desiaks
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'श्री सम्राट....।' द्वारपाल ने पुकारा। '...........।' द्रविड़राज मौन रहे, मानो उन्होंने कुछ सुना ही नहीं। 'श्री सम्राट...!' द्वारपाल ने पुन: पुकारा, नतमस्तक होकर।
वास्तव में वह एक आवश्यक संदेश लेकर द्रविड़राज के प्रकोष्ठ में लगभग आधी घड़ी में खड़ा था।
द्वारपाल की दूसरी पुकार पर सम्राट ने प्रकोष्ठ के द्वार की ओर देखा। द्वारपाल ने नतमस्तक होकर सम्राट का सम्मान प्रदर्शन किया। "द्वारदेश पर युद्ध शिविर से श्रीयुवराज का संदेश लेकर एक सैनिक उपस्थित है और लगभग आधी घड़ी से श्रीसम्राट की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा है...।' उसने कहा। '
आधी घड़ी से...?' द्रविड़राज चौंककर बोले-'और तुम अब मुझे सूचित कर रहे हो।'
'मैं सम्राट की सेवा में बहुत देर से खड़ा हूं, परन्तु श्री सम्राट विचारों में इतने तल्लीन थे कि व्यवधान उपस्थित करना मैंने उचित नहीं समझा...।'
'उसे तुरंत उपस्थित करो।' सम्राट ने उतावली भरे स्वर में आज्ञा दी। सैनिक आया। उसने सम्राट को सम्मान प्रदर्शन किया। 'तुम युद्ध शिविर से आ रहे हो न...? कहो, वहां का क्या समाचार है?' द्रविडराज ने पूछा।
'श्री सम्राट के अतुलित प्रताप से सब कुशल है।'
'युवराज तो सकुशल हैं।' 'स्वयं महामाया का वरदहस्त उनकी रक्षा कर रहा है, श्रीसम्राट।'
'श्रीयुवराज पर किसी अनिष्ट की आशंका तो नहीं...?'
'नहीं श्रीसम्राट।'
'युद्ध का क्या समाचार है?'
'अब तक तो सभी युद्धों में हमारी विजय हुई है, श्रीयुवराज की संचालन प्रतिभा अद्भुत है। शत्रु भी आश्चर्यचकित हो उठे हैं श्रीयुवराज का प्रबल प्रताप देखकर।'
अब तक सम्राट के निरंतर प्रश्नों के आगे, सैनिक को न तो युवराज का पत्र देने का और न रत्नहार ही उनके सम्मुख उपस्थित करने का अवसर मिला था।
जब द्रविड़राज सब तरह के प्रश्न पूछकर अपने को आश्वस्त कर चुके तो सैनिक ने उनके सामने युवराज का पत्र और रत्नहार रख दिया।
'यह क्या...?' रत्नहार देखते ही द्रविड़राज इस प्रकार चौंक उठे जैसे उनके शरीर में प्रखर विद्युत रेखा प्रवेश कर गई हो।
उन्होंने भयभीत नेत्रों से उस रत्नहार की ओर देखा। पुन: कम्पित करों द्वारा उठाकर उसे मस्तक से लगाया।
'निश्चय ही यह वही पवित्र रत्नहार है...द्रविड़कुल का उज्जवलतम दीपक यह कहां मिला? यह विलुप्त रलहार कैसे प्राप्त हुआ तुम्हें ?' द्रविड़राज ने उत्सुक नेत्रों से शीघ्रतापूर्वक युवराज नारिकेल का पत्र पढ़ा।
और उनके हृदय में ध्वंसक संघर्ष मच गया। बहुत वर्षों पूर्व की घटना उनके नेत्रों के सम्मुख तीव्र गति से चित्रित होने लगी। वे बारम्बार युवराज का पत्र पढ़ने एवं उस पवित्र रत्नहार को मस्तक से लगाने लगे। उन्हें तीव्रोन्माद-सा हो गया। 'यह पवित्र रत्नाहार शत्रु सेना के संचालक के पास से मिला है...?' पूछा उन्होंने।
'जी हां, किरातों का नायक आजकल आर्य सेना का संचालक है...।' सैनिक ने उत्तर दिया।
'किरातों का नायक...!' बोले द्रविड़राज—'क्या अवस्था होगी उसकी?'
