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सवेरा होते ही जब जमींदार साहब काम पर गए तो कुसुम शंकर के घर जा पहुंची। शंकर ने एक घोड़ा और अपना आदमी साथ किया। वह कुसुम को सामने की पहाड़ियों पर ले गया। घोड़े बाहर ही छोड़ वे दोनों एक तंग रास्ते को पार करके हुए, एक मोड़ पर पहुंचे। कुसुम के साथी ने आगे जाने से इंकार कर दिया और बोला, 'इस पत्थर के पीछे सामने ही कुछ डाकू बैठे होंगे। तुम वहां जाकर रंजन से मिल सकती हो।'
कुसुम एक बार तो घबराई और डर-सी गई। फिर सोचने लगी कि जब वह यहां तक पहुंच गई है तो वहां तक जाने से क्यों घबराए और फिर रंजन तो उसका भाई है। यह सोचते ही वह हिम्मत बांधे आगे बढ़ी। पत्थर से मडते ही उसने देखा, कछ मनुष्य बैठे ताश खेल रहे थे। जब उन्होंने उस सूने स्थान से एक सुंदर युवा लड़की को इस प्रकार अपनी ओर धीरे-धीरे बढ़ते देखा तो ताश छोड़ सबके सब खड़े हो गए और आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगे। जब तक वह उनके एकदम पास न पहुंच गई तब तक सब-के-सब पत्थर की भांति मौन खड़े रहे।
'रंजन कहां है?'
सबके सब मौन थे। उसने फिर अपना प्रश्न दोहराया। तब उनमें से एक व्यक्ति जोर से चिल्लाया, 'सरदार, सरदार।' उसकी पुकार के साथ ही सामने की गुफा से एक युवक जिसका चेहरा लाल था, कमर के चारों ओर चमड़े की पट्टी बंधी थी जिसमें एक पिस्तौल लटक रहा था, निकला।
कुसुम को देखते ही वह रुक गया और दोनों एक-दूसरे को खोई-खोई नजरों से देखने लगे। कुछ देर तक वह इसी प्रकार देखते रहे।
'रंजन। कुसुम के मुंह से निकला।'
'जान पड़ता है मैंने आपको कहीं देखा है!'
'कुछ दिन हुए तुम मुझे ट्रेन में.....।'
'हां, मैं आपसे कितना लज्जित हूं। रंजन ने आंखें नीची कर लीं। परंतु आप यहां कैसे?'
'एक बहन अपने भाई से मिलने आई है।'
'तुम... यह... क्या?'
'क्या तुम मुझे नहीं पहचानते? मैं हूं तुम्हारी कुसुम।'
'कुसुम....।' उसके मुख से अनायास निकला और उसने आगे बढ़कर कुसुम को गले से लगा लिया। उसकी आंखों से आंसू बह निकले। वह उसे अंदर गुफा में ले गया और एक चटाई बिछा दी। कुसुम उस पर बैठ गई।
'तुम आज पहली बार मेरे घर आई हो और मैं तुम्हारी कोई सेवा भी नहीं कर सकता।'
'तुम मुझे मिल गए। यह क्या कुछ कम है?'
'परंतु तुम इस प्रकार अपने प्राणों को संकट में डालकर यहां आ कैसे गई?'
"तुम्हारा प्रेम खींच लाया।'
'क्या पिताजी को मालूम है?'
'नहीं।'
'यह तुमने अच्छा नहीं किया। यदि उन्हें पता चल गया तो खैर नहीं।'
'इसकी तुम चिंता न करो। आओ चलो।'
'कहां?'
'मैं तुम्हें लेने आई हूं।'
'क्यों?'
'तुम्हें यहां से निकालकर ले जाना चाहती हूं।'
'तुम बहुत देर से पहुंची, अब मैं नहीं जा सकता।'
"परंतु क्यों?'
'इसका उत्तर मेरे पास नहीं।'
'क्या तुम्हें अपने जीवन पर दया नहीं आती रंजन? अपने पिता और बहन पर दया नहीं आती?'
'दया और अपने जीवन पर! नहीं! अपने पिता पर! नहीं कभी नहीं। फिर ऐसे पिता पर जिन्होंने मुझे अपने आप ही अंधेरे कुएं में धकेला।'
'यह तुम क्या कह रहे हो?'
