RajSharma Sex Stories कुमकुम - Page 3 - SexBaba
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RajSharma Sex Stories कुमकुम

चक्रवाल का गायन उनके लिए प्रात:जागरण का मधुर संदेश था। सब जाग पडते, परन्तु चक्रवाल का गायन न रुकता—तब तक, जब तक कि किन्नरी प्रकोष्ठ में आकर न कहती-'रहने दो चक्रवाल! सब जाग पड़े हैं। अब तुम भी स्नानादि से निवृत्त होकर शीघ्र ही मंदिर में चलने की तैयारी करो...।'

नित्य की भांति आज भी किन्नरी उसके प्रकोष्ठ में आयी—'सब तो जाग पड़े हैं और तुम गाते ही रहोगे क्या...?' उसने कहा।

चक्रवाल का गायन-प्रवाह रुक गया।

'आज युवराज पधारेंगे, शीघ्र ही तैयार होकर आओ....।' कहकर वह तीव्र गति से अपने प्रकोष्ठ की ओर चली गई।
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महामाया के पूजन का उत्सव दर्शनीय होता था।
अगणित सुगंधित द्रव्य अग्निकुण्ड में पड़ते थे, वायु उस सुगंधित द्रव्य को ग्रहण कर वातावरण को सुरभित किया करती थी।

महामाया की रत्नजड़ित प्रतिमा, हृदय में अपूर्व भक्ति का स्रोत प्रवाहित कर देती थी। महामाया की प्रतिमा के समक्ष एक स्वर्णनिर्मित थाल में कुंकुम एवं आरती हेतु कपूर रहता था। द्रविड़राज एवं महामंत्री का पूजनोत्सव के समय मंदिर में उपस्थित रहना अनिवार्य था।

आज बहुत दिनों के पश्चात युवराज ने राजमंदिर में पदार्पण किया। द्रविड़राज, युवराज एवं महामंत्री-सब यथायोग्य स्वर्णासनों पर आसीन थे।

आज किन्नरी निहारिका की वेशभूषा अपूर्व थी। इस समय वह चक्रवाल के पार्श्व में मस्तक नीचा किये हुए, तर्जनी को ठुड्डी पर रखकर कुछ सोचने की सी मुद्रा में बैठी थी—मगर बैठने में भी उस कलामयी युवती की अनोखी कला प्रकट हो रही थी। उसके प्रत्येक अंग संचालन में अपूर्व कला का सम्मिश्रण था। अपूर्व थी वह कलामयी।

पूजन समाप्त हुआ। महापुजारी ने महामायी का विधिवत् पूजन किया। प्रबल घंटारव से सुविशाल मंदिर गुंजायमान हो उठा। शंखध्वनि वातावरण में गुंजरित होने लगी।

द्रविड़राज एवं युवराज आदि ने महामाया एवं महापुजारी को मन-ही-मन प्रणाम किया। चक्रवाल सजग हुआ।

अब उसका कार्य प्रारंभ होने वाला था। उसने अपनी संचित मधुरता का एकत्रीकरण किया तुरंत ही महामाया का गुणगान उसकी स्वर-लहरी से फूट पड़ा था 'वर दे, शत्रु विनाशिनी वर दे !' साथ ही उसके अभ्यस्त अंगुलियां वीणा के तारों पर जा पड़ीं। तार मधुर स्वर में झंकृत हो उठे। यह मधुर आह्वान था, उस कलामयौं किन्नरी के लिए। वह उठी। मंथर गति से पग-पग पर अपनी कलापूर्ण प्रभा बिखेरती हुई वह कुंकुम के थाल के पास आ खड़ी हुई।

उसने कपूर-पात्र उठाकर अग्नि-शलाका से उसे प्रज्जवलित किया और तब महामाया की आरती उतारने लगी। मंदिर के घंटे पुन: तीन वेग से गुंजायमान हो उठे। आरती होती रही, चक्रवाल गाता रहा 'काट अंध उर के बंधन हर, बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर'
कलुषा भेद तम हर, प्रकाश भर, जगमग जग कर दे। वर दे ।

आरती समाप्त हुई। उस मंगलमयी आरती का स्वागत करने हेतु किन्नरी आरती का थाल ले, सबके समक्ष होती हुई आगे बढ़ने लगी।

सभी श्रद्धालु भक्ति एवं श्रद्धा से दोनों हाथ आरती के थाल पर घुमाकर मस्तक से लगाते रहे। द्रविड़राज ने आरती का स्वागत किया। उनके पार्श्व में ही बैठे थे युवराज। किन्नरी आरती का थाल लेकर युवराज के समक्ष आई।

वह न जाने क्यों सहम सी गई, लज्जित सी हो उठी। उसका हाथ एक क्षण के लिए प्रकम्पित हो उठा। युवराज ने भी आरती का स्वागत किया।
 
तत्पश्चात् किन्नरी के प्रकम्पित हाथों ने थाली में से थोड़ा-सा कुंकुम उठाकर युवराज के शुभ ललाट पर लगा दिया।

आरती की क्रिया समाप्त हो चुकने पर चक्रवाल ने पुन: वीणा उठाई। उसकी तर्जनी ने वीणा के झिलमिलाते तारों का स्पर्श किया। प्रकृति को गुंजरित कर देने वाली सुमधुर झंकार निकल पड़ी उस मोहिनी वीणा से। साथ ही किन्नरी के नूपुर ध्वनि कर उठे-छूम छननन!

उसी समय बाल सूर्य की पहली किरण मंदिर के प्रांगण में से होती हुई युवराज के सुंदर मुख पर नृत्य कर उठी।

चक्रवाल ने गाया 'अलस भाव त्याग सजनी, प्राथ किरण आई।'

किन्नरी ने अपने कलापूर्ण कटिप्रदेश को मरोड़कर एवं अपने सुकोमल शरीर को कम्पित करके 'अलस भाव त्याग सजनी' का भाव दर्शाया, तत्पश्चात् युवराज के मुख पर नृत्य करती हुई उस स्वर्णिम किरण की ओर संकेत करके प्रथम किरण आई' की व्यंजना की।

पुन: उसके नूपुर बज उठे छूम छनन! चक्रवाल की तर्जनी, वीणा के तारों पर नृत्य करती रही एवं उसी के ताल के साथ-साथ किन्नरी की नर्तन-कला भी प्रवाहित होती रही।

