Long Sex Kahani सोलहवां सावन - Page 19 - SexBaba
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Long Sex Kahani सोलहवां सावन

रस बरसे ,अमराई में 



अब तक 




" अरे यार फाड़ दे न , फडवांने के लिए ही तो आई हूँ इस सोलहवें सावन में " मैं मुस्करा के बोली और पुआल के ऊपर टाँगे छितरा के लेट गयी , चुन्नू को जबरदस्त मैंने फ़्लाइंग किस भी दिया ,


और अब तक वो अनाड़ी खिलाड़ी हो गया था। 

मेरी दोनों लम्बी टाँगे उसके कंधे पे थीं , उभार उसकी मुठ्ठियों पे और सुपाड़ा सीधे गुलाबो के मुंह पे। 

अबकी न कोई झिझक थी न लिहाज , और फिर मेरी सहेली , उसके दोस्त की मलाई से वैसे ही गीली खुली थी। 






एक धक्के में ही सुपाड़ा पूरा घुस गया , चूतड़ उचक्का के मैंने भी साथ दिया।

अपने पैरों से मैं उसे अपनी ओर खींच रही थी , मेरे दोनों हाथ उसकी पीठ पर थे और मैंने उसे कस के भींच रखा था। मेरे उभार कस के उसके सीने से रगड़ रहे थे ,और उसके हर चुम्बन का मैं दूने जोश से जवाब दे रही थी। 

असर तुरंत हुआ। 

जो कुछ देर पहले एकदम नौसिखिया था ,लण्ड चूत के खेल का एकदम नया खिलाड़ी ,

उसने चौक्के ,छक्के मारने शुरू कर दिए। 





दो चार धक्के में ही दो तिहाई लण्ड अंदर था। अब वो एकदम घबड़ा नहीं रहा था , ऊपर से सुनील और ,


" फाड़ दे साल्ली की बहुत बोल रही थी , दिखा दे उसे अपने लण्ड की ताकत आज। चोद ,चोद कस कस के। " 

सिर्फ मेरे सोना मोना को वो उकसा ही नहीं रहा था मेरे भी और अगन जगा रहा था , कभी उसकी उँगलियाँ मेरे निपल को पिंच कर देतीं तो कभी क्लिट को रगड़ मसल देतीं ,

असर बहुत जल्द हुआ। 

पांच मिनट के अंदर ही मेरे छोना का लण्ड सीधे मेरी बच्चेदानी पे धक्के मार रहा था और मैं दुगुने जोश से उसका जवाब दे रही थी। मुझे अंदाज लग गया था की ये लम्बी रेस का घोड़ा है। फिर अभी कुछ देर पहलेही एक राउंड कबड्डी खेल चुका है इसलिए ३०-४० मिनट से पहले मैदान नहीं छोड़ने वाला है। 






दस पन्दरह मिनट के बाद आसन बदल गया था ,मैं उसकी गोद में थी ,लण्ड एक दम जड़ तक मेरी किशोर चूत में घुसा ,कभी वो मेरे गाल चूमता तो कभी उभारों को चूसता। कुछ देर में मैं खुद ही उसके मोटे खम्भे पर चढ़ उतर रही थी ,सरक रही थी ,चुद रही थी। 


लेकिन नए खिलाड़ी के साथ असली मजा मिशनरी पोजिशन में ही है 

मर्द ऊपर ,लड़की नीचे। 

और कुछ देर में हम दोनों उस हालत में ही थे , वो हचक हचक के चोद रहा था। 

बाहर बूँदों की रिमझिम थोड़ी हलकी हो गयी थी लेकिन चुन्नू के धक्कों में कमी नहीं आई , और मुझे भी सुनील को छेड़ने का मौका मिल गया। 






उसके पगलाए बौराए लण्ड को कभी मैं अपनी चूचियों के बीच ले के रगड़ती तो कभी मुंह में ले चुभलाती तो कभी चूसती। 

और वो भी मेरी चूचियों की ,क्लिट की ऐसी की तैसी कर रहा था। 






नतीजा ये हुआ की आठ दस मिनट में मैं झड़ने लगी और मेरी झडती बुर ने जो चुन्नू के लण्ड को भींचा ,निचोड़ा तो वो भी मेरे साथ साथ , ...देर तक ,... 


जब चुन्नू मेरे ऊपर से उठा तो पानी बरसना बंद हो चुका था , बादल थोड़े छट गए थे , चाँद भी निकल आया था। 

उसको दूर जाना था था , इसलिए वो निकल गया। 









आगे 



मैं और सुनील एक दूसरे को छेड़ते रहे। सुनील का मन बहुत था एक राउंड के लिए लेकिन किसी तरह माना ,क्योंकि चन्दा भी मेरे साथ नहीं थी और अमराई से निकल के मुझे घर अकेले जाना था। 


हम दोनों निकले तो घनी अमराई के पत्तों से छन के चांदनी छलक रही थी। 


बारिश तो बंद हो गयी थी लेकिन पत्तों से टप टप बूंदे गिर रही थीं और हम दोनों को थोड़ा थोड़ा भिगो भी रही 


रिमझिम रिमझिम सावन की बूंदे अभी बरस गयी ,थीं। बाहर सावन बरस रहा था, 

और भीग मैं अंदर रही थी ,जहाँ मेरा सोलहवां सावन बरस रहा था ,चुन्नू और सुनील ने मुझे गीला कर दिया था। दोनों जाँघों के बीच कीचड़ भरा हुआ था। मेरे जोबन को जवानी के तूफ़ान ने झकझोर के रख दिया था। मैं मुस्करा पड़ी ,कुछ सोच के। जिस दिन मैं भाभी के गाँव आई थी उसी दिन माँ ( भाभी की माँ ) ने बड़े दुलार से मुझे कहा था ,


" अरे सोलहवां सावन तो रोज बरसना चाहिए ,बिना नागा। हरदम कीचड़ ही कीचड़ रहना चाहिए ,चाहे दिन हो रात। "

कुछ किया धरा नहीं था मैंने तब तक ,एक दम कोरी थी , ऐसे सफ़ेद कागज़ की तरह जिसपर अभी तक किसी ने कलम भी नहीं छुआई हो ,लेकिन उनकी बात का मतलब तो मैं समझ ही गयी और एकदम शरमा गयी। बस धत्त बोल पाई। 

लेकिन उन की बात एकदम सही निकली। 

जाँघे अभी भी दुःख रही थीं ,सुनील और चुन्नू ने मिल के इतने जोर जोर के धक्के लगाए थे , बस किसी तरह सुनील का सहारा लेकर मैं उठी अपने कपडे बस ऐसे ही तन पर टांग लिए। जोर से पिछवाड़े चिलख उठी ,इस सुनील का खूंटा साला है ही इतना मोटा। 

मैंने खा जाने वाली निगाहों से सुनील की ओर देखा। और वो दुष्ट सब समझ कर मुस्करा पड़ा। 

बाहर निकल कर जब मैंने एक बार गहरी सांस ली ,एक अजब मस्ती मेरे नथुनों में भर गयी


अभी अभी बरसे पानी के बाद मिटटी से निकलने वाली सोंधी महक ,

अमराई की मस्त मादक गमक, हवा में घुली बारिश की खुशबू। 

और ऊपर से , दो जवान मर्दों के पसीने की ,उनके वीर्य की मेरी देह से आती रसभीनी गंध,




सुनील कमरा बंद कर के मेरे पीछे आ के खडा हो गया ,एकदम सट के, सटा के। 

उसका एकदम खड़ा था , खूब मोटा कड़ा। 

मेरे तन मन की हालत उससे छुपती क्या ,जोर से मेरे दोनों जोबन दबोचते बोला ,

" क्यों मन कर रहा है न हो जाय एक राउंड और ,यहीं नीले गगन के तले। "

मुंह ने ना किया और देह ने हाँ ,

धत्त बोली मैं लेकिन अपने बड़े बड़े गदराए नितम्ब उसके खड़े खूंटे पे कस कस रगड़ दिया और उस के हाथों के बंधन छुड़ाते हुए भाग खड़ी हुयी। 

