RajSharma Sex Stories कुमकुम - SexBaba
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RajSharma Sex Stories कुमकुम

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कुमकुम       /    कुशवाहा कान्त 

मदमत्त मेघों ने स्वच्छाकाश पर अपना नृत्य आरंभ कर दिया। वायु वृक्षों के कोमल पल्लवों का आलिंगन करता हुआ विचरण करने लगा। मयूर हर्षोत्फुल हो चीत्कार कर उठे। मनोरम वनस्थली के पक्षी, वृक्षों की शाखाओं पर बैठकर कलरव करने में निमग्न हो गये। भुवनभास्कर के प्रज्जवलित मुख-मण्डल को, उमड़ती हुई सघन घनराशि ने आच्छादित कर लिया।

युवराज ने एक क्षण के लिए अपना अश्व रोककर सामने के वन्य-प्रदेश पर दृष्टि डाली। कितना सघन, कितना वृक्षलतादिपूर्ण एवं कितना मनोहारी था भूखंड का यह भाग।...................
जहां पक्षियों का गुंजरित कलरव, प्रकृति-नटी की अद्भुत छटा एवं नेत्ररंजक हरियाली का मुग्धकारी नृत्य, हृदयप्रदेश में एक अनिर्वचनीय आनंद की सृष्टि कर रहा था।
संसार की कोलाहलमयी सीमा से दूर अवस्थित था, वनस्थली का यह अपूर्व प्रदेश।

युवराज अपने नेत्रों पर हथेली की आड़ देकर सामने की ओर देखने लगे, परन्तु मन्थरगति से हिलती हुई वृक्षों की टहनियों के अतिरिक्त कुछ दृष्टिगोचर न हुआ।

'जाम्बुक कहाँ रह गया...?' युवराज ने मानो बनस्थली में व्याप्त उस घोर नीरवता से प्रश्न किया और फिर तुरंत ही अश्व से नीचे उतर पड़े।

अश्व की लम्बी बागडोर एक वृक्ष की शाखाओं में बांधकर, वे एक स्वच्छ स्फुटित-शिला पर आ बैठे।
आज ऊषा के आगमन के साथ ही युवराज ने उस वनस्थली में पदार्पण किया था आखेट के हेतु। उनके साथ कितने ही पायक थे, परन्तु इस समय सब न जाने किधर भटक गये थे और युवराज वाराह की खोज में भयानक जंगल के उस भाग में आ पहुंचे थे।

युवराज के सुगठित शरीर पर बहमूल्य वस्त्र एक विचित्रता लिए देदीप्यमान हो रहे थे। उनकी सुंदर मुखाकृति पर भीनती हुई यौवन-रेखायें अत्यंत सुंदर प्रतीत हो रही थीं। कंधे से लगा हुआ कार्मुक, तूणीर में आच्छादित कितने ही तीर एवं पाश्र्व में लटकता हुआ तीक्ष्ण कृपाण-सब उनकी अतुल शक्ति के साक्षी थे।

सृष्टि के आदिकाल में, जिस समय संसार इतना सभ्य नहीं था, इतनी विशाल अट्टालिकायें, इतने वैभवशाली राजा प्रासाद एवं इतना उन्नत कला-कौशल नहीं था, जनता में शांति की रक्षा के लिए नियम उप-नियम नहीं बने थे, लोग अपने झगड़ों का निवारण तलवार की धार से किया करते थे उस समय समस्त जम्बूद्वीप (भारतवर्ष) पर एक जाति शासन करती थी-द्रविड़ ! द्रविड़ राज युगपाणि की राजधानी थी पुष्पपुर एवं युवराज नारिकेल थे, युगपाणि के एकमात्र पुत्र।

'जाम्बुक..! जाम्बुक...!' युवराज की तीव्र पुकार निर्जन वन्य-प्रदेश में गुंजायमान हो उठी। 'जाम्बुक...! जाम्बुक...!' दूर क्षितिज से टकराकर युवराज की ध्वनि लौट आई, मानो उनका परिहास करता हुआ चारों दिशाओं में प्रकृति का भयानक अट्टहास गूंज उठा हो।

उसी समय पास की सघन वृक्षावलि के मध्य से सूखे पत्तों के चरमराने की ध्वनि सुनाई पड़ी। युवराज चौंककर उठ खड़े हुए।

देखा, एक विशालकाय वाराह खड़ा था, अपने प्रज्जवलित नेत्रों द्वारा युवराज को घूरता हुआ। युवराज के नयन प्रकाशमान हो उठे। उनके विशाल बाहु चंचल हो गये। उन्होंने कार्मुक पर तीर चढ़ाया। वाराह के मुख से क्रोधपूर्ण गुर्राहट की ध्वनि निकल पड़ी। वह प्रबल वेग से टूट पड़ा युवराज के ऊपर।

युवराज संभल गये थे। जरा-सा पीछे हटकर दायीं ओर खड़े हो गये। दूसरे ही क्षण, तीव्र गति से उन पर आक्रमण करने के लिए आए हुए उस विकराल वाराह के तीक्ष्ण दांत, दाहिनी ओर के वृक्ष में धंस गए।
 
उसका बार खाली गया, इससे वह भयानक जन्तु और भी क्रोधित हो उठा। उसके मुख से दिशाओं को प्रकम्पित करती हुई भयानक घुरघुराहट निकाली।

युवराज ने कार्मुक कान तक खींचा। दूसरे ही क्षण तौर सर्राता हुआ जाकर उस क्रुद्ध वाराह के पंजर में घुस गया। दारुण चीत्कार के साथ वह भूमि पर लेट गया और छटपटाने लगा।

युवराज धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़े। उनका अनुमान था कि वह मृतप्राय वाराह उस समय पूर्णतया अशक्त है और उन्हें किसी प्रकार की हानि पहुंचाने की सामर्थ्य उसमें नहीं है।

इसलिए वे वाराह के एकदम समीप चले गए, परन्तु ज्यों ही वे उसके सन्निकट पहुंचे, वह विचित्र गति से उठ खड़ा हुआ और सामने के घने जंगल की ओर भाग चला।

अपने शिकार को भागता देखकर युवराज विद्युत वेग से अश्व पर आरूढ़ हो गये। उनका संकेत पाकर द्रुतगामी अश्व लक्षित दिशा की ओर भाग चला, अविराम गति से। कितने ही नदी-नाले, झाड़-झंखाड़ पार किये जा चुके, परन्तु न तो वह वाराह ही रुका और न युवराज ने उसका पीछा छोड़ा।

