XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर - Page 9 - SexBaba
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XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर

सवेरा होते ही जब जमींदार साहब काम पर गए तो कुसुम शंकर के घर जा पहुंची। शंकर ने एक घोड़ा और अपना आदमी साथ किया। वह कुसुम को सामने की पहाड़ियों पर ले गया। घोड़े बाहर ही छोड़ वे दोनों एक तंग रास्ते को पार करके हुए, एक मोड़ पर पहुंचे। कुसुम के साथी ने आगे जाने से इंकार कर दिया और बोला, 'इस पत्थर के पीछे सामने ही कुछ डाकू बैठे होंगे। तुम वहां जाकर रंजन से मिल सकती हो।'

कुसुम एक बार तो घबराई और डर-सी गई। फिर सोचने लगी कि जब वह यहां तक पहुंच गई है तो वहां तक जाने से क्यों घबराए और फिर रंजन तो उसका भाई है। यह सोचते ही वह हिम्मत बांधे आगे बढ़ी। पत्थर से मडते ही उसने देखा, कछ मनुष्य बैठे ताश खेल रहे थे। जब उन्होंने उस सूने स्थान से एक सुंदर युवा लड़की को इस प्रकार अपनी ओर धीरे-धीरे बढ़ते देखा तो ताश छोड़ सबके सब खड़े हो गए और आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगे। जब तक वह उनके एकदम पास न पहुंच गई तब तक सब-के-सब पत्थर की भांति मौन खड़े रहे।

'रंजन कहां है?'

सबके सब मौन थे। उसने फिर अपना प्रश्न दोहराया। तब उनमें से एक व्यक्ति जोर से चिल्लाया, 'सरदार, सरदार।' उसकी पुकार के साथ ही सामने की गुफा से एक युवक जिसका चेहरा लाल था, कमर के चारों ओर चमड़े की पट्टी बंधी थी जिसमें एक पिस्तौल लटक रहा था, निकला।

कुसुम को देखते ही वह रुक गया और दोनों एक-दूसरे को खोई-खोई नजरों से देखने लगे। कुछ देर तक वह इसी प्रकार देखते रहे।

'रंजन। कुसुम के मुंह से निकला।'

'जान पड़ता है मैंने आपको कहीं देखा है!'

'कुछ दिन हुए तुम मुझे ट्रेन में.....।'

'हां, मैं आपसे कितना लज्जित हूं। रंजन ने आंखें नीची कर लीं। परंतु आप यहां कैसे?'

'एक बहन अपने भाई से मिलने आई है।'

'तुम... यह... क्या?'

'क्या तुम मुझे नहीं पहचानते? मैं हूं तुम्हारी कुसुम।'

'कुसुम....।' उसके मुख से अनायास निकला और उसने आगे बढ़कर कुसुम को गले से लगा लिया। उसकी आंखों से आंसू बह निकले। वह उसे अंदर गुफा में ले गया और एक चटाई बिछा दी। कुसुम उस पर बैठ गई।

'तुम आज पहली बार मेरे घर आई हो और मैं तुम्हारी कोई सेवा भी नहीं कर सकता।'

'तुम मुझे मिल गए। यह क्या कुछ कम है?'

'परंतु तुम इस प्रकार अपने प्राणों को संकट में डालकर यहां आ कैसे गई?'

"तुम्हारा प्रेम खींच लाया।'

'क्या पिताजी को मालूम है?'

'नहीं।'

'यह तुमने अच्छा नहीं किया। यदि उन्हें पता चल गया तो खैर नहीं।'

'इसकी तुम चिंता न करो। आओ चलो।'

'कहां?'

'मैं तुम्हें लेने आई हूं।'

'क्यों?'

'तुम्हें यहां से निकालकर ले जाना चाहती हूं।'

'तुम बहुत देर से पहुंची, अब मैं नहीं जा सकता।'

"परंतु क्यों?'

'इसका उत्तर मेरे पास नहीं।'

'क्या तुम्हें अपने जीवन पर दया नहीं आती रंजन? अपने पिता और बहन पर दया नहीं आती?'

'दया और अपने जीवन पर! नहीं! अपने पिता पर! नहीं कभी नहीं। फिर ऐसे पिता पर जिन्होंने मुझे अपने आप ही अंधेरे कुएं में धकेला।'

'यह तुम क्या कह रहे हो?'

"ठीक कह रहा हूं, तुम नहीं जानतीं... मुझे जिस रास्ते पर डाला गया है उसके जिम्मेदार केवल पिताजी ही हैं। परंतु जो कुछ भी उन्होंने किया सब ठीक है। अब मैं इसी में प्रसन्न हैं
और शायद उनसे अधिक।'

'यह कैसे हो सकता है? कोई पिता अपने पुत्र का जीवन नष्ट नहीं कर सकता। मनुष्य अपनी ही कमजोरियों से नष्ट होता है और अपराधी दूसरे को ठहराता है।'

'इसलिए कि वह एक कमजोर प्राणी है और दूसरे उसकी कमजोरी से लाभ उठाते हैं।' 'रंजन, मैं नहीं जानती थी कि तुम अपने पिता पर ऐसा दोष लगाओगे।'

'तुम्हारे हृदय में जो अपने बाबा के लिए स्थान है वह मेरे लिए तो नहीं?'

'ठीक है, तुम्हें कभी अपने बाबा के बराबर स्थान नहीं दे सकती। जो बाबा अपनी लड़की का जीवन बनाने में अपना जीवन दे दे, क्या वह अपने लड़के को कभी ऐसे भयानक रास्ते पर डालेगा जो तुमने अपनाया है? यह असंभव है।'

'यही सोचकर तो मैं हैरान हूं कि मेरे जीवन से वह ऐसा भयानक खेल क्यों खेले?'

'जो भी तुम समझते हो सब ठीक है। मैंने बहुत बड़ी भूल की जो यहां तुम्हें लेने के लिए आ गई।' कहकर वह उठी और जाने के लिए तैयार हो गई।

तो तुम जा रही हो और मुझसे नाराज होकर? ठहरो, मैं तुम्हें गांव तक छोड़कर आऊं।''

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'मुझे कोई आवश्यकता नहीं है।' यह कहकर वह तेजी से कदम बढ़ाती हुई जाने लगी।

'कुसुम ठहरो।' रंजन ने पुकारकर कहा। कुसुम ठहर गई। रंजन ने पास आकर कहा, 'क्यों कुसुम बिगड़ गई?' रंजन ने कुसुम के आंसू पोंछे। 'तुम न घबराओ, मैं जल्दी ही तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा।'

'सच?'

'कुछ विचार तो ऐसा ही है।' यह कहकर रंजन ने उसे गले से लगा लिया।

'चलो, अब मुझे गांव तक छोड़ आओ।' कुसुम ने कहा। कुसुम जब घर पहुंची तो दिन बहुत चढ़ चुका था। वह डरते-डरते ड्योढी से निकलकर आंगन में आई। राज बाब सामने ही तख्त पर बैठे थे। उसे देखते ही बोले, 'क्यों मिल आई रंजन से?'
 
'परंतु यह आप?'

