Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास ) - Page 5 - SexBaba
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Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास )

"मैं चाहूंगी, क्यों नहीं चाहूंगी ?"

"कब चाहोगी ?"

"जब आपके साथ अग्नि के गिर्द सात फेरे ले चुकी होऊंगी।"

"लानत ! लानत !"

वह हंसी ।

"अब यह तो बको कि फोन क्यों किया ?"

"इसलिए किया क्योंकि यहां ऑफिस में आपके फोन पर फोन आ रहे हैं।"

"किसके ?"

"आपकी फैन क्लब के और किसके ? उन्हीं बहनजियों के जिन्हें आपसे कुछ खास तरह की उम्मीदें हैं और जिनसे
आपको कुछ खास तरह की उम्मीदें हैं।"

"मसलन ?"

"मसलन एक तो कोई मिस जूही चावला आपसे बात करने को मरी जा रही थीं । दूसरी बहन जी मरी तो नहीं जा रही थीं लेकिन बात करने की ख्वाहिशमंद काफी थीं।"

"दूसरी कौन ?"

"दूसरी ने नाम नहीं बताया था लेकिन अपना फोन नंबर दिया है।"

"नंबर बोलो।"

उसने मुझे एक फोन नंबर बताया जो कि मैंने नोट कर लिया। "और ?" - मैं बोला।

"और बस । अब सिर्फ इतना और बता दीजिए कि आज आपके ऑफिस में दर्शन होंगे ?"

"ऑफिस में बैठूगा तो तुम्हारी तनखाह कैसे कमाकर लाऊंगा ?"

"यानी कि नहीं होंगे ?"

"कैसी कमबख्त औरत हो ? अपनी तनखाह की फिक्र है, मेरी दाल-रोटी की फिक्र नहीं ।”

"आपका काम कहीं चलता है दाल-रोटी से ! चलता है तो फिर मेरी तनखाह ही हम दोनों के लिए काफी है।"

“एक नंबर की कमबख्त औरत हो।"

"आपने यह बात कल भी कही थी और कल भी मैंने इसमें दो संशोधन किए थे। मैं एक नंबर की नहीं हूं और मैं
औरत नहीं हूं।"

"तुम जरूर आदमी हो, तभी तो..."

उसने लाइन काट दी। मैंने डायरैक्ट्री में जूही चावला का नंबर तलाश किया और उस पर फोन किया। वह लाइन पर आई तो मैंने उसे अपना परिचय दिया। "मैंने तुम्हारे ऑफिस में फोन किया था ।" - वह बोली।

“मुझे मालूम हुआ है। तभी तो मैं फोन कर रहा हूं । फरमाइए, क्या खिदमत है है मेरे लिए ?"

"मैं तुमसे मिलना चाहती हूं।"

“किस सिलसिले में ?"

। "मिस्टर अमर चावला की मौत के सिलसिले में । मुझे मालूम हुआ है कि चावला साहब की मौत के वक्त तुम
उनकी पत्नी के साथ घटनास्थल पर थे।"
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,,, "कैसे मालूम हुआ है ?"

"अखबार में छपा है।"

"ओह ! आपका चावला की मौत से क्या रिश्ता है ?"

"यह मैं मुलाकात होने पर बताऊंगी। फिलहाल इतना जान लो कि मुझे तुम्हारी मदद दरकार है।"

"मेरी कारोबारी मदद ?"

| "इस बात से तुम्हारा इशारा अगर अपनी फीस की तरफ है तो तुम चिंता मत करो । तुम्हारी जो भी फीस होगी, मैं
अदा कर दूंगी।"

"वैरी गुड ।”

"तुम आ रहे हो ?"

"मैं शाम को आऊंगा।"

"शाम को ? फौरन नहीं आ सकते ?"

“जी नहीं । फौरन तो आना मुमकिन न होगा। शाम पांच बजे मैं आपके दौलतखाने पर हाजिर हो जाऊंगा।"

"अभी आ पाते तो अच्छा होता ।" - वह चिंतित भाव से बोली ।।

"सॉरी !"

