XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर - Page 5 - SexBaba
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XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर

'ठहरो, मैं तुम्हें छोड़ आऊं।'

'इतना कष्ट करने की क्या आवश्यकता है?'

"ऐसे ही चलो। सैर ही सही, घर में अकेला बैठे-बैठे भी क्या करूगा।' राज माला को छोड़ने के लिए चल दिया। जब वे दोनों सड़क पर जा पहुंचे तो राज बोला, 'माला एक बात पूंछू?'

'अवश्य।'

'जय में ऐसी क्या विशेषता है जो मुझमें नहीं?'

'कोई विशेष बात तो दिखाई नहीं देती।'

"फिर डॉली मुझे छोड़कर उसे क्यों पसंद करती है?'

'राज, तुममें और उसमें एक अंतर है।'

'क्या?'

'वह तुमसे अधिक अमीर है, पढ़ा हुआ है और....।'

'परंतु यह सब तो दिखावे की वस्तुएं हैं, इनका प्रेम से क्या संबंध, प्रेम तो हृदय से होता है।'

'परंतु डॉली की दृष्टि में इन वस्तुओं का मूल्य अधिक है।'

'मुझसे अमीर सही, परंतु मैं भी तो कोई भिखारी नहीं।'

'चाहे भिखारी नहीं हो, लेकिन तुम डॉली के पिता के नौकर तो हो।'

'यह बात तो है, परंतु प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी का नौकर है ही।'

'खैर बहस से क्या लाभ। मैं तो डॉली का दृष्टिकोण तुम्हें बता रही थी।'

'तुम यह सब किस प्रकार कह सकती हो?'

'यह सब बातें डॉली ने ही मुझसे कही थीं।'

'क्या कहा था?'

"कि मुझे अपने जीवन का भविष्य भी देखना है। जय के साथ रहकर मैं जितने आदर और आराम का जीवन बिता सकती हूं, क्या वह राज के साथ रहकर संभव है? इसमें कोई संदेह नहीं कि वह एक अच्छा लड़का है परंतु फिर हमारा नौकर ही है।'

'मेरी अवहेलना केवल इसलिए की जा रही है कि मैं उसे जीवन का सुख और आराम नहीं दे सकता। पर माला, मैं तुम्हें किस प्रकार विश्वास दिलाऊं कि मैं सब प्रकार का सुख और आराम अपनी....।' कहते-कहते राज रुक गया।

'रुक क्यों गए?'

'माला, मैं चलता हूं। बातों-बातों में इतनी दूर पहुंच गया।'

'अच्छा फिर मिलेंगे, मैं तो फिर भी यही कहूंगी कि उसका ध्यान छोड़ दो। जिस राह जाना नहीं उसकी नाप-तोल करने से क्या लाभ?' यह कहकर माला आगे चली गई और राज घर की ओर लौटा।
 
'अच्छा फिर मिलेंगे, मैं तो फिर भी यही कहूंगी कि उसका ध्यान छोड़ दो। जिस राह जाना नहीं उसकी नाप-तोल करने से क्या लाभ?' यह कहकर माला आगे चली गई और राज घर की ओर लौटा।

तो क्या वह उस मार्ग को छोड़ दे? डॉली से बात करते समय तो उसने निश्चय कर ही लिया था कि वह डॉली और जय के रास्ते में कभी नहीं आएगा परंतु माला की बातों ने उसे अपने निश्चय पर फिर से विचार करने को बाध्य कर दिया। इन्हीं विचारों के संघर्ष में डूबा वह घर पहुंचा। डॉली वापस आ चुकी थी। राज को देखते ही बोली, 'कहां गए थे?'

'जरा घूमने। माला आई थी।"

"कब?'

'तुम्हारे जाने के कुछ देर बाद ही।'

'कुछ कहती थी?'

‘ऐसे ही मिलने आई थी।' यह कहकर राज कमरे में चला गया। राज ईर्ष्या की आग में जलने लगा। दिन पर दिन उसे डॉली से खीझ होती जा रही थी। क्या वह उससे घृणा करने लगा था? एक रविवार को जब वह बाहर से लौटकर आया तो सेठ साहब ड्राइंगरूम में बैठकर एक व्यक्ति से बात कर रहे थे। कोई नए महाशय थे। राज ने पहले कभी उन्हें देखा न था। जब वह अंदर आने लगा तो सेठ साहब ने आवाज दी और राज उनके पास जाकर बोला, 'कहिए, क्या आज्ञा है?'

'यह है वह होनहार जिनको मैंने अपना सारा कारोबार सौंप दिया है।'

'तो यह है राज! बहुत प्रसन्नता हुई इनसे मिलकर। आओ बेटा, बैठो।' वे बोले और राज पास ही सोफे पर बैठ गया।

'और राज, यह हैं बैरिस्टर मधुसूदन, जो हमारे सामने वाली कोठी में रहते हैं। जय को तो तुम जानते ही होगे, यह उसके पिता है।' मानो राज को किसी ने डस लिया हो। वह जय का नाम सुनते ही कांप गया। तो यह हैं उसके पिता। सामने रहते-रहते इतना समय बीत गया और अब मेल-जोल बढ़ाना शुरु किया?

'अच्छा मैं चलता हूं। क्या आप खाना खा चुके?' राज ने उठते हुए कहा।

'मैं तो खा चुका हूं। डॉली खा रही होगी। तुम भी खा लो।'

राज सीधा खाने के कमरे में पहुंचा। डॉली खाना खा रही थी परंतु अकेली नहीं जय भी साथ था। उसे देखते ही बोली, 'आओ राज, बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद खाना अभी शुरु किया है।'

'प्रतीक्षा के लिए धन्यवाद!' उसने कुर्सी पर बैठते हुए कहा और प्लेट आगे कर ली।

डॉली ने साग का कटोरा पकड़ाते हुए कहा, 'क्यों, आज कुछ गुस्से में हो, किसी से लड़ाई तो नहीं हुई?'

'हो सकता है।' उसने जय की ओर देखते हुए उत्तर दिया। जय सिर नीचा किए चुपचाप खाने में तल्लीन था।

'जीता कौन?'

"फिर तो बहुत शूरवीर हो।'

'मैंने हारना नहीं सीखा।'

'फिर तो बहुत भाग्यवान हो।'

'मैं सब-कुछ हूं परंतु निर्लज्ज नहीं।' यह कह उसने कुर्सी छोड़ दी।

'यह आज तुम्हें हुआ क्या है? खाना क्यों छोड़ दिया?'

'भूख नहीं है।'

'अनोखी बात है, अभी तो खाने बैठे और अभी भूख नहीं!'

राज उत्तर दिए बिना ही कमरे से बाहर निकल गया। 'मैं अभी आती हूं जय।' डॉली यह कहकर राज के पीछे-पीछे गई और बोली, 'राज, तुम्हें ऐसा न करना चाहिए था।'

'क्या किया मैंने?'

'खाना क्यों छोड़ दिया? कम-से-कम अतिथि का तो ध्यान रखना चाहिए।'

'क्या अतिथि का ध्यान रखने के लिए तुम कम हो?'

