Desi Sex Kahani जलन - Page 6 - SexBaba
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"यूं ही, आपकी खिदमत करने की ख्वाहिश हो आई। ये हैं मेरे दिली दोस्त कमर! इन्होंने अभी तक आपको देखा नहीं था।"

इतने में ही गुलाम ने भीतर प्रवेश किया और कोर्निश करते हुए कहा—"वजीर आ रहे है

.. “वजीर?...यहां कैसे?" कमर ने आश्चर्य के साथ कहा—"दोस्त! तुम उससे निपटो। मैं जाता हूं।"

"आखिर तुम वजीर से कब तक डरते रहोगे? बैठे रहो।"- परवेज ने कहा।

तब तक वजीर भी आ गया। पहले उसने मेहर को, फिर शहजादे को देखा और कोर्निश की तथा बैठ गया।

एकाएक उसकी निगाह कमर पर आ पड़ी

वह चौंक पड]T, मगर उसने अपने दिल को सम्हाल लिया—“फिर उसने कमर की मुखाकृति देखी— आप कौन है।?" वजीर ने शहजादे से पूछा।

"ये मेरे दोस्त है।।" परवेज ने कहा।

"ओह !" वजीर आश्चर्य से बोला- आपकी सूरत हमारी मल्काये-आलम से बहुत मिलती-जुलती है। खुदा का कहर ! कौन जाने वे किस हालत में होंगी?"

"तुम्हारा ख्याल गलत है वजीर! उन्हें तो जंगली जानवरों ने चीर फाड़ कर पेट के हवाले कर लिया होगा...।" परवेज ने कहा।

वजीर ने थोडा -सा उठकर कोर्निश की मानो उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली हो।

अब वह मेहर की तरफ मुखातिब हुआ। बोला— शहंशाह अभी तक ख्वाबगाह से बाहर नहीं निकले हैं। पता नहीं, उनकी तबीयत कैसी है?" ___

*रात में तो तबीयत ठीक थी।" और मैहर की मुखाकृति पर चिंता की अनेक रेखाएं उभर आईं। शीघ्रता से वह वहां से चली गईं।

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ज्योंही ख्वाबगाह में उसने प्रवेश किया, उसने देखा-सुलतान तकिये में मुंह छिपाये पलंग पर लेटे हैं। सिसकने की आवाज आ रही है। उनकी यह हालत देखते ही मेहर का कलेजा मुंह को आ गया।

उफ्फ्, कैसे वह इस अभागे सुलतान की प्यास बुझाये?

वह धीरे-धीरे आगे बढ़ | आई और सुलतान के बगल में बैठ गई। सुलतान ने आंसुओं से भीगा हुआ मुंह ऊपर उठाया। उनकी हालत देखते ही मेहर रो पड - मेरे आका...।"

"मेहर! मैं प्यासा हूं।" सुलतान के गले से करुण आवाज निकली। मेहर उठी। रत्नजडित प्याले में चांदी की सुराही से पानी उड लकर सुलतान के सामने आई।

"यह क्या? पानी।" सुलतासन हंस पड]-"मेरी प्यास इस ठण्डे पानी से नहीं बुझेगी, मेहर! उसके लिए तो।"

मेहर सुलतान के पास बैठ गईं। सुलतान की गरदन में हाथ डालते हुए बोली— मेरे आका! अपनी हालत पर रहम कीजिये।"

"तुम अपनी हालत तो देखो मेहर!"

"मेरी किस्मत में यही लिखा है, शहंशाह!"

"मालूम पड़ता है तुम मुझसे आजिज आ गई हो। जब मेरे पास आती हो, तब तुम्हारे चेहरे पर मुर्दनी-सी छा जाती है। लगता है, जैसे तुम्हारे दिल में जरूर कोई तकलीफ है जरूर कोई जलन है—मगर तुम मुझसे बताना नहीं चाहती। मेहर...! अगर तुम यहां से ऊब गई हो तो बोलो, तुम्हें, फिर से तुम्हारे अब्बा के पास भेज दूं। मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करूंगा
-चाहे तडप-तड़पकर मर ही क्यों न जाऊं।"

"जब से तुम आई हो, मैंने एक दिन भी तुम्हारे चेहरे पर खुशी नहीं देखी। डाकुओं के गिरोह में हम-तुम कितनी खशी के साथ मिला करते थे? उस वक्त मेरी प्यास न बुझी-और अब तुमको पाकर भी प्यासा ही रहूं, तो जिंदगी भर प्यासा रह जाऊंगा। या खुदा। कैसा नसीब पाया है, मैंने।" कहते-कहते सुलतान निढाल होकर पलंग पर गिर पड़ा ।

मेहर घबरा उठी। उसने सुलतान के सिर को अपनी गेंद में ले लिया और आंचल से हवा करने लगी।

आज सुबह से ही सुलतान आखेट को गये हुए थे। मेहर पलंग पर पड -पड अपनी आंतरिक व्यथा से करवट बदल रही थी। भयानक मानसिक चिंताएं उसके हृदय को व्यथित कर रही थीं।

सुबह से दोपहर हुई, संध्या हुई—परंतु मेहर ने अभी तक एक भी दाना मुंह में न रखा था। वह चिंतातुर अवस्था में पलंग पर लेटी रही।

कुछ खटका हुआ। मेहर ने सिर उठाकर देखा और चौंक पड़ी ।

दरवाजे पर जहूर खडा था। मेहर आश्चर्यमिश्रित मुद्रा में उठकर खड़ा हो गईं "जहूर, तुम यहां?”