दोनों में से किसी की गति में बाधा न पहंची। युवराज का अश्व इतना अभ्यस्त था कि ऊबड़ खाबड़ भूमि पर भी तीव्र गति से अग्रसर हो रहा था।

पीछा करने की धुन में युवराज ने इस बात का ध्यान न दिया कि उनके मार्ग में ही एक वृक्ष की शाखा बहुत नीचे तक झुकी हुई है।

दूसरे ही क्षण एक करुण चीत्कार के साथ युवराज अश्व पर से नीचे आ रहे। वृक्ष की शाखा उनके मस्तक से इतने प्रबल वेग से टकराई कि रक्त की धारा प्रवाहित हो चली। स्वामिभक्त अश्व दो-चार पग आगे बढ़कर खड़ा हो गया। युवराज कुछ क्षणों तक चेतनाहीन रहे।

परन्तु चेतना आते ही वे पुनः अश्व पर जा चढ़े। मस्तक के घाव का उन्हें कुछ ध्यान ही नहीं रहा-ध्यान रहा तो केवल उस वाराह का, जो इस समय उनकी दुर्दशा का कारण बना।

वाराह अधिक दूर नहीं गया कि युवराज ने पुन: अपने कार्मुक पर तौर चढ़ाया। सर्राता हुआ वह तीर जाकर वाराह की ग्रीवा में घुस गया। ठीक उसी समय पास की सघन वृक्षावलि के पीछे से एक सांगी प्रबल वेग से आकर उस वाराह के पंजर में जा धंसी।

इन दोनों प्रबल आघातों को सहन न कर सकने के कारण वह दुर्दान्त वाराह भूमि पर लुढ़ककर अंतिम सांस लेने लगा। युवराज को आश्चर्य हुआ, महान आश्चर्य-यह देखकर कि उनके शिकार पर इस प्रकार आक्रमण करने वाला यह दूसरा कौन आ पहुंचा?

युवराज अपने अश्व पर से नीचे उतरे। उसी समय एक सघन वृक्षावलि से निकलकर एक बीस वर्षीय बालक उनके सम्मुख आ खड़ा हुआ।

युवराज ने ध्यानपूर्वक उस युवक पर दृष्टि डाली। देखा-उसके मुख पर अपूर्व तेज प्रस्फुटित हो रहा है। शरीर नग्न है, केवल कटि-प्रदेश पर एक साधारण-सा वस्त्र है। कटि-प्रदेश में कृपाण लटक रहा है एवं हाथ में एक सांगी। वेशभूषा से वह किरात पुत्र-सा लग रहा था।

'कौन हो तुम....?' युवराज ने पूछा उस वीर युवक से। 'मैं किरात कुमार पर्णिक हूं...।' युवक ने किंचित् हास्य के साथ उत्तर दिया। 'किरातकुमार पर्णिक...?' युवराज ने स्थिर वाणी में दोहराया। उनका हृदय तीव्र गति से क्रोधित हो उठा था, यह सोचकर कि इस धृष्ट युवक ने उनके शिकार पर अपनी सांगी चलाकर उनका घोर अपमान किया है।

'किरातकुमार पर्णिक? तुमने युवराज नारिकेल का अपमान किया है, मेरे शिकार पर अपनी सांगी चलाई है...जानते हो इसका परिणाम...?' युवराज बोले।

'इसका परिणाम...?' पर्णिक के सुंदर मुख पर पुन: हास्य रेखा नृत्य कर उठी--- क्या हो सकता है इसका परिणाम...? आप ही बताने का कष्ट कीजिये...चिर कृतज्ञ रहूंगा...।'

युवराज की देदीप्यमान मुखश्री म्लान पड़ गई, युवक की व्यंगात्मक बातें सुनकर।

उन्हें लगा, जैसे किरातकुमार के वेश में कोई आकाशीय देवता उनकी परीक्षा लेने भूतल पर उतर आया है नहीं तो एक किरातकुमार में इतना साहस कहां?

'मुझे आश्चर्य है...!' पर्णिक दो पग आगे बढ़ आया—'कि युवराज ने अपने राजप्रासाद की सुखमयी गोद त्यागकर इस कंटकाकीर्ण वनस्थली में विचरण करना कैसे स्वीकार कर लिया एवं निरीह वन्य पशुओं पर अपनी अतुलित शक्ति का दुरुपयोग करना किस प्रकार उचित समझा?'
 
युवराज निश्चल खड़े रहे। केवल एक बार उन्होंने आश्चर्य एवं क्रोधपूर्ण दृष्टि पर्णिक पर डाली। 'क्या युवराज के राजप्रासाद में आमोद-प्रमोद की वस्तुओं का इतना अभाव हो गया है कि उन्हें इस भूखंड में आकर अपने मनोरंजनार्थ वन्य-पशुओं का वध करना पड़ा? क्या युवराज के हृदय में वह अन्यायपूर्ण कार्य न्यायोचित प्रतीत हुआ है?'

'क्या अब पुष्पपुर के युवराज को एक किरातकुमार से न्याय की दीक्षा लेनी पड़ेगी?' 'न्याय पर किसी का एकाधिकार नहीं युवराज...!' निर्भय उत्तर दिया पर्णिक ने।

युवराज क्रोध एवं क्षोभ से कांप उठे—'तुम्हारी बातें अभद्रोचित हैं किरातकुमार! अच्छा हो कि तुम अपने इस सुकुमार मुख से ऐसे अप्रिय वाक्य न निकालो। युवराज की सहनशीलता का सीमोल्लंघन कर रही है तुम्हारी बातें।'

'हम दरिद्र हैं। हमें भोजन के लिए कन्दमूल भी दुर्लभ है। यदि हम अपनी क्षुधा के शमनार्थ ऐसे निकृष्ट मार्ग का अवलम्बन कर, वन्य-पशुओं का वध करे तो वह क्षम्य हो सकता है मगर आप...? आपको क्षुधा लगने पर मणि-मुक्ताओं की थालियां मिल सकती हैं। निद्रा लगने पर पुष्पशैया प्रस्तुत हो सकती है, प्यास लगने पर सुधारस भी मिल सकता है—यदि आप ऐसा घृणित कार्य केवल अपने हेय मनोरंजन की पूर्ति के लिए करें तो वह क्षम्य नहीं हो सकता कभी नहीं हो सकता युवराज...।'

'युवराज नारिकेल तुम्हारी इन अभद्र एवं धृष्ट बातों का उत्तर कृपाण से देना चाहते हैं सावधान !' युवराज ने कटिप्रदेश से लटकती हुई अपनी कृपाण खींच ली।