'प्राय: बीस वर्ष।' '.....।' सम्राट चौंक पड़े सेनानायक का यह उत्तर सुनकर। उन्हें उस बीस-वर्षीय नायक की रण-कौशलता पर आश्चर्य हो रहा था। वे उस नायक के विषय में सोचने में ध्यान-मग्न हो गये थे। पास ही खड़े सैनिक ने उनका ध्यान भंग करते हुए पूछा 'श्रीसम्राट की क्या आज्ञा है...?'
'तुम जाओ, विश्राम करो...।' सम्राट ने सैनिक को आज्ञा दी।
सैनिक अभिवादन कर चला गया। द्रविड़राज ने श्वेताम्बर से अपना शरीर आच्छादित किया, पुन: उस रत्नहार को यत्नपूर्वक उस श्वेताम्बर की ओट में छिपाया, तत्पश्चात् महामाया के मंदिर की ओर महापुजारी के दर्शनार्थ चल पड़े।
'श्रीसम्राट आप...!' महापुजारी को महान आश्चर्य हुआ, द्रविड़राज का ऐसे समय में पदार्पण देखकर। साथ ही चिंता हुई उनके मुख पर दुश्चिंता की रेखायें अवलोकन कर।
'पधारिये सम्राट...।' महापुजरी ने कहा। किन्नरी एवं चक्रवाल, जो इस समय महापुजारी के पास ही उपस्थित थे ने द्रविड़राज को सम्मान प्रदर्शित किया।
'तुम लोग जाओ।' सम्राट ने चक्रवाल एवं किन्नरी को आज्ञा दी।
उनके स्वर से हृदय का उद्वेग स्पष्ट हो गया था। चक्रवाल एवं किन्नरी उठकर चले गए।
'श्रीसम्राट की मुखाकृति मलिन क्यों है?' महापुजारी ने पूछा- क्या श्रीयुवराज की चिंता श्रीसम्राट को उद्वेलित कर रही है या किसी मानसिक आवेग ने हृदय प्रदेश में उथल-पुथल उत्पन्न कर दी है?'
..........' द्रविड़राज निस्तब्ध रहे। केवल एक बार उन्होंने सिक्त नेत्रों से महामाया की स्वर्ण प्रतिमा की ओर देखा एवं मन ही मन श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक प्रणाम किया।
'श्रीसम्राट ने मेरे प्रश्नों का कोई भी उत्तर देने का कष्ट नहीं किया...?' महापुजारी ने उन्हें सचेत किया, परन्तु सम्राट नीरव ही रहे।
' चक्रवाल...!' महापुजारी ने पुकारा।
'चक्रवाल को किस तात्पर्य से बुला रहे हैं आप?' सम्राट ने पूछा।
'श्रीसम्राट का हृदय उद्विग्न है—ऐसे समय में चक्रवाल की कला अमूल्य औषधि प्रमाणित होगी...।'
'नहीं? आवश्यकता नहीं...।' द्रविड़राज बोले—'एक चिंताजनक समाचार आपको सुनाने आया हूं।'
'वह क्या...?' महापुजारी ने शंकित नेत्रों से द्रविड़राज के गंभीर एवं पीत मुख की और देखा।
'युद्ध शिविर से अभी-अभी एक सैनिक आया है।'
'क्या समाचार लाया है...? युद्ध की प्रगति संतोषजनक तो है न...? श्रीयुवराज तो सकुशल हैं?'
