hotaks444
New member
- Joined
- Nov 15, 2016
- Messages
- 54,521
थोड़ी देर तक उसकी पीठ पर मुँह टिकाए मे पड़ा रहा जैसे भैंस को चोदने के बाद भैंसा उसके उपर अपनी तूतडी रखे पड़ा रह जाता है.
हम दोनो की साँसे बहुत तेज चल रही थी, मानो मीलों दौड़ कर आए हों.
बहुत देर तक उसकी पीठ पर लंड गान्ड में ही डाले मे पड़ा रहा, जब उठा और अपना लंड गान्ड से खींचा…पुकच्छ.. की आवाज़ करके वो बाहर आ गया,
उसकी गान्ड से मेरा घी रिस-2 कर निकल रहा था, और उसकी चूत के रास्ते टपक रहा था.
कुछ देर उसकी बगल में पड़े रहने के बाद उसके होठों को चूमते हुए पुछा.. भाभी..!
वो खुमारी मे पड़ी थी.. मेरी आवाज़ सुन कर बोली…हमम्म..!
मे- कैसा लगा गान्ड मराने में ..? मज़ा आया..?
वो- हॅम.. मज़ा तो आया पर अब दर्द हो रहा है.. उसमें, लग रहा है जैसे किसी ने बहुत पिटाई की हो.. और हँसने लगी.. ! तुम खुश हो.. पुछा उसने..
बहुत..! मे बोला… ! और आप..?
तो वो बोली- तुम खुश तो मे भी खुश हूँ.
ऐसे ही थोड़ी देर पड़े-2 बात-चीत करने के बाद मे उठा, कपड़े पहने और अपने हॉस्टिल लौट आया…..!!!
हमारे एग्ज़ॅम ख़तम हो चुके थे, सभी स्टूडेंट्स अपने-2 घरों को जा रहे थे. हमारा अभी तक कोई प्लान नही बना था कहीं भी जाने का.
तभी ऋषभ बोला- अरे दोस्तो ! एक काम करें..? हमरे गाँव के पास एक नदी है, वहाँ जेठ दशहरा के पर्व पर एक मेला लगता है,
ऐसी मान्यता है कि दशहरे के दिन सूर्योदय के समय उस नदी में स्नान करके सुर्य देव को अर्घ्य देने से मनोकामना पूरी होती है..
जगेश- ऋषभ..! फिर तो तेरे इलाक़े में कोई दुखी नही होगा.. क्यों ?
ऋषभ- ऐसी बात नही है यार…! पर ऐसा बताते हैं, कि बनवास के दौरान भगवान राम वहाँ गये थे और कुछ दिन रुक कर, वहाँ के लोगों को दुष्ट असूरों से मुक्ति दिलाई थी..
मे- जगेश हर बात को मज़ाक में मत लिया कर भाई ! हो सकता है, जिनकी भावनाएँ शुद्ध हों उनकी मनोकामना पूरी हो जाती हो. ये दुनिया स्वार्थ से भरी है, अब स्वार्थ सिद्धि को मनोकामना तो नही कह सकते ना..?
धनंजय- अरुण तेरी यही ख़ासियत मुझे बहुत अच्छी लगती है, तू किसी भी बात को नेगेटिव तरीक़ा से में नही लेता. मनोकामना तो बाद की बात है, एक उत्सव मान कर ही हमें वहाँ चलना चाहिए.. ! क्या बोलते हो तुम लोग..?
मे- हां बिल्कुल चलना चाहिए..!
ऋषभ- तो फिर कल ही निकल लेते हैं, मेरे ख्याल से दो दिन बाद ही मेला शुरू हो रहा है, आज से 5-6 दिन बाद दशहरा है.
ऋषभ का घर इलाहाबाद से कोई 50-60किमी दूर पूरव की ओर स्थित एक बड़े से *** गाँव में था.
दूसरे दिन सुबह ही हम चारों ने ट्रेन पकड़ी इलाहाबाद तक, वहाँ से स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस जाती थी उसके गाँव तक.
शाम होते-2 हम ऋषभ के गाँव पहुँच गये, उसके घरवाले हमें देख कर आती-प्रशन्न हुए, बड़े मिलनसार लोग थे उसके परिवार के लोग.
ऋषभ के घर में उसके पिता जी राम किशन शुक्ला जो खेती वाडी करते थे, माँ गायत्री देवी, दो छोटी बहनें (ट्रिशा और नेहा) और एक सबसे छोटा भाई (सोनू), और एक ऋषभ की विधवा दादी, कुल मिलाकर ऋषभ समेत 7 सदस्यो का परिवार था उसका.