'राज, तुम सीमा से बाहर होते जा रहे हो।'

'तुम जाओ डॉली, जय कहीं प्रतीक्षा में खाना न छोड़ दे। विश्वास रखो, मेरा प्रेम और आदर तुम्हारे लिए किसी प्रकार भी कम न होगा।'

'बहुत आदर करते हो! ढोंगी कहीं के!' और आवेश में भरी डॉली बाहर जाने लगी, परंतु राज ने उसका हाथ पकड़कर उसे रोक लिया और कहा "डॉली, मुझे गलत न समझो।'
 
'छोड़ दो मुझे, यही समझना कि मैं तुम्हारे लिए मर गई हूं।'

'डॉली, यह मेरे जीवन-मरण का प्रश्न है।'

'तो जाकर तेजाब पी लो ना, किस्सा ही समाप्त हो जाए।' डॉली ने जोर से हाथ छुड़ाया और वापस खाने के कमरे में चली गई। राज वहीं खड़ा रहा।।

कुछ देर में जय और डॉली खाना खाकर ड्राइंगरूम में चले गए। बैरिस्टर साहब और जय के चले जाने पर डॉली अपने कमरे में चली गई और सेठ साहब राज के कमरे में।

'डैडी आप....?'

'क्यों क्या बात है, तबियत तो ठीक है। डॉली कह रही थी कि तुमने खाना भी नहीं खाया।' ।

'जी कुछ भूख कम थी, सोचा कुछ देर ठहरकर खा लूंगा।'

'दो तो बज गए हैं और कब खाओगे। चलो खा लो, गरमी हो जाएगी।' राज उठा और जाने लगा। सेठ साहब भी उसके साथ-साथ खाने के कमरे में चले गए और बैठकर बातें करने लगे। 'राज, जानते हो बैरिस्टर साहब क्यों आए थे?'

'किसी कारोबार के बारे में?'

'नहीं, डॉली की सगाई के लिए।'

'किससे?' राज के हाथ का कौर हाथ में ही रह गया।

'जय से।' क्यों राज, लड़का भी तो अच्छा है, घर भी अच्छा है और बैरिस्टर साहब ने आप ही रिश्ता मांगा है।

'परंतु मैं क्या परमर्श दे सकता हूं। आप अधिक समझ सकते हैं।'

'डॉली को तो कोई आपत्ति नहीं होगी?'

'आपके घरेलू मामलों को जितना आप स्वयं समझ सकते हैं, दूसरा क्यों कर समझ सकता है?'

'आखिर तुम भी तो मेरे ही हो। डॉली के चले जाने के बाद मेरा है ही कौन?'

'उसे क्या आपत्ति हो सकती है? लड़का अच्छा है, धन है, मान है और क्या चाहिए उसे?'

'परंतु लड़िकयां अपनी इच्छा की होती हैं। एक बार उससे पूछ तो लेना चाहिए। पर पूछे कौन? घर में मेरे सिवाय है कौन और मैं कैसे पूछू। राज तुम तो डॉली से बहुत खुले हुए हो।'

'आपका मतलब?'

'यही कि बहन-भाई आपस में हंसी करते ही रहते हैं और -हंसी में तुम उससे पूछ सकते हो।'

'और यदि उसे यह स्वीकार न हो तो....?'

'तो मुझे क्या पड़ी है? मुझे तो उसकी प्रसन्नता ही चाहिए।'

'प्रयत्न करूगा।' राज ने उत्तर दिया। सेठ साहब उठकर दूसरे कमरे में चले आए। राज ने जैसे-तैसे एक चपाती खाई और हाथ धोकर अपने कमरे में जाकर लेट गया। तो डॉली की सगाई जय से हो रही है! डॉली को जय पसंद है। यह सब सोचकर वह हंसने लगा। उसका हृदय रो रहा था। उसका संसार उसके सामने ही नष्ट हो रहा था। परंतु वह क्या करता और कर भी क्या सकता था! मनुष्य यदि अपनी इच्छा की वस्तु पा सकता तो पीड़ा का कोई अस्तित्व ही न रहता।

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रात के कोई दो बजे होंगे, चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। सब गहरी नींद का आनंद ले रहे थे। डॉली अपने बिस्तर पर बेहोश सो रही थी कि अचानक किसी की आहट से चौंक-सी गई। 'तुम? इस समय यहां?'

"हां, मैं ही तो हूं।'

'इतनी रात गए यहां क्या करने आए हो?'

'घबराओ नहीं चोरी करने नहीं आया।'

'और किसलिए....?'

'डॉली, मैंने सुना है कि जय से तुम्हारी बात पक्की हो रही है?' उसने पास आते हुए पूछा।

'संभव है कि तुमने ठीक सुना हो।'

'इसमें संभव की क्या बात है।' डैडी कह रहे थे।

'क्या डैडी की बात पर विश्वास नहीं जो पूछने आए हो?'

'विश्वास तो है पर तुम्हारे मुंह से भी सुनना चाहता हूं।'

'सुनना चाहते हो तो जो डैडी ने कहा है, ठीक है।'


'तो तुम प्रसन्न हो?'

'इसमें प्रसन्न होने की बात ही क्या है?'

'डॉली, इतनी क्रूर न बनो। मेरे प्रेम को इस तरह न ठुकराओ।'

'मेरा तुम्हारे साथ कोई संबंध नहीं।'

'मेरे प्रेम पर ध्यान दो।'

'मेरे हृदय में तुम्हारे लिए न कभी प्रेम था, न है, न कभी होगा।'

'तो क्या वह सहानुभूति और विश्वास सब मिथ्या थे?'

'यदि मेरी सहानुभूति को तुम गलत समझ लो तो इसमें मेरा क्या दोष है? सहानुभूति तो एक मानवीय कर्त्तव्य है। सहानुभूति तो आवारा कुत्तों से भी की जा सकती है, तुम तो फिर भी....।'

'डॉली संभलकर बात करो, यह न भूलो कि मेरी भी इज्जत है।'

'आज से पहले अवश्य तुम्हारी इज्जत थी, परंतु जब तुम इतने गिर सकते हो कि इतनी रात गए अकेले यहां आकर मेरी बेइज्जती करने लग जाओ तो....'

'यदि तुम आधी रात के समय चोरी से खिड़की फांदकर किसी से मिल सकती हो तो मेरे यहां आने में क्या आपत्ति हो सकती है?'

'आधिक बातें बनाने की आवश्यकता नहीं, नहीं तो अभी डैडी को जगाती हूं। अपनी बेइज्जती अपने-आप ही कराओगे।'

'मुझे धमकी देने की कोई आवश्यकता नहीं। तुम प्रसन्नता से उन्हें जगा सकती हो। मैं कोई चोरी करने के इरादे से नहीं आया, अपना अधिकार समझ कर आया हूं।'

'कैसा अधिकार?'

'तुम पर। सच बताओ डॉली, जय तुम्हें क्या दे सकता है जो नहीं दे सकता?'

