Chudai Story ज़िंदगी के रंग - Page 2 - SexBaba
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Chudai Story ज़िंदगी के रंग

मनोज:"क्यूँ साली कुतिया मज़ा आ रहा है ना तुझे? ऐसे ही चुदवाती है ना तो बाहर जा के? बोल बोल भाडवी?" वो गंदी गंदी गलियाँ निकालते हुए किरण को चोदता रहा. शोर से कहीं उसकी बीमार मा जाग ना जाए इस लिए किरण ने अपने मुँह मे बिस्तर की चादर घुसा ली थी. आँसू थे के रुक ही नही रहे थे और उसका मुँह लाल हो गया था. दर्द से उसे लग रहा था के वो मर ही जाएगी. मनोज हेवानो की तरहा उसे ज़ोर ज़ोर से आधा घंटा चोदता रहा और किरण का वो हाल हो गया था के दर्द से बस बेहोश होने ही वाली थी. आख़िर ज़ोर से झटके मारते हुए वो किरण के बीच ही झाड़ गया. मनोज का लंड जब नरम पढ़ा तो निकाल के बिस्तर पे ही वो लेट गया और हांपने लगा. किरण उसी हालत मे वहाँ पड़ी थी. रो रो के अब तो आँसू भी सूख गये थे. आँखे सूज के लाल हो गयी थी और जिस्म दर्द से टूट रहा था. थोड़ी देर बाद बड़ी मुस्किल से उठ कर उसने अपनी शलवार पहनी और बड़ी मुस्किल से चलते हुए कमरे के दरवाज़े की तरफ चलने लगी.

मनोज:"रुक जाओ. ऐसे भला केसे जाने दूँगा तुझे? किरण मेरी एक बात अपने पल्ले बाँध ले. ये जो कॉलेज के लौंदे हैं ना इनकी दोस्ती कॉलेज मे ही ख़तम कर के आया कर. अगर मैने तुझे कभी किसी भी हराम जादे के साथ आइन्दा देख लिया तो ज़िंदा नहीं छोड़ूँगा. टू बस मेरी कुतिया है और मेरे साथ ही वफ़ादार रहना पड़ेगा. समझ गयी ना?" वो बेचारी बस हल्का सा सर ही हिला पाई.

मनोज:"चल अब ये पकड़." ये कह कर मनोज ने नोटो की एक गद्दी तकिये के नीचे से निकाल कर उसकी तरफ बढ़ा दी. कुछ लम्हे वो अपनी जगह पर बुत बन गयी. वो उन नोटो को देख रही थी जिन की वजह से आज उसकी ये हालत हो गयी थी. क्या ये ही मेरी सच्चाई है अब? एक दरिंदे की रखैल? 2 आँसू उसकी आँखो से फिर निकल गये और उसने काँपते हाथो से नोटो की गद्दी को पकड़ लिया और कमरे से बाहर निकल गयी. कोई पहली बार अपनी इज़्ज़त लुटवा कर तो वो मनोज के कमरे से बाहर नही आ रही थी पर आज पहली बार अपनी इज़्ज़त के साथ साथ वो खुद भी अपनी नज़रौं मे गिर गयी थी. सीडीयाँ नीचे उतरते समय एक एक सीडी पे कदम रखते हुए उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वो हज़ार बार मर रही हो.

साम के साथ सब कुछ बदल जाता है बस फराक ये होता है कुछ चीज़े रात गये ही बदल जाती हैं तो कुछ धीरे धीरे. जैसे वक़्त एक जगह रुक नही जाता वैसे ज़िंदगी की गाड़ी भी आगे को चलती रहती है. मोना भी धीरे धीरे बदल रही थी. चाहे कभी मिनी स्कर्ट ना पहने पर अब कम से कम ऐसे तो थी के शहर की लड़की तो दिखने ही लगी थी. मेक अप भी भले ही दोसरि लड़कियो के मुक़ाबले मे कम था पर हल्का फूलका करना तो शुरू कर ही दिया था. कॉलेज के लड़को ने भी उस मे ज़्यादा इंटेरेस्ट लेना शुरू कर दिया था पर ये बात अलग थी के अभी भी वो किसी को ज़्यादा घास नही डालती थी. पर कुछ हद तक बदला तो ये भी था. अब किरण की तरहा अली भी उसका दोस्त बन चुका था. वो लड़का है, अमीर खानदान से है ऐसी बतो के बारे मे उसने सौचना छोड़ दिया था. अभी कल ही की तो बात लगती थी के केसे वो अकेली उसके साथ आइस क्रीम खाते भी शर्मा रही थी और अब तो कॉलेज के बाद वो ही उसे अपनी गाड़ी पे घर छोड़ने लग गया था. उनकी उस मुलाक़ात को अब कोई 2 महीने हो चुके थे. इस दोरान मोना की ज़िंदगी मे छोटी मोटी बहुत सी चीज़े बदल गयी थी. जैसे के उसने कॉल सेंटर पर पार्ट टाइम जॉब शुरू कर दी थी. शहर मे रहते हुए पेसौं की ज़रूरत तो पड़ती ही है और वो अपने पिता पर बोझ नही बनना चाहती थी. रही बात ममता आंटी की तो उसका बस नाम ही ममता था वरना ममता नाम की उस मे तो कोई चीज़ थी ही नही. उसको बंसी के साथ अपना मुँह काला करवाने से थोड़ी फ़ुर्सत मिलती तो दूसरो के बारे मे सोचती ना?

उसको कॉल सेंटर पे नौकरी किरण ने ही दिलवाई थी. किरण भी तो पछले 2 महीने से बहुत बदल गयी थी और उस मे ये बदलाव सब से ज़्यादा मोना ने ही महसूस किया था. कुछ घाव इंसान को पूरी तरहा तोड़ कर रख देते हैं तो कुछ उसको पहले से भी ज़्यादा मज़बूत बना देते हैं. किरण के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. जो किरण अपने इर्द गिर्द लड़को को भंवरौं की तरहा घूमने पे मजबूर कर देती थी वो अब उनसे ज़्यादा बात नही करती थी और ना ही किसी का तोफा कबूल करती थी. खुद किरण ने ही कॉल सेंटर मे नौकरी मिलने के 2 हफ्ते बाद ही मोना को भी वहाँ नौकरी दिलवा दी थी. पहले तो मोना को अजीब सा लगा जब किरण ने उससे कहा के वो उसे भी नौकरी दिलवा सकती है पर फिर किरण ने ही उसे मना भी लिया.

किरण:"मोना अपने आप को कभी किसी के सहारे का मौहताज ना होने देना. खुद को इतना मज़बूत बना लो के अगर कल को कोई तूफान भी आए तो तुम तन्हा ही उसका मुक़ाबला कर सको." ये बात जाने क्यूँ सीधी मोना के दिल पे लगी और उसने हां कर दी. "सच मे मोना बहुत बदल गयी है" ऐसा मोना सौचने लगी थी. अब तो वो दूसरो को छोड़ो अली और मोना के साथ भी कहीं बाहर नही जाती थी. हमेशा कोई ना कोई बहाना बना दिया करती थी और फिर कुछ दीनो बाद इन दोनो ने भी उससे पूछना छोड़ दिया. पर जो भी था मोना को किरण पहले से भी अच्छी लगने लगी थी. वो उसको दोस्त से ज़्यादा अपनी बेहन मानती थी. और अली के बारे मे वो क्या सौचती थी? ये तो बताना बहुत ही कठिन है. अली उसके साथ मज़ाक करता था, उसे अक्सर बाहर घुमाने के लिए भी ले जाता था मघर कभी उसने ऐसी कोई बात नही की जिस से ऐसा सॉफ ज़ाहिर हो के वो मोना को प्यार करता है. "क्या ये प्यार है या दोस्ती?" ऐसा वो तन्हाई मे सौचा करती थी.

ऐसा नही था के अली उस से अपने प्यार का इज़हार करने के लिए बेचैन नही था. पर पहला प्यार वो आहेसास है जो महसूस तो हर इंसान कभी ना कभी करता ही है पर उसका इज़हार करना आसान बात नही होती. ये डर के कहीं इनकार हो गया तो क्या होगा? इंसान को अंदर ही अंदर खाए जाता है. फिर अली अभी जल्दी मे ये दोस्ती भी हाथ से गँवाना नही चाहता था जो उनके दरमियाँ हो गयी थी. उसने देखा था के केसे मोना किसी लड़के को भी अपने पास भटकने नही देती थी. ऐसे मे कही उसे वो दोसरे लड़को की तरहा लोफर ना समझ ले ये डर भी तो था. रोज़ाना जो समय वो दोनो एक साथ गुज़ारते वो उसके दिन के सब से हसीन लम्हे होते थे. मोना के ख़ौबसूरत चेहरे पे उसकी मासूम हँसी तो कभी उसकी एक आध ज़ुलाफ जब हवा मे बेक़ाबू हो कर उसके चेहरे पे आ जाती थी तो वो उसे बहुत ही अच्छी लगती थी. थोड़े ही दीनो मे उसने मोना के बारे मे सब कुछ जान लिया था. सॉफ दिल के लोग वैसे भी दिल मे बात छुपा के नही रखते और मोना का दिल तो अभी भी शीशे के जैसे बिल्कुल सॉफ था. शायद इशी लिए अली को कभी कभार महसूस हो ही जाता था के मोना भी उससे एक दोस्त से बढ़ कर पसंद करती है. जैसे जैसे दिन गुज़रे उसकी मोहब्बत मोना के लिए पहले से भी मज़बूत होती चली गयी और अब उसको बस इंतेज़ार था उस मौके का जब वो अपने दिल की बात मोना को कह सके. और ऐसा मौका उससे जल्द ही मिल भी गया.......

