hotaks444
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रस बरसे ,अमराई में
अब तक
" अरे यार फाड़ दे न , फडवांने के लिए ही तो आई हूँ इस सोलहवें सावन में " मैं मुस्करा के बोली और पुआल के ऊपर टाँगे छितरा के लेट गयी , चुन्नू को जबरदस्त मैंने फ़्लाइंग किस भी दिया ,
और अब तक वो अनाड़ी खिलाड़ी हो गया था।
मेरी दोनों लम्बी टाँगे उसके कंधे पे थीं , उभार उसकी मुठ्ठियों पे और सुपाड़ा सीधे गुलाबो के मुंह पे।
अबकी न कोई झिझक थी न लिहाज , और फिर मेरी सहेली , उसके दोस्त की मलाई से वैसे ही गीली खुली थी।
एक धक्के में ही सुपाड़ा पूरा घुस गया , चूतड़ उचक्का के मैंने भी साथ दिया।
अपने पैरों से मैं उसे अपनी ओर खींच रही थी , मेरे दोनों हाथ उसकी पीठ पर थे और मैंने उसे कस के भींच रखा था। मेरे उभार कस के उसके सीने से रगड़ रहे थे ,और उसके हर चुम्बन का मैं दूने जोश से जवाब दे रही थी।
असर तुरंत हुआ।
जो कुछ देर पहले एकदम नौसिखिया था ,लण्ड चूत के खेल का एकदम नया खिलाड़ी ,
उसने चौक्के ,छक्के मारने शुरू कर दिए।
दो चार धक्के में ही दो तिहाई लण्ड अंदर था। अब वो एकदम घबड़ा नहीं रहा था , ऊपर से सुनील और ,
" फाड़ दे साल्ली की बहुत बोल रही थी , दिखा दे उसे अपने लण्ड की ताकत आज। चोद ,चोद कस कस के। "
सिर्फ मेरे सोना मोना को वो उकसा ही नहीं रहा था मेरे भी और अगन जगा रहा था , कभी उसकी उँगलियाँ मेरे निपल को पिंच कर देतीं तो कभी क्लिट को रगड़ मसल देतीं ,
असर बहुत जल्द हुआ।
पांच मिनट के अंदर ही मेरे छोना का लण्ड सीधे मेरी बच्चेदानी पे धक्के मार रहा था और मैं दुगुने जोश से उसका जवाब दे रही थी। मुझे अंदाज लग गया था की ये लम्बी रेस का घोड़ा है। फिर अभी कुछ देर पहलेही एक राउंड कबड्डी खेल चुका है इसलिए ३०-४० मिनट से पहले मैदान नहीं छोड़ने वाला है।
दस पन्दरह मिनट के बाद आसन बदल गया था ,मैं उसकी गोद में थी ,लण्ड एक दम जड़ तक मेरी किशोर चूत में घुसा ,कभी वो मेरे गाल चूमता तो कभी उभारों को चूसता। कुछ देर में मैं खुद ही उसके मोटे खम्भे पर चढ़ उतर रही थी ,सरक रही थी ,चुद रही थी।
लेकिन नए खिलाड़ी के साथ असली मजा मिशनरी पोजिशन में ही है
मर्द ऊपर ,लड़की नीचे।
और कुछ देर में हम दोनों उस हालत में ही थे , वो हचक हचक के चोद रहा था।
बाहर बूँदों की रिमझिम थोड़ी हलकी हो गयी थी लेकिन चुन्नू के धक्कों में कमी नहीं आई , और मुझे भी सुनील को छेड़ने का मौका मिल गया।
उसके पगलाए बौराए लण्ड को कभी मैं अपनी चूचियों के बीच ले के रगड़ती तो कभी मुंह में ले चुभलाती तो कभी चूसती।
और वो भी मेरी चूचियों की ,क्लिट की ऐसी की तैसी कर रहा था।
नतीजा ये हुआ की आठ दस मिनट में मैं झड़ने लगी और मेरी झडती बुर ने जो चुन्नू के लण्ड को भींचा ,निचोड़ा तो वो भी मेरे साथ साथ , ...देर तक ,...
