Horror Sex Kahani अगिया बेताल - Page 9 - SexBaba
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Horror Sex Kahani अगिया बेताल

ठाकुर ने अपने फौलादी पंजे से मेरी गर्दन दबानी शुरू कर दी थी और मुझे अपना दम घुटता प्रतीत हो रहा था। मैंने जोर से उसकी कलाई काट दी। उसने झटके से एक हाथ हटाया तो दूसरे पर मैंने पूरी शक्ति लगा दी और गर्दन को उसकी पकड़ से मुक्त कर लिया। इस चक्कर में मेरे पांव के बंधन कुछ ढीले पड़ गए। ठाकुर ने अपने को झटके के साथ मुझसे अलग किया और मेरे सिर पर ज़ोरदार ठोकर मारी।

मेरा दिमाग झनझना गया। आंखों के आगे लाल-पीले सितारे नाचने लगे। वह लगातार मुझ पर ठोकर मारता चला गया। एक बार मैंने उसकी टांग पकड़ी और उसे झटका दिया अन्यथा मैं बेसुध हुआ जा रहा था। ठाकुर लहराता हुआ गिरा, परंतु यह मेरा दुर्भाग्य था जो उसने गिरते-गिरते एक बक्सा लुढका दिया और वह मेरी टांगों पर आ गिरा। मेरे मुंह से एक कराह निकली। ऐसा लगा जैसे टांगो की हड्डियां टूट गई है।

मैं दोनों हाथों से बक्सा हटाने का प्रयास करने लगा।

ठाकुर के लिये इतना ही अवसर काफी था।

उसने रिवाल्वर दबोच ली।

उसी क्षण गोली चलने की गूंज से मीनार थरथरा उठा। मैंने घबराकर नेत्र मूंद लिये परंतु यह गोली मुझ पर नहीं चली थी।

मैंने सर्प के फन के चीथड़े उड़ते देखें। सर्प उस वक्त बक्सों पर बैठा था। अब उसका आधा भाग तड़प रहा था और उसमें ऐठन पड़ती जा रही थी। मैंने ठाकुर के चेहरे पर खूनी उतार चढ़ाव देखे।

वह रिवाल्वर ताने मेरे सामने खड़ा हो गया।

थोड़ी देर तक मुझे घूरता रहा।

“बाजी पलट चुकी है रोहताश।” वह खूंखार स्वर में बोला - “अब मैं तुझे कुत्ते की मौत मारूंगा। इस गोली से तो तुझे पल भर में छुटकारा मिल जाएगा… कमीने मैं तुझे तड़पा-तड़पा कर खत्म करूंगा।”

बड़ी मुश्किल से मैंने बक्सा हटाया।

पर मैं उठ नहीं पा रहा था... मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी टांगें बेकार हो चुकी है। उसने मेरे बाल पकड़े और घसीटना शुरू कर दिया। मैं कराह रहा था। जब उसने मुझे उठकर खड़े होने को कहा तो मैं चुपचाप फर्श पर पड़ा रहा।

“उठ कमीने… वरना मार-मारकर खाल में भूस भर दूंगा।”

“म...मेरी टांगे टूट चुकी है।” मैंने कराह कर कहा - “म… मैं उठ नहीं सकता।”

“हा...हा….हा…।” वह ठहाका बुलंद करता हुआ बोला - “तो तू अपाहिज हो गया... कोई बात नहीं, तुझे इसी हालत में अपने घोड़े से बांधकर सैर कराऊंगा…. देखना है तू कब तक अपने प्राण रोक सकता है।”

मैं कांप उठा।

सचमुच वह मुझे बेदर्दी से मारना चाहता था। सावधानी के लिये उसने मेरे हाथ पीठ की तरफ बांध दिये। मैं बेजान सा मुर्दे की तरह पड़ा था। अब वह मुझ पर थूककर ठोकरें मारने लगा। वह तब तक मारता रहा जब तक मेरी चेतना लुप्त नहीं हो गई।
 
जब मुझे पुनः होश आया तो अंधकार घिर आया था। ऐसा जान पड़ता था जैसे रात की कालिमा चारों तरफ से मुझे जकड़ चुकी है। मेरे हाथ उसी प्रकार बंधे थे।

यह देखने के लिये कि मैं कहां हूं मैंने अपनी नजरों से अंधेरे को भेदने का प्रयास किया। धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि मैं उसी जगह मीनार के ठंडे फर्श पर पड़ा हूं।

तो क्या हुआ मुझे इसी जगह छोड़कर चला गया। शायद उसने मुझे मुर्दा समझ लिया होगा या बेहोश शरीर को ले जाने की जहमत गवारा नहीं समझी या वह जानता था कि मैं यहां रहकर भूखा-प्यासा मर जाऊंगा अन्यथा काला जादू मेरा अंत कर देगा। वह मुझे तड़पा तड़पाकर मारना चाहता था। इसलिये उसने गोली खर्च नहीं की।

गोलियां उसने रास्ते के खतरे से निबटने के लिये बचा ली होंगी।

मेरा मस्तिष्क इन्हीं विचारों में गोते लगा रहा था।

अचानक मेरी तंद्रा भंग हुई और मैं चौंक पड़ा।

मैंने मीनार की सीढ़ियों पर रोशनी चमकती देखी। वह टॉर्च का प्रकाश था, जो सीढ़ियों पर लहरा रहा था। फिर मैंने एक साये को सीढ़ियां उतरते देखा। शीघ्र ही मैंने उसे पहचान लिया। यह ठाकुर भानु प्रताप ही था। मेरी समझ में नहीं आया कि वह मीनार में अब तक क्या करता फिर रहा है ?

धीरे-धीरे वह सीढियां में उतरता नीचे आ गया।

वह काफी थका हुआ लगता था।

नीचे आकर कुछ देर सुस्ताने के बाद उसने झुक कर एक बक्सा उठाया और पीठ पर लाद कर पुनः सीढ़ियां चढ़ने लगा।

मैं नहीं समझ पाया कि वह क्या करता फिर रहा है। क्या वह खजाने को इसी मीनार में कहीं छिपा रहा है - क्या उसने इसे बाहर ले जाने का इरादा स्थगित कर दिया।

मेरी तरफ उसका कोई ध्यान नहीं था। मैं धीरे-धीरे उठ कर बैठ गया। टांगे अब नहीं सुन रही थी। सबसे पहले मैंने अपने बंधन खोलने का प्रयास जारी कर दिया। मैं पीछे बंधे दोनों हाथों को टांगों के नीचे सरकाने लगा। फिर काफी संघर्ष के बाद मैंने हाथ एड़ियों के नीचे से निकाले और उन्हें सामने ले आया। उसके बाद दांतो से बंधन खोलने लगा।

शीघ्र ही मेरे हाथ स्वतंत्र हो गए।

ठाकुर मीनार की सीढ़ियां चढ़ने में व्यस्त था। मैंने धीरे-धीरे द्वार की तरफ रेंगना शुरू किया। मैं इस मीनार से बाहर निकलकर फिलहाल कहीं छुप जाना चाहता था या बाहर निकलते ही यदि मुझे किसी प्रकार ठाकुर का घोड़ा मिल जाता तब भी मेरी जान बच सकती थी