'मैं प्रसन्न हूं...युवराज को विदित हो कि पर्णिक की माता ने उसे मरना सिखाया है, जीना नहीं...।'

दोनों विकट प्रतिद्वन्द्रियों के कृपाण झन्न से एक-दूसरे से जा टकराये। नीरव वनस्थली कृपाणों की भयावनी झंकार से झंकृत हो उठी-झन्न! ! ! पास के वृक्षों पर बैठे हुए पक्षिगण पंख फड़फड़ाकर दूर उड़ चले। वायु के प्रबल वेग से कांपकर एकाएक पत्तियां निश्चल हो गयीं। दानवाकार मेघों के लुट जाने से भुवनभास्कर का देदीप्यमान मुखमंडल चमचमा उठा और वे प्रज्जवलित नेत्रों द्वारा उन दोनों समवयस्क युवकों का वह अद्भुत द्वन्द्व देखने लगे।

स्वर्णिम किरणों के पड़ने से दोनों के स्वेदाच्छन्न मुख अतीव प्रभावशाली दृष्टिगोचर हो रहे थे।

'परिहास नहीं है...पर्णिक पर विजय पाना, परिहास नहीं युवराज।' पर्णिक का कृपाण तीव्र वेग से युवराज पर प्रहार करने को लपका। युवराज ने पैंतरा बदला, जरा-सा झुके और विद्युत जैसी चपलता के साथ उन्होंने पर्णिक का बार विफल कर दिया।

"अब तुम बचना किरात युवक !' युवराज ने अपने कृपाण का भरपूर दांव पर्णिक पर चलाया, मगर आश्चर्य कि वह वीर किरात पुत्र उस अचूक लक्ष्य से परे जा रहा, केवल उसके मणिबंध पर जरा-सी खरोंच आ गई।

"तुम अद्भुत हो किरातकुमार!' युवराज आश्चर्यचकित हो उठे—'नहीं तो तुम्हारे मणिबंध पर लगा हुआ वह तनिक-सा घाव तुम्हारे वक्ष पर होता!' विकराल रूप धारण किये हुए युवराज ने पणिक के वार का प्रत्युत्तर दिया—मुझे आश्चर्य है—घोर आश्चर्य है कि इस बन्य-प्रदेश में रहते हुए, कितना अच्छा शस्त्र संचालन तुमने किस प्रकार सीखा!'

'यह मेरी माताजी की कृपा है, युवराज ! उन्होंने ही मुझे शस्त्र संचालन की शिक्षा दी है...।' 'धन्य है तुम्हारी माताजी...!' 'केवल मेरी ही माता नहीं, अवनी की माता, संसार के प्रत्येक प्राणी की माता होने योग्य हैं वे...आप अप्रतिम होते जा रहे हैं युवराज...! युद्ध में शिथिलता प्राणघातक हो सकती है।'

पर्णिक को आश्चर्य हुआ यह देखकर कि युवराज की शस्त्र-संचालन गति धीमी पड़ती जा रही है और बहुत सम्भव था कि पर्णिक का कृपाण उन पर संघातिक आक्रमण कर बैठता...कि सहसा पर्णिक की दृष्टि युवराज के मस्तक के घाव पर जा पड़ी।

इस समय भी उस घाव से रक्तस्राव हो रहा था। युवराज की शक्ति भी क्षीण होती जा रही थी। क्रमश: उन पर अचैतन्यता के लक्षण स्पष्ट दीख पड़ने लगे और कुछ ही क्षणों के पश्चात् वे अर्धमूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। पर्णिक ने दौड़कर उन्हें उठाया— 'युवराज...!' और अब पर्णिक ने युवराज के मस्तक का वह भयंकर घाव देखा।

युवराज के नेत्र धीरे से खुले। मुंह से क्षीण स्वर निकला-'मेरी चिंता न करो, पर्णिक...तुम्हारी माता प्रतीक्षा कर रही होंगी। अब मैं ठीक हूं।'

'मुझे आशा है कि श्रीयुवराज मुझे अवश्य क्षमा कर देंगे।' पर्णिक ने कहा।

युवराज ने स्वीकृति में केवल अपना मस्तक हिला दिया। 'पर्णिक ! मुझे सहारा देकर घोड़े पर बैठा दो...और तब तुम जा सकते हो...।' युवराज बोले।
 
पर्णिक ने सहारा देकर युवराज को उठाया। बोला—'मस्तक का घाव भयानक है युवराज। कहिए तो इसको धोकर बूटी बांध दूं...?'

युवराज ने क्षण-भर सोचा, पुन: स्वीकारात्मक रूप से सिर हिला दिया। पर्णिक पास के झरने से पानी ले आया, युवराज को अपनी गोद में लिटाकर उनके मस्तक का घाव धोया, उस पर कोई जंगली बूटी पीसकर लेप कर देने के पश्चात्, युवराज के मुकुटबंध से कपड़ा फाड़कर सर पर पट्टी बांध दी।

'धन्यवाद!' युवराज ने कहा और पर्णिक के कंधे का सहारा लेकर उठ खड़े हुए। पर्णिक ने उन्हें बलपूर्वक घोड़े पर बिठा दिया, तत्पश्चात् आगे बढ़कर मृत वाराह को उठा लिया और युवराज को अभिवादन कर जाने लगा। 'किरातकुमार...!' युवराज ने पुकारा।

और चार पग आगे बढ़े हुए पर्णिक को पुन: लौटना पड़ा। पूछा-'क्या श्रीयुवराज ने मुझे पुकारा है?' 'हां, मैं चाहता हूं कि हमारी इस प्रतिद्वंद्विता का आज ही अंत हो जाए, कम-से-कम तब तक जब तक कि हम लोगों के बलाबल का पूर्ण निर्णय न हो जाये, हम लोग प्रतिद्वन्द्वी ही रहेंगे। यदि महामाया की कृपा रही तो जल्द ही हम दोनों कहीं-न-कहीं पुन: मिलेंगे...।'

'अवश्य मिलेंगे श्रीयुवराज...! मेरे हृदय में इस प्रतिद्वन्द्विता की अग्नि सदैव प्रज्जवलित रहेगी और मुझे विश्वास है कि बहुत जल्द हम पुन: मिलेंगे और तब हमारे बलाबल का निर्णय हो जायेगा...।' पर्णिक ने कहा।

