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- Dec 5, 2013
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‘’साली ने नाक मे दम कर दिया, थू….’’
पंगु ने वर्षा को गाली दी और सुरती थूक कर मेंड पर से खेत मे उतर आया.....एक बड़े मेंढक ने छलान्ग मारी तो जोरो की आवाज़ हुई, छप्पाअक्क्क्क......पानी के कुछ एक छिन्टे पंगु की नंगी बाहो पर पड़े....ना छाता था, ना बाँस की छतरी ही थी, कंधे पर गम्छा भर था जो कि अभी पूरी तरह से भीगा हुआ नही था.
खेत मे धान के पौधो को रौन्द्ता हुआ वह आगे बढ़ रहा था.....सीधे पश्चिम या दक्षिण की तरफ नही, कोने की तरफ....मुलायम पांक, कड़े
तीखे घोघे, घास की पान्थे, और जाने क्या क्या तलवो के नीचे आ रहा था.
एक के बाद दूसरा खेत, दूसरे के बाद तीसरा, फिर चौथा…फिर और…फिर और……फिर ऊँची सतह की बलुवहि ज़मीन मिली....मक्के की
खूँटियो से उलझ कर चलना असंभव हो उठा तो फिर से पंगु ने मेंड पकड़ ली....यह नॅंगू का खेत था और माँ भी तो नॅंगू की ही मर्री थी ना.
हाँ, अभी कुछ देर पहले नॅंगू की बूढ़ी माँ के प्राण पखेरू उड़े थे और नॅंगू लोगो को इसकी खबर देने निकला था....दो ही लोग बाकी थे जिनके
यहाँ जाना था...ऋषि और राजनंदिनी.
धरती से बहुत दूर आल्फा नमक ग्रह पर बसा हुआ तभका कोईली कोई छ्होटा गाओं नही था, पाँच हज़ार से उपर की जन संख्या वाली एक
भरी बस्ती थी....दरअसल यह छोटी छोटी कयि बस्तियो का एक समूह था.
बीच बीच मे खेत और बाग फैले हुए थे….उत्तर पूरब से कन्नी काट कर एक नदी निकल गयी थी…..इधर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की पक्की सड़क,
उधर मीटर गेज की रेलवे लाइन.
ऋषि का घर नज़दीक आया तो बादल की टीपीर टीपीर रुक गयी…कीचड़ से सने पैरो की उंगलियो मे हल्की हल्की खुजली महसूस हो रही थी…पंगु की तबीयत हुई कि कुवे मे से एक बाल्टी पानी खिच ले और अच्छी तरह से पैरो को धो डाले…लेकिन अभी तो रात भर घूमना फिरना था तो फिर क्यो कोई पैर धोए…?
ऋषि के दालान के सामने जो आँगन था, वह छोटा नही था….लगातार कयि रोज वर्षा हुई थी, मगर सतह ऊँची होने के कारण आँगन मे घिच
पिच नही हो पाया….भीगी मिट्टी पैरो के नीचे रबर की तरह दबती हुई महसूस हो रही थी.
बाहर बैठक खाने मे कोई सो रहा था…ऋषि के पिता सुख देव दालान के भीतर कोठरी मे सोए होंगे, पंगु को यह निश्चय था ही…फिर भी वह
दो सीढ़ी उपर बरामदे मे ना जाकर नीचे आँगन मे ही खड़ा रहा.
उसने तंबाकू और चुने के लिए जेब से पूडिया निकाली, सोचा कि सुरती तैय्यार कर के ही ऋषि और उसके पिता जी को जगाना उचित रहेगा.
लाठी एक तरफ खड़ी कर दी और उचक कर बरामदे के किनारे पर बैठ गया….आठ दस रोज बाद वह ऋषि के यहाँ आया था….इस बीच ऋषि बाढ़ पीड़ितो की सहयता के लिए बाहर ही बाहर घूमता रहा था…पंगु ही नही गाओं के दूसरे लोगो की भी मुलाक़ात इस दौरान ऋषि से नही हुई थी.