मैं धीरे-धीरे घिसटता हुआ अनुमान लगाकर द्वार तक पहुंचा, परंतु मैंने द्वार को जाम पाया। सहसा मुझे ध्यान आया कि दोनों द्वार उसी वक्त बंद हो गए थे। मैंने उसे धकेलने का बहुत प्रयास किया पर प्रयास सफल न हुआ। फिर मैं पिछले द्वार की तरफ रेंगने लगा।

वहां भी मुझे असफलता मिली।

तो क्या दोनों द्वार हमेशा के लिये जाम हो गए हैं। क्या ठाकुर भी इन्हें नहीं खोल पाया।

यह बात मेरी समझ में आ गई कि ठाकुर सीढ़ियों पर बक्से क्यों ढोता फिर रहा है। शायद तभी से वह इस काम को कर रहा है। अभी वहां एक बक्सा और बाकी था।

मेरे बाहर निकल पाने का प्रश्न तो लगभग समाप्त हो गया था और शायद ठाकुर ने बाहर निकलने का इंतजाम कर लिया था।

आख़िरी बक्सा ढोने के बाद वह मुझे तलाश करेगा।

और यदि मैं मीनार के किसी भी भाग में रहा तो वह मुझे खोज लेगा। थोड़ा ही समय बाकी रह गया लगता था। मैं धीरे-धीरे रेंगता हुआ सरक रहा था। मीनार का घेरा काफी बड़ा था और पार्श्व भाग में पहुंचते पहुंचते काफी समय बीत चुका था। अभी मैं यह भी नहीं सोच पाया था कि मुझे क्या करना चाहिए, कि मैंने पुनः टॉर्च चमकती देखी। ठाकुर पुनः नीचे उतर रहा था। मैं उसी जगह चुपचाप सांस रोके पड़ा रहा। कुछ देर बाद ठाकुर नीचे आया और अंतिम बक्सा लादकर सीढ़ियां चढ़ने लगा। अब मैंने देर करना उचित नहीं समझा। यथाशक्ति रेंगता हुआ सीढ़ियों के पास पहुंचा और उसी प्रकार सीढ़ियों पर चढ़ने लगा परंतु सीढ़ियां चढ़ने में मुझे भयानक पीड़ा महसूस हो रही थी और एक-एक इंच का संघर्ष करना पड़ रहा था। मैं पूरे जोर से शक्ति लगाकर यह प्रयास कर रहा था कि ठाकुर के लौटने से पहले ऊपर पहुंच जाऊं।
 
परंतु दस बारह सीढ़ियां चढ़ने के बाद मैं बुरी तरह हाफने लगा। उस स्थिति में भी मैं रुक नहीं रहा था… मेरे लिये आने वाला हर पल खतरनाक था। ना जाने ठाकुर कब लौट आये। मुझे विश्वास था कि उसने मीनार के ऊपर से बाहर निकलने का कोई मार्ग खोज लिया है और इससे पहले कि वह लौटे में उसी रास्ते से बाहर निकल जाना चाहता था।

मैं यथा शक्ति से संघर्ष करता हुआ तीस सीढ़ियां चढ़ गया। फर्श से मैं काफी ऊंचाई पर पहुंच चुका था। इसी प्रकार मैंने सात सीढियां पार की… तभी मुझे दम साध कर रुक जाना पड़ा। टॉर्च पुनः चमक उठी।

ठाकुर नीचे उतर रहा था।

मुझे अपने दिल की धड़कनें रूकती प्रतीत हुई। ठाकुर को आता देख मेरी रही सही आशा भी धूमिल पड़ गई। सीढ़ी पर इतना स्थान नहीं था कि मैं उसकी निगाह से बच जाता। सहसा मन में एक विचार आया। मुझे तुरंत रेलिंग के सहारे लटक जाना चाहिए। मैंने यह खतरा उठाने की ठान ली। यूँ भी मौत तो थी ही, इसलिये अंतिम संघर्ष करने में क्या बुराई थी। सीढ़ियों की दोनों तरफ रेलिंग थी।

मैंने तुरंत उस पर मजबूती के साथ हाथ जमाए और उस पर झुलता हुआ दूसरी तरफ खाली हवा में लटक गया। मैं सांस रोके उसकी पदचाप सुनता रहा। जब वह मेरे समीप से गुजरा तो टॉर्च की रोशनी मेरे सिर से लगभग एक फुट ऊपर से तैरती चली गई।

रेलिंग को थामे मेरे हाथ कांप रहे थे।

उसके गुजरते ही मैं पुनः शक्ति बटोरकर रेलिंग पर चढ़ा और सीढ़ी पर आ लेटा। अब मैं जल्दी-जल्दी ऊपर चढ़ने का प्रयास कर रहा था। जब मैं पचासवीं सीढ़ी पार कर रहा था तो मैं मैंने ठाकुर की जोरदार आवाज गूंजते सुनी।

“रोहताश के बच्चे - जहां भी छिपा है बाहर आ। तू इस मीनार से बाहर नहीं निकल सकता।”

टॉर्च का प्रकाश चारों दिशाओं में नाचता फिर रहा था।

मैंने और तेजी से संघर्ष शुरू कर दिया।

वह मुझे गंदी गंदी गालियां बकता हुआ मीनार का कोना-कोना छान रहा था। इस बात की तो वह स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता था कि मैं सीढ़ियां चढ़ रहा हूं। यह नब्बे सीढ़ियों वाला मीनार था। साठ की संख्या पार करने के बाद मेरे हाथ घुटने और कोहनीयां बुरी तरह छिल चुकी थी। तीस सीढ़ियां और बची थी और ठाकुर लगभग सारे मीनार की तलाशी ले चुका था।

उसकी आवाज फिर से गूंजी।

“ठीक है - यही मरना है तो… मैं आखरी रास्ता बंद करके जा रहा हूं, अलविदा।”

मैं समझ गया कि अब वह ऊपर चढ़ना शुरु कर देगा - और जितनी देर में वह पांच सीढ़ियां चढ़ेगा मैं मुश्किल से एक पार कर पाऊंगा।अब मेरे हाथों में इतनी शक्ति भी नहीं थी की रेलिंग के सहारे लटक पाता। और यह मेरे लिये अंतिम अवसर था।

जिस समय में 70 सीढ़ियां चढ़ा था, मुझे प्रकाश बिंदु अपने समीप होता नजर आया। वह प्रकाश धीरे-धीरे सीढी दर सीढी ऊपर आ रहा था। अगर ठाकुर जरा सी भी तेजी दिखाता तो कभी का मुझसे ऊपर पहुंच जाता। मैं कभी नीचे देखता तो कभी ऊपर बची सीढ़ियां। एक एक सीढ़ी में गिन-गिन कर चढ़ रहा था। पांच सीढ़ियां और चढ़ी प्रकाश साठ सीढ़ियों से भी ऊपर आ गया और पांच सीढियां और चढ़ते ही एकाएक चांद का उजाला प्रकट हुआ। उधर टॉर्च का प्रकाश सत्तर से पचहतर सीढ़ियों के बीच था। मुझे ठाकुर की छाया स्पष्ट नजर आ रही थी।