जब चुन्नू मेरे ऊपर से उठा तो पानी बरसना बंद हो चुका था , बादल थोड़े छट गए थे , चाँद भी निकल आया था।
उसको दूर जाना था था , इसलिए वो निकल गया।
आगे
मैं और सुनील एक दूसरे को छेड़ते रहे। सुनील का मन बहुत था एक राउंड के लिए लेकिन किसी तरह माना ,क्योंकि चन्दा भी मेरे साथ नहीं थी और अमराई से निकल के मुझे घर अकेले जाना था।
हम दोनों निकले तो घनी अमराई के पत्तों से छन के चांदनी छलक रही थी।
बारिश तो बंद हो गयी थी लेकिन पत्तों से टप टप बूंदे गिर रही थीं और हम दोनों को थोड़ा थोड़ा भिगो भी रही
रिमझिम रिमझिम सावन की बूंदे अभी बरस गयी ,थीं। बाहर सावन बरस रहा था,
और भीग मैं अंदर रही थी ,जहाँ मेरा सोलहवां सावन बरस रहा था ,चुन्नू और सुनील ने मुझे गीला कर दिया था। दोनों जाँघों के बीच कीचड़ भरा हुआ था। मेरे जोबन को जवानी के तूफ़ान ने झकझोर के रख दिया था। मैं मुस्करा पड़ी ,कुछ सोच के। जिस दिन मैं भाभी के गाँव आई थी उसी दिन माँ ( भाभी की माँ ) ने बड़े दुलार से मुझे कहा था ,
" अरे सोलहवां सावन तो रोज बरसना चाहिए ,बिना नागा। हरदम कीचड़ ही कीचड़ रहना चाहिए ,चाहे दिन हो रात। "
कुछ किया धरा नहीं था मैंने तब तक ,एक दम कोरी थी , ऐसे सफ़ेद कागज़ की तरह जिसपर अभी तक किसी ने कलम भी नहीं छुआई हो ,लेकिन उनकी बात का मतलब तो मैं समझ ही गयी और एकदम शरमा गयी। बस धत्त बोल पाई।
लेकिन उन की बात एकदम सही निकली।
जाँघे अभी भी दुःख रही थीं ,सुनील और चुन्नू ने मिल के इतने जोर जोर के धक्के लगाए थे , बस किसी तरह सुनील का सहारा लेकर मैं उठी अपने कपडे बस ऐसे ही तन पर टांग लिए। जोर से पिछवाड़े चिलख उठी ,इस सुनील का खूंटा साला है ही इतना मोटा।
मैंने खा जाने वाली निगाहों से सुनील की ओर देखा। और वो दुष्ट सब समझ कर मुस्करा पड़ा।
बाहर निकल कर जब मैंने एक बार गहरी सांस ली ,एक अजब मस्ती मेरे नथुनों में भर गयी
अभी अभी बरसे पानी के बाद मिटटी से निकलने वाली सोंधी महक ,
अमराई की मस्त मादक गमक, हवा में घुली बारिश की खुशबू।
और ऊपर से , दो जवान मर्दों के पसीने की ,उनके वीर्य की मेरी देह से आती रसभीनी गंध,
सुनील कमरा बंद कर के मेरे पीछे आ के खडा हो गया ,एकदम सट के, सटा के।
उसका एकदम खड़ा था , खूब मोटा कड़ा।
मेरे तन मन की हालत उससे छुपती क्या ,जोर से मेरे दोनों जोबन दबोचते बोला ,
" क्यों मन कर रहा है न हो जाय एक राउंड और ,यहीं नीले गगन के तले। "
मुंह ने ना किया और देह ने हाँ ,
धत्त बोली मैं लेकिन अपने बड़े बड़े गदराए नितम्ब उसके खड़े खूंटे पे कस कस रगड़ दिया और उस के हाथों के बंधन छुड़ाते हुए भाग खड़ी हुयी।
उस अमराई का कोना कोना मेरा जाना पहचाना था ,कितनी बार सहेलियों ,भौजाइयों के साथ झूला झूलने आई थी और कभी गाँव के लौंडो के साथ 'कबड्डी' खेलने।
एक पारभासी सा रेशमी अँधेरा छाया था। अमराई बहुत गझिन थी और बहुत बड़ी भी।
दिन में भी १० -२ ० हाथ के आगे नहीं दिखता था ,और दो चार एकड़ में फैली होगी कम से कम। लेकिन मैं सुनील को चिढ़ाते ललचाते आगे निकल गयी।
आसमान में बदलियां चाँद के साथ चोर सिपाही खेल रही थीं।