जहाँ किरण की मोहबत का दम भरने वाले लड़के एक एक कर के उससे उसका रवैया बदलने की वजा से दूर होते जा रहे थे वहाँ ही एक इंसान ऐसा भी था जो उसे बरसो से देख रहा था और अब उस मे इस तब्दीली के आने की वजा से बहुत खुश था. वो दूसरे लड़को की तरहा शोख ना सही पर दिल का भला इंसान था जो पागलौं की तरहा किरण को चाहता था. ये चाहत कोई 2-4 दिन पुरानी भी नही थी. वो स्कूल के ज़माने से ही किरण को पसंद करता था पर कभी दिल की बात ज़ुबान पर ला नही पाया था. "क्या अब साम आ गया है के उसे बता दू के मैं उसे पागलौं की तरहा चाहता हूँ?" शरद ने अपने से कुछ दूर बैठी किरण को कॉल सेंटर मे काम करते देख कर सोचा...

क्रमशः....................
 
ज़िंदगी के रंग--7

गतान्क से आगे..................

इतने महीने बीतने के बाद भी मोना ममता को एक आँख ना भाती थी. उसे घर मे मौजूद दोनो मर्दौ को अपनी उंगलियो पे नचाने की आदत पड़ गयी थी. उसके पति और बंसी उसके ही गीत गाते रहे ये ही वो चाहती थी. ऐसे मे डॉक्टर सहाब की ज़रूरत से ज़्यादा मीठी ज़ुबान और बंसी की मोना को देख कर राल टपकाना ममता को गुस्से से पागल बना रहा था. कितने ही दीनो से वो ऐसे मौके की तलाश मे थी के मोना से छुटकारा पा सके पर मोना उसे मौका ही भला कब देती थी? ममता अगर गुस्से से भी उससे बोलती थी तो वो चुप रहती थी और अगर कभी कोई ग़लत बात भी कह जाती तो मोना नज़र अंदाज़ कर देती थी. "साली बहुत ही मेस्नी है ये तो?" ऐसा सौच सौच के उसका गुस्सा उसके अंदर ही रहता पर समय के साथ साथ ये गुस्सा बढ़ते बढ़ते ज्वालामुखी बन चुका था जो एक दिन फॅट ही गया.

जब अली ने मोना को घर छोड़ना शुरू किया तो पहली बार तो देख ममता को भी अच्छा लगा. खुशी उसे इस बात की नही थी के मोना के लिए आसानी हो गयी बल्कि उसकी सौच तो ये थी के "मुझे पता था ये रंडी सती सावित्री बनने का ढोंग करती है. जुम्मा जुम्मा आठ दिन नही हुए और यहाँ पे यार भी बना लिया." ग़लत इंसान हमेशा दूसरो को ग़लत काम करता देख खुश होता है. शायद इस लिए के उससे अपने बारे मे अच्छा महसूस होता है या फिर यौं कह लो के ये आहेसास होता है के चलो हम ही बुरे नही सारी की सारी दुनिया की खराब है. डॉक्टर सहाब कामके सिलसिले मे कुछ दिन के लिए शहर से बाहर गये हुए थे. ऐसा मौका भला कहाँ मिलने वाला था ममता को? खाने की मेज पे जैसे ही मोना आ कर बैठ गयी, मुमता ने अपनी ज़ुबान के तीर चलाने शुरू कर दिया.

ममता:"बंसी खाना परोस दो मेम साहब को. आज कल बहुत कुछ करवा के आती हैं ने इस लिए थक जाती होंगी." अब मोना कोई बच्ची तो थी नही. देल्ही मे इतने महीने बिताने के बाद वो शहर वालो की दो मिनिंग वाली बतो को भी खूब समझने लग गयी थी. ममता की ये बात उसे बहुत अजीब लगी और इस बार वो चुप ना रह पाई.

मोना:"आंटी आप कहना क्या चाहती हैं?"

ममता:"अब तुम इतनी भी बची नही हो. खूब समझ सकती हो के क्या मे कह रही हूँ और क्या नही. हां पर एक बात समझ लो, मैने कोई धूप मे खड़े हो के बॉल सफेद नही किए. ये जो कुछ तुम कर रही हो ना इन हरकटो से बाज़ आ जाओ." हर इंसान के बर्दाशत की भी एक सीमा होती है और वैसे भी मन के सच्चे लोग तो किसी को ना ग़लत बात करते हैं और ना ही सुनना पसंद करते हैं. कितने ही अरसे से तो वो ममता की ज़हर भरी बतो को बर्दाशत कर रही थी पर आज जब उसने मोना के चरित्र पे उंगली उठाई तो मोना से भी बर्दाशत नही हो पाया. वो कहते हैं ना के सांच को कोई आँच नही होती. इसी लिए वो भी बोलना शुरू हो गयी.

मोना:"अपने माता पिता से दूर होने के बावजूद भी मे आज भी उनके दिए संस्कार नही भूली. कभी ज़िंदगी मे ऐसी कोई हरकत ही नही की जिस के लिए शर्मिंदा होना पड़े. आप ने मुझे घर मे रखा और ये अहेसान मे कभी नही भूलूंगी पर उसका ये मतलब नही के आप मेरे चरित्र पे कीचड़ उछालो और मैं चुप चाप देखती रहू."

ममता:"आरे वाह बंसी देखो तो ज़रा. इन मेडम के तो पर निकल आए हैं. एक तो चोरी उपर से सीना ज़ोरी. कहाँ जाते हैं तुम्हारी मा के दिया संस्कार जब रोज़ाना मुँह काला करवा के अपने यार के साथ आती हो?" बस अब तो मोना का गुस्सा भी ज्वाला मुखी की तरहा फॅट गया ये सुन कर.

मोना:"बस! दूसरो को बात करने से पहले अपनी गेरेबान मे झाँक कर देखो पहले. अपने नौकर के साथ पति के पीछे मुँह काला करवाते तुम्हे शरम नही आती और दूसरो पे इल्ज़ाम लगा रही हो? मैं तुम्हारी तरहा गिरी हुई नही जो ऐसी घटिया हरकते कारू." ये कह कर मोना तो गुस्से से उठ कर अपने कमरे की तरफ तेज़ी से चली गयी और जा के दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया पर ममता वहीं बुत बन गयी. "क्या इसको मेरे और बंसी के बारे मे पता है? अगर इसने ऐसे ही अपनी ज़ुबान उनके सामने खोल दी तो मेरा क्या होगा?" कुछ लम्हो बाद जब उसने अपने आप पे काबू पाया तो उसका गुस्सा पहले से भी ज़्यादा शिदत के साथ वापिस आ गया. गुस्से से चिल्लाति हुई वो मोना के कमरे की तरफ चिल्लाते हुए जाने लगी.

ममता:"आरे ओ रंडी तेरी जुरत केसे हुई ये बकवास करने की? तुम छोटे ज़ात वाले लोगो को ज़रा सी इज़्ज़त क्या दे दो सर पे चढ़ के नाचने लगते हो. जाने किस किस से मुँह काला करवा के आ के तू मेरे ही घर मे मुझ पे ही इल्ज़ाम लगाती है हराम जादि? निकल बाहर कुतिया तेरा मे आज खून पी जाऔन्गि." वो ऐसे ही कितनी ही देर कमरे के बाहर खड़े हो कर आनाप शनाप बकती रही पर कमरे के अंदर से मोना ने कोई जवाब ना दिया. फिर जब कुछ देर बाद कमरे का दरवाज़ा खोला तो मोना हाथो मे अपना सूटकेस पकड़े खड़ी थी. उसकी आँखो मे जो आग ममता को नज़र आई उसने उसका मुँह बंद कर दिया.

मोना:"कहना चाहू तो बहुत कुछ कह सकती हूँ और अगर चाहू तो तुम्हारी असलियात पूरी दुनिया के सामने ला सकती हूँ. कैसा लगे गा डॉक्टर सहाब को ये जान कर के उनकी धरम पत्नी एक रंडी से भी ज़्यादा गिरी हुई है जो अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए अपना शरीर बेचती है. पर मे ऐसा करौंगी नही. इसको मेरी कमज़ोरी मत समझना बल्कि तुम्हारे अहेसान का बदला उतार के जा रही हूँ. एक बात याद रखना. तुम्हारे जैसी औरत औरतज़ात पे एक काला धब्बा है. आइन्दा दूसरो पे उंगली उठाने से पहले हो सके तो अपना चेहरा आईने मे देख लेना." ममता का तो मुँह खुले का खुला रह गया ये सब सुन कर और उसके मुँह से फिर एक शब्द भी नही निकल पाया जब मोना उसके सामने घर से बाहर जा रही थी. घर से बाहर निकलते समय मोना को भी पूरी तरहा से नही मालूम था के अब वो क्या करेगी और कहाँ जाएगी पर ये ज़रूर जानती थी के ये दुनिया बहुत बड़ी है और जहाँ मन मे चाह हो वहाँ राह मिल ही जाती है......
 
