XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर - Page 7 - SexBaba
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XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर

सारे चंद्रपुर में आज प्रसन्नता का दिन था। जमींदार राज की हवेली फानूसों और फूलों से सजी थी और एक अच्छी खासी दावत का प्रबन्ध किया गया था। राज आज प्रसन्नता से फूला न समाता था। आज वह एक पुत्री का पिता बन गया था। नाचने-गाने के लिए पास के गांव से भांड बुलाए गए थे। लोग कह रहे थे कि एक लड़की के पैदा होने पर इतनी खुशी! परंतु राज के हृदय को टटोलकर कोई देखता तो जानता कि वह कितना प्रसन्न था। दावत समाप्त होते ही वह डॉली के कमरे में पहुंचा। डॉली बिस्तर पर लेटी थी। नन्ही बालिका भी समीप ही लेटी हुई थी। डॉली चुप थी। राज उस नन्हीं-सी बालिका को गोद में लेकर प्यार करने लगा। कभी वह उसे और कभी उसकी मां को देखता था। बालिका बिल्कुल अपनी मां की तस्वीर थी।
दिन बीतने लगे और बालिका बड़ी होने लगी। दोनों का बहुत-सा समय उसके साथ ही बीतने लगा। उन्होंने उसका नाम कुसुम रखा। चंद्रपुर आने पर राज का अपना काम बहुत बढ़ गया था। वह सोचता कि आज यदि पिताजी जीवित होते तो वह देखकर कितने प्रसन्न होते परंतु शायद डॉली को देखकर वह प्रसन्न न होते। यह सोचते ही वह शोकमग्न हो जाता। डॉली के हृदय से अभी तक पिछली बातें न निकल पाई।

एक दिन संध्या के समय डॉली अपने बरामदे में बैठी हुई कुछ बुन रही थी। पास ही कुसुम खिलौनों से खेल रही थी। हवेली का दरवाजा खुला और राज एक नवयुवक से साथ भीतर आया। डॉली कुर्सी पर से उठी और अपनी साड़ी का पल्ला संभालकर अंदर जाने लगी। राज ने आवाज दी और वह वहां रुक गई। राज ने सामने आते ही नवयुवक से कहा,
'यह है मेरी श्रीमती डॉली।'

'नमस्ते।' नवयुवक ने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा,

'बहुत प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर।'

'और डॉली, यह है मिस्टर शंकर लाल जिन्होंने हमारी निचली जमीन किराए पर ली है।'

डॉली ने मौन रह हाथ जोड़कर नमस्ते का उत्तर दिया। कुसुम दौड़ती हुई आई और राज की टांगों से लिपट गई। राज ने उसे प्यार से गोदी में उठा लिया और कहा, 'ओहो, मैं तो भूल ही गया।' और शंकर लाल को संबोधित करके उसने कहा, 'और यह है मेरी बेटी कुसुम, बड़ी ही नटखट!'

शंकर लाल ने उसे राज से लेकर अपने हाथों में उठा लिया और कहा, 'बहुत अच्छी लड़की है, अपनी मां पर गई है।'

'अच्छा शंकर लाल, तुम बैठो। मैं मुंह-हाथ धो लूं।' डॉली चाय का प्रबंध करो।

'चाय तैयार है। अभी मंगाए देती हूं।'

राज अंदर चला गया और डॉली ने हरिया को आवाज देकर चाय लाने को कह दिया। दोनों मौन बैठ गए।

"तो आपने यह जगह किसके लिए ली है?'

'अपने लिए।'

'आप क्या करते हैं?'

'मैं घोड़े साधता हूं और उनका व्यापार भी करता हूं। रेसकोर्स के तथा दूसरे घोड़ो को खुली हवा में साधने के लिए एर ब्रांच ऑफिस खोला है। वैसे काम बंबई में है। हम एक ऐसा स्थान खोज रहे थे जहां खुले मैदान और पहाड़ हों। दोनों बातें यहां मिल गई।'

'अच्छा तो यह बात है। किसी समय मुझे भी घुड़सवारी और घुड़दौड़ का बड़ा शौक था। जब मैं कहीं पहाड़ पर जाती तो जी भरकर सवारी करती थी।'

'तो अब वह समय कहां गया है? चंद्रपुर में भी तो सवारी के लिए उचित स्थान है।'

'परंतु अब तो सांसारिक धंधों में फंस गए।'

'यह तो सबके साथ ही होता है। दिल को जवान रखना या बूढ़ा बना देना अपने ही अधिकार में तो है।'
 
'नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। अकेला मनुष्य जाए भी कहां और घोड़े भी तो अच्छे नहीं मिलते।'

'तो आप कभी हमारे यहां पधारिए। एक से एक अच्छी जाति का घोड़ा मौजूद है और पहाड़ियों में घुड़सवारी को छोड़कर और कौन सा मनोरंजन हो सकता है?'

'देखिए, प्रयत्न करूंगी।'

इतने में राज वहां आ पहुंचा और कुर्सी पर बैठते हुए बोला, 'क्यों, अभी चाय नहीं आई?'

'वह सामने ला ही रहा है।' डॉली ने उत्तर दिया।

हरिया ने अपने स्वामी की आवाज सुनते ही शीघ्रता से चाय लाकर मेज पर रख दी। सब मिलकर चाय पीने लगे।" जब शंकर लाल वापस जाने को तैयार हुआ तो डॉली के बहुत अनुरोध करने पर उसे रात के खाने तक रुकना पड़ा। बहुत समय तक गपशप होती रही। खाने में कुछ देर थी तो शंकर लाल के कहने पर सब सड़क तक घूमने चले गए। डॉली को आज ऐसा जान पड़ा मानों शंकर लाल का आना बसंत का आगमन है। इन सूने जंगलों में एक भी तो ऐसा मनुष्य नहीं जिससे मेलजोल बढ़ाया जाए। धीरे-धीरे शंकर उनके घर आने लगा। राज का तो वह बहुत गहरा मित्र बन गया और डॉली का समय बिताने का साधन। वह डॉली को भांति-भांति की मनोरंजक बातें सुनाकर प्रसन्न करता।