चक्रवाल गाता रहा 'सुषमा की निधि अपार, क्यों न उठे पलक भार। तन्द्रावश यों निहार सहसा मुस्कराई। अलस भाव... किन्नरी ने यावत जगत की ओर हाथ उठाकर 'सुषमा की निधि अपार' का संकेत किया, पुन: भूमि पर बैठ दोनों नेत्र बंद कर क्यों न उठे पलक भार' प्रदर्शित किया, तत्पश्चात् अपने दोनों मादक नयन अौन्मिलित कर तन्द्रावश यों निहार का भाव बताया एवं अधरों पर एक मधुर मुस्कान लाकर 'सहसा मुस्काई' की व्यंजना की।

सब अवाक् थे—उस कलामयी सुंदरी की अप्रतिम कला का अवलोकन कर। मरणोन्मुख को जीवित कर देने वाली थी उस किन्नरी की नर्तनकला।

युवराज के हृदय-प्रदेश में उस किन्नरी का अपूर्व प्रदर्शन देखकर एक अवर्णनीय स्पन्दन-सा होने लगा। उनका हृदय कला का पुजारी था और किन्नरी निहारिका थी कला की साक्षात् प्रतिमा।

मधुर झंकार के साथ चक्रवाल ने वीणाभूमि पर रख दी। पूजनोत्सव समाप्त हुआ। सब चले गये।

किन्नरी अपने प्रकोष्ठ में आई। युवराज और चक्रवाल धीरे-धीरे संभाषण करते हुए अपने प्रकोष्ठ की ओर जाने लगे।

'चक्रवाल!'

'आज्ञा श्रीयुवराज?'

'आज तो किन्नरी की कला अपूर्व थी।'

'उसकी कला अद्वितीय है, श्रीयुवराज! और यह उसके लिए परम गौरव की बात है कि श्रीयुवराज के हृदय में उसकी कला के प्रति इतना आकर्षण है....।'

"तुम समझते हो आज से...? परन्तु मैं बहुत दिनों पूर्व से उसकी कला का आदर करता आ रहा हूं। भला स्वर्गिक कला का कौन आदर नहीं करेगा?' __
 
'श्रीयुवराज की बात असत्य नहीं, परन्तु श्रीयुवराज मेरी धृष्टता क्षमा करेंगे किन्नरी के हृदय में भी आपके प्रति अपूर्व श्रद्धा बहुत समय पूर्व ही विराजमान है। यह उसका परम दुर्भाग्य है कि श्रीयुवराज ने आज तक उससे तनिक भी संभाषण करने का कष्ट न उठाया। वह इसके लिए अत्यंत लालायित रहती हैं, यदि आप इतनी कृपा करें श्रीयुवराज तो...। 'यह मैं भी चाहता हूँ। आज मुझे अवकाश है। चलो, उसके प्रकोष्ठ में चलकर कुछ देर तक उससे वार्तालाप कर लेने से चित्त को बहुत शांति मिलेगी।'

चक्रवाल प्रसन्नता से खिल उठा।

आज जम्बूद्वीप के भावी अधीश्वर एक किन्नरी से वार्तालाप करेंगे—यह कितने आश्चर्य की बात थी, परन्तु किन्नरी एवं चक्रवाल के लिए कितनी प्रसन्नता की। युवराज और चक्रवाल किन्नरी के प्रकोष्ठ के पासस आये।

प्रकोष्ठ के द्वार बंद थे। कदाचित् भीतर किन्नरी वस्त्र परिवर्तन कर रही थी।

चक्रवाल ने द्वार खटखटाया, साथ ही अंतदिश से किन्नरी का स्वर सुनाई पड़ा—'कौन है?' नित्य की भांति यद्यपि निहारिका ने अनुमान लगा लिया था कि चक्रवाल होगा, मगर क्या उसे स्वप्न में भी अनुमान हो सकता था कि युवराज नारिकेल उसके प्रकोष्ठ में पदार्पण करेंगे।

'मैं हूं...।' चक्रवाल ने नित्य की भांति कह दिया।

'कौन हो तुम...? जाओ इस समय!'

'बहुत आवश्यक कार्य है। शीघ्र द्वार खोलो।' चक्रवाल ने कहा।

किन्नरी वस्त्र परिवर्तन कर चुकी थी। उसने आगे बढ़कर धीरे से द्वार खोल दिया। एकाएक उसका सारा शरीर तीव्र वेग से प्रकम्पित हो उठा। युवराज के समक्ष उसने कैसी धृष्टातापूर्ण बात कह दी।

किन्नरी ने तुरंत ही अपनी अव्यवस्थित भंगिमा ठीक कर ली। उसने झुककर युवराज का सम्मान किया।

चक्रवाल बोला—'युवराज तुम्हारे प्रकोष्ठ में पधारे हैं...।'

'अहो भाग्य?' निहारिका ने मधुर मुस्कान के साथ वीणा-विनिन्दित मधुर स्वर जैसी मिठास में कहा।

युवराज एवं चक्रवाल प्रकोष्ठ के भीतर आये। चक्रवाल ने युवराज के लिए एक स्वर्णासन रख दिया। युवराज बैठ गये।

चक्रवाल एवं किन्नरी उनके समक्ष भूमि पर बैठे। कुछ देर तक शांति रही। 'तुम्हारी कला अपूर्व है किन्नरी।' युवराज ने शांति भंग की। '............।'

किन्नरी ने कुछ कहना चाहा, परन्तु भावावेश में उसके मुख से शब्द ही न निकले, केवल उसके नेत्र एक क्षण के लिए युवराज के मुख पर जा ठहरे।

'जब तुम नृत्य करती हो तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है—मानो जगत की समस्त रूपराशि तुम्हारे

अवयव द्वारा संचालित हो रही है, मानो संसार की सारी सुषमा तुमहारे नर्तन में प्रवेश कर अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर रही है, मानो तुम्हारे अपूर्व अंग-संचालन के साथ-साथ कितने ही तृषित हृदय संचालित हो रहे हो...।'

युवराज के मुख से अपनी स्पष्ट प्रशंसा सुन, किन्नरी निहारिका का रोम-रोम पुलकित हो उठा।

'यह श्रीयुवराज की असीम अनुकम्पा है, जो मुझे इतनी महानता दे रहे हैं...।' किन्नरी निहारिका केवल इतना कहकर मौन रह गई।

'यदि श्रीयुवराज मुझे कुछ देर के लिए बहार जाने की आज्ञा दे सकें तो आभारी हूंगा...।' चक्रवाल ने कहा।

'क्यों....?' पूछा युवराज ने। 'एक आवश्यक कार्य करना मैं भूल गया हूं। मैं अभी आ जाऊंगा।' 'जाओ, परन्तु शीघ्र आना...!'