ऋषभ के तीनो बेहन भाई पढ़ते थे, ट्रिशा कॉलेज पहुँच गयी थी, निशा 12थ में थी और सोनू 9थ क्लास में पढ़ रहा था.
सबसे मिल मिलकर रात का खाना खा पीकर दिन भर की यात्रा से थके हारे जल्दी बिस्तर पकड़ कर सो गये.
जैसा कि उस जमाने में गाँव के लोग सौच के लिए जंगल में या खेतों में ही जाते थे, तो सुबह उठकर, लोटे पकड़े और सौच के लिए निकल गये एक साथ.
घर आकर फ्रेश हुए, चाइ नाश्ता किया, और फिर प्लान बनाया मेले वाली जगह घूमने का.
जहाँ मेला लगना था, वो जगह ऋषभ के घर से कोई 2 किमी दूर एक नदी के किनारे बना शिव मंदिर था वहीं मेला लगता था.
मेले की तैयारी चल रही थी, कल से मेला शुरू होना था. 5 दिन चलने वाले मेले के लिए, झूले वग़ैरह, दुकानों का बन्दोवस्त ये सब हो रहा था.
जगह बड़ी रामदिक थी वो, छोटी-2 पहाड़ियों से गुजरती नदी किनारे पर उँचे-2 पेड़ों से घिरा मंदिर चारों ओर हरियाली दिखाई दे रही थी गर्मी के दिनों में भी ठंडक रहती थी उस मंदिर के आस-पास.
थोड़ी देर नदी के पानी में उतर कर नहाए, जून के महीने में ठंडे-2 पानी में नहाने से मज़ा आ गया. नहा धो कर मंदिर में भगवान भोले नाथ के आगे माथा टेका और घर लौट लिए.
दूसरे दिन से मेले की सरगर्मियां शुरू हो गयी, गाँव में सब लोग अति-उत्साहित थे मेले को लेकर.
पहला दिन था तो ज़्यादा लोगों के आने की उम्मीद तो नही थी, फिर भी बच्हों का शौक, नेहा और सोनू मेला घूमने की ज़िद करने लगे तो उनके साथ जगेश और धनंजय को भी भेज दिया.
मेरा मन नही हुआ आज जाने का, तो मेरी वजह से ऋषभ भी नही गया.
मेले में नेहा और सोनू के स्कूल फ्रेंड्स भी मिल गये, वो दोनो बेहन-भाई अपने दोस्तों के साथ घुल-मिलकर मेला एंजाय करने लगे, धनंजय और जगेश बच्चों को बोल कर मंदिर के पास पेड़ों की छाया में बैठ कर बातें करने लगे.
लगभग एक घंटा ही बीता होगा, कि सोनू और उसका एक दोस्त दौड़ता हुआ आया और हान्फते हुए बोला….. !!
भैया चलो ना वहाँ कुछ लोग नेहा और उसकी सहेलियों को छेड़ रहे हैं.
वो दोनो उन बच्चों को लेकर दौड़े उस तरफ जहाँ वो सब वाक़या हो रहा था. वहाँ जाके उन्हें जो नज़ारा देखने को मिला वो कुछ इस तरह था,
नेहा और उसकी दो सहेलियाँ जो उसकी क्लास मेट थी, उनके साथ और दो उनकी छोटी बहनें जो लगभग सोनू की एज की होंगी और दो छोटे बच्चे.
वो 7 लड़के थे, 3 ठीक ठाक शरीर के, 4 दुबले पतले लंबे-2 बाल आवारा किस्म के देहाती मजनू टाइप लौन्डे 22 से 25 की उमर के.
तीन लड़कों ने उन तीनों लड़कियों की कस्के कलाई पकड़ रखी थी, वो बेचारी दूसरे हाथ का सहारा देकर छुड़ाने की भरपूर कोशिश कर रही थी, वाकी के लड़के उनके नाज़ुक और कोमल अन्छुए अंगों के साथ छेड़-छाड़ कर रहे थे.
कोई उनके बूब दबा देता, कोई गान्ड तो कोई गाल काट लेता. बच्चे उनको छुड़ाने की कोशिश तो कर रहे थे लेकिन सफल नही हो पा रहे थे.