एक साथ ही महापुजारी ने कई प्रश्न कर डाले।
'युद्ध की प्रगति अनुकूल है, युवराज भी सकुशल हैं परन्तु अवस्था सोचनीय होती जा रही है। जिन बातों को मैं सतत् प्रयत्न कर भूलने की चेष्टा करता हूं, दैव दुर्विपाक से वही बातें पुन: पुन: उपस्थित होकर मन को अशांत बना देती हैं आप ही बताइये महापुजारी जी कि ऐसी शोचनीय अवस्था में मैं किस प्रकार धैर्य धारण करूंगा...? यद्यपि मैं सम्राट हूं और एक सम्राट को साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक संयत एवं अधिक सहनशील होना चाहिये। परन्तु सहनशीलता की भी कोई सीमा होती है, महापुजारी जी। जिन-जिन असहनीय यातनाओं को मैंने मौन रहकर सहन किया है वे क्या साधारण हैं।'
'श्रीसम्राट का तात्पर्य क्या है...?' महापुजारी ने पूछा।
द्रविड़राज कुछ बोल नहीं पाये। उनका दाहिना हाथ एक क्षण के लिए श्वेत आवरण के अंतप्रदेश में गया और दूसरे ही क्षण उन्होंने महापुजारी के हाथों पर वह बहुमूल्य रत्नहार निकालकर रख दिया- 'मेरा तात्पर्य बहुत सरल हैं, महापुजारी जी...।'
...............।' महापुजारी आश्चर्य एवं महान विस्मय से चीख उठे—'यही वह रत्नहार है...। जिसके कारण राजमहिषी त्रिधारा को आजन्म निर्वासन दण्ड का भागी होना पड़ा। यही वह रत्नहार है...जिसने श्रीसम्राट का संहार विनष्टप्राय कर दिया...वही...।'
"जी हाँ वही रत्नहार है यह। हमारे कुल का उज्जवल दीपक आज अकस्मात् हमारे समक्ष पुन: उपस्थित है...अब न जाने क्या अघटित घटना घटने वाली है....?'
"श्रीसम्राट को यह कैसे प्राप्त हुआ?'
"यह किरात नायक के पास से मिला है, जो वर्तमान युद्ध में शत्रु सेना का संचालन कर रहा है। सुनता हूं, नायक की अवस्था केवल बीस वर्ष की है...।' द्रविड़राज के मुख पर उद्वेग एवं चिंता स्पष्ट हो उठी थी।
'केवल बीस वर्ष की अवस्था में इतनी बड़ी सेना का संचालन करना असम्भव-सा प्रतीत होता है और किरातों में इतना शौर्य कहां कि वे युद्ध का तीव्र गति से संचालन कर सकें? महापुजारी बोले।
'किरात नहीं हो सकता वह महापुजारी जी।'
'श्रीसम्राट का केवल अनुमान मात्र है या विश्वास भी...?'
'न जाने क्यों हृदय में यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है, महापुजारी जी कि वह किरात नहीं हो सकता। मेरे अंत:स्थल में कौतूहल-मिश्रित हाहाकार मूत हो उठा है । उसे सहन करना असह्य हो गया हैं असीम वेदना का मार वहन करना अब मेरे लिए दुष्कर है। सांत्वना दीजिये महापुजारी जी।' द्रविड़राज ने अवरुद्ध कंठ से कहा।
महापुजारी मौन रहे।
एक क्षण के लिए उन्होंने नेत्र बंद कर न जाने क्या सोचा। तब उनकी गंभीर आकृति ने और गंभीरता धारण कर ली।
उनके नेत्रद्वय अरुणिम हो उठे। द्रविड़राज स्थिर दृष्टि से महापुजारी की उद्दीप्त मुखाकृति की और देखते रहे। 'महामाया जो कुछ करती है, अच्छा ही करती है श्रीसम्राट !' महापुजारी बोले-'प्रत्येक कार्य में उनकी आगम महिमा अंतर्हित रहती है। आपको यही उचित है कि धैर्य स्मरण कर अपनी सारी मानसिक अशांति एवं प्रलयंकार उद्वेग अपने से दूर भगा दें, इसी में आपका कल्याण है...।'