चक्रवाल युवराज को सम्मान प्रदर्शन कर बाहर चला गया। प्रकोष्ठ में केवल युवराज और किन्नरी रह गये। कुछ देर तक घोर नीरवता उस सुसज्जित प्रकोष्ठ में विराजमान रही।

'किन्नरी!' अकस्मात युवराज ने पुकारा। '............

' उसने अपलक नेत्रों से युवराज के मुख की ओर देखा।

'मेरे आने से तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं हुआ?' ।

'कष्ट...।' मधुर हास्य कर उठी सौंदर्य की वह अपूर्व प्रतिमा-भला देव के आने से देवदासी को कभी कष्ट हो सकता है ? मेरे तो भाग्य जाग उठे, जो आप यहां पधारे...क्या श्रीयुवराज से मैं कुछ पूछने की धृष्टता कर सकती हूं?'

'पूछो,क्या पूछना चाहती हो?'

'श्रीयुवराज को मेरे नर्तन में कौन-सी ऐसी उत्कृष्टता दृष्टिगोचर हुई...?'

'उत्कृष्टता नहीं, आकर्षण कहो। जगत का कौन-सा ऐसा आकर्षण है, जो तुम्हारी कला में विद्यमान न हो...।'

'एक बात पूछू ?' युवराज ने कहा।

कुछ काल तक पुन: नि:स्तब्धता रही। 'पूछिए न।' सहज मुस्कराहट के साथ वह बोली।

'उस दिन मेरे मस्तक पर कुंकुम लगाते समय, मेरी नासिका पर...।'

'मैं उसके लिए क्षमा चाहती हूं, श्रीयुवराज !' निहारिका लज्जा से गड़-सी गई।

'कल राजोद्यान में, रात्रि के प्रथम पहर में मुझसे भेंट कर सकती हो?'

'भला देव की आज्ञा देवदासी कभी अस्वीकार कर सकती है?'

'अब मैं जाऊंगा...।' कहकर युवराज ने भावावेश में किन्नरी के प्रकम्पित कर पकड़ लिये।

'मुझे अधिक विलम्ब हो गया, श्रीयुवराज! क्षमा करें...चक्रवाल आ पहुंचा—'वह देखिये, जाम्बुक चला आ रहा है। कदाचित् कोई आवश्यक कार्य है।'

युवराज ने सामने से देखा तो वास्तव में जाम्बुक चला आ रहा था। युवराज बाहर आये। किन्नरी ने उन्हें सम्मानपूर्वक अभिवादन किया।
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पुष्पपुर नगरी से कोई बीस योजन दूर, विकट बनस्थली के कोड़ में अवस्थित था एक विशाल ग्राम।

ग्राम के चारों ओर भयानकता एवं उदासीनता नर्तन कर रही थी। दीनता का अक्षय साम्राज्य था। उस ग्राम में अपना जीवनयापन करते थे दीनहीन एवं दुखी किरातगण।

छोटे-छोटे झोंपड़ों में रहते हुए वे ग्रीष्म की कड़कड़ाती धूप एवं अंग स्थिर कर देने वाली शीत ठण्डक का सामना करते थे।

उनके पास जो कुछ था, उसी में वे संतुष्ट थे। उनके बालक उल्लसित होकर इधर-उधर स्वच्छन्द विचरण किया करते थे।

संध्या का आगमन होते ही सब किरातगण एकत्रित होकर नाना प्रकार के आमोद-प्रमोद में तल्लीन हो जाते थे। सबमें एक्य भाव था। सभी अपने नायक की आज्ञा पर अपने प्राणों को उत्सर्ग करने की लिए सदैव, अहर्निश प्रस्तुत रहते थे।

नायक की आज्ञा की अवहेलना करने का कोई भी दुस्साहस नहीं कर सकता था। किरात कुमार पर्णिक भी इसी ग्राम के दुकूल पर, अपनी माता के साथ एक छोटे-से झोंपड़े में रहता था।

पर्णिक अपने उस आमोदमय छोटे-से संसार में पूर्णतया सुखी था, परन्तु उसकी माता के मुख पर कभी किसी ने हास्य की रेखा नहीं देखी थी। न जाने कौन गृह वेदना उसके अंग-प्रत्यंग को शिथिल बनाये रहती थी।
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वह अधिकतर अपनी झोंपड़ी के द्वार-देश पर, नेत्रों में अश्रु-कण छिपाये बैठी रहा करती थी।

अन्य किरात स्त्रियों के पास बैठकर मुर्खता की कुछ बातें कर लेना उसे स्वीकार न था। उसे सदैव एकांत ही प्रिय था।
पर्णिक आज प्रात:काल से ही किरात युवकों के साथ खेलने में तल्लीन था। पर्णिक की अवस्था लगभग बीस वर्ष की थी। उसके साथी भी समवयस्क ही थे। सब पणिक की झोंपड़ी के पास ही खेल रहे थे।

पर्णिक की माता भी द्वार पर बैठी हुई उन युवकों का कल्लोल देख रही थी।

'आओ। आज हम लोग 'सम्राट का न्याय' नामक नाटक का अभिनय करें...।' पर्णिक ने कहा।

'कैसा है यह नाटक...?' एक ने पूछा। पर्णिक उन्हें नाटक की सब बातें बताने लगा।

अंत में ऊंचे शिलाखंड पर आसीन होता हुआ वह बोला—'लो, अब मैं सम्राट बन गया।' उसका नाटक प्रारंभ हो गया था। 'साम्राज्ञी को उपस्थित करो...।' वह गरजकर बोला—'सम्राट का न्याय न्याय है। ध्रुव-सा अटल ! साम्राज्ञी ने स्वयं सम्राट से असत्य भाषण कर महान अपराध किया है, उसका दण्ड उन्हें भोगना ही पड़ेगा। सम्राट का न्याय साम्राज्ञी एवं प्रजा सबके लिए समान है...।"

'क्षमा ! श्रीसनाट...।' मंत्री का अभिनय करने वाले लड़के ने कहा—'साम्राज्ञी गर्भवती हैं...।'

'चुप रहो...!' कल्पित सम्राट गरजे—'मेरी क्रोधाग्नि में भस्म न हो। शीघ्र उपस्थित करो बन्दिनी साम्राज्ञी को ...।'