'मुझसे बहस करने की आवश्यकता नहीं। मेरा इतना कह देना ही तुम्हारे लिए बहुत है कि मैं तुम्हें पसंद नहीं करती।'

'इसलिए कि मैं किसी बैरिस्टर का लड़का नहीं, इसलिए कि मेरे पास कोठी नहीं है और न ही घूमने के लिए कार है।'

'जब यह समझते हो तो मेरा पीछा छोड़ दो।'

"परंतु डॉली, तुम्हें खरीदने के लिए क्या मेरा दिल पर्याप्त न था।'

'यदि कोई ग्राहक किसी वस्तु का मूल्य न दे सके तो उसका विचार ही छोड़ देना चाहिए।'

'तुम तो कहती थीं कि मैं रुपये से अधिक मनुष्य का आदर करती हूं। यह भी ध्यान रहे कि जिस वस्तु को मनुष्य अधिक पसंद करता है, वह उसे खरीदने की शक्ति न होने पर छीन लेता है।'

'तो वह मनुष्य न होकर लुटेरा हुआ।'

'कभी-कभी मनुष्य को लुटेरा बनना पड़ता है।'

"तुम तो कहते थे कि तुम कोई गिरा हुआ मार्ग न अपनाओगे, जिससे तुम्हारे आचरण पर धब्बा आए।'

'वह एक भ्रम था, यह एक वास्तविकता है।'

'तो इसी प्रकार तुम्हारा प्रेम भी एक धोखा था?'

'और अब तुम्हें पा लेने की धारणा वास्तविकता है।'

'इसका भ्रम भी अपने मन से निकाल दो।'

'तुम पर मेरा अधिकार है।'

'असंभव है।'

'तुम्हें मुझसे कोई छीन नहीं सकता।'

"वह देखा जाएगा। अब आप कृपा करके बाहर चले जाइए।'

"निराश होकर?'

'तो ठहरिए, अभी बताती हूं।' यह कहकर डॉली ने दरवाजा खोला और बाहर जाने लगी।

'कष्ट करने की आवश्यकता नहीं है, डैडी अपने बिस्तर पर नहीं है।'

'कहां है?' डॉली ने आश्चर्य से पूछा।

"रात को वापस नहीं आए, टेलीफोन आया था कि एक मित्र के घर ठहर गए हैं।'

'क्यों ?'

'शहर में कयूं लग जाने के कारण।'

'अब समझी कि तुममें इतना साहस कैसे हुआ।'
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Re: घाट का पत्थर
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Post by rajsharma » 23 Feb 2020 15:03

'डॉली, सच मानो, मैं किसी बुरे विचार से नहीं आया।'

'मुझे परेशान करने की आवश्यकता नहीं, यहां से चले जाइए।'

'क्या उत्तर लेकर?'

'मेरा विचार छोड़ दो। मैं तुम्हारी नहीं हो सकती। अब डॉली के स्वर में नम्रता थी। वह भय से कांप रही थी।'

'यह असंभव है, डॉली।'

'राज, अब तुम्हारे हृदय में मेरे लिए घृणा है। मुझे अपनाकर क्या करोगे?'

'घृणा और प्रेम में थोड़ा अंतर है, एक का दूसरे में बदल जाना संभव है।'

"किंतु मुझे ऐसे प्रेम की आवश्यकता नहीं। और वह धीरे-धीरे दरवाजे के पास जा पहुंची।'

'मुझे तो आवश्यकता है।' राज ने डॉली का हाथ पकड़ लिया।

'राज, मुझे तुम्हारे विचारों से सहानुभूति नहीं।' उसने अपना हाथ छुड़ाया और तेजी से भागकर ड्राइंगरूम में जा पहुंची और बाहर का दरवाजा खोलने लगी। राज भी उसके पीछे-पीछे वहां पहुंचा।

'कहां जा रही हो?' राज ने डॉली को पकड़ते हुए कहा।

'बाहर, मैं रात को अकेली नहीं रह सकती।'

'इतनी रात गए कहां जाओगी?'

'कहीं भी जाऊं, तुम्हें इससे क्या?'

'मुझे बहुत कुछ है।' यह कहकर वह डॉली का हाथ पकड़कर उसे खींचते हुए कमरे में ले गया और पलंग पर गिरा दिया। 'डॉली, मैं इतना नीच नहीं। तुम मेरे पास सेठ साहब की धरोहर हो।' यह कहकर वह दरवाजे से बाहर जाते-जाते बोला 'आज तक सुनता आया हूं कि मनुष्य प्रेम में पत्थर से भी पानी निकाल सकता है, परंतु अब सोचता हूं कि मनुष्य जो काम प्रेम से नहीं कर सकता वह घृणा से पूरा कर सकता है।' यह कहकर राज ने दरवाजा बंद करके बाहर से कण्डा लगा दिया। बाहर ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी परंतु उसका शरीर तवे की भांति गरम था। उसके अंदर एक आग-सी लगी थी। उसने बाग में लगे फव्वारे को खोल दिया और उसके नीचे घास पर लेट गया। थोड़ी ही देर में वह पानी में डूब-सा गया परंतु उसके शरीर की ज्वाला शांत न हुई। अगले दिन इतवार था। सेठजी सवेरे ही वापस पहुंच गए और नहा-धोकर राज को बुला भेजा। परंतु राज काम नहीं करना चाहता था। उसने सिरदर्द का बहाना करके छुट्टी पाई और अपने कमरे में लेटा रहा।
 
संध्या के समय सेठ साहब अपने कमरे में बैठे कोई पुस्तक पढ़ रहे थे। डॉली कहीं बाहर गई थी। इतने में दरवाजा खुला और राज ने कमरे में प्रवेश किया। 'आओ राज।' सेठ साहब ने ऐनक में से नजरें ऊपर उठाते हुए कहा। राज चुपचाप जाकर उनके समीप ही खड़ा हो गया और सिर नीचा किए अपनी उंगलियों से खेलने लगा।

सेठ साहब समझ गए कि कुछ कहना चाहता है। 'क्यों राज, कैसी तबियत है?'

'अब तो अच्छी है डैडी....।' कहते हुए वह रुका तो सेठ साहब बोले- 'क्यों, क्या बात है, रुक क्यों गए?'

'मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं।'

'क्या?'

'कहने से पहले इस अशिष्टता के लिए क्षमा चाहता हूं।'

'कौन-सी ऐसी बात है जो इतना....?'

'मुझे आपसे कुछ मांगना है।'

"क्या ?'

'डॉली।'

'यह तुम क्या कह रहे हो, राज?'

'मैं आपसे ठीक ही कह रहा हूं। कई दिन से कहने का विचार कर रहा था परंतु....।'

'मुझे तुमसे यह आशा न थी।' सेठ साहब के मुख पर क्रोध की रेखाएं खिंच गई।

'मैं कोई पाप नहीं कर रहा। क्या मैं इस योग्य नहीं?'