एक दिन शंकर डॉली के घर आया तो राज घर पर न था। वह डॉली के पास ही बैठकर बातें करने लगा। डॉली ने चाय के लिए पूछा। शंकर बोला, 'डॉली अगर हो सके तो ठंडा पानी मंगवा दो। गर्मी बहुत है और चाय पीने को जी नहीं चाहता।'

'इसमें कौन-सी बात है? अभी लो।' यह कहकर डॉली अंदर गई और थोड़ी देर में शर्बत बनाकर ले आई।

'इसकी क्या आवश्यकता थी?' शंकर ने देखते ही कहा।

'ठंडा पानी ही तो है, पीजिए।'

उसने गिलास आगे करते हुए उत्तर दिया। शंकर ने गिलास ले लिया और बोला, 'और आप?'

"मैं तो चाय ही पीऊंगी। अभी आती हूं।'

शंकर एक ही सांस में सारा शर्बत पी गया, जैसे बहुत देर से प्यासा हो। डॉली उसके मुंह की ओर देखती रही।

'क्या बात है, राज अभी तक नहीं आया।'

'कहीं गए हैं। कह रहे थे पास के गांव में कुछ काम है, शायद देर से लौटूं।'

'डॉली, तुम दोनों बहुत भाग्यवान हो।'

'कैसे?'

"एक-दूसरे को पाकर।'

'तो वह कितनी भाग्यवान है जिसे तुम्हारे जैसा पति मिला है?'

वह सुनते ही शंकर जोर से हंसा और बोला, 'आपने भी खूब कही।'

'तो क्या मैंने कुछ गलत कहा?'

'अजी, अभी तो मैं अकेला ही हूं।'

'ओह! तो यह बात है! तो कब लाइएगा भाभी को?'

"जब कोई पसंद आएगी।'

'अच्छा मैं भी तो सुनूं, कैसी चाहिए?'

'यह तो एक बहुत टेढ़ा प्रश्न है।'

"फिर भी, कुछ तो सोच रखा होगा आपने?'

'यदि बुरा न मानों तो कहूं।'

'हां कहो ना।'

'मुझे तो ऐसी लड़की चाहिए जो आप जैसी सुंदर और सभ्य हो।'

डॉली यह सुनकर सकुचा गई और धीरे से बोली, 'आप क्या कीजिएगा ऐसी फीकी सुंदरता और सभ्यता को लेकर?'

शंकर यह सुनकर कुछ सहम-सा गया। फिर प्रयत्न करके उसने कहा, 'डॉली एक बात पूंछू?'

'पछो।'

'मैं कई दिन से देख रहा हूं कि तुम बहुत उदास रहती हो।'

'नहीं तो।'

'तुम मुझसे कुछ अवश्य छिपा रही हो। तुम्हारे चांद से मुख पर उदासी की छाया मुझे धोखा नहीं दे सकती।'
 
यह सुनते ही डॉली की आंखों में आंसू उमड़ आए और वहां से उठकर कमरे में चली गई। कमरे में डॉली बिस्तर पर औंधी लेटी चादर से लिपटकर रो रही थी।

शंकर उसके पास जाकर बोला, 'तुम रोने क्यों लगी?'

"कुछ नहीं। चलिए बाहर चलें।' "क्या करेंगे आप पूछकर?'

'आपकी इच्छा। मैंने तो एक हितैषी के नाते पूछा था। अपने आंसू पोंछ डालिए, राज भैया आने वाले होंगे।' शंकर ने जेब से रूमाल निकालकर डॉली की ओर बढ़ाते हुए कहा।

'मैं आ गया हूं।' राज की आवाज सुनकर डॉली कांप उठी। रूमाल उसके हाथ से गिर गया। शंकर ने नीचे झुककर रूमाल उठा लिया और राज की ओर देखकर बोला, 'आओ राज, आज बहुत देर से आए!' शंकर मुस्करा रहा था।

डॉली ने देखा कि शंकर के मुख पर किसी प्रकार की घबराहट न थी। न उसका चेहरा डॉली की भांति पीला ही पड़ा था। उसके चेहरे पर वही आभा थी जो पहले थी। राज ने डॉली को तिरछी नजर से देखा। डॉली सहम गई। उसे लगा मानों राज उसे शंकित होकर देख रहा है।
'यह सहानुभूति और रोने का नाटक कैसा हो रहा था?'राज ने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा।

'ऐसे ही कुछ बीती बातें याद याद करके रोने लगीं।' शंकर ने उत्तर दिया।


"क्यों डॉली, क्या याद आ रहा है जो....'

'कुछ नहीं। इन्होंने घुड़सवारी की बात छेड़ी तो मुझे वे दिन याद आ गए जब मैं घुड़सवारी किया करती थी।' डॉली ने बात काटते हुए कहा।

शंकर उसकी ओर आश्चर्य भरी दृष्टि से देखने लगा।

'तो तुम प्रसन्नता से यहां भी सवारी कर सकती हो, किसी ने रोका तो नहीं है।'

'अवश्य। राज भैया, मैं तुम्हें कहने ही वाला था कि इससे डॉली का मन भी लगा रहेगा?'



'परंतु तुम्हें यह कैसे पता चला कि डॉली उदास है?'

'अनुभव किया है परंतु निश्चय से नहीं कह सकता।'

'अच्छा तो फिर सवारी का प्रबंध हो जाए।'

'बहुत अच्छा।'

'परंतु दो नहीं, तीन घोड़ों का। मैं भी चलूंगा।'

'तुम तो जा ही रहे हो। तुम्हारे बिना भला डॉली किस प्रकार जाएगी? अच्छा अब मैं चलता हूं, देर हो रही है।'

'खाना बिल्कुल तैयार है।'

"फिर कभी सही। अब आज्ञा चाहता हूं।'

'तुम्हारी इच्छा।' राज ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा और शंकर चला गया।

'कुसुम कहां है?'