मैं तेजी से चढ़ा। तभी प्रकाश का वृत मेरे पांवों पर पड़ा। मैंने पांव खींचने चाहे तो सारा शारीर प्रकाश में नहा गया। ठाकुर जिस सीढ़ी पर था, उसी पर ठिठक गया और मेरा जिस्म सूखे पत्ते की तरह कांपने लगा। ठाकुर की रिवाल्वर धीरे-धीरे उठ रही थी।

यह पूर्णतया मुझे क़त्ल करने के लिये तैयार था - उसका मौन इस बात का सूचक था। रिवाल्वर का निशाना बन गया - ठाकुर ने हाथ सीधा आगे किया।

“न...नहीं….।” मै चीख पड़ा।

परंतु उसने कोई जवाब नहीं दिया।

अचानक मेरे कान में कोई फुसफुसाया।

“मेरे आका मैं मदद के लिये उपस्थित हूं।”
 
अचानक मेरे कान में कोई फुसफुसाया।

“मेरे आका मैं मदद के लिये उपस्थित हूं।”

मैं चौंक पड़ा। क्या बेताल था।

हां अगिया बेताल ही था। मैं उसकी छाया सीढ़ी के पास खड़ी स्पष्ट देख रहा था।

“ओह्ह बेताल….।”

बेताल मेरी सहायता के लिये आ गया था। मेरा कांपना बंद हो गया और रोद्र रूप फैल गया। उसी समय मैंने बेताल को संकेत दिया और फिर सीढ़ियों पर लुढ़कते ठाकुर भानु प्रताप की भयानक चीखें मीनार में गूंज उठी थी।

टॉर्च चकनाचूर हो कर बिखर गई थी और वह अंधेरी मीनार में होता चला गया था।

इतनी ऊंचाई से गिरने के बाद उसका नीचे पहुंच कर बच पाना असंभव था। मैंने देखा बेताल निचली सीढ़ी पर खड़ा था।

“बेताल - क्या मर गया ?”

“हां आका !”

“तुम अचानक मेरी सहायता के लिये कैसे पहुंच गए बेताल।”

“मैं ही नहीं आका - बेतालों की पूरी सेना पहुंच गई है। बरसों पहले का इतिहास आज फिर दोहराया जाएगा लेकिन इस बार जीत बादशाह की होगी। मैं उस फौज का सिपहसालार हूं, उनकी आंखों में धूल झोंककर कुछ क्षणों के लिये यहां आया हूं, इसमें मेरा अपना ही स्वार्थ है।”

“मैं समझा नहीं।” मैंने कहा।

“मनुष्य संपर्क में आने की मेरी तीव्र आकांक्षा थी, जो आपने पूरी कर दी और मैं आपको खोना नहीं चाहता। यदि मैं आपकी सहायता के लिये नहीं आता तो उस खजाने के फेर में आप दोनों में से कोई जीवित न निकल पाता। बाकी मैं आपको बाद में बताऊंगा, इस वक्त फ़ौरन यहाँ से निकल चलिये - क्या आपको युद्ध के नगाड़े बजते नहीं सुनाई दे रहे हैं।”

“युद्ध….।”

मुझे नगाड़ों की हलकी धमक सुनाई दी।

“चाँद आसमान पर है, इसलिये हमारी शक्ति कई गुना बढ़कर दुश्मनों पर टूट पड़ेगी और हम इस पहाड़ को अपने राज्य में मिला लेंगे। आप फ़ौरन बाहर निकल चलिये।”

“मगर बेताल… मेरी टांगे काम नहीं करती… मैं तो उठ भी नहीं पाता। तुम्ही मुझे बहार ले चलो।”

बेताल ने मुझे बाहर पहुंचा दिया। उसने भीतर के छत्र से नीचे उतारा था और अब मैं चांदनी की शीतलता में खड़ा था।

“बेताल ! वह खजाना ठाकुर ने कहाँ रखा है ?” मैंने पूछा।

“आप इस फेर में मत पड़िये, फिलहाल अपनी जान बचाइये। यह खजाना कपाल तांत्रिक की वासनाओं का शिकार बन चुका है। जो कुछ यहाँ हो रहा है वह मैं आप को बाद में बताऊंगा…. चलिये आका - घोडा तैयार खड़ा है - यह हवा के वेग से चलता हुआ आपको सीमा पार छोड़ देगा… वह देखिये बेतालों की सेना आ गई है…. अभी कुछ देर में प्रलय आने वाली है।”

मैंने एक पहाड़ी के दामन में असंख्य शोले चमकते देखे जो धीरे - धीरे चारो तरफ फैलते जा रहे थे, ऐसा जान पड़ता था जैसे वे काले पहाड़ को अपने घेरे में लेते जा रहें हो।

मैंने बेताल की सलाह मान ली। अब खजाने के फेर में यहां पड़ना बेकार था और गुप्त शक्तियों के युद्ध के बीच ठहरना भी अपनी मौत को दावत देना था।

“युद्ध छिड़ने वाला है…।” अचानक बेताल कहा - “बादशाह सिपहसालारों को बुला रहा है… मैं जा रहा हूं आका….।” उसने तुरंत मुझे घोड़े पर बिठाया।

“यह युद्ध कितने समय तक चलेगा, मैं नहीं कह सकता… जब भी खत्म होगा मैं आपकी सेवा में हाजिर हो जाऊंगा…. अलविदा।”

जैसे ही उसने अलविदा कहा घोड़ा दौड़ पड़ा। वह विद्युत् गति से भाग रहा था। मैं जानता था बेताल का घोड़ा आधे या एक घंटे में मुझे खतरे की इन सीमाओं से बाहर पहुंचा देगा। पर मेरे मन में असंतोष था क्योंकि मैं खाली हाथ लौट रहा था।

फिर मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे काले पहाड़ पर भूकंप आ गया है। उस रात की तरह ज़ोरदार तूफान चल रहा है। पत्थर चट्टाने लुढ़क रही है और प्रलयंकारी शोर चारों तरफ से गूंज रहा है। मैं बुरी तरह घोड़े की पीठ से चिपक गया।

मैं समझ गया कि गुप्त शक्तियों में युद्ध शुरू हो गया है - और मैं भी इसकी चपेट में आ सकता हूं। बेताल ने ठीक समय पर मुझे वहां से निकाल दिया - क्या जाने अब क्या होगा। काले पहाड़ का अस्तित्व रहेगा भी या नहीं।

बेपनाह दौलत मेरी आंखो के सामने घूमती रही...घूमती रही।

कई बार चट्टाने भयंकर आवाज निकालती सिर के ऊपर से गुजर गई... पेड़ उखड़- उखड़कर कर खाइयों में गिर रहे थे परंतु मेरा बाल बांका भी नहीं हुआ। लौटते वक्त एक प्रसन्नता अवश्य थी कि मैंने गढ़ी के राजघराने का सर्वनाश कर दिया है।