सावन में भी लगता है आसमान में फागुन लगा था , बदलियां मिल के किसी नए कुंवारे लड़के की तरह चाँद को घेर लेतीं और उसके मुंह में कालिख पोत देती और पूरा आसमान अँधेरे से भर उठता।
चाँद किसी तरह उन गोरी गुलाबी बदलियों से अपने को छुड़ाता तो फिर एक बार जुन्हाई छिटक जाती।
लेकिन वो चांदनी भी ,आम के बड़े घने पेड़ रास्ता रोक के खड़े हो जाते और कुछ किरणे ही उन की पकड़ से बच कर जमींन तक पहुँच पाती।
आसमान में बदरिया चाँद को छेड़ रही थीं ,और मैं यहाँ सुनील को।
अब तक
" अरे यार फाड़ दे न , फडवांने के लिए ही तो आई हूँ इस सोलहवें सावन में " मैं मुस्करा के बोली और पुआल के ऊपर टाँगे छितरा के लेट गयी , चुन्नू को जबरदस्त मैंने फ़्लाइंग किस भी दिया ,
और अब तक वो अनाड़ी खिलाड़ी हो गया था।
मेरी दोनों लम्बी टाँगे उसके कंधे पे थीं , उभार उसकी मुठ्ठियों पे और सुपाड़ा सीधे गुलाबो के मुंह पे।
अबकी न कोई झिझक थी न लिहाज , और फिर मेरी सहेली , उसके दोस्त की मलाई से वैसे ही गीली खुली थी।
एक धक्के में ही सुपाड़ा पूरा घुस गया , चूतड़ उचक्का के मैंने भी साथ दिया।
अपने पैरों से मैं उसे अपनी ओर खींच रही थी , मेरे दोनों हाथ उसकी पीठ पर थे और मैंने उसे कस के भींच रखा था। मेरे उभार कस के उसके सीने से रगड़ रहे थे ,और उसके हर चुम्बन का मैं दूने जोश से जवाब दे रही थी।
असर तुरंत हुआ।
जो कुछ देर पहले एकदम नौसिखिया था ,लण्ड चूत के खेल का एकदम नया खिलाड़ी ,
उसने चौक्के ,छक्के मारने शुरू कर दिए।
दो चार धक्के में ही दो तिहाई लण्ड अंदर था। अब वो एकदम घबड़ा नहीं रहा था , ऊपर से सुनील और ,
" फाड़ दे साल्ली की बहुत बोल रही थी , दिखा दे उसे अपने लण्ड की ताकत आज। चोद ,चोद कस कस के। "
सिर्फ मेरे सोना मोना को वो उकसा ही नहीं रहा था मेरे भी और अगन जगा रहा था , कभी उसकी उँगलियाँ मेरे निपल को पिंच कर देतीं तो कभी क्लिट को रगड़ मसल देतीं ,
असर बहुत जल्द हुआ।
पांच मिनट के अंदर ही मेरे छोना का लण्ड सीधे मेरी बच्चेदानी पे धक्के मार रहा था और मैं दुगुने जोश से उसका जवाब दे रही थी। मुझे अंदाज लग गया था की ये लम्बी रेस का घोड़ा है। फिर अभी कुछ देर पहलेही एक राउंड कबड्डी खेल चुका है इसलिए ३०-४० मिनट से पहले मैदान नहीं छोड़ने वाला है।
दस पन्दरह मिनट के बाद आसन बदल गया था ,मैं उसकी गोद में थी ,लण्ड एक दम जड़ तक मेरी किशोर चूत में घुसा ,कभी वो मेरे गाल चूमता तो कभी उभारों को चूसता। कुछ देर में मैं खुद ही उसके मोटे खम्भे पर चढ़ उतर रही थी ,सरक रही थी ,चुद रही थी।
लेकिन नए खिलाड़ी के साथ असली मजा मिशनरी पोजिशन में ही है
मर्द ऊपर ,लड़की नीचे।
और कुछ देर में हम दोनों उस हालत में ही थे , वो हचक हचक के चोद रहा था।
बाहर बूँदों की रिमझिम थोड़ी हलकी हो गयी थी लेकिन चुन्नू के धक्कों में कमी नहीं आई , और मुझे भी सुनील को छेड़ने का मौका मिल गया।
उसके पगलाए बौराए लण्ड को कभी मैं अपनी चूचियों के बीच ले के रगड़ती तो कभी मुंह में ले चुभलाती तो कभी चूसती।
और वो भी मेरी चूचियों की ,क्लिट की ऐसी की तैसी कर रहा था।
नतीजा ये हुआ की आठ दस मिनट में मैं झड़ने लगी और मेरी झडती बुर ने जो चुन्नू के लण्ड को भींचा ,निचोड़ा तो वो भी मेरे साथ साथ , ...देर तक ,...