"हां, मुहब्बत मुझे यहां तक खींच लाई है।"

"मुहब्बत! मुहब्बत! मुहब्बत!" मेहर विवश एवं शिथिल स्वर में बडबड उठी। जहूर को देखकर उसकी जलन तीव्रतर हो गई थी।

"अपने दिल से लाचार हूं मेहर, तुम क्या अब भी मुझसे खुश न हुई। क्यों इतना जुल्म ढा रही हो? खुदा से तो डरो।"
 
"जाओ, तुम चले जाओ जहूर! तुम क्यों मुझे तडपाने के लिए, मुझे जलाने के लिए यहाँ आये हो जाओ, खड क्यों हो? या खुदा किस मनहूस घडी में तुम्हारा-हमारा साथ हुआ था? जाओ, चले जाओ यहाँ से। मैं तुमसे नफरत करती हूं।"

"नफरत करती हो?" जहूर ने आगे बढ़ कर, मेहर का हाथ पकड लिया।

मेहर के पैर उस समय कांप रहे थे। उसका सारा शरीर सुन्न-सा होता जा रहा था।

जहर कहता गया—अपने दिल से पछो मेहर कि तुम मुझसे नफरत करती हो या मुहब्बत! सूरत देखो अपनी! तुम्हारी सूरत कह रही है कि तुम्हें मुझसे मुहब्बत है।"

“जहूर! खुदा के लिए चुप रहो, नहीं तो।" वाक्य पूरा करने के पूर्व ही उसका मस्तिष्क चकरा गया।

जहूर ने आगे बढ़ कर गिरती मेहर को अपनी बांहों में सम्हाल लिया। बोला— "मेहर ! बोलो, तुम मुझे मुहब्बत करती हो या नहीं?"

इसी समय बाहर मधुर स्वर में कोई गा उठा
हाय, क्या पूछते हो दर्द किधर होता है! एक जगह हो तो बताऊं कि किधर होता है!

बेचारा कादिर ! डाकुओं के गिरोह का वहीं गायक कादिर, आजकल अपने दर्द भरे गाने गाता हुआ इधर-उधर, फिर रहा था। जब सुलतान गिरोह से चले आये तो कादिर का दिल भी वहां न लगा।

अवसर देखते ही एक दिन वह भाग खडा हुआ। इसी बीच वह एक दिन छिपता हुआ गिरोह तक आ गया था मेहर से मिलने के लिए, मगर उसे पता चला कि मेहर भी यहां से चली गई है। तब से वह दरबदर गाने गाता हुआ घूम रहा था-सुलतान और मेहर की खोज में घूमता-घामता वह आज इधर आ निकला था। ___

"हैं, यह तो कादिर की आवाज है। आश्चर्य एवं कुछ प्रसन्न होकर मेहर बोली-"कोई बुलाओ उसे? ओह ! कोई भी नहीं है जिसे भेज सकू। खुदा भी मुझसे मजाक कर रहा है। कोई बुलाओ उसे...उसे बुलाओ।" मेहर की सांस जोरों से चलने लगी।

"वह बहुत दूर निकल गया, मैहर !, फिर मैं उसे बुलाने जाऊं तो कैसे जाऊं? छिपकर जो यहां आया हूं।" जहूर ने कहा।

मेहर के हृदय में इस समय भयानक द्वन्दु मचा हुआ था।
वह बोली- सच कहूं जहूर! मैं तुम्हें चाहती हूं, मुझे तुमसे मुहब्बत है—और मुझे सुलतान से भी मुहब्बत है।

“क्या कहा? दोनों के साथ मुहब्बत?" जहूर आश्चर्य के साथ बोला।

"हां, जहूर! आज सब राज तुम पर खोल दूंगी! मैं तुम्हें चाहती हूं, सुलतान को भी चाहती हूं

। जहूर ने एक ठण्डी सांस ली—“भला, दो शख्स को कोई एक-सी मुहब्बत कर सकता है, मेहर?"

मेहर बोली_*मेरे बदन का खुन क्यों पानी हुआ जा रहा है, इसका सबब मेरे दिल से पूछो—मेरी सूरत से पूछो। मेरे दिल में मुहब्बत की जलन है—मगर यह मुहब्बत बड़ी खौफनाक है। जाओ. मझे ज्यादा दर्द न दो। इस जिंदगी में तुम मझे नहीं पा सकते...हा! नहीं पा सकते।" मेहर की हालत बदतर होती जा रही थी— जाओ? जाते क्यों नहीं? में तुम्हारी नहीं हो सकती, मैं सुलतान की हूं, सुलतान की! मैं सुलतान को चाहती हूं, तुमसे नफरत करती हूं तुम जाओ।"

"ऐसा न कहो मेहर ! मेरा कलेजा टुकड-टुकड हुआ जा रहा है, मैं तुम्हें नहीं छोडगे। आओ, हम तुम कहीं भाग चलें।"

__ "भाग चलूं? तुम्हारे साथ ? जान से अजीज सुलतान को तडपता हुआ छोडकर? — यह गैर-मुमकिन है, जहूर ! अपने लिए मैं सुलतान की तकलीफ नहीं दे सकती। तुमसे ज्यादा वे मुझे चाहते हैं। जाओ तुम, मैं यूं ही जलूंगी—मगर सुलतान को तकलीफ न दूंगी।"
 
"मेहर!।" कहते हुए जहूर ने मेहर को अपने अंक में कस लिया। मेहर का शरीर उस समय शिथिल हो गया था।

बातचीत का सिलसिला कुछ ऐसा रंग लाया कि किसी को आस-पास की सुध ही न रही।

जहर और मेहर दोनों किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि दाहिनी ओर की दीवाल का एक हिस्सा धीरे से खुल गया है और छिपे दरवाजे पर स्वयं सुलतान काशगर खड़े खड़े उनकी सारी कारगुजारी देख रहे हैं।

"समझा !" सुलतान के मुंह से गम्भीर आवाज निकली।

मेहर और जहूर चौंककर उठ खड़े खड़े हुए। दोनों थर-थर कांपने लगे। जहूर ने सुलतान को कोर्निश की और मेहर ने भी।। ___

“समझा !"कहते हुए सुलतान पलंग पर बैठ गये—“मेहर ! आज तुम्हारा दर्द समझ चुका हूं मैं—" सुलतान का दिल बैठता जा रहा था—"तुमने मुझसे राजे-मुहब्बत छिपाने की कोशिश की थी, मगर आज मैं सब कुछ जान गया।" सुलतान जहूर की ओर अभिमुख होकर बोले-"खुशकिस्मत नौजवान! तुझे मेहर चाहती है—मगर मेहर! तुमने मुझसे ऐसा छल क्यों किया?"