सरहद पांडे शुरू से ही तन्हा रहने का आदि था. स्कूल के ज़माने से ले कर आज तक उसने ज़्यादा दोस्त नही बनाए थे और जो बनाए उन मे से भी कोई उसके ज़्यादा करीब नही था. शर्मीली तबीयत का होने का कारण वो चाहे कहीं भी जाए लोग उसे आम तोर पे नज़र अंदाज़ कर देते थे. देखने मे भी बस ठीक था. औसत कद, सांवला रंग और थोड़ी सी तोंद भी निकली हुई थी. शायद उसे शुरू से ही ये कॉंप्लेक्स था के वो देखने मे बदसूरत है. ऐसा तो खेर हरगिज़ नही था लेकिन जैसे जैसे वो बड़ा हुआ सर के बाल भी घने ना रहने के कारण उसका ये कॉंप्लेक्स और भी ज़्यादा मज़बूत होता चला गया. पढ़ाई मे भी बस ठीक ही था. ऐसा नही के काबिल नही था मगर कभी भी उसने पढ़ाई को संजीदगी से नही लिया था. उसके पिता समझ नही पाते थे के ऐसा क्यूँ है? पहले पहल तो उन्हो ने हर तरहा की कोशिश की. कभी प्यार से तो कभी गुस्से से लेकिन कुछ खास फरक नही पड़ा. आख़िर तंग आ कर उन्हो ने उसको उसके हाल पर छोड़ दिया. और तो और खेलौन मे भी वो बिल्कुल दिलचस्पी नही लेता था.



ऐसे मे बस एक ही ऐसी चीज़ थी उसकी ज़िंदगी मे जिसे वो पागलपन की हद तक पसंद करता था और वो थी किरण. वो कोई तीसरी क्लास मे था जब उसके पिता का ट्रान्स्फर देल्हीमे हो गया. नये स्कूल मे आ कर भी कुछ नही बदला था. कुछ शरारती लड़को का उसका मज़ाक उड़ाना तो कुछ टीचर का उस पे घुसा निकालना, सब कुछ तो पहले जैसा था. हां पर कुछ बदला था तो वो ये के पहली बार उसे कोई अच्छा लगने लगा था और वो थी उसकी क्लास मे ही एक हँसमुख बच्ची किरण. उस उमर मे प्यार का तो कोई वजूद ही नही होता और ना ही समझ. ये बस वैसे ही था जैसे हम किसी को मिल कर दोस्त बनाना चाहते हैं. फराक बस इतना था के अपने शर्मीलेपन की वजा से वो ये भी नही कर पाया. जो चंद एक दोस्त उसने बनाए भी वो उस जैसे ही थे. ये भी एक अजब इतेफ़ाक था के उसके पिता को भी घर कंपनी की ओर से वहीं मिला जहाँ मोना का घर बाजू मे ही था.

उसे आज भी याद था के केसे वो छुप छुप कर किरण को अपने कमरे की खिड़की से सड़क पर मोहल्ले के दूसरे बच्चो के साथ खेलते देखा करता था. दोसरी ओर किरण ने तो कभी उसे सही तरहा से देखा भी नही और अगर नज़र उस पर पड़ी भी तो नज़र अंदाज़ कर दिया. कहते हैं के समय के साथ सब कुछ बदल जाता है लेकिन कुछ चीज़े अगर बदलती भी हैं तो वो अच्छे के लिए नही होती. स्कूल के बाद दोनो ने ऐक ही कॉलेज मे दाखिला भी लिया पर इतने साल बीतने के बाद भी तो सब कुछ वैसे का वेसा ही था. आज भी वो दूर से किरण को पागलौं की तरहा देखा करता था. तन्हाई मे उसी की तस्वीर उसकी आँखौं मे घूमती थी और दूसरी ओर किरण अब जवानी मे हर ऐरे गैरे से हँसी मज़ाक करने के बावजूद भी सरहद की ओर कभी देखती तक नही थी. अगर कुछ बदला था तो वो उसके दिल मे उसके प्यार की शिदत थी. कभी कभार तो वो ये सौचता था के क्या ये प्यार है याँ जनून? वैसे उसे पसंद तो किरण की नयी दोस्त मोना भी बहुत आई थी. वो बिल्कुल किरण के बाकी के सब दोस्तों से अलग थी और उसे हैरत होती थी के उन दोनो मे दोस्ती हुई भी तो केसे? चंद ही महीनों मे उसने देखा के किरण मे तब्दीली आने लगी है और वो उस चंचल हसीना से एक समझदार लड़की बनने लगी थी. ऐसा कितना मोना की वजा से था तो कितना उमर के बढ़ने के साथ ये तो वो नही समझ पाया पर वो इस तब्दीली से खुश बहुत था. अब तो सब कुछ पहले से बेहतर होने लगा था. किरण ने लड़को से ज़्यादा बात चीत भी कम कर दी थी और कपड़े भी ढंग के पहनने लगी थी.

सरहद की खुशी का कोई ठिकाना ना रहा जब एक दिन किरण ने भी वो ही कॉलिंग सेंटर जाय्न कर लिया जहाँ वो काम करता था. अब तो उनकी थोड़ी बहुत दुआ सलाम भी होने लगी थी. फिर कुछ ही अरसे मे मोना को भी वहीं नौकरी मिल गयी. मोना और सरहद कुछ ही दीनो मे अच्छे दोस्त भी बन गये और शायद इसी लिए किरण से भी उसकी थोड़ी बहुत दोस्ती तो होने लगी थी. या फिर यौं कह लो के जिसे वो दोस्ती समझ के खुश हो रहा था वो बस दुआ सलाम तक ही थी. पर जिस लड़की के सपने वो सालो से देखता आ रहा था अब उसके साथ एक ही जगा पे काम करना और दिन मे एक आध बार बात कर लेना भी उसके लिए बहुत बड़ी बात थी. धीरे धीरे ही सही पर सब कुछ तो उसके लिए अच्छा होता जा रहा था सिवाय एक चीज़ के और वो था मनोज पटेल. कुछ साल पहले किरण के पिता के देहांत के बाद वो उनके घर किरायेदार के तौर पे आया था और अब टिक ही गया था. भला एक कारोबारी बंदे को ऐसे किसी के घर मे करायेदार बन के रहने की क्या ज़रूरत है? उसको इस बात की ही जलन थी के ऐक ही छत के नीचे वो उसकी किरण के पास ही रह रहा था. अब किरण को देख कर किस की नीयत खराब नही हो सकती थी? ये और ऐसे ही जाने कितने सवाल उसके मन मे रोज आते थे. जाने क्यूँ उसे मनोज मे कुछ अजीब सी बात नज़र आती थी. ऐसा उसकी जलन की वजा से था या सच मे दाल मे कुछ काला था?

ज़िंदगी हमेशा की तरहा वैसे ही रॅन्वा डांवा थी. हर तरफ भागम भाग थी और हर कोई दोसरे से आगे निकल जाने की दौड़ मे लगा हुआ था. इस भीड़ मे होते हुए भी आज मोना अपने आप को कितना तन्हा महसूस कर रही थी. ममता की बाते अभी तक उसे कांटो की तरहा चुभ रही थी. ग़रीबो के पास सिवाय उनकी इज़्ज़त के होता ही क्या है? और अगर लोग उसपे भी उंगली उठाए तो ये वो बर्दाशत नही कर पाते. वो धीरे धीरे एक सीध मे चली जा रही थी पर मंज़िल कहाँ थी इसका उसको भी पता नही था. दिल मे बहुत ही ज़्यादा दुख था पर आँखौं मे उसे क़ैद कर रखा था. ऐसे मे उसका मोबाइल बजता है. जब देखती है तो अली फोन कर रहा होता है.

मोना:"हेलो"

अली:"मोना कैसी हो?"

मोना:"अभी थोड़ी देर पहले तो तुम्हारे साथ थी फिर भी पूछ रहे हो के कैसी हूँ?" उसने रूखे से लहजे मे जवाब दिया. ममता का गुस्सा अभी तक गया नही था शायद.

अली:"हहे नही वो बस सोच रहा था के क्या फिल्म देखने चले? सुना है के अक्षय की बहुत अछी फिल्म आई है."

मोना:"तुम देख आओ मे नही आ पाउन्गी." धीरे से उसने कहा. अली बच्चा तो था नही, समझ गया के कुछ तो ग़लत है.

अली:"मोना सब ठीक तो है ना?" अब तक जिन आँसुओ को उसने अपनी आँखौं मे रोका हुआ था वो अब थम ना पाए आंड वो रोने लगी. उसे ऐसा रोते सुन कर अली बहुत घबरा गया.