'सो रही है।'

'डॉली!'

'जी!'

'अपना दुखड़ा सुनाकर उसकी सहानुभूति का पात्र बनना मूर्खता है।'

'अपना हाथ-मुंह धो लीजिए। खाना तैयार है।' डॉली ने कहा।

'मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं?'

'व्यर्थ छोटी-छोटी बातों को कुरेदना भी मैं अच्छा नहीं समझती। यदि आप नहीं चाहते तो मैं सवारी के लिए नहीं जाऊंगी।'

'वह तो अब हमें जाना ही होगा।'

'ऐसी भी क्या विवशता है?'

'मैं तो केवल यह चाहता हूं कि शंकर के बजाय तुमने मुझसे कहा होता।'

'अच्छा उठिए। बातों के लिए सारी रात पड़ी है।'
 
'दूसरे दिन सवेरे शंकर घोड़े पर सवार हाथ में दो सवारी के घोड़े लिए हवेली के बाहर आ पहुंचा। राज तैयार ही था। डॉली अभी भी तैयार न थी।' डॉली के सुनहरे विचारों का तांता राज की आवाज ने तोड़ दिया। 'आ रही हूं।' यह कहते हुए डॉली शीघ्रता से बाहर आई और हरिया से बोली, 'जरा मुन्नी का ध्यान रखना।' तीनों अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर सैर के लिए चल दिए। शंकर इसी प्रकार नित्य उनके घर पहुंच जाता और तीनों प्रतिदिन सैर के लिए निकल जाते।। एक दिन संध्या के समय जबकि शंकर कमरे में बैठा पत्र लिख रहा था. तो उसे दरवाजे पर किसी के पैरों की आहट-सी सुनाई दी और राज ने अंदर प्रवेश किया। शंकर उसे देखते ही बोला, 'आओ राज ' और वह कुर्सी छोड़ पलंग पर जा बैठा। कुर्सी उसने राज को बैठने के लिए दे दि

राज ने कहा, 'शंकर जल्दी में हूं। मेरे पास बैठने का समय नहीं।'

"ऐसी भी क्या जल्दी है?'

'मैं पास ही के गांव में एक आवश्यक काम से जा रहा हूं। चुंगी वालों ने मेरी बैलगाड़ियां रोक रखी हैं और ऊपर से बरसात का मौसम, रास्ते में सामान कहीं खराब न हो जाए।'

'तो फिर?'

'मेरे पास ऊपर जाने के लिए समय नहीं। जरा डॉली को सूचना दे देना कि दरवाजे आदि भली प्रकार से बंद कर ले। मैं कल दोपहर तक लौट आऊंगा?'

'अच्छा कह दूंगा और कुछ काम मेरे योग्य हो तो....।'

'बस यही बहुत है। अच्छा मैं चलता हूं।' यह कहकर राज बाहर निकल गया। शंकर ने जल्दी-जल्दी पत्र समाप्त किए और बरसाती उठाकर राज की हवेली की ओर जाने के लिए बाहर निकला।

शंकर हवेली की ड्योढ़ी पर पहुंचा ही था कि वर्षा आरंभ हो गई। बरामदे में डॉली खड़ी राज की प्रतीक्षा कर रही थी। शंकर को देखते ही बोली, 'क्यों राज कहां है? वह साथ नहीं आए?'

"वह पास के गांव में एक आवश्यक काम से गए हैं और कल दोपहर तक लौटेंगे। समय कम होने के कारण मुझे यह संदेश पहुंचाने को कह गए थे।'

'और कुछ...?'

'हां, उसने कहा था कि हवेली के दरवाजे अच्छी तरह बंद कर लेना और चौकीदार को भी सावधान कर देना।'

'उनका विचार है कि अकेली मैं डरती हूं।' उसने हंसते हुए कहा।

'फिर भी नारी हो, डरना तो हुआ।'

"ऊं हूं।' नाक चिढ़ाकर डॉली ने कहा।

'अच्छा डॉली, मैं चलता हूं। वर्षा तेजी से हो रही है। ऐसा न हो कि....।'

"ऐसी भी क्या जल्दी है! अभी आए और अभी चल दिए? बैठो कोई नई गप्प सुनाओ, कुछ समय ही कटेगा।'

'मुझे लौटकर भी जाना है।'

'अच्छा खाना खाकर चले जाना।'

'परंतु...।'

'मैं किंतु-परंतु कुछ नहीं सुनूंगी। आओ, इतनी देर में ताश की एक बाजी ही हो जाए।'

'तुम्हारे सामने न करना भी कितना कठिन है।' यह कहकर शंकर बैठ गया और डॉली भागकर ताश ले आई। दोनों खेलने लगे। अचानक उसने ताश के पत्ते फेंकते हुए कहा, 'डॉली बस करो, नौ बज गए।'

'इतनी जल्दी!' यह कहकर डॉली ने पत्ते संभाले और हरिया को शीघ्र खाना लाने के लिए कहा। दोनों बैठकर खाना खाने लगे। खाना खाते-खाते डॉली बोली, 'आप कितने अच्छे हैं! आपने तो यहां आकर मेरा जीवन ही बदल डाला। डॉली टकटकी बांधकर शंकर के मुख की ओर देख रही थी।'
 
'तो क्या सचमुच तुम मुझे एक अच्छा आदमी समझती हो?'

'समझती नहीं, समझ चुकी हूं।'

'और यदि तुम्हें समझने में धोखा हुआ हो तो?'

'आप अच्छे या बुरे कैसे भी हों, परंतु मेरे लिए तो अच्छे आदमी है।'

'हो सकता है।' शंकर ने धीरे से कहा और चुपचाप खाना खाने लगा।

कुछ समय तक दोनों मौन रहे। डॉली ने मौन भंग करते हुए कहा, 'यदि राज आ जाए तो हमें इस प्रकार देखकर जल उठे।'

'भला क्यों?
"जिसके भाग्य में जलना ही हो वह भला प्रसन्नता का मूल्य क्या जाने!'