और मुझे याद आया, इसी उद्देश्य को लेकर मैंने अपना जीवन बदला था। मेरे इस उद्देश्य में कई लोगों की जानें जा चुके थी - यहां तक कि मैं भी अपाहिज हो गया था।
 
इसके बाद मैंने सूरज गढ़ का रूख नहीं लिया। एक आदिवासी गांव में एक झोपड़े में मुझे पनाह मिल गई परंतु मेरी स्थिति असहाय इंसानो जैसी हो गई थी। उस वक्त मुझे अपनी जिंदगी पर कोफ्त महसूस होती, जब मैं अपनी टांगो को देखा करता था। जीने के लिये कोई सहारा भी तो शेष नहीं रहा था। बस जब जिस वक्त की जरूरत पड़ती मैं बेताल से मांग लेता पर मैं कैद की जिंदगी गुजार रहा था।

उस आबादी से जल्दी मेरा मन भर गया।

मैं खुली हवा में जीना चाहता था। और बेताल के आगे भीख नहीं मांगना चाहता था। लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि कहां जाऊं किस प्रकार जाऊं।

उस रात बेताल ने मुझे याद दिलाया।

“मेरे आका कल तेईसवी रात फिर आ गई है। मैं आपको याद दिलाना चाहता था।”

“तेईसवी रात….।” मुझे झटका सा लगा।

“हां आका - बेताल को नरबलि चाहिए।”

“लेकिन बेताल, तुम जानते हो मेरी टांगों में अब शक्ति नहीं है। मैं तुम्हारी यह इच्छा कैसे पूर्ण कर सकता हूं।”

“इसमें मेरा स्वार्थ है आका ! मैंने उस रात आपसे कहा था कि काले पहाड़ पर क्या हुआ, आपको जरूर बताऊंगा। आज मैं बता रहा हूं कि मेरा स्वार्थ क्या है।”\

एक पल बाद उसने कहा – “आका ! मैं बेतालों का बादशाह बनना चाहता हूं इसलिये मुझे तेईस बार बलि चाहिए…. फिर मैं संपूर्ण रूप से शक्तिवान बन जाऊंगा और वह खजाना, जिसकी आप इच्छा रखते थे आपके कदमों में डाल दूंगा। उस खजाने पर कपाल भवानी का तंत्र था, और वह स्वयं एक नाग के रूप में उसकी हिफाजत करता था। कपाल भवानी के कारण ही हम बेताल उस सीमा में नहीं जाते थे, परंतु ठाकुर या आपको शायद यह ज्ञान नहीं था कि कपाल भवानी पूरा खजाना वहां से हटते हुए बर्दाश्त नहीं कर सकता था। यद्यपि राज घराने वाले उसके मालिक थे, परंतु ऐसा कभी नहीं हो सकता था कि उनका उस पर पूर्ण अधिकार हो जाये। राजघराने वाले उसमें से आवश्यकता अनुसार ही खर्च कर सकते थे, और जरुरत पड़ने पर बढ़ोतरी भी कर सकते थे। पर जब कपाल का तेज टूटा गया और सारा खजाना ले जाया जाने लगा तो वह रोकने के लिये उपस्थित हुआ, जिसे ठाकुर ने खत्म कर दिया। कपाल को सिर्फ राजघराने का आदमी ही खत्म कर सकता था अन्यथा वह सर्प कभी खत्म ना होता और खजाना ले जाने वाले का मार्ग रोक लेता। कपाल के मरते ही उसकी सारी शक्ति विलीन हो गई और उसे उसी क्षण हमें पता लगा कि काले पहाड़ पर की गुप्त शक्तियां आधी रह गई है वह छिन्न-भिन्न हो गई है क्योंकि शक्तिमान कपाल अब वहां नहीं रहा। बेतालों ने यह तय किया कि तत्काल हमला करके उस बची-खुची ताकत का सर्वनाश कर दिया जाये साथ ही धन बेतालों अधिकार में आ जाए।

और उस रात हमला कर दिया गया, जिसमें हम विजयी हुए साथ ही बेतालों के अधिकार में वह खजाना आ गया। इस कारण मेरे मन में तीव्र इच्छा हुई कि मैं सर्वशक्तिमान बनूं ताकि मैं मनुष्य योनि में विचर सकूं और आप लोगों के संसार का आनंद प्राप्त कर सकूं।और जिस दिन मेरा यह सपना पूरा हो जावेगा, उस दिन मेरी सहायता से आप सारी दुनिया हिला सकेंगे। बेताल सेना आपकी गुलाम होगी और आप उस दौलत के स्वामी होंगे।

“लेकिन यह सब करके मुझे क्या मिलेगा। मेरे पास तो टांगे भी नहींहै... मैं तो बेसहारा पंगु इंसान मात्र रह गया हूं।”

“अपनी भावनाओं और इरादों को मजबूत बनाइए... टांगे आपको मैं दे दूंगा और आप हमेशा मेरी तरह जवान रहेंगे।”

“अगर यह बात है तो मेरी टांगों की शक्ति दो।”

“लेकिन अपना वचन ना भूलियेगा। आप तांत्रिक हैं और तांत्रिक रहेंगे।”

“ठीक है बेताल में वचन निभाऊंगा !”

कुछ देर बाद ही मुझे एहसास हुआ जैसे मेरी टांगों में शक्ति भर आई है…. मैंने उन्हें झटका... टांगे ठीक थी। मैं खुशी से भागता उठ खड़ा हुआ। मुझे अपने भीतर एक नई शांति का आभास हुआ। मैं अपने झोपड़े से बाहर निकल आया। इतने दिन झोपड़े में रहने के बाद मेरा मन खुली हवा में घूमने को कर रहा था और मैं दूर-दूर तक भ्रमण करना चाहता था।

मैं चल पड़ा। एक गांव के बाद दूसरे गांव।पांव थकते नहीं थे और स्वछंद वातावरण में घूमने के बाद यह बात दिमाग से उतर ही गई थी कि मुझे बलि का साधन खोजना है। एक गांव में मैंने देखा - खुले आंगन में कुछ लोग पंक्तिबद्ध बैठे हैं और ये सब लिवासों से ब्राह्मण नजर आ रहे थे। मेरे रुकने का कारण स्वादिष्ट व्यंजनों की महक थी। वैसे भी मुझे भूख लगी हुई थी एक लंबे अरसे बाद इस प्रकार की महक नथुनों में पड़ी तो दिल मचल उठा।

भूख ने और भी जोर पकड़ लिया और मैं आंगन की तरफ मुड़ गया। वहां पहुंचते ही मैंने अदम्य सौंदर्य की देवी को देखा। वह सफेद सादी धोती पहनी थी, परंतु उसमें भी स्वर्ग से उतरी अप्सरा जैसी लग रही थी। उसके मुख मंडल पर अलौकिक आभा चमक रही थी और सौंदर्य रस अंग-अंग में छिपा प्रतीत होता था।