'मैं सब जानता हूं। इतना मूर्ख न समझो मुझे।'
'मैं क्षमा चाहती हूं।'

'कोई बात नहीं। आखिर तुम्हारा भाई है। मिलने तो जाना ही था। यह अच्छा हुआ तुम स्वयं मिल आई। तुमसे यहां मिलता तो अच्छा न होता।'

'बाबा, उसने मुझे ठीक रास्ते पर आने का विश्वास दिलाया है और वह शीघ्र ही हमारे पास आ जाएगा।'

मुझे उसकी कोई आवश्यकता नहीं है और वह अब नीचे रास्ते पर क्या आएगा? केवल तुम्हारा मन रखने के लिए उसने ऐसा कह दिया है।

'नहीं बाबा, मुझे उस पर विश्वास है।'

'तुम्हें उस डाकू पर विश्वास है और मुझ पर नहीं?' बाबा क्रोध से कड़ककर बोले।

'नहीं, नहीं... हो सकता है कि मैं गलत होऊ।' कुसुम सहम

गई और चुप हो गई। थोड़ी देर बाद बाबा ने कहा, 'और क्या-क्या बातें हुई?'

"विशेष कोई बात नहीं। मैं उसे समझाने की कोशिश करती रही, पहले तो बोला कि मेरा जीवन तुम्हारे बाबा ने नष्ट किया है। मैंने यह सुनते ही उसे बहुत खरी-खोटी सुनाई और नाराज होकर बाहर निकल आई। फिर वह मुझे मनाने आया और अपनी भूल मान गया। तुम ही कहो बाबा, वह कितना मूर्ख है! क्या कोई पिता अपने पुत्र को ऐसे भयानक रास्ते पर डाल सकता है? पिता तो पिता, कोई दुश्मन भी किसी के बच्चे का जीवन इस प्रकार नष्ट नहीं कर सकता।' कुसुम यह कहते-कहते रुक गई।

राज बाबू ने मुंह फेर लिया। वह बोले नहीं।

'क्यों, क्या बात है बाबा?'

"कुछ नहीं... कुछ नहीं... ऐसे ही...।'


'मैं भी कितनी पागल हूं। बिना सोचे-समझे जो मुंह में आ रहा है, बके जा रही हूं। चलिए अंदर चलकर आराम कर लीजिए।'

"हां, तो उसने... तुम्हें पहचाना कैसे?' राज बाबू ने बात बदलते हुए पूछा और तख्त पर से उठ खड़े हुए।

कुसुम ने उनका हाथ पकड़ते हुए कहा, 'आपको यह बताना तो भूल गई कि यह रंजन वही था जिसने ट्रेन में मेरे गले का हार उतारने का प्रयत्न किया था।'

'मैं तो उसी दिन....।' और वह चुप हो गए।

भगवान की करनी भी ऐसी हुई जो मैंने इतने साहस से काम लिया। यदि मैं चीख पड़ती और दूसरे यात्रियों को पता लग जाता तो भैया का क्या होता?

'जेल, और क्या?'

'हां बाबा।' कुसुम बहुत धीमे स्वर में बोली और दूसरे कमरे में चली गई।
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इस प्रकार दिन बीतते गए। रंजन ने अपना वायदा पूरा न किया और न आया। कुसुम ने सोचा, बाबा सच ही कहते थे कि उसने केवल मेरा मन रखने के लिए मुझे वचन दे दिया। ऐसे मनुष्य का क्या विश्वास? रात्रि का समय था। कुसुम सो रही थी। किसी की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ी। उसने बाबा के कमरे में कुछ शोर-सा सुना। पहले वह डरी, फिर साहस करके वह धीरे-धीरे पग बढ़ाती दरवाजे तक पहुंची और कान लगाकर सुनने लगी। दूसरी आवाज रंजन की थी। बाबा कह रहे थे "किसी और वक्त आ जाते। इस समय आधी रात को आने का मतलब?'

'चोर और डाकुओं के लिए तो रात ही है जो किसी सेठ से मेल-मुलाकात कर सकें। दिन के समय तो आराम करना होता है।'

'या उल्लुओं की भांति मुंह छिपाना होता है। अपने-आपको ऐसे नीच पेशे का सरदार कहते तुम्हें लज्जा न आती होगी?'

'लज्जा तो आपने बचपन में ही उतार ली।'

'निर्लज्जता की भी कोई सीमा होती है।' ।

'आप ही की दी हुई शिक्षा पर चल रहा हूं।'

'बेहूदगी छोड़ दो और मतलब की बात करो। ऐसा क्या काम आ पड़ा जो तुम इतनी रात गए...।'

'हां, कहिए। मतलब की बात करो। मैं तो जल्दी में हूं और आप भी।'

'कहो, क्या कहना चाहते हो?'
आप यह जानते ही हैं कि मैं आपका नालायक बेटा हूं और आपको मुझसे कोई आशा नहीं जो एक बाप को अपने होनहार बेटे से होती है। आपको तो मुझसे हानि का ही भय है
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'मैं तुम्हारी बुद्धिमानी की प्रशंसा करता हूं जो तुम यह सब कुछ समझते हो।'

'और यह भी हो सकता है कि आप मुझे नालायक बेटा ठहराकर अपनी जायदाद से अलग रखने की चिंता में हों।'

'इसमें क्या संदेह है? तुम्हारा और मेरा रास्ता अलग-अलग है। न मैंने तुम्हें कभी किसी बात से रोका है और न तुम्हें मेरे कामों में बाधा डालने का अधिकार है।'

'परंतु मैं अपने कामों में तो दखल दे सकता हूं?'

'आखिर तुम चाहते क्या हो?'

'इससे पहले कि आप मेरे अधिकार छीने, मैं अपना जीवन बदल लेना चाहता हूं।'

'वह कैसे?'

'इस तरह चोरों की तरह छिप-छिपकर रहने से तो यही अच्छा होगा कि मैं अपनी जमींदारी संभाल लूं।'

'परंतु तुम जो सपना देखना चाहते हो वह कभी पूरा न हो सकेगा।' राज ने क्रोध में कहा।

'वह पूरा होकर रहेगा।' रंजन ने पैर फर्श पर पटकते हुए कहा।

'मेरी इच्छा के बिना तुम कुछ नहीं कर सकते।'

'शायद आप भूल रहे हैं कि यह जायदाद पैतृक है। आपकी संपत्ति नहीं। मैं अपना अधिकार मांगता हूं। भीख नहीं।'

'भीख मांगी होती तो शायद दया करके दे ही देता। परंतु अब मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं।'
 
'पिताजी, मैं नहीं चाहता आपकी यह वर्षों से बसी हुई हवेली और यह लहलहाती बस्ती मेरे हाथों से नष्ट हो। आपकी और मेरी भलाई इसी में है कि आप मेरा अधिकार मुझे सौंप दें।'

'तुम कौन होते हो मेरी जायदाद के इस प्रकार टुकड़े करने वाले?'

'आपका बेटा।'

'मेरे लिए तो मेरा बेटा मर चुका। अब तेरा मेरा कोई संबंध नहीं।'

'आप ऐसा समझ सकते हैं, कानून यह नहीं मान सकता।'

'परंतु कानून तुम जैसे अपराधी की सहायता करने से पहले तो तुम्हें बड़े घर की हवा खिलाने ले जाएगा।'

'आपको इसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं। मैं अपना धंधा भली प्रकार समझता हूं।'

'और यदि मैं न मानूं तो?'

'मुझे कोई अनुचित काम करने का अवसर न दीजिए।'

'यदि इज्जत का ध्यान है तो ऐसा बेहूदा सवाल तुमने मुझसे क्यों किया?'