उस अमराई का कोना कोना मेरा जाना पहचाना था ,कितनी बार सहेलियों ,भौजाइयों के साथ झूला झूलने आई थी और कभी गाँव के लौंडो के साथ 'कबड्डी' खेलने। 

एक पारभासी सा रेशमी अँधेरा छाया था। अमराई बहुत गझिन थी और बहुत बड़ी भी। 




दिन में भी १० -२ ० हाथ के आगे नहीं दिखता था ,और दो चार एकड़ में फैली होगी कम से कम। लेकिन मैं सुनील को चिढ़ाते ललचाते आगे निकल गयी। 

आसमान में बदलियां चाँद के साथ चोर सिपाही खेल रही थीं। 







सावन में भी लगता है आसमान में फागुन लगा था , बदलियां मिल के किसी नए कुंवारे लड़के की तरह चाँद को घेर लेतीं और उसके मुंह में कालिख पोत देती और पूरा आसमान अँधेरे से भर उठता। 


चाँद किसी तरह उन गोरी गुलाबी बदलियों से अपने को छुड़ाता तो फिर एक बार जुन्हाई छिटक जाती। 


लेकिन वो चांदनी भी ,आम के बड़े घने पेड़ रास्ता रोक के खड़े हो जाते और कुछ किरणे ही उन की पकड़ से बच कर जमींन तक पहुँच पाती। 

आसमान में बदरिया चाँद को छेड़ रही थीं ,और मैं यहाँ सुनील को।
 
लेकिन वो चांदनी भी ,आम के बड़े घने पेड़ रास्ता रोक के खड़े हो जाते और कुछ किरणे ही उन की पकड़ से बच कर जमींन तक पहुँच पाती। 

आसमान में बदरिया चाँद को छेड़ रही थीं ,और मैं यहाँ सुनील को।




लेकिन सुनील भी न जैसे ही ज़रा सा अँधेरा हुआ ,मेरी चाल थोड़ी धीमी हुयी तो बस मुझे पता भी नहीं चला और पीछे से आके मुझे दबोच लिया। 

खूंटा सीधे गांड की दरार के बीच.

दोनों हथेलियां मेरे गदराते कच्चे टिकोरों पे 



और मेरे मुंह से निकल गया ," हे दुष्ट क्या करते हो। "

जोर जोर से मेरे नए आये उभारों को मसलता वो बोला,

" जो ऐसे मस्त मौसम में तेरे जैसे मस्त माल के साथ करना चाहिए। "

" उं उं ,छोड़ न हट ,देर हो रही है ,... " 


मैं झूठ मूठ बोली ,पर देर सचमुच हो रही थी। गाँव में रात आठ बजे ही लोग लालटेन बुझाने लगते है और इसका फायदा भी होता है , रात भर मूसल ओखली में चलता है।

पिछली बार जब अजय मेरे कुठरिया में रात में आया था तो साढ़े आठ बजे घुस आया था। 

शाम कब की ढल चुकी थी और रात हो ही गयी थी। गनीमत थी की मेरी भाभी खुद कामिनी भाभी के यहां गयी थीं वरना वो इतनी परेशान होती की ,... 

सुनील ने छोड़ा नहीं लेकिन कुछ किया भी नहीं ,हाँ अब उसका हाथ पकड़ के मैं जल्दी जल्दी तेज डगर भरते अँधेरे में भी अमराई में काफी दूर निकल आई थी ,करीब बाहरी हिस्से में ,कुछ देर पे गाँव के घरों की रोशनियाँ दिखनी शुरू हो गयी थी.



लेकिन तभी हवा तेज हुयी ,सरर सरर घू घू करते , और पानी की बौछारें भी तलवार की तरह हमारी देह पर पड़ रही थीं। बिजली चमक ही रही थी और लगा कही पास में ही बिजली गिरने की आवाज आई। 

बिजली की कड़कती रौशनी में मैंने एक छप्पर देखा ,जिसके नीचे मुश्किल से एक आदमी खड़ा हो सकता है , यहां पर पेड़ भी बहुत गझिन था ,बगल में ही बँसवाड़ी थी,जिससे सट कर ही हम लोगों के घर जाने की एक पगडंडी थी। 




मैं वहीँ धंस ली , अच्छी तरह मैं भीग गयी थी और बौछार तो अभी भी अंदर आ रही थी पर सर पर सीधे पानी गिरना बंद हो गया था। 

सहारे के लिए मैं आम के पेड़ की मोटी टहनी का सहारा लेकर झुकी हुयी थी , जिससे सर पर पानी की धार से बचत हो जाए। 

गरर कडाक धरर , जोर की आवाज हुयी और पास के एक पुराने पेड़ की एक मोटी डाल भहराकर गिर पड़ी। 


" हे अंदर आ जा ना ,मैंने सुनील को बुलाया। 

पर वो चमकती बिजली की रौशनी में मेरी भीगी देह देखकर ,और मैं झुक के इस तरह खड़ी थी की मेरे गीले भीगे नितम्ब खूब उभरकर बाहर निकले थे। 


" आ न एकदम चिपक के खड़े हो जा मुझसे तो कुछ तो तू भी बारिश से बच जाएगा। "

वो आ भी गया , चिपक भी गया और बच भी गया पर मैं नहीं बच पायी। 

कब मेरे उठे गीले नितम्बों पर से कपडे सरके मुझे नहीं मालूम ,लेकिन जब उसने खूंटा धँसाना शुरू किया तो तो मुझे मालुम पड़ा। 

और तब तक उसकी उँगलियों ने मेरे निपल्स की ये हालत कर दी थी की मैं मना करने वाली हालत में थी ही नहीं ,और मैंने मन को ये कह के मनाया की अगर भी करती तो कौन वो साला मानता। 







कड़कते बादल के बीच मेरी चीख दब के रह गयी। तेज बरसते पानी की आवाज ,पेड़ों से गिरती पानी की धार और जमींन पर बहती पानी की आवाज के साथ मेरी चीखे और सिसकियाँ मिल घुल गयी थीं। 





कुछ ही देर में आधे से ज्यादा सुनील का मोटा खूंटा मेरी गांड के अंदर था ,और अब मैं भी पीछे धक्के मार मार के गांड मरवाते,मजा लेते उसका साथ दे रही थी।


बरसते पानी के सुर ताल के साथ हचक हचक कर वो मेरी गांड मार रहा था ,और फिर अभी कुछ देर पहले ही जो कटोरी भर मलाई उसने मेरी गांड को पिलाई थी ,उसकी एक बूँद भी मैंने बाहर नहीं जाने दी थी , बस सटासट गपागप लण्ड अंदर बाहर हो रहा था।
 
कुछ ही देर में आधे से ज्यादा सुनील का मोटा खूंटा मेरी गांड के अंदर था ,और अब मैं भी पीछे धक्के मार मार के गांड मरवाते,मजा लेते उसका साथ दे रही थी। 





बरसते पानी के सुर ताल के साथ हचक हचक कर वो मेरी गांड मार रहा था ,और फिर अभी कुछ देर पहले ही जो कटोरी भर मलाई उसने मेरी गांड को पिलाई थी ,उसकी एक बूँद भी मैंने बाहर नहीं जाने दी थी , बस सटासट गपागप लण्ड अंदर बाहर हो रहा था। 






निहुरे हुए दर्द भी हो रहा था और मजे भी आ रहे थे ,बार बार बस कामिनी भाभी की बात याद आ रही थी ,

" ननद रानी ,ई बात समझ लो , गांड मरवाई का असल मजा तो दरद में ही है ,जेह दिन तुमको उस दरद में मजा आने लगेगा , तुम एक बार अपनी बुर की खुजली भूल जाओगी लेकिन गांड मरवाना कभी नहीं छोड़ोगी। "




और मेरी अब वही हालत थी। 



सुनील कुछ देर पहले ही तो झडा था मेरी गांड में और उस बार अगर उसने २०-२५ मिनट लिए होंगे तो अबकी आधे घंटे से ऊपर हो लेगा। 