"ठीक कह रहा हूं, तुम नहीं जानतीं... मुझे जिस रास्ते पर डाला गया है उसके जिम्मेदार केवल पिताजी ही हैं। परंतु जो कुछ भी उन्होंने किया सब ठीक है। अब मैं इसी में प्रसन्न हैं
और शायद उनसे अधिक।'
'यह कैसे हो सकता है? कोई पिता अपने पुत्र का जीवन नष्ट नहीं कर सकता। मनुष्य अपनी ही कमजोरियों से नष्ट होता है और अपराधी दूसरे को ठहराता है।'
'इसलिए कि वह एक कमजोर प्राणी है और दूसरे उसकी कमजोरी से लाभ उठाते हैं।' 'रंजन, मैं नहीं जानती थी कि तुम अपने पिता पर ऐसा दोष लगाओगे।'
'तुम्हारे हृदय में जो अपने बाबा के लिए स्थान है वह मेरे लिए तो नहीं?'
'ठीक है, तुम्हें कभी अपने बाबा के बराबर स्थान नहीं दे सकती। जो बाबा अपनी लड़की का जीवन बनाने में अपना जीवन दे दे, क्या वह अपने लड़के को कभी ऐसे भयानक रास्ते पर डालेगा जो तुमने अपनाया है? यह असंभव है।'
'यही सोचकर तो मैं हैरान हूं कि मेरे जीवन से वह ऐसा भयानक खेल क्यों खेले?'
'जो भी तुम समझते हो सब ठीक है। मैंने बहुत बड़ी भूल की जो यहां तुम्हें लेने के लिए आ गई।' कहकर वह उठी और जाने के लिए तैयार हो गई।
तो तुम जा रही हो और मुझसे नाराज होकर? ठहरो, मैं तुम्हें गांव तक छोड़कर आऊं।''
-
'मुझे कोई आवश्यकता नहीं है।' यह कहकर वह तेजी से कदम बढ़ाती हुई जाने लगी।
'कुसुम ठहरो।' रंजन ने पुकारकर कहा। कुसुम ठहर गई। रंजन ने पास आकर कहा, 'क्यों कुसुम बिगड़ गई?' रंजन ने कुसुम के आंसू पोंछे। 'तुम न घबराओ, मैं जल्दी ही तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा।'
'सच?'
'कुछ विचार तो ऐसा ही है।' यह कहकर रंजन ने उसे गले से लगा लिया।
'चलो, अब मुझे गांव तक छोड़ आओ।' कुसुम ने कहा। कुसुम जब घर पहुंची तो दिन बहुत चढ़ चुका था। वह डरते-डरते ड्योढी से निकलकर आंगन में आई। राज बाब सामने ही तख्त पर बैठे थे। उसे देखते ही बोले, 'क्यों मिल आई रंजन से?'
कुसुम एक बार तो घबराई और डर-सी गई। फिर सोचने लगी कि जब वह यहां तक पहुंच गई है तो वहां तक जाने से क्यों घबराए और फिर रंजन तो उसका भाई है। यह सोचते ही वह हिम्मत बांधे आगे बढ़ी। पत्थर से मडते ही उसने देखा, कछ मनुष्य बैठे ताश खेल रहे थे। जब उन्होंने उस सूने स्थान से एक सुंदर युवा लड़की को इस प्रकार अपनी ओर धीरे-धीरे बढ़ते देखा तो ताश छोड़ सबके सब खड़े हो गए और आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगे। जब तक वह उनके एकदम पास न पहुंच गई तब तक सब-के-सब पत्थर की भांति मौन खड़े रहे।
'रंजन कहां है?'
सबके सब मौन थे। उसने फिर अपना प्रश्न दोहराया। तब उनमें से एक व्यक्ति जोर से चिल्लाया, 'सरदार, सरदार।' उसकी पुकार के साथ ही सामने की गुफा से एक युवक जिसका चेहरा लाल था, कमर के चारों ओर चमड़े की पट्टी बंधी थी जिसमें एक पिस्तौल लटक रहा था, निकला।
कुसुम को देखते ही वह रुक गया और दोनों एक-दूसरे को खोई-खोई नजरों से देखने लगे। कुछ देर तक वह इसी प्रकार देखते रहे।
'रंजन। कुसुम के मुंह से निकला।'
'जान पड़ता है मैंने आपको कहीं देखा है!'
'कुछ दिन हुए तुम मुझे ट्रेन में.....।'
'हां, मैं आपसे कितना लज्जित हूं। रंजन ने आंखें नीची कर लीं। परंतु आप यहां कैसे?'
'एक बहन अपने भाई से मिलने आई है।'
'तुम... यह... क्या?'