"यह असम्भव है महापुजारी जी।' द्रविड़राज व्यथित हो उठे—'मेरी दशा तो देखिये, मैं अभागा सम्राट एक साधारण व्यक्ति से भी अधिक संतप्त हूं। ऐश्वर्यवान होकर ही मैंने दुश्चिन्ता में अपना शरीर विदग्ध कर डाला है। मेरी सहायता कीजिये महापुजारी जी।'
'श्रीसम्राट क्या चाहते हैं?' महापुजारी ने पूछा।
उनके नेत्र सम्राट की मुखाकृति पर स्थिर हो गये—द्रविड़राज को ऐसा लगा मानो उन दोनों नेत्रों से दो दाहक ज्वालायें निकलकर उनके अंत:स्थल में प्रविष्ट हो गई हों और अपनी समस्त दाहक शक्ति द्वारा उनके हृदय का रक्त शोषण कर रही हों।
'मैं एक बार युद्ध में चलकर उस किरात युवक को देखना चाहता हूं।' द्रविड़राज ने कहा।
'इस से लाभ।' महापुजारी ने पूछा।
'मेरे हृदय की पुकार है यह।'
आपके हृदय में ममत्व का रोर मच रहा है, श्रीसम्राट।' महापुजारी कठोर स्वर में बोले —'सम्राट होकर आप अपने हृदय पर नियन्त्रण नहीं रख सकते।'
'मैं इस समय सम्राट नहीं, एक संतप्त व्यक्ति हूं, महापुजारी जी। मैं किसी देवी प्रकोप से अक्रांत एक दयनीय प्राणी हूं, मेरी अवस्था पर दया कीजिये-अब तक आपकी समस्त आज्ञाओं का पालन मैंने किया है, आज मेरे इस क्षुद्र अनुरोध का तिरस्कार आप न करें।'
'श्री सम्राट...!'
'अधिक विलम्ब होने से सम्भव है कोई बहुत बड़ा अनिष्ट हो जाये। जाने क्यों मेरा हृदय तीव्र वैग से प्रकम्पित हो रहा है।'
'चलिए। मैं युद्ध शिविर में चलने को प्रस्तुत हूं।' महापुजारी बोले- 'गुप्तमार्ग द्वारा चलने से हम लोग तीसरे प्रहर तक युद्ध शिविर में पहुंच जायेंगे।'
महापुजारी उठे। प्रकोष्ठ से अपना पीताम्बर लेकर कंधे पर रखा और तीव्र वेग से सम्राट के साथ बाहर हो गये।
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वास्तव में वह एक आवश्यक संदेश लेकर द्रविड़राज के प्रकोष्ठ में लगभग आधी घड़ी में खड़ा था।
द्वारपाल की दूसरी पुकार पर सम्राट ने प्रकोष्ठ के द्वार की ओर देखा। द्वारपाल ने नतमस्तक होकर सम्राट का सम्मान प्रदर्शन किया। "द्वारदेश पर युद्ध शिविर से श्रीयुवराज का संदेश लेकर एक सैनिक उपस्थित है और लगभग आधी घड़ी से श्रीसम्राट की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा है...।' उसने कहा। '
आधी घड़ी से...?' द्रविड़राज चौंककर बोले-'और तुम अब मुझे सूचित कर रहे हो।'
'मैं सम्राट की सेवा में बहुत देर से खड़ा हूं, परन्तु श्री सम्राट विचारों में इतने तल्लीन थे कि व्यवधान उपस्थित करना मैंने उचित नहीं समझा...।'
'उसे तुरंत उपस्थित करो।' सम्राट ने उतावली भरे स्वर में आज्ञा दी। सैनिक आया। उसने सम्राट को सम्मान प्रदर्शन किया। 'तुम युद्ध शिविर से आ रहे हो न...? कहो, वहां का क्या समाचार है?' द्रविडराज ने पूछा।
'श्री सम्राट के अतुलित प्रताप से सब कुशल है।'
'युवराज तो सकुशल हैं।' 'स्वयं महामाया का वरदहस्त उनकी रक्षा कर रहा है, श्रीसम्राट।'
'श्रीयुवराज पर किसी अनिष्ट की आशंका तो नहीं...?'
'नहीं श्रीसम्राट।'
'युद्ध का क्या समाचार है?'