पहली बार मैं बरसते पानी में ,खुली अमराई में सोलहवें सावन का मजा ले रही थी। 


कुछ ही देर में आधे से ज्यादा सुनील का मोटा खूंटा मेरी गांड के अंदर था ,और अब मैं भी पीछे धक्के मार मार के गांड मरवाते,मजा लेते उसका साथ दे रही थी। 





बरसते पानी के सुर ताल के साथ हचक हचक कर वो मेरी गांड मार रहा था ,और फिर अभी कुछ देर पहले ही जो कटोरी भर मलाई उसने मेरी गांड को पिलाई थी ,उसकी एक बूँद भी मैंने बाहर नहीं जाने दी थी , बस सटासट गपागप लण्ड अंदर बाहर हो रहा था। 






निहुरे हुए दर्द भी हो रहा था और मजे भी आ रहे थे ,बार बार बस कामिनी भाभी की बात याद आ रही थी ,

" ननद रानी ,ई बात समझ लो , गांड मरवाई का असल मजा तो दरद में ही है ,जेह दिन तुमको उस दरद में मजा आने लगेगा , तुम एक बार अपनी बुर की खुजली भूल जाओगी लेकिन गांड मरवाना कभी नहीं छोड़ोगी। "




और मेरी अब वही हालत थी। 



सुनील कुछ देर पहले ही तो झडा था मेरी गांड में और उस बार अगर उसने २०-२५ मिनट लिए होंगे तो अबकी आधे घंटे से ऊपर हो लेगा। 





पहली बार मैं बरसते पानी में ,खुली अमराई में सोलहवें सावन का मजा ले रही थी। 




सुनील भी न ,जिस तेजी से वो मेरी गांड मार रहा था उतनी ही तेजी से उसकी दो उँगलियाँ मेरी चूत का मंथन कर रही थीं ,अंगूठा क्लिट रगड़ रहा था। 


थोड़ी देर में मैं झड़ने के कगार पर पहुँच गयी पर न उसकी उँगलियाँ रुकीं न मूसल के तरह का लण्ड। 

मैं झडती रही ,वो चोदता रहा गांड मारता रहा। 

दो बार मैं ऐसे ही झड़ी और जब तीसरी बार मैं झड़ी तो मेरे साथ वो भी देर तक ,

उसके लण्ड की मलाई मेरी गांड को भर कर ,टपक कर मेरी जाँघों को भिगोती बाहर गिर रही थी। 

और तब मैंने आँखे खोली और नोटिस किया की बारिश तो कब की बंद हो चुकी है ,और बादलों ने भी अपनी बाहों के बंधन से चांदनी को आजाद कर दिया है , जुन्हाई चारो ओर पसरी पड़ी थी , बँसवाड़ी ,घर की ओर जाने वाली पगडण्डी सब कुछ साफ़ नजर आ रहे थे और अमराई के बाहर गाँव के घरों की रौशनी भी। 

सुनील को देख के मैं एक बार जोर से शरमाई अपने कपडे ठीक किये और उससे बोली की मैं अब चली जाउंगी। 



उसका घर दूसरी ओर पड़ता था ,लेकिन तब भी पगडण्डी पर वह कुछ देर मेरी साथ चला और जब मैं अमराई के बाहर निकल आई तभी उसने , वो पगडण्डी पकड़ी जो उसके घर की ओर जाती थी। 

मैं कुछ ही दूर चली थी की किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। 

मैं एक बड़े से पेड़ के नीचे थी ,वहां से घर भी दिख रहा था , और मैं जोर से चौंक गयी। 

ये सुनील तो नहीं हो सकता था ,कौन था ये ,....


….एक पल के लिए तो मैं घबड़ा गई। 

घर एकदम पास ही था , लेकिन चारो ओर एकदम सूनसान था। कोई भी नहीं दिख रहा। 

और मैं चीख भी नहीं सकती थी ,उस हाथ ने मेरे मुंह को दबोच लिया था जोर से और दूसरा हाथ मेरे नितम्बों को सहला रहा था। उसकी दो उँगलियाँ नितम्बों के बीच की दरार में कपडे के ऊपर से घुस गया था और हलके से दबा रहा था। मेरा बदन एकदम भीगा था और कपडे पूरी तरह चिपके थे।
 
मैं कुछ ही दूर चली थी की किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। 

मैं एक बड़े से पेड़ के नीचे थी ,वहां से घर भी दिख रहा था , और मैं जोर से चौंक गयी। 

ये सुनील तो नहीं हो सकता था ,कौन था ये ,....
….एक पल के लिए तो मैं घबड़ा गई। 

घर एकदम पास ही था , लेकिन चारो ओर एकदम सूनसान था। कोई भी नहीं दिख रहा। 

और मैं चीख भी नहीं सकती थी ,उस हाथ ने मेरे मुंह को दबोच लिया था जोर से और दूसरा हाथ मेरे नितम्बों को सहला रहा था। उसकी दो उँगलियाँ नितम्बों के बीच की दरार में कपडे के ऊपर से घुस गया था और हलके से दबा रहा था। मेरा बदन एकदम भीगा था और कपडे पूरी तरह चिपके थे। 


फिर पीछे से ही उसके दहकते होंठ सीधे मेरे गालों पर , ... और मैं पहचान गयी। 

हम दोनों साथ खिलखिलाने लगे। 

गुलबिया थी.



" कब से खड़ी थी तू यहाँ ,?" मैंने खिलखिलाते हुए पूछा। 

"जब से तुम उस मड़ई के नीचे घुसी थी ,बस बगल में बँसवाड़ी में मैं खड़ी तोहार राह देख रही थी , मुझे मालूम था एहरे से आओगी। "


मैं जान गयी मेरी पूरी गांड मराई का नजारा उसने एकदम क्लोज अप में देखा होगा ,लेकिन गुलबिया और मुझमे अब छुपा भी कुछ नहीं था। 

" माँ परेसान हो रही थीं , जब बारिश तेज हो गयी थी, ख़ास तौर से जब तोहरी भाभी और चंपा भाभी क खबर कामिनी भाभी भेजीं। " गुलबिया बोली। 

मैंने टोका नहीं ,मुझे मालुम था अभी खुद ही बोलेगी ,और उसने बोला भी। 

" कामिनी भाभी के मरद आज आये नहीं ,कल रात को लौटेंगे तो कामिनी भाभी उन दोनों को वहीँ रोक ली और वही खबर वो भेजवाई थी। "

मुझे कुछ याद आ रहा था ,मैं बस यही सोच रही थी की आज कामिनी भाभी के साथ ,चंपा भाभी और मेरी भाभी ,फुल टाइम रात भर मस्ती ,... फिर मुझे याद आया , जब मैं रात में मुन्ने को भाभी की माँ के पास सुलाकर लौट रही थी तो मेरी भाभी और चंपा भाभी कुछ खुसफुस कर रही थीं ,

दरवाजे से चिपक के मैंने कान लगा के सूना ,

" हे एक स्पेशल नेग बाकी है मुन्ने के होने का ,मुन्ने की मामी का। " चंपा भाभी बोलीं। 

' क्या , " भाभी याद करने के कोशिश करती बोलीं। 

" भूल गयी , होली में जब तेरी बिल में मुठियाने की कोशिश की थी तो क्या तय हुआ था ,यही न एक बार लड़का इस बिल से निकल जाय तो बस आगे पीछे , तो बस सोच ले। एक दिन अब रात भर मैं और कामिनी भाभी मिल के तेरी आगे पीछे दोनों ओर , मुट्ठी पेलेंगे। ' चंपा भाभी ने याद दिलाया। 

और मैं समझ गयी आज बस वही हो रहा होगा ,कामिनी भाभी के घर ,रात भर मेरी भाभी की अच्छी दुर्गत होने वाली है। 


मैं मुस्करा दी लेकिन फिर एक सवाल उठा मेरे मन में,

और बोलने के पहले ही गुलबिया ने जवाब दे दिया। 

" अब माँ अकेले हैं तो उन्होंने मुझसे कहा की रात में बस वो तुम रहेंगी तो मैं भी रुक जाऊं ,इसलिए अब आज रात मैं भी यही रुकूँगी उनके साथ। "

तबतक हम दोनों घर पहुँच गए,

इन्तजार में बिचारी बेचैन दरवाजे पर ही खड़ी थीं। 

जब मेरे कपडे उन्होंने भीगे देखे तो गुलबिया को डांट पड़ गयी,

" अरे लड़की इतने गीले कपड़ों में लिपटी खड़ी है , उतारो इसके कपडे जल्दी ,कहीं जुकाम हो गया तो। "
 
गुलबिया , मैं और ,... 