'यह कोई बात नहीं। राज की जगह मैं होऊं तो मैं भी जल उर्छ।'

'तो क्या आप भी ऐसा ही समझते हैं?'

"क्यों नहीं? प्रायः पुरुष यह सहन नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी उसकी अनुपस्थिति में उसके मित्रों के साथ इस प्रकार हंसे-बोले।'

'परंतु वह आपको पराया नहीं समझते।'

'यह तो मेरा सौभाग्य है। अच्छा छोड़ो ऐसी बातों को, जल्दी खाना खा लो, नहीं तो पीछे रह जाओगी।'

डॉली शंकर की बातें सुनती जाती थी और एकटक देखे जा रही थी।

'मेरी ओर क्या देखती हो, खाना खाओ।' दोनों फिर से खाना खाने लगे। थोड़ी-थोड़ी देर में दोनों सिर उठाकर एक-दूसरे को देख लेते। जब नजरें आपस में टकराती तो दोनों मुस्करा देते।

खाना खाने के बाद शंकर ने जाने की आज्ञा मांगी। वर्षा अब भी बहुत जोर की हो रही थी। डॉली बोली, 'इतनी बारिश में किस प्रकार जाओगे?'

"प्रतीक्षा करते-करते दस बज गए। यदि वह बंद न हो तो क्या किया जाए?'

'तो रात को यहीं रह जाइए।' शंकर ने देखा कि डॉली की आंखों में विनम्र अनुरोध भरा था। वह बोला, 'नहीं डॉली, मुझे जाना है। अच्छा नमस्ते। हरिया से कहो कि हवेली का दरवाजा बंद कर ले।' शंकर यह कहता हुआ बाहर निकल गया। डॉली देखती रही।

बाहर जोर से बादल गरजा। शंकर बरामदे में पहुंचा और उसने बरसाती उठाई। डॉली भागती हुई आई और निःसंकोच उससे लिपट गई। शंकर उसे अपने शरीर से अलग करते हुए बोला, 'क्यों, क्या कर रही हो डॉली?'

'आप इस तूफानी रात में अकेली छोड़कर न जाइए।'

'क्यों?'

'मुझे डर लगता है।'

'अभी तो तुम कह रही थीं कि तुम किसी से नहीं डरती।'

'वह मेरी भूल थी। भगवान के लिए आप मुझे इस प्रकार अकेली छोड़कर न जाइए, नहीं तो मैं....।'

'नहीं तो क्या होगा?'

'नहीं तो.... नहीं तो... कुछ नहीं। ऐसे ही पड़ी चीखूगी।'

'अजीब तुम्हारे कहने का ढंग है। चलो, अंदर चलो।' शंकर ने बरसाती उतार दी और डॉली के पीछे-पीछे कमरे में आ गया।
 
डॉली अपने कमरे में पलंग पर अकेली लेटी थी। कमरे की खिड़की हवा से बार-बार खुल जाती और उसके किवाड़ जोर-जोर से बजने लगते। डॉली की आंखों में नींद न थी। उसके हृदय में भी एक तूफान-सा उठा हुआ था और वह बार-बार लेटे हुए अपने बिस्तर पर करवटें ले रही थी। खिड़की के किवाड़ एक बार फिर हवा से खुल गए। डॉली अपने बिस्तर से उठी और खिड़की बंद कर दी। कुछ देर वह वहीं खड़ी रही। फिर धीरे-धारे दबे पांव पास वाले कमरे के दरवाजे कर गई और कान लगाकर सुनने लगी। एकदम सुनसान था। उसने धीरे-से किवाड़ खोलने का प्रयत्न किया। दरवाजा अंदर से खुला था। उसने सोचा कि शायद शंकर ने जान-बूझकर खुला छोड़ा है। वह धीरे-धीरे बढ़ती हुई शंकर के बिस्तर के समीप पहुंची। वह सो रहा था। डॉली ने कोमल स्वर में पुकारा, 'शंकर! शंकर!'

शंकर आवाज सुनते ही घबराकर उठा "कौन है?'

'मैं डॉली।'

'क्यों, क्या बात है? सब कुशल तो है?'

'सब ठीक है।'

"फिर तुम इतनी रात को यहां....।'

'तो क्या मेरा आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा?'

'परंतु....।'

'मैं जानती हूं तुम पूछोगे कि क्यों? मैं अब तुमसे कुछ नहीं छिपाऊंगी। शंकर मैं तुमसे प्रेम करने लगी हूं। चाहती थी कि इस रहस्य को तुम पर प्रकट करू। मेरा अनुमान है कि तुम भी मुझसे प्रेम करते हो.... परंतु तुम्हारे मौन ने तुमसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं बंधाई।'

शंकर चुपचाप सुन रहा था और डॉली कहे जा रही थी 'मैं जानती हूं कि तुम कर्तव्य और समाज के भय से यह साहस न कर सके। परंतु आज लज्जा और भय की जंजीरें तोड़ती हुई मैं तुम्हारे पास आ गई हूं।' डॉली कहते-कहते शंकर के पास बैठ गई।

शंकर ने दियासलाई सुलगाई और लैंप जलाने लगा। डॉली ने उसका हाथ रोकते हुए कहा, 'इसकी क्या आवश्यकता है?