"मेरे आका!" - मेहर चीख पड़ी __“ऐसा अल्फाज मुंह से न निकालिए।"

"मेहर! मैं बहुत खुश हं! बहुत खुश हं मैं! आज मेरे दिल का बोझ हल्का हो गया। जब तुम दोनों एक होकर आराम की जिंदगी बसर करो—मैं प्यासा ही ठीक है मेहर! किसी कदर अपनी मायूस जिंदगी की घडियां काट लूंगा।" ____

"मेरे आका! मेरे मालिक!।" मेहर ने सुलतान को अपनी फूल-सी बांहों में जकड। लिया—"ऐसा न कहिए मेरे मालिक! आप मुझे समझने में भूल कर रहे हैं—मैं आपको चाहती हूं—हमेशा चाहती रहूंगी-मगर मैं अपने दिल से मजबूर हूं । उफ ! फकीर के वे खौफनाक अल्फाज? या खुदा? या इलाही।"

मेहर की जकड़ ढीली हो गई। सुलतान ने मेहर को पकड़ लिया, नहीं तो वह बेहोश होकर गिर जाती। "मेहर!" पुकारा सुलतान ने।

"मेरे आका?" मेहर ने अपना भर्राया हुआ मुंह ऊपर उठाया— इस गुलाम को अभी यहां से चले जाने का हुक्म दीजिए।"

“जहूर! जाओ।तुम यहां से अभी चले जाओ।"

जहूर धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गया। सुलतान बोले—“

मैं तुम्हें अभी तक समझ न सका, मेहर! तुम जाने कैसी औरत हो— औरत हो या पहेली?" __

"शहंशाह ! मेरी तरफ से कोई बुरा ख्याल दिल में न लाइये। मैं गरीब हूं, आपको मायूस देखकर मैं मर जाऊंगी मेरे मालिक!" मेहर ने सुलतान के वक्ष पर अपना सिर रख दिया।
 
"शहंशाह ! मेरी तरफ से कोई बुरा ख्याल दिल में न लाइये। मैं गरीब हूं, आपको मायूस देखकर मैं मर जाऊंगी मेरे मालिक!" मेहर ने सुलतान के वक्ष पर अपना सिर रख दिया।

और सुलतान ने उसे अपने अंक में समेट लिया। दो आत्मा दो शरीर मिलकर एक हो गये, परंतु इस मय भी मेरा का हृदय जल रहा था।

तुम्हारे दिल में न जाने क्या दर्द है, मेहर!" सुलतान बोले- अगर मैं जान पाता तो दर्द को रफा करने के लिए जमीन-आसमान एक कर देता, मगर तुम्हारी खामोशी मुझे गर्क दरिया कर देगी। मेहर! मेरे दिल की मल्का! अगर तुम्हें अपने ऊपर तरस नहीं आता, तो कम-से-कम मेरी हालत पर रहम करो। खुदा के लिए तुम अपना राजे-दर्द मुझे बता दो।" ____

“जान से अजीज सुलतान! आप मुझ नाचीज के लिए क्यों इस कदर मायूसी के शिकार बनते हैं? मुझ जैसी गरीब बांदियां तो आपके दरें-दौलत पर रोज-ब-रोज आया करती हैं फिर क्यों मेरे लिए इतना परेशान होते हैं ?"मेहर ने कहा।

सुलतान ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। बोले-"मेहर! तुम बांदी हो और मैं सुलतान, मैं यह जानता हूं, मगर दिल तो सिर्फ मुहब्बत देखता है। मेरी निगाह में, मेरे दिल में —तुम्हारे लिए मल्का से भी अधिक इज्जत है।" ___

"फजल है खुदा का शहंशाह ! कि आप मुझ नाचीज के लिए इस कदर हमदर्दी रखते हैं! काश! मैं भी आपको खुश रख सकती?" इतना कहकर मेहर ने एक ठण्डी सांस ली।

सुलतान बोले- मेहर! तुम अपने दिल को सम्भालने की कोशिश करो। मेरी ओर देखो। मैं बदकिस्मत सुलतान अभी तक प्यासा ही है। इतनी सब ऐश की चीजें रहते हुए भी मैं तुम्हारी शमये-सूरत का परवाना बना हुआ हूं, मगर तुम तो जब से यहां आई हो, बराबर मेरी परेशानी ही बढ़ी है, इसे क्या कहूं, खुदा की मरजी ही तो कहना पड़े गा!"
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चौदह

मेहर की अवस्था में कोई परिवर्तन न हुआ।

मेहर जानती थी कि वह जहर को भी चाहती है और सुलतान को भी—इन दोनों की मुहब्बत ने उसे परेशान कर रखा है। इसके अतिरिक्त और बहुत-सी बातें उसके मस्तिष्क में चक्कर काट रही थीं।