युवराज बोले-'जैसी महामाया की इच्छा। अब तुम जा सकते हो....।' पर्णिक बढ़ चला, आगे की ओर। युवराज उसकी ओर तब तक देखते रहे, जब तक कि उसकी छाया सघन वृक्षाबलि के श्यामल आंचल में जाकर विलीन न हो गई।
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पर्णिक ने अपनी पीठ का वाराह भूमि पर रखकर माता की ओर दृष्टिपात किया, जो इस समय झोंपड़े के द्वार पर बैठी हुई उसी की प्रतीक्षा कर रही थीं।

सामान्य किरात-स्त्रियों के समान उनकी मुखाकृति पर मूढ़ता एवं दीनता नहीं थी। साधारण वस्त्र धारण किये रहने पर भी उनके मुखमंडल पर अपूर्व तेज की रेखा विद्यमान थी। 'इतनी देर से प्रतीक्षा कर रही हूं, कहां थे वत्स...?' पूछा पर्णिक की माता ने। 'क्या कहूं माताजी, यहां से कई योजन दूर चला गया था। एक प्रतिद्वंद्वी से भेंट हो गई...।' पर्णिक ने श्रम की श्वास खींची।

'क्या पराजित होकर आ रहे हो...? अपनी माता के श्वेतांचल पर कलंक-कालिमा लगा आये हो....?'
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'नहीं माताजी! आपका पुत्र क्या कभी पराजित हुआ है? फिर आज ही कैसे पराजित हो जाता...? मगर आपका मुख अप्रतिभ क्यों है, माताजी...?'

उसकी माता कुछ न बोली। एक बार उसने सामने की ओर दृष्टि डाली। किरातों के सहस्रों झोंपड़े एक पंक्ति में लग बने हुए थे। कितने ही किरात बालक इधर-उधर अमोद-प्रमोद में तल्लीन थे।

उसकी माता ने एक दीर्घ श्वास ली—उस श्वास में निहित था हार्दिक वेदना पर प्रखर प्रतिरूप।
 
संध्या का आगमन जैसे उलझनयुक्त एक गूढ़ समस्या है। दिन का देदीप्यमान प्रकाश थक-थककर अपनी सहज वेदना का भार वहन करता हुआ रात्रि की भयानक कालिमा के अंचल में अपना गोरा-सा मुख छिपा लेता है। दिवस की श्वेत परी रक्तरंजित प्रदेश का आलिंगन करती हुई अनंत की ओर बढ़ जाती है।

पुष्पपुर नगरी का पद-प्रक्षालन कर बहती हुई कालिंदी सरिता का निर्मल वक्षस्थल एवं श्वेत सुकामल झागा से युक्त सुमधुर कलकल निनाद, थमने-थमने-सा हो जाता।

उसकी हाहाकारमयी वेगवती तीन धारायें अबाध गति से अग्रसर होना छोड़कर स्थिर हो जाती हैं—एकदम निश्बल !

तट पर बैठी हई बकुल-राशि उड़कर ऊपर वृक्ष की मोटी शाखाओं पर जा बैठती है। संध्याकाल की उदासीन मलीनता घनघोर अंधकार में डूबने-डूबने-सी लगती है।
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रात्रि का भयानक मुख हाहाकार करता हुआ यावत जगत को अपना ग्रास बना लेता है। पुष्पपुर राजप्रासाद के ठीक सामने निर्मित महामाया के सुविशाल राजमंदिर से घंटे का 'टन टन' स्वर सुनाई पड़ने लगता है,परन्तु निमिष मात्र में ही क्षितिज के पास से शीतलता की वर्षा करता हआ एक प्रकाशमान रजतगोला, धीरे-धीरे आकाशमंडल को प्रदीप्त करता हुआ अपनी सुधामयी ज्योत्स्ना पुष्पपुर नगरी पर बिखेर देता है।

निर्मल चन्द्र ज्योत्स्ना में वैभवशाली पुष्पपुर चमक उठा है—चमाचम!

पुष्पपुर राजप्रासाद के अंतप्रकोष्ठ में बैठे हुए जम्बू द्वीप के अधीश्वर द्रविड़राज युगपाणि किसी प्रगाढ़ चिंता में तल्लीन हैं।

उनके तेजमान प्रतिभा-सम्पन्न नेत्रों के समक्ष, किसी बीभत्स घटना के अतीत चित्र अंकित हो रहे थे और परम तेजस्वी द्रविड़राज उन्हीं कष्टदायक विचारों में निमगन होकर दीर्घ श्वास लेकर रहे हैं

चालीस वर्ष पार कर चुकने पर भी उनके अवयव अपूर्व बलशाली एवं मुखश्नी दमकती हुई दृष्टिगोचर हो रही थी, परन्तु अपने इस लम्बे जीवन में उन्होंने क्या-क्या दुख, क्या-क्या कष्ट एवं क्या-क्या अबहेलनाएं नहीं सहन की थी?

दैवी चक्र आरंभ से ही उनके प्रतिकूल चलता आ रहा था, परन्तु उन्होंने अतुलित धैर्य के साथ सब कुछ सहन किया था। शत्रुओं पर विजय पाई थी, प्रजा की रक्षा की थी, अतीव उत्साह के साथ।
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न्याय!

द्रविड़राज युगपाणि का न्याय अटल था। उनके मुख से निकले हुए हर वाक्य न्याय के प्रतीक होते थे। उनके किसी कार्य ने, उनके किसी वाक्य ने, उनके किसी आचरण ने न्याय का उल्लंघन नहीं किया था।

द्रविड़राज युगपाणि चिंताग्रस्त होकर बैठे रहे। प्रकोष्ठ के प्रांगण से उदय होते हुए चन्द्र की एक रजत रेखा आकर नृत्य कर रही थीं।

सुचित्रित काले पत्थरों पर चारुचन्द्रिका का वह कल्लोल ऐसा मनोहर था मानो स्वर्ग की दिव्य ज्योति आकर वहां पर अठखेलियां कर रही हो।

प्रकोष्ठ के बहिप्रांत में हाथीदांत के निर्मित चरणपादुका का खट-खट शब्द सुनाई पड़ा। दूसरे ही क्षण द्वारपाल ने आकर निवेदन किया श्री महापुजारी जी पधारे हैं।'
द्रविड़राज के मस्तक पर चिंता की रेखाएं उभर आईं। ऐसे समय में महापुजारी जी ने आने का क्यों कष्ट किया...? उन्होंने सोचा, दूसरे ही क्षण संकेत से स्वीकृति दे दी।
 