इस गांव में यह सुंदर रमणी कहां से आ गई - इसे तो राजा महाराजाओं के महलों की आलीशान दीवारों के बीच होना चाहिए था। कुछ देर तक मैं उसे टकटकी बांधे देखता रहा फिर मैंने देखा एक आदमी पंडितों के आगे पत्तर रख रहा है।

भूख कुलमुलाई और मैं भी कतार में चुपचाप बैठ गया। मेरे पड़ोसी पंडित ने चौंक कर मुझे घूआ रा और तनिक परे हट गया। मुझे उस पर बहुत कोफ़्त महसूस हुई। उसके मुख मंडल से पता चलता था कि उसने मुझे तिरस्कार और नफरत की दृष्टि से देखा था।
 
पत्तर मेरे सामने भी रख दिया। फिर मैंने देखा - वह रमणी अपने कर कमलों से भोजन परोस रही है। मुझे यह सब आनंदित प्रतीत हुआ और मैंने उसके मंद-मंद मुस्कुराते गुलाबी लबों को मन ही मन चूम लिया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उसके प्रति कौन-सी भावना मेरे मन में जाग रही है - क्या यह प्रेम की भावना थी, परंतु कैसा प्रेम ! मेरी निगाह में तो नारी सिर्फ भोग-विलास की वस्तु थी। परंतु उसके चेहरे के साथ मेरी यह मनोवृति भी किसी बंधन में जकड़ी प्रतीत होती थी।

धीरे-धीरे वह मेरे समीप आती चली गई फिर पलकें झुकाए मिष्ठान परोस कर चली गई। उसके साथ राम नाम का दुपट्टा ओढ़े एक महंत जैसा व्यक्ति भी था - उसकी निगाह बार-बार मेरी तरफ उठ जाती थी।

एकाएक मेरा पड़ोसी उठा और महंत के पास पहुंच गया फिर वह मेरी तरफ इशारा करके कुछ बताने लगा। महंत की मुख-मुद्रा कठोर बन गई। वह मेरी तरफ आने लगा।

फिर अन्य लोगों की निगाह भी मेरी तरफ उठ गई।

मेरे पास आकर उसने रूखे स्वर में पूछा - “कौन जाति का है तू।”

तब तक मैं मिष्ठान साफ कर चुका था।

“जाति से क्या लेना... खाना खिलवाओ, भूख लगी है।

“अरे -- यह शूद्र है।” मेरा पड़ोसी बोला - “राम-राम हम भोज ग्रहण नहीं करेंगे... क्यों भाइयों?”

“हां हां शूद्रों के साथ बैठकर हम भोजन करें….।”

“हम अपना धर्म भ्रष्ट नहीं कर सकते।”

“पंडित लोगों !” मैंने जोर से कहा - “इस बात का क्या सबूत है कि मैं शूद्र हूँ - क्या मेरे चेहरे पर लिखा है ?”

“बक-बक बंद कर... तेरी शक्ल बताती है - तेरे शरीर की बदबू ...तेरे कपड़ों से पता चल रहा है कौन तुझे पंडित मानेगा। अगर पंडित होता तो फौरन बता कौन गांव का पंडित है।” इस बार महंत बोला।

“भूखों को भोजन देने से पुण्य मिलता है महंत - इन पंडितों के पेट तो पहले से भरे हैं।”

“इसे उठाओ यहां से वरना हम उठ रहे हैं।” पंडितों की बिरादरी ने ऐलान किया।

“चल उठ…।” महंत ने जोर से कहा - “उठता है या नहीं।”

“नहीं उठा तो….।” मुझे क्रोध आ गया।

“तो तुझे अभी उठवा कर फेकता हूं अरे कल्लू... रामू...।” उसने आवाज दी।

दो हट्टे-कट्टे नौकर महंत की तरफ बढ़ने लगे। मैं समझ गया - अब मेरी शामत आ गई। मुझे उन सब पर बेहद क्रोध आ रहा था। वह रमणी भी मुझे देख रही थी, परंतु उसका चेहरा भावहीन था। उसने अपने मुख से अभी तक एक शब्द भी नहीं कहा था।

इससे पहले कि मुझे उठार बाहर किया जाता मैंने उस युवती के सामने अपनी भारी तोहीन महसूस की और अगले पल बेताल को याद किया। बेताल तुरंत हाजिर हुआ।

मैंने उसे महंत की तबीयत दुरुस्त करने का हुक्म दिया।

एक पल बाद महंत चीख पड़ा - वह हवा में उठता चला गया और जमीन से चार फीट ऊपर जाकर लटक गया। महंत बुरी तरह हाथ पांव मार कर चीख रहा था। और इस दृश्य को देखते ही सबकी हवा खराब हो गई थी। ऐसा दृश्य तो शायद उस में से किसी ने भी जिंदगी में नहीं देखा होगा।

पंडित लोग उठ खड़े हुए।

कल्लू और रामू महंत को जमीन पर खींचने का प्रयास कर रहे थे, परंतु उनकी हर कोशिश नाकामयाब हो रही थी।

“महंत ! अब तो सारी जिंदगी इसी प्रकार लटका रहेगा।” मैंने कहा और उठ खड़ा हुआ।

पंडित लोग मुझे देख देखकर भयभीत हो रहे थे।

“महाराज…. क्षमा…. देवता…. क्षमा...।” महंत गिड़गिड़ाया।

उसके बाद सभी लोग मेरे कदमों में लंबे लेट गए।

मैं उनके लिये भगवान पुत्र बन गया था। वह सब अपनी करनी के लिये क्षमा मांग रहे थे। मैं अब भी उस रमणी को देख रहा था जो हाथ जोड़े खामोश खड़ी थी। उन ब्राह्मणों की चिंता किए बिना मैं सीधा रमणी के पास पहुंचा।

“देवी ! अगर तुम कह दोगी तो हम इन्हें क्षमा कर देंगे।”

“अहो भाग्य मेरे जो आप के रूप में ईश्वर के दर्शन हो गए।” वह धीमे स्वर में बोली - “मुझे अबला का उद्धार कीजिए महाराज… और उस पापी महंत को क्षमा कर दीजिए।”

“एवं अस्तु।” मैंने हाथ उठाया और बेताल को संकेत किया।” महंत धड़ाम से जमीन पर आ गिरा। जमीन पर गिरते ही अचेत हो गया।

“देवी ! हमें भूख लगी है - क्या अपनी कमल करों से हमें भोजन नहीं कराओगी।”

“आप तो अंतर्यामी है - मुझे मामूली प्राणी का आपके सामने क्या अस्तित्व.. आप आसन पर विराजिए देवता... हम सब लोग आप की उपासना करेंगे।”

इस प्रकार उस देवी के कारण मैं अंतर्यामी बन गया। मुझे शीघ्र ही ज्ञात हुआ कि यह विधवा है, भरी जवानी में जब वह विवाह के तीन वर्ष भी नहीं गुजरे थे, उसका पति दुर्घटना में मारा गया था - वह स्वयं काफी धनवान बाप की इकलौती बेटी थी और अब दान-पुण्य करने में अपना जीवन बिता रही थी। उसका नाम विनीता था।