'यह एक व्यक्तिगत बात है। अपने लिए मनुष्य क्या नहीं करता और फिर मुझ-सा गिरा हुआ मनुष्य!'

'व्यर्थ की हठ मत करो। तुम्हें इस प्रकार कुछ नहीं मिल सकता।'

"क्या यह आप कह रहे हैं? जमींदार साहब, आप ही तो कहा करते थे कि मैंने जीवन में कभी हार नहीं मानी। चाहे ठीक हो, चाहे गलत, सदा ही अपने प्रयत्न में सफल रहा हूं।'

राज बाबू यह सुनकर चुप हो गए और सोचने लगे कि रंजन ठीक ही तो कहता है। मैं भी तो अपनी हठ के लिए सदा इसी प्रकार अकड़ता रहा हूं। यदि मैंने डॉली को पाने के लिए नीच मार्ग अपना लिए थे, अपने-आपको एक भला आदमी समझकर तो रंजन जैसे मनुष्य के लिए क्या कठिन है? वह यह सोचकर यकायक डर गए और लुकाछिपी नजरों से रंजन को देखने लगे। बिल्कुल उन्हीं का चित्र था जो अपने पिता की भांति एक चट्टान-सा उनके सामने खड़ा था। अब क्या होगा? यह उसे क्यों कर अपने रास्ते से हटाएं? कुछ सूझता नहीं था उनको।

'क्यों पिताजी, किस सोच में पड़ गए?' रंजन ने मौन भंग करते हुए कहा।

'सोच कैसी? तुम्हारी अशिष्टता पर हंसी आती है।' उन्होंने फीकी-सी हंसी होंठों पर लाते हुए उत्तर दिया।

"हंसी आती है या चक्कर आ रहे है?'

यह सुनकर राज बाबू फिर गंभीर हो गए और गुस्से में भरे रंजन की ओर देखते हुए बोले, 'धूर्त कहीं का। देखो, जायदाद का बंटवारा तो मैं किसी भी दशा में नहीं कर सकता। यदि चाहो तो अपने अधिकार का मूल्य कुछ नकद रुपयो में ले लो और अपना संबंध सदा के लिए मुझसे अलग कर लो।'

'मुझे स्वीकार है, कहिए क्या दीजिएगा?'

"पांच हजार।'

'आप नीलामी की बोली दे रहे हैं या मेरी कीमत?'

'तुम्हारी कीमत।'

'तो इसे अपनी पहली किस्त समझिए।'

'नहीं। पूरा भुगतान।'

‘परंतु मेरे भुगतान के लिए तो ऐसे कई पांच हजार आवश्यक

'इतनी तो आमदनी नहीं जितना तुम लेना चाहते हो।'

'आमदनी नहीं, परंतु तिजोरियां तो भरी पड़ी हैं, अगर वे खाली हो गई तो मैं अपनी पेंशन लेना बंद कर दूंगा।'

'यह न भूलो कि कुसुम अब बड़ी हो गई है और मुझे उसकी शादी का प्रबंध करना है।'

'मुझे और किसी से क्या सरोकार। मुझे तो मेरा हिस्सा चाहिए।'
'जान पड़ता है कि तुम मेरी लाचारी का दुरुपयोग करना चाहते हो।'

'यह तो आप भली प्रकार समझते हैं। धमकियों का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं होता।'
'कहो, तुम्हारा अपना क्या विचार है?'

"बीस हजार।'

'असंभव।'

'आप यह न भूलिए कि मैं एक लुटेरा हूं और मेरा एक इशारा आप लोगों की तिजोरियां खाली कर देने के लिए बहुत है।'

'मेरे जीते-जी किसका साहस है जो उन्हें हाथ लगाए?'

'सामना करने में आपके प्राणों का भी भय है और उस अवस्था में मैं सारी जायदाद का मालिक बन सकता हूं।'

'रंजन!' राज बाबू क्रोध में चिल्लाए।

'अशिष्टता के लिए क्षमा! इस समय रंजन नहीं, राजू लुटेरा बोल रहा है।'

राज बाबू की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा और वह अपना सिर पकड़े पलंग पर बैठ गए। थोड़ी देर बाद बोले, "रंजन अब तुम जाओ और मुझे सोचने के लिए समय दो।'

'अधिक समय नहीं दे सकता जिसमें आपको कोई कानूनी कार्यवाही करने का अवसर मिल जाए।'
 
कुछ देर चुप रहकर राज बाबू ने कहा, 'तो परसों संध्या समय ठीक सात बजे अंधेरा होते ही अपने प्रश्न का उत्तर ले जाना।'

'बहुत अच्छा। परंतु ध्यान रहे कि यदि किसी प्रकार की चालाकी करने का प्रयत्न किया तो मुझसे बुरा कोई न होगा।'

'अब तुम जाओ।' रंजन मुस्कराया। उसने खिड़की से बाहर छलांग लगा दी और थोडी देर तक घोडे की टापों की आवाज़ सुनाई देती रही जो धीरे-धीरे दूर होती गई। राज बाबू का दिल बैठा जा रहा था और वह चकराकर पलंग पर गिर पड़े।

कुसुम ने देखा कि रंजन के जाने के बाद कमरे में सन्नाटा छा गया है। धीरे-से दरवाजा खोलकर वह कमरे में आई और बाबा के पलंग की ओर बढ़ी। पास जाकर उसने कहा, 'बाबा, बाबा, क्या बात है?'

'कुछ नहीं बेटा, ऐसे ही भाग्य का खेल है।' और यह कहकर राज बाबू ने कुसुम को छाती से लगा लिया और उसके बालों पर प्यार भरा हाथ फेरने लगे। कुसुम बाबा की छाती पर सिर रखकर जोर-जोर से रोने लगी।

'अरे, इसमें रोने की क्या बात है। तू चिंता न कर, बाबा के होते तुझे कोई दुःख नहीं पहुंचेगा।'
'मुझे अपने दुःख की चिंता नहीं बाबा। रंजन के कारण आप....।'

'वह पागल क्या करेगा। तुम इसकी चिंता न करो।'

'नहीं बाबा, मैं सब सुन चुकी हूं। वह अब आपके काबू से बाहर है और किसी भी समय आपको हानि पहुंचा सकता है।'

"तुम ठीक कहती हो। अब तुमसे क्या छिपाऊं। मैं भी बहुत घबरा-सा गया हूं। समझ नहीं आता कि क्या करू?'

'आप उसे थोड़ा-सा हिस्सा देकर सदा के लिए जान छुड़ा लें। कुछ बदनामी अवश्य है परंतु तबाही से तो अच्छा है।'

'कुसुम, तुममें अनुभव की बहुत कमी है और तुम उस लड़के को नहीं समझतीं। अपना हिस्सा लेने के बाद भी वह हमें कभी चैन से न बैठने देगा।'

'तो फिर रुपया ही देकर जान छुड़ाएं।'

'रुपया। वह तो अपनी पेंशन समझकर मुझसे जब चाहेगा ले लेगा।'

"तो फिर क्या किया जाए?'