पुष्पपुर राजप्रासाद के ठीक सामने महामाया का राजमंदिर है। महापुजारी पौत्तालिक महामायों के अनन्य उपासक, धर्माचार्य एवं राजगुरु है। राज्य के सभी पदाधिकारी उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। द्रविड़राज युगपाणि में भी इतना साहस नहीं कि महापुजारी की आज्ञा की अवहेलना कर सके . दीर्घाकार आकृति, गौर वर्ण, सुविशाल मस्तक पर चंदन का तिलक लगाये हुए, महापुजारी पौत्तालिक के मुखश्री से एक अपूर्व तेज प्रतिभासित होता रहता है।

गले में बड़ी-बड़ी रुद्राक्ष मालाएं, शरीर पर स्वर्ण खंचित पीताम्बर एवं पैरों में हाथी दांत की पादुका-वास्तव में वे पुजारी थे। उनके मुख से अविच्छिन्न प्रतिभा प्रस्फुटित होती थी, मानो महामाया की समग्री तेजराशि उनके नेत्रद्वय द्वारा यावत् जगत का निरीक्षण कर रही हो।

द्रविड़राज ने महापुजारी के चरण छुए। महापुजारी ने 'आयुष्मान भव' कहकर उनकी मंगल कामना की, तत्पश्चात् वे द्रविड़राज की शैया पर आकर बैठ गये।
द्रविड़राज भी पैताने बैठकर राजगुरु की प्रतीक्षा करने लगे।

'श्री सम्राट का मुखमंडल श्रमित, क्लांत एवं प्रतिभाहीन क्यों दृष्टिगोचर हो रहा है...?' महापुजारी ने पूछा-'क्या किसी प्रगाढ़ चिंता ने भी सम्राट के हृदयालोक पर अपनी कालिमा बिखेर दी है या राज्य-संचालन में कोई दुरूह बाधा उपस्थित होने के कारण, इतने व्यंग्न हो रहे है

"कुछ नहीं है...' द्रविड़राज ने किंचित स्मित करने का व्यर्थ प्रयत्न किया—यह सब कुछ नहीं है, महापुजारी जी! मेरे हृदय में कोई चिंता, कोई व्यग्रता, कोई कष्ट नहीं है और न राज्य पर ही कोई विपत्ति आई है, सब कार्य पूर्ववत् सुचारु रूप से संचालित हो रहे हैं। प्रात:कालीन सूर्य की स्वर्णिम आभा हिमराज के हिमाच्छादित उच्च शिखरों पर कल्लोल करती हुई पुष्पपर-निवासियों के हृदय-प्रदेश में एक अनिर्वचनीय आनन्दोल्लास की सृष्टि कर देती है। सन्ध्याकाल में हिमराज के आंचल का आलिंगन करके आता हआ सुखद समीर, शरीर का सम्पर्क कर दिवस का सारा परिश्रम अपने साथ उड़ा ले जाता है। रात्रि में पक्षिगण अपने नीड़ों में विश्राम करते हैं। यावत जगत सुखद निद्राभात होकर स्वप्न-संसार में विचरण करता है। सब कुछ यथावत हो रहा है, महापुजारी जी!
कहते-कहते सम्राट ने महापुजारी के प्रतिभायुक्त मुख पर अपनी दृष्टि डाली। महापुजारी जी की आकृति गंभीरता धारण किए हुए थी।

"किंतु सभी कार्य जब यथावत चले रहे हैं तो आप ऐसे प्रश्न क्यों कर रहे हैं, महापुजारी जी। क्या आपके दिव्य चक्षुओं को किसी प्रलयंकारी अनिष्ट का आभास मिला है...?' सम्राट ने पूछा। 'जाने दीजिए इन सब कष्टदायक बातों को। समय पड़ने पर उचित प्रबंध किया जा सकता है...आप अस्वस्थ हैं। सन्ध्योपासना में भी आप सम्मिलित न हो सके...।'

'सन्ध्या-पूजन हो गया क्या...?' अभी तक सम्राट को यह भी पता न था कि इस समय एक प्रहर रात्रि व्यतीत हो चुकी है।

'संध्यायोपासना तो बहुत पहले ही समाप्त हो चुकी है, श्रीसम्राट...! परन्तु दुख है कि न तो आपने ही पर्दापण करने का कष्ट किया और न ही श्रीयुवराज ने ही, भला यह बेला शयनकक्ष में रहने की है? अवश्य आपके अन्त:स्थल में कोई गुह्य व्यथा है श्रीसम्राट...!'

उसी समय द्वारपाल ने पुनः प्रवेश कर सम्राट एवं महापूजारी को अभिवादन किया —'प्रात:काल से श्रीयुवराज आखेट को गये है,और अभी तक नहीं लौटे...।' उसने विनम्न स्वर में कहा।

'अभी नहीं लौटा...?' द्रविड़राज ने अस्त-व्यस्त स्वर में पूछा।

'अभी तक नहीं...?' महापुजारी का शरीर अनिष्ट की आशंका से कम्पायमान हो उठा।

थोड़ी देर बाद महापुजारी हंस पड़े—'आप निश्चिंत रहें। महामाया की माया से भी युवराज पर कोई अनिष्ट आ पड़ने की आशंका नहीं है।'
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'हृदय नहीं मानता, महापुजारी...!' द्रविड़राज युगपाणि ने दीर्घ श्वास छोड़कर कहा-'सब कुछ खो चुका है, अब यदि उसे भी खो बैठेंगा तो कैसे धैर्य रख सकूँगा? इस पृथ्वी पर अब अकेला ही तो हूं—युवराज ही मेरे नेत्रों की ज्योति है।'

'इस प्रकार व्यथित होना एक सम्राट के लिए अशुभ-सूचक है, ऐसे विशाल हृदय में एक तुच्छ भावना को स्थान देना हेय है, घृणित है...कौन कह सकता है कि द्रविड़राज युगपाणि इस नश्वर जगत में एकाकी है? जम्बूद्वीप के अधीश्वर को ऐसी अशुभ बात मुख से बहिगर्त नहीं करनी चाहिए। जम्बूद्वीप की सारी प्रजा आपकी संतान हैं, द्वीप का सारा ऐश्वर्य आपकी सम्पत्ति है और द्वीप की सारी प्रकृति-प्रदत्त सुषमा आप पर निछावर होने को प्रस्तुत है, श्रीसम्राट...! फिर क्यों आप इस प्रकार अधीर हो रहे है?'