जब चुन्नू मेरे ऊपर से उठा तो पानी बरसना बंद हो चुका था , बादल थोड़े छट गए थे , चाँद भी निकल आया था।
उसको दूर जाना था था , इसलिए वो निकल गया।
आगे
मैं और सुनील एक दूसरे को छेड़ते रहे। सुनील का मन बहुत था एक राउंड के लिए लेकिन किसी तरह माना ,क्योंकि चन्दा भी मेरे साथ नहीं थी और अमराई से निकल के मुझे घर अकेले जाना था।
हम दोनों निकले तो घनी अमराई के पत्तों से छन के चांदनी छलक रही थी।
बारिश तो बंद हो गयी थी लेकिन पत्तों से टप टप बूंदे गिर रही थीं और हम दोनों को थोड़ा थोड़ा भिगो भी रही
रिमझिम रिमझिम सावन की बूंदे अभी बरस गयी ,थीं। बाहर सावन बरस रहा था,
और भीग मैं अंदर रही थी ,जहाँ मेरा सोलहवां सावन बरस रहा था ,चुन्नू और सुनील ने मुझे गीला कर दिया था। दोनों जाँघों के बीच कीचड़ भरा हुआ था। मेरे जोबन को जवानी के तूफ़ान ने झकझोर के रख दिया था। मैं मुस्करा पड़ी ,कुछ सोच के। जिस दिन मैं भाभी के गाँव आई थी उसी दिन माँ ( भाभी की माँ ) ने बड़े दुलार से मुझे कहा था ,
" अरे सोलहवां सावन तो रोज बरसना चाहिए ,बिना नागा। हरदम कीचड़ ही कीचड़ रहना चाहिए ,चाहे दिन हो रात। "
कुछ किया धरा नहीं था मैंने तब तक ,एक दम कोरी थी , ऐसे सफ़ेद कागज़ की तरह जिसपर अभी तक किसी ने कलम भी नहीं छुआई हो ,लेकिन उनकी बात का मतलब तो मैं समझ ही गयी और एकदम शरमा गयी। बस धत्त बोल पाई।
लेकिन उन की बात एकदम सही निकली।
जाँघे अभी भी दुःख रही थीं ,सुनील और चुन्नू ने मिल के इतने जोर जोर के धक्के लगाए थे , बस किसी तरह सुनील का सहारा लेकर मैं उठी अपने कपडे बस ऐसे ही तन पर टांग लिए। जोर से पिछवाड़े चिलख उठी ,इस सुनील का खूंटा साला है ही इतना मोटा।
मैंने खा जाने वाली निगाहों से सुनील की ओर देखा। और वो दुष्ट सब समझ कर मुस्करा पड़ा।
बाहर निकल कर जब मैंने एक बार गहरी सांस ली ,एक अजब मस्ती मेरे नथुनों में भर गयी
अभी अभी बरसे पानी के बाद मिटटी से निकलने वाली सोंधी महक ,
अमराई की मस्त मादक गमक, हवा में घुली बारिश की खुशबू।
और ऊपर से , दो जवान मर्दों के पसीने की ,उनके वीर्य की मेरी देह से आती रसभीनी गंध,
सुनील कमरा बंद कर के मेरे पीछे आ के खडा हो गया ,एकदम सट के, सटा के।
उसका एकदम खड़ा था , खूब मोटा कड़ा।
मेरे तन मन की हालत उससे छुपती क्या ,जोर से मेरे दोनों जोबन दबोचते बोला ,
" क्यों मन कर रहा है न हो जाय एक राउंड और ,यहीं नीले गगन के तले। "
मुंह ने ना किया और देह ने हाँ ,
धत्त बोली मैं लेकिन अपने बड़े बड़े गदराए नितम्ब उसके खड़े खूंटे पे कस कस रगड़ दिया और उस के हाथों के बंधन छुड़ाते हुए भाग खड़ी हुयी।
उस अमराई का कोना कोना मेरा जाना पहचाना था ,कितनी बार सहेलियों ,भौजाइयों के साथ झूला झूलने आई थी और कभी गाँव के लौंडो के साथ 'कबड्डी' खेलने।
एक पारभासी सा रेशमी अँधेरा छाया था। अमराई बहुत गझिन थी और बहुत बड़ी भी।
दिन में भी १० -२ ० हाथ के आगे नहीं दिखता था ,और दो चार एकड़ में फैली होगी कम से कम। लेकिन मैं सुनील को चिढ़ाते ललचाते आगे निकल गयी।
आसमान में बदलियां चाँद के साथ चोर सिपाही खेल रही थीं।
सावन में भी लगता है आसमान में फागुन लगा था , बदलियां मिल के किसी नए कुंवारे लड़के की तरह चाँद को घेर लेतीं और उसके मुंह में कालिख पोत देती और पूरा आसमान अँधेरे से भर उठता।
चाँद किसी तरह उन गोरी गुलाबी बदलियों से अपने को छुड़ाता तो फिर एक बार जुन्हाई छिटक जाती।
लेकिन वो चांदनी भी ,आम के बड़े घने पेड़ रास्ता रोक के खड़े हो जाते और कुछ किरणे ही उन की पकड़ से बच कर जमींन तक पहुँच पाती।
आसमान में बदरिया चाँद को छेड़ रही थीं ,और मैं यहाँ सुनील को।