रात को सुलतान और मेहर पास सोते थे, परंतु दोनों के दिलों की अवस्था दो दिशाओं की ओर प्रवाहित होती रहती थी।
कभी-कभी अर्धरात्रि के समय मेहर की निद्रा भंग हो जाती और उसका हृदय इतना विचलित हो उठता था कि वह उद्विग्न हो जाती। कभी-कभी वह अपनी अंगुलियों में पड़ी _ हई बहमूल्य हीरे की अंगूठी की ओर देखती और सोचती कि इसी के द्वारा अपने भाग्यहीन जीवन का अंत क्यों न कर दे? परंतु सुलतान का मुंह देखते ही वह अपना विचार बदल देती।
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"आज की रात हमारे काम के लिए बेहतरीन है, मेरे दोस्त!" कमर ने शहजादा परवेज से कहा- यह देखो काली अंधियारी रात, आसमान में बादल के बड़-बड़ टुकड़, जोरों से बहती हवा की खौफनाक सनसनाहट!–ये सब चीजें हमें मंजिलें-मकसूद तक पहुंचाने में मदद देंगी। आज अपने इन्हीं हाथों से सुलतान से बदला लूंगा-खून करूंगा।" कमर की एक राक्षसी हंसी ने प्रकोष्ठ की दीवारों तक को प्रकम्पित कर दिया।

"कमर! मैं तुमसे बहुत बार कह चुका हूं कि अब तुममें मेरी जरा भी दिलचस्पी न रहीं। अगर तुमने भाईजान की जिंदगी का खौफनाक हमला करने का इरादा किया, तो तुम्हारे हक में ठीक न होगा।" परवेज ने कहा। इस समय उसकी मुखाकृति पर क्रोध की आभा झलक रही थी।

__ "क्या कहा? ठीक नहीं होगा? तुम अपने आपको भूले जा रहे हो शहजादे! होश की दवा करो। तुम्हारी सारी इज्जत व हर्मत इस वक्त मेरे हाथ में है। अगर तुमने मेरे रास्ते में पड़ने की कोशिश की, तो इसका अंजाम अच्छा न होगा।"

"कमर! तुम अन्धे बनते जा रहे हो। तुम भूल गये हो कि मैंने ही डूबते हुए को तिनके का सहारा दिया था। तुम्हें शाही सजा मिली थी, मगर मैंने ही हुक्म-उली कर तुम्हारी जान बचाई थी और इस महल में तुम्हें पनाह दी थी। तुमने यहां आकर मुझ पर न जाने कैसा जादू कर दिया कि मेरा पाक दिल नापाक हो गया। तुमने भाई से बगावत कराई और न जाने क्या-क्या कराया, मगर अब मैं होश में आ गया हूं। यह देखो मेरी तलवार।" शहजादे ने अपनी तलवार खींच ली और दौडकर कमर की गर्दन पकड ली। ___

"भल जाओ शहजादे ! उस दस्तावेज की बात? अगर वह कहीं सुलतान के हाथों में पहंच जाये? तो तुम्हारी इज्जत क्या सुलतान के सामने वही बनी रहेगी? तब क्या तुम अपनी जान की खैर मना सकते हो...मगर याद रखो! यह दस्तावेज एक ऐसे आदमी के पास है, जो मेरी मौत की खबर सुनते ही उसे सुलतान के सामने पेश कर देगा। उस वक्त तुम्हारी जो हालत होगी, वह तुम खुद समझ सकते हो!"

“या खुदा ! जरा-सी गलती कहर मचा सकती है, यह मैं नहीं जानता था!"

शहजादे ने अपना सिर पकड लिया! उसके हाथ की तलवार छूटकर जमीन पर गिर पड़ी

कमर कहता गया—“नादान न बनो शहजादे ! सुलतान को नेस्तनाबूद करने में मेरी ही भलाई नहीं, तुम्हारी भी भलाई है..दिल को सम्हालो। यह देखो-बजीर चला आ रहा है चेहरा कुछ तमतमाया हुआ-सा है, मैं चला, तुम होशियारी से निपट लेना।" कमर चला गया।

वजीर ने आकर शहजादे को अभिवादन किया, फिर कहने लगा—“गुस्ताखी माफ कीजियेगा शहजादे साहब! मुझे खुफिया तौर से पता चला है कि मल्काये आलम, जिन्हें शहंशाह ने शहर-बदर करने का हुक्म दिया था, अभी तक आपके महल में मौजूद हैं।"

यह बात सुनते ही शहजादा कांप उठा। उसने भयभीत नेत्रों से वजीर की ओर देखा। उस समय वीर की मुखाकृति गम्भीर थीं, परंतु आंखों में क्रोध की लाली थी। अपने चेहरे पर आने वाली घबराहट को छिपाते हुए शहजादा बोला—“वजीर यह क्या कह रहे हो तुम?"

"ठीक कह रहा हूं, शहजादे साहब! मेरे खुफियों की बातें गलत नहीं होती। मुझे पूरा यकीन है कि मल्काये-आलम को आपने छिपा रखा है और दोनों आदमी मिलकर, फिर सुलतान की जान लेने की कोशिश में हैं।

"वजीर...!" शहजादा क्रोधपूर्वक मुद्रा बनाकर बोला।

"गुस्सा न कीजिये शहजादा साहब! असली बात छिपाने की कोशिश फिजूल है। बुड्ढे की नजर से आपकी कोई हरकत छिपी नहीं है। मैं सब कुछ जान चुका हूं शहजादे साहब! मैं आपको यह भी बता दूं कि उस दिन जुलूस में सुलतान की जान पर खौफनाक हमले में खुद आपका ही हाथ था।"

"मेरा हाथ?" शहजादा गरज पड़ाI

वजीर ने कोर्निश की—"शहजादे साहब को मालूम हो कि मैं यह भी जान चुका हूं कि यह कमर कौन है ?"
"सब कुछ जानते हुए भी मैं अब तक खामोश था—सिर्फ इसलिए कि शाहंशाह तक यह सभी नापाक बातें न पहुंचें, नहीं तो सुनकर वे खुदकुशी कर लेंगे।"