सारे गांव में यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई थी और थोड़ी ही देर में वहां जमघट लग गया था। स्त्रियां, बच्चे, बूढ़े, जवान मुझ पर फूलमालायें अर्पण कर रहे थे और मेरे कदमों की धूल माथे पर लगा रहे थे।

अपने आप को ईश्वर के रूप में महसूस करके मुझे एक सुखद अनुभव हो रहा था - वे सब मुझे कितना मान दे रहे थे, ऐसा सम्मान मुझे जीवन में कभी नहीं मिला था।

उन लोगों ने मुझे जाने ही नहीं दिया।

मैं उस वातावरण में इतना खो गया कि मुझे ध्यान नहीं रहा कि मुझे बेताल को बलि देनी है।

“प्रभो…।” विनीता ने विनती की - “क्या आप मंदिर के पूजा ग्रह में रहकर हमारा उद्धार नहीं करेंगे…. वह मंदिर मैंने बनवाया है प्रभो... क्या आप मुझे सेवा का अवसर देंगे।”

वीणा की मधुर झंकार जैसा स्वर !

मैं कैसे बयान करता कि मुझ पर क्या बीत रही थी।

मैंने उसे स्वीकृति प्रदान की तो मेरी जय जयकार होने लगी।
 
उस वक्त मेरी जालिम प्रवृत्ति ना जाने कहां से सो गई थी। मेरा रोम-रोम हर्ष में डूबा था। उन लोगों ने मुझे बकायदा डोली में बिठाया और एक बड़े जुलूस के साथ मुझे गाजे-बाजों के साथ ले चले। विनीता मेरे साथ - साथ चल रही थी।

उसके बाद वे मुझे मंदिर की ओर ले जाने लगे।

मैं उसके हंसमुख चेहरे में खो कर रह गया था।

उसके बाद मैंने मंदिर के पवित्र जल में स्नान किया। मुझे खुद अपने शरीर से बदबू फूटती महसूस हो रही थी और पहली बार साफ-सुथरा रहने की भावना जाग उठी।

रात हो गई थी।

मंदिर में रोशनीयां में जला दी गई थी। अभी मैंने उस में कदम नहीं रखा था, परंतु नहा-धोकर अब मैंने एक राम नामी चादर शरीर पर लपेटी तो उसी क्षण ऐसा जान पड़ा जैसे मेरे शरीर पर आग बरस रही हो। मैं एकदम भयभीत हो गया... मैंने देखा - बेताल कुछ फीट दूर खड़ा है।

“ये.. तुम.... कहां जा रहे हो… मैं तुम्हारे समीप नहीं आ रहा हूं… अगर मैंने कदम बढ़ा या तो ऐसा लगता है मैं जलकर राख हो जाऊंगा।”

“बेताल…. मैं इन लोगों की भावना कैसे कुचल सकता हूं। मैं भगवान के मंदिर में जा रहा हूं।”

“भूल जाओ ईश्वर को - वहां मत जाओ…. मैं कहता हूं वहां न जाओ… आपको मुझे बलि चढ़ानी है…. अनर्थ हो जाएगा।”

“थोड़ी देर के लिये यदि मैं वहां गया तो क्या अनर्थ हो जाएगा।”

“मैं नहीं जानता… हो सकता है मैं तुमसे हमेशा हमेशा के लिये दूर चला जाऊं। मैं कहता हूं अपने पांव खींच लो और भाग चलो यहां से….।”

अचानक मेरे हाथ पर कोमल हाथों का स्पर्श हुआ।

“आप क्या सोच रहे हैं महाराज…. अपने कर-कमलों से इस मंदिर को पवित्र कर दीजिए….।”

“नहीं….।” बेताल का स्वर खौफनाक हो गया - “पंगुल हो जाओगे... और कुछ दिन बाद जब किसी काबिल नहीं रहोगे तो इन्हें आप की असलियत का पता चल जाएगा…. फिर यही गांववासी आपको मार-मारकर यहां से खदेड़ देंगे…. कोई चमत्कार आपका साथ नहीं देगा।”

“पंगुल ….।”

“हां... अब भी मौका है आखिरी मौका…. लौट आओ…।”

“मगर विनीता….।”

“विनीता को तुम वैसे भी हासिल कर सकते हो - तुम्हें किसी मंदिर में पांव रखने की इजाजत नहीं… लौट जाओ।”

मुझे झटका सा लगा।

मैंने लाचारी के साथ मंदिर के पटों को देखा.. . भगवान के उस दरबार में मैं जा भी नहीं सकता था… विनीता जैसी रमणी को जब मालूम होगा कि मैं कौन हूं तो मैं उसके लिये नफरत का पात्र बन जाऊंगा। बेताल सही कह रहा था।

मैंने देखा - विनीता ने मेरा हाथ थामा हुआ है।

मैंने झटके से हाथ से छुड़ाया…. और भीड़ को चीरता हुआ भाग निकला…. मैं भागता रहा… बेतहाशा भागता रहा… जैसे भगवान मेरा पीछा कर रहा हो… मैं पापी पाखंडी था…. गंदे जीवन जीने के अलावा कोई चारा शेष न था। राम नामी चादर वहीं छूट गई थी।

काफी आगे निकलने के बाद मैंने मुड़कर देखा - मेरे पीछे अंधकार के सिवा कुछ नहीं था। मानो वह सब सपना रहा हो अंधकार में ही जंगल की तरफ मुड़ गया किसी भेड़िए की तरह।
 
किसी आदमखोर भेड़िए की तरह मैं एक मासूम बच्चे का अपहरण कर लाया था और अपने क्रूर अपराध की पुनरावृत्ति कर दी। चांद की मुर्दा चांदनी को बलि देकर उसे और भी भयानक बना दिया और बेताल की कामना पूरी कर दी। अब मुझे ऐसा लग रहा था जैसे बेताल मेरा गुलाम नहीं, मैं उसका गुलाम हूं, मैं उसे सर्वशक्तिमान बनाने के लिये कुकृत्य कर रहा हूं।

मैं अपने आप से दूर भागने का प्रयास कर रहा था। निर्दोष बच्चे ने मेरा क्या बिगाड़ा था। उसकी हौलनाक चीख मेरे कलेजे में बैठी हुई थी। अपने झोपड़े तक पहुंचते पहुंचते मैं परेशान हो गया।

मुझे फिर से विनीता याद आ गई।

ना जाने क्यों मैं उसके प्रति अन्याय नहीं करना चाहता था। वह रात की तन्हाई, अगले दिन मैं बेसुध सा अपने झोपड़े में पड़ा रहा। मुझे भूख नहीं लग रही थी। शाम को मुझे कुछ सुध आई और मैं झोपड़े से बाहर निकल गया।आज मैं जंगलों के रास्ते चल पड़ा, सारी रात में पैदल यात्रा करता रहा फिर उस बस्ती में पहुंचा, जहां विनीता मुझे मिली थी। मुझे मालूम था कि वह सेठ निरंजन दास की बेटी है… सेठ निरंजन दास जमींदार थे। यूँ तो निरंजन दास किसी बड़े शहर में रहते थे परंतु यहां उनकी जन्मभूमि थी। मुझे यह नहीं मालूम था कि वह कहां रहते हैं।