अली:"मोना क्या हुआ है? प्लीज़ रो मत मे आ रहा हूँ." रोते हुए बड़ी मुस्किल से मोना बस ये कह पाई

मोना:"मैं घर पे नही हूँ अली."

अली:"कोई बात नही. तुम जहाँ पे भी हो बताओ मैं 2 मिनिट मे पहुच रहा हूँ." उसके चारो ओर जो लोग गुज़र रहे थे उन मे वो भी अपना तमाशा नही बनवाना चाहती थी इसलिए आँसू सॉफ करने लगी.

क्रमशः....................
 
ज़िंदगी के रंग--8

गतान्क से आगे..................

मोना:"मैं घर के पास जो पार्क है वहाँ तुम्हारा इंतेज़ार करोओण्घेए. प्लीज़ अली जल्दी आना."

अली:"मैं बस 2 मिनिट मे पोहन्च रहा हूँ." ये उसने कह तो दिया पर कोई उड़ान खटोला तो पास था नही, वहाँ पहुचने मे कोई 15 मिनिट तो लग ही गये. अब तक मोना अपने आप पे थोडा बहुत काबू भी कर चुकी थी. वो पार्क के बेंच पे अपने सूटकेस के साथ बैठी हुई थी. ऊसे ऐसे गमजडा बैठे देख कर अली को बहुत दुख हुआ. जिस लड़की के सपने वो दिन रात देखता था और जिस के लिए वो कुछ भी कर सकता था उससे ऐसे भला केसे वो देख सकता था?

अली:"मोना सब ठीक तो है ना और तुम ऐसे सूटकेस के साथ यहाँ क्यूँ बैठी हो?" उससे देख कर एक बार फिर जैसे ममता की कही सब बाते मोना को याद आ गयी और एक बार फिर आँखौं से आँसू बहने लगे. अली फॉरून उसके पास बैठ गया और उसके आँसू सॉफ करने लगा.

अली:"मोना प्लीज़ मत रो. सब कुछ ठीक हो जाएगा. मैं हूँ ना?"

मोना:"क्या ठीक होगा अब? मैने वो घर छोड़ दिया है."

अली:"क्यूँ क्या हुआ?"

मोना:"क्यूँ के उन्हे मैं बदचलन लगती हूँ और कहते हैं के तुम्हारे साथ अपना मुँह काला कर वा रही हूँ." अली ये सुन के गुस्से से पागल हो गया.

अली:"चलो मेरे साथ देखता हूँ किस की जुर्रत हुई तुम्हे ये कहने की?" वो ये कह कर उठने लगा लेकिन मोना ने हाथ पकड़ के बिठा लिया.

मोना:"नही अली पहले ही बहुत तमाशा हो गया है. वैसे भी वो तो कब से मुझे घर से निकालने का मौका देख रही थी. अब तो मैं भी वहाँ जाना नही चाहती."

अली:"ठीक है फिर चलो मेरे साथ. मेरे घर चलो सब ठीक हो जाएगा."

मोना:"पागल हो गये हो क्या? किस रिश्ते से साथ चालू? क्या हर दोस्त को उठा के घर ले जाते हो?"

अली:"पर हम सिर्फ़ दोस्त ही तो नही. इससे बढ़ के भी तो एक रिश्ता है हम मे."

मोना:"क्या और कैसा रिश्ता?" दोनो एक दूजे की आँखो मे खो चुके थे और समय था के बस थम सा गया था.

अली:"प्यार का रिश्ता."

मोना:"क्या और कैसा रिश्ता?"

अली:"प्यार का रिश्ता." ये बात बिना सौचे समझे उस केमुंह से निकली थी. यौं कह लो के दिल मे जो आरमान पहली बार ही मोना को देख कर पैदा हो गये था आज लबौं पे आ ही गये. ये सुन कर चंद लम्हो के लिए मोना चुप रही. पहली बार किसी ने यौं इज़हार-ए-मौहबत की थी. इन खामोश लम्हो मे जो मौहबत के पाक आहेसास को वो दोनो महसूस कर रहे थे और जो वादे आँखौं ही आँखौं मे किए जा रहे थे वो भला शब्दो मे कहाँ कहे जा सकते थे? आख़िर मोना ने ही इस खमौशी को तोड़ा धीरे से ये कह कर के

मोना:"पागल हो गये हो क्या?"

अली:"सच पूछो तो वो तो तुम्हे पहली बार ही देख कर हो गया था. फिर भी अगर किसी को पागलौं की तरह चाहना और उसी के ख्यालो मे खोए रहना और चाहे दिन हो या रात उसी के सपने देखना पागल पन है तो हां मे पागल हो गया हूँ."

मोना:"तुम ने आज तक तो ऐसा नही कहा फिर आज ये सब केसे?"

अली:"भला इतना आसान है ये क्या? तुम सौच भी नही सकती के कितनी ही बार कहने को दिल किया पर तुम्हे खो देने का डर इतना था के अपने आरमानो को दिल ही दिल मे मारता रहा और उम्मीद करता रहा उस दिन की जब तुम्हे अपना दिल दिखा सकू जिस की हर धड़कन मे तुम ही बसी हुई हो." वो ये सब सुन कर एक बार फिर पार्क के बेंच पर बैठ गयी. एक अजब आहेसास था ये. किसी को ऐसा कहते सुना के वो आप को इतना चाहते हैं. साथ ही साथ अभी तक वो ममता के दिए घाव भूल भी ना पाई थी के अली ने इतनी बड़ी बात इस मौके पे कह दी.

मोना:"तो क्या ये सही मौका है? तुम जानते हो ना के अभी कुछ ही देर पहले मेरे साथ क्या हुआ है? और अब ये सब? मुझे समझ नही आ रही के क्या कहू?"

अली:"मैं तो आज भी ना कह पाता लेकिन दिल की बात पे आज काबू ना रख सका जब तुम ने हमारे बीच क्या रिश्ता है पूछ लिया. मैं जानता हूँ तुम पे क्या बीत रही है मोना और इसी लिए तुम्हारा हाथ थामना चाहता हूँ. हो सके तो मेरा अएतबार कर लो. वादा करता हूँ के ज़िंदगी के किसी भी मोड़ पर तुम्हे ठोकर नही खाने दूँगा."

मोना:"ये सब इतना आसान नही है जितना तुम समझ रहे हो. इस प्यार मौहबत से बाहर भी एक दुनिया बसती है जिस दुनिया मे मैं एक ग़रीब टीचर की वो बेटी हूँ जो कल को अपने बुढ्ढे माता पिता और अपनी बेहन के लिए भी कुछ करना चाहती है. आज ये हाल है के मेरे पे ही कोई छत नही तो अपनी ज़िमेदारियाँ केसे निभा पवँगी? और ऐसे मे इस प्यार मौहबत के लिए कहाँ जगह है? अली तुम बहुत अच्छे लड़के हो. कौनसी ऐसी लड़की होगी जो तुम्हारे जैसा जीवन साथी नही पाना चाहेगी? पर मैं वो लड़की नही जिसे तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारे लिए पसंद करेंगे. ज़रा फरक तो देखो हम दोनो के परिवारो मे. क्यूँ ऐसा कोई रिश्ता शुरू करना चाहते हो जिस का अंजाम बस दुख दर्द पे ही ख़तम हो?"
 
अली:"प्यार कोई कारोबार तो नही जिस का ऩफा नुकसान सौच कर किया जाए. ये तो दिल मे जनम लेने वाला एक ऐसा आहेसास है जो लाखो करोड़ो के बीच मे बस एक चेहरे को मन मे बसा लेता है. भूल जाओ हम दोनो के दरमियाँ के फरक को. बस ये देखो के तुम्हारे सामने जो खड़ा है वो भी तुम्हारी तरहा एक इंसान है जिस के सीने मे तुम्हारे लिए ही दिल धड़कता है. क्या तुम्हारे दिल मे भी मेरे लिए प्यार है? क्या तुम भी मुझे उस दीवानगी से ही चाहती हो जैसे मे तुम्हे चाहता हूँ?" एक बार फिर दोनो के बीच मे खामोसी आ गयी. दिमाग़ था के कह रहा था मोना ना चल ऐसे रास्ते पर जिस की मंज़िल कोई नही और दिल था के कह रहा था के जिस सफ़र मे हमसफ़र ही साथ ना हो उसकी मंज़िल पे पोहन्च जाने का भी क्या फ़ायदा?

मोना:"मैं भी तुम्हे बहुत चाहती हूँ." दिल और दिमाग़ की इस जंग मे आख़िर कामयाबी दिल की ही हुई. मोना ने शर्मा कर अपनी पलके झुका ली और उसके ख़ौबसूरत गाल शर्माहट की वजा से लाल हो रहे थे. अली का दिल तो ख़ुसी से पागल हो रहा था ये सुन कर. उसने बड़े प्यार से मोना का हाथ थाम लिया.

अली:"तुम सौच भी नही सकती मोना के आज तुम ने मुझे कितनी बड़ी खुशी दी है. मे वादा करता हूँ के तुम्हे कभी तन्हा नही छोड़ूँगा."

मोना:"मुझे तुम्हारा और तुम्हारी मोहबत का आएतबार है पर अली मैं अपनी ज़िमेदारियो से मुँह नही मोड़ सकती."