"तुम वजीर हो या शैतान?" शहजादे के मुंह से एकाएक निकल पडITI

"इतनी बडी सल्तनत का काम देखना शैतान का ही काम है. शहजादे साहब!" कहकर वजीर ठहाका मारकर हंस पड़ा— आखिरी बार दरखास्त करता हूं कि आप लोग बंद इरादों से बाज आयें।"
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पंद्रह
मेहर ने अन्दर आते हुए सुलतान की ओर देखा।
उसे महान आश्चर्य हुआ यह देखकर कि आज सुलतान के मुख मण्डल पर तेज की आभा झलक रही है। सारा दुख सारी जलन आज उनसे दूर थीं।

सुलतान प्रसन्नचित्त हंसते हुए मसनद के सहारे पलंग पर बैठ गये और बोले- *मैहर...! आज मैं न जाने क्यों बहुत खुश हूं।"

"फजल है खुदा का, मेरे सरताज!" मेहर ने कहा-और आकर सुलतान के पास बैठ गयी।

सुलतान बोले—“मगर तुम अभी खुश न हो सकी, मल्लिका मुअज्जमा! उठो! आज मुझे इन नाजुक हाथों से थोड-सा शरबते-अनार पिला दो...।"

मेहर को बहुत आश्चर्य हो रहा था कि आज सुलतान इतने खुश क्यों हैं? शराब! जिसे छूने से भी उन्हें नफरत हो गयी थी, उसे आज पीने की क्यों ख्वाहिश कर उठे हैं। उसका मन आशंका से भर उठा। अत्यंत नम्र स्वर में वह बोली-*शराब न पीये मेरे मालिक!"

“शराब न पियू।न पियू। कतई नहीं ! नहीं, मैं जरूर पियूँगा! उठो मेहर!"

सुलतान के आग्रह करने पर मेहर उठी और प्याला भरकर सुलतान को पिलाने लगी। कई प्याले खाली हो गये। सुलतान पर धीरे-धीरे शराब का नशा चढने लगा __ "तुम...तुम भी मेहर! अजीब औरत हो, खुदा की दी हुई इतनी खूबसूरती को बेकार बरबाद कर रही हो—मैं प्यासा हूं मेहर ! और तुम? तुम्हारे हाथ में पानी है, मगर मुझे पिलाना नहीं चाहती...मगर...मगर वह कौन है?...कौन हाथ में में बन्दक ताने खडा है?"

“कहां? कहां, मेरे आका?" मेहर चौंक पड़ी ।

"ओह भाग गया वह ! बुजदिल कहीं का! अपनी बन्दूक से मेरे सीने को छेद क्यों नहीं दिया कि मैं हमेशा के लिए अपनी प्यास को लिये हुए सो जाता—सारी जलन मिट जाती और यह क्या? यह आग कैसी? मेहर! देखो तो, यह आग किधर लगी है।" ___

“कहां है आग, मेरे अजीज!" मेहर को सुलतान की अवस्था बिगडती हुई मालूम पड़ी ।

"तम नहीं देख रही हो आग? यह देखो....!" कहकर सुलतान ने अपने सीने पर का कपडा चीर-फाड दिया— देखो! आग यहां है, मेरे दिल में ।और मुंह रट रहा है प्यास! प्यास!"

__ "बिस्तर पर आराम फरमाइये मेरे आका!" मेहर ने सुलतान को पलंग पर लिटा दिया।

सुलतान बोले- तुम मेरे पास ही बैठो, मेहर! तुझे डर लग रहा है। चारों ओर डरावनी सूरतें नजर आ रही हैं। तुम कहीं न जाओ। मुझे अपना बना लो। यह क्या? नदी! उफ! बचाओ! बचाओ!! नदी भयानक तेजी से मेरी ओर बढी आ रही है।"

"नहीं, कहीं नहीं, मेरे मालिक!"

“नदी बढी आ रही है—तुम उसे नहीं देख सकती। यह यह देखो।" सुलतान ने मेहर के शरीर पर हाथ रख दिया- यह नदी है—हां मेहर! तुम्हारा शरीर ही नदी है, तालाब है और मैं हं प्यासा?-आओ मेरी प्यास बुझा दो—मैं प्यासा हूं—प्यास बेहद लगी है मुझे।" कहते हुए सुलतान ने मेहर को अपने अंकपाश में कस लिया। __ अर्द्धरात्रि अपना भयानक रूप लेकर आई। बादल गरज रहे थे। हवा जोर से बह रही थी। बिजली रह-रहकर चमक उठती थी। मालूम होता था कि आकाश फट बढगा -प्रलय हो जाएगा।

सुलतान नशे के झोंके में मेहर को अपने वक्षस्थल से लगाये निद्रा में मग्न थे। मेहर भी विभोर होकर वक्ष से चिपटी थी।

बाहर बिजली जोर से कडकी -मेहर का सारा बदन कांप उठा। नींद उचट गई। उसका हृदय न जाने क्यों हाहाकार कर उठा।
उफ? यह बादलों की गरज, यह बिजली की चमक, यह हवा की सनसनाहट ! कितनी दशहत पैदा कर रही है!

ओह! अगर आज वह अपने बचपन वाले खशनुमा जंगल के पास होती तो क्या डर जाती। नहीं, ऐसा नजारा देखकर वह खुशी से पागल हो उठती। पानी बरसता, मोर नाचते और पपीहा बोलता-पी कहाँ, पी कहा तो वह भी चकोर बनकर अपने प्रियतम की खोज करती—क्या मजा आता!

