hotaks444
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एक औरत की दास्तान--1
दोस्तो मैं यानी आपका दोस्त राज शर्मा एक ओर नई कहानी लेकर हाजिर हूँ
हँसी की राह मे गम मिले तो क्या करें,
वफ़ा की राह मे बेवफा मिले तो क्या करे,
कैसे बचाए ज़िंदगी को धोकेबाज़ों से
कोई मुस्कुरा के धोका दे जाए तो क्या करें
रेल गाड़ी राजनगर प्लॅटफॉर्म से धीरे धीरे आगे सरक रही थी.. सभी यात्री अफ़रा तफ़री मे ट्रेन की तरफ भाग रहे थे.. कोई भी आदमी उस ट्रेन को मिस करने के मूड मे नही था.. इन सब कारनो से स्टेशन पर बड़ा शोर हो रहा था..
पर उस ट्रेन पर कोई "ऐसा भी था" या यूँ कह लें कि "ऐसी भी थी" जो इन सब से अंज़ान एक खिड़की पर बैठी हुई थी.. अब हल्की हल्की बारिश शुरू हो गयी थी और ट्रेन ने अपनी पूरी रफ़्तार पकड़ ली थी.. बारिश की छोटी छोटी बूँदें उसके गोरे गालों और गुलाबी होठों को भिगो रही थी पर उसे किसी चीज़ की भी परवाह नही थी..
वो एक 25-26 साल की लड़की थी जो चेहरे से किसी अच्छे घर की मालूम होती थी.. चेहरे पर अजीब सी मासूमियत थी पर कहीं ना कहीं उसके चेहरे मे दर्द भी छुपा हुआ था.. चेहरे पर अजीब सा सूनापन था जिसे समझ पाना काफ़ी मुश्किल था..पर एक बात जो कोई भी बता सकता था ये वो था कि उसने जीवन मे बहुत से दुख देखे हैं या यूँ कहें कि धोखे खाए हैं.. ज़िंदगी से उसे कदम कदम पर ठोकर ही मिली है..
उसके चेहरे के भाव अचानक बदलने लगे.. कभी उसके चेहरे की लकीरें ख़ुसी को दर्साति तो कभी गम के बादल उसके चेहरे पर दिखने लगते.. शायद अपनी बीती हुई ज़िंदगी को याद कर रही थी वो... हां यही तो कर रही थी वो... अपनी बीती ज़िंदगी को याद...
चलते चलते रुकने की आदत होगयि है,
बीती बाते दोहराने की आदत होगयि है..
क्या खोया, क्या पाया.. कुछ याद नई,
अब तो लोगो से धोका खाने की आदत सी होगयि है...
"बेटी सुबह के 9 बज चुके हैं.. आज उठना नही है क्या..?"
"सनडे है पापा कम से कम आज भी सोने दो ना.." अपने पापा के हाथ मे पकड़ी हुई रज़ाई उनसे छीनते हुए फिर अपने ऊपर डाल ली और सो गयी..
"अरे बेटी आज तेरे कॉलेज मे कल्चरल प्रोग्रॅम्स हैं... भूल गयी क्या..? जल्दी से तैय्यार हो जाओ वरना लेट हो जाओगी.." उसके पिता ने उसे फिर उठाने की कोशिश की..
"क्या पापा सोने दो ना... अभी भी 2 घंटे बाकी हैं... प्रोग्राम 11 बजे से है" उस लड़की ने रज़ाई से अपने कानो को दबा लिया..
"अरे बेटी मैने झूठ कहा था... 10:30 बज चुके हैं अब जल्दी से तैय्यार हो जाओ.." उसके पिता ने राज़ खोला..
"आप झूठ बोल रहे हो पापा" ये बोलते हुए वो अपनी टेबल पर रखकी घड़ी की तरफ घूमी...
"ओह नो.. यहाँ तो सच मे 10:30 बज चुके हैं.." वो उछलती हुई बिस्तर से उठ गयी और टवल उठाकर सीधा बाथरूम मे घुस गयी..
जब बाथरूम से वापस आई तो पाया कि घड़ी मे अभी 9:30 ही हुए हैं... ये देखकर उसे अपने पापा की चाल समझ मे आ गयी..
वो दौड़ती हुई अपने कमरे से बाहर आई और सीढ़ियों से उतर कर हॉल मे पहुँच गयी.. हॉल मे डाइनिंग टेबल पर बैठे उसके पिता उसका इंतेज़ार कर रहे थे..
"आओ आओ बेटी.. चलो नाश्ता कर लेते हैं.." उसके पिता ने अपनी बेटी के चेहरे पर नाराज़गी को भाँप लिया था..
"क्या पापा आप भी ना, मुझे जगाने के लिए घड़ी की टाइमिंग ही चेंज कर दी..?"उसने मुह्न बनाते हुए कहा...