सुरती खाकर पंगु ने आवाज़ लगाई, “ ऋषि……ऊऊ ऋषिीीई…..सुखदेव चाचााअ’’
‘’उूउउन्न्ञन्’’ ऋषि के पिता सुखदेव ने करवट बदली तो चारपाई चरमरा उठी.
पंगु :- उठिए सुखदेव चाचा.
सुखदेव :- क्या है…पंगु…..?
पंगु :- नॅंगू की माँ मर गयी.
सुखदेव :- (अलसाई आवाज़ मे) कब..... ?
मूह मे सुरती की थूक भर आई थी….सुखदेव के सामने थूक भी नही सकता था….बड़ी मुश्किल से पंगु ने थूक को निगल कर जैसे तैसे कहा.
पंगु :- अभी घंटा भर हुआ है…..(फिर कुछ देर रुक कर) चाचा आपकी टॉर्च मे बॅटरी तो भरी होगी ना….?
किवाड़ खोल कर सुखदेव बाहर निकले और टॉर्च की रोशनी से समुचा आँगन जगमगा उठा..
पंगु :- ऋषि… कब लौटा चाचा…?
सुखदेव :- लौट तो आया था शाम को ही लेकिन सोया देर से है.
पंगु :- तो फिर उसको उठाने की ज़रूरत नही है.
सुखदेव रहे तो चुप ही लेकिन रंग ढंग से सॉफ था कि बीच नीद मे यह विघ्न उनको बेहद अखरा है…इतने मे घर के अंदर से खटपट की आवाज़ सुनाई पड़ी.
पंगु :- लीजिए जाग तो गया ऋषि.
ऋषि :- पंगु क्या बात है…? इतनी रात मे…?
पंगु :- हाँ, यार वो नॅंगू की माँ मर गयी है…इसलिए आना पड़ा….लेकिन तुम बहुत थके हो.
ऋषि :- चल…चल….पागल कहीं का….नॅंगू मेरा भी तो दोस्त है.
ऋषि कद काठी से मजबूत एक खूबसूरत नौजवान लड़का था…..सारे गाओं के लोग उसको पसंद करते थे….सभी उस पर अपनी जान
छिडकते थे और ऋषि की जान थी राजनंदिनी.
पंगु :- (घर से बाहर निकलते हुए) राजनंदिनी के यहाँ भी बताना है अभी.
दोनो राजनंदिनी के यहाँ जाकर बताने के बाद वहाँ से निगल गये....क्यों कि राजनंदिनी सो चुकी थी इसलिए उसको जगाना ठीक नही समझा दोनो ने....रास्ते मे चुतताड भी मिल गया तो तीनो साथ मे चल दिए.
तीनो नन्गु के दालान पर पहुचे....घर के अंदर औरतो का रोना धोना चल रहा था….तीखी खुरदरी रुलाई के बेढक स्वरो से भादो की काली रात का यह मनहूस सन्नाटा टुक टुक हो रहा था....चुतताड और पंगु लालटेन लेकर गये और बाँस काट कर ले आए.
ताज़े हरे बाँस के डंडो से उधर अर्थी बनती रही, इधर लोगो मे बाते होती रही....आँगन के कोने मे तुलसी का चबूतरा था...उसके पास मे ही लाश रख दी गयी थी.
सामने ईंट के आधे टुकड़े पर डिब्बी जल रही थी, जिसका फीका फीका आलोक बुढ़िया की बुझी पुतलियो से टकरा रहा था.
इधर पंगु अपनी पिच्छली यादो मे खोया हुआ था जबकि वो सड़ी गली लाश कब्रिस्तान से निकल कर रात के सन्नाटे मे सड़क पर चलते हुए
आगे बढ़ती चली जा रही थी.
वो लाश चलते हुए अचानक एक बंग्लॉ के सामने आकर रुक गयी और उस बंग्लॉ को कुछ देर तक घूरते रहने के बाद फिर...........