'मेरा तुम्हें अपने घर में रखना और डॉली के साथ इस प्रकार स्वतंत्र मेल-जोल की आज्ञा देने का यह अभिप्राय....।'

'मैं नहीं समझता कि मैंने इस अवधि में आप लोगों द्वारा दी गई सुविधाओं का दुरुपयोग किया हो।' राज बीच में ही बोल उठा, "मैं उससे प्रेम करता हूं और प्रेम करना कोई अपराध नहीं।'

'क्या डॉली को इसका ज्ञान है?'

'मैं कह नहीं सकता। जहां तक मैं समझता हूं उसे भी....।'

'राज तुम जानते हो कि मैं तुम्हारे पिता के समान हूं?'

'इसीलिए तो मैं सीधा आपके पास चला आया।'

'और यह भी अच्छी तरह जानते हो कि जय से उसके बारे में बात भी हो चुकी है?'

'इसीलिए तो मुझे यह अशिष्टता समय से पहले करनी पड़ी।'

'इसका अर्थ यह हुआ कि बहुत समय से तुम्हारे दिमाग में....।'

'जी, इसे डॉली भी भली प्रकार से जानती है।'

'यह सब बकवास है डैडी।' डॉली ने कमरे में प्रवेश करते ही कहा। वह दरवाजे के पीछे से सब बात सुन रही थी।

'यह सब क्या तमाशा है? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। डॉली, तुम यहां से जाओ।' सेठ साहब ने डॉली से कहा और वह नाक सिकोड़ती हुई दूसरे कमरे में चली गई। सेठ साहब ने राज को संबोधित करके कहा 'राज, ये सब बातें कहकर तुमने बहुत बुरा किया।'

'हमारा खानदान क्या किसी से कम है? और मेरे पिताजी को आप अच्छी तरह जानते हैं। हमारी हैसियत से भी आप अपरिचित नहीं। यह दूसरी बात है कि मैं आज आपका नौकर


'लंबी-चौड़ी बहस की मुझे आदत नहीं। मेरा इतना उत्तर ही बहुत है कि यह सब असंभव है।'

'क्यों?'

'इसका उत्तर देना मैं उचित नहीं समझता।' 'इसलिए कि डॉली तुम्हें पसंद नहीं करती।'

'यदि मैं यह कहूं कि यह सत्य नहीं तो?'

'वह कभी झूठ नहीं बोल सकती, मुझे विश्वास है।'

'तो इसका अर्थ यह हुआ कि आपको मुझ पर विश्वास नहीं?'

'हो सकता है।'

'आप लोग व्यापार के लिए तो मुझ पर विश्वास कर सकते हैं परंतु मेरी कही हुई बात पर आपको विश्वास नहीं?'

"तुम आवश्यकता से अधिक अशिष्टता पर उतर आए हो।'

'आप यह अनुभव नहीं कर सकते कि मेरे ऊपर क्या बीतती है और मैं इसके लिए कितना पतित हो चुका हूं।'

'क्या कुछ और पतित होना बाकी है?'

'आप मुझे गलत समझ रहे हैं।'

'मेरी आंखों से दूर हो जाओ।'

'आपकी आज्ञा सिर-आंखों पर परंतु यह न भूलिए कि आपके पास डॉली मेरी धरोहर है।' यह कहकर राज बाहर निकल गया। सेठजी ने क्रोध में हाथ की पुस्तक फेंक दी और डॉली के कमरे की ओर चल दिए।

सेठ साहब और डॉली अब एक उलझन में पड़ गए। डॉली को आशा न थी कि राज यहां तक बढ़ सकता है और सेठ साहब ने तो ऐसा स्वप्न में भी न सोचा था।
***
 
'तो क्या यह कोई स्वयंवर हो रहा है? तब तो हमारा भी चांस है।'


डॉली ने धीरे-से अपना पांव मारा। राज समझ गया कि यह चुप रहने की सूचना है। वह चाय पीने लगा।

अनिल ने कहा 'राज, मान लो कि यह एक स्वयंवर हो रहा है तो तुम्हें किसी से यह आशा है कि वह तुम्हारे गले का हार बन जाए?'

'क्यों नहीं? आखिर जो भी आता है किसी आशा पर ही आता है।'

'मॉडर्न स्वयंवर में किसी माला की आवश्यकता नहीं, केवल संकेत से ही काम चल जाता है।'

'हमें भी तो मालूम हो कि वह कौन-सा संकेत है?'

'भई, हम तो इतना जानते हैं कि अगर कोई लड़की तुम्हारी चुटकी ले जाए तो समझो वह तुम्हें पसंद करती है। यदि कोई धीरे-से चोरी-चोरी पैर से ठोकर लगा दे तो समझो उसे तुमसे प्रेम हो गया।' यह सुनकर सब हंस पड़े।

राज धीरे-धीरे चाय का प्याला पीते हुए मेज के दूसरे किनारे पर जा खड़ा हुआ और सब लोगों की तरह-तरह की बातें सुनने लगा।

'भला क्या आपत्ति हो सकती है।' अनिल ने कहा। 'राज साहब, यदि आपके हाथों में फूलों की माला हो और स्वयंवर में आपको छोड़ दिया जाए तो आप माला किसके गले में डालेंगे?'

'यह काम किसी लड़की को सौंपा होता तो अच्छा था।'

'कुछ समय के लिए यदि आप लड़की बन जाएं तो क्या अंतर पड़ता है? कल्पना ही कर लीजिए।'

'यदि कुछ समय के लिए यहां की सब लड़कियां अपने आपको लड़का समझने लग जाएं तो....।'

'मान लो समझ लें फिर....।'

'राज ने चारों ओर देखा। सब उसकी ओर देख रहे थे कि उसकी दृष्टि कहां जाकर ठहरती है। उसकी आंखें घूमती हुई डॉली पर जा रुकीं।

सब राज की ओर देखने लगे। उसने उंगली से डॉली की ओर संकेत किया।'

'तुम्हारा मतलब, डॉली?'सबके मुंह से एक साथ निकला।

'जी! डॉली।'

'तो जय बेचारा क्या करेगा?' अनिल बोला और सब हंसने लगे।

डॉली ने क्रुद्ध होकर कहा, 'राज मुझे यह अशिष्टता पसंद नहीं।'

'इसमें अशिष्टता क्या? यह कल्पना ही तो की जा रही है।'


जय से रहा न गया। उसने कहा 'इस प्रकार की हंसी अपनी बहनों से नहीं की जाती।'

'ओह! मुझे पता न था कि डॉली तुम्हारी बहन है।' राज ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।

'राज होश में रहो। यह तुम क्या कह रहे हो? आखिर शराफत भी कोई चीज है।'

'शराफत?' वह जोर से हंसा और फिर बोला, 'शराफत तो उसी मनुष्य के पास है जिस बेचारे को कोई अवसर नहीं मिला। अंतर केवल इतना है कि किसी को आधी रात के अंधेरे में और किसी को दिन के उजाले में अवसर मिल ही जाता है।'

'तुम आवश्यकता से अधिक बढ़ते जा रहे हो।

डॉली बोली, कृपा करके यहां से चले जाइएगा।'

राज चुपचाप बाहर की ओर जाने लगा। चाय का प्याला तब उसके हाथ में था। वह दरवाजे के पास रखी मेज पर उसे रखने लगा।

तभी उसे जय के ये शब्द सुनाई दिए, 'कमीना कहीं का!'