मेहर ने धीरे-धीरे अपने को सुलतान के बहुओं से छुड़ाया और पलंग से उतरकर खिडकी के पास चली आई।

बाहर अंधकार छाया हुआ था। अभी बूंदें नहीं पड़ रही थीं, परंतु मालूम होता था कि शीघ्र ही वर्षा होने वाली है।

मेहर के हृदय में भयंकर जलन होने लगी। उसे लगा, जैसे उसके बदन में आग लग गईं है, उसका दम घुटा जा रहा है और यदि वह जल्दी ही भाग न गई तो हमेशा के लिए यहीं कैद रह जायेगी।

नियति का चक्र तेजी से घूम रहा था।

मेहर का दम घुटने लगा— अब मैं नहीं रह सकती—नहीं रह सकती इस जेलखाने में मैं भाग जाऊंगी।"

मेहर दरवाजे की ओर बढ़ी । आहिस्ते से दरवाजा खोलकर वह बाहर निकल आई। कमरे में घोर सन्नाटा छा गया। अन्धेरी रात में दूर कोई उल्लू अपनी कर्कश आवाज में चीख उठा।

“बचाओ! बचाओ मेहर ! मुझे बचाओ...।" सुलतान ने भी चीख मारकर आंखें खोली।

अभी तक उन पर शराब का नशा विद्यमान था—"मुझे छोडकर तुम नहीं जा सकती—मैं मर जाऊंगा—पकडो वह भागी जा रही है।
सुलतान पलंग पर से हड बड़ा कर उठे और दरवाजे की ओर झपटे।
 
उसी समय दौडते हुए किसी व्यक्ति के आने की आहट सुनाई पड़ी और दूसरे ही क्षण बुड्डा वजीर हांफता हुआ सुलतान के सामने आकर खड हो गया— आप कहां जा रहे हैं? कहां जा रहे हैं आप?"

"हटो रास्ते से। मुझे जाने दो, वह भागी जा रही है।"

"मगर शहंशाह ! आप बाहर न जायें, खतरा है। आपकी जान जाने की साजिश की गई

“तुम रोको मत—मेरी जिंदगी और मौत का सवाल है, जाने दो मुझे।"

"नहीं जाने दंगा आपको! शहजादे और कमर ने मिलकर साजिश की है, मैं आपको बचाने के लिए दौड़ा चला आ रहा हूं।"

"तुम झूठे हो-हटो मेरे रास्ते से।"

सुलतान ने बुड्ढे वजीर को अलग ढकेल दिया और स्वयं दौडते हुए अंधेरे में बढ़ते गये। विद्युत प्रकाश में उन्हें कुछ दूर पर जाती हुई एक स्त्री जैसी आकृति दिखाई पडी , वे उसी ओर दौड़ा

"सिपहसालार! शहंशाह की जान लेने की साजिश की गई है। परवेज और कमर अपने महल से बाहर हैं। सुलतान भी मेहर के पीछे बाहर निकले हैं। खुदा ही खैर करे। तुम सिपाहियों को लेकर महल के आस-पास फैल जाओ। परवेज, कमर, मेहर या सुलतान इनमें से जो भी मिले, उन्हें रोक लेना, जाओ।" वजीर ने कहा।

सिपहसालार ने वजीर को कोर्निश की।
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सुलतान दौडते हुए उस औरत के पास आ पहुंचे। वह मैहर ही थी।

सुलतान मेहर को अपने बाहुपाश में आबद्ध कर हांफते हुए बोले-मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगा—तुम्हारे चले जाने से में मर जाऊंगा, तुम न जाओ मेहर! न जाओ!"

“शहंशाह !" - मेहर ने सिसकते हुए सुलतान के वक्षस्थल पर अपना सिर रख दिया।

उसी समय दूर पर कुछ खट-खट का शब्द सुनाई पड। सुलतान मेहर को छोड कर उस और बढ़ चले, कदाचित् इस बात का पता लगाने के लिए कि यह किस तरह की आवाज़ है

कुछ दूर पर सुलतान को कुछ आदमियों की धुंधली छाया दीख पड़ी ।

उसी समय धाय-धाय बन्दूक छूटने की आवाज गूंज उठी। सुलतान ने अपना कलेजा थाम लिया। वे चक्कर खाकर भूमि पर गिर पड़े । उनके मुख से निकली हुई करुण चीत्कार चारों ओर प्रतिध्वनित हो उठी। झपटती हुई मेहर सुलतान के पास आई। उसने देखा सुलतान के कलेजे से खून का फव्वारा छूट रहा है। ___

“सुलतान! शहंशाह !" मेहर पछाड। खाकर गिर पड़ी क्या हआ आपको? यह किस जालिम का काम है? किसने मेरी दुनिया उजाड दी?" मेहर जोरों से रो पड़ी ।

उसने जमीन पर पड सुलतान के सिर को अपनी गोद में रख लिया।

सुलतान के शिथिल मुख से सिर्फ इतना ही निकला—"मेहर अब मैं चला।

"या अल्लाह ! मैं कहीं की न रही, मेरे आका! मेरे मालिक!" मेहर सुलतान के शरीर से लिपट गईं।

उसी समय अंधकार को चीरता हुआ एक मनुष्य वहां आ खडा हुआ। मेहर ने उसे पहचाना। वह जहूर था।

"जहर! तुम यहाँ !" मेहर बोली- तो क्या यह तुम्हारा ही काम है? क्या तुम्हीं ने मेरी मुहब्बत पाने के लिए इस फरिश्ते को अपनी बन्दूक का निशाना बनाया है, इतने हैवान बन गये तुम? मेरी दुनिया उजाडते हुए तुम्हारा कलेजा टुकड-टुकड़ नहीं हो गया।"

"मेहर! यह काम मेरा नहीं है। मैं तो बन्दूक की आवाज सुनकर इधर आ गया हूं।"

"तुम मुझे भुलावे में डाल रहे हो। खुदा तुम्हें गारत करे, जहूर! खुदा तुम पर गजब ढाये, कहर ढाये, हाय मेरे आका!"