अली:"आरे कह कौन रहा है तुम्हे? तुम्हारे माता पिता क्या मेरे माता पिता नही? मैं वादा करता हूँ के तुम्हारा सहारा बनूंगा और तुम्हारी सब ज़िमेदारियाँ आज से मेरी हैं. हम मिल के इन सब को निभाएँगे." उसकी बात सुन कर मोना की आँखौं से दो आँसू छलक गये. पर ये आँसू खुशी के थे. अली ने बड़े प्यार से उसके चेहरे से आँसू पौछ दिए.

अली:"आरे पगली अब रोना कैसा? अब तो हम अपने जीवन का आगाज़ करेंगे. जितना रोना था रो चुकी, अब तुम्हारी आँखौं मे आँसू नही आने चाहिए." ये सुन कर मोना कर चेहरा खिल उठा. भगवान के घर देर है पर अंधेर नही. वो सौच रही थी के वो कितनी खुशनसीब है के इतना प्यार करने वाला हम सफ़र मिल गया है उसे.

अली:"आरे कहाँ खो गयी? चलो अब क्या यहीं बैठे रहना है? घर चलते हैं."ये कह कर उसने मोना के हाथ से उसका सूटकेस पकड़ा और गाड़ी मे रखने लगा. थोड़ी ही देर मे दोनो अली के घर की जानिब गाड़ी मे बैठ कर जाने लगे. क्या उन दोनो के नये जीवन की ये शुरूवात थी?

थोड़ी देर बाद दोनो अली को घर पोहन्च गये. उसके पिता असलम सहाब दुकान पे थे और आम तौर पे तो बड़े भाई इमरान भी उतने बजे काम पे होते थे पर उस दिन तबीयात कुछ खराब होने की वजा से घर पे रुक गये थे. ड्रॉयिंग रूम मे मोना को बैठा कर अली उसके लिए कोल्ड ड्रिंक लेने चला गया. उसी दौरान इमरान मियाँ भी उनकी आवाज़ सुन कर कमरे से निकल आए. जो देखा तो एक लड़की अपने सूटकेस के साथ ड्रॉयिंग रूम मे बैठी हुई थी. दुकान दारो की यादशत बहुत पक्की होती है. एक नज़र मे ही पहचान गये के ये वोई लड़की है जो अली के साथ उनकी दुकान पे आई थी. वो दुनियादार बंदा था और एक नज़र मे ही भाँप गया के माजरा क्या है?.....

मोना ने जब इमरान को वहाँ खड़े उस घूरते देखा तो थोड़ा घबरा गयी. उस दिन दुकान पे अली ने बताया था के ये उसके बड़े भाई हैं इस लिए ये तो उसे पता था के वो कौन हैं?

मोना:"नमस्ते" उसने धीरे से उन्हे देख कर कहा. इमरान बगैर कोई जवाब दिए सीधा रसोई की तरफ चलने लगे. जब वहाँ गये तो देखा के उनकी धरम पत्नी पकोडे तल रही थी और अली ग्लासो मे कोल्ड ड्रिंक्स डाल रहा था. एक तो पहले ही से तबीयत खराब थी उपर से मोना को ऐसे देख कर उसे नज़ाने क्यूँ गुस्सा भी चढ़ गया था.

इमरान:"मैं पूछ सकता हूँ के ये क्या हो रहा है?" उस ने गुस्से से पूछा तो उसकी धरम पत्नी ने उसे शांत करने की कोशिश की.

शा:"क्या कर रहे हैं आप? घर मे मेहमान आई है कुछ तो ख़याल की जिए."

इमरान:"बिन बुलाए मेहमानो से केसे पेश आते हैं मुझे बखूबी पता है. तुम बीच मे मत बोलो."

अली:"भाई धीरे बोलिए. ये फज़ूल का तमाशा करने की क्या ज़रूरत है?"

इमरान:"मैं तमाशा कर रहा हूँ? ये लड़की जिसे तुम उसके बोरिये बिस्तरे के साथ घर ले आए हो वो क्या कोई कम तमाशा है?"

क्रमशः....................
 
ज़िंदगी के रंग--9

गतान्क से आगे..................

अली:"मैं कोई बच्चा नही हूँ भाई और बखूबी जानता हूँ कि क्या सही है और क्या तमाशा है? ये घर मेरा भी उतना है जितना आप का है इस लिए मुझ पर रौब झाड़ने की कोई ज़रोरत नही." अली भी अब तो गुस्से मे आ चुका था और उसकी आवाज़ भी इमरान की तरहा उँची हो गयी थी. दोसरि तरफ उसकी भाबी सहमी हुई दोनो भाईयों को देख रही थी और मन ही मन दुआ कर रही थी के वो दोनो शांत हो जाए. पकोडे तेल मे अब जलने लगे थे पर कोई ध्यान नही दे रहा था.

इमरान:"अब तुम्हारी ज़ुबान भी निकल आई है? बोलो किस रिश्ते से उसे घर ले आए हो? क्या भगा के लाए हो उसे? इस घर को समझ क्या रखा है तुमने?"

अली:"आप को कोई हक़ नही पोहन्च्ता मुझ से सवाल जवाब करने का. अब्बा को घर आने दें फिर मैं उनसे खुद बात कर लूँगा."

शा:"इमरान प्लीज़ आप मेरे साथ चले. आपकी पहले ही तबीयत ठीक नही. ये सब बाते अब्बा जान के आने के बाद भी तो हो सकती हैं." इमरान को गुस्सा तो बहुत चढ़ा हुआ था पर वो देख चुका था के अली भी गुस्से से आग बाबूला हुआ हुआ है. "एक बार अब्बा घर आ जाए तब देखता हूँ के इसकी ज़ुबान क्या ऐसे ही चलती है?" ये सोच कर वो गुस्से से पैर पटकता हुआ अपने कमरे की ओर चल पड़ा और आईशा भी उसके पीछे पीछे चल पड़ी. अली ने चूल्हा बंद किया और अपने गुस्से को शांत करने लगा. थोड़ी देर बाद जो उसका मूड ठीक हुआ तो कोल्ड ड्रिंक्स और मिठाई ले कर ड्रॉयिंग रूम की ओर चलने लगा. जब वहाँ पोहन्चा तो देखा के मोना नही थी. वो बेचारी तो जब ज़ोर ज़ोर से आवाज़ आनी शुरू हुई थी तब ही चुपके से घर से बाहर चली गयी थी.

अली उसका पीछा करते फिर ना आ जाए इस लिए उसने जल्दी से एक टॅक्सी को रोका और उस मे सवार हो गयी और अपना मोबाइल भी ऑफ कर दिया. उसकी ज़िंदगी तो पहले ही मुस्किलौं का शिकार हो गयी थी और वो अब अपनी वजा से उसे भी परेशान नही करना चाहती थी. एक बार फिर वोई तन्हाई का आहेसास वापिस चला आया. आज चंद ही घेंटो मे दोसरि बार वो अपने आप को इतना अकेला महसूस कर रही थी. अब एक बार फिर एक ऐसे सफ़र पे चल पड़ी थी जिस की मंज़िल का कुछ पता नही था. "ग़लती मेरी ही है जो ऐसे उसके घर चली गयी. ठीक ही तो था उसका भाई. भला कौनसी शरीफ लड़की ऐसे किसी लड़के के घर बिना किसी रिश्ते के समान बाँध कर चली जाती है? मैं अब अपने आप को यौं टूटने नही दूँगी. मैं यहाँ अपने परिवार का सहारा बनने आई थी और ये ही मेरी ज़िंदगी का लक्ष्य है. प्यार मोहबत की इस मे कोई गुंजाइश नही." ये ही बाते वो सौचते हुए तन्हा ज़िंदगी के सफ़र मे एक नयी ओर चल पड़ी. आज कल के नौजवान प्यार मे अंधे हो कर चाँद तारे तोड़ लाने की बाते तो आसानी से कर लेते हैं पर ज़िंदगी की सच्चाईयो को जाने क्यूँ भुला देते हैं? ये बड़े बड़े वादे बेमायानी शब्दो से ज़्यादा कुछ भी तो नही होते.

वो हर मोड़ पे साथ देने के वादे

वो एक दूजे के लिए जान दे देने की कसमे

थी सब बेकार की बाते थे सब झूठे किस्से

एक दिन कॉलिंग सेंटर पे एक छोड़ी सी पार्टी रखी गयी. पार्टी की तैयारी का ज़िम्मा किरण को दे दिया गया. सरहद ने उसकी मदद करने का पूछा तो किरण ने हां कर दी. दोनो अगले दिन पार्टी का समान लेने बेज़ार चले गये. अब एक छोटी सी पार्टी के लिए कौनसी कोई बहुत ज़्यादा चीज़ो की ज़रोरत थी? 1 घेंटे मे ही वो समान ले कर फारिग हो गये. सरहद ने हिम्मत कर के किरण को खाने का पूछ ही लिया.

सरहद:"किरण अगर बुरा ना मानो तो मुझे तो बहुत भूक लग रही है. आप ने भी अभी खाना नही खाया होगा मुझे लगता है. ये सामने ही तो रेस्टोरेंट भी है. अगर आप बुरा ना माने तो क्या चल के थोड़ी पेट पूजा कर ली जाए?"