इतना सुनना था कि राज उल्टे पैरों वापस लौटा। सब मौन खड़े उसकी ओर देख रहे थे। राज जय के ठीक सामने आ गया। उसके मुख पर रोष था, आंखें मानों चिनगारियां बरसा रही हो.... लगता था कि वह आपे से बाहर हो जाएगा... परंतु दूसरे ही क्षण उसने हाथ का प्याला मेज पर दे फेंका और मुंह फेरकर धीरे-धीरे बाहर चला गया।

कुछ अतिथियों के कपड़ों पर गरम चाय गिरी और कुछ पर प्याले के टुकड़े। दो-चार की तो चीख निकल गई और कुछ घबराकर पीछे हट गए।

रात के नौ बजे थे। राज वापस आया और उसने अभी अपना कोट उतारकर अलमारी में रखा ही था कि किशन कमरे में आते ही बोला, 'आपको साहब बुला रहे हैं।'

'कहां?' 'अपने कमरे में।

'चलो, अभी आता हूं।' यह कहकर राज किशन के पीछे-पीछे हो लिया। यह जानता था कि सेठ साहब उससे क्या कहने वाले हैं, परंतु आज उसके हृदय में किसी प्रकार का भय नहीं था। वह बेधड़क सेठ साहब के कमरे में जा पहुंचा। वह क्रोध में भरे अपने कमरे में चक्कर काट रहे थे। 'कहिए क्या आज्ञा है?'

'आओ, कहो कब आए?'

'आज शाम की गाड़ी से।'

'तुम्हारे पिताजी की आकस्मिक मृत्यु से बहुत दुःख हुआ।'

'इस पर मेरा दुर्भाग्य कि मैं उनसे अंतिम समय मिल भी न सका।'

'जो भगवान को स्वीकार हो उसे कौन टाल सकता है?'

'जी।' और राज लौट पड़ा।

'क्यों? कहां चल दिए?'

'कपड़े बदलने हैं। अभी बाहर से आया हूं। कहिए क्या आज्ञा है?'

'राज, तुम पहले ही बहुत दुःखी हो। मैं नहीं चाहता कि तुम्हें और दुःखी करू, परंतु बात ही कुछ ऐसी है कि लाचार हूं।'

'क्यों, ऐसी क्या बात है, क्या मुझसे कोई भूल हो गई है?'

'आज शाम की पार्टी में जो कुछ हुआ, क्या उसको दोहराने की आवश्यकता है।'

'नहीं तो।'

'मेरी दी हुई स्वतंत्रता का तुमने दुरुपयोग किया।'

'मैं तो ऐसा नहीं समझता।'

'इसलिए कि तुम जानते हो कि तुम्हारे बिना मेरे कारोबार को ठेस पहंचेगी और मैंने तुम्हें कुछ ऐसे भेद बता दिए हैं जो न बताने चाहिए थे। परंतु यह याद रखना कि मैं अपनी हठ के लिए अपना घर भी नष्ट कर सकता हूं।'

'अशिष्टता के लिए क्षमा। वैसे हठ में मैं भी आपसे कम नहीं।'

'बदतमीज...। पहले सभ्यता से बात करना सीखो।'

'सभ्यता तो आप ही के पास रहकर सीखी है। विश्वास न हो तो डॉली से पूछ लीजिए।'

'उसका नाम अपनी गंदी जुबान पर न लाओ। वह तुम्हारी सूरत तक देखना नहीं चाहती।'

'परंतु मैं तो देखना चाहता हूं।'
 
राज जब चंद्रपुर पहुंचा तो उसके पहुंचने से पहले ही हृदयगति बंद हो जाने से उसके पिता, जमींदार रामदास परलोक सिधार चुके थे। इस घटना से उसे हार्दिक दुःख हुआ। मुनीमजी ने उसे बताया कि उनकी अंतिम आकांक्षा यही थी कि राज को एक बार देख लेते। परंतु उनकी यह कामना पूर्ण न हो सकी। राज की आंखों से आंसू बह निकले। वह शहर जाकर कारोबार में इतना उलझ गया कि उसे अपने पिताजी का भी ध्यान न रहा। उसने यह दु:खद समाचार बंबई में सेठ साहब के पास भेज दिया। उसने रीति के अनुसार अपने पिता का क्रिया-कर्म कर दिया। निर्धनों को दान दिया और जमींदार साहब ने जो बातें वसीयत में लिखी थीं, सबको पूरा किया। वह अपनी सारी जायदाद राज को दे गए थे। जब वह सब आवश्यक काम कर चुका तो उसने सारी जमींदारी की जिम्मेदारी मुनीमजी को सौंप दी और उनसे कह दिया कि वह शीघ्र ही आकर वहां का कारोबार संभाल लेगा।

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आज राज बीस दिन के बाद बंबई वापस जा रहा था। स्टेशन पर जब उतरा तो उसका हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था। इसी बीच में सेठ साहब और डॉली ने शायद सोचकर उसको अपने मार्ग से हटाने का प्रबंध कर लिया हो। पिताजी की मृत्यु ने वैसे ही उसे आधा पागल बना दिया था। जब वह कोठी पहुंचा तो बरामदे में कोई न था। वह अपनी अटैची उठाये भीतर गया। अपने आने का समाचार उसने किसी को नहीं दिया था। संध्या का समय था। वह सोच रहा था कि डॉली कॉलेज से आ चुकी होगी। इसी समय उसे बहुत से आदमियों और औरतों के हंसने का शब्द सुनाई दिया, मानों कोई सभा हो रही थी। वह पिछले मार्ग से अपने कमरे में जाने लगा। जब वह दरवाजे के पास पहुंचा तो किसी ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। वह घबरा गया। उसने घूमकर देखा। माला सामने खड़ी थी।

'ओह तुम!' उसने मुस्कराते हुए कहा।

'क्यों जी? चोरी-चोरी इस प्रकार अंदर आने का मतलब?'

'माला, अंदर यह सब क्या हो रहा है?'

'बताती हूं, पहले तुम बताओ, कब आए?'

'अभी तो आ रहा हूं सीधा।'

'तुम्हारे पिताजी के विषय में सुनकर दुःख हुआ। सुना है तुम्हारे पहुंचने से पहले ही....।'

'हां माला, यह मेरा दुर्भाग्य था कि अंतिम समय में उनसे न मिल सका।' कुछ देर दोनों मौन रहे। राज ने फिर पूछा, 'मेरे प्रश्न का उत्तर अभी तक नहीं मिला।'

'हां राज, डॉली की जय से बात पक्की हो गई है। अभी सगाई तो नहीं हुई परंतु डॉली से एडवांस पार्टी ली जा रही है। चलो कपड़े बदल लो और सम्मिलित हो जाओ।'

राज के सिर पर मानो किसी ने हथौड़ा मार दिया हो। भूमि और छत घूमती हुई दिखाई देने लगी। उसने अपने निर्जीव हाथों से कमरे का दरवाजा खोला और अंदर जाकर कुर्सी पर बैठ गया। माला बड़े कमरे में लौट गई। थोड़ी ही देर में डॉली राज के पास आई और बोली, 'मुझे तो अभी माला ने बताया कि तुम आ गए हो। समाचार भेज देते तो मोटर पहुंच जाती।'

'कोई विशेष आवश्यकता तो थी नहीं, केवल एक अटैची साथ थी।'

'तुम्हारे पिताजी की आकस्मिक मृत्यु से तो तुम्हें बहुत धक्का लगा होगा। यह सब कैसे हुआ?'