साम्राज्ञी उपस्थित हो गई। एक बालक ने अपने वस्त्र का एक भाग अपने सिर पर डालकर थोड़ा घूघट निकाल लिया था -बही साम्राज्ञी का अभिनय कर रहा था। पर्णिक की माता आश्चर्य-विस्फारित नेत्रों से अपने पुत्र का वह अद्भुत अभिनय देख रही थी।

"साम्राज्ञी!' सम्राट ने गरजकर पुकारा—'तुमने मुझसे असत्य भाषण कर महान अपराध किया है। तुम्हें अपने अपराध का दण्ड स्वीकार करना हेगा।'

'दासी को राजाज्ञा कभी अस्वीकार न होगी।' साम्राज्ञी ने कहा।।

सम्राट ठुड्डी पर हाथ रखकर न जाने किस विचार में निमग्न हो गये, परंतु कुछ क्षण पश्चात् एकाएक वे उठ खड़े हुये।

मंत्री भयभीत स्वर में चिल्ला उठा—'दया...! क्षमा...।'

सम्राट ने मंत्री की और एक बार क्रुद्ध नेत्रों से देखा, पुन: तीव्र स्वर में बोले—'साम्राज्ञी तुम्हें आजन्म निर्वासन की दण्डाज्ञा सुनाई जाती है।'
 
सम्राट का गर्जन चारों ओर गूंज उठा। द्वार पर बैठी हुई पर्णिक की माता न जाने क्यों भय से सिहर उठी। सम्राट की मुखाकृति एकाएक वेदनाछन्न हो उठी। उसके नेत्रों के कोरों पर अश्नुकण छलछला आये। 'साम्राज्ञी ! तुम आजन्म निर्वासन दण्ड का भोग करो और तुम्हारे प्रेम का अनन्य पुजारी मैं यहां राज-प्रकोष्ठ में उपस्थित रहकर सुख-शैया पर विश्राम करू-? नहीं यह नहीं हो सकता।' सम्राट की वाणी सिक्त थी-'प्रजाजनो!' सम्राट ने सामने की ओर देखा-'मैंने सम्राट बनकर न्याय किया, अब प्रेम का अनन्य पुजारी मैं साम्राज्ञी का साथ दूंगा। साम्राज्ञी के साथ वनस्थली में रहकर अपने न्याय का प्रतिपालन करूंगा। व्यर्थ है, रोकने की चेष्टा व्यर्थ है, महामंत्री...। मैं जाऊंगा ही।'

सम्राट राजसिंहासन से नीचे उतर गये और आगे बढ़कर उन्होंने साम्राज्ञी का हाथ पकड़ लिया —'चलो साम्राज्ञी! सुखों के उपभोग में तुम्हारा साथ दिया है मैंने, तो निर्वासन में विलग कैसे रह सकता हूं?'

सम्राट साम्राज्ञी को लेकर आगे की ओर बढ़ चले। सबकी आंखें सिक्त हो आयीं। कोई उच्च स्वर में गा उठा, 'जाओ, जाओ ऐ मेरे सजन। रुक न सको तो जाओ...।'

'पर्णिक...।' पर्णिक की माता का उद्दीप्त स्वर सुनाई पड़ा।

सम्राट का अभिनय करते हुए पर्णिक की सारी उत्फुल्लता क्षणमात्र में विलीन हो गई। वह उतावली के साथ दौड़ आया अपनी माता के पास—'क्या है माता जी ?' उसने देखा, उसकी माता की मुखाकृति गंभीर एवं वेदनापूर्ण है।

'इस नाटक की रचना तूने कैसे की? किसने प्रेरणा दी?'

"किसी ने नहीं माता जी। मैंने तो इसे आज स्वप्न में देखा था।' पर्णिक ने कहा- मैंने देखा था कि एक रानी ने एक राजा से असत्य भाषण का महान् अपराध किया। न्यायकर्ता राजा, रानी को राजदंड देने को प्रस्तुत हुआ—परन्तु उसने क्या दण्ड दिया, वह मुझे स्मरण नहीं रहा ...आज प्रात:काल ही से मैं यह सोचने का प्रयत्न करता आ रहा हूं कि स्वप्न में उस राजा ने अपनी रानी को कौन-सा दण्ड दिया होगा—मगर वह बाल स्मृति पटल पर लाख चेष्टा करने पर भी नहीं आई। विवश होकर मैंने अपनी ही बुद्धि से दंड की व्यवस्था सोच निकाली। मेरे न्याय करने में कोई त्रुटि थी माता जी?'

पर्णिक की माता के नेत्रों से प्रेमाश्रु प्रवाहित हो चले।

'मैं बहुत चाहता हूं, माताजी।' पर्णिक पुन: बोला, 'कि मैं कहीं का सम्राट हो जाऊं, परन्तु कैसे होते हैं सम्राट माताजी? हम ही जैसे तो...? अब तो नित्यप्रति ही ऐसे नाटकों की रचना करेंगे।'

................ वत्स! इस प्रकार का नाटक फिर कभी अभिनीत न करना, समझे।' पर्णिक की माता ने कहा—'जाओ, तुम्हारे साथी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।'

सरल पर्णिक ने माता की आंतरिक व्यथा पर मनन करने का तनिक भी प्रयत्न नहीं किया और शीघ्रतापूर्वक अपने साथियों के साथ चला गया।

"भाई! अब हम यह नाटक कभी नहीं खेलेंगे। माताजी को दुख होता है। उसने अपने साथियों से कहा। सब क्रीड़ा करते हुए आगे बढ़ चले।

उधर से नायक का पुत्र आ रहा था। 'तुम कहां थे....?' एक लड़के ने उससे कहा—'आज हम लोगों ने एक अद्भुत नाटक अभिनीत किया था।'

'अच्छा...!' नायक पुत्र ने विचित्र भंगिमा से नेत्र संचालन किया।

'तुम होते तो देखते कि पर्णिक सम्राट के वेश में स्वत: सम्राट-सा लग रहा था...।'
 
'कौन बना था सम्राट...? यह पर्णिकं ! नायक पुत्र घृणा से मुख विकृत कर बोला- 'जिसके जन्म, वंश का पता नहीं, जिसके पिता का पता नहीं, वह सम्राट बने। जिसकी माता...।'

'सावधान...!' पर्णिक ने दौड़कर नायक पुत्र के मुख पर हाथ रख दिया—'माताजी के लिए आगे एक भी शब्द निकाला तो जीभ पकड़कर मरोड़ दूंगा...।'

'तुम अनाथ मेरी जीभ पकड़कर ऐंठ दोगे...? जाओ, हट जाओ सामने से, नहीं तो...।'