गुलबिया को तो कपडे उतारने का बहाना चाहिए था किसी भी ननद के ,और वो मेरी ऐसी कच्ची कली ,शहरी छोरी हो तो फिर कहना ही क्या। 

ऊपर से साड़ी मैंने बस देह पर टांग रखी थी ,और ब्लाउज के बटन भी बस एक दो ही बचे थे ,बाकी तो सुनील के साथ अमराई में हुयी जंग में खेत रहे थे। 

और अभी मैं और गुलबिया घर के दरवाजे के बाहर ही खड़े थे ,वहीँ पर ,मेरे लाख ना नुकुर करने के बाद भी 

,... 


माँ मुस्कराती रहीं ,मुझे छेड़ती रहीं ,गुलबिया को उकसाती रही , और जैसे ही हम लोग घर के अंदर घुसे ,उन्होंने मेरे कान में बोला ,

" अरे साडी तो तोहरे भौजाई क भी ,ई गुलबिया क भी भीग गयी है। "

हम लोग आँगन में पंहुंच गए थे। इशारा काफी था ,मैंने एक झटके में गुलबिया की साड़ी खींच ली ,उसने ना नुकुर भी नहीं किया। अब वो सिर्फ एक गीले देह से चिपके छोटे से ब्लाउज साये में थी। 

उसकी साडी मैंने एक बार फिर से बस अपनी देह पे लपेट ली , और बाहर के दरवाजे की ओर देखा। 

मां ने न सिर्फ बंद करके सांकल लगा दी थी बल्कि एक मोटा भुन्नासी ताला भी लगा के बंद कर दिया था। 

आसमान में बादल अपना अपना सारा पानी बरसा के ,कहीं दूर शायद गाँव के बाहर की नदी के पास दुबारा पानी भरने चले गए थे। और अब आंगन में चांदनी एकदम खुल के नाच रही थी,पूरा आँगन चांदनी में दमक रहा था ,आँगन में लगा नीम का पेड़ भी , और तभी मैंने देखा ,


रॉकी नीम के पेड़ में ही बंधा था ,और टकटकी लगाए मुझे देख रहा था। 

माँ ने मुझे उसे देखते ,देखा और उसके पास ही आंगन के कच्चे वाले हिस्से में ,उसके पास ही खींच के अपने पास बिठा लिया।


कुछ देर दुलार से मुझे वो देखती रहीं , उनकी ऊँगली ने मेरे चेहरे पर आयी एक भीगी लट को हटा दिया। और वो ऊँगली जब मेरे होंठों से खेलनी लगी तो कुछ लजा के कुछ झिझक के मैंने आँखे झुका लीं। 




बस , ऊँगली की जगह माँ के होंठों ने ले ली ,बहुत हलके हलके जैसे आसमान में बादल के कुछ टुकड़े हवाओं पर फिसल रहे थे बस वैसे ही , कभी मेरे गालों पे तो कभी होंठों पे। 


उनका हाथ अब मेरे कंधे की गोरी गोलाइयों पर सरक् रहे थे , और उन्होंने साडी को सरका के नीचे हटा दिया। माँ का दूसरा हाथ , वहां पहुँच गया था जिसके पीछे गाँव के चाहे लौंडे हों या मेरी भौजाइयां हो ,सब पीछे पड़े रहते थे , मेरे पिछवाड़े।


कभी हलके हाथ सहलाता तो कभी बस मेरे गदराये नितंबों को दबा देता। 

दोनों हाथों की शरारतों का नतीजा ये हुआ की साडी ऊपर मेरी गोलाइयों से भी हट गयी और नीचे से भी सरक् कर ऊपर आ गयी , बस कमर में एक छल्ले की तरह लिपटी फंसी ,एक लता सी। 





और भाभी की माँ भी न , उन्हें सिर्फ शरारतों से चैन नहीं था ,छेड़ छेड़ कर ,मेरी बंद पलकों पर चुम्मी ले ले के वो वो मेरी आँखे खुलवा के मानीं।



लजाते शरमाते जब मैंने अपनी दीये ऐसी बड़ी बड़ी पलकें खोलीं तो मारे ख़ुशी के माँ ने सीधे मेरे होंठों पे एक चुम्मा , क्या कोई मर्द चुम्मा लेगा ऐसा। 

+
अपने दोनों होंठों के बीच मेरे भारी रसीले गुलाबी होंठों को उन्होंने कचकचा के काट लिया , और जब हलके से मैंने सिसकी ली तो बस , माँ ने जीभ मेरे मुंह में ठेल दी। आगे का खेल तो मैं कब का सीख चुकी थी तो मैंने भी उनकी जीभ चुभलाना चूसना शुरू कर दिया। 

मैंने गर्दन ज़रा सा नीचे की तो मेरी दोनों अनावृत्त गोलाइयाँ , चांदनी सावन में मेरे जोबन से होली खेल रही थी। उनका उभार कड़ापन और साथ ही साथ सुनील की शैतानियां भी , हर बार वो ऐसी जगह अपने निशान छोड़ता था , दांतो के ,नाखूनों के की , मैं चाहे जितना ढकना छिपाना चाहूँ , वो नजर आ ही जाते थे।

फिर तो मेरी सहेलियों को भाभियों को छेड़ने का वो मौक़ा मिल जाता था की , और आज तो उसके साथ साथ उसने निपल के चारो और दांतो की माला पहना दी थी ,ऊपर से कस कस के खरोंचे गए नाख़ून के निशान ,... 




मेरी निगाहों का पीछा करते माँ की निगाहें भी उन निशानों पर पहुँच गयी , और वो बोल उठीं ,

" ये लड़के भी न बस ,कच्ची अमिया मिल जाए देख कैसे कुतर कुतर के , ...
 
कच्ची अमिया



मेरी निगाहों का पीछा करते माँ की निगाहें भी उन निशानों पर पहुँच गयी , और वो बोल उठीं ,

" ये लड़के भी न बस ,कच्ची अमिया मिल जाए देख कैसे कुतर कुतर के , ... "

और जैसे कोई घावों पर मरहम लगाए ,पहले तो उनकी उँगलियों की टिप ,फिर होंठ अब सीधे जहाँ जहां लड़कों के दांत के नाख़ून के निशान मेरे कच्चे उभारों पर थे , बस हलके हलके सहलाना ,चूमना ,चाटना ,


और साथ में वो बहुत हलके हलके बुदबुदा रही थीं ,जैसे खुद से बोल रही हों 

"अरे लड़कों को क्यों दोष दूँ , जिस दिन तू आयी थी पहले पहल उसी दिन मेरा मन भी इस कच्ची अमिया को देख के ललचा गया था ,आज मौका मिला ही रस लेने का"

और फिर तो जैसे कोई सालों का भूख मिठाई की थाली पर टूट पड़े , मेरे निपल उनके मुंह के अंदर ,दोनों हाथ मेरे कच्चे टिकोरों पर ,

जिस तरह से वो रगड़ मसल रही थीं ,चूस रही थीं ,चूम रहीं थी , मैंने सरेडंर कर दिया।


मैं सिर्फ और सिर्फ मजे ले रही थी ,

लेकिन असर मेरी सहेली पर ,मेरी दोनों मस्ती में फैली खुली जाँघों के बीच मेरी चिकनी गुलाबो पर पड़ा और वो भी पनियाने लगी।

और मेरी निगाह रॉकी से टकरा गयी ,एकदम पास ही तो नीम के पेड़ से बंधा खड़ा था वो। 

उसकी निगाहें मेरी गुलाबो से ,पनियाती गीली मेरी कुँवारी सहेली से चिपकी थीं। 


लेकिन उसके बाद जो मैंने देखा तो मैं घबरा गयी , उसका शिष्न खड़ा हो रहा था , एकदम कड़ा हो गया था , लाल रंग का लिपस्टिक सा उसका अगला भाग बाहर निकल रहा था ,