'ईश्वर की इच्छा बड़ी प्रबल है।'

'अच्छा अब मैं चलती हूं। सब प्रतीक्षा कर रहे होंगे।' यह कहती हुई वह उछलती हुई कमरे से बाहर चली गई। राज ने जोर से दरवाजा बंद किया। शीघ्र ही राज तैयार होकर बड़े कमरे में पहुंचा। एक अच्छी सभा-सी लग रही थी। डॉली के सब मित्र व सहेलियां इकट्ठी थीं। सब मौन बैठे माला का गाना सुन रहे थे। वह धीरे से कमरे में आया। उसके आते ही माला गाते-गाते रुक गई और उसे निर्निमष नेत्रों से देखने लगी। गाना बंद होते ही सबने मुड़कर पीछे की ओर देखा। राज बहुत सुंदर दिखाई दे रहा था। डॉली ने भी उसे देखा। दोनों की आंखें चार हुई। वह धीरे से डॉली के पास आकर बैठ गया। माला ने फिर गाना शरु कर दिया। डॉली के एक ओर राज और दूसरी ओर जय बैठा था। दोनों कभी-कभी एक दूसरे को देख लेते मानों दो शिकारी एक ही शिकार के लिए एक-दूसरे को देखते हों। दोनों के बीच में डॉली मूर्ति की भांति बैठी थी और सामने माला की ओर देख रही थी। उसके मुख पर गंभीरता थी। माला का गाना समाप्त होते ही सबने तालियां बजाई। आज उसके गीत में एक वेदना थी। गाने के बाद डॉली ने राज का परिचय सब आने वालों से कराया। अनिल, जो बहुत देर से राज की ओर देख रहा था, उसका मौन भंग करने के लिए बोला, 'क्यों जी, क्या बात है? कुछ खोए-खोए बैठे हो!'

'मैं या आप सब लोग?' इस पर सब जोर से हंस पड़े।

"जान पड़ता है कि अभी तक इन भाई साहब को यह भी पता नहीं कि यह सभा क्यों लगी है।' एक साहब बोले।

'राज ने यह कहा, यह आप कैसे जान गए? सचमुच अभी तक मेरी समझ में नहीं आया कि यह सब क्या हो रहा है?'

'तो आप यहां पहुंचे क्यों कर?' अनिल ने पूछा।

'किसी ने बुलाया, मैं चला आया।'

'किसने?'

'यहां ही थीं यही कहीं... वह रही।' उसने डॉली की ओर संकेत करते हुए कहा।

'तो साहब, यह भी खूब रही। बुलाने वाले ने दावत पर बुला लिया और मेहमान आ भी गए। खाना-पीना आरंभ हो गया और मेहमानों को यह अभी तक नहीं पता कि दावत क्यों हो रही है?' अनिल ने हंसते हुए कहा और सब जोर से हंसने लगे।

'अगर मेहमानों को बताया ही न जाए तो इसमें उन बेचारों का क्या दोष?' राज ने चाय का खाली प्याला मेज पर रखते हुए कहा।

'तो आइए। मैं आपको बताए देता हूं।' अनिल ने राज को जय के सामने ले जाते हुए कहा, 'इनको तो आप जानते ही होंगे?'

'जी। इन्हें भला कौन नहीं जानता?'


और यह। उसने डॉली की ओर संकेत करते हुए कहा, 'यह तो हमारी होस्ट है ही। बस इस होस्ट और गेस्ट ने आपस में समझौता कर लिया है।'

'क्या?'

'कि जीवन भर एक साथ रहेंगे और इस खुशी में यह पार्टी....।' इतने में राज धीरे-धीरे चलकर डॉली के समीप पहुंच गया और बोला, 'चुनाव तो अच्छा है, यदि जीवन भर का साथ बन जाए तो।' उसने यह कहते हुए जय की ओर देखा। डॉली ने पीछे से चुटकी ली। वह मौन हो गया और बात बदलकर बोला, 'डॉली यदि एक कप चाय और बना दो तो कृपा होगी।'

'आज यार खूब जंच रहे हो। इस सूट में तो ऐसे बांके दिखाई देते हो कि हम लोगों को शर्म-सी आ रही है।'

'फिर तो मेरा सौभाग्य है कि आप लोग मुझे पसंद करने लगे।' राज ने कहा।

'अरे, हमारे पसंद करने से क्या? कोई लड़की पसंद करे तब ना।'
 
राज, यह बड़े खेद की बात है जिस थाली में तुम्हें खाना मिला उसी में थूकना चाहते हो।'

'परंत खाना मैंने मफ्त में नहीं खाया, मैं दाम दे चुका हं।'

'तुम्हारी ये बहकी-बहकी बातें मेरी समझ से तो बाहर हैं।'

'और मैं भी यह नहीं समझा कि आप इतने क्रोधित क्यों हैं?'

'क्या तुम्हारा यह जंगलीपन जो तुमने शाम की पार्टी में दिखाया और डॉली का वह अपमान कुछ कम है जो और कुछ पूछना चाहते हो?'

'और आपने मेरी अनुपस्थिति में जो मेरी धरोहर दूसरे को सौंपनी चाही, वह बात मेरे लिए क्या कम थी?'

'सौंपनी चाही नहीं, सौंप दी है। वह मेरी लड़की है। मैं जिसे चाहे दूं। उसमें हस्तक्षेप करने वाले तुम कौन होते हो?'

'इसका उत्तर आपको डॉली दे सकती है।'

'देखो राज, तुम सीमा से बाहर निकलते जा रहे हो। इससे पहले कि मैं तुम्हें अपना निश्चय सुनाऊं, तुम मेरे व्यापार संबंधी कागजों की अलमारी की ताली मुझे सौंप दो।'

'यह तो मैं पहले से ही जानता था।' राज ने तालियों का गुच्छा जेब से निकालकर सेठ साहब के सामने रखते हुए कहा, 'संभाल लीजिए, सब पूरी तो हैं?'