'जाओ, अब तुम सो जाओ। रात बहुत बीत चुकी। सवेरे देखा जाएगा।'

बाबा का आदेश सुन कुसुम अपने कमरे में चली गई। परंतु सारी रात दोनों को नींद न आई। कुसुम सारी रात सोचती रही। चंद्रपुर की इस छोटी-सी आबादी में उसका हितैषी है भी कौन जिसके सामने वह अपना दुखड़ा रो सके? और अचानक उसे शंकर का ध्यान आया। उसे ऐसा लगा मानों शंकर अपना निजी है। बाबा और उनमें बहुत जान-पहचान भी है और घरेलू बात में भी एक-दूसरे की बातें उन्हें मालूम होती हैं। परंतु लगता है किसी कारण आपस में बिगड़े हुए-से हैं। उस दिन की बातचीत से तो यही प्रकट होता था। यदि वह उनसे मिले तो शायद कुछ बात बन सके। सवेरा होते ही जब राज बाबू बाहर गए तो कुसुम भी तैयार होकर उनके पीछे-पीछे शंकर के घर जा पहुंची। शंकर ने कुसुम को आते देखा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। वह एकटक कुसुम की ओर देखता रहा।

'आप सोच रहे होंगे कि मैं यहां कैसे आ पहुंची?' कुसुम ने कहा।

'नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। तुम्हारा अपना ही तो घर है। तुम क्या जानो मैं तुम लोगों के कितना समीप था। उस समय तुम बच्ची थीं।'

'यही सोचकर तो मैं आई हूं।'

'क्या?'

'आप हमारे पुराने हितैषी हैं और....।' कुसुम कहते-कहते रुक गई।

शंकर ने यह देखकर कहा 'कहो-कहो... रुक क्यों गई?'

'और आप मुझे... नहीं, हमें एक विपत्ति से बचाएंगे।'

'कहो, ऐसी क्या बात है? जमींदार साहब तो....।'

'घबराने की कोई बात नहीं। सब कशल है। जरा....!' कसम ने चारों ओर देखते हुए कहा।

शंकर ने उसका अभिप्राय समझकर दरवाजा बंद कर दिया और कुसुम के पास आकर बोला, 'कहो, क्या कहना चाहती हो?'

कुसुम ने शंकर से सब बातें कह डालीं। शंकर ने जमींदार साहब की परेशानी को समझा और सोच में पड़ गया कि वह क्या करे। उनकी भूल है या भगवान की इच्छा। परंतु इस सर्वनाश से वह किस प्रकार बच सकते हैं। यदि बंटवारा कर दें तब भी मुसीबत और यदि अस्वीकार कर दें तब भी रंजन उन्हें चैन से न बैठने देगा। बहुत सोच-विचार करने के बाद उसने कुसुम को रंजन के पास जाने की सलाह दी।

'परंतु वह कभी न मानेगा।' कुसुम ने कहा।

'प्रयत्न करने में क्या हानि है! हो सकता है कि तुम्हारे वहां जाने से उसका विचार बदल जाए।'

'यदि आप ऐसा सोचते हैं तो मैं जाने को तैयार हूं।' कुसुम रंजन के पास गई।
 
शंकर उसी समय घोड़ा लेकर स्टेशन पहुंचा और डॉली को तार द्वारा यह सूचना दे दी कि चाहे जिस प्रकार भी हो, वह अगले दिन संध्या तक चंद्रपुर पहुंच जाए।

राज बाबू जब घर लौटे तब तक कुसुम वापस न आई थी। वह समझ गए कि हो न हो कुसुम अवश्य रंजन के पास गई होगी। परंतु इस अबोध बालिका की बात वह कब मानने वाला है। यदि डॉली यहां होती तो शायद वह कहना मान लेता।

'मालिक!'

'ओह! हरिया, क्या?'

'खाना लाऊं?'

'अभी भूख नहीं है। कुछ देर ठहरो, कुसुम को आ जाने दो।'

'वह तो अपने कमरे में है।'

'मैं तो अभी देखकर आया हूं।'

'वह अभी आई हैं और सीधी अपने कमरे में चली गई हैं।'

'अच्छा।' यह कहते हुए राज बाबू बारहदरी से होते हुए कुसुम के कमरे में पहुंचे। कुसुम सामने की कुर्सी पर मूर्ति की भांति मौन बैठी थी। बाबा को देखते ही खड़ी हो गई।

'क्यों बेटा, निराश वापस आना पड़ा?' कुसुम बाबा की छाती से लगकर रोने लगी।

'इसमें रोने की क्या बात है? मूर्ख न बनो। मैं तो पहले से ही जानता था कि वह हमारे वश से बाहर है।'

'परंतु अब क्या होगा?'

'होना क्या है। वह मुझसे कुछ नहीं ले जा सकता। यह रुपया लेने की बात उसकी धमकी मात्र है, परंतु मैं आज तक इन धमकियों से कभी नहीं डरा।'

'परतु बाबा, इस बार उसके इरादे ठीक नहीं जान पड़ते। वह अपने साथियों के कहने पर सब प्रकार के अत्याचार करने में भी संकोच न करेगा।'

'शायद वह यह नहीं जानता कि मैं भी अधिक अत्याचार कर सकता हूं।'

"परंतु आप उसका सामना किस प्रकार करेंगे? वह तो कहता है कि यदि बाबा ने मेरे साथ कोई छल करने का प्रयत्न किया तो उनकी बनाई हुई नगरी और घास के सब खेत फूंककर रख दूंगा।'

'अच्छा! वह अब इन बातों पर भी उतर आया है। हरिया!' उन्होंने गरजते हुए हरिया को बुलाया। हरिया दौड़ा-दौड़ा आया।

'जाओ, मुनीमजी को बुला लाओ।' राज बाबू क्रोध में भरकर अपने कमरे में चक्कर लगाने लगे। उनकी आंखें अंगारे बरसा रही थीं। उनके माथे पर बल आते और मिटते थे। कुसुम यह देख घबरा गई। न जाने क्या विपत्ति आने वाली है, उसने सोचा। कुछ देर तो वह उसी
प्रकार बाबा को देखती रही, फिर साहस करके बोली 'मुंह-हाथ धो लीजिए। खाना ले आऊं?'

'मुझे भूख नहीं। तुम जाओ, खा लो।'

'थोड़ी सी....।'

'कह तो दिया कि मुझे भूख नहीं...।'

'अच्छा....।' और कुसुम चुपचाप कमरे में चली गई। थोड़ी देर में मुनीमजी आ पहुंचे और बोले, 'कहिए, क्या आज्ञा है?'

कुसुम दबे पांव अंदर आ गई। 'देखो सवारी का प्रबंध करो। मैं अभी शहर जाना चाहता
'परंतु अचानक...।'

'बहस के लिए मेरे पास समय नहीं है। कचहरी बंद होने से पहले ही मझे वहां पहुंचना है।'

'आप मालिक होने के साथ ही मेरे बड़े मालिक के बच्चे भी है और मैंने बच्चे की भांति आपको पाला है।'

'तो मैंने तुम्हारे साथ ऐसा कौन-सा अन्याय किया है जो इस परेशानी के समय दोहराना चाहते हो?'

"ऐसी कोई बात नहीं है परंतु मैं आपको ऐसे संकट में न जाने दूंगा।'

'कैसा संकट?'