तो क्या मतलब वो भी मेरी गीली पनियाई खुली चूत को देख के गरमा रहा है ,उसका मन कर रहा है मुझे , 

लेकिन मेरी चूत ये देख के और फड़फड़ाने लगी जैसे उसका भी वही मन कर रहा हो जो रॉकी के खूँटे का कर रहा हो। 

गनीमत था माँ हम दोनों का नैन मटक्का नहीं देख रही थी ,वो तो बस मेरी कच्ची अमिया का स्वाद लेने में जुटी थीं। 





लेकिन तभी रसोई से गुलबिया निकली ,उसके एक हाथ में तसला था रॉकी के लिए ,दूध रोटी , और दूसरे हाथ में बोतल और कुछ खाने पीने का सामान था। 


बोतल तो मैंने झट से पहचान ली देसी थी ,एक बार सुनील और चन्दा ने मिल के मुझे जबरदस्ती पिलाई थी ,दो चार घूँट में मेरी ऐसी की तैसी हो गयी थी। 

और गुलबिया ने मुझे राकी का 'वो ; देखते देख लिया। 

पास आके सब समान आँगन में रख के मेरे और माँ के पास धम्म से वो बैठ गयी और मेरा गाल मींड़ते बोली ,



" बहुत मन कर रहा है न तेरा उसका घोंटने का ,अरे दोपहर को तेरी भाभी बीच में आ गयी वरना उसी समय मैं तो तुम दोनों की गाँठ जुड़वा देती। "



गुलबिया की बात सुन के पल भर के लिए मेरे कच्चे टिकोरों पर से मां ने मुंह हटा लिया और गुलबिया को थोड़ा झिड़कते बोलीं ,

' बहुत बोलती है तू , अरे जो बात बीत गयी ,बीत गयी। अब तो और कोई नहीं है न और पूरी रात है,... "

बिना उनकी बात के ख़त्म होने का इन्तजार किये गुलबिया ने सब कुछ साफ कर दिया ,

" चल अब मैं हूँ तो फिर तोहार और रॉकी के मन क कुल पियास बुझा दूंगी , घबड़ा मत। दर्द बहुत होगा लेकिन सीधे से नहीं तो जबरदस्ती ,"


मेरी निगाह आंगन के बंद दरवाजे पे और उस पे लटके मोटे ताले पर पर चिपकी थी।
 
गुलबिया ने सब कुछ साफ कर दिया ,

" चल अब मैं हूँ तो फिर तोहार और रॉकी के मन क कुल पियास बुझा दूंगी , घबड़ा मत। दर्द बहुत होगा लेकिन सीधे से नहीं तो जबरदस्ती ,"


मेरी निगाह आंगन के बंद दरवाजे पे और उस पे लटके मोटे ताले पर पर चिपकी थी। लेकिन तबतक गुलबिया ने मुझसे कहा ,

" सुन अरे रॉकी के मोटे लंड से चुदवाना है न , तो पहले जरा उसको खिला पिला दे ,ताकत हो जायेगी तो रात भर इसी आँगन में तुझे रगड़ रगड़ के चोदेगा ,ले खिला दे उसको ," 


और तसला मेरी ओर सरकाया। 




लेकिन मां अभी भी मेरी कच्ची अमिया का रस ले रही थी और मुझे छोड़ना नहीं चाहती थी। उन्होंने गुलबिया को बोल दिया ,



" अरे आज तू ही खिला पिला के तैयार कर रॉकी को ,तेरी भी तो ननद है , तेरी भी तो जिम्मेदारी है। अभी तू खिला दे ,कल से ये रॉकी को देगी रोज देगी ,बिना नागा और कोई बीच में आयेगा तो मैं हूँ न। "

गुलबिया ने तसला रॉकी के सामने कर दिया और बोतल खोलते हुए माँ से पूछा , 

"थोड़ा इस कच्ची अमिया को भी चखा दूँ?

माँ ने बोतल उस के हाथ से छीन ली और एकदम मना कर दिया , " अभी उसकी ये सब पीने की उम्र है क्या ,चल मुझे दे। "

फिर आँख मार के मुझसे बोलीं ," आज तो तुझे भूखा पियासा रखूंगी ,तूने मुझे बहुत दिन पियासा रखा है। "

फिर मुस्करा के बोलीं 


" घबड़ा मत मिलेगा तुझे भी लेकिन हम दोनों के देह से ,खाने पीने का सब कुछ ,... "

और जैसे अपनी बात को समझाते हुए उन्होंने बोतल से एक बड़ी सी घूँट भरी और मुझे एक बार फिर बाँहों में भींच लिया। 




उनके होंठ मेरे होंठ से चिपक गए , फिर तो जीतनी दारु उनके पेट में गयी होगी उससे ज्यादा मेरे पेट में ,... 

उनकी जीभ मेरे मुंह में तबतक घुसी रही ,जबतक मैंने सब घोंट न लीं। 

बोतल अब गुलबिया के हाथ में थी और वो गटक रही थी। 

" अरे तानी इसके यार को भी पिला दो न ,जोश में रहेगा तो और हचक हचक के , ... "

माँ ने गुलबिया को समझाया ,और गुलबिया ने घल घल एक तिहाई बोतल रॉकी के तसले में खाली कर दी। 

"सही बोल रही हैं ,जितने लंड वाले है सब एकर यार है। "


गुलबिया हंस के बोली और फिर बोतल उसके मुंह में थी ,... 

लेकिन एक बार फिर उसके मुंह से वो मेरे मुंह में ,


थोड़ी देर में जितनी देसी गुलबिया और माँ ने गटकी थी ,उसके बराबर मेरे पेट में चली गयी थी। 

मस्ती से हालत खराब थी मेरी। और रॉकी की भी ,अब उसका औजार पूरा तन गया था।
मेरी निगाह बस रॉकी के मोटे तगड़े लंड पे अटकी थी , बस मन कर रहा था की ,.... 

शायद दारू का नशा चढ़ गया था या फिर बस ,... 

माँ एक बार फिर मेरे कच्ची अमियों का स्वाद लेने में जुट गयी थीं। बोतल अब गुलबिया के हाथ में थी। एक घूँट लेकर वो मुझे उकसाते बोली ,

" अरे एतना मस्त खड़ा हो , तानी सोहरावा ,पकड़ के मुठियावा , बहुत मजा आयी। "

और जब तक मैं कुछ बोलती ,उसने मेरे कोमल कोमल हाथों को पकड़ के जबरदस्ती रॉकी के , ... 


रॉकी तसले में खा रहा था , गुलबिया ने फिर थोड़ी और दारू उसके तसले में डाल दी। फिर सीधे बोतल अबकी मेरे मुंह में लगा दी। 

गुलबिया का हाथ कब का मेरे हाथ से दूर हो गया था ,लेकिन मैं प्यार से हलके हलके सोहरा रही थी , फिर मुठियाने लगी। उसके शिष्न का कड़ा कड़ा स्पर्श मेरी गदौरियों में बहुत अच्छा लग रहा था। और मेरा ये मुठियाना , दबाना रॉकी को भी अच्छा लग रहा था ,लंड ख़ुशी से और फूलने लगा। 

तबतक माँ ने मुंह मेरी देह से हटाया और मुझे देखने लगीं ,शर्मा के ,जैसे मेरी चोरी पकड़ी गयी हो ,मैंने अपना हाथ झट से हटा लिया। 

लेकिन देख तो उन्होंने लिया ही था। बस वो मुस्कराने लगी ,लेकिन उनकी निगाहें कुछ और ढूंढ रही थी ,बोतल। 


पर वो तो खाली हो चुकी थी। कुछ गुलबिया ने पी ,कुछ उसने रॉकी के तसले में ढाल दी और बाकी मैं गटक गयी थी। 


"ला रही हूँ अभी " उनकी बात समझती गुलबिया बोली ,और रॉकी के खाली तसले ,खाली बोतल को ले के अंदर चली गयी। 