'राज, तुम्हें बच्चा समझकर मैं तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देता हूं। तुम डॉली का साथ छोड़ दो, इसके बदले मैं तुम्हें दस हजार रुपये देता हूं।'

'सेठ साहब शायद आप भूल रहे हैं कि चंद्रपुर में इतना रुपया तो हम दान में दे दिया करते हैं। कोई बड़ी रकम, लाखों में बोली होती तो शायद मन डोलने लगता।'

'राज, अब तुम अशिष्टता छोड़कर नीचता पर उतर आए हो।'

राज नीचता का शब्द सुनते ही आग-बबूला हो गया, परंतु दिल पर काबू पाकर बोला, 'सेठ साहब जिस शब्द का प्रयोग आपने मेरे लिए किया है कोई और आपके स्थान पर होता तो मैं भली प्रकार उससे निपट लेता। दुःख तो यह है कि आप मेरे भावी ससुर है।'

'ओह! बहुत हो चुकी। मैंने बहुत कोशिश की कि तुम ठीक रास्ते पर आ जाओ। यदि तुम आना ही नहीं चाहते तो मेरा यह सब कहना बेकार है। कल सवेरे अपना हिसाब चुका लेना। मुझे अब तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। तुम जा सकते हो।'

'बहुत अच्छा। मैं अभी जा रहा हूं। मेरे हिसाब में जो कुछ निकलता है, वह कहीं दान में दे दीजिएगा।' यह कहकर राज अपने कमरे में चला गया और जाकर अपना सब सामान बांधकर उसने किशन से एक टैक्सी लाने के लिए कहा।

कुछ देर में ही टैक्सी आ गई। जब वह सामान टैक्सी में रखवा रहा था तो सेठ साहब बरामदे से निकल आए और बोले, 'सुनो तो, इतनी रात गए कहां जाओगे? सवेरे चले जाना।'

राज ने कोई उत्तर नहीं दिया। एक बार, आखिरी बार उसने कोठी की ओर देखा। कोठी के एक कोने में खिड़की से डॉली झांक रही थी। राज ने किशन के हाथ में एक कार्ड और पांच रुपये दिए और कहा 'यह कार्ड डॉली को दे देना, कभी मिलना हो तो इस पते पर मिल सकता हूं।' यह कहकर टैक्सी में बैठ गया और ड्राइवर से बोला, ग्रीन होटल, कोलाबा।

सेठ साहब को सारी रात नींद नहीं आई। परंतु उनके हृदय में ढाढ़स हुआ यह सोचकर कि उनके रास्ते का कांटा जल्दी ही निकल गया।
*
*
 
राज को होटल में आए आज दूसरा ही दिन था। वह होटल के कमरे में अकेला बैठा बीती बातों को याद कर रहा था। उसने खिड़की खोली। सामने समुद्र ठाठे मार रहा था। हवा के ठंडे झोंके पानी पर से होकर खिड़की के रास्ते कमरे में आ रहे थे। उसका हृदय डॉली के लिए रो रहा था। अचानक उसके कंधे पर किसी ने अपना हाथ रखा। उसने मुड़कर देखा। वह श्यामसुंदर था।

'ओह, आप यहां!' राज बोला।

'हां, मुझे तुमने आवश्यक काम है।'

'आपने इतना कष्ट क्यों किया। आदेश भेज देते, मैं स्वयं ही वहां पहुंच जाता।'

"मैं यहां किसलिए आया हूं यह तो तुम समझ ही गए होगे?'

'जी मैं समझता हूं और मुझे विश्वास था कि आप अवश्य आयेंगे। क्रोध शांत होने के बाद ही मनुष्य हर ओर से भली प्रकार सोच-विचारकर किसी निश्चय पर पहुंच सकता है।'

'मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा।'

'अनजान बनने का प्रयत्न न करो। मेरे सब कागज और रजिस्टर कहां है? अलमारी तो खाली है।'

'वे मेरे पास सुरक्षित रखे हैं।'

'कहां?' उन्होंने कमरे में दृष्टि दौड़ाते हुए पूछा। 'इस कमरे में नहीं है।'

'मैं यह नहीं जानता था कि तुम इतने चालाक भी हो।'

'आखिर आपसे ही तो शिक्षा पाई है।'

'इन लंबी-चौड़ी बातों को रहने दो और सब कागज मुझे सौंप दो।'

'बहुत खूब! आखिर आप लोगों ने मुझे समझ क्या रखा है?'

"क्यों? क्या बात है?' 'आप लोगों ने समझ लिया होगा कि आसानी से यह कांटा आपके मार्ग से हट गया है, परंतु यह न भूलें कि आप एक पथरीली चट्टान से टकरा रहे हैं।'

'आखिर उन कागजों में रखा ही क्या है जो तुम....।' यह कहते-कहते सेठ साहब रुक गए। उनकी सांस फूल रहा थी।

'मेरा जीवन और आपकी मृत्यु।'

'वह कैसे?'

‘यदि वे कागज मैं पुलिस को सौंप दूं तो जानते हैं कि क्या होगा?'

'मैं अच्छी तरह जानता हूं, परंतु मैं यह न जानता था कि तुम समय आने पर इतने नीच भी हो सकते हो।'

यदि आप धन पाने के लिए इतना नीच काम कर सकते हैं, 'इन्कमटैक्स बचाने के लिए झूठे हिसाब रख सकते हैं तो क्या मैं डॉली को प्राप्त करने के लिए कोई ऐसा मार्ग नहीं अपना सकता?

'परंतु इसके लिए इतना गिरने की क्या आवश्यकता है?'

'घी कभी सीधी उंगली से नहीं निकलता।'

"डॉली।'

'क्या इसके बिना और कोई रास्ता नहीं?'

'जी नहीं।'

'मैं जय के पिता से कह चुका हूं। यह मेरी इज्जत का सवाल है
'मैं विवश हूं।'

'बहुत अच्छा। कल इसी समय शाम को मेरा उत्तर मिल जाएगा।' यह कहकर सेठ साहब बाहर निकल गए।

राज भी उनके पीछे-पीछे गया और बोला, 'जल्दी क्या है? ठहरिए, चाय मंगवाता हूं।'

'इसकी आवश्यकता नहीं।' सेठ साहब कार में बैठकर सीधे घर पहुंचे। वह बहुत चिंतित थे।
 
रात को उन्होंने डॉली को अपने पास बुलाकर सब किस्सा सुनाया। उन बातों का आज तक डॉली को कुछ पता न था। वह भी उनके साथ उलझन में पड़ गई। अब क्या होगा। वह तो राज को एक दुर्बल युवक समझती थी। परंतु वह तो एक पर्वत बनकर सामने खड़ा हो गया। दोनों बाप-बेटी देर तक सोचते रहे परंतु कुछ सूझ नहीं पड़ा। चारों ओर अंधेरा था।

डॉली बोली, 'चाहे कुछ भी क्यों न हो, हम 'सोसायटी' में बदनामी सहन कर लेंगे परंतु अपने आपको कानून का हाथों में कभी न सौंपेगे। बिरादरी की बदनामी तो दो-चार दिन तक सब भूल जाएंगे। परंतु जमा हुआ कारोबार फिर से कभी न संभल सकेगा। रुपया है तो आदर उनके चरण चूमेगा और यदि यही न रहा तो यह बिरादरी उन्हें क्या दे देगी?'