'अब तक तो सभी युद्धों में हमारी विजय हुई है, श्रीयुवराज की संचालन प्रतिभा अद्भुत है। शत्रु भी आश्चर्यचकित हो उठे हैं श्रीयुवराज का प्रबल प्रताप देखकर।'
अब तक सम्राट के निरंतर प्रश्नों के आगे, सैनिक को न तो युवराज का पत्र देने का और न रत्नहार ही उनके सम्मुख उपस्थित करने का अवसर मिला था।
जब द्रविड़राज सब तरह के प्रश्न पूछकर अपने को आश्वस्त कर चुके तो सैनिक ने उनके सामने युवराज का पत्र और रत्नहार रख दिया।
'यह क्या...?' रत्नहार देखते ही द्रविड़राज इस प्रकार चौंक उठे जैसे उनके शरीर में प्रखर विद्युत रेखा प्रवेश कर गई हो।
उन्होंने भयभीत नेत्रों से उस रत्नहार की ओर देखा। पुन: कम्पित करों द्वारा उठाकर उसे मस्तक से लगाया।
'निश्चय ही यह वही पवित्र रत्नहार है...द्रविड़कुल का उज्जवलतम दीपक यह कहां मिला? यह विलुप्त रलहार कैसे प्राप्त हुआ तुम्हें ?' द्रविड़राज ने उत्सुक नेत्रों से शीघ्रतापूर्वक युवराज नारिकेल का पत्र पढ़ा।
और उनके हृदय में ध्वंसक संघर्ष मच गया। बहुत वर्षों पूर्व की घटना उनके नेत्रों के सम्मुख तीव्र गति से चित्रित होने लगी। वे बारम्बार युवराज का पत्र पढ़ने एवं उस पवित्र रत्नहार को मस्तक से लगाने लगे। उन्हें तीव्रोन्माद-सा हो गया। 'यह पवित्र रत्नाहार शत्रु सेना के संचालक के पास से मिला है...?' पूछा उन्होंने।
'जी हां, किरातों का नायक आजकल आर्य सेना का संचालक है...।' सैनिक ने उत्तर दिया।
'किरातों का नायक...!' बोले द्रविड़राज—'क्या अवस्था होगी उसकी?'
'प्राय: बीस वर्ष।' '.....।' सम्राट चौंक पड़े सेनानायक का यह उत्तर सुनकर। उन्हें उस बीस-वर्षीय नायक की रण-कौशलता पर आश्चर्य हो रहा था। वे उस नायक के विषय में सोचने में ध्यान-मग्न हो गये थे। पास ही खड़े सैनिक ने उनका ध्यान भंग करते हुए पूछा 'श्रीसम्राट की क्या आज्ञा है...?'
'तुम जाओ, विश्राम करो...।' सम्राट ने सैनिक को आज्ञा दी।
सैनिक अभिवादन कर चला गया। द्रविड़राज ने श्वेताम्बर से अपना शरीर आच्छादित किया, पुन: उस रत्नहार को यत्नपूर्वक उस श्वेताम्बर की ओट में छिपाया, तत्पश्चात् महामाया के मंदिर की ओर महापुजारी के दर्शनार्थ चल पड़े।
'श्रीसम्राट आप...!' महापुजारी को महान आश्चर्य हुआ, द्रविड़राज का ऐसे समय में पदार्पण देखकर। साथ ही चिंता हुई उनके मुख पर दुश्चिंता की रेखायें अवलोकन कर।
'पधारिये सम्राट...।' महापुजरी ने कहा। किन्नरी एवं चक्रवाल, जो इस समय महापुजारी के पास ही उपस्थित थे ने द्रविड़राज को सम्मान प्रदर्शित किया।
'तुम लोग जाओ।' सम्राट ने चक्रवाल एवं किन्नरी को आज्ञा दी।
उनके स्वर से हृदय का उद्वेग स्पष्ट हो गया था। चक्रवाल एवं किन्नरी उठकर चले गए।
'श्रीसम्राट की मुखाकृति मलिन क्यों है?' महापुजारी ने पूछा- क्या श्रीयुवराज की चिंता श्रीसम्राट को उद्वेलित कर रही है या किसी मानसिक आवेग ने हृदय प्रदेश में उथल-पुथल उत्पन्न कर दी है?'