माँ ने मेरी देह के बोतल पर ही ध्यान लगाया और बोलीं भी ,तेरी देह में तो १०० बोतल से भी ज्यादा नशा है ,पता नहीं कैसे ई जवानी शहर में बचा के अब तक राखी हो। 

और अबकी हम दोनों एक दूसरे गूथ गए। उनके हाथ होंठ सब कुछ ,वो चूस रही थीं ,चाट रही थीं ,कचकचा के काट रहीं थी ,एकदम नो होल्ड्स बार्ड,
 
मैं ,गुलबिया ,...... एक ओर 




गुलबिया एक हाथ में बोतल और दूसरे में कुछ खाने का सामान ले कर निकली ,और मेरी हालत देखकर उसने पाला बदल लिया ,

" हे हमार ननद के अकेली जान के ,अबहीं हम ननद भौजाई मिल के तोहार ,... "

मां ने बस मुस्करा के गुलबिया की ओर देखा जैसे कह रही हों आजा छिनार तुझको भी गटक जाऊंगी आज , 


बोतल और खाने का सामान जमींन पर रखकर , अपनी मजबूत कलाइयों से माँ के दोनों हाथ कस के जकड़ती मुझसे वो बोली ,

" चल पहले नंगी कर इनको ,फिर हम दोनों मिल के इनको झाड़ते हैं ,आज। समझ में आयेगा इन्हें ननद भौजाई की जोड़ी का मजा। "




मेरी तो ख़ुशी दूनी हो गयी ,साडी तो उनकी वैसे ही लथरपथर हो गयी थी ,आसानी से मैंने खींच के उतार दी , फिर पेटीकोट पर मैंने हाथ लगाया ,और ब्लाउज गुलबिया के हिस्से में आया। 

लेकिन जो उनका हाथ छूटा तो गुलबिया भी नहीं बची। साडी तो उसकी मैंने पहले ही आते ही घर में उतार के खुद पहन ली थी ,ब्लाउज पेटीकोट बचा था वो भी माँ और उस की कुश्ती में खेत रहा। 

अब हम तीनों एक जैसे थे।

" तू नीचे की मंजिल सम्हाल ,ऊपर की मंजिल पर मैं चढ़ाई करती हूँ ," 


गुलबिया ने मुझसे बोला और माँ के सम्हलने के पहले उनके दोनों उभार गुलबिया के हाथों। क्या जबरदस्त उसने रगड़ाई मसलाई शुरू की , और फायदा मेरा हो गया। 

मैं झट से उनकी खुली जांघो के बीच आगयी। झांटे थी लेकिन थोड़ी थोड़ी , मेरे होंठ तो सीधे टारगेट पर पहुँच जाते लेकिन गुलबिया ने मुझे बरज दिया। फुसफुसाते हुए वो बोली,

" अरे इतनी जल्दी काहे को है , थोड़ा तड़पा तरसा ,... "

मैं नौसिखिया थी लेकिन इतनी भी नहीं। कन्या रस के ढेर सारे गुर कामिनी भाभी और बसन्ती ने सिखाये थे। 
बस ,मेरी चुम्बन यात्रा इनर थाइज से शुरू हुयी लेकिन बस 'प्रेम द्वार' के पास पहुँच कर रुक गयी। मैंने जीभ की नोक से उनके मांसल पपोटों के चारो ओर टहल रही थी ,कभी कस के तो कभी बस सहलाते हुए। 

कुछ ही देर में उनकी हालत खराब हो गयी ,चूतड़ पटकने लगीं और जब एक बार मैंने जब जीभ की टिप से उनके क्लिट को बस छू भर लिया तो फिर तो वो पागल हो उठीं। 

" अरे चूस न काहे को तड़पा रही है मेरी गुड्डो , अरे बहुत रस है तेरी जीभ में ,इस छिनार गुलबिया की बात मत सुन। चल चाट ले न ,तुझे रॉकी से इसी आंगन में चुदवाऊँगी,आज ही रात। बस एक बार चूस ले मेरी बिन्नो। "

और अबकी मैंने उनकी बात मान ली। सीधे दोनों होंठों के बीच उनके बुर की पुत्तियों को दबा कर जोर जोर से चूसने लगी। थोड़ी देर में ही उनकी बुर पनिया गयी ,बस मैंने दोनों हाथों से उसे पूरी ताकत से फैलाया और अपनी जीभ पेल दी ,जैसे कोई लन्ड ठेल रहा हो। 

जोरऔर साथ में गुलबिया ने कचकचा के उनके बड़े बड़े निपल काट लिए। 

फिर तो मैंने और गुलबिया ने मिल के उनकी ऐसी की तैसी कर दी ,उनकी बड़ी बड़ी चूंचियां गुलबिया के हवाले थी। खूब जम के रगड़ने मसलने के साथ वो कस कस के काट रही थी। 

और मैं चूत चूसने की जो भी ट्रेनिंग मैंने इस गाँव में पायी थी ,सब ट्राई कर रही थी। मेरे होंठ जीभ के साथ मेरी शैतान उँगलियाँ भी मैदान में थीं। जोर जोर से मैं चूसती ,चाटती और जब मेरे होंठ उनकी चौड़ी सुरंग को छोड़ के क्लीट की चुसाई कर रहे होते तो मेरी दो उँगलियाँ चूत मंथन कर रही होतीं। 



और फिर जब जीभ वापस उनकी गहरी बुर में होती जिसमें से मेरी प्यारी प्यारी भौजाई निकली थीं , तो मेरी गदोरी उनकी क्लिट की रगड़ाई घिसाई कर रही होती और कभी मेरे दोनों हाथ जोर जोर से बड़े बड़े चूतड़ उठा लेते दबोच देते। 

असल में पहली बार मैं भोंसडे का रस ले रही थी। 

इस गाँव में मैंने अनचुदी कच्ची चूत को भी झाड़ा था ,बसन्ती और कामिनी भाभी ऐसी शादी शुदा खूब खेली खायी बुरे भी चूसी थी और उनका रस पीया था ,

लेकिन भोंसडे का रस पहली बार ले रही थी ,मतलब जहां से न सिर्फ दो चार बच्चे निकल चुके हों , बल्कि उम्र में भी वो प्रौढा हो और उसकी ओखल में खूब मूसल चले हों। 

और सच में एकदम लग रस ,अलग स्वाद ,अलग मजा। 

कुछ देर में ही मेरी और गुलबिया की मेहनत का नतीजा सामने आया ,भाभी की माँ के भोसड़े से एक तार की चासनी निकलने लगी ,खूब गाढ़ी ,खूब स्वादिष्ट ,


मैंने सब चाट ली और गुलबिया की ओर देखा ,उसने मस्ती में आँखों ही आँखों में हाई फाइव किया , जैसे कह रही हो ले लो मजा बहुत रस है इनके भोंसडे में ,... 


मैं जोर जोर से कभी जीभ से उनका भोंसड़ा चोद रही थी ,कभी ऊँगली से ,रस तो खूब निकल रहा था , वो तड़प और सिसक भी रही थी लेकिन झड़ने के करीब नहीं आ रही थी। 

और तभी पासा पलटा , माँ की बुर पर गुलबिया ने कब्जा कर लिया। 


वो दोनों लोग 69 की पोजिशन में आ गयी थीं ,गुलबिया की बुर भाभी की माँ चाट चूस रही थी और गुलबिया ने माँ की बुर पर मुंह लगाया , और मेरी कान में मंतर फूंका ,


ई एतानि आसानी से नहीं झड़ेगीं। इनका असली मजा पिछवाडे है जब तक इसकी गांड की ऐसी की तैसी न होगी न,मैं भोंसड़ा सम्हालती हूँ तू गांड में सेंध लगा। 
 
और गांड में सेंध लगाना मैं अच्छी तरह नहीं तो थोड़ा बहुत तो सीख ही गयी थी ,कामिनी भाभी ने न सिर्फ सिखाया समझाया था ,बल्कि अच्छी तरह ट्रेनिंग भी दी थी। 


और आज उस ट्रेनिंग को इस्तेमाल करने का दिन था। कुछ मस्ती ,कुछ मौसम और कुछ दारू का असर ,मैं एकदम मूड में थी आज 'हर चीज ट्राई करने के '. 