'रंजन ने चारों ओर अपने आदमी छोड़े हुए हैं, ताकि आप चंद्रपुर से बाहर न जा सकें।'
'अच्छा, यह बात है। वह मुझसे भी अधिक चतुर हो गया है। अभी-अभी कुसुम के हाथ संदेश भेजा है कि यदि मैंने किसी प्रकार का छल करने का प्रयत्न किया तो वह मेरे खेतों को जलाकर राख कर देगा। वह मूर्ख क्या जाने कि मैं तो घाट का एक पत्थर हूं। मेरे साथ सिर फोड़कर उसे कुछ न मिलेगा।'

'परंत मालिक,दश्मनों का क्या भरोसा? भगवान न करे, ऐसा कांड हो गया तो फिर क्या होगा? सारी घास सूख चुकी है और कटने ही वाली है।'

'तुम इसकी चिंता मत करो। घर फूंककर तमाशा देखने में जो आनंद आता है वह लुटाने में नहीं। मैं जीवन में कभी हारा नहीं, न ही इस समय झुडूंगा, समझे?' । राज बाबू यह कहकर जोर-जोर से हंसने लगे।

मुनीमजी और कुसुम उनके मुख की ओर देख रहे थे। अब वह लाल चेहरा कुछ-कुछ काला पड़ता जा रहा था। कितनी भयानक हंसी थी वह!
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सवेरा हुआ तो घर वालों ने उन्हें बरामदे की सीढ़ियों पर बैठा पाया। परंतु किसी में इतना साहस न हुआ कि उनसे कारण पूछ ले। बहुत देर तक वे इसी प्रकार स्थिर बैठे रहे। जब सूरज बहुत चढ़ आया तो कुसुम उनके पास आकर बोली, 'नहाने के लिए पानी तैयार है।'

'कुसुम तुम मेरा कितना ध्यान रखती हो।' वह कुसुम का हाथ थामकर बोले और मुस्कराते हुए देखने लगे।

'और आप हैं कि अपना बिल्कुल ध्यान ही नहीं रखते।'

'वह कैसे?'

"देखिए न, आप सारी रात सोए ही नहीं।'

'नींद! वह तो हमसे रूठ गई है। हमने लाख चाहा कि लौटकर आ जाए परंतु वह एक है कि अपनी हठ पर अड़ी हुई है, कुसुम तुम्हारी मां भी इस नींद की भांति थी जो रूठकर चली गई और वापस न लौटी। वह मुझे पत्थर समझती थी और ऐसा समझते-समझते अपने आप ही पत्थर बन बैठी।'

'परंतु, इसमें उनका क्या दोष है, भला भगवान के घर....।'

'कुसुम, ऐसा न कहो मेरे लिए वह अब भी जीवित है।'

'भले मनुष्य सदा ही जीवित रहते हैं, बाबा!'

राज बाबू चुप ही रहे और उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। 'चलिए पानी तैयार है और जलपान को देर हो रही है। आपने कल से कुछ भी तो नहीं खाया।'

'तुमने भी तो....।'

'भला मैं कैसे खा लेती?'

'अच्छा चलो, आज तुम जलपान के लिए सब सामान अपने हाथ से तैयार करो।' यह कहकर राज बाबू स्नानागार की ओर बढ़े, 'देखना कोई भी कमी न रह जाए। कल से भूखा हूं।'

कुसुम बाबा की आज ऐसी अनोखे ढंग से बातें सुनकर हैरान हो गई। आज वह प्रसन्न क्यों हैं। उन्हें तो चिंतित होना चाहिए था। आज संध्या को तो उन्हें एक भयंकर विपत्ति का सामना करना है। उसकी समझ में कुछ न आया। वह रसोई में गई और काम में लग गई। जमींदार साहब थोड़ी देर बाद स्नान करके आ गए और कुसुम ने जलपान की सामग्री मेज पर सजा दी। कुसुम ने अनेक प्रकार के भोजन बना लिए थे। उसके मुख की ओर देखते हुए बोले, 'तो क्या तुम मेरा साथ न दोगी?'

'क्यों नहीं!' और वह साथ ही कुर्सी पर बैठ गई। दोनों ने जलपान आरंभ कर दिया। जमींदार साहब ने आज जी-भरकर खाया। उन्होंने देखा कि कुसुम कुछ नहीं खा रही थी, केवल बार-बार उनकी ओर देख लेती थी।

'क्यों बेटा, खाना क्यों बंद कर दिया?'

'बस खा चुकी बाबा! मुझे इतनी ही भूख थी।'

'तुम आजकल की छोकरियां तो चिड़ियों का-सा पेट रखती हो, दो कौर खाए कि पेट भर गया।' कुसुम हंसने लगी। वह आज बाबा को एक नए ही रंग में देख रही थी।

कुछ देर में बाबा फिर बोले, 'जी भरकर खा लो। शायद आज इस हवेली में हमारा यह अंतिम जलपान है।'

'बाबा, यह आप....।'

'ठीक कह रहा हूं। शाम के सात बजे। उसके बाद पता नहीं क्या हो।'


'क्यों, आपने क्या सोचा है?'

वह कुर्सी से उठे और हरिया उनके हाथ धुलाने लगा। बाबा मौन थे, मानों कुसुम का प्रश्न उन्होंने सुना ही नहीं। कुसुम ने देखा अब उनके चेहरे का रंग फिर बदल रहा है। चेहरे की
आभा कालेपन में बदलती जा रही है। वह सहम गई और उसने अपना प्रश्न दोहराना उचित न समझा। जब वह हाथ धो चुके तो उन्होंने हरिया से मुनीमजी को बुलाने के लिए कहा और कुसुम को अंदर आने का इशारा करके अंदर कमरे में चले गए।

कुसुम भी दबे पांव बाबा के पीछे-पीछे कमरे में गई।

'तो तुम क्या पूछ रही थीं?'

'कुछ नहीं....।' कुसुम ने घबराते हुए उत्तर दिया।

'मुझे अपने पुत्र का स्वागत किस प्रकार करना है?' वह अलमारी की ओर बढ़े और उसमें से अपनी बंदूक निकाली।

कुसुम यह देखकर भयभीत हो उठी। वह बंदूक संभालते हुए बोले, 'डर गई, घबराओ नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।'

"परंतु आप....।'

इतने में मुनीमजी भी आ पहुंचे।

आज हम इस हवेली को सदा के लिए छोड़ रहे हैं।

'क्यों क्या बात है?' मुनीमजी ने आते ही पूछा।

'मैंने सारी जायदाद रंजन के नाम करने का निश्चय किया है।'


'यह आप क्या कर रहे हैं?'

'जो कुछ कर रहा हूं ठीक ही कर रहा हूं। इससे पहले कि वह इसे लूटकर ले जाए, मैंने यही उचित समझा कि सब कुछ उसको सौंप दूं।'

'आप एक बार फिर सोच-विचार....।'
 
'मुनीमजी, आप जानते हैं कि मेरा प्रत्येक निश्चय अटल होता है

'जी।'

'यह लो तिजोरी की तालियां और दरवाजा खोलो।'

मुनीमजी ने कांपते हाथों से तालियां पकड़ी और धीरे-धीरे तिजोरी की ओर बढ़ने लगे। बड़ी कठिनता से वह तिजोरी के पास पहुंचे और तिजोरी का दरवाजा खोल दिया। जमींदार साहब ने तिजोरी के पास जाकर उसमें से नोटों का एक पुलिंदा निकाला और बोले 'यह पूरे पंद्रह हजार हैं। जिन व्यापारियों से पेशगी रुपया लिया हुआ है उन्हें वापस कर दो। यह लो पांच हजार तुम्हारी सेवा का पुरस्कार!'