उसी क्षण क्रुद्ध पर्णिक ने अपने हाथ की लकड़ी से नायक के पुत्र की पीठ पर कई प्रहार कर दिये।

नायक पुत्र क्रोध से बड़बड़ाता हुआ अपने पिता के पास गुहार लेकर चला गया। कुछ ही देर बाद वह अपने पिता के साथ लौटा।

'क्यों पर्णिक ! इतना साहस बढ़ गया है तुम्हारा?' नायक ने क्रोधमिश्रित स्वर में कहा।

'देखो न पितृव्य! इसने मेरी माता के सम्मान पर कीचड़ उछाला था...।' पर्णिक ने अभियोग उपस्थित किया।

'बड़ी आई है तेरी माता...? नायक गरज पड़ा—'एक दिन अनाथ होकर, इधर-उधर वनस्थली में भटकती हुई दर-दर की ठोकरें खाती हुई, तुझे गर्भ में धारण किये यहां आई थी वह। हम लोगों ने उसे भोजन दिया था—आश्रय दिया—वही आज बड़ी सम्मान वाली बन गई?'

'पितृव्य...!'

'चुप रहो। आज से यदि किसी बालक के मुंह लगा तो किरात-समुदाय से निकाल बाहर करूंगा। इतना बड़ा हो गया, उच्छंखलता न गई। जिसके पिता का ठिकाना नहीं, वह नायक के पुत्र की बराबरी करे...? जा, भाग जा...।'

उसके उज्ज्वल मुखमंडल पर प्रखरतर कालिमा आछन्न हो गई। अपमान से जर्जर हृदय लिए पर्णिक अपनी माता के पास लौट चला।

उसकी माता द्वार देश पर चिन्ता-निमग्न बैठी हुई थी। अपने पुत्र को कालिमामंडित मुख लिये आया देखकर वह खड़ी हुई और व्यग्रता से पूछ बैठी —'क्या हुआ वत्स...?'

'मेरे पिता कौन हैं माताजी...?' पर्णिक ने आते ही पूछा। उसके मुख पर युवावस्था की गंभीरता नर्तन कर रही थी।

'आज से पहले कभी नहीं पूछा था, आज क्या बात हो गई है जो...?'

'सब तुम्हारा अपमान करते हैं माताजी...! कहते हैं कि...!'

'कहने दो वत्स...।' उसकी माता ने एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर कहा—'हमारा जीवन ही अपमान, अनादर एवं अवहेलना सहन करने के लिए हैं। इस संसार में अपना है ही कौन? जाने दो पर्णिक, जो कुछ भी जिसने कहा हो, उस पर ध्यान न दो। आज मैं आश्रयहीन होकर तुम्हारा नन्हा-सा शरीर अपने गर्भ में धारण किये यहां आई थी, उस समय न इन किरातों ने मुझ पर असीम दया प्रदर्शित की थी। यह उन्हीं की कृपा का प्रतिफल है वत्स, कि तुम आज इतने बड़े होकर मुझ दुखियारी का संसार उज्ज्वल कर रहे हो उनकी बातों पर ध्यान देना कृतघ्नता होगी...।'

'तुम अभी तक मुझे अशक्त ही समझती हो, माताजी! तुम भूल गई हो कि तुम्हारे आशीर्वाद से अब तुम्हारा पुत्र तुम्हारे अपमान का प्रतिशोध लेने योग्य हो गया है...।'

'किससे प्रतिशोध लोगे?'

'जो भी तुम्हारा अपमान करेगा, जो भी तुम्हें अपशब्द कहेगा।'

'पर्णिक...।' पर्णिक का एक साथी दौड़ता हुआ आया— 'तुम्हारे चले जाने पर नायक ने तुम्हें 'जारपुत्र' कहा था।'

'सुन रही हो माताजी! सुन रही हो तुम? अभी भी कहती हो कि तुम्हारा अपमान सुनकर मैं रक्त के चूंट पीकर सहन कर लूं, नहीं। यह नहीं होगा...मैं आज ही, अभी ही नायक से अपनी माता के अपमान का प्रतिशोध लूंगा...।' पर्णिक कृपाण लेने अपनी झोपड़ी में दौड़ गया।

'वत्स....!'

'मझेरोको मत. माताजी। मेरे रक्त में उत्पन्न हो गई दाहक-अग्नि को अंतरा में ही शमन न होने दो...मुझे आशीर्वाद दो माताजी! कह दो अपनी देवी वाणी से कि वत्स ! विजय लाभ कर लौटो।'

'वत्स! अभी तुम बालक हो...वह किरात समुदाय का नायक है। उसकी प्रबलता तुम किस प्रकार सहन कर सकोगे?'

'विलम्ब हो रहा है...मुझे आज्ञा दीजिये माताजी!'

'जाओ वत्स...परन्तु...।'

पर्णिक कृषाण लेकर तीव्र गति से दौड़ चला। हताश होकर पर्णिक की मां भूमि पर बैठ गयी। उसका मुख अश्रुप्लावित हो उठा।

'नायक...!' गरजकर बोला पर्णिक, उसके हाथ का कृपाण सूर्य के प्रकाश में चमक उठा —'तुमने अपशब्द कहकर मेरी माता का अपमान किया है। आज पर्णिक उसका प्रतिशोध लेने आया है।"

'लौट जा।' नायक क्रोध से चिल्ला उठा—'जाकर अपनी माता की गोद में मुंह छिपा ले, अज्ञानी बालक! नायक की क्रोधाग्नि में भस्म होने की चेष्टा न कर...।'

'घमंडी का सर सदा नत होता आया है नायक! आज तुम्हारा भी वही परिणाम होने वाला है। आज एक अनाथ का शौर्य देख लो, देख लो नायक कि अकारण किसी का अपमान करने से किस प्रकार दैवी प्रकोप टूट पड़ता है—किस प्रकार विद्युत का प्रबल आलोक भयानक अग्न बनकर गर्व को भस्मसात कर देता है।'

मेघ-गर्जन जैसी ललकार सुनकर किरात समुदाय के कितने ही व्यक्ति घटनास्थल पर जा पहुंचे।
 
पर्णिक की धृष्टतापूर्ण बात सुनकर कुछ किरात उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े, परन्तु नायक गरज उठा—'दूर रहो। आज इस दुष्ट के प्राण शरीर से अलग होने वाले हैं—आने दो इसे मेरे पास।

'नायक! तुम...।' एक वृद्ध किरात बोला—'तुम एक अबोध बालक पर प्रहार करोगे? हत्या का अपराध न लगेगा तुम पर?'