'केवल मन की तसल्ली के लिए। मैं कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहा।' लैंप जलते ही कमरे में प्रकाश हो गया। शंकर ने ध्यान से डॉली को देखा, डॉली के मुख पर एक अजीब-सी मादकता छाई थी।

'क्यों शंकर, अब तो विश्वास हुआ कि मैं ही हूं?' डॉली ने शंकर के कुछ और पास आते हुए कहा। उसकी आंखें लाल थीं मानों नशे में डूबी हों। शंकर अभी तक चुपचाप उसकी ओर देख रहा था। "किस गहरे विचार में डूबे हो शंकर? मैं तुम्हारे पास चलकर आई हूं।'

'बहुत-बहुत धन्यवाद।'

'देखो, लैंप बुझा दो, रोशनी मेरी आंखों को काटती है।' डॉली ने अंगड़ाई लेते हुए कहा।

शंकर गंभीर आवाज में बोला, 'डॉली तुम भूल कर रही हो कि तुम एक विवाहिता स्त्री हो और वह भी मेरे एक प्रिय मित्र की पत्नी।'

'मैं जानती हूं। परंतु कहते हैं न कि प्रेम और युद्ध के मैदान में सब कुछ उचित होता है।'

शंकर ने कोई उत्तर न दिया और उठकर दरवाजे के पास जाकर खड़ा हुआ। वह पर्दा हटाकर देखने लगा।
 
डॉली उठी और उसके पीछे जा खड़ी हुई। 'देख क्या रहे हो.... बरसात की छींटे, तूफान, बादल की गरज। क्या तुम्हारे हृदय में भी तूफान-सा उठ रहा है? शकर इन साधारण सामाजिक नियमों के कारण अपने अरमानों की हत्या न करो। मेरे पास आओ....।' डॉली ने यह कहकर अपनी दोनों बांहें शंकर के गले में डाल दीं।

शंकर ने बाहर देखा। बिजली चमकी और बादल जोर से गरजा। दूसरे ही क्षण उसने आवेश में आकर कसकर एक तमाचा डॉली के गाल पर जड़ दिया। फिर बोला, "डॉली मुझे क्षमा करना।' शंकर ने अपना हाथ छुड़ाया और बाहर निकल गया।

डॉली कुछ समय तक अवाक् खड़ा रही.... यह उसने क्या किया... यौवन के नशे में वह अपने आपको भूल गई। शंकर की उंगलियों के निशान उसे गालों पर उभर आए थे और वह मूर्छित होकर गिर पड़ी। होश आया तो वह उठी और बाहर शंकर को देखने लगी। वर्षा पहले से कुछ कम हो चुकी थी परंतु अभी तक थमी न थी। वह बरामदे में आई उसने देखा कि शंकर बरामदे की सीढ़ियों पर बैठा बारिश में भीग रहा है। वह दबे पांव उसके पास पहुंची और धीरे-से बोली, 'यह क्या कर रहे आप! उठिए, कहीं सर्दी न लग जाए।'


डॉली ने हाथ का सहारा देते हुए उसे उठाया और साथ कमरे में ले गई। रोशनी में उसने देखा,,, शंकर का चेहरा पीला पड़ गया था और उसके दाएं हाथ से खून बह रहा था। जैसे किसी पत्थर से कुचला गया हो। डॉली ने यह देखते ही कहा, 'यह आपने क्या किया! अपराधिनी तो मैं हूं, दंड मुझे मिलना चाहिए!' उसने शंकर का घायल हाथ चूमा और गालों से लगाकर रोने लगी।

'डॉली, यह हाथ आज तुम पर उठा। मैं बहुत लजित हूं।'

'मैं आपका यह तमाचा जीवन भर न भूलूंगी। इसने मेरी आंखों से पर्दा हटा दिया और मैं मनुष्यता का मूल्य समझ सकी।' डॉली उठी और स्प्रिट की बोतल तथा रुई ले आई। घायल हाथ पर स्प्रिट लगाकर उसे बांधने लगी। जब वह पट्टी बांध रही थी तो उसने शंकर की ओर देखा। वही पीला चेहरा अब कुछ लाल हो चला था,

डॉली मेरे पास आओ। वह धीरे-धीरे सिर झुकाए उसकी ओर बढ़ी। शंकर कह रहा था 'तुम्हें मुझसे कितनी सहानुभूति है और मैं तुम्हें अच्छा भी लगता हूं परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि तुम मुझे इतना गिरा हुआ समझो। मेरा तुम्हारे साथ इस प्रकार घुल-मिल जाना तो एक प्राकृतिक बात थी।' डॉली सब सुनती रही। उसकी आंखों में आंसू थे। शंकर ने उसके आंसू पोंछते हुए कहा, 'यदि तुम्हें अब भी मुझसे प्रेम है तो आओ, अपने भाई के गले लग जाओ।'

डॉली शंकर के गले से लगकर फूट-फूटकर रोने लगी। शंकर उसे बालकों की भांति प्यार करता हुआ बोला, "देखो अब तुम मेरे कितने समीप हो और मैं तुम्हें प्यार भी कर रहा हूं। परंतु कितना अंतर है दोनों में। एक मैं ईर्ष्या और पतन और दूसरे में पवित्रता और आत्मिक शांति।' कहते-कहते शंकर की आंखों से भी दो आंसू टपक पड़े।

'आपने मुझे अंधेरे गड्ढे से निकालकर प्रकाश के मार्ग पर डाल दिया। सचमुच आप मनुष्य नहीं, देवता हैं।'

'डॉली, मुझे देवता न बनाओ। नहीं तो मैं मनुष्य के दुःख-दर्द न समझ सकूँगा।'

'जहां आपने मुझे गिरते हुए बचाया है, वहां एक वचन आपसे लेना चाहती हूं।'

'क्या?'

'कि यह बात राज के कानों तक न पहुंचे।'

'एक शर्त पर। 'कैसी शर्त?'

'कि भविष्य में एक सच्ची गृहिणी की भांति अपने पति की प्रसन्नता और शांति के लिए प्राण भी दे दोगी।'

'प्रयत्न करूंगी।'

'भगवान तुम्हारे साथ है डॉली। जाओ सो जाओ। तुम्हारी थकी हुई आंखों को आराम की आवश्यकता है।'

'और आप?'

"मेरे लिए चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं।' डॉली अपने कमरे की ओर बढ़ी। दरवाजे में रुककर उसने मुड़कर शंकर से पूछा, 'क्या सवेरे की घुड़सवारी पर चलिएगा?'