पंगु ने वर्षा को गाली दी और सुरती थूक कर मेंड पर से खेत मे उतर आया.....एक बड़े मेंढक ने छलान्ग मारी तो जोरो की आवाज़ हुई, छप्पाअक्क्क्क......पानी के कुछ एक छिन्टे पंगु की नंगी बाहो पर पड़े....ना छाता था, ना बाँस की छतरी ही थी, कंधे पर गम्छा भर था जो कि अभी पूरी तरह से भीगा हुआ नही था.
खेत मे धान के पौधो को रौन्द्ता हुआ वह आगे बढ़ रहा था.....सीधे पश्चिम या दक्षिण की तरफ नही, कोने की तरफ....मुलायम पांक, कड़े
तीखे घोघे, घास की पान्थे, और जाने क्या क्या तलवो के नीचे आ रहा था.
एक के बाद दूसरा खेत, दूसरे के बाद तीसरा, फिर चौथा…फिर और…फिर और……फिर ऊँची सतह की बलुवहि ज़मीन मिली....मक्के की
खूँटियो से उलझ कर चलना असंभव हो उठा तो फिर से पंगु ने मेंड पकड़ ली....यह नॅंगू का खेत था और माँ भी तो नॅंगू की ही मर्री थी ना.
हाँ, अभी कुछ देर पहले नॅंगू की बूढ़ी माँ के प्राण पखेरू उड़े थे और नॅंगू लोगो को इसकी खबर देने निकला था....दो ही लोग बाकी थे जिनके
यहाँ जाना था...ऋषि और राजनंदिनी.
धरती से बहुत दूर आल्फा नमक ग्रह पर बसा हुआ तभका कोईली कोई छ्होटा गाओं नही था, पाँच हज़ार से उपर की जन संख्या वाली एक
भरी बस्ती थी....दरअसल यह छोटी छोटी कयि बस्तियो का एक समूह था.
बीच बीच मे खेत और बाग फैले हुए थे….उत्तर पूरब से कन्नी काट कर एक नदी निकल गयी थी…..इधर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की पक्की सड़क,
उधर मीटर गेज की रेलवे लाइन.
ऋषि का घर नज़दीक आया तो बादल की टीपीर टीपीर रुक गयी…कीचड़ से सने पैरो की उंगलियो मे हल्की हल्की खुजली महसूस हो रही थी…पंगु की तबीयत हुई कि कुवे मे से एक बाल्टी पानी खिच ले और अच्छी तरह से पैरो को धो डाले…लेकिन अभी तो रात भर घूमना फिरना था तो फिर क्यो कोई पैर धोए…?
ऋषि के दालान के सामने जो आँगन था, वह छोटा नही था….लगातार कयि रोज वर्षा हुई थी, मगर सतह ऊँची होने के कारण आँगन मे घिच
पिच नही हो पाया….भीगी मिट्टी पैरो के नीचे रबर की तरह दबती हुई महसूस हो रही थी.
बाहर बैठक खाने मे कोई सो रहा था…ऋषि के पिता सुख देव दालान के भीतर कोठरी मे सोए होंगे, पंगु को यह निश्चय था ही…फिर भी वह
दो सीढ़ी उपर बरामदे मे ना जाकर नीचे आँगन मे ही खड़ा रहा.
उसने तंबाकू और चुने के लिए जेब से पूडिया निकाली, सोचा कि सुरती तैय्यार कर के ही ऋषि और उसके पिता जी को जगाना उचित रहेगा.
लाठी एक तरफ खड़ी कर दी और उचक कर बरामदे के किनारे पर बैठ गया….आठ दस रोज बाद वह ऋषि के यहाँ आया था….इस बीच ऋषि बाढ़ पीड़ितो की सहयता के लिए बाहर ही बाहर घूमता रहा था…पंगु ही नही गाओं के दूसरे लोगो की भी मुलाक़ात इस दौरान ऋषि से नही हुई थी.