"ठीक है । पांच बजे ही सही । लेकिन पहुंच जाना पांच बजे ।"

"मैं जरूर पहुंचूंगा।" वह मुझे अपने घर का पता समझाने लगी जिसकी तरफ कान देने की मैंने कोशिश नहीं की। उसने संबंध विच्छेद किया तो मैंने दूसरा नंबर डायल किया ।। दूसरी ओर से तुरंत उत्तर मिला ।

"जान पी एलैग्जैण्डर एंटरप्राइसिज ।" - कोई महिला मधुर स्वर में बोली ।

मैं हैरान हुए बिना न रह सका । नंबर वहां का निकलेगा, इसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। |

"मेरा नाम राज है" - मैं बोला - "मुझे इस नम्बर पर रिंग करने का संदेशा मिला था।"

“यस, मिस्टर राज । प्लीज होल्ड ऑन । मिस्टर एलैग्जैण्डर वुड लाइक टू स्पीक टू यू ।"

"ओके ।" थोड़ी देर बाद एलैग्जैण्डर का दबंग, तकरार पर उतारू स्वर मुझे सुनाई दिया। " राज शर्मा" - वह बोला - "तेरे से मिलने का है।"

"तो मैं क्या करू?" - मैं रुखाई से बोला।

"आकर मिल और क्या करू ?"

"कल तुम्हारे चौधरी नाम के एक चमचे से तो मिला था मैं । अभी खबर लगी या नहीं ?"

"लगी । तेरे को फौरन इधर पहुंचने का है।"

"किसलिए ?"

"तेरे पास अपुन की एक चीज है जो अपुन को चाहिए।"

"वही चीज जिसकी चौधरी को तलाश थी ?"

"हां ।"

"यूं ही फोकट में ?"

"हासिल तो अपुन फोकट में भी कर सकता है लेकिन पैसा देगा।"

"कितना ?"

"तू खुद अपनी औकात बोल ।"

“एक लाख ।"

“भेजा फिरेला है ?

पचास हजार ?"

"पांच । यह भी ज्यास्ती है।" |

"दस से एक पैसा कम नहीं ।”

"डन । अपुन का ऑफिस मालूम है ?"

"मालूम है।"

“गुड । चीज लेकर इधर पहुंच । रोकड़ा मिल जायेगा ।"

"कोई धोखा तो नहीं होगा ?"

"अबे छोकरे ! तू एलैग्जैण्डर से बात कर रहा है, किसी जेबकतरे से नहीं ।"

"ठीक है। मैं शाम को आऊंगा।"

"कितने बजे ?"

"साढ़े छ: बजे ।”

"मंजूर । अपुन इधर ही होयेंगा।" लाटन कट गई।
 
तब मैं बिस्तर से निकला। नित्यक्रम से निवृत होकर और नया सूट पहनकर जब मैं तैयार हो गया तो मैंने लैजर बुक निकाली। अगर उस डायरी के बदले में मुझे दस हजार रुपये हासिल हो सकते थे तो मुझे उसकी ज्यादा हिफाजत करनी चाहिए थी।

मैंने उसे टॉयलेट में पानी की टंकी के ढक्कन के भीतरी भाग के साथ टेप लगाकर फिक्स कर दिया ।

मैं बाहर की ओर बढा । बैठक में मैं ठिठका । मेरी निगाह उस दीवार पर पड़ी जहां से पलस्तर उखड़ा पड़ा था।
हमेशा ही पड़ती थी ।

वह उखड़ा पलस्तर मेरी जिन्दगी की एक बहुत अहम घटना की यादगार था। कभी मैंने वहां दीवार पर एक विस्की की बोतल फेंककर मारी थी। वह उखड़ा पलस्तर मेरी निम्फोमैनियक बीवी मंजुला की यादगार थी जो अब इस दुनिया में नहीं थी। मैंने एक गहरी सांस ली और आगे बढ़ गया । फिर घर से निकलकर जो सबसे पहला काम मैंने किया, वह यह था कि मैंने कमला चावला का बीस हजार रुपये का चैक भुनवाया । नोट मेरे कोट की भीतरी जेब में पहुंच गए तो तब जाकर मुझे विश्वास हुआ कि चैक कैश हो गया था

मैं पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा। वहां मैंने यादव को तलाश किया।

"कैसे आये ?" - यादव तनिक रुखाई से पेश आया ।

“यही जानने आया था कि वह चौधरी नाम का जो चोर गिरफ्तार हुआ था, उससे तुमने क्या जाना ?"