..........' द्रविड़राज निस्तब्ध रहे। केवल एक बार उन्होंने सिक्त नेत्रों से महामाया की स्वर्ण प्रतिमा की ओर देखा एवं मन ही मन श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक प्रणाम किया।
'श्रीसम्राट ने मेरे प्रश्नों का कोई भी उत्तर देने का कष्ट नहीं किया...?' महापुजारी ने उन्हें सचेत किया, परन्तु सम्राट नीरव ही रहे।
' चक्रवाल...!' महापुजारी ने पुकारा।
'चक्रवाल को किस तात्पर्य से बुला रहे हैं आप?' सम्राट ने पूछा।
'श्रीसम्राट का हृदय उद्विग्न है—ऐसे समय में चक्रवाल की कला अमूल्य औषधि प्रमाणित होगी...।'
'नहीं? आवश्यकता नहीं...।' द्रविड़राज बोले—'एक चिंताजनक समाचार आपको सुनाने आया हूं।'
'वह क्या...?' महापुजारी ने शंकित नेत्रों से द्रविड़राज के गंभीर एवं पीत मुख की और देखा।
'युद्ध शिविर से अभी-अभी एक सैनिक आया है।'
'क्या समाचार लाया है...? युद्ध की प्रगति संतोषजनक तो है न...? श्रीयुवराज तो सकुशल हैं?'
एक साथ ही महापुजारी ने कई प्रश्न कर डाले।
'युद्ध की प्रगति अनुकूल है, युवराज भी सकुशल हैं परन्तु अवस्था सोचनीय होती जा रही है। जिन बातों को मैं सतत् प्रयत्न कर भूलने की चेष्टा करता हूं, दैव दुर्विपाक से वही बातें पुन: पुन: उपस्थित होकर मन को अशांत बना देती हैं आप ही बताइये महापुजारी जी कि ऐसी शोचनीय अवस्था में मैं किस प्रकार धैर्य धारण करूंगा...? यद्यपि मैं सम्राट हूं और एक सम्राट को साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक संयत एवं अधिक सहनशील होना चाहिये। परन्तु सहनशीलता की भी कोई सीमा होती है, महापुजारी जी। जिन-जिन असहनीय यातनाओं को मैंने मौन रहकर सहन किया है वे क्या साधारण हैं।'
'श्रीसम्राट का तात्पर्य क्या है...?' महापुजारी ने पूछा।
द्रविड़राज कुछ बोल नहीं पाये। उनका दाहिना हाथ एक क्षण के लिए श्वेत आवरण के अंतप्रदेश में गया और दूसरे ही क्षण उन्होंने महापुजारी के हाथों पर वह बहुमूल्य रत्नहार निकालकर रख दिया- 'मेरा तात्पर्य बहुत सरल हैं, महापुजारी जी...।'
...............।' महापुजारी आश्चर्य एवं महान विस्मय से चीख उठे—'यही वह रत्नहार है...। जिसके कारण राजमहिषी त्रिधारा को आजन्म निर्वासन दण्ड का भागी होना पड़ा। यही वह रत्नहार है...जिसने श्रीसम्राट का संहार विनष्टप्राय कर दिया...वही...।'
"जी हाँ वही रत्नहार है यह। हमारे कुल का उज्जवल दीपक आज अकस्मात् हमारे समक्ष पुन: उपस्थित है...अब न जाने क्या अघटित घटना घटने वाली है....?'
"श्रीसम्राट को यह कैसे प्राप्त हुआ?'
"यह किरात नायक के पास से मिला है, जो वर्तमान युद्ध में शत्रु सेना का संचालन कर रहा है। सुनता हूं, नायक की अवस्था केवल बीस वर्ष की है...।' द्रविड़राज के मुख पर उद्वेग एवं चिंता स्पष्ट हो उठी थी।
'केवल बीस वर्ष की अवस्था में इतनी बड़ी सेना का संचालन करना असम्भव-सा प्रतीत होता है और किरातों में इतना शौर्य कहां कि वे युद्ध का तीव्र गति से संचालन कर सकें? महापुजारी बोले।
'किरात नहीं हो सकता वह महापुजारी जी।'
'श्रीसम्राट का केवल अनुमान मात्र है या विश्वास भी...?'
