूरत बंगला यूं बना दिखाई दे रहा था जैसे प्लेट में कोई सजावट की चीज रखी हो । 2 फार्म का फाटक मैंने खुला पाया।
फार्म के एन बीच से गुजरते ड्राइव-वे पर कार चलाता मैं बंगले तक पहुंचा। वहां पार्किंग में एक नई-नकोर सफेद मारुति कार पहले से ही खड़ी थी जिससे लगता था कि मिसेज चावला वहां पहुंच चुकी थी । उसकी बगल में अपनी मखमल पर टाट के पेबन्द जैसी फिएट पार्क करते समय मैंने अपनी कलाई घड़ी में टाइम देखा।
ठीक आठ बजे थे।
मैं कार से बाहर निकला और बंगले की तरफ आकर्षित हुआ। बंगले के बाहर की कोई बत्ती नहीं जल रही थी । भीतर भी केवल एक कमरे में रोशनी का आभास मिल रहा था । उस कमरे की खिड़कियों-दरवाजों पर भारी पर्दे पड़े हुए थे इसलिए उसकी रोशनी बाहर नहीं आ पा रही थी, वह केवल . उनके शीशों को ही थोड़ा-बहुत रोशन कर रही थी। वहां किसी नौकर-चाकर या फार्महैंड की गैरमौजूदगी मुझे बहुत हैरान कर रही थी। कई सीढ़ियां चढ़कर मैं प्लेटनुमा प्लेटफार्म पर पहुंचा। बड़ी मुश्किल से मुझे वहां दीवार पर कॉलबैल का पुशबटन लगा दिखाई दिया। मैंने उसे दबाया।
भीतर कहीं घंटी बजी लेकिन उसकी कोई प्रतिक्रिया सामने न आई । थोड़ी देर बाद मैंने फिर घंटी बजाई ।। जवाब फिर नदारद । अब मेरा धीरज छूटने लगा। पता नहीं भीतर कोई था भी या नहीं।
लेकिन बाहर खड़ी मारुति कार को मद्देनजर रखते हुए किसी को तो भीतर होना ही चाहिए था । मैंने तीसरी बार घंटी बजाने के लिए कॉलबैल की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि एकाएक बाहर एक तेज रोशनी जल उठी। जरूर उस रोशनी को ऑन करने का बटन इमारत के भीतर कहीं था । साथ ही शीशे का एक दरवाजा निशब्द खुला और उसकी चौखट पर एक खूबसूरत लेकिन फक, नौजवान लेकिन बदहवास चेहरा प्रकट हुआ। वह एक कीमती साड़ी में लिपटा एक नौजवान स्त्री का था जो इतनी डरी हुई थी कि उसकी आंखें उसकी कटोरियों से बाहर उबली पड़ रही थीं । अपने पैरों पर खड़े रहने के लिए उसे चौखट के सहारे की जरूरत दरकार थी लेकिन फिर भी वह घड़ियाल के पेंडुलम की तरह दाएं-बाएं झूल रही थी । उसकी हालत ऐसी थी कि उसी क्षण अगर वह बेहोश होकर गिर पड़ती तो मुझे हैरानी न होती।
"क..क..कौन..कौन हो तुम ?" - वह फटी-फटी-सी आवाज में बोली ।
"यहां क्या हो गया है ?" - मैं बोला।
सद | "अरे !" - वह मुझ पर एकाएक चिल्लाकर पड़ी - "तुम बताओ, तुम कौन हो और क्या चाहते हो ?"
"बंदे को राज कहते हैं और मिसेज चावला से मिलना चाहता हूं।"
"ओह !" - उसने चैन की एक लंबी सांस ली - "शुक्र है, तुम आ गए । जल्दी भीतर आओ ।”
मैंने भीतर कदम रखा। । उसने मेरे पीछे दरवाजा बंद कर दिया और उसके आगे से पर्दा खींच दिया।
मैंने अपने-आपको एक विशाल और बड़े ऐश्वर्यशाली ढंग से सजे ड्राइंगरूम में पाया । "मैं मिसेज चावला हूं" - वह बोली - "कमला चावला । दोपहर में तुम्हें मैंने फोन किया था।"
तब मैंने गौर से उसकी सूरत देखी।
वह कोई सत्ताईस-अठाइस साल की, कम-से-कम साढ़े पांच फुट की, निहायत शानदार औरत थी और मेरी पसंद के तमाम कल पुर्जे ऊपर वाले ने बड़ी नफासत से उसमें फिट किए थे।
अपनी पसंद आपका यह खादिम पहले भी आप पर जाहिर कर चुका है। लंबा कद । छरहरा बदन । तनी हुई सुडौल भरपूर छातियां । पतली कमर । भारी नितंब । लंबे, सुडौल, गोरे-चिट्टे हाथ-पांव । खूबसूरत नयन-नक्श । रेशम-से मुलायम बाल, जिस्म पर गिलाफ की तरह चढ़ी हुई शानदार पोशाक ।।
वाह !