'समझाओ उसे ! समझा दो कि नायक से उलझना परिहास नहीं है।'

परन्तु पर्णिक ने किसी की न सुनी। उसने मन-ही-मन अपनी माता को प्रणाम किया, तत्पश्चात् कृपाण लेकर टूट पड़ा नायक पर।

जिस अबोध बालक को नायक ने साधारण बालक-मात्र समझा था—वह था शस्त्र निपुण एक अपूर्व वीर।

दो-चार प्रहार में ही नायक को ज्ञात हो गया कि पर्णिक से लोहा लेना खेल नहीं।

उपस्थित किरात समुदाय पर्णिक की वीरता देखकर विमुग्ध था। पर्णिक का कृपाण तीव्र वेग से नाच रहा था। नायक का कृपाण भी अद्भुत गति से परिचालित था, परन्तु पर्णिक की मां ने उसे जिस प्रकार से शस्त्र-संचालन का अभ्यास कराया था, वह अद्वितीय था, अनुपम था—अद्भुत था।

तीव्र शस्त्र संचालन से नायक का कृपाण एकाएक मध्य से विच्छिन्न हो गया। पर्णिक ने भी अपना कृपाण फेंक दिया और दोनों विकट प्रतिद्वन्द्वी मल्लयुद्ध करने लगे। पर्णिक का शौर्य अपूर्व था, उसका पौरुष अद्भुत था, उसकी वीरता अनुपम थी।

उसने कई बार नायक के पृष्ठ भाग को पृथ्वी का चुम्बन करा दिया। किरात समुदाय आश्चर्यान्वित होकर वीर पर्णिक की वीरता देख रहे थे। पर्णिक की मुष्टिका अबाध गति से नायक के मुख पर, छाती पर, अंग-प्रत्यंग पर पड़ रही थी।

नायक की शक्ति क्रमश: क्षीण होती जा रही थी। एकाएक वह अर्द्धचेतनाहीन होकर भूमि पर गिर पड़ा।

पर्णिक ने उसे उठाया—'कायर कहीं का। कहां गई तेरी वह वीरता? कहां गया तेरा वह घमंड? कहां गई 'जारपुत्र' कहने वाली तेरी वह निकृष्ट जिह्वा?'

नायक शिथिल हो रहा था—'मुझे क्षमा करो पर्णिक...!' उसने दीनतायुक्त वाणी में कहा।

'क्षमा करना मैंने नहीं सीखा। उठ ! प्रहार करने की शक्ति हो तो प्रहार कर नहीं तो मेरी माता के अपमान करने वाले शब्दों को वापस ले नीच! अधम! पापी! कायर!!'

पर्णिक ने कई बार नायक के शरीर पर पदाघात किया। नायक पूर्णतया अशक्त हो चुका था। 'देख ले दुराचारी।' पर्णिक ने गर्जना की—'आज एक आश्रयहीन बालक का शौर्य देख ले...आज देख ले कि एक देवी का अपमान करने का कैसा कुपरिणाम होता है, आज देख ले कि प्रलय का आह्वान करना कितना भयंकर होता है। आज देख ले कि...।'

'उफ तेरी जिह्वा।' पर्णिक पुन: हंकार उठा—'तेरी जिह्वा ने ही तो मेरी मां का अपमान किया था। तेरी जिह्वा ने ही तो नायकत्व के गर्व से मुझे 'जारपुत्र' कहा था। तेरी जिह्वा ने ही एक असहाय देवी का अपमान करके प्रलय का आह्वान किया था।'

पर्णिक ने दौड़कर अपना कृपाण उठा लिया और नायक के वक्ष पर जा बैठा—'आज तेरी जिह्वा का समूल नाश कर दूंगा।'

नायक कांप उठा, उस युवक की क्रोधपूर्ण मुखाकृति अवलोकन कर।
 
'समल विनाश कर दंगा-ताकि पुन: किसी अभागे को यह जिह्वा अपशब्द न कह सके ताकि फिर किसी पूजनीय देवी का अपमान न कर सके।'

क्रोध से पागल पर्णिक ने अपने तीव्र कृपाण द्वारा नायक की जिह्वा काट ली। उपस्थित किरात समुदाय ने अपनी आंखें बंद कर ली। किसी को भी उस विचित्र दुस्साहसी युवक को रोकने का साहस न हुआ। कैसे हो सकता था साहस?

जिस नायक ने किरात समुदाय के सभी सदस्यों को अपनी निरंकुशता द्वारा वशीभूत कर रखा था-जब वही उस वीर युवक की क्रोधाग्नि में भस्मीभूत हो रहा था तो दूसरा कौन अपने प्राणों पर खेलकर पर्णिक के कार्य में बाधा पहुंचा सकता था।

क्रोधांध पर्णिक ने नायक की टांग पकड़ ली और उसे घसीटता हुआ अपने झोंपड़े की ओर चल पड़ा।

उपस्थित किरात-समुदाय ने बिना एक शब्द बोले उस वीर युवक का अनुसरण किया।

'लो माताजी! यही है वह दुराचारी नायक...।' पर्णिक ने नायक के शरीर को अपनी माता के चरणों पर धकेल दिया—'और यह है उच्छृखल की जिह्वा'

पर्णिक ने नायक की कटी हुई रक्तरंजित जिह्वा अपनी माता के समक्ष भूमि पर फेंक दी। उसकी माता ने अपने दोनों नेत्र आवेग में बंद कर लिए। 'वत्स...!' वह अस्त-व्यस्त वाणी में बोली।

'यह है तुम्हारे प्रखरतर अपमान का प्रतिशोध...।' पर्णिक ने कहा।

उसकी माता के नेत्रों से प्रेमाश्नु उमड़ पड़े।

'माताजी! तुम्हारा पुत्र अब इस योग्य हो गया है कि तुम्हारी सेवा कर सके। तुम जिस वेदना से, जिस व्यथा से, अहर्निश विदग्ध होती रहती हो, उसे मुझे बताओ। मैं प्राण देकर भी तुम्हारी आकांक्षा पूर्ण करूंगा...बोलो माताजी, बोलो...।' "......