"कुछ नहीं ।”

"कुछ नहीं ? मतलब ?"

“मतलब यह कि कुछ जानने की नौबत आने से पहले ही जान पी एलेग्जैण्डर उसे जमानत पर छुड़ा ले गया।"

"ओह !" - मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - "चौधरी कुछ तो बका होगा !"

"कुछ नहीं बका। वह कहता है कि वह तो अपने साहब का एक सन्देशा लेकर चावला की कोठी पर गया था जहां कि तुमने उसे पकड़कर खामखाह पीटना शुरू कर दिया था।"

"वह कोठी के भीतर स्टडी में कैसे पहुंचा ?"

"उसे पहुंचाया गया था। एक नौकर उस वहां बिठाकर गया था।"

"कोई नौकर ऐसा कहता है ?" ।

"नहीं कहता । इसलिए नहीं कहता क्योंकि मालकिन ने और उसके चमचे ने यानी कि तुमने ऐसा कहने के लिए मना किया है।"

"उसके पास रिवॉल्वर थी।"

"उसके पास कोई रिवॉल्वर नहीं थी । जो रिवॉल्वर तुम उसके पास से बरामद हुई बताते हो, वह नहीं जानता कि वह कहां से आई !"

"उसने डंडे के प्रहार से मेरी खोपड़ी खोलने की कोशिश की थी।"

"की थी, लेकिन तब की थी जब तुम उसे जान से मार देने पर आमादा हो गए थे।"

"कमाल है ! तुम्हें उसकी इस कहानी पर विश्वास है ?"

"नहीं ।"

"फिर भी तुमने उसे छोड़ दिया ?"

"मजबूरी थी। लेकिन मैंने उसकी निगरानी के लिए एक आदमी तैनात किया हुआ है । चौधरी दोबारा मय सबूत हमारे हत्थे चढ़ सकता है।"

वह मेरे लिए कोई सांत्वना न थी ।

मैं झण्डेवालान पहुंचा। वहां हत्प्राण के वकील बलराज सोनी का वह दफ्तर था जिसका पता मैंने डायरेक्ट्री में देखा था। बलराज सोनी वहां मौजूद था। मेरे आगमन से वह खुश हुआ हो, ऐसा मुझे न लगा । "कैसे आये ?" - वह बोला ।

"कोई खास वजह नहीं ।" - मैं लापरवाही से बोला – "इधर से गुजर रहा था । सोचा, मिलता चलूं ।”

"कुछ पियोगे ?"

"नहीं, शुक्रिया।" वह खामोश हो गया।

“पुलिस ने आपसे कोई पूछताछ नहीं की ?" - मैंने सहज भाव से पूछा।

"किस बाबत ?"

"चावला साहब के कत्ल की बाबत ।"

"मुझसे क्या पूछते वो ?"

"मसलन यही कि कत्ल के वक्त आप कहां थे?"
 
"मैं कहां था ?" - वह अचकचाया - "ऐसे सवाल का मतलब ?"

"आप वकील हैं । कत्ल के मामले से ताल्लुक रखते इतने मामूली सवाल का मतलब नहीं समझते आप ?"

"तुम्हारा मतलब है कि पुलिस यह सोच सकती है कि कत्ल मैंने किया होगा ?"

"हत्प्राण के इर्द-गिर्द के लोगों से ऐसे सवाल पूछने का पुलिस में रिवाज होता है।"

"मैंने चावला का कत्ल नहीं किया । मैं भला क्यों कत्ल करूगा उसका ? अलबत्ता उस शख्स का कत्ल मैं कर सकता हूं जिसने कि यह जलील काम किया ।"

"वैसे कहां थे आप कत्ल के वक्त के इर्द-गिर्द ?"