मैंने सोचा यदि मैं बस्ती में गया तो बस्ती वाले मुझे पहचान जाएंगे, यूं मैं पिछली रात भी इसी बस्ती में आया था और यहीं से बच्चे का हरण किया था। वह बच्चा लगभग छः वर्ष का था और आंगन में खेल रहा था। मैंने उसे लालच देकर अपने पास बुला लिया। उस वक्त अंधेरा हो चुका था, परंतु रात अधिक नहीं बी ती थी और कुछ समय के लिये बच्चे के पास जो बूढा व्यक्ति बैठा आंगन में हवाखोरी कर रहा था,वह मकान के भीतर चला गया था।

तभी मुझे अवसर मिल गया और उसके बाद मैंने अपना काम कर दिखाया।

मैंने एक राहगीर से सेठ निरंजन दास के बारे में पूछा। वह अनजान था, फिर मैंने दो - चार स्थानीय आदमियों से पूछताछ की। शीघ्र ही मुझे मालूम हो गया कि निरंजन दास कहां ठहरे हुए हैं। उसका यहां पुराना मकान था। मैं अपने आपको लोगों की निगाह से बचाता हुआ उस तरफ चल पड़ा। जब मैं उक्त पते पर पहुंचा, तो बुरी तरह चौक पड़ा। वही मकान था, जिस के आंगन में मैंने बच्चे का अपहरण किया था। मेरे मन में शंका उठी और दिल जोर जोर से धड़कने लगा। मेरे कदम ठिठक गए।

मकान के प्रांगण में मुझे काफी लोग नजर आए, जिसके चेहरे लटके हुए थे और वे विनीता तथा उस बूढ़े व्यक्ति के इर्द-गिर्द जमा थे… विनीता अपना चेहरा हाथों में छिपाए थी।

वहां से निकल रहे एक आदमी से मैंने पूछा -
“क्यों भाई -- यहां क्या हुआ है ?”

“बच्चा खो गया है।” उसने बताया।

“किसका बच्चा।”

“सेठ निरंजन दास की लड़की विनीता का…. बेचारे बड़े धर्मात्मा लोग हैं… ईश्वर करे उनका बच्चा जल्दी मिल जाए… विनीता जी की जिंदगी का एक ही सहारा है। अगर बच्चे को कुछ हो गया तो….।”

“तो….।” मेरा स्वर अटक गया।”

“तो वे अपनी जान दे देगी…।”

“नहीं….।”

परंतु वह व्यक्ति आगे बढ़ चुका था। मेरा सिर चकराने लगा - क्या मैंने क्या कर दिया…. मैंने यह पाप क्यों किया…. कमीने बेताल…. यह सब तेरे कारण हुआ….. क्या मैं इन गुनाहों का प्रायश्चित कर पाऊंगा। जिस विनीता की मन ही मन पूजा की थी, जिसे देवी मान लिया था -- मैंने उसका दामन बीरान कर दिया। अब मेरे अंदर इतना साहस नहीं था कि मैं आगे बढ़ सकूं।

मैं उलटे पैरों वापिस लौट पड़ा। मेरे पांव लड़खड़ा रहे थे और आंखों के आगे अंधेरा छाता जा रहा था। मुझे अपनी दुनिया अंधेरी नजर आ रही थी।

“नहीं चाहिए मुझे यह पांव….।” मैं बड़बड़ा रहा था - ”अब मुझे अपने आप को कानून के हवाले कर देना चाहिए”

ना जाने कब मैं अपने झोपड़े में पहुंचा और बिस्तरे पर गिर पड़ा। फिर मैं तीन दिन तक बेसुध पड़ा रहा, न तो मैंने बेताल को याद किया और ना बाहर निकलने का प्रयास किया।

अचानक तीसरी रात बेताल स्वयं उपस्थित हुआ।

“क्या बात है - तुम क्यों आए… मैंने तुम्हें याद नहीं किया।”

“मैं आपकी भावनाओं को समझता हूं मेरे आका।”

“आका के बच्चे… तूने मुझसे इतना बड़ा पाप करवा दिया।”

“यह कोई पाप नहीं…. इंसान की जिंदगी का मूल्य नहीं आका…।”

“चला जा बेताल… यहां से चला जा….।”

“मैं आपकी रक्षा करने के लिये आया हूं आका - अपने प्राणों की कीमत समझिए…. मैं हरगिज़ ऐसा नहीं होने दूंगा कि कोई आपके प्राण हर ले….।”

“मेरे प्राण… कौन हर रहा है मेरे प्राण।”

“जरा बाहर निकलिये फिर मैं आपको तमाशा दिखाता हूं। आप पर मूठ छोड़ी गई है मेरे आका…।”

“मूठ… किसने छोड़ी मूठ….। “
 
“आका - आप बहुत परेशान हैं… जरा धैर्य से काम लीजिए अब आपकी रक्षा करना मेरा ध्येय है। जिस बस्ती से आप बच्चा उठाकर लाए थे, वहां एक बड़ा भारी तांत्रिक भी रहता है… सेठ निरंजन दास ने उसे बुला लिया है ताकि वह बच्चे का पता लगा सके जानते हो आका फिर क्या हुआ…. उसने अपने तंत्र से फौरन पता लगा लिया कि बच्चा अब जीवित नहीं है, किसी ने उसकी हत्या कर दी है। उसने बच्चे की रूह बुलाकर उससे सब पूछ लिया… जब यह बात उसने सेठ और विनीता को बताई तो विनीता पागल हो गई और अपना सर दीवारों पर मारने लगी…. उसका सर लहूलुहान हो गया... उसे एक कमरे में बंद कर दिया गया - कहीं वह कुछ कर ना बैठे… उधर सेठ का भी वही बच्चा आसरा था…. उसने तांत्रिक से पूछा कि कौन है वह जालिम - मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ूँगा। फिर तांत्रिक ने बताया कि वह उसका नाम नहीं बता सकता परंतु मूठ छोड़कर उस का सफाया कर सकता है - जो मूठ का शिकार बन जाएगा वही हत्यारा होगा - मूठ उसी रास्ते से चलेगी जिससे बच्चे को ले जाया गया और उसके बाद बच्चे की रूह उसका मार्गदर्शन करेगी।”

“ओह - तो क्या - ?”

“मूठ चल चुकी है… देर सवेर वह यहां तक पहुंच ही जाएगी। मुझे एक बात बताइए आका यदि आपने किसी और की बलि चढ़ाई होती तो क्या आपको इतना दुख होता।”

“नहीं!”