और भाभी के मां चूतड़ थे भी बहुत मस्त, खूब बड़े बड़े,

मांसल गद्देदार लेकिन एकदम कड़े कड़े। 

और साथ में गुलबिया के होंठ भले ही भाभी की माँ के भोंसडे से चिपके थे लेकिन उसके दोनों तगड़े हाथों ने भाभी की माँ के गुदाज चूतड़ों को उठा रखा था ,जिससे मेरे लिए सेंध लगाना थोड़ा और आसान होगया था। 

मैंने शुरुआत चुम्बनों की बारिश से की और धीरे धीरे मेरे गीले होंठ गांड की दरार पर पहुंच गए ,मैंने एक बड़ा सा थूक का गोला उनके गोल दरवाजे पर फेंका फिर ऊँगली घुसाने की कोशिश की ,लेकिन नाकामयाब रही ,छेद उनका बहुत कसा था। बहुत मुश्किल से एक पोर घुस पाया। 

और फिर गुलबिया काम आयी , बिना बोले गुलबिया ने ऊँगली गांड के अंदर से वापस खींच के मेरे मुंह में ठेल दिया। उसका इशारा मैं समझ गयी ,पहले थूक से खूब गीला कर लो। और अब अपनी अंगुली को जो चूस चूस के थूक लगा के एकदम गीला कर के मैंने छेद पर लगाया तो गुलबिया के हाथ मेरी मदद को मौजूद थे। 


उसने पूरी ताकत से दोनों हाथों से उनकी गांड को चीयार रखा था , और सिर्फ इतना ही नहीं जैसे ही मैंने ऊँगली अंदर ढकेला,उनकी दायें हाथ ने मेरी कलाई को पकड़ के पूरी ताकत से ,... हम दोनों के मिले जुले जोर से पूरी ऊँगली सूत सूत कर अंदर सरक गयी। 

और फिर जैसे पूरी ताकत से माँ की गांड ने मेरी अंदर घुसी तर्जनी को दबोच लिया। 

बिना बुर से मुंह हटाये ,गुलबिया ने फुसफुसा के मुझे समझाया ," अरे खूब जोर जोर गोल गोल घुमा ,करोच करोच के। "



मेरी तर्जनी की टिप पे कुछ गूई गूई कुछ लसलसी सी फीलिंग्स हो रही थी ,लेकिन गुलबिया की सलाह मान के गोल गोल घुमाती रही ,करोचती रही। उसके बाद हचक हचक के अंदर बाहर ,जैसे कामिनी भाभी ने मेरे साथ किया था। 

और मेरी कलाई वैसे भी गुलबिया की मजबूत पकड़ में थी ,एकदम सँड़सी जैसी। 


और दोचार मिनट के बाद उसने मेरी ऊँगली बाहर कर ली और जब तक मैं समझूँ समझूँ ,मेरे मुंह में सीधे और गुलबिया ने अबकी मुंह उठा के बोला ,एक बार फिर से खूब थूक लगाओ और अबकी मंझली वाली भी। 

कुछ देर बाद मेरी समझ में की ये ऊँगली ,... कहाँ से ,... 

लेकिन मुंह से ऊँगली निकालना मुश्किल था , गुलबिया ने कस के मेरा हाथ पकड़ रखा था ,और जैसे वो मेरी दिल की बात समझ गयी और हड़काती बोली ,


" ज्यादा छिनारपना मत कर , लौंडो से गांड मरवा मरवा के उनका लन्ड मजे से चूसती हो,कामिनी भौजी ने तेरी गांड में ऊँगली कर के मंजन करवाया था , तो अपनी गांड की चटनी तोकितनी बार चाट चुकी हो, फिर ,.... चाट मजे ले ले के '


कोई रास्ता था क्या ? 




और उसके बाद मेरी दोनों उँगलियाँ माँ की गांड में ,फिर उसी तरह खूब करोचने के बाद , वहां से सीधे मेरे मुंह में ,सब कुछ लिसड़ा चुपड़ा ,... लेकिन थोड़ी देर में मैं अपने आप , ...


गुलबिया ने मेरी कलाई छोड़ दी थी लेकिन मैं खुद ही ,... और उस का फायदा भी हुआ ,कुछ मेरे थूक का असर ,कुछ उँगलियों की पेलमपेल का ,...दो चार बार दोनों उँगलियों की गांड मराई के बाद उनका पिछवाड़े का छेद काफी खुल गया और अब जब मैंने मुंह लगा के वहां चूसना शुरू किया तो मेरी जीभ आसानी से अंदर चली गयी।




ये ट्रिक मुझे कामिनी भाभी ने ही सिखाई थी ,जीभ से गांड मारने की और आज मैं पहली बार इसका इस्तेमाल कर रही थी , दोनों होंठ गांड के छेद से चिपके और अबतक जो काम मेरी दोनों उंगलियां कर रही थीं बस वही जीभ ,और वही गूई लसलसी सी फीलिंग ,

लेकिन असर तुरंत हुआ , गुलबिया की बात एकदम सही थी। 

भाभी की माँ तड़प रही थी ,चूतड़ पटक रही थी ,मेरी जीभ अंदर बाहर हो रही थी ,गोल गोल घूम रही थी ,

गुलबिया उनकी बुर खूब जोर जोर से चूस रही थी ,जीभ बुर के अंदर पेल रही थी , मेरे हाथ भी अब गुलबिया की सहायता को पहुँच गए थे। जोर जोर से मैं माँ के क्लीट को रगड़ मसल रही थी .


इस तिहरे हमले का असर हुआ और वो झड़ने लगीं। 

झड़ने के साथ उनकी गांड भी सिकुड़ खुल रही थी मेरी जीभ को दबोच रही थी ,मेरा नाम ले कर वो एक से एक गन्दी गन्दी गालियां दे रही थी। 

एक बार झड़ने के बाद फिर दुबारा ,


और अबकी उनके साथ गुलबिया भी ,


फिर तिबारा ,

पांच छह मिनट तक वो और गुलबिया ,बार बार ,... कुछ देर तक ऐसे चिपकी पड़ीं रही मैं भी उनके साथ। 

और हटी भी तो एकदम लस्त पस्त,लथर पथर,... 

मैं भी उनके साथ पड़ी रही २०-२५ मिनट तक दोनों लोगों की बोलने की हालात नहीं थी , फिर भाभी के माँ ने मुझे इशारे से बुलाया और अपने पास बैठा के दुलारती सहलाती रहीं, बोलीं जमाने के बाद ऐसा मजा आया है। 

गुलबिया अभी भी लस्त थी। 

भाभी की माँ की ऊँगली अभी भी उसके पिछवाड़े और ,अचानक वहां से सीधे निकल के मेरे मुंह में उन्होंने घुसेड़ दी। 

मैंने बुरा सा मुंह बनाया तो बोलीं ,

" अरे अभी मेरा स्वाद तो इते मजे ले ले के लेरही थी ,जरा इसका भी चख ले वरना बुरा मान जायेगी ये छिनार ,अच्छा चल ये भी घोंट ले ,स्वाद बदल जाएगा। "

और पास पड़ी बोतल उठा के मेरे मुंह में लगा दी।
 
सुनहली शराब 






भाभी की माँ की ऊँगली अभी भी उसके पिछवाड़े और ,अचानक वहां से सीधे निकल के मेरे मुंह में उन्होंने घुसेड़ दी। 

मैंने बुरा सा मुंह बनाया तो बोलीं ,

" अरे अभी मेरा स्वाद तो इते मजे ले ले के लेरही थी ,जरा इसका भी चख ले वरना बुरा मान जायेगी ये छिनार ,अच्छा चल ये भी घोंट ले ,स्वाद बदल जाएगा। "

और पास पड़ी बोतल उठा के मेरे मुंह में लगा दी। 
………………………..