"शाम को तो" - वह सोचता हुआ बोला - "मैं यहीं था। फिर एक फ्रेंड से मिलने मैं हौजखास गया था। वहां वह मिला नहीं था। फिर हौजखास के ही एक रेस्टोरेंट में मैंने खाना खाया था। वहां से मैं दोबारा अपने फ्रेंड के घर गया। था। तब वह मुझे मिल गया था। वहीं से मैंने फार्म पर टेलीफोन किया था तो कमला से मुझे चावला साहब की मौत की खबर मिली थी ।"


"चावला साहब को फोन किया क्यों था आपने ?"

"कोई कानूनी नुक्ता था जिसकी बाबत दिन में उन्होंने मुझसे सवाल किया था। उन्होंने मुझसे कहा था कि जब भी मुझे उसका जवाब सूझे तो मैं फौरन फोन करू उन्हें । हौजखास में जिस फ्रैंड के पास मैं गया था, वह पूर्व वकील है। ० मैंने उससे वह नुक्ता डिसकस किया था। वहीं बात क्लियर हुई थी इसलिये मैंने वहीं से चावला साहब को फोन खड़का दिया था।"

"क्या नुक्ता था वो ?"

"नुक्ता लीज पर, पट्टे पर, हासिल हुई जमीन-जायदाद की कानूनी पेचीदगियों से ताल्लुक रखता था ।"

"आई सी । कल रात आपने चावला साहब की वसीयत का जिक्र किया था। उसके बारे में कुछ बतायेंगे आप ?"

"क्या ?"

“यही कि वे कितना छोड़ गये हैं, किसके लिये छोड़ गये हैं वगैरह !"

"उनका बिजनेस और गोल्फ लिंक वाली कोठी मिलाकर वे कोई पांच करोड़ की हस्ती थे।"

मेरे मुंह से सीटी निकल गई।

"और वारिस किसे बना गए वे इसका ?" . –

जवाब उसने यूं दिया जैसे वारिस का नाम वह अपनी जुबान पर न लाना चाहता हो ।
"जूही चावला को ।”

"मुकम्मल माल का ?" - मैं हैरानी से बोला - "उस लड़की को वे अपना इकलौता वारिस बना गये ?"

"इकलौता नहीं । लकिन उनकी सम्पत्ति का बड़ा भाग उसी को मिलना है।"

"और बीवी को ?"

"वसीयत में कमला का भी जिक्र है।"

"कैसा ? जैसा आम के साथ गुठली का होता है ?"

"इतना बुरा हाल तो नहीं हैं लेकिन मेजर शेयर जूही को ही मिलेगा।"

"बीवी को इस बात की खबर है ?"

"नहीं । यह नई वसीयत चावला साहब ने अपनी मौत से कछ ही दिन पहले लिखवाई थी । उन्होंने मुझे इसे राज रखने की खासतौर से हिदायत दी थी।" - आखिरी फिकरा उसने यूं कहा जैसे वह फिर भी वसीयत के बारे में मुझे बताकर मुझ पर भारी अहसान कर रहा हो।
 
"चावला साहब के बिजनेस का क्या होगा ?" - मैंने नया सवाल किया - "उसे जूही चलायेगी अब ?"

"नहीं ।”

"तो ?"

"बिजनेस तो खत्म हो जायेगा ।"

"क्यों ?"

"क्योंकि मद्रास होटल में जिस जगह पर चावला मोटर्स का बिजनेस है, वह जगह लीज (पट्टे) की है जो कि उन्होंने कई साल पहले पचास साल की लीज पर किराये के नाम पर कौड़ियों के मोल हासिल की थी। लीज की एक शर्त । यह भी थी कि उनकी मौत की सूरत में वह लीज भंग मानी जायेगी और जगह के मालिक को उसका खाली कब्जा - हासिल करने का अधिकार होगा।"

"मालिक कौन है जगह का ?"

"कस्तूरचंद नाम का एक आदमी।"

"करता क्या है वो ?"

"प्रॉपर्टी डीलर है।"

"कहां ?"