कुछ लोग तमाशा भी देख रहे बस खड़े-2 लेकिन मदद के लिए कोई आगे नही आया…
ऐसी ही है ये दुनिया, जब अपनी बात आती है तभी बोलते हैं, और तब कोई दूसरा नही आता साथ देने.
हम दोनो की साँसे बहुत तेज चल रही थी, मानो मीलों दौड़ कर आए हों.
बहुत देर तक उसकी पीठ पर लंड गान्ड में ही डाले मे पड़ा रहा, जब उठा और अपना लंड गान्ड से खींचा…पुकच्छ.. की आवाज़ करके वो बाहर आ गया,
उसकी गान्ड से मेरा घी रिस-2 कर निकल रहा था, और उसकी चूत के रास्ते टपक रहा था.
कुछ देर उसकी बगल में पड़े रहने के बाद उसके होठों को चूमते हुए पुछा.. भाभी..!
वो खुमारी मे पड़ी थी.. मेरी आवाज़ सुन कर बोली…हमम्म..!
मे- कैसा लगा गान्ड मराने में ..? मज़ा आया..?
वो- हॅम.. मज़ा तो आया पर अब दर्द हो रहा है.. उसमें, लग रहा है जैसे किसी ने बहुत पिटाई की हो.. और हँसने लगी.. ! तुम खुश हो.. पुछा उसने..
बहुत..! मे बोला… ! और आप..?
तो वो बोली- तुम खुश तो मे भी खुश हूँ.
ऐसे ही थोड़ी देर पड़े-2 बात-चीत करने के बाद मे उठा, कपड़े पहने और अपने हॉस्टिल लौट आया…..!!!
हमारे एग्ज़ॅम ख़तम हो चुके थे, सभी स्टूडेंट्स अपने-2 घरों को जा रहे थे. हमारा अभी तक कोई प्लान नही बना था कहीं भी जाने का.
तभी ऋषभ बोला- अरे दोस्तो ! एक काम करें..? हमरे गाँव के पास एक नदी है, वहाँ जेठ दशहरा के पर्व पर एक मेला लगता है,
ऐसी मान्यता है कि दशहरे के दिन सूर्योदय के समय उस नदी में स्नान करके सुर्य देव को अर्घ्य देने से मनोकामना पूरी होती है..
जगेश- ऋषभ..! फिर तो तेरे इलाक़े में कोई दुखी नही होगा.. क्यों ?
ऋषभ- ऐसी बात नही है यार…! पर ऐसा बताते हैं, कि बनवास के दौरान भगवान राम वहाँ गये थे और कुछ दिन रुक कर, वहाँ के लोगों को दुष्ट असूरों से मुक्ति दिलाई थी..
मे- जगेश हर बात को मज़ाक में मत लिया कर भाई ! हो सकता है, जिनकी भावनाएँ शुद्ध हों उनकी मनोकामना पूरी हो जाती हो. ये दुनिया स्वार्थ से भरी है, अब स्वार्थ सिद्धि को मनोकामना तो नही कह सकते ना..?
धनंजय- अरुण तेरी यही ख़ासियत मुझे बहुत अच्छी लगती है, तू किसी भी बात को नेगेटिव तरीक़ा से में नही लेता. मनोकामना तो बाद की बात है, एक उत्सव मान कर ही हमें वहाँ चलना चाहिए.. ! क्या बोलते हो तुम लोग..?
मे- हां बिल्कुल चलना चाहिए..!
ऋषभ- तो फिर कल ही निकल लेते हैं, मेरे ख्याल से दो दिन बाद ही मेला शुरू हो रहा है, आज से 5-6 दिन बाद दशहरा है.
ऋषभ का घर इलाहाबाद से कोई 50-60किमी दूर पूरव की ओर स्थित एक बड़े से *** गाँव में था.
दूसरे दिन सुबह ही हम चारों ने ट्रेन पकड़ी इलाहाबाद तक, वहाँ से स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस जाती थी उसके गाँव तक.
शाम होते-2 हम ऋषभ के गाँव पहुँच गये, उसके घरवाले हमें देख कर आती-प्रशन्न हुए, बड़े मिलनसार लोग थे उसके परिवार के लोग.
ऋषभ के घर में उसके पिता जी राम किशन शुक्ला जो खेती वाडी करते थे, माँ गायत्री देवी, दो छोटी बहनें (ट्रिशा और नेहा) और एक सबसे छोटा भाई (सोनू), और एक ऋषभ की विधवा दादी, कुल मिलाकर ऋषभ समेत 7 सदस्यो का परिवार था उसका.