"मेरे आका को क्या हुआ?" कहता हुआ बुद्ध वजीर वहां आ पहुंचा। उसके पीछे सिपाहियों से घिरे हुए शहजादा परवेज और कमर थे। वजीर ने उन्हें बंदी बना लिया था।

सुलतान की हालत देखते ही वजीर हाय कर उठा—"मुझे थोडी देर हो गई, इतने ही में इन शैतानों ने शहंशाह की जान ले ली।"

"वजीर! मेरे बुजुर्ग!" शहंशाह के मुख से अस्फुट शब्द निकले।

"शहंशाह !" बेचारा वजीर रो पड़ा —"यह करतूत शहजादे की है।"

"शहजादे की...?" सुलतान की मुखाकृति क्षण-प्रति-क्षीण होती जा रही थी।

"हां, भाईजान ! मैं ही आपका कातिल हूं-मैं ही खूनी हूं।" कहते-कहते शहजादा परवेज रो पड़ा ।

"खूनी यह नहीं, मैं हूं—इधर देखो सुलतान!" कमर गरज उठा। उसके हाथ में अब भी बन्दूक विद्यमान थी—“देखो ! मैं कौन हूँ ?"
कहते हए कमर ने अपना साफा उतारकर जमीन पर फेंक दिया। अन्दर से लम्बे-लम्बे बाल पीठ पर नागिन की तरह लहरा उठे! मुंह पर लगी नकली मुंछ खींच ली।

"कौन? मल्लिका-आलम!"

"हां, वहीं मल्लिका-आलम-जिसे तुमने एक दिन मक्खी की तरह मसलना चाहा था, मगर उसने अपनी चालाकी से तुमसे आज इस तरह इन्तकाम लिया है कि तुम कब्र में भी याद रखोगे।"

"परवेज!"— शहंशाह ने पुकारा। __

भाईजान!" परवेज रो पड़ा, "मुझसे खता हुई और वह खौफनाक खता आपकी जान लेकर ही रही-उफ! मुझे इसी नापाक मल्लिका ने बहकाया-मैंने चुपके से इसे अपने महल में लाकर मर्द का लिबास पहनाया और अपने दोस्त कमर के नाम से मशहूर किया सब कुछ इसी के कहने से किया।" कहकर शहजादे परवेज ने मल्लिका को गर्दन पकड कर दूर ढकेल दिया।

"वजीर! मेरे नादान भाई को सही रास्ते पर लाने की कोशिश करना।” सुलतान बोले ____ मेहर...!" सुलतान की अवस्था अब बदतर होती जा रही थीं।
 
___ "मेहर...!" सुलतान टी-फूटी आवाज में बोले- मैं अब चला। अपनी प्यास, अपनी जलन, अपने साथ ही लिये जा रहा हूं। तुम इतनी सितमगर निकली कि मेरा ख्याल भी न किया। तुम्हारे ही लिए मैं बरबाद हुआ, मगर तुमने मेरी प्यास न बुझाई, फिर भी मुझे गम नहीं है, मेहर! खुश हूं कि आज जिगर की सारी जलन हमेशा के लिए रफा हो जाएगी। अफसोस सिर्फ एक बात का है कि कब्र में तुम्हारी सूरत देखने को न मिलेगी...।" सुलतान का गला फंस गया...मौत के आसार करीब नजर आने लगे—“हो सके तो तुम जहूर को खुश कर देना, मेहर !" ___

"यह क्या कह रहे हैं मेरे आका....!" मेहर ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा- अब यह नामुमकिन है। आप मेरे जिगर में हमेशा के लिए जलन छोड- जा रहे हैं। मैं कहां जाऊंगी? क्या करूंगी मेरे महबूब !" ___

"दिल पर काबू रखो मेहर ! मेरे लिए अफसोस न करो। खुदा को याद करो और जिस तरह तुम्हें खुशी हासिल हो, वही करना। मैं वजीर को कहे जाता हूं कि तुम्हारी हरेक बात पूरी की जाए।" सुलतान को एक हिचकी आई।

दूर से किसी के गाने की आवाज आ रही थी
जिन्दगी भर रह गये प्यासे तुम्हारी चाह पर। हो भला अब भी तो कुछ दे दे खुदा की राह पर।।

हैं! किसकी आवाज है?" गले की आवाज कान में पड़ते ही सुलतान ने एक बार, फिर एक क्षण के लिए आंखें खोली और रुकते स्वर में बोले- कादिर यहां भी आ गया। खुदा का शुक्र—बुलाओ उसे, उसको भी जाते-जाते देख लें। या खुदा...या खुदा।" एकाएक तीन-चार हिचकियां क्रमश: आई और अभागा सुलतान अपनी प्यास लिये हुए इस संसार से चल बसा।

मेहर रो पड़ी __"मेरे आका! मेरे मालिक ! मेरे शहंशाह !"

शहजादा और वजीर ने सुलतान के मृत शरीर को अभिवादन किया।

दूर से घोड़े की टाप उसी ओर आती हुई सुनाई पड़ी और थोडा ही देर में एक घुडसवार वहाँ आकर घोड़े से उतर पड़ा ।

उस पर दृष्टि पडते ही मेहर चौंक पड़ी वह उसका अब्बा अब्दुल्ला था। "अब्बा!" मेहर उठकर बुड़े की ओर बढ़ी ।

"मेरी बेटी!" कहकर वृद्ध अब्दुल्ला ने उसे अपने कलेजे से लगा लिया और हंसती-रोती आंखों से बोला- आज सालों से इसी घोड़े पर दौडता हुआ तेरी खोज कर रहा हूं, बेटी! आज यह सुनकर कि तू सुलतान के महल में है तो इधर आ निकला, मगर यह कौन
अब्दुल्ला की दृष्टि सुलतान पर जा पड़ी _"मुसाफिर!"