“गोल मार्केट में ।"

"मद्रास होटल वाली वह जगह तो बहुत कीमती है।"

"आज कीमती है। पहले नहीं थी । इसीलिये वह जगह खाली कराने के लिये कस्तूरचंद कोई कोशिश उठा नहीं रख रहा था लेकिन लीज की लिखा-पढ़ी इतनी मजबूत है कि उसकी एक नहीं चलती थी" - वह एक क्षण ठिठका और बोला - "सिर्फ चावला साहब की मौत ही उस लीज को भंग कर सकती थी।"

ऐसे माहौल में तो दोनों में अनबन भी बहुत रही होगी !"

"अनबन क्या, दुश्मनी थी। चावला साहब तो खुन्दक में कभी-कभार उसके प्रापर्टी के धंधे में भी घोटाला कर देते थे

"वो कैसे ?"

"कस्तूरचन्द जब कोई बड़ा सौदा पटा रहा होता था तो वे ग्राहक का पता लगा लेते थे और उसे ऐसा भड़का देते थे कि वह सौदे से पीछे हट जाता था।"

"यह तो बड़ी गलत बात है।"

उसने लापरवाही से कंधे उचकाये ।

"चावला साहब के बिजनेस को फरोख्त करने का इन्तजाम भी आप ही करेंगे ?"

"हां । यह जिम्मेदारी भी मुझ पर ही है। तुम्हारी जानकारी के लिये उनके बिजनेस का एक खरीददार खुद कस्तूरचंद
भी है।"

"अच्छा !"

"हां । आज सुबह ही उसने मुझे फोन किया था इस बारे में।"

"यानी कि आज की तारीख में अपने मौजूदा ठिकाने पर चावला मोटर्स का बिजनेस तभी चल सकता है, जबकि
खरीददार कस्तूरचंद हो?" |

"हां । वरना चावला मोटर्स का तमाम तामझाम, टीन-टप्पर वहां से हटाया जाना पड़ेगा।"

"वसीयत के बारे में आपकी जूही से बात हुई ?"

“हुई।"

"और मिसेज चावला से ?"

"वो मैं अभी करूंगा।"

"आप मुझे वसीयत दिखा सकते हैं ?" " वह हिचकिचाया । फिर उसकी मुंडी अपने-आप ही इनकार में हिलने लगी।

"वकील साहब, अब यह क्या कोई राज रह गया है ? जो बात आप मुझे जुबानी वता चुके हैं, उसके दस्तावेज मुझे दिखाने में आपको क्या ऐतराज है ?"

"वसीयत देखकर तुम्हें क्या हासिल होगा ?"

"मेरे मन की मुराद पूरी होगी ।"

"क्या ?"

बचपन से ही दो मुराद थीं मेरे मन की । एक ताजमहल देखने की और दूसरी किसी रईस आदमी की वसीयत देखने की । और ताजमहल मैं पिछले हफ्ते देख आया हूं।"
 
"तुम्हारी बातें मेरी समझ से परे हैं।"

"वसीयत दिखा रहे हैं आप ?"

"नहीं ।" - वह दृढ़ स्वर में बोला - "मैं वसीयत नहीं दिखा सकता।"

"लेकिन..."

"नो।" - वह बदस्तूर इनकार में सिर हिलाता रहा।

“वसीयत की एक बेनिफिशियरी मेरी क्लायंट है।"

"दैट डज नॉट मैटर । तुम्हें वसीयत दिखाने के लिये कमला का तुम्हारा क्लायंट होना काफी वजह नहीं ।”

"अच्छा इस बात की तसदीक कीजिये कि वसीयत में जो कुछ है वो सब आपने मुझे बता दिया है।"

"सब अहम बातें मैंने तुम्हें बता दी हैं ।"

"कोई कम अहम बात हो ?"

वह फिर हिचकिचाया।

"यानी कि है ?"

"वसीयत में एक क्लॉज" - वह पूर्ववत हिचकिचाता हुआ बोला - "यह भी है कि यदि कमला चावला की जिंदगी में जूही चावला की मौत हो जाती है तो चावला साहब की सम्पूर्ण संपत्ति की स्वामिनी कमला चावला होगी।"

"अजीब क्लॉज है यह !"