"तो बेटी इसमें बुरा क्या है... हमारे पुर्वज़ भी कह गये हैं... कि सुबह जागने से चार चीज़ों की प्राप्ति होती है... आयु, विद्या, यश और बल" उसके पिता ने रोज़ की तरह ही वोही शब्द दोहरा दिए जो वो रोज़ दोहराते थे...
ये सुनकर उसकी बेटी ने फिर मुह्न फूला लिया... "पापा आप भी ना मुझे सोने नही देते" उसने एक बार फिर नाराज़गी भरे स्वर मे कहा..
"अगर मेरी बेटी सोई रहेगी तो अपने पापा से बात कब करेगी.. रात को जब मैं आता हूँ तो तुम सो चुकी होती हो... यही तो एक टाइम होता है जब मैं तुमसे मिल पाता हूँ..." इतना बोलकर उसके पापा ने उसके कोमल गालों पर अपने हाथ फेरे... ये सुनकर वो अपने पिता के गले लग गयी..
"ओह पापा आइ'म सॉरी... आइ ऑल्वेज़ हर्ट यू.."
"कोई बात नही बेटा... छोटों से ग़लतियाँ तो होती रहती हैं..पर बड़ों का ये फ़र्ज़ है कि वो उसे माफ़ करें..
खैर जाने दो... चलो नाश्ता करते हैं.."
"हां चलिए पापा" ये बोलकर वो दोनो नाश्ता करने लगे और एक नौकर उन्हे खाना पारोष रहा था... बड़े ही खुश थे दोनो बाप बेटी...
"ठाकुर विला" ये नाम था उस हवेली का जिसमे वो दोनो बाप बेटी रहते थे.. ठाकुर खानदान का देश विदेश मे बहुत बड़ा कारोबार था और ठाकुर प्रेम सिंग अकेले उसे संभालते थे.. हां, उस लड़की के पिता का नाम था प्रेम सिंग और उसकी एक ही लाडली बेटी थी जिसे उसने बचपन से अपने सीने से लगाकर पाला... उसकी मा बचपन मे ही प्रसव के दौरान ही गुज़र गयी थी और अपने पीछे छ्चोड़ गयी थी इस नन्ही सी जान स्नेहा को... स्नेहा... यही तो नाम था उसकी फूल जैसी बच्ची का.. राजनगर की शान था वो खानदान... ठाकुर खानदान...
दोस्तो मैं यानी आपका दोस्त राज शर्मा एक ओर नई कहानी लेकर हाजिर हूँ
हँसी की राह मे गम मिले तो क्या करें,
वफ़ा की राह मे बेवफा मिले तो क्या करे,
कैसे बचाए ज़िंदगी को धोकेबाज़ों से
कोई मुस्कुरा के धोका दे जाए तो क्या करें
रेल गाड़ी राजनगर प्लॅटफॉर्म से धीरे धीरे आगे सरक रही थी.. सभी यात्री अफ़रा तफ़री मे ट्रेन की तरफ भाग रहे थे.. कोई भी आदमी उस ट्रेन को मिस करने के मूड मे नही था.. इन सब कारनो से स्टेशन पर बड़ा शोर हो रहा था..
पर उस ट्रेन पर कोई "ऐसा भी था" या यूँ कह लें कि "ऐसी भी थी" जो इन सब से अंज़ान एक खिड़की पर बैठी हुई थी.. अब हल्की हल्की बारिश शुरू हो गयी थी और ट्रेन ने अपनी पूरी रफ़्तार पकड़ ली थी.. बारिश की छोटी छोटी बूँदें उसके गोरे गालों और गुलाबी होठों को भिगो रही थी पर उसे किसी चीज़ की भी परवाह नही थी..
वो एक 25-26 साल की लड़की थी जो चेहरे से किसी अच्छे घर की मालूम होती थी.. चेहरे पर अजीब सी मासूमियत थी पर कहीं ना कहीं उसके चेहरे मे दर्द भी छुपा हुआ था.. चेहरे पर अजीब सा सूनापन था जिसे समझ पाना काफ़ी मुश्किल था..पर एक बात जो कोई भी बता सकता था ये वो था कि उसने जीवन मे बहुत से दुख देखे हैं या यूँ कहें कि धोखे खाए हैं.. ज़िंदगी से उसे कदम कदम पर ठोकर ही मिली है..
उसके चेहरे के भाव अचानक बदलने लगे.. कभी उसके चेहरे की लकीरें ख़ुसी को दर्साति तो कभी गम के बादल उसके चेहरे पर दिखने लगते.. शायद अपनी बीती हुई ज़िंदगी को याद कर रही थी वो... हां यही तो कर रही थी वो... अपनी बीती ज़िंदगी को याद...