मेरी तो फौरन ही लार टपकने लगी। बड़ी कठिनाई से मैंने अपने-आपको संभाला और सवाल किया - "क्या बात है, आप इतनी बौखलाई हुई क्यों हैं?"
"म..मेरे पति" - वह बोली - "वो...वो..."
"कहां हैं वो ?"
"भीतर अपनी स्टडी में । वो...वो..."
"क्या हुआ है उन्हें ?"
"वो...वो वहां..भीतर मरे पड़े हैं।"
"मरे पड़े हैं !" - मैं चौंका - "कैसे मर गए ?"
"लगता है, उन्होंने अपने-आपको ग..गोली मार ली है।"
"आत्महत्या कर ली है उन्होंने ?"
"हां" - वह एक क्षण ठिठकी और फिर उसने एक शब्द और जोड़ा - "शायद ।" उस रहस्योद्घाटन के बाद मैंने पहले से ज्यादा गौर से उसकी सूरत का मुआयना किया। होश तो उसके शर्तिया फाख्ता थे लेकिन आखिर थी तो वह औरत ही और मेरी निगाह में कैसा भी अभिनय, सजीव अभिनय, करने की हर औरत में जन्मजात क्षमता होती थी।
ऊपर से एक शंका भी थी मेरे मन में ।।
अभी थोड़ी देर ही पहले तो मैं चावला को सही सलामत नारायणा छोडकर आया था । इतनी जल्दी वह वहां कैसे पच गया ? पहुंच गया तो यूं आनन-फानन लाश कैसे बन गया ? बन गया तो ऐसा इत्तफाकन हुआ या किसी | योजनाबद्ध तरीके से ? कहीं वह औरत किसी पूर्वनिर्धारित तरीके से मेरा कोई मुर्गा बनाने की फिराक में तो नहीं थी
"स्टडी का रास्ता दिखाये ।" - मैं बोला।
"आओ ।"
पीछे एक दरवाजा था जो एक गलियारे में खुलता था । उस गलियारे के दोनों ओर कई बंद दरवाजे थे। उसने दाई
ओर का पहला दरवाजा खोला।
हम दोनों ने भीतर कदम रखा । भीतर रोशनी थी। मैंने एक सरसरी निगाह कमरे में चारों तरफ दौड़ाई । वह कमरा ऑफिस और लाइब्रेरी के मिले-जुले रूप में बड़ी नफासत से सजा हुआ था। कमरे के सारे फर्श पर मोटा कालीन बिछा हुआ था और खिड़कियों पर भारी पर्दे पड़े हुए थे । एक ओर एक विशाल मेज लगी हुई थी जिसके । पीछे वैसी ही विशाल, नकली चमड़ा मढ़ी कुर्सी मौजूद थी जिस पर कि उस शख्स की लाश पड़ी थी जिसका मैं दिन में चार घंटे तक पीछा करता रहा था। उसकी बांहें कुर्सी के हत्थों पर फैली हुई थीं और पथराई हुई शून्य में कहीं। टिकी हुई थीं । उसकी दोनों आंखों के बीच में भवों के ऊपर माथे में गोली ने एक तीसरी आंख बना दी थी जो कि सामने से तो आंख जितना सुराख ही थी लेकिन पीछे से आधी खोपड़ी उड़ी पड़ी थी । कुर्सी की ऊंची पीठ पर खून के चकतों के बीच में उसका भेजा भी बिखरा पड़ा दिखाई दे रहा था।
"निशाना तो कमाल का है आपका ।" मैं धीरे से बोला ।
"मिस्टर !" - वह सख्ती से बोली - "मजाक मत करो।"