किरण:"इस मे बुरा मानने वाली क्या बात है? चलो चलते हैं." उसने थोड़ा सा मुस्कुरा के जवाब दिया. सरहद देखने मे जैसा लगता था उसकी वजा से शुरू शुरू मे तो किरण को अजीब सा लगा. फिर उसने ये भी महसूस किया के वो हर वक़्त उसकी ओर ही देखता रहता था. लेकिन जैसे जैसे कुछ समय बीता उसकी सौच सरहद के बारे मे बदलने लगी. किसी ने सच ही कहा है के रूप रंग ही सब कुछ नही होता. थोड़े ही अरसे मे वो अच्छे दोस्त भी बन गये थे. ये अलग बात थी के किरण ने इस दोस्ती को ऑफीस तक ही रखा. कुछ महीने पहले जो हुआ था उसका दर्द उसके शरीर से तो चला गया था पर शायद हमेशा हमेशा के लिए उसके ज़हन मे रह गया था. किरण के अंदर उस दिन के बाद बहुत बदलाव आ गया था लेकिन उसकी ज़िंदगी मे तो फिर भी कुछ ख़ास बदलाव नही आया और आता भी केसे? किरण ने अपनी खुशिया मारनी शुरू कर दी थी पर अपनी ज़रूरतो का तो कुछ नही कर सकती थी ना? घर पे बूढ़ी मा की तबीयत दिन ब दिन खराब होती जा रही थी और डॉक्टर और दवाओ के खर्चे थे के आसमान को चू रहे थे. उसकी कॉल सेंटर की तन्खा से ये सब कहाँ चलने वाला था? ना चाहते हुए भी मनोज की रखेल बन के उसे रहना पड़ रहा था. "क्या कभी मैं इस जहन्नुम ज़िंदगी से छुटकारा ले पाउन्गी?" ऐसा वो अक्सर सौचती थी और बहुत बार तो आत्म हत्या के ख़याल भी ज़हन मे आए पर उसे पता था के उसकी मौत का सदमा उसकी मा नही सह पाएगी. जिस मा ने उसके लिए इतना कुछ किया उसे वो तन्हा कैसा छोड़ के जा सकती थी? अपने हालत की वजा से बेबस वो वैसे ही जीने लगी जैसा के मनोज चाहता था. वो नही चाहती थी के कभी भी कोई लड़का उसके इर्द गिर्द नज़र आए और मनोज के अंदर का वहसी फिर जाग जाए. इसी लिए वो बस पकड़ लेती थी पर अली आंड मोना के साथ गाड़ी मे नही बैठती थी और अब सरहद को भी ज़्यादा पास नही आने दे रही थी. फिर भी धीरे धीरे ही सही पर उन दोनो मे दोस्ती गहरी होती जा रही ही. शायद इस की एक वजा ये भी थी के किरण ने कभी भी उससे अपने जिश्म को दूसरो मर्दो की तरहा हवस भरी नज़रौं से देखते नही देखा था. जब भी उसने देखा के वो उसकी तरफ देख रहा है, उसकी आँखौं मे किरण को कुछ और ही महसूस हुआ. ना जाने वो क्या जज़्बात थे पर हवस तो हरगिज़ ना थी. उसकी बतो मे भी सच्चाई महसूस होती थी और ऐसे ज़्यादा बंदे तो किरण ने देखे नही थे. था तो अली भी आदत का अच्छा बंदा पर वो तो पागलौं की तरहा मोना से प्यार करता था. "अजब बात है के मोना के इलावा सब देख सकते हैं के अली उसके प्यार मे केसे दीवाना बना हुआ है?" वो सौच कर मुस्कराने लगी. रेस्टोरेंट मे ज़्यादा रश नही था और उनको आराम से एक कोने पे मेज मिल गयी और दोनो ने खाने का ऑर्डर दे दिया.
 
सरहद:"यहाँ मेरे साथ आने का शुक्रिया." उसने थोड़ा सा शर्मा के कहा. उसका ये ही भोलापन तो किरण को अच्छा लगता था.

किरण:"इस मे कौनसी बड़ी बात है? फिर भी इतना ही आहेसन मान रहे हो तो मेरा बिल भी भर देना." आज भी किरण का चंचल्पन कभी कभार वापिस आ ही जाता था. वैसे मुस्कुराती हुई सरहद को वो बहुत अछी लगी. इस किरण को तो ही वो बचपन से देख रहा था पर पछले कुछ आरसे से वो जाने कहाँ खो गयी थी? जहाँ एक तरफ वो उसकी संजीदगी और दूसरे लड़को को पास ना आने देने की वजा से बहुत खुश था वहाँ साथ ही साथ वो इस शोख चंचल किरण को मिस भी करने लगा था.

सरहद:"जी ज़रूर. इस से बढ़ के मेरे लिए और खुशी क्या होगी? वैसे अगर आप बुरा ना माने तो एक बात कहू?"

किरण:"कह के देखो फिर सोचूँगी के बुरा मानने वाली बात है के नही?" कुछ समय ही सही पर वो मनोज, अपने हालात सब को भूल के इन सब चीज़ो से आज़ाद एक दोस्त के साथ बात चीत का मज़ा ले रही थी.

सरहद:"आप यौंही हंसते मुस्कुराते अछी लगती हैं. संजीदा ना रहा करो ज़्यादा." उसकी इस बात ने जाने कहाँ से किरण के अंदर छुपे गम के तार को फिर से छेड़ दिया था.

किरण:"ये हँसी कब साथ देती है? अगर ज़्यादा हँसो भी तो आँखौं से आँसू निकल आते हैं. जब के गम अगर दुनिया मे आप के साथ और कोई भी ना हो तब भी आप का साथ नही छोड़ते." ये कह कर वो तो चुप ही गयी और ना जाने किन ख्यालो मे खो गयी पर उसकी बात का सरहद पे गहरा असर हुआ. इस खोबसूरत चंचल लड़की ने अपने दिल पे कितने गम छुपा कर रखे हुए हैं इनका आहेसास पहली दफ़ा उसे तब हुआ. "मैं ये तो नही जानता के क्या चेएज़ तुम्हे इतना परेशान कर रही है किरण पर हां ये वादा zअरोओऱ करता हूँ के एक दिन तुम्हे इन गमो से छुटकारा दिला कर ही दम लूँगा." ये वादा दिल ही दिल उसने अपने आप से किया.

अली भाग के घर से बाहर निकला पर मोना कहीं नज़र नही आ रही थी. वो जल्दी से अपनी गाड़ी मे बैठ कर मोना को ढूँदने लगा लेकिन वो तो गायब ही हो गयी थी. मोबाइल पे भी फोन किए लेकिन मोबाइल भी मोना ने बंद कर दिया था. उसकी परेशानी गुस्से मे बदलने लगी और ये गुस्सा घर जा कर वो इमरान पे निकालने लगा. असलम साहब जो घर पोहन्चे तो एक जंग का सा समा था. उनके दोनो बेटो की आवाज़ से घर गूँज रहा था और साथ ही साथ उनकी बहू के रोने की आवाज़ भी महसूस हो रही थी. परेशानी से भाग कर वो जिस जगह से शोर आ रहा था वहाँ पोहन्चे तो देखा के इमरान के कमरे के बाहर दोनो भाईयों ने एक दोसरे का गिरेबान पकड़ा हुआ है और एक दूजे को बुरा भला कह रहे हैं. उन से थोड़ी ही दूर बेचारी आईशा रोई जा रही थी. असलम साहब को देखते साथ ही वो भाग कर उनके पास आई और रोते रोते कहा.

आईशा:"अब्बा जी देखिए ना ये दोनो क्या कर रहे हैं?"

असलम:"ये क्या हो रहा है?" उन्हो ने गूँजती हुई आवाज़ मे जो कहा तो उनके दोनो बेटे उनकी ओर देखने लगे. उन्हे देखते साथ ही दोनो ने एक दूजे के गिरेबान छोड़ दिए.

असलम:"मैं पूछता हूँ के ये हो क्या रहा है?" उनके ये कहने की देर थी के दोनो उँची उँची अपनी कहानी सुनाने लगे.

असलम:"चुप कर जाओ तुम दोनो! बहू तुम बताओ क्या हुआ है?" आईशा जल्दी जल्दी जो कुछ भी हुआ बताने लगी. जब वो सारा किस्सा सुना कर चुप हो गयी तो कुछ देर के लिए खामोशी छा गयी. आख़िर असलम साहब ने ये खामोशी तोड़ी.

असलम:"इमरान क्या ये ही तमीज़ सिखाई है तुम्हे मैने? और अली क्या तुम इतने बड़े हो गये हो के अपने भाई का गिरेबान पकड़ने लगो?"

इमरान:"ये घर मे ऐसे किसी भी लड़की को ले आए और मैं चुप चाप तमाशा देखता रहू क्या?" उसने गुस्से से पूछा.