'मालिक, आप यह सब क्यों कर रहे हैं?'

'सब ठीक कर रहा हूं। देखो सायंकाल ठीक छ: बजे घोड़ागाड़ी तैयार रहे परंतु नदी के किनारे सड़क पर।' राज बाबू ने फिर तिजोरी से कागजात निकाले और उन्हें खोलते हुए बोले, 'मैंने दस्तखत कर दिए हैं, गवाही तुम भर दो और शाम को जब रंजन आए तो ये सब उसके हवाले कर देना ताकि जायदाद पर वह अधिकार पा सके।'

मुनीमजी ने भी कागजात ले लिए और पढ़ने लगे। उनमें सब जायदाद रंजन के नाम कर दी गई थी। वह आश्चर्यचकित थे कि आज जमींदार साहब यह क्या कर रहे हैं, परंतु उनसे पूछे कौन?

'क्यों मुनीमजी, कुछ और पूछना है?'

'नहीं तो मालिक, अच्छा मैं चलता हूं।'

"देखिए, खेतों में घास कटने लगी कि नहीं।'

'आज सवेरे से ही शुरू की है।'

"बंद करवा दो और सबका हिसाब चुका दो। देखो, शाम को पांच बजे से पहले सब मजदूर खेतों को खाली कर दें और गाड़ी....।'

'मुझे याद है। नदी किनारे वाली सड़क पर...।'


और मुनीमजी जल्दी-जल्दी कमरे से बाहर चले गए। जमींदार साहब ने कुसुम को, जो बिल्ली की भांति दुबकी एक कोने में खड़ी यह सब तमाशा देख रही थी, पास बुलाया और तिजोरी के निचले खाने से एक बंद डिब्बा निकालते हुए बोले, 'कुसुम, यह धरोहर जो आज इतने समय से मैंने संभाल कर रखी है, तुम्हारी मां जाते समय दे गई थी कि कुसुम जब ससुराल जाने लगे, उसे दे देना, सो संभाल लो। ससुराल जाने में तो अभी देर है।'

'कुसुम ने डिब्बा हाथ में ले लिया।'

'और यह नकदी एक मजबूत डिब्बे में सावधानी से रख लो। अब हमारी तो यही पूंजी है।' और जब राज बाबू के नोटों के बंधे हुए पुलिंदे को खींचा तो उसके साथ पड़ा एक चित्र पृथ्वी पर आ गिरा। कुसुम ने उसे उठा लिया। 'बाबा यह....।' 'आप तो कहते थे उनका कोई चित्र....' 'कहीं इस चित्र की भांति आपने मेरी मां को भी कहीं छिपा तो नहीं रखा?'

'कुसुम....!' वह जोर से चिल्लाए और दूसरे कमरे में चले गए। कुसुम ने समझा शायद उसने यह बात कहकर भूल की। वह बाबा के पास जाकर अपनी भूल के लिए क्षमा मांगने लगी।

'नहीं कुसुम, ऐसी कोई बात नहीं है। दिमाग मेरा ही कुछ....।'

'इतनी परेशानी में दिमाग भला क्या काम करे....!' कुसुम ने बात काटते हुए कहा।

"तुम ठीक कहती हो। अच्छा जल्दी से अपना सामान तैयार कर लो, समय बहुत कम है।'
 
घड़ी की सुइयां बराबर बढ़ती जा रही थीं। कुसुम के हृदय की धड़कन भी तेज होती जाती थी और साथ ही जमींदार साहब के चेहरे का रंग भी समय के साथ-साथ भयानक आकार धारण करता जा रहा था। पांच बजने में थोड़ी देर थी कि मुनीमजी आ गए। जमींदार साहब का सामान तैयार था। घोड़ा गाड़ी भी तैयार थी। जमींदार साहब ने पूछा, 'सब काम ठीक हो गया।'


'जी आपकी आज्ञा का पूरा-पूरा पालन हुआ है। रुपया बांट दिया गया है और खेतों में सबको छुट्टी दे दी गई है।'

'किसी को यह तो नहीं पता लगा कि यह सब क्यों हुआ?'

'पूछा तो सबने परंतु टाल दिया गया।'

'बहुत अच्छा। जल्दी से सामान गाड़ी में लदवा दो।'

मुनीमजी, हरिया और कोचवान ने जल्दी से सामान उठाया और नीचे ले जाने लगे। जब सब सामान नीचे चला गया तो जमींदार साहब बोले, 'मुनीमजी, आप कुसुम को साथ लेकर नीचे चलिए, मैं अभी थोड़ी देर मैं आता हूं।'

'मेरे योग्य कोई सेवा हो तो बताइए।'

'वह काम तुम्हारे वश का नहीं।'

जब मुनीमजी कुसुम को साथ लेकर नीचे गए तो राज बाबू ने हवेली के चारों ओर अपनी दृष्टि दौड़ाई। हवेली की प्रत्येक दीवार उदास खड़ी थी। दूर कोने में उनकी दृष्टि हरिया पर जाकर रुक गई। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। राज बाबू यह देखकर पास गए और बोले, 'क्यों हरिया, ये आंसू कैसे?'

'मालिक' और वह फूट-फूटकर रो पड़ा।

'हरिया, मुझे क्षमा कर दो। मैं तो तुम्हें भूल ही गया था।'

'मालिक, मेरा क्या होगा?'

'तुम हमसे अलग नहीं हो सकते। जाओ, नाचे गाड़ी खड़ी है
'हरिया के मुख पर प्रसन्नता की एक लहर दौड़ गई।' 'सच मालिक!'

राज बाबू यह देखकर मुस्करा दिए और हरिया दौड़ा हुआ पहाड़ी के नीचे उतर गाड़ी की ओर लपक गया।

राज बाबू ने घड़ी की ओर देखा। सात बजने में पच्चीस मिनट बाकी थे। वह जोर से चिल्लाए, 'राहू', 'साहू' और उस आवाज के साथ ही दो व्यक्ति, लंबे-चौड़े सीना ताने ड्योढ़ी से निकल उनकी ओर बढ़ने लगे। उनके पास आकर वे रुक गए और बोले, 'जी सरकार! उनकी गर्दन झुक गई थीं।'

'सब तैयारी है ना?'

'जी सरकार!'