'महापुजारी जी...।'

'आज्ञा श्रीसम्राट देव।'

'मुझे बचाइये...मेरी रक्षा कीजिये, महापुजारी जी...।' द्रविड़राज व्यथित स्वर में बोला—'मैं पथ विमुख हो रहा हूं, मुझे शक्ति प्रदान कीजिये...।'

'कौन-सी ऐसी दुर्भेद्य शक्ति है जो आपको पथविमुख कर रही है, श्रीसम्राट का हृदय सदैव निर्धारित मार्ग पर अग्रसर होगा...।'

पर्व स्मति की चिंगारी भीषण दावानल बनकर मेरा रक्त शोषण कर रही है। आज कई दिनों से राजमहिषी त्रिधारा की स्मृति मेरे अंतर्पट पर उभर कर मुझे व्यथित कर रही है, महापुजारी जी! मैं नहीं जानता था कि आज से पच्चीस वर्ष पूर्व किए हुए कार्यों के लिए अब पश्चाताप करना होगा....।
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पच्चीस वर्ष पूर्व? जबकि न्याय के रक्षार्थ द्रविड़राज ने अपनी महारानी को आजन्म निर्वासन का दण्ड दिया था— जबकि युवराज नारिकेल को रोता हुआ छोड़कर पुष्पपुर की राजलक्ष्मी त्रिधारा चली गई थी - अपने पेट में सात महीने का गर्भ धारण किये हुए।

'श्रीसम्राट...!' महापुजारी की मुखाकृति कठोर हो गई—'आपको भूल ही जाना होगा इन सारी अनिष्टकारी बातों को, अन्यथा...!' महापुजारी के ललाट पर दुश्चिन्ता की रेखायें खिंच आयीं। एक दीर्घ श्वास लेकर वे पुन: बोले- मैंने आपको इतना दुर्बल हृदय नहीं समझा था कि अपने ही न्याय के प्रति, आप स्वयं पश्चाताप करेंगे...। अनर्थ हो जाएगा-प्रलय आ जायेगी श्रीसम्राट...।'
महापुजारी रुके कुछ देर के लिए। उन्होंने आगे बढ़कर द्रविड़राज का कम्पित कर पकड़ लिया और उनके मुख पर अपने प्रज्जवलित नेत्र स्थिर कर दिए। सम्राट को लगा जैसे महापुजारी की वे क्रूर आंखें उनके अंत:स्थल में प्रवेश करती जा रही हैं।

'श्रीसम्राट...!' महापुजारी ने पुकारा दृढ़ स्वर में।

'महापुजारी जी...।' सम्राट का स्वर लड़खड़ा गया था।

'आपको इन अनिष्टकारी कल्पनाओं से दूर रहना पड़ेगा। बिगत घटनाओं को पुन: स्मृतिपट पर लाकर प्रलय का आह्वान कीजिये। द्रविड़राज का 'न्याय' हिमराज-सा अटल है, आप व्यथित है, व्यथा के शमनार्थ चक्रवाल की आवश्यकता है आपको। मैं उसे अभी भेजता हूं। वह अपने सुमधुर गायन द्वारा आपके कर्ण-कुहरों में अमृतवर्षा कर देगा। भूल जायेंगे आप इन सारी दुश्चिन्ताओं को।'
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महामाया के मंदिर में उपासना के समय नृत्य करने वाली किन्नरी निहारिका के साथी का नाम था चक्रवाल!

जब किन्नरी निहारिका, महामाया की प्रतिमा के समक्ष अपनी समस्त कलाओं का एकत्रीकरण कर नृत्य करती तो चक्रवाल अपनी वीणा पर खेलता हुआ अपने सुमधुर गायन द्वारा उस नृत्य में मोहिनी-शक्ति उत्पन्न कर देता। जिस प्रकार किन्नरी की नृत्य-कला अपूर्व थी, जीवनदायिनी थी—उसी प्रकार थी चक्रवाल की गायन कला।

वह चारण था। संगीत के ललित प्रवाह से द्रविड़राज को प्रसन्न रखना ही उसका कार्य था। द्रविड़राज, महापुजारी एवं युवराज-सभी विमुग्ध थे उस युवक चारण की गायन-कला पर। ऐसा था चक्रवाल! बीस वर्ष का युवक...मुख पर दीनतापूर्ण गंभीरता। आंखों में जैसे आंसुओं का आगाध सागर भरा पड़ा हो। कभी हंसता न था। रो लिया करता था—कभी-कभी।

सम्राट चुपचाप निश्चल बैठे थे।

'बोलिए श्रीसम्राट! आप चुप क्यों हैं...?' महापुजारी बोले।

'क्या कहूं महापुजारी जी...'' द्रविड़राज के मुख से बहिर्गत इस छोटे से वाक्य में वेदना की अगमराशि निहित थी।

"अजब अंधेरी रात साथी, अजब अंधेरी रात!
" पग-पग पर छाया अंधियारा, बही जा रही जीवनधारा...
'आली! तेरे नयनों में है आज घिरी बरसात! साथी...!
'इस कर्णप्रिय मधुर संगीत से सारा प्रकोष्ठ गूंज उठा।

ऐसा लगा, मानो स्वर्ग का कोई किन्नर भू पर उतर आया हो। पवन निश्चल हो गया, पल्लवों ने हिलना बंद कर दिया, पक्षियों का गुंजरित कलरव मधुर नीरवता में परिणत हो गया।

गाते हुए चक्रवाल की वह मधुर गीत-लहरी वातावरण में सरसता घोलती रही 'बिछड़ गये वो मन के वासी छाई तेरे मुख पै उदासी सूख गये हैं बिरह में उनके मृदुल मनोहर गात–साथी अजब अंधेरी रात।'
 
'लीजिये...! चक्रवाल तो स्वयं इधर ही आ रहा है...।' महापुजारी ने कहा। उसी समय बीस वर्षीय युवक चारण वहां आ उपस्थित हुआ। चक्रवाल ने झुककर महापुजारी के चरण छुए एवं द्रविड़राज को अभिवादन किया। 'क्या श्रीसम्राट अस्वस्थ हैं...?' उसने विनम्रता से पूछा।

'तुम अपनी कला द्वारा श्रीसम्राट को स्वस्थता प्रदान करो...।' कहते हुए महापुजारी प्रकोष्ठ से बाहर चले गए।

चक्रवाल ने आगे बढ़कर प्रकोठ में रखी हुई वीणा उठा ली। वीणा के तार झंकार उठे-झन्न! झन्न!! चक्रवाल की अभ्यस्त अंगुलियां वीणा के तारों पर अविराम गति से दौड़ चलीं। मधुर झनकार ने हततन्त्री के तारों को झंकृत करना प्रारंभ कर दिया। प्रकृति कांपने-सी लगी। धवल चन्द्र खिलखिला उठा। दिशायें हंस पड़ीं।