'अवश्य। क्यों नहीं?' डॉली ने एक बार फिर शंकर के मुख की ओर देखा और अंदर चली गई।

सवेरा होते ही शंकर और डॉली शंकर के मकान की ओर चल पड़े। कुसुम अभी तक सो रही थी। उसे डॉली ने हरिया को सौंप दिया। थोड़ी ही देर में दोनों निचले मैदान में पहुंच गए। शंकर डॉली से बोला, 'तुम सामने अस्तबल में जाकर टॉम से कहो कि घोड़े तैयार करे और मैं कपड़े बदलकर अभी आता हूं।' शंकर मुंह से सीटी बजाता हुआ अपने मकान में प्रविष्ट हुआ और नौकर को आवाज देकर अपने कमरे में गया। उसे लगा मानों कोई व्यक्ति उसके बिस्तर पर लिहाफ ओढ़े सो रहा है। केवल उसके पांव बाहर थे जिनमें जूते थे। पास आकर उसने देखा और जल्दी से लिहाफ उठाते हुए पूछा, 'कौन?'

'उसके आश्चर्य की सीमा न रही। राज सो रहा था।' राज ने धीरे-से अपनी आंखें खोली और बोला, 'आइए शंकर बाबू, क्षमा करना।! आपके बिस्तर पर सो गया था....।'

'परंतु तम तो....।'

'रात की बारिश और तूफान के कारण हम न जा सके। नदी में बाढ़ आ गई थी इसलिए लौट आए।'

'परंतु घर वापस क्यों नहीं गए?'

'मैंने सोचा कि तुम्हारे घर की चौकीदारी भी तो किसी ने करनी है और तुम मेरी हवेली पर पहरा दे रहे थे तो मैंने यहां की चौकीदारी करना ही अपना कर्त्तव्य समझा।'

'राज किसी गलतफहमी में न पड़ो।'

'शंकर।' राज ने गरजकर कहा, 'मैंने तुम्हें संदेश पहुंचाने के लिए कहा था, वहां रात को आराम करने के लिए नहीं।'

'परंतु मेरी बात तो सुनो।'

'यहीं न कि वर्षा और तूफान के कारण डॉली ने तुम्हें वहां रहने के लिए विवश कर दिया?'

'नहीं।'

'तो फिर?'

'डॉली को हवेली में अकेला छोड़ना मैंने उचित नहीं समझा।'
 
'यह क्यों नहीं कहते कि डॉली के प्रेम ने पैरों में बेड़ियां डाल दीं।'

'राज, होश में हो। संसार का प्रत्येक व्यक्ति उतना नीच नहीं जितना तुम समझते हो।'

'तो तुम कहना चाहते हो कि मैं झूठ कह रहा हूं।'

'यदि तुम्हें अपनी पत्नी पर विश्वास नहीं तो मेरी बातों पर तुम्हें किस प्रकार विश्वास आएगा। जाओ, बाहर अस्तबल के पास डॉली घोड़े लिए खड़ी है। आज मैं न आ सकूँगा।'

डॉली का नाम सुनते ही राज आवेश में भरा बाहर निकल गया और शंकर चारपाई पर बैठ गया। उसे ऐसा लग रहा था मानों उसके शरीर में जान ही न हो। उसके राज पर क्रोध था परंतु साथ ही तरस भी। उसने सोचा कि शांत होने पर वह राज को समझाएगा। थोड़ी ही देर में टॉम दौड़ा हुआ अंदर आया। उसके मुंह पर हवाइयां उड़ रही थी। 'क्यों टॉम, क्या बात है?' शंकर ने जल्दी से उठते हुए पूछा।

'साहब राज बाबू ने काला घोड़ा सवारी के लिए ले लिया।'

'तुमने खोलने क्यों दिया?' कहता-कहता शंकर भागा हुआ अस्तबल के निकट पहुंचा। काले घोड़े पर डॉली सवार थी और राज ने उसे पकड़ रखा था। शंकर ने पास पहुंचते ही कहा, 'राज यह क्या कर रहे हो?'

'डॉली की परीक्षा, इतने दिनों में कितनी घुड़सवारी सीखी है?'

‘परंतु यह घोड़ा।'

डॉली यह सुनकर घबराई और घोड़े को उसने मजबूती से पकड़ लिया। राज उसे घबराया देखकर बोला, "डॉली, घबराओ नहीं, अभी जवान हो और एक मस्त घोड़े पर बैठकर तो और भी सुंदर जान पड़ती हो।'

'हो क्या गया है तुम्हे राज? छोड़ दो इसे।' शंकर ने घोड़े की लगाम पकड़ते हुए कहा। 'तुम जानते हो कि जब जवानी के मद में कोई अंधा हो जाता है तो उसका क्या परिणाम होता है?'

राज ने शंकर को जोर से धक्का देकर अलग कर दिया और बोला, 'लो देखो।' यह कहते ही उसने जोर से घोड़े तो चाबुक लगाई और छोड़ दिया। थोड़ी ही देर में घोड़ा हवा से बातें करने लगा। डॉली ने जोर से घोड़े के बालों को पकड़ लिया।

'राज!' शंकर जोर से चिल्लाया और कूदकर दूसरे घोड़े पर सवार हो गया। वह भी काले घोड़े का पीछा करने लगा। दोनों घोड़े सरपट दौड़ रहे थे।

डॉली के चिल्लाने की आवाज अभी तक राज के कानों में आ रही थी। टाख...टाख... घोड़ों की टापें मैदान की पथरीली जमीन पर एक शोर-सा मचा रही थी। राज की नजरें दोनों घोड़ों की ओर लगी थीं। बहुत दूर तक भी शंकर डॉली का घोड़ा न पकड़ सका। थोड़ी ही देर बाद राज ने डॉली को घोड़े से गिरते देखा। शायद वह किसी गड्ढे में जा गिरी थी। काला घोड़ा वहीं रुक गया था और नीचे गड़े में देखने लगा था। शंकर भी वहां पहुंचा और घोड़े से उतरकर उसी गड्ढे में उतर गया।
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'क्यों, अब तबियत कैसी है डॉली की?' शंकर ने बरामदे में पैर रखते ही राज से पूछा।

राज ने उत्तर नहीं दिया। शंकर उत्तर न पा, आगे बढ़कर डॉली के कमरे में चला गया। डॉली सामने ही पलंग पर लेटी हुई थी। उसके सिर और हाथ पर पट्टी बंधी थी।

'कैसी तबियत है, डॉली?'