दो चार घूँट मुंझे पिला के फिर वो सीधे बोतल से , ... तब तक गुलबिया भी बैठ गयी थी और उसने माँ के हाथ से बोतल ले ली। 


थोड़ी देर में हम दोनों ऐसे ही बाते करते ,...आधी बोतल खाली हो गयी। 





आसामान में एक बार फिर से बादल छाने लगे थे। 





चांदनी कभी छुप जाती कभी दिख जाती ,




" यार हम दोनों ने मजा ले लिया लेकिन ये छिनार अभी भी पियासी है। " माँ ने मेरी ओर इशारा कर के बोला ,लेकिन खुद ही मज़बूरी भी बताई ,

" हम दोनों तो इतने लथर पथर हो गएँ हैं की आधे पौन घंटे तक हिल भी नहीं सकते ". 
गुलबिया ने हामी भरी लेकिन तभी उसकी निगाह रॉकी और उसके मस्ताए शिश्न पर पड़ी ,और वो मुस्करा उठी ,


" एक है न जो थका भी नहीं और इस छिनार का यार भी है ,देखो कितना मस्ता रहा है। "

माँ ने रॉकी के मोटे खड़े लन्ड को देखा ( मेरी निगाह तो वहां से हट ही नहीं रह थी )और खिलखिलाते गुलबिया से हंस के पूछा ,

" इसको चढ़ायेगी क्या मेरी बेटी पे। "

" एकदम लेकिन चोदने के पहले चूस चाट के गरम भी तो करेगा , और हम दोनों भी तो चूस चाट के झड़ी हैं ना ,तो एक बार इसको चटवा के झड़वा देते हैं ,चुदेगी तो ये है रॉकी से और एक बार क्या अब हर रोज चुदेगी ,घर का माल है। लेकिन पहले चटवा देती हूँ। "


माँ ने भी सहमति दी और मेरी तो बिना झड़े वैसे ही हालात खराब हो रही थी।
…………………………..
मुझे लगा ,गुलबिया रॉकी की चेन अभी खोल देगी और फिर हम दोनों ,... 

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। 

उसने सिर्फ मुझे थोड़ा सरका के ,पेड़ के और नजदीक कर दिया। और तब मुझे अहसास हुआ रॉकी बंधा जरूर था लेकिन उसकी चेन बहुत लंबी थी। 

गुलबिया ने माँ से बोतल लेके थोड़ी सी मेरी जाँघों के बीच गिरायी , कुछ मेरे दोनों उभारों पे और बस रॉकी को मेरी टांगों के बीच , चेन पूरी खींचने के बाद अब उसके नथुने मेरे 'वहां' पहुँच सकते थे। और उसकी लंबी खुरदरी जीभ सीधे वहां , ... 



मेरी हालात खराब हो गयी ,


लेकिन ये तो सिर्फ शुरुआत थी , शराब से डूबे मेरे जोबन को भी दोनों ने आपस में बाँट लिया और जोर जोर से चूसने लगीं। 

रॉकी आज बहुत हलके हलके ,जैसे आराम से कोई सुहाग रात के दिन नयी दुल्हन को गरम करे ,ये सोच के चुदेगी तो ये है ही ,जायेगी कहाँ। 


कुछ ही देर में मैं चूतड़ उचकाने लगी ,तब तक माँ ने कुछ गुलबिया से इशारा किया तो गुलबिया ने मेरी ओर इशारा किया। कुछ देर तक तो वो झिझकीं , ना नुकुर की लेकिन मान गयीं। 

गुलबिया ने बोला के और उकसाया उनको ,

" अरे अब इसको दो दो की आदत पड़ गयी है। यार से चुसवा रही है अपनी बुर तो ज़रा अपनी बुर आप भी चटवा लो ,अभी चाट तो रही थी लेकिन मैंने हिस्सा बंटा लिया।

बहुत मजा है इस बुर चटानो को बुर चाटने में ,दोनों ओर से मजा लेगी और मैं तब तक जरा इसकी कच्ची अमिया का स्वाद लेती हूँ। "


तब तक भी मुझे नहीं मालूम था क्या होने वाला है ,मैं तो बस रॉकी की बुर चटाई का मजा ले रही थी। 

आंगन में एक बार फिर से ठंडी ठंडी हवा चल रही थी, बादलों के छौने आसमान में दौड़ लगा रहे थे ,चांदनी के साथ आँख मिचौली खेल रहे थे। पीला सुनहला आसमान कभी एकदम स्याह हो उठता तो कभी सुनहली चांदनी से नहा उठता। 






और माँ मेरे ऊपर सवार थी ,उनकी मांसल जाँघों के बीच मेरा सर दबा हुआ था ,कस के अपना भोंसड़ा मेरे गुलाबी रसीले होंठो पे वो रगड़ रही थीं , खूब मीठे मीठे रस में उनकी बुर डूबी थी एकदम मीठी चाशनी। अभी इत्ती बुरी तरह झड़ी जो थीं और मेरे लिए तो मजे हो गए,... 





उधर नीचे रॉकी ने भी चूत चटाई की रफ़्तार तेज कर दी थी ,अबतक इतने लौंडो ने ,औरतों ने मेरी चूत चाटी थी इस गाँव में आने के बाद ,लेकिन रॉकी का जवाब नहीं ,एकदम आग लगी थी। 


कुछ देर में जब आसमान स्याह था ,उन्होंने मेरे गाल दबा के मेरे होंठ खुलवा दिए , और मैंने झट से खोल दिया , ...दो बार बसन्ती ने मुझे ये मजा चखा दिया था और अब मुझे भी मजा आने लगा था ,फिर दारु और रॉकी की जीभ ने मेरी सोचने की ताकत ख़तम कर दी थी। 


" बोल छिनरो , पियेगी न ,"

लजाते शरमाते ,मैंने हामी में सर हिला दिया। 

" अरे मुंह खोल के बोल साफ़ साफ़ , वरना रॉकी को और भरोटी के लौंडों को भूल जाओ , एक भी लन्ड को तरसा दूंगी ,अगर नहीं बोलेगी खुल के , बोल बुर मरानो , कुत्ता चोदी।" गुलबिया ने हड़काया। 


माँ ने भी जोड़ा , देख गुलबिया की बात काटने की घर में क्या गाँव में किसी की हिम्मत नहीं है। 

और झिझकते मैंने बोल दिया। मेरी चूत एकदम तड़प रही थी ,

एक बार फिर बदलियों ने चांदनी की आँखे खोल दी ,

चांदनी आँगन में चहक उठी। 

पीली सुनहली चांदनी आसमान से बरसती ,नीम के पेड़ के ऊपर से छलकती , सीधे मेरे खुले होंठों के बीच ,


पहले एक बूँद ,फिर दूसरी बूँद ,... मेरे प्यासे होंठ खुले थे। 

भोंसडे से बूँद बूँद सुनहली शराब , ...मैंने होंठ बजाय बंद करने के और खोल दिए , ... 

न किसी ने मुझे पकड़ा था न कोई जबरदस्ती ,

जैसे रॉकी भी ये सब खेल तमाशा समझ रहा था उसने चाटने की रफ़्तार तेज कर दी। 

और उस के साथ सुनहली बारिश भी , बूँद बूँद से छर छर , ... फिर घल घल ,... 






शरमा के कुँवारी किशोर चांदनी भी बदली के पीछे जा छुपी पर वो खेल तमाशा देख रही थी। 

सुनहली शराब बरस रही थी और मैं ,... 


कुछ देर बाद जब वो ऊपर से उठीं तो एक नदीदी की तरह से मैंने जीभ निकाल कर होंठ पर लगी सोने की बूंदे भी चाट ली। 


आसमान एक बार फिर स्याह हो गया था , मैं लग रहा था अब झड़ी तब झड़ी लेकिन गुलबिया , उसने रॉकी को हटा लिया। पुचकारते उसके कान में बोली ,


" चल चूस चाट के बहुत गरम कर लिया अपने माल को ,अब इस छिनार को चोद चोद के ही झाड़ना ,अरे तुमसे चोदवाने ही तो आयी है ये। "

और अबकी राकी की चेन उसने बहुत छोटी कर दी थी ,वो हम तीनो का खेल तमाशा देख तो पूरा सकता था लेकिन बीच में नहीं आ सकता था। 


और तभी आँगन में पानी की पहली बूँद पड़ी ,लेकिन हम तीनों में से कोई हटने वाला नहीं था।
 
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