असलम:"आवाज़ आहिस्ता करो! क्या सही है और क्या ग़लत उसका फ़ैसला लेने के लिए अभी तुम्हारा बाप ज़िंदा है. अगर ये उस लड़की को घर ले भी आया तो एक घर आए हुए मेहमान के साथ बदतमीज़ी करते तुम्हे शर्म नही आई?" ये सुन कर इमरान ने अपना सर झुका लिया.

असलम:"कौन लड़की थी वो अली सच सच बताओ?" ये सुन कर अली मोना के बारे मे सब कुछ बताने लगा. जब वो सारी कहानी सुना चुका तो असलम साहब ने पूछा.

असलम:"क्या तुम उससे प्यार करते हो?"

अली:"जी बाबा."

असलम:"तुम अपनी पढ़ाई पे ध्यान दो और उसकी फिकर मत करो. जैसे ही तुम्हे पता चले के वो कहाँ है मुझे बता देना. मैं उसके रहने सहने का बंदोबस्त कर दूँगा. आगे तुम दोनो का क्या करना है ये मुझे सौचने के लिए वक़्त दो. और हां एक बात कान खोल के तुम दोनो सुन लो. आज के बाद इस घर मे ऐसा कोई तमाशा हुआ तो तुम दोनो को घर से निकाल दूँगा. अब जाओ दूर हो जाओ मेरी नज़रौं से." वो सब तो अपने अपने कमरो मे चुप कर के चले गये पर असलम सहाब सौचने लगे "कौन है ये लड़की और इसका अब क्या किया जाए?"........

क्रमशः....................
 
ज़िंदगी के रंग--10

गतान्क से आगे..................

अब कहीं ना कहीं तो जाना ही था पर जाए तो जाए कहाँ? आख़िर टॅक्सी वाले को एक घर का पता बता के वहाँ चलने का उसने कह दिया. मोना ने अपनी आँखे बंद कर ली थी और दिमाग़ मे कोई ख़याल नही आने दे रही थी. ऐसे मे उसे टॅक्सी ड्राइवर शीशे से उसकी छाती की तरफ देख ललचाई हुई नज़रौं से देख रहा है ये भी नज़र नही आया. थोड़ी देर बाद टॅक्सी रुकी तो उसने अपनी आँखे खोल दी और टॅक्सी वाले को उसके पेसे दे कर उतर गयी. अब तो उसकी सभी उम्मीदें ही टूट चुकी थी. यहाँ से भी इनकार हुआ तो वो क्या करेगी ये सौचना भी नही चाह रही थी पर साथ ही साथ दिल मे अब कोई उम्मीद भी नही बची थी. ऐसे मे धीरे से उसने घर की घेंटी बजा दी. थोड़ी ही देर मे किरण ने घर का दरवाज़ा खोल दिया. मोना को देखते ही उसका चेहरा चमक उठा.

किरण:"मोना! तू और यहाँ? क्या रास्ता भूल गयी आज?"

मोना:"कुछ ऐसा ही समझ लो."

किरण:"आरे पहले अंदर तो आ बैठ कर बाते करते हैं." ये कह कर वो तो थोड़ा हट गयी लेकिन जब मोना घर मे दाखिल हो रही थी तो उसके पुराने सूटकेस पर पहली बार किरण की नज़र पड़ी. अब वो बच्ची तो थी नही. समझ गयी के कुछ तो गड़-बाड़ है. दोनो सहेलियाँ जा कर ड्रॉयिंग रूम मे बैठ गयी.

किरण:"तो बैठ मे तेरे लिए चाय ले बना कर लाती हूँ." ये कह कर वो उठने लगी तो मोना ने हाथ से पकड़ लिया.

मोना:रहने दे बस थोड़ी देर मेरे पास ही बैठ जा." उसकी आँखौं मे उभरते हुए आँसू देख कर अब तो किरण भी परेशान हो गयी और समझ गयी के ज़रूर कोई बड़ी बात हुई है. उसने किरण को गले से लगा लिया जैसे ही उसकी आँखौं से आँसू बहने लगे और थोड़ी देर उसे रोने दिया. आँसुओ से किरण का वैसे भी पुराना रिश्ता था. वो जानती थी के एक बार ये बह गये तो मन थोड़ा शांत हो जाएगा. थोड़ी देर बाद उसने धीरे से पूछा

किरण:"बस बस ऐसे रोते नही हैं. क्या हुआ है मुझे बता?" आँसू पूछते हुए मोना जो कुछ भी हुआ उसे बताने लगी और तब चुप हुई जब सब कुछ बोल चुकी थी.

किरण:"रोती क्यूँ है? तुझे तो खुश होना चाहिए के उस चुरैल से तेरी जान छूटी. रही बात अली की तो इस मे उसका भी तो कसूर नही है ना? तुझे तो मेरे पास फॉरन आ जाना चाहिए था. अपने बाप के घर मे बिना किसी संबंध के वो तुझे रख भी केसे सकता था? चल अब परेशान ना हो और इसको अब अपना ही घर समझ." ये सुनते साथ ही मोना ने किरण को गले से लगा लिया और एक बार फिर उसकी आँखो से आँसू बहने लगे पर इस बार ये खुशी के आँसू थे.

मोना:"मैं तेरा ये अहेसान कभी नही भूलूंगी. आज जब सब दरवाज़े बंद हो गये तो तू भी साथ ना देती तो जाने मेरा क्या होता?"

किरण:"दोस्ती मे कैसा अहेसान? हां पर एक समस्या है."

मोना:"क्या?" उसने घबरा के पूछा.

किरण:"उपर का कमरा तो किराए पे चढ़ा हुआ है. तुझे मेरे साथ ही कमरे मे मेरे बिस्तर पे सोना होगा."

मोना:"आरे इसकी क्या ज़रूरत है? मैं नीचे ज़मीन पे कपड़ा बिछा के सो जाउन्गी ना."

किरण:"चल अब मदर इंडिया ना बन और घबरा ना डबल बेड है मेरा. पिता जी ने मेरे दहेज के लिए खरीद के रखा था. अब उसपे तेरे साथ सुहागरात मनाउन्गी." किरण के साथ मोना भी हँसने लगी और उसके गम के बादल छाटने लगे. थोड़ी देर बाद किरण ने मोना को अपनी माता जी से मिलाया और उन्हे बताया के वो अब उनके साथ ही रहे गी. उनकी तबीयात दिन बा दिन महनगी दवाइयो के बावजूद बिगड़ रही थी और अब तो वो ज़्यादा बोल भी नही पाती थी. प्यार से बस अपना हाथ मोना के सर पे रख के उसे आशीर्वाद दे दिया. उन्हे देख कर मोना को भी उसकी मा की याद आ गयी. जाने उसके माता पिता केसे होंगे वो सौचने लगी? कभी कभार ही उनसे वो बात कर पाती थी और अब तो बात किए हुए काफ़ी दिन हो गये थे. ममता के फोन से उसने एक बार ही बस फोन किया था और ममता के चेहरे के तेवर देख कर ना सिरफ़ फोन जल्दी बंद कर दिया बल्कि दोबारा उसके फोनसे फ़ोन करने की जुरत भी नही हुई. जब से नौकरी मिली थी मोबाइल लेने के बाद 2-3 बार फोन तो उसने किया था लेकिन कॉल भी तो महनगी पड़ती थी और उसके अपने छोटे मोटे खर्चे पहले ही मुस्किल से पूरे हो रहे थे पहले ही.
 
किरण:"चल तू फ्रेश हो जा फिर थोड़ी देर मे काम पे भी जाने का वक़्त होने वाला है. मैं चाइ बनाती हूँ." मोना मुँह हाथ धोने के बाद रसोई मे चली गयी. किरण ने भी चाय पका ली थी. वो दोनो ड्रॉयिंग रूम मे आकर छेड़ छाड़ करने लगी. मोना ने अपना मोबाइल फोन खोला तो उसमे अली की 16 मिस कॉल्स आई हुई थी. "क्या मुझे उससे बात करनी चाहिए." वो अभी ऐसा सौच ही रही थी के मोबाइल बजने लगा."

किरण:"अली का फोन है ना? उठा ले वो भी तेरे लिया परेशान होगा." ये सुन कर मोना ने फोन उठा लिया.

मोना:"हेलो"

अली."मोना खुदा का शूकर है तुम ने फोन तो उठाया. मैं तो बहुत परेशान हो गया था. कहाँ हो तुम बताओ मैं तुम्हे लेने आ रहा हूँ. मेरे भाई की तरफ से मे माफी माँगता हूँ. अब्बा ने भी उसे खूब डांटा है. हो सके तो माफ़ कर दो प्लीज़."

मोना:"माफी कैसी अली? ठीक ही तो वो कह रहे थे."

अली:"बहुत नाराज़ हो ना? बताओ तो सही हो कहाँ?"

मोना:"मैं किरण के घर मे हूँ और अब यहीं रहोँगी. प्लीज़ अली बहस नही करना पहले ही मेरे सर मे दर्द हो रही है. हम कल कॉलेज मे बात करते हैं." ये कह कर उसने फोन काट दिया. कोई 15 मिनिट बाद जब वो दोनो घर से निकलने लगी तो घर की घेंटी बजी. किरण ने दरवाज़ा खोल के देखा तो अली के वालिद असलम सहाब वहाँ खड़े थे.........