ऋषभ के तीनो बेहन भाई पढ़ते थे, ट्रिशा कॉलेज पहुँच गयी थी, निशा 12थ में थी और सोनू 9थ क्लास में पढ़ रहा था.
सबसे मिल मिलकर रात का खाना खा पीकर दिन भर की यात्रा से थके हारे जल्दी बिस्तर पकड़ कर सो गये.
जैसा कि उस जमाने में गाँव के लोग सौच के लिए जंगल में या खेतों में ही जाते थे, तो सुबह उठकर, लोटे पकड़े और सौच के लिए निकल गये एक साथ.
घर आकर फ्रेश हुए, चाइ नाश्ता किया, और फिर प्लान बनाया मेले वाली जगह घूमने का.
जहाँ मेला लगना था, वो जगह ऋषभ के घर से कोई 2 किमी दूर एक नदी के किनारे बना शिव मंदिर था वहीं मेला लगता था.
मेले की तैयारी चल रही थी, कल से मेला शुरू होना था. 5 दिन चलने वाले मेले के लिए, झूले वग़ैरह, दुकानों का बन्दोवस्त ये सब हो रहा था.
जगह बड़ी रामदिक थी वो, छोटी-2 पहाड़ियों से गुजरती नदी किनारे पर उँचे-2 पेड़ों से घिरा मंदिर चारों ओर हरियाली दिखाई दे रही थी गर्मी के दिनों में भी ठंडक रहती थी उस मंदिर के आस-पास.
थोड़ी देर नदी के पानी में उतर कर नहाए, जून के महीने में ठंडे-2 पानी में नहाने से मज़ा आ गया. नहा धो कर मंदिर में भगवान भोले नाथ के आगे माथा टेका और घर लौट लिए.
दूसरे दिन से मेले की सरगर्मियां शुरू हो गयी, गाँव में सब लोग अति-उत्साहित थे मेले को लेकर.
पहला दिन था तो ज़्यादा लोगों के आने की उम्मीद तो नही थी, फिर भी बच्हों का शौक, नेहा और सोनू मेला घूमने की ज़िद करने लगे तो उनके साथ जगेश और धनंजय को भी भेज दिया.
मेरा मन नही हुआ आज जाने का, तो मेरी वजह से ऋषभ भी नही गया.
मेले में नेहा और सोनू के स्कूल फ्रेंड्स भी मिल गये, वो दोनो बेहन-भाई अपने दोस्तों के साथ घुल-मिलकर मेला एंजाय करने लगे, धनंजय और जगेश बच्चों को बोल कर मंदिर के पास पेड़ों की छाया में बैठ कर बातें करने लगे.
लगभग एक घंटा ही बीता होगा, कि सोनू और उसका एक दोस्त दौड़ता हुआ आया और हान्फते हुए बोला….. !!
भैया चलो ना वहाँ कुछ लोग नेहा और उसकी सहेलियों को छेड़ रहे हैं.
वो दोनो उन बच्चों को लेकर दौड़े उस तरफ जहाँ वो सब वाक़या हो रहा था. वहाँ जाके उन्हें जो नज़ारा देखने को मिला वो कुछ इस तरह था,
नेहा और उसकी दो सहेलियाँ जो उसकी क्लास मेट थी, उनके साथ और दो उनकी छोटी बहनें जो लगभग सोनू की एज की होंगी और दो छोटे बच्चे.
वो 7 लड़के थे, 3 ठीक ठाक शरीर के, 4 दुबले पतले लंबे-2 बाल आवारा किस्म के देहाती मजनू टाइप लौन्डे 22 से 25 की उमर के.
तीन लड़कों ने उन तीनों लड़कियों की कस्के कलाई पकड़ रखी थी, वो बेचारी दूसरे हाथ का सहारा देकर छुड़ाने की भरपूर कोशिश कर रही थी, वाकी के लड़के उनके नाज़ुक और कोमल अन्छुए अंगों के साथ छेड़-छाड़ कर रहे थे.
कोई उनके बूब दबा देता, कोई गान्ड तो कोई गाल काट लेता. बच्चे उनको छुड़ाने की कोशिश तो कर रहे थे लेकिन सफल नही हो पा रहे थे.
कुछ लोग तमाशा भी देख रहे बस खड़े-2 लेकिन मदद के लिए कोई आगे नही आया…
ऐसी ही है ये दुनिया, जब अपनी बात आती है तभी बोलते हैं, और तब कोई दूसरा नही आता साथ देने.