तो राहू तुम खेतों की ओर जाओ और साहू तुम हवेली में। यह कहकर राज बाबू ड्योढ़ी से बाहर निकल नीचे सड़क की ओर जाने लगे। वे मुड़-मुड़कर हवेली की ओर देख लेते। नीचे नदी बह रही थी। उन्हें ऐसा लगता था मानों मुंडेर पर डॉली खड़ी उन्हें विदा दे रही हो। अब वह संसार छोड़कर जा रहे थे परंतु फिर भी उन्हें कोई दुःख न था और न ही उनके मुख पर किसी प्रकार की उदासी थी।


जमींदार राज गाड़ी के पास पहुंचे। कुसुम, हरिया उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। सब गाड़ी में बैठ गए। जमींदार साहब मुनीमजी को मौन देखकर बोले, 'मुनीमजी, कोई ठिकाना बन गया तो शीघ्र ही बुला लूंगा। आप चिंता न करे। कठोर हृदय अवश्य हूं परंतु कृतघ्न नहीं।'

'मालिक आपके एहसान....।'

'जाने दो इन बातों को, मेरे पास समय बहुत कम है। देखो रंजन को सब कागजात दे देना, ठीक सात बजे।'

'बहुत अच्छा ।'

"तो चलूं हजूर!' कोचवान ने घोड़े की बाग हाथ में लेते हुए कहा।

'नहीं, अभी थोड़ी देर बाकी है।' इतने ही में जोर का धमाका हुआ और हवेली का मुंडेर उड़ता हुआ दिखाई दिया। धीरे-धीरे हवेली की मजबूत दीवारें गिरती हुई दिखाई देने लगीं। धमाका इतने जोर का हुआ कि सबका हृदय दहल गया और सब चुपचाप एक दूसरे का मुंह देखने लगे। यह क्या हो गया? कुछ मिनटों में ही घास के खेतों में आग की लपटें उठने लगीं। इसके साथ ही राज बाबू ने कोचवान को चलने की आज्ञा दे दी और गाड़ी नदी के किनारे-किनारे दौड़ती दिखाई दी। थोड़ी ही देर में आग की लपटें आकाश से बातें करने लगी।

मुनीमजी ने देखा कि एक तेज चाल वाला घोड़ा उनकी ओर बढ़ा चला आ रहा है। उन्होंने समझा वह रंजन है। वह डर गए और इधर-उधर छिपने के लिए जगह टटोलने लगे, परंतु इससे पहले ही सवार उनके बिल्कुल पास पहुंच गया। यह देखकर उन्हें धैर्य हुआ कि वह शंकर था। आते ही मुनीमजी से उसने पूछा, 'राज बाबू कहां हैं?'

'घोड़ा गाड़ी में कुसुम को साथ लेकर शहर की ओर गए हैं।'

"कितनी देर हुई है?'

'बस थोड़ी ही देर हुई है। क्यों क्या बात है?'

"उनके प्राण संकट में हैं।' यह कहते हुए शंकर ने घोड़े को एड़ लगाई और नदी किनारे-किनारे हो लिया।

राज बाब की गाडी थोडी ही दर गई थी कि उन्हें पता लगा कि उस सड़क पर रंजन के आदमियों ने घेरा डाला हुआ है। उन्होंने गाड़ी को वापस मोड़ लिया और खेतों की बीच वाली सड़क पर आ गए।

घोड़े तेजी से बढ़े जा रहे थे। खेतों की आग से सारा चंद्रपुर लाल दिखाई दे रहा था। हवेली की ड्योढ़ी आग के प्रकाश में साफ दिखाई दे रही थी। ड्योढ़ी के अतिरिक्त हवेली के कई द्वार मिट्टी के ढेर हो चुके थे। शंकर के अस्तबल के घोडे व्याकल होकर आग और उसकी गर्मी से दर भाग रहे थे। वृक्षों पर पक्षी, जो अभी-अभी अपने घोंसलों में लौटे थे, अपने पर फैलाकर दूर उड़ जाने की चिंता में थे।

चारों ओर कोहराम-सा मचा हुआ था। अचानक कुछ घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई दी और थोड़ी देर में राज बाबू की गाड़ी घुड़सवारों ने घेर ली। राज बाबू ने अपनी बंदूक संभाली। कुसुम डरकर उनसे लिपट गई। उन्होंने उसे तसल्ली देते हुए अलग किया और गाड़ी से बाहर निकले। सामने रंजन घोड़े से उतरकर खड़ा था। सूरज छिपने वाला था परंतु जलते खेतों के प्रकाश में ऐसा जान पड़ता था मानों अभी-अभी दिन निकला हो। रंजन के दहकते हुए चेहरे पर राज ने एक नजर डाली और गरजकर बोले, 'कहो और क्या चाहिए जो इतना कष्ट किया?'
'शायद आपकी घड़ी सात बजा चुकी।'

'अभी तो बीस मिनट बाकी हैं।' उन्होंने घड़ी पर दृष्टि डालते हुए कहा।

'तो यहां से इतना जल्दी भागने की क्या आवश्यकता थी?'

"मेरा काम समाप्त हो गया था।'

'परंतु मेरा काम तो अभी शुरु भी नहीं हुआ।'

"उसमें अभी बीस मिनट बाकी हैं।'

'तब तक आप यहां से बहुत दूर निकल चुके होते।'

'तुम्हें इससे क्या? मैं तुम्हारा गुलाम नहीं। सात बजे हवेली तक पहुंच जाओ, मैंने कागजात दस्तखत करके मुनीमजी को सौंप दिए हैं।'

'क्या?'

'अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम कर दी है, जाओ मौज करो।'
 
'मौज इन घास के अंगारों पर या हवेली के ढेरों पर?' 'परंतु आप यह भूलते हैं कि मैं एक डाकू हूं और इन बंजर जमीनों से मुझे कुछ लाभ नहीं। न मैं यहां बैठकर इन्हें फिर से बसा सकता हूं कि कब फसल पके और मेरी झोली में रुपयों की वर्षा हो।'

'मैं इसका जिम्मेदार नहीं, जो कुछ था वह मैंने दे दिया।'

'आप घबराएं नहीं। मैं आपके पास कोई शिकायत लेकर नहीं आया कि आपने खेतों को क्यों आग की भेंट कर दिया या हवेली को उड़ाकर मिट्टी के ढेर क्यों लगा दिए।'

'तो फिर कौन-सी आवश्यकता तुम्हें यहां खींच लाई?'

'आपका रुपया और गहने जो आप साथ ले जा रहे हैं।'

'इन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। तुम इन्हें छू भी नहीं सकते।'

'भला आप ही सोचिए कि यह उजाड़ बन पैसों के बिना किस तरह आबाद होगा? लगी आग तो बुझानी आखिर मुझे ही है।'

'यह असंभव है।'

'बिना रुपये दिए आप यहां से नहीं जा सकते।'

'इसके लिए तुम्हें अपनी मौत से खेलना होगा।'

"मुझे स्वीकार है। और यह कहकर ही रंजन गाड़ी की ओर बढ़ने लगा। जमींदार साहब ने अपनी बंदूक संभालकर उसकी नली रंजन के सामने कर दी। उनके हाथ कांप रहे थे। रंजन के एक साथी ने धीरे-से उससे कहा, 'पिस्तौल निकाल लो।

'इसकी आवश्यकता नहीं।' उसने उत्तर दिया और धीरे-धीरे अपने बाबा की ओर आने लगा।

राज बाबू हैरान थे कि क्या करें। अपने बेटे को गोली का निशाना बना दें? परंतु वह तो स्वयं ही बिना किसी हथियार के मेरी ओर बढ़ रहा है। उसे विश्वास है कि मैं उसे कभी गोली नहीं मार सकता और यदि मैं गोली न चलाऊं तो वह सब-कुछ लूट लेगा। उसकी तो मुझे कोई चिंता नहीं परंतु मेरे वचन और मर्यादा का प्रश्न है। मेरे जीते-जी वह कैसे गाड़ी को छू सकता है। वचन देकर मैं कैसे हार जाऊं?