'क्या तुम मुझे नहीं पहचानते? मैं हूं तुम्हारी कुसुम।'
'कुसुम....।' उसके मुख से अनायास निकला और उसने आगे बढ़कर कुसुम को गले से लगा लिया। उसकी आंखों से आंसू बह निकले। वह उसे अंदर गुफा में ले गया और एक चटाई बिछा दी। कुसुम उस पर बैठ गई।
'तुम आज पहली बार मेरे घर आई हो और मैं तुम्हारी कोई सेवा भी नहीं कर सकता।'
'तुम मुझे मिल गए। यह क्या कुछ कम है?'
'परंतु तुम इस प्रकार अपने प्राणों को संकट में डालकर यहां आ कैसे गई?'
"तुम्हारा प्रेम खींच लाया।'
'क्या पिताजी को मालूम है?'
'नहीं।'
'यह तुमने अच्छा नहीं किया। यदि उन्हें पता चल गया तो खैर नहीं।'
'इसकी तुम चिंता न करो। आओ चलो।'
'कहां?'
'मैं तुम्हें लेने आई हूं।'
'क्यों?'
'तुम्हें यहां से निकालकर ले जाना चाहती हूं।'
'तुम बहुत देर से पहुंची, अब मैं नहीं जा सकता।'
"परंतु क्यों?'
'इसका उत्तर मेरे पास नहीं।'
'क्या तुम्हें अपने जीवन पर दया नहीं आती रंजन? अपने पिता और बहन पर दया नहीं आती?'
'दया और अपने जीवन पर! नहीं! अपने पिता पर! नहीं कभी नहीं। फिर ऐसे पिता पर जिन्होंने मुझे अपने आप ही अंधेरे कुएं में धकेला।'
'यह तुम क्या कह रहे हो?'
"ठीक कह रहा हूं, तुम नहीं जानतीं... मुझे जिस रास्ते पर डाला गया है उसके जिम्मेदार केवल पिताजी ही हैं। परंतु जो कुछ भी उन्होंने किया सब ठीक है। अब मैं इसी में प्रसन्न हैं
और शायद उनसे अधिक।'
'यह कैसे हो सकता है? कोई पिता अपने पुत्र का जीवन नष्ट नहीं कर सकता। मनुष्य अपनी ही कमजोरियों से नष्ट होता है और अपराधी दूसरे को ठहराता है।'
'इसलिए कि वह एक कमजोर प्राणी है और दूसरे उसकी कमजोरी से लाभ उठाते हैं।' 'रंजन, मैं नहीं जानती थी कि तुम अपने पिता पर ऐसा दोष लगाओगे।'
'तुम्हारे हृदय में जो अपने बाबा के लिए स्थान है वह मेरे लिए तो नहीं?'
'ठीक है, तुम्हें कभी अपने बाबा के बराबर स्थान नहीं दे सकती। जो बाबा अपनी लड़की का जीवन बनाने में अपना जीवन दे दे, क्या वह अपने लड़के को कभी ऐसे भयानक रास्ते पर डालेगा जो तुमने अपनाया है? यह असंभव है।'
'यही सोचकर तो मैं हैरान हूं कि मेरे जीवन से वह ऐसा भयानक खेल क्यों खेले?'
'जो भी तुम समझते हो सब ठीक है। मैंने बहुत बड़ी भूल की जो यहां तुम्हें लेने के लिए आ गई।' कहकर वह उठी और जाने के लिए तैयार हो गई।
तो तुम जा रही हो और मुझसे नाराज होकर? ठहरो, मैं तुम्हें गांव तक छोड़कर आऊं।''
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'मुझे कोई आवश्यकता नहीं है।' यह कहकर वह तेजी से कदम बढ़ाती हुई जाने लगी।
'कुसुम ठहरो।' रंजन ने पुकारकर कहा। कुसुम ठहर गई। रंजन ने पास आकर कहा, 'क्यों कुसुम बिगड़ गई?' रंजन ने कुसुम के आंसू पोंछे। 'तुम न घबराओ, मैं जल्दी ही तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा।'
'सच?'
'कुछ विचार तो ऐसा ही है।' यह कहकर रंजन ने उसे गले से लगा लिया।
'चलो, अब मुझे गांव तक छोड़ आओ।' कुसुम ने कहा। कुसुम जब घर पहुंची तो दिन बहुत चढ़ चुका था। वह डरते-डरते ड्योढी से निकलकर आंगन में आई। राज बाब सामने ही तख्त पर बैठे थे। उसे देखते ही बोले, 'क्यों मिल आई रंजन से?'