' उसकी माता मौन ही रही। केवल उसने एक बार अपने पुत्र के देदीप्यमान मुखमण्डल पर गर्वपूर्ण दृष्टि निक्षेप की।

'वत्स पर्णिक...।' एक वृद्ध किरात बोला—'आज से तुम किरात-समुदाय के नायक हुए। तुम शौर्यवान हो—बुद्धिमान हो, अब से तुम जो कुछ आज्ञा दोगे, वह किसी को भी अमान्य न होगी।'

'नायक पर्णिक की जय...।' किरात समुदाय नाद कर उठा। उसी दिन से पर्णिक किरात समुदाय का नायक हो गया।
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छह सुन्दर पुष्पों का मधुर गंध वहन करता हुआ पवन, पुष्पपुर राजोद्यान में विचरण कर रहा था। स्वच्छाकाश में आती हुई चारु चन्द्रिका, अर्द्धप्रस्फुटित कलिकाओं का सुकोमल मुख चुम्बन कर रही थी। मदमत्त पौधों की टहनियां सौन्दर्य भार से दबी हुई, पुष्पराशि का भार वहन करती हुई, मंथर गति से अपना मस्तक हिला रही थी, मानो प्रकृतिनी के उस हृदयोल्लासपूर्ण सृजन पर अपनी स्वीकारोक्ति प्रदान कर रही हो।

चारों ओर श्वेत स्फुटित से आच्छादित राजोद्यान के अनुपम सरोवर ने अपने वक्षस्थल पर जगत की सारी सुषमा का एकत्रीकरण कर रखा था।

परमोज्ज्चल सलिल राशि के ऊपर आच्छादित अगणित कुमुदिनी के पुष्प एवं उनके विकसित श्वेतांगों पर मनमोहक एवं मुग्धकारी मुस्कान बिखेरती हुई चारु-चन्द्रिका का वह दृश्य दर्शनीय था।

मारीचिमाली के रजत-किरीट की रश्मि राजोद्यान के कोने-कोने में नृत्य कर रही थी। संध्या समीर की मृदुल हिल्लोल से प्रकृति-नटी का मुख मुखरित हो उठा था।

उद्यान एक अपूर्व शोभामयी रंगभूमि में परिणत हो गया था। वृक्षों का आलिंगन कर लतायें आनंद-विभोर हो रही थीं। विहंग समूह नीड़ों से मधुर रागिनी अलाप रहा था। पल्लव-पल्लव से विमल आलोक छटा देदीप्यमान हो रही थी। कलिकायें मदमत्त हो रही थीं। प्रकृति श्रृंगारमयी होकर मानो किसी की प्रतीक्षा कर रही थीं। साथ ही युवराज की प्रतीक्षा कर रही थी एक श्वेत स्फटिकशिला पर कलापूर्ण ढंग से बैठी हुई सौंदर्य की अनुपम प्रतिमा, किन्नरी निहारिका।

निहारिका की अतुल रूपराशि से राजोद्यान जैसे उन्मत्त-सा हो रहा था। कैसा आकर्षक, कैसा प्रोज्वल, कैसा मनोरम एवं केसा शांतिदायक वातावरण था।

"अभी तक नहीं आये युवराज...?' अधिक विलम्ब होते देखकर किन्नरी अन्यमनस्क हो उठी —'आयेंगे भी या नहीं-कौन जानता है? वे हैं युवराज...! एक अधम किन्नरी के लिए वे क्यों इतना कष्ट उठायेंगे...? यह तो उनका कथनमात्र था, केवल शिष्टाचार था कि राजोद्यान में मुझसे मिलना।'

प्रकृति निस्तब्ध थी। केवल एकाकी बैठी हुई निहारिका संतप्त हृदय से युवराज की प्रतीक्षा कर रही थी। उसके जीवन में आज यह प्रथम अवसर था कि वह युवराज से एकांत में भेंट करने आई थी।

पत्ते खड़के और किन्नरी को विश्वास हो गया कि युवराज पधार रहे हैं। युवराज को संतप्त करने के अभिप्राय से वह एक दीर्घाकार वृक्ष की ओट में जा छिपी।

दूसरे ही क्षण युवराज आये, परन्तु युवराज की मुखाकृति म्लान पड़ गई, यह देखकर कि अत्यधिक विलम्ब हो जाने पर भी किन्नरी निहारिका नहीं आई है। पार्श्व के वृक्ष की ओट से कुछ खड़खड़ाहट हुई।

युवराज ने कोई जन्तु होने का अनुमान किया। उन्होंने झुककर भूमि पर से एक कंकड़ उठाकर उसे वेग से वृक्ष की ओर फेंका।
तुरंत ही एक धीमी कराह की ध्वनि उस वृक्ष के पास से आई।

युवराज आश्चर्यचकित मुद्रा में कराह का लक्ष्य करते हुए वहां जा पहुंचे। देखा—अपना बाम मणिबंध पकड़े हुए निहारिका अब भी कराह रही है। 'निहारिका तुम...?' युवराज उतावली से बोले।

किन्नरी ने झुककर युवराज को सम्मान प्रदर्शन किया।

'चोट तो नहीं आई...?' पूछा युवराज ने।

'नहीं।' निहारिका ने कह दिया, परन्तु उसे हल्की-सी चोट अवश्य लग गई थी, जहां से क्षीण रक्तस्राव झलक उठा था।

'चोट अवश्य आई है तुम्हें! लाओ देखू ?' युवराज ने आगे बढ़कर किन्नरी का मणिबंध पकड़ना चाहा।

परन्तु उसी समय प्रकृति की नीरवता को बेंधता हआ यह गीत प्रतिध्वनित हो उठा-'मत छना रे, वह मोती जो अनबोल कहाये।' अपने प्रकोष्ठ में बैठा हुआ चक्रवाल वीणा के तारों पर यह गीत गा रहा था और स्वरलहरी यहां तक पहुंचकर, कर्ण-कुहरों में मधुवर्षा करने लगी थी।

युवराज ने गीत से चौंककर अपना हाथ खींच लिया। किन्नरी के मणिबंध से दो बंद रक्त टपक कर भूमि पर आ रहा।

'यह क्या...?' रक्तस्राव।' उतावली के साथ युवराज ने किन्नरी का मणिबंध अपने हाथ में लेकर देखा_'ओह ! यह तो क्षत हो गया है।'
 
युवराज किन्नरी को लेकर सरोवर के पास आये। किन्नरी के नहीं कहने पर भी उन्होंने उसका घाव निर्मल जल से धोया, फिर अपने मूल्यवान मुकुटबंध का थोड़ा-सा भाग फाड़कर पट्टी बांध किन्नरी एक मादक स्वप्न का आभास पाकर सिहर उठी।

'बैठो।' युवराज स्फटिक शिला पर बैठते हुए बोले। किन्नरी भूमि पर बैठने लगी।

'वहां नहीं, यहां बैठो।' युवराज ने उसे अपने पास स्फटिक शिला पर बैठने का संकेत किया —'तुम कलामयी हो, तुम्हारा मैं आदर करता हूं।'

'ऐसा न कहो श्रीयुवराज! म्लान पुष्प को देवता के मस्तक पर चढ़ने का सौभाग्य कहां ...?'