एक ओर प्रतिज्ञा और दूसरी ओर कर्त्तव्य। रंजन अब बिल्कुल पास पहुंच चुका था। राज बाबू हैरान थे कि क्या करें। उसी समय ऐसा जान पड़ा कोई व्यक्ति उनके बिल्कुल समीप आकर रुका हो। उन्होंने कनखियों से देखा, यह शंकर था।

राज बाबू गरजकर बोले,'रंजन अब भी संभल जाओ। यह न समझना कि एक बाप अपने बेटे के खून से हाथ नहीं रंग सकता।' रंजन उत्तर में केवल मुस्करा दिया।

'एक बार भली प्रकार फिर सोच लो यह न भूलो कि मैंने अपनी हठ के कारण अपना संसार फूंककर रख दिया है।'

'और आप भी याद रखें कि मैं भी आप जैसे हठी पिता का पुत्र हूं।'

'तो लो तैयार हो जाओ।' उन्होंने बंदूक की नली रंजन के सीने के सामने कर दी और बंदूक के घोड़े पर उंगली रख दी। अभी तक उनका इरादा गोली चलाने का न था। वह इसी आशा में थे कि शायद रंजन टल जाए परंतु.... अचानक गोली चली और कोई व्यक्ति लपककर राज बाबू के शरीर से लिपट गया। गोली की आवाज सुनकर कुसुम की चीख निकल गई और वह गाड़ी से बाहर निकल आई। वह व्यक्ति शंकर था और गोली चलाने वाला रंजन का एक साथी। गोली चलने से पहले ही शंकर राज बाबू के शरीर से लिपट गया और गोली उसकी पीठ में आकर लगी। बंदूक राज बाबू के हाथ से छूटकर भूमि पर आ पड़ी। राज घुटनों के बल नीचे झुका और शंकर को सहारा देते हुए बोला, 'यह तुमने क्या किया?'

'यदि एक मित्र का जीवन बचाने में मुझ-सा अयोग्य व्यक्ति काम आ सका है तो इसे अपना सौभाग्य समझता हूं।'

'एक जीवन बचाने में दूसरा चला गया तो मिला ही क्या?'

'तुम्हारी अभी आवश्यकता है बच्चों को, डॉली को और चंद्रपुर को। मैं तो एक परदेशी हूं, इस संसार में अकेला, मेरा....।' यह कहते-कहते शंकर की आवाज रुकने लगी।

और उसका चेहरा पीला पड़ने लगा। राज ने शंकर की पीठ पर कपड़ा बांधा। 'कोचवान जरा सहारा दो और इन्हें गाड़ी में ले चलो।'

'इसकी.... अब....कोई.... आवश्यकता नहीं।' शंकर ने राज का हाथ पकड़ते हुए कहा। रंजन चुपचाप यह सब देख रहा था। उसने अपने आदमियों को जाने का इशारा किया और शंकर से आकर बोला, 'मैं बहुत लज्जित हूं। यह सब....।'

'इसमें लज्जा की क्या बात है। तुम्हारे हितैषी ने तुम्हें बचाने के लिए गोली चला दी और तुम्हारे बाबा के हितैषी ने उसे बचा लिया।'

'आप मनुष्य नहीं देवता हैं।'

'तो इस देवता की एक अंतिम बात मान लो!' शंकर बहुत धीमे स्वर में बोला। उसकी सांस रुक रही थी।

'कहिए?'

'आपस की सब शिकायतें दूर करके बाबा के गले लग जाओ। यही मेरी अंतिम अभिलाषा है।' शंकर ने रुक-रुककर कहा।

रंजन एक क्षण मौन खड़ा रहा फिर शंकर की ओर उसने देखा और दूसरे ही क्षण वह बाबा के निकट आ पहुंचा। रंजन ने गर्दन नीची कर ली और धीरे-से बोला, 'मुझे क्षमा कर दें।'

राज बाबू ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर शंकर की ओर देखने लगे। शंकर के चेहरे पर हल्की -सी प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी और वह मुस्कराने का प्रयत्न कर रहा था। फिर रुकते-रुकते बोला 'राज, मैंने डॉली को तार दिया था। परंतु वह समय पर न आ सकी। हो सकता है कि ट्रेन न पकड़ सकी हो, मेरी जेब में उसके पत्र हैं जो शायद तुम्हारी गलतफहमी दूर कर सकें। मेरी बहन को निर्दोष....।'

'बस-बस शंकर, मुझे अधिक लज्जित न करो। मेरी गलतफहमी ने मुझे कहीं का न रखा।' ।

'तो क्या हमारी मां अभी जीवित है?' रंजन और कुसुम ने एक साथ पूछा। राज मौन रहा। उसने गर्दन झुका ली।

उसे मौन देखकर शंकर ने कहा, 'बच्चों, तुम्हारी मां अभी जीवित है और जल्दी ही तुम्हें मिल जाएगी। आओ.... मेरे पास आओ... मेरे।' शंकर यह कहते-कहते रुक गया। उसकी सांस फूलने लगी और एक हिचकी के साथ उसकी सांस रुक गई।

राज ने नब्ज टटोली। नब्ज खो चुकी थी। शंकर की आंखें पथरा गई थी, यह देखते ही कुसुम की चीख निकल गई। रंजन ने लपककर गाड़ी में से कुसुम की चादर निकाल ली और शंकर पर डाल दी।
राज बाबू ने उसका सिर नीचे टेक दिया। दोनों बच्चे सहमे से उनकी बांहों में आ गए। उन्होंने आज पहली बार बाबा की आंखों में आंसू देखे। आज राज बाबू वर्षों बाद रोए। उसी समय सबने देखा कि एक मोटर सड़क पर आकर रुकी। सबने उस ओर देखा। दरवाजा खुला और डॉली मुनीमजी को साथ लेकर उतरी। वह शीघ्रता से उनके पास पहुंची। राज ने अपना मुंह दूसरी ओर फेरा और कहा, 'डॉली देर में पहुंची, शंकर तो....।'

डॉली ने जल्दी से शंकर के मुख पर से चादर हटाई और उसके मुंह से लंबी चीख निकल गई। फिर उसके मृत शरीर से लिपटकर रोने लगी। कुछ देर रोने के बाद उठी और राज से बोली, 'यदि आप आज्ञा दें तो मैं इनकी लाश अपने साथ ले जाऊं?'

'डॉली, इसकी आवश्यकता नहीं। यह भार उठाने के लिए मैं अभी जीवित हूं। देखो, तुम्हारे बच्चे तुम्हें किस तरह देख रहे हैं। जाओ और उन्हें मिलो।'

डॉली ने घूमकर देखा। रंजन और कुसुम उसको देख रहे थे। दोनों भागकर डॉली की बांहों में आ गए और वह उन्हें गले लगाकर चूमने लगी। सब मौन एक-दूसरे की ओर देख रहे थे और सबकी आंखों में आंसू बह रहे थे।

तीनों ने मुड़कर राज बाबू की ओर देखा। वह शंकर का शव अपने हाथों में लिए हवेली की ओर जा रहे थे। रंजन और कुसुम ने मां को सहारा दिया और ये तीनों भी उनके पीछे चल दिए।
 
सूरज अपनी सारी किरणें समेट पहाड़ी में छिप चुका था। खेत जलकर राख हो चुके थे और उठता हुआ धुआं सारे आकाश पर छा रहा था। दूर पेड़ की टहनी पर एक पक्षी उसी समय आकर घोंसले पर बैठ अपने दोनों बच्चों को पंखों में समेटे डरी आंखों से चारों ओर देख रहा था।



.................|| समाप्त ।। .................
 
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