उधर राज दूसरे दिन की प्रतीक्षा में था। जब संध्या हुई तो वह तैयार होकर अपने कमरे में बैठ गया। होटल की सीढ़ियों पर तनिक-सी आहट होती या मोटर का कोई हार्न बजता तो राज उठकर खिड़की के बाहर झांकता परंतु निराश होकर कुर्सी पर आ बैठता।

धीरे-धीरे पैरों की आवाज उसके कमरे के पास आकर रुक गई और किसी ने दरवाजा खटखटाया। राज ने लपककर दरवाजा खोला तो डॉली को सामने खड़ा पाया। 'डॉली तुम? आओ।'

डॉली अंदर आ गई और राज के पीछे से दरवाजा बंद कर दिया। डॉली कुर्सी पर बैठ गई। 'यह भी अच्छा हुआ कि डैडी ने उत्तर तुम्हारे हाथों भेज दिया।' राज ने डॉली के चेहरे की ओर देखते हुए कहा।

डॉली ने कमरे के चारों ओर एक सरसरी दृष्टि डाली और उत्तर दिया, 'जी।'

"फिर तो मुंह मीठा कराने के लिए कुछ मंगाऊ?'

'राज, क्या अभी तक तुम्हारे हृदय में मेरे लिए स्थान है या केवल अपनी हठ ही पूरा करना चाहते हो?'

'डॉली, तुम चाहे मेरी ओर से ध्यान हटा लो, परंतु राज से डॉली को कोई पृथक नहीं कर सकता। तुम्हारे लिए तो मेरे हृदय के द्वार सदा के लिए खुले हैं। ये दो आंखें तो तुम्हारी प्रतीक्षा करते-करते थक चुकी हैं।' राज कुर्सी के बाजू पर बैठ गया और डॉली के बालों को छेड़ने लगा।

'देखो, इस प्रकार किसी के बालों को छेड़ना ठीक नहीं।' यह कहकर डॉली कुर्सी से उठी और खिड़की में जा खड़ी हुई।

राज भी उसके पीछे जा खड़ा हुआ और बोला, 'डॉली देखो, सामने समुद्र में लहरें किस प्रकार तट से मिलने के लिए लालायित हैं।'

"मिलने जा रही हैं या टकरा-टकराकर वापस लौट रही हैं?'
'टकराएं या आकर मिलें, मतलब तो एक ही है।' राज फिर डॉली के बालों से खेलने लगा।

'मैंने कहा ना, किसी लड़की के बालों से खेलना नहीं चाहिए।'

'क्या दोष है?'

'लड़की अपनी सुध-बुध खो बैठती है।'

'मैं भी तो यही चाहता हूं कि तुम मुझमें खो जाओ।' उसने बाल पकड़कर डॉली का चेहरा अपनी ओर कर लिया और उसकी आंखों में आंखें डाल दीं।

डॉली की आंखों में वह चंचलता और उसके चेहरे पर वही आभा थी जो राज का सर्वस्व लूटकर ले गई थी। उसने अपनी बांहें डॉली की कमर में डाल दी और उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा, 'डॉली कभी-कभी मुझ पर यह जंगलीपन-सा सवार हो जाता है। बुरा तो नहीं मान रही?'

डॉली ने तीखी नजरों से देखते हुए उत्तर दिया, 'चलो हटो।' और राज के पलंग पर जा लेटी। उसके होंठों पर अर्थभरी मुस्कान थी। राज उसके बालों से खेलने लगा। डॉली के बालों की सुगंध से राज पर नशा-सा छा गया। उसने अपनी नाक डॉली के बालों पर रख दी और उसके बालों को चूम लिया।


'डॉली, तो क्या मैं अब समझ लूं कि डैडी और तुमने मेरे ही पक्ष में निर्णय किया है?'

'निर्णय चाहे जो हो परंतु तुमने ऐसा क्यों किया?'

'इसके अतिरिक्त तुम्हें पाने का और कोई उपाय भी तो न था।'

'तुम तो कहते हो कि तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम है?'

'मैंने इसे कब अस्वीकार किया है?'

'सच्चा प्रेम तो ऐसा मार्ग अपनाने की आज्ञा नहीं देता।'

'कैसे?'

'सच्चे प्रेम में तो त्याग को प्राप्ति से मधुर माना जाता है। त्याग ही सच्चा प्रेम है।'

'केवल कायरों के लिए।'

'जो भी हो। अपना-अपना दृष्टिकोण है।'

'इसका अर्थ यह हुआ कि तुम अंतिम बार प्रयत्न करने आई हो कि शायद हवा का रुख बदल जाए।'

'नहीं. ऐसी कोई बात नहीं। मेरा निर्णय तो हो चूका।'

'क्या?'

'मैं तुम्हारी हूं।' डॉली ने बहुत धीमे स्वर में कहा और वह पलटकर सीधी होकर लेट गई।

राज अधीरता से बोला, 'क्या सच?'

'उठो ना या यों ही पड़े रहोगे।' डॉली ने राज का सिर ऊपर उठाते हुए कहा।

राज अपना सिर और भी जोर से दबाते हुए बोला, 'मैं आराम से हूं, मुझे ऐसे ही रहने दो।'

'देखो, मुझे गुदगुदी-सी हो रही है।'

'लो, यदि तुम्हें बुरा लगता है तो मैं यहां से उठ जाता हूं।' यह कहते हुए राज उठा परंतु डॉली ने जोर से हाथ खींच लिया। यकायक झटका लगने से राज अपने को संभाल न पाया और डॉली के वक्ष-स्थल पर जा गिरा। डॉली ने उसे खींचकर छाती से लगा लिया।

घड़ी ने आठ बजाए तो डॉली बोली, 'राज, बहुत देर हो रही है, अब मैं चलती हूं।'

'यह सुहावनी संध्या कितनी मंगलमयी है डॉली, जिसने हम दोनों को फिर से मिला दिया। यह घड़ी हमारे जीवन की सबसे मधुर घड़ी होगी।'

और वह डॉली को दरवाजे तक छोड़ने चला। डॉली ने पीछे मुड़कर देखा, 'अरे हां, वे कागज तो दे देते।'

"उनकी इतनी जल्दी क्या है?'

'जल्दी तो कोई नहीं। मेरा मतलब था कि डैडी को जब तक वे कागज न मिलेंगे, उन्हें व्यर्थ की चिंता रहेगी।'

'उसके लिए तुम न घबराओ। मैं उन्हें अपने-आप लौटा दूंगा।'

'यह दूसरी बात है, यदि तुम मुझ पर विश्वास नहीं तो....।'

'यह तुम क्या कह रही हो डॉली,

मेरा मतलब था कि यदि मैं ले जाती तो हम लोगों का आदर डैडी की नजरों में बढ़ जाता!'

तब तो अवश्य ले जाओ। यह कहकर राज कमरे के एक कोने की ओर गया। उसने अपना सूटकेस का ताला खोला और एक बड़ा-सा लिफाफा और डिब्बा उठा डॉली के हाथ में देते हुए बोला 'यह संभाल लो। सावधानी से ले जाना। अब खजाने की ताली तुम्हारे हाथ ही जा रही है। मेरे हाथ तो खाली हो चुके।'
 
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