'तुम म्लान पुष्प नहीं, हृदयोद्यान की प्रस्फुटित कलिका हो, कलामयी ! तुम अनुपम हो, अगम हो।' युवराज ने किन्नरी को हठपूर्वक उस स्फटिक-शिला पर बैठा लिया—'तुम अद्भत कलामयी हो, मैं तुम्हारा पुजारी है। तुम मेरी आराध्य देवी हो, मैं तुम्हारा उपासक हं। इन कला पारखी नेत्रों में तुम्हारे प्रति अपूर्व श्रद्धा विराजमान है, सच्चे कला पारखी के मन में उच्चता एवं हीनता का भाव नहीं रह जाता, किन्नरी।'

'आप धन्य हैं युवराज...।'

"धन्य ह...?' युबराज मंद मुस्कान के साथ बोले—'धन्य नहीं, कला का अनन्य भक्त हूँ मैं। जिस प्रकार चक्रवाल की गायन-कला का आदर करता हूं, उसी प्रकार नर्तन-कला का भी। वास्तव में प्रकृति देवी की अद्भुत कला की अनुपम प्रतिमा इस जगती-तल पर साकार रूप धारण करके आ गई है, तुम्हारे रूप में...।' '...........।

' किन्नरी के हृदय में मृदु स्पन्दन हो रहा था। 'किन्नरी!'

'देव!'

'तुम्हें कष्ट हुआ यहां आने में?'

'कष्ट किस बात का आदरणीय...?' हास्य कर उठी सौंदर्य की वह अनुपम राशि। उसकी उज्ज्वल दंत पंक्तियां विद्युत रेखा -सी चमक उठीं-'श्रीयुवराज ने मुझे किस हेतु यहां आने की आज्ञा दी थी।'

'इसलिए कि एकांत में तुम्हारी कला का विधिवत् आनंद ले सकू।'

'तो क्या युवराज की यह अभिलाषा है कि मैं किसी नृत्य का प्रदर्शन करूं?'

'रहने दो। तुम्हें कष्ट है ...तुम्हारा हृदय व्यथित हो रहा है...।'

'श्रीयुवराज का तात्पर्य...?' किन्नरी ने अझै न्मिलित नयनों द्वारा युवराज की ओर देखा।

'यही कि तुम्हारा मणिबंध क्षत है...पीड़ा होती होगी उसमें...।

' बड़ी देर तक दोनों मौनावस्था में स्फटित शिला पर बैठे रहे।

नीलाकाश में धवल चन्द्र अपनी हृदयग्राही मुस्कान बिखेर रहा था, परंतु लज्जित हो रहा था, युवराज के पार्श्व में बैठे हुए उस अनुपम भूचन्द्र का अवलोकन कर।

'अब जाओ निहारिका! देर होगी तुम्हें।' युवराज ने कहा और उठ खड़े हुए। निहारिका भी खड़ी हो गई।

'यदि सकुशल रहा तो फिर कल प्रात:काल मंदिर में मिलन होगा।' 'महामाया की माया से युवराज चिरकाल तक सकुशल रहेंगे।' किन्नरी बोली और उसने झुककर युवराज का अभिवादन किया।
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उस समय जबकि रात्रि की भयानक निस्तब्धता यावत् जगत पर आच्छादित थी, किन्नरी निहारिका अपने प्रकोष्ठ में बैठी हुई न जाने किस प्रगाढ़ चिंता में निमगन थी।

उसके मणिबंध पर अभी तक युवराज के मुकुटबंद का टुकड़ा बंधा हुआ था, उसने उसे सावधानी से खोला और मस्तक से लगाकर यत्नपूर्वक एक स्थान पर रख दिया।

पुन: वह चिंता में निमग्न हो गई। कदाचित् वह युवराज के विषय में ही चिंतन कर रही थी। तभी तो कभी-कभी वह उन्मत्त दृष्टि उठाकर युवराज के मुकुटबंध के उस धवल टुकड़े की ओर देख लेती थी।

मानवीय हृदय में उथल-पुथल होता रहता है, परन्तु कभी-कभी वह इतनी पराकाष्ठा तक पहुंच जाता है कि सहनशीलता उसका वहन करने में पूर्णतया असमर्थ हो जाती है।

पार्श्व के प्रकोष्ठ में खिड़की के पास बैठा हुआ चक्रवाल धवल चन्द्रिका का कल्लोल देख रहा था, साथ ही गीत की स्वरलहिरी भी मधुर गति से प्रवाहित हो रही थी।

वह गुनगुना रहा था 'जो केलि कुंज में तुमको, कंकड़ी उन्होंने मारी। क्यों कसक रही वह अब भी, तेरे उर में सुकुमारी।।' -- -- आज फिर वही दृश्य। तारिका जडित आकाश के वक्षस्थल पर अपनी प्रभा बिखेरता हुआ चन्द्र, राजोद्यान के सरोवर में विकसित होती हुई कुमुदिनी और स्वच्द स्फटिक-शिला पर बैठे हुए युवराज नारिकेल, किन्नरी निहारिका एवं चक्रवाल
रात्रि का प्रगाढ़ अंधकार चारु-चन्द्रिका का आलिंगन कर यथावत्, जगत पर एक असहनीय विकलता प्रसारित कर रहा था।

युवराज एवं किन्नरी अविचल बैठे थे—चक्रवाल भी शांत था। पक्षियों का गुंजरित कलरव रात्रि की निस्तब्धता में विलीन हो गया।

'आप व्यग्र क्यों हैं श्रीयुवराज...?' पूछा चक्रवाल ने।

'व्यग्न तो नहीं हूं।' युवराज ने कहा—'मैं उत्सुक दृष्टि से उस दीप्त चंद्र को देख रहा था एवं सोच रहा था कि कितना मुग्धकारी एवं कलापूर्ण नृत्य है उसका, स्वच्छाकाश के वक्ष पर।

'श्रीयुवराज का हृदय कितना उदार एवं कितना निर्मल है...?' किन्नरी ने मधुर स्वर में कहा। 'क्या श्रीयुवराज द्वारा भूचन्द्र के कलापूर्ण नर्तन अवलोकन नहीं करेंगे?'
 
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