'अब रहने दो, चक्रवाल! हृदय सम्राट के प्रखर आघात को यह वीणा की झंकार और द्विगुणित कर रही है...।'

'क्या श्रीसम्राट को कोई मानसिक व्यथा कष्ट दे रही है?' चक्रवाल ने वीणा रखते हुए पूछा।

'तुम युवक हो...तुम क्या जान सकोगे उस व्यथा की बात...?' सम्राट के मुख पर करुण मुस्कान नत्य करने लगी।

'मैं सुनना चाहता हूं, श्रीसम्राट...! आपकी व्यथा की कहानी अवश्य सुनूंगा...।'

"सुनोगे...? जिस करुण गाथा को आज पच्चीस वर्ष से अपने अंतरा में छिपाये मैं जल रहा है, उसे सुनोगे तुम?' द्रविड़राज बोले-'न सुनो चक्रवाल! शायद तुम भी व्यथाग्रस्त हो जाओ...बह एक दु:खद कहानी है, इसलिए तो अभी तक युवराज को भी नहीं बतलाया है मैंने। सम्भवत: सुनकर मुझसे भी अधिक व्यथित हो जायेगा वह...। खैर! तुम सुन लो मगर युवराज को मत सुनाना—यह उसकी माता की कहानी है—यह मेरे न्याय की कहानी है...।'

चक्रवाल कुछ आगे खिसक आया।

द्रविड़राज कहने लगे—'आज से पच्चीस वर्ष पूर्व...।'

जी हां, आज से पच्चीस वर्ष पूर्व, सम्राट युगपाणि बाईस वर्ष के नवयुवक योद्धा एवं प्रतिभासम्पन्न शासक थे।

उस समय द्रविड़राज का संसार हरीतिमा-सा मनोहर एवं मुकुलपुष्प-सा सौंदर्यपूर्ण था। वे अपनी धर्मपत्नी राजमहिषी त्रिधारा का अपूर्व प्रेम प्राप्त करते हुए सुखमय दाम्पत्य जीवन का उपभोग कर रहे थे, परन्तु बहुत दिन व्यतीत हो जाने पर भी अभी तक उन्हें संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी।

यही एक कारण ऐसा था जिससे राजदम्पती के मधुर मुस्कान युक्त मुख पर कभी-कभी वेदना की प्रखर कालिमा छा जाती थी।

यों तो सम्राट द्रविड़राज भी इस बात के लिए कम चिंतित नहीं थे, परन्तु राजमहिषी त्रिधारा की चिंता असीम थी। वे रात-दिन इसी चिंता से व्याकुल रहतीं। यद्यपि द्रविड़राज राजमहिषी के दुख का, चिंता का कारण पूर्णतया समझते थे, मगर सब व्यर्थ। पुष्पपुर की सारी प्रजा राजदम्पती के इस कष्ट से दुखी थी। पुष्पपुर का अतुलित वैभव एवं श्रीसम्पन्न वातावरण सूना-सा प्रतीत होता था

—बिना एक युवराज के। कई मास व्यतीत हो गए।

घनघोर गर्जन के साथ बरसते हुए काले-काले बादल जब शिशिर की मधुमयी ओस में परिवर्तित हो गये

अब हिमाच्छिदित हिमराज के उच्चतम शिखरों ने नीलाकाश का चुम्बन करते हुए दुग्धवत श्वेत रंग धारण कर लिया।

जब पुष्पपूर नगरी पर शिशिर ने अपने कलापूर्ण कर्णों द्वारा अगाध सुषमा बिखेर दी

तब एक रात्रि को द्रविड़राज युगपाणि राजमहिषी त्रिधारा के साथ सुसज्जित शयन-कक्ष में विश्राम कर रहे थे, उन्होंने राजमहिषी के मुख पर आज प्रसन्नता की प्रोज्वल रेखायें देखी तो उन्हें आश्चर्य हुआ।

"तुम अतीव प्रसन्न दिखाई दे रही हो, राजमहिषी...। तुम्हारे क्लांत मुख पर इस समय चन्द्रदेव की मधुरिमा नृत्य कर रही है इसका कारण...? इसका कारण बता सकती हो, राजमहिषी?' पूछा उन्होंने।
 
'कारण आप अभी तक नहीं जान सके, नाथ...!' राजमहिषी ने द्रविड़राज के विशाल वक्ष पर अपना मस्तक टेक दिया—' प्रसन्नता क्यों न हो...? नीरस हृदय प्रदेश में अनिर्वचनीय आनंद क्यों न नृत्य करे...? जबकि अपनी सुषमा बिखरने के लिए विधाता ने एक मानव का सृजन किया है। अंधकारमयी रात्रि का गर्व-खर्व करने के लिए एक परमोज्वल शिशु इस अवनीतल पर अवतरित होने वाला है। राज दंपत्ति की शून्य गोद भरने के लिए महामाया की माया अपना चमत्कार दिखाने वाली है...।'

'सत्य कहती हो राजमहिषी...!' आश्चर्यपूर्ण हर्षोल्लास से सम्राट उछल पड़े—'क्या तुम सत्य कहती हो, प्रिये? क्या वास्तव में हमारे नष्टप्राय एवं अंधकारपूर्ण संसार को अपनी प्रतिभा से प्रोज्वल करने के लिए कोई दैवी शक्ति आ रही है, क्या सत्य ही हमारी सूनी गोद, कुछ ही दिनों में किसी सुकुमार शिशु के मधुर क्रन्दन से गुंजरित होने वाली है ? सत्य कहना राजमहिषी।'

"ऐसी शुभ बात भी कोई असत्य कहता है, सम्राट देव...?' राजमहिषी ने लज्जा से अपना उज्ज्वल मुख सम्राट की गोद में छिपा लिया।

इस समय राजदम्पती को संतान के आगमन से जो आह्लाद हुआ वह वर्णनातीत था। वर्षों की प्रतीक्षा के पश्चात् उनकी गोद भरने वाली थी, उनके दुखपूर्ण जीवन की समाप्ति होने वाली थी—तो क्यों न वे हर्ष से चीत्कार कर उठते।।

ज्यों-ज्यों प्रसव के दिन सन्निकट आने लगे, त्यों-त्यों द्रविड़राज की प्रसन्नता में वृद्धि होती गई।
और अंत में एक दिन राज प्रासाद एक नवजात शिशु के क्रन्दन से मुखरित हो उठा।