'अब तो कुछ आराम है।'

'बैठे-बिठाये मुसीबत आ गई।'

'कोई बात नहीं भैया! वह इसी में प्रसन्न हैं तो ऐसा ही सही।'

'डॉली, तुम कितनी बदल गई हो।'

'सब आपकी कृपा है।'

शंकर मुस्करा दिया और बोला, 'डॉली, मनुष्य में दुर्बलता तो पहले से ही होती है, केवल उसे अपने अधिकार में लाना ही उसकी विजय है।'

'परंतु अभी तक तो मैं हारी हुई हूं।'

'तुम्हारी यह हार ही तुम्हारी जीत है। अच्छा अब मैं चलता
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शंकर जब बरामदे में पहुंचा तो राज पहले से ही वहां उपस्थित था और बरामदे में चक्कर लगा रहा था। शंकर बरामदे में खम्भे के पास खड़ा हो गया और चुपचाप उसे देखने लगा। राज क्रोधित था। 'क्यों, देख आए?' राज ने पूछा।
 
'हां, विचार तो कुछ ऐसा ही है।' शंकर ने हंसते हुए उत्तर दिया। शंकर के इस उत्तर से राज का पारा और भी चढ़ गया और वह बरामदे में तेजी से चक्कर काटने लगा।

'राज, यदि आज्ञा हो तो एक बात पूंछु?'

'कहो।' राज ने शंकर के पास आते हुए कहा।

'आजकल तुम्हारे मन में एक अजीब विकलता देख रहा हूं। क्या यह पूछ सकता हूं कि इसका कारण क्या है?'

'क्यों नहीं, प्रत्येक मित्र का यह कर्त्तव्य होता है कि वह दूसरे मित्र के दुःख को अपना दुःख समझे और उसकी सहायता करे। 'तो प्रतिज्ञा करते हो कि सहायता करोगे?'

'क्यों नहीं?'

'तो सुनो, मेरी वेदना और विकलता का कारण तुम हो।'

'मैं?'

'हां, और यदि तुम चाहते हो कि मैं सुख-चैन से जीवन व्यतीत करू तो भविष्य में कभी इस हवेली में न आना।'

'तुम यही चाहते हो तो ऐसा ही होगा।' शंकर ने अपना सिर झुकाते हुए कहा और ड्योढ़ी की ओर जाने लगा। यह सब सुनने पर भी उसके चेहरे पर कोई विशेष परिवर्तन न आया था। मानों यह सब कुछ पहले से ही जानता हो। कुछ दूरी पर शंकर रुका और फिर राज के निकट आकर बोला, 'यदि कोई विशेष आपत्ति न हो तो कारण भी बता दो। मुझको कुछ तो संतोष होगा।'

'अनजान बनने का प्रयत्न न करो। इसका कारण मुझसे अधिक तुम स्वयं जानते हो।'

'तुम ठीक ही कहते हो। मैं सब जानता हूं, परंतु मैं स्वयं प्रकाश में रहकर तुमको अंधेरे में नहीं रखना चाहता।'

'मुझे ऐसे उजाले की आवश्यकता नहीं जो मेरी आंखें फोड़कर मुझे सदा के लिए अंधेरे में छोड़ दे।'

'परंतु राज, जो कुछ भी तुमने सोच रखा है वह सब गलत है। वह एक संदेह के अतिरिक्त और कुछ नहीं।' ।

'यह तुम कह रहे हो? तुम ही नहीं, तुम्हारी जगह जो भी होता यही कहता। कितना अच्छा होता, यदि तुम मेरी जगह होते और मैं तुमसे यही प्रश्न करता।'

'परंतु डॉली ऐसी नहीं। मनुष्य को जितना गिराया जाए वह उतना ही गिर सकता है। यदि उठाने का प्रयत्न किया जाए तो उतना....।'

'इसका अर्थ यह हुआ कि तुम मेरी पत्नी को मुझसे अधिक समझते हो?'

'हो सकता है।'

'क्यों नहीं? दिल मिले हों तो एक रात में मनुष्य क्या नहीं जान पाता?'

'राज, होश में रहकर बात करो।'

'तो क्या यह सब गलत है।'

"गलत बिल्कुल गलत है।'

'तो क्या रात भर तुम इस हवेली में नहीं रहे?'

'रहा हूं।'

"किसकी इच्छा से?'

'अपनी इच्छा से, डॉली को अकेला छोड़ना मैंने उचित नहीं समझा।'

‘परंतु खाना खाते ही तुम तो जाने के लिए तैयार हो गए और बरसाती पहनकर बरामदे तक पहुंच गए थे। फिर कौन-सी वस्तु तुम्हें लौटा लाई।'

शंकर चुपचाप खड़ा रहा। राज ने बनावटी मुस्कराहट होंठों पर लाते हुए कहा, 'तो वह डॉली थी?' 'दूसरे शब्दों में तुम अपनी इच्छा से न रुककर डॉली की इच्छा से रुके थे।'

'राज, मैं फिर भी यही कहूंगा कि इस बेकार के चक्कर में पड़कर परेशानी मोल लेने से कोई लाभ न होगा। समय तुम्हें अपने-आप ही यह बता देगा कि कौन ठीक है।'

'परंतु मैं समय से पहले ही सब कुछ जान जाता हूं।'

'अपनी बुद्धि पर आवश्यकता से अधिक विश्वास ठीक नहीं।

यदि समय से पहले जान जाते तो ऐसा न कहते।'

'तुम ही कह देते ताकि मुझे आवश्यकता न पड़ती।'

'कोई बात हो तो कहूं।'

'तो कहो, आधी रात के समय डॉली तुम्हारे कमरे में क्यों आई?'