सुरती खाकर पंगु ने आवाज़ लगाई, “ ऋषि……ऊऊ ऋषिीीई…..सुखदेव चाचााअ’’
‘’उूउउन्न्ञन्’’ ऋषि के पिता सुखदेव ने करवट बदली तो चारपाई चरमरा उठी.
पंगु :- उठिए सुखदेव चाचा.
सुखदेव :- क्या है…पंगु…..?
पंगु :- नॅंगू की माँ मर गयी.
सुखदेव :- (अलसाई आवाज़ मे) कब..... ?
मूह मे सुरती की थूक भर आई थी….सुखदेव के सामने थूक भी नही सकता था….बड़ी मुश्किल से पंगु ने थूक को निगल कर जैसे तैसे कहा.
पंगु :- अभी घंटा भर हुआ है…..(फिर कुछ देर रुक कर) चाचा आपकी टॉर्च मे बॅटरी तो भरी होगी ना….?
किवाड़ खोल कर सुखदेव बाहर निकले और टॉर्च की रोशनी से समुचा आँगन जगमगा उठा..
पंगु :- ऋषि… कब लौटा चाचा…?
सुखदेव :- लौट तो आया था शाम को ही लेकिन सोया देर से है.
पंगु :- तो फिर उसको उठाने की ज़रूरत नही है.
सुखदेव रहे तो चुप ही लेकिन रंग ढंग से सॉफ था कि बीच नीद मे यह विघ्न उनको बेहद अखरा है…इतने मे घर के अंदर से खटपट की आवाज़ सुनाई पड़ी.
पंगु :- लीजिए जाग तो गया ऋषि.
ऋषि :- पंगु क्या बात है…? इतनी रात मे…?
पंगु :- हाँ, यार वो नॅंगू की माँ मर गयी है…इसलिए आना पड़ा….लेकिन तुम बहुत थके हो.
ऋषि :- चल…चल….पागल कहीं का….नॅंगू मेरा भी तो दोस्त है.
ऋषि कद काठी से मजबूत एक खूबसूरत नौजवान लड़का था…..सारे गाओं के लोग उसको पसंद करते थे….सभी उस पर अपनी जान
छिडकते थे और ऋषि की जान थी राजनंदिनी.
पंगु :- (घर से बाहर निकलते हुए) राजनंदिनी के यहाँ भी बताना है अभी.
दोनो राजनंदिनी के यहाँ जाकर बताने के बाद वहाँ से निगल गये....क्यों कि राजनंदिनी सो चुकी थी इसलिए उसको जगाना ठीक नही समझा दोनो ने....रास्ते मे चुतताड भी मिल गया तो तीनो साथ मे चल दिए.
तीनो नन्गु के दालान पर पहुचे....घर के अंदर औरतो का रोना धोना चल रहा था….तीखी खुरदरी रुलाई के बेढक स्वरो से भादो की काली रात का यह मनहूस सन्नाटा टुक टुक हो रहा था....चुतताड और पंगु लालटेन लेकर गये और बाँस काट कर ले आए.
ताज़े हरे बाँस के डंडो से उधर अर्थी बनती रही, इधर लोगो मे बाते होती रही....आँगन के कोने मे तुलसी का चबूतरा था...उसके पास मे ही लाश रख दी गयी थी.
सामने ईंट के आधे टुकड़े पर डिब्बी जल रही थी, जिसका फीका फीका आलोक बुढ़िया की बुझी पुतलियो से टकरा रहा था.
इधर पंगु अपनी पिच्छली यादो मे खोया हुआ था जबकि वो सड़ी गली लाश कब्रिस्तान से निकल कर रात के सन्नाटे मे सड़क पर चलते हुए
आगे बढ़ती चली जा रही थी.
वो लाश चलते हुए अचानक एक बंग्लॉ के सामने आकर रुक गयी और उस बंग्लॉ को कुछ देर तक घूरते रहने के बाद फिर...........