"कुछ मामलों में थे चावला साहब अजीब आदमी ।"

; । "आप )जानते हैं।"

“कौन लो भटनागर । ३ परिसिर ! मैट्रो एडवरटाइजिंग वाला ?"

"वही ।"

"जानती हैं।"

"चावला साहब से वैसे जान से उसके ?"

"वैसे ही जो यार-दोस्तों, के पास में होते हैं।"

"कोई खास रिश्तेदारी न कोई बिजनेस रिलेशंस नहीं ?"
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"मेरी जानकारी में तो न ।”

सहयोग का शुक्रिया, सोनी स ।” - एकाएक मैंने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया । उसने हड़बड़ाकर मेरा हाथ थामा और छोड़ दिया ।
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कस्तूरचंद का ऑफिस ओटा-सा था, लेकिन बड़ी खूबसूरती और नफासत से सजा हुआ था। बाहर बैठी सजावटी . कन्या को मैंने यही बताया कि मैं एक डिटेक्टिव था और कस्तूरचंद से मिलना चाहता था। तुरन्त मुझे कस्तूरचन्द के पास भेज दिया गया। वह एक कोई पचास साल का, चुका हुआ-सा आदमी निकला। वह बड़े प्रेम-भाव से मेरे से मिला । उसने मेरे लिये कैम्पा कोला मंगाया और सिगरेट पेश किया। सिगरेट क्योंकि मेरे ही ब्रांड वाला था, इसलिये मैंने ले लिया। मैंने उसके साथ सिगरेट सुलगाया और कैम्पा कोला की चुस्की ली । "बोल्लो जी ।" - वह बोला - "क्या सेवा है म्हारे वास्ते ?" वह मुझे पुलिसिया समझ रहा था और उसका भ्रम दूर करने का मेरा कोई इरादा नहीं था।

"अमर चावला के कत्ल की खबर तो लग गई होगी आपको ?" - मैं बोला।

"लगी है, जी ।"

"किसने किया होगा उनका कत्ल ?"

"यह म्हारे को क्या मालूम जी ?"

"कल रात आप कहां थे?"

"म्हारे पै शक कर रहे हो जी ?" ।

“यूं ही सवाल कर रहा हूं। सवाल करना मेरा काम है, मेरा पेशा है।"

"वो तो है जी ।" - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - "कल शाम मैं रीगल पै इवनिंग शो देख रिया था, जी ।"

"अकेले ?"

"हां ।"

"यह बात आप साबित कर सकते हैं ?"

"कैसे कर सकें हूं जी ? म्हारे को मालूम होता कि चावला दें बोलने वाला था तो जाता कोई गवाह संग लेकर ।

” "मुझे आपकी लीज के बारे में मालूम हुआ है।"

"किससे मालूम हुआ है ?"

"चावला के वकील से । उसकी मौत से आपको तो फायदा हो गया ।"

"इब झूठ क्या बोल्लू ! घना फायदा हुई गया, जी । सच पूछो तो जिन्दगी मां पैल्ली बार किसी मानस को मरता देख के खुशी हुई है।"

"आपने मरता देखा था उसे ?"

"न, जी । मैं तो एक बात कहूं हूं । देखकर से म्हारा मतलब है जानकर मरा जानकर । खबर सुनकर ।”

"बहुत अनबन थी आपकी उससे ?"

घनी चोक्खी ।"

"लीज की वजह से ?"

“हां जी । लीज भी एक वजह थी ।

" "लीज क्या चावला ने आपसे जबरदस्ती कराई थी ?"

"नां जी । जबरदस्ती तो नां कराई थी।" |

"फिर जो बिजनेस आपने अपनी रजामन्दगी से उसके साथ किया, उससे शिकायत कैसी ? बिजनेस में ऊंच-नीच
होती ही है। अगर आपने अपनी जमीन उसे सस्ते में दी और लंबी लीज पर दी तो इसमें चावला की क्या गलती थी

"इस मां चावला की कोई गलती नां थी, जी । गलती वाली बल्कि धोखाधड़ी वाली बात कोई और है, जी ।"

"और क्या बात है?"