चलते चलते रुकने की आदत होगयि है,
बीती बाते दोहराने की आदत होगयि है..
क्या खोया, क्या पाया.. कुछ याद नई,
अब तो लोगो से धोका खाने की आदत सी होगयि है...
"बेटी सुबह के 9 बज चुके हैं.. आज उठना नही है क्या..?"
"सनडे है पापा कम से कम आज भी सोने दो ना.." अपने पापा के हाथ मे पकड़ी हुई रज़ाई उनसे छीनते हुए फिर अपने ऊपर डाल ली और सो गयी..
"अरे बेटी आज तेरे कॉलेज मे कल्चरल प्रोग्रॅम्स हैं... भूल गयी क्या..? जल्दी से तैय्यार हो जाओ वरना लेट हो जाओगी.." उसके पिता ने उसे फिर उठाने की कोशिश की..
"क्या पापा सोने दो ना... अभी भी 2 घंटे बाकी हैं... प्रोग्राम 11 बजे से है" उस लड़की ने रज़ाई से अपने कानो को दबा लिया..
"अरे बेटी मैने झूठ कहा था... 10:30 बज चुके हैं अब जल्दी से तैय्यार हो जाओ.." उसके पिता ने राज़ खोला..
"आप झूठ बोल रहे हो पापा" ये बोलते हुए वो अपनी टेबल पर रखकी घड़ी की तरफ घूमी...
"ओह नो.. यहाँ तो सच मे 10:30 बज चुके हैं.." वो उछलती हुई बिस्तर से उठ गयी और टवल उठाकर सीधा बाथरूम मे घुस गयी..
जब बाथरूम से वापस आई तो पाया कि घड़ी मे अभी 9:30 ही हुए हैं... ये देखकर उसे अपने पापा की चाल समझ मे आ गयी..
वो दौड़ती हुई अपने कमरे से बाहर आई और सीढ़ियों से उतर कर हॉल मे पहुँच गयी.. हॉल मे डाइनिंग टेबल पर बैठे उसके पिता उसका इंतेज़ार कर रहे थे..
"आओ आओ बेटी.. चलो नाश्ता कर लेते हैं.." उसके पिता ने अपनी बेटी के चेहरे पर नाराज़गी को भाँप लिया था..
"क्या पापा आप भी ना, मुझे जगाने के लिए घड़ी की टाइमिंग ही चेंज कर दी..?"उसने मुह्न बनाते हुए कहा...
"तो बेटी इसमें बुरा क्या है... हमारे पुर्वज़ भी कह गये हैं... कि सुबह जागने से चार चीज़ों की प्राप्ति होती है... आयु, विद्या, यश और बल" उसके पिता ने रोज़ की तरह ही वोही शब्द दोहरा दिए जो वो रोज़ दोहराते थे...
ये सुनकर उसकी बेटी ने फिर मुह्न फूला लिया... "पापा आप भी ना मुझे सोने नही देते" उसने एक बार फिर नाराज़गी भरे स्वर मे कहा..
"अगर मेरी बेटी सोई रहेगी तो अपने पापा से बात कब करेगी.. रात को जब मैं आता हूँ तो तुम सो चुकी होती हो... यही तो एक टाइम होता है जब मैं तुमसे मिल पाता हूँ..." इतना बोलकर उसके पापा ने उसके कोमल गालों पर अपने हाथ फेरे... ये सुनकर वो अपने पिता के गले लग गयी..
"ओह पापा आइ'म सॉरी... आइ ऑल्वेज़ हर्ट यू.."
"कोई बात नही बेटा... छोटों से ग़लतियाँ तो होती रहती हैं..पर बड़ों का ये फ़र्ज़ है कि वो उसे माफ़ करें..
खैर जाने दो... चलो नाश्ता करते हैं.."
"हां चलिए पापा" ये बोलकर वो दोनो नाश्ता करने लगे और एक नौकर उन्हे खाना पारोष रहा था... बड़े ही खुश थे दोनो बाप बेटी...
"ठाकुर विला" ये नाम था उस हवेली का जिसमे वो दोनो बाप बेटी रहते थे.. ठाकुर खानदान का देश विदेश मे बहुत बड़ा कारोबार था और ठाकुर प्रेम सिंग अकेले उसे संभालते थे.. हां, उस लड़की के पिता का नाम था प्रेम सिंग और उसकी एक ही लाडली बेटी थी जिसे उसने बचपन से अपने सीने से लगाकर पाला... उसकी मा बचपन मे ही प्रसव के दौरान ही गुज़र गयी थी और अपने पीछे छ्चोड़ गयी थी इस नन्ही सी जान स्नेहा को... स्नेहा... यही तो नाम था उसकी फूल जैसी बच्ची का.. राजनगर की शान था वो खानदान... ठाकुर खानदान...