'न जाने क्यों हृदय में यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है, महापुजारी जी कि वह किरात नहीं हो सकता। मेरे अंत:स्थल में कौतूहल-मिश्रित हाहाकार मूत हो उठा है । उसे सहन करना असह्य हो गया हैं असीम वेदना का मार वहन करना अब मेरे लिए दुष्कर है। सांत्वना दीजिये महापुजारी जी।' द्रविड़राज ने अवरुद्ध कंठ से कहा।
महापुजारी मौन रहे।
एक क्षण के लिए उन्होंने नेत्र बंद कर न जाने क्या सोचा। तब उनकी गंभीर आकृति ने और गंभीरता धारण कर ली।
उनके नेत्रद्वय अरुणिम हो उठे। द्रविड़राज स्थिर दृष्टि से महापुजारी की उद्दीप्त मुखाकृति की और देखते रहे। 'महामाया जो कुछ करती है, अच्छा ही करती है श्रीसम्राट !' महापुजारी बोले-'प्रत्येक कार्य में उनकी आगम महिमा अंतर्हित रहती है। आपको यही उचित है कि धैर्य स्मरण कर अपनी सारी मानसिक अशांति एवं प्रलयंकार उद्वेग अपने से दूर भगा दें, इसी में आपका कल्याण है...।'
"यह असम्भव है महापुजारी जी।' द्रविड़राज व्यथित हो उठे—'मेरी दशा तो देखिये, मैं अभागा सम्राट एक साधारण व्यक्ति से भी अधिक संतप्त हूं। ऐश्वर्यवान होकर ही मैंने दुश्चिन्ता में अपना शरीर विदग्ध कर डाला है। मेरी सहायता कीजिये महापुजारी जी।'
'श्रीसम्राट क्या चाहते हैं?' महापुजारी ने पूछा।
उनके नेत्र सम्राट की मुखाकृति पर स्थिर हो गये—द्रविड़राज को ऐसा लगा मानो उन दोनों नेत्रों से दो दाहक ज्वालायें निकलकर उनके अंत:स्थल में प्रविष्ट हो गई हों और अपनी समस्त दाहक शक्ति द्वारा उनके हृदय का रक्त शोषण कर रही हों।
'मैं एक बार युद्ध में चलकर उस किरात युवक को देखना चाहता हूं।' द्रविड़राज ने कहा।
'इस से लाभ।' महापुजारी ने पूछा।
'मेरे हृदय की पुकार है यह।'
आपके हृदय में ममत्व का रोर मच रहा है, श्रीसम्राट।' महापुजारी कठोर स्वर में बोले —'सम्राट होकर आप अपने हृदय पर नियन्त्रण नहीं रख सकते।'
'मैं इस समय सम्राट नहीं, एक संतप्त व्यक्ति हूं, महापुजारी जी। मैं किसी देवी प्रकोप से अक्रांत एक दयनीय प्राणी हूं, मेरी अवस्था पर दया कीजिये-अब तक आपकी समस्त आज्ञाओं का पालन मैंने किया है, आज मेरे इस क्षुद्र अनुरोध का तिरस्कार आप न करें।'
'श्री सम्राट...!'
'अधिक विलम्ब होने से सम्भव है कोई बहुत बड़ा अनिष्ट हो जाये। जाने क्यों मेरा हृदय तीव्र वैग से प्रकम्पित हो रहा है।'
'चलिए। मैं युद्ध शिविर में चलने को प्रस्तुत हूं।' महापुजारी बोले- 'गुप्तमार्ग द्वारा चलने से हम लोग तीसरे प्रहर तक युद्ध शिविर में पहुंच जायेंगे।'
महापुजारी उठे। प्रकोष्ठ से अपना पीताम्बर लेकर कंधे पर रखा और तीव्र वेग से सम्राट के साथ बाहर हो गये।
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