शंकर ने कोई उत्तर नहीं दिया।

राज ने फिर पूछा, 'और इतनी रात गए बरामदे की सीढ़ियों पर तूफान में तुम क्या कर रहे थे? शंकर, क्या यह सब तुम दोनों को दोषी ठहराने के लिए कम है?'

'इस समय मैं इन प्रश्नों का उत्तर देना उचित नहीं समझता।'

शंकर यह कहकर जाने को तैयार हो गया और बोला, 'परंतु जाते-जाते इतना अवश्य कहे देता हूं कि डॉली का मेरे साथ इससे अधिक कोई संबंध नहीं जितना एक बहन का भाई से।' शंकर अभी पूरी बात कह भी न पाया कि राज ने उसके मुंह पर थप्पड़ दे मारा।
 
शंकर मुस्कराते हुए बोला, 'धन्यवाद।'
और वह बाहर चला गया। उस दिन के पश्चात् शंकर कभी उस ओर न आया।

डॉली अब ठीक हो चुकी थी। उसके घाव भर चुके थे और किसी प्रकार का कष्ट अब उसे न रहा था। वह फिर चलने-फिरने योग्य हो गई। परंतु घाव उसके मुख पर निशान छोड़ गए। जब वह शीशे के सामने जाती तो अपना चेहरा देखकर उसकी आंखों में आंसू उमड़ आते। 'शंकर तुम्हें अच्छा लगता है ना?'

'अच्छे आदमी तो सबको अच्छे लगते हैं।'

‘परंतु अब वह तुमसे घृणा करता है इसलिए तुमसे दूर भागता है।'

'क्यों?'डॉली ने आश्चर्य से पूछा।

'इसका उत्तर तो शीशा ही भली प्रकार दे सकता है।'

'राज, ऐसी जली-कटी बात करने से क्या लाभ? तुम मुझे जो चाहे कह लो परंतु उन्हें गलत समझने का प्रयत्न न करो। वह मनुष्य नहीं देवता हैं।'

‘क्यों नहीं? दिल ही तो है, जिसे चाहे दानव बना दे, जिसे चाहे देवता।'

'मैं तुम्हें किसी प्रकार समझाऊं, अपना विश्वास जो खो बैठी हूं।'

'डॉली, फिर भी मैं प्रसन्न हूं कि तुम्हारे हृदय में किसी के लिए तो सच्ची सहानुभूति उत्पन्न हो सकी।' राज की ऐसी बातें सुनकर डॉली रो पड़ती, परंतु अब वह आवेश में न आती। वह मौन रहती।

टॉम घोडे पर सवार हो उधर से निकला। डॉली ने उसे देखते ही पहचान लिया और आवाज दी। डॉली की आवाज सुनते ही उसने घोड़े का मुंह मोड़ दिया और पास आकर घोड़े से उतर पड़ा। 'हैलो टॉम, मैं सोच रही थी कि कहीं पहचानने में भूल न हुई हो।'

'देखे भी तो बहुत समय हो गया है, क्या बात है? आजकल आपने घुड़सवारी छोड़ दी है।'

'ऐसे ही, कुछ तबियत ठीक नहीं रहती।'

'शंकर बाबू कहते थे जब से काले घोड़े पर से गिरी हैं, डर-सी गई हैं।'

'नहीं, ऐसी कायर तो नहीं हूं। हां, तुम्हारे शंकर बाबू बहुत दिन से दिखाई नहीं दिए। कहीं बाहर तो नहीं चले गए।'

'वह तो कुछ दिन से बिस्तर पर हैं। आपको पता नहीं?'

'नहीं तो, क्या बात है?'

'घोड़े पर से गिर पड़े थे। उनकी टांग में बहुत चोट आई है।'

'कब?'

'आज तीसरा दिन है।'

'हमें तो कोई सूचना नहीं मिली। वास्तव में जमींदार साहब भी तो आज चार दिन से उस ओर नहीं गए।'

'वह तो जानते हैं। चोट लगने के समय वह भी उसी ओर ही थे।'
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'हो सकता है कि भूल गए हों।'

'भला यह भी कोई भूलने की बात थी। अच्छा मैं चलता हूं। देर हो रही है। उनके पास कोई नहीं है।' यह कहकर टॉम घोड़े पर बैठ गया और एड़ लगा थोड़ी ही देर में ढलान से उतर गया।


डॉली बहुत समय तक वहीं स्थिर खड़ी सोचती रही और फिर कुसुम को साथ लेकर जल्दी से हवेली में लौट आई। राज का ध्यान आते ही वह सहम-सी जाती। वह क्या करे? प्रत्येक पल उसकी बेचैनी बढ़ रही थी। आखिर उसने जाने का निश्चय किया। वह उठी, अलमारी से चादर निकालकर ओढ़ी और कुसुम को हरिया को सौंप स्वयं तेजी से पग बढ़ाती शंकर के घर पहुंची।

शंकर बिस्तर पर लेटा समाचार पत्र पढ़ रहा था। डॉली को देखकर उसे आश्चर्य हुआ और बोला, 'डॉली, तुम कैसे?'

'भाई बीमार पड़ा हो तो बहन उसे देखने भी न आए।'

'तो फिर इतने दिनों के बाद क्यों?'

'आज ही टॉम से पता चला और आज ही देखने चली आई।'

'तो क्या राज ने इसके बारे में तुमसे कुछ नहीं कहा?'

'नहीं तो। हो सकता है भूल गए हों।'

'तो क्या अब अकेली आई हो?'

'पहले आप यह बताएं कि तबियत कैसी है और चोट कैसे आई?'

"परंतु मेरे प्रश्न का उत्तर पहले मिलना चाहिए।'

"वह तो आप जानते ही हैं।'

'तो तुम राज की आज्ञा के बिना मुझे देखने आई हो?'
 
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