दिवस एवं रात्रि की श्वेत एवं श्यामल अप्सरायें आकर यावत जगत पर अपनी सुषमा बिखेरती रहीं। समय का चक्र द्रुत गति से घूमता रहा।

पलक मारते दो वर्ष व्यतीत हो गये। तृतीय वर्ष में पदार्पण करते ही युवराज का नामकरण संस्कार हुआ। महापूजारी पौत्तालिक युवराज की मंगलकामना के लिए महामाया से प्रार्थना करते थे और महामाया के चरणों पर चढ़ाया हुआ कुंकुम (रोली) लाकर युवराज के मस्तक पर लगाते,ताकि युवराज पर किसी भाबी विपत्ति की आशंका न रहे। यह नित्य का, प्रतिदिन का कार्य था। प्रात:काल होते ही राजमंदिर का घंटा घोष करने लगता। द्रविड़राज युवराज को गोद में लेकर महामाया के मंदिर में उपस्थित होते। राजकिन्नरी नृत्य करती हुई महामाया की आरती उतारती। महापुजारी पौत्तालिक विधिवत पूजन करते एवं महामाया के चरणों पर स्वर्णपात्र में भरा हुआ कुंकुम अर्पित करते।

पूजन समाप्त हो चुकने पर वहीं कुंकुम बाल युवराज के मस्तक पर लगा दिया जाता। भोले युवराज की देदीप्यमान मुखश्री कुंकुम की लालिमा से और भी प्रोद्भासित हो उठती थी।

इसी तरह मास-पर-मास व्यतीत होते चले गए। एक दिन, जबकि द्रविड़राज युगपाणि राजमहिषी त्रिधारा के शयन प्रकोष्ठ में विश्राम कर रहे थे। तो राजमहिषी से यह सुनकर कि कुछ ही मास पश्चात् उन्हें एक दूसरी संतान की प्राप्ति होने वाली है तो उनके हर्ष का पारावार न रहा।

'कितने सौभाग्य का विषय है प्रिय!' द्रविड़राज कहने लगे—'जहां हम एक संतान के लिए लालायित रहते थे, वहां अब दूसरी संतान हमें प्रसन्नता प्रदान करने आ रही है...।'
'परन्तु इस बार न जाने क्यों मेरा हृदय अत्यंत उद्विग्न रहता है, प्राण...पता नहीं क्या होने वाला
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"किसी प्रकार की दुश्चिन्ता में न पड़ो, साम्राज्ञी...!'द्रविडराज ने अपने कण्ठ में पड़ा हआ बहुमूल्य रत्न हार निकालकर राजमहिषी के गले में पहना दिया—'यह लो! प्राचीनकाल से आता हुआ परम पवित्र कल्याणकारी रत्न तुम्हारी रक्षा करेगा। यह हमारे प्राचीन महापुरुषों द्वारा प्रदत्त रत्नहार है—इसकी अवहेलना,इसका अपमान न करना नहीं तो अनिष्ट की संभावना है...इसका अपमान करने पर राजदण्ड का भागी होना पड़ेगा।'
 
दुसरे दिन जिस समय महामाया का पूजनोत्सव समाप्त हुआ तो महापुजारी ने द्रविड़राज के कण्ठ-प्रदेश में वह पवित्र रत्नहार न देखकर पूछा-'श्रीसम्राट! आज वह पवित्र रत्नाहार आपके कंठ-प्रदेश में नहीं है। क्या आपने उसे कहीं रख दिया है...?'

'राजमहिषी को पुन: संतान की प्राप्ति होने वाली है—मैंने उनकी मंगल कामनार्थ वह पूजनीय रत्नहार उन्हें दे दिया है और उनसे कह दिया है कि रत्नहार की तनिक भी उपेक्षा न की जाए...।' द्रविड़राज ने कहा।

-- -- व्योम के दुकूल पर से एक प्रकाशमान स्वर्गगोला क्रमश: ऊपर उठकर संसार पर अपनी तेजमयी प्रतिभा एवं प्रखर प्रकाश बिखेरने लगा।

दिवस के शुभ प्रकाश में पुष्पपुर राजप्रासाद की चित्र-विचित्रत दीवारें कल्लौल करती-सी प्रतीत होने लगीं। महामाया के मंदिर का उच्चतम शिखर जो विविध कलाकारों द्वारा स्वर्ण एवं मणिमुक्ताओं से निर्मित था—भुवनभास्कर की प्रौद्भासित मुख-राशि का संयोग पाकर चमक उठा

—झकाझक। हिमराज के हिमाच्छादित शिखर उष्णता से पिघल-पिघलकर कल-कल निनाद करते हुए छोटे छोटे नदी-नालों में परिवर्तित होने लगे।

राजमहिषी त्रिधारा ने पलंग पर अपने कुल का वह पवित्र रत्नहार उतारकर रख दिया था और स्वयं कदाचित स्नान करने चली गई थी। वहां कोई न था।

उछलता-कूदता हुआ एक वानर न जाने कहां से राजप्रासाद के अंतप्रकोष्ठ में जा पहुंचा। रत्नहार की अद्भुत प्रौञ्चलता ने उसका मन अपनी और आकर्षित किया।

उसने आगे बढ़कर अपने खुरदरे हाथों द्वारा वह परम पवित्र रत्नहार उठा लिया। एक क्षण तक वह उसकी ओर अनिमेष दृष्टि से देखता रहा। पुन: उसने उसे अपने रोमपूर्ण कंठ में पहन लिया और अंतप्रकोष्ठ से बाहर आकर इतस्तत: वृक्षों पर उछलने-कूदने लगा।

नियति का चक्र सदैव परिचालित होता रहता है। भवितव्य होकर ही रहता है। द्रविड़राज के ऊपर जो भावी संकट आने वाला था, उसका यह संकेत था।

वृक्षों पर इतस्तत: क्रीड़ा करता हुआ वानर राज-प्रकोष्ठ से बहुत दूर निकल गया। एक सघन वृक्षलतादिपूर्ण उद्यान में पहुंचकर वह रुका। उसने गले का रत्नहार उतारकर हाथ में ले लिया और उसे उछाल-उछालकर कौतुक करने लगा। वृक्ष की एक मोटी शाखा पर बैठकर क्रीड़ा करता हुआ वह क्या जानता था कि जिस वस्तु को वह इतना तुच्छ समझ रहा है, वह है एक परम पवित्र रत्नहार, जिसकी एक-एक मणि, जिसकी एक-एक मुक्ता, प्रबल मंत्रों द्वारा अभिमन्त्रित की गई है और जिसका तनिक-सा अपमान प्रलय की सृष्टि कर सकता है।
 
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