“तो दो मनुष्यों के लिये भेदभाव क्यों - प्राणी तो दोनों ही है।”

“इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं अपने लड़के का कत्ल कर दूँ ….।”

“आप ऐसा कर चुके हैं आका…. यह बच्चा आपके बेटे से अधिक प्यारा तो नहीं है।”

“क्या मतलब ?”

“आप यह क्यों भूल गए कि आपने चंद्रावती को बलि चलाया था, जिसके गर्भ में आपका पुत्र था - उस वक्त आप को दया क्यों नहीं आई - जबकि चंद्रावती आपकी सहायक भी थी - और रिश्ते में आपकी मां भी रह चुकी थी - उस स्त्री पर तो आपको दया नहीं आई जबकि इस पराई स्त्री पर जिससे आपका कोई संबंध नहीं, उस पर दया क्यों….।”

“बेताल….।” मैं चीख पड़ा।

“सच्चाई हमेशा कड़वी होती है - अब आप इस फेर में ना पड़ें, आपके लिये हर इंसान एक जैसा होना चाहिए… तांत्रिक का किसी से कोई रिश्ता नहीं होता। आपकी नजर में औरत सिर्फ भोग विलास की वस्तु होनी चाहिए।”

मैं पसीने से नहा गया। कितना कड़ुआ सच था। चंद्रावती की याद आते ही रोम रोम कांप उठा।

जिस समय मैं बेताल के कहने पर बाहर निकला, चांद उदय हो गया था। आसमान पर तारागण चमक रहे थे। कुछ समय हम खामोश रहे, फिर बेताल ने मुझे सतर्क किया।

“वह देखिए चमकता बिंदु… वह आ रहा है।”

मैंने निगाह उठाई - बिल्कुल ऐसा लगता था जैसे एक तारा आसमान में रास्ता खोजता हुआ तेजी के साथ दौड़ रहा हो। कुछ समय बाद ही वह निकट आ गया - और निकट - और फिर तेज गूंज के साथ वह मेरे ऊपर घूमने लगा। यह एक काली हांडिया थी, रोशनी इसी से फूट रही थी।

अचानक मैंने अगिया बेताल के शरीर को आग का गोला बनते देखा और वह ऊपर उठता हुआ जोरदार आवाज के साथ हंडिया से टकराया। बिजली सी चमकी फिर हंडिया काफी दूर चली गई। उसके बाद हंडिया बेताल पर झपटी। इस बार भी तेज आवाज पैदा हुई। वह दोनों मुझे गुंड मुंड होते नजर आए। दोनों के इस युद्ध में भयंकर आवाजें उत्पन्न हो रही थी।

अंत में बेताल ने उसे घेर लिया। वह तेजी के साथ हंडिया के चारों तरफ एक वृत्त में घूम रहा था और बार-बार उस पर टक्करें मार रहा था - फिर आग की तेज लपट उठी और मैंने स्पष्ट रुप से किसी की कराहट सुनी। अगले ही पल यह आसमानी युद्ध समाप्त हो गया और बेताल एक राक्षस को लपेट में लिये आ गिरा।
अब उन दोनों का युद्ध प्रारंभ हो गया।

वे दोनों एक दूसरे पर गुप्त शस्त्रों का प्रयोग कर रहे थे परंतु बेताल को पछाड़ पाना उस खौफनाक सूरत वाले राक्षस के बस का रोग नहीं लगता था - बेताल ने उसके मुंह में हाथ डाल दिया और वह भैंसे के समान आवाज निकाल रहा था - बेताल ने उसे अंत में इतनी जोर से झटका दिया कि वह आसमान की तरफ चला गया।

उसका आकार छोटा होता जा रहा था - फिर वह हवा में स्थिर खड़ी हंडिया में घुसता चला गया। बेताल आग बनकर हंडिया के पीछे लपका, हंडिया जिस रास्ते से आई थी, उसी पर दौड़ पड़ी और बेताल बराबर उसका पीछा करता रहा।

अंत में वे मेरी नजरों से ओझल हो गए।

दस मिनट बाद ही बेताल फिर से उपस्थित हुआ।

“आपका शत्रु मर गया…. उसे आपका भेद मालूम हो गया था। उसकी मूठ ने उसी की जान ले ली।”
 
दस मिनट बाद ही बेताल फिर से उपस्थित हुआ।

“आपका शत्रु मर गया…. उसे आपका भेद मालूम हो गया था। उसकी मूठ ने उसी की जान ले ली।”

“क्या…?”

“हां आका…. मैं उसका तब तक पीछा करता रहा… तांत्रिक ने मूठ को खून देने का प्रबंध कर रखा था पर बकरे का वह खून मैंने ले लिया और मूठ ने उस तांत्रिक का खून ले लिया मूठ जब चल पड़ती है तो बिना खून लिये शांत नहीं होती, इसलिये तांत्रिक को उसके लिये ताजा रक्त की व्यवस्था किए रहता है और यदि वह बिना शिकार के लौट आती है तो तांत्रिक उसे तुरंत खून देता है। मूठ का प्रेत मुझसे हार चुका था, इसलिये मेरे मार्ग में बाधक नहीं बन सकता था।”

बेताल ने एक बार फिर मेरी प्राण रक्षा की।

उसके बाद वह चला गया।

किंतु पुलिस की गतिविधि बेताल नहीं रोक सकता था। सरकारी तंत्र के साये में उसकी एक भी नहीं चल सकती थी इसलिये मुझे यह ज्ञात नहीं हो पाया कि बहुत दिनों से मुझे तलाश कर रही खुफ़िया पुलिस ने यहां भी अपना जाल फैला लिया है। और कुत्ते अपना काम कर रहे हैं।

सिर्फ दो दिन बीत पाये थे कि एक सुबह….

दरवाजे पर दस्तक हुई।

मैं उस समय जागा भी नहीं था। जब आवाज सुनकर आंख खुली तो कुत्तों के भोंकने का स्वर सुनाई दिया। फिर मैंने कुत्तों के जोर जोर से भौंकने का स्वर सुना। मैं अटपटेपन से उठा हर परिस्थिति से अनजान होने के कारण दरवाजा खोल दिया।

सामने विक्रमगंज का वर्दीधारी पुलिस ऑफिसर खड़ा था।

उसके होठों पर मुस्कान थी।

“मेरे पास तुम्हारी गिरफ्तारी का वारंट है मिस्टर रोहतास।”

उसकी आवाज मुझे जानी पहचानी सी लगी।

“वारंट…. किस बात का वारंट….।”

उसने मेरी बात सुनकर अपने साथियों को आदेश दिया - “गिरफ्तार कर लो इसे…।” कहने के साथ ही उसने रिवाल्वर निकाल कर मेरे सीने पर रख दी।

इससे पहले कि मैं कुछ सोच पाता - मेरे हाथों में हथकड़ी पड़ गई। और उसी पल भयानक परिवर्तन हुआ…. मुझे जोर का झटका लगा और चाह कर भी मैं अपनी टांगों पर खड़ा ना रह सका…. चीखता हुआ जमीन पर गिर पड़ा। पुलिस वाले मुझ पर टूट पड़े।

फिर मैं अचेत हो गया।
 
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