"मुसाफिर नहीं, सुलतान काशगर हैं ये अब्बा!"
यह वाक्य जैसे मेहर का कलेजा चीरकर मुख से निकला था।
वृद्ध ने झुककर सुलतान के शव के प्रति सम्मान प्रकट किया।

थोडी देर में सुलतान की दृष्टि जहूर पर जा पड़ी । उसे देखकर वृद्ध की भृकुटी तन गईं। उसकी तलवार म्यान से बाहर हो गईं।

“इसे माफ कर दो अब्बा!" मेहर ने कहा।

"माफ कर दूं? दुश्मन के जहरीले बच्चे को माफ कर दूं?" बूढ IT अब्दुल्ला दांतों से होंठ काटता खड़ा रहा चुपचाप।

"अब्बा!" मेहर बोली-"जब से तुमसे जुदाई हुई, मुझे परेशानी-ही-परेशानी उठानी पड़ी । लाखों मुसीबतों को झेलते-झेलते ऊब गईं हूं। मैं अब, फिर वहीं चलना चाहती हूं वहीं अपने कबीले में। मुझे ले चलो मेरे अब्बा ! मैं यहां रहंगी तो पागल हो जाऊंगी। इन सब चीजों की याददाश्त! यहां रहने पर मेरे दिल की जलन को बढायेंगे। चलो अब्बा, मैं एक पल भी अब नहीं रुकना चाहती...और रुकू भी किसके लिए?"

"मैं बहुत खुश हूं बेटी, चलो!"

मेहर सुलतान के शव के पास आकर बैठ गईं और उनके सिर को अपनी गोद में लेकर बोली- मैं जा रही हूं, मेरे आका! मुझे माफ करना। मैंने सचमुच तुम पर जुल्म ढाया। पानी रहते हुए भी तुम्हें प्यासा रखा। आज तुम्हारे चले जाने पर यह सब बातें मुझे याद आ रही हैं। मैं जा रही हूं, अफसोस और परेशानी लिए जा रही हूं-खौफनाक जंगल में घूमती हुई तुम्हारी याद को ताक्यामत जिन्दा रखूगी, मेरे मालिक!" __मेहर उठी और जहूर के पास आकर बोली- मुझे माफ करना जहूर ! इस जिन्दगी में मैं तुम्हारी न हो सकी—तुम्हारी मुहब्बत का बदला न दे सकी-जा रही हूं, मुझे भूलने की कोशिश करना...।" कहती हुई मेहर अपने अब्बा के साथ घोड़े की ओर बढ़ी ।

दोनों एक ही घोड़े पर चढ गये।

घोड़े पर चढ कर आखिरी बार मेहर ने सुलतान के मुख पर दृष्टि डाली। उसका हृदय हाहाकार कर उठा। सूख गई आंखों से पुन:
जलधारा बह निकली।

बेचारा कादिर, सुलतान और मेहर की खोज में शहर काशगर में घुस रहा था और आज गाता हआ इधर ही आ निकला था, मगर उसे क्या मालूम था कि सुलतान और मेहर यहीं पर मौजूद हैं।

वर्षा होने लगीं। बिजली चमक उठी। कादिर गाता हुआ आ रहा था
रग-रग में सोजे गम है आंसू निकल रहे हैं।
बारिश भी हो रही है और घर भी जल रहे हैं।।

सचमुच उस वक्त मेहर का दिल जल रहा था—उस पर वह बारिश। कितनी खौफनाक! मेहर की आंखों से आंसुओं की धारा अब भी जारी थी। कादिर अभी तक हृदय विदारक स्वर में गा रहा था
आंखों में तेरे आंस.काटों पे जैसे शबनम।
दम भर जिंदगी पर कैसे उछल रहे हैं।।

“मैं जा रही हूं!" मेहर ने सबको सम्बोधित कर कहा।

वजीर और शहजादे आप्रद ने जाती हुई मेहर को सम्मानपूर्वक झुककर अभिवादन किया। भला, जिसे स्वयं सुलतान काशगर इतनी इज्जत देते रहे हों, उसका सम्मान वे क्यों न करते?

उसी समय जोरों की बिजली कडक उठी। मजबूत घोड़े मेहर और उसके अब्बा को लेकर भाग चला। मेहर घूम-घूमकर सुलतान की लाश को तब तक देखती रही, जब तक दूर क्षितिज के पास उसकी छाया विलीन नहीं हो गईं।

मेहर महल को सूना छोड कर अपनी 'जलन' लिये हुए चली गईं। सुलतान की स्थिर आंखों में दो बूंद आंसू दिखाई पड , परंतु वे आंसू की बूंदें नहीं थीं।

कदिर के गाने की आवाज अभी तक आ रही थी "बारिश भी हो रही है और घर भी जल रहे हैं।

कहानी का अन्त
कहानी समाप्त कर चुकने पर मैंने तुरंत के चेहरे की ओर देखा, उसके गाल आंसुओं से भीगे थे। कहानी सुनकर वह सचमुच रो पडी थी।
मैंने अपने दिल की व्यथा इस कहानी में उडेल दी।

तुरन—मेरे दिल की रानी-अपने घर चली गई थी, मेरे दिल में हमेशा के लिए जलन छोड कर।

तुरन से आज तक मेरी भेंट न हुई। मैं उसके लिए दिन-रात तडपता हूं। मुझे मैंटल डिसाइर्ट हो गया है। डॉक्टर ने रम लेने की राय दी है। आजकल रम का पैग चढ़ कर कुर्सी पर बैठा हुआ कागज और कलम से खिलवाड किया करता हूं। मेरी आंखों में रहती है आंसुओं की बूंदें और मेरे सामने छाया रहता है घनघोर अन्धकार! मैं भी तडपते हुए दिल की जलन बुझाने का व्यर्थ प्रयत्न करता हूं।

समाप्त
 
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