किरण:"जी?"

असलम:"बेटी मे अली का बाप हूँ. क्या आप मोना हो?"

किरण:"आरे अंकल आइए ना. मैं किरण हूँ पर मोना भी इधर ही है. मोना देखो कौन आया है?" असलम साहब घर मे दाखिल जैसे ही हुए तो उनकी नज़र मोना पर पड़ी. जब उसे देखा तो देखते ही रह गये. यौं तो देल्ही ख़ौबसूरत लड़कियो से भरी पड़ी है पर पर ये नाज़-ओ-नज़ाकत भला कहाँ देखने को मिलती थी? हुष्ण के साथ अगर आँखौं मे शराफ़त भी दिखे तो ये जोड़ लाजवाब होता है. उन्हे अपने बेटे की पसंद को देख कर बहुत खुशी हुई और अपनी मरहूम बीवी की याद आ गयी. मोना ने आगे बढ़ कर उनसे आशीर्वाद लिया. वो उसके सर पर प्यार देते हुए बोले

असलम:"उठो बेटी हमरे यहाँ बच्चो की जगा कदमो मे नही हमारे दिल मे होती है और बडो का अदब आँखौं मे."

मोना:"हमारे यहा दुनिया भर की ख़ुसीया माता पिता के चर्नो मे ही होती हैं."

असलम:"जीती रहो बेटी. आज कल के दौर मे इतना मा बाप का अहेत्राम करने वाले बच्चे कहाँ मिलते हैं?" उन दोनो को इतने जल्दी घुलते मिलते देख किरण को बहुत अच्छा लग रहा था.

किरण:"आप दोनो बैठ कर बाते करे मैं कुछ चाइ पानी का बंदोबस्त करती हूँ."

असलम:"आरे बेटी इस तकलौफ की क्या ज़रोरत है?"

किरण:"आरे अंकल तकलौफ कैसी? मैं बस अभी आई." ये कह कर वो रसोई की ओर चली गयी.

असलम:"मोना बेटी सब से पहले तो मैं आप से जो बदतमीज़ी इमरान ने की उसके लिए माफी चाहता हूँ."

मोना:"आप क्यूँ माफी माँग के मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं?

वैसे भी उन्हो ने ऐसा तो कुछ नही कहा."

असलम:"नही बेटी उस दिन आप घर मे पहली बार आई थी और उसे आपसे इस तरहा से नही बोलना चाहिए था. इन की मा के गुज़रने के बाद मा बाप दोनो की ज़िमेदारी मैने अकेले ने ही उठाई है पर जिस तरहा से वो आप से पेश आया उसके बाद सौचता हूँ शायद मेरी परवरिश मे ही कोई कमी रह गयी है."

मोना:"नही आप प्लीज़ ऐसे मत कहिए. ग़लती तो सब से हो जाती है ना?"

असलम:"तो फिर क्या आप उस नलायक की ग़लती को माफ़ कर सकती हो?"

मोना: मैं उस बात को भूल भी चुकी हूँ."

असलम:"तुम्हारे संस्कार के साथ साथ तुम्हारा दिल भी बहुत बड़ा है. देखो बेटी मुझे नही पता के आप और अली केसे मिले या आप को वो गधा केसे पसंद आ गया लेकिन एक बाप होने के नाते से बस ये कहना चाहूँगा के आप दोनो अभी अपनी तालीम पे ध्यान दो. ये प्यार मोहबत, शादी बिवाह के लिए तो पूरी ज़िंदगी पड़ी है लेकिन अगर इस समय को आप ने यौं ही बिता दिया तो इसकी कमी पूरी ज़िंदगी महसूस करोगे. आप समझ रही हो ना जो मैं कह रहा हूँ?"

मोना:"ज..जी."

असलम:"मैं समझ सकता हूँ के शायद आप को मेरी बाते कड़वी लगे पर मेरा मक़सद वो है जिस मे हम सब की भलाई हो. आप के पिता के बारे मे भी सुना है के वो टीचर हैं और एक टीचर से बढ़ के तालीम की आहेमियत भला कौन जान सकता है? मुझे पूरा यकीन है के वो भी चाहांगे के पहले आप अपनी तालीम मुकामल करो. और रही बात आप की ज़रूरतो की तो वो सब आप मुझ पे छोड़ दो. मैं वादा करता हूँ के अब आप पे कोई परेशानी का साया भी नही पड़ने दूँगा."

क्रमशः....................
 
ज़िंदगी के रंग--11

गतान्क से आगे..................

मोना:"अंकल आप इस प्यार से यहाँ आए मेरे लिए ये ही बहुत है और मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत नही."

असलम:"क्या आप ने अभी तक उस बात के लिए माफ़ नही किया?"

मोना:"नही नही अंकल वो बात नही. हम ग़रीबो के पास बस अपनी इज़्ज़त और आत्म सम्मान के इलावा क्या होता है? आप के बेटे ने एक बात तो सही कही थी, मेरा रिश्ता ही अभी क्या है? फिर आप ही बताइए मैं किस रिश्ते से आप से मदद ले सकती हूँ?"

असलम:"बेटी रिश्ते का क्या है? खून के रिश्ते ही तो सिर्फ़ रिश्ते नही होते ना? अगर तुम बुरा ना मानो तो मैं चाहूँगा के कल को तुम हमारे घर दुल्हन बन के आओ. बोलो अब क्या ये रिश्ता तुम्हे कबूल है?" मोना को तो ऐसे जवाब की तवको ही नही की थी. ये सुन कर उसका चेहरा शरम से टमाटर की तरहा लाल हो गया. उसके चेरे पे ये शरम असलम साहब ने भी फॉरन महसूस की और उन्हे बहुत अछी लगी. एक बार फिर उन्हे अपनी मरहूम धरम पत्नी की याद आ गयी. "आज अगर वो ज़िंदा होती तो उसने भी कितनी खुश होना था?" वो सौचने लगे. बड़ी मुस्किल से मोना उन्हे जवाब दे पाई

मोना:"जी." इसी दौरान किरण भी चाइ और पकोडे ले कर आ गयी.

असलम:"बेटी इस की क्या ज़रूरत थी?"

किरण:"अंकल मुझे तो बुरा लग रहा है के आप पहली बार आए और मैं कुछ ज़्यादा नही कर पाई. अगर पता होता के आप आ रहे हैं तो पहले से ही तैयारी शुरू कर देते."

असलम:"नही नही ये भी बहुत ज़्यादा है. वैसे किरण बेटी अगर आप बुरा ना मानो तो आप से एक गुज़ारिश कर सकता हूँ?"

किरण:"अंकल गुज़ारिश कैसी? आप बेटी समझ कर हूकम दीजिए."

असलम:"जीतो रहो बेटी. तुम ने ये बात कह कर साबित कर दिया के जो मैने जैसा तुम्हारे बारे मे सौचा है वो ठीक है. वैसे तो मैं मोना के लिए अछी से अछी रहने के लिए जगह का इंटेज़ाम कर सकता हूँ पर एक अकेली लड़की को देल्ही जैसे शहर मे सर छुपाने के लिए छत से ज़्यादा ज़रूरत ऐसे साथ की होती है जो उस पे बुराई का साया भी ना पड़ने दे. फिर आप तो उसकी दोस्त भी हो. अगर आप बुरा ना मानो तो क्या मोना यहाँ आप के साथ रह सकती है?"

किरण:"अंकल मोना मेरे लिए मेरी बेहन की तरहा है. मुझे तो खुशी होगी अगर वो यहाँ मेरे साथ रहे तो."

असलम:"बेटी अब जो मैं कहने जा रहा हूँ उम्मीद है आप उसका बुरा नही मनाओगी. आप के घर आने से पहले मे आप के बारे मैने थोड़ी बहुत पूछ ताछ की थी. आप के पिता के देहांत का जान कर बहुत दुख हुआ. ये भी पता चला के आप के यहा कोई हाउस गेस्ट रहते हैं. मैं समझ सकता हूँ के आप के लिए घर का गुज़ारा चलाना कितना मुस्किल होता होगा. बेटी अब मोना आप के घर पे हमारी अमानत के तोर पे रहेगी. इस दुनिया के जितने मुँह हैं उतनी बाते करते हैं. मैं चाहता हूँ के आप उस करायेदार को यहाँ से रवाना कर दें. रही आप के खर्चे की बात तो आज से उसका ज़िम्मा मेरा है. अभी आप ये रख लो और हर महीने मैं खर्चा पहुचा दिया करूँगा. अगर किसी और चीज़ की ज़रोरत पड़े तो बिलाझीजक मुझे फोन कर दीजिए गा. ये मेरा कार्ड भी साथ मे है." ये कहते हुए असलम सहाब ने नोटो की एक बड़ी गड़डी निकाल के अपने कार्ड समेत किरण को थमा दी. नोटो को देखते ही किरण की आँखे चमक उठी और साथ मे उनके खर्चा उठाने का सुन वो बहुत खुश हो गयी. आख़िर किसी तरहा से उस मनोज से जान छुड़ाने का मौका तो मिला.
 
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