"चावला आज घना रोकड़ वाला बनकर मरा है। पंद्रह साल पहले जब मैंने उसे लीज पर जमीन दी थी तो वह मामूली व्यापारी था । तब उसके मोटरों के धंधे मां म्हारी भी पार्टनरशिप तय हुई थी । लीज की सालाना रकम के अलावा उसने मुझे अपने धंधे में भी प्रॉफिट देने का वादा किया था । पट्टा बाद मां मुकर गया।"

"पार्टनरशिप की कोई लिखत-पढ़त नहीं थी ?"

"नां थी । बोल्यो वा की जरूरत नां थी । बोल्यो जुबान से बड़ी चीज कोई ना होवे थी । बेवकूफ बनाय दिया मने सुसरे ने ।"
"सुना है, वह आपका धंधा बिगाड़ने की भी कोशिश करता था ?"
 
"बहुत घनी कोशिश करे था। खंदक खावे था वो म्हारे से । नफरत करे था । म्हारी मेहरबानियों का भी कोई मोल नां डाला सुसरे ने । मैंने वा का भला किया, वा म्हारे को बर्बाद करना चावे था।"

"आपने क्या भला किया उसका ?"

"मैंने ही वा को या जुगाड़ करके दिया हो की वा दिल्ली मां अपनों पांव जमा सको । वा बंबई से कड़का हुई के हियां
आवा रहा । बोल्यो बंबई में उसके साथ व्योपार में घना धोखा हुई गयो । वा का मैनेजर वा की इतनी रकम खायो गयो कि वा को दिवालिया घोषित होना पड़ सकयो । मैंने वा को सस्ती लीज की जमीन दियो, धंधा शुरू करने को रोकड़ा
दियो । ससुरा अहसान तो को नां मान्यों । ऊपर सां म्हारा सत्यानाश करू यूँ ।"

"अजीब तरीका है यह अहसान चुकाने का ।"

"देखो तो !"

"सेठ जी, चावला के कत्ल का उद्देश्य तो आपके पास बहुत तगड़ा है । ऊपर से कत्ल के वक्त की आपके पास कोई | एलीबाई भी नहीं ।"

"एली भाई ?" - वह सकपकाया ।

"एलीबाई ! शहादत ! गवाही !"

"मां रीगल मां बैट्ठा होड़ ।"

"लेकिन इस बात को आप साबित नहीं कर सकते ।"

"वो तो बरोबर है।"

"आपने कत्ल किया है चावला का ?"

"नां, जी । म्हारे सां तो मक्खी न मारी जावे । और फिर ऐसा इरादा होता तां मन्ने इतने साल इंतजार थोड़े ही न किया होता !"

"आपके ख्याल से चावला का कत्ल किसने किया होगा ?"

"म्हारे को क्या मालूम जी ? वैसे कत्ल करने वाले को कोई मैडल-वैडल देना हो तो हम दे देंगे । सोने का । हीरे
जड़वा के ।"

मैं हंसा ।
उसने बड़ी शालीनता से हंसी में मेरा साथ दिया।

"बंबई में चावला का क्या बिजनेस था ?"

फाइनान्स का थी। कोई चिट फंड कंपनी चलावे था वा वहां ।"

"मैंने तो सुना है कि चावला बहुत कांइयां आदमी था। दुनिया-जहान को धोखा देने में समर्थ आदमी बिजनेस में - खुद कैसे धोखा खा गया बंबई में ?"

"म्हारे को के खबर ?"

"उसने कभी जिक्र नहीं किया ?"

"म्हारी तो अब सल्लों से ईब वा से मेल-मुलाकात नां है।"

"सुना है आप उसका बिजनेस खरीदना चाहते हैं ?"

"हां । म्हारे से तो वा की बेवा को अच्छा रोकड़ा हासिल हो जावेगा । नीलामी लगेगी तो क्या पल्ले पड़ेगा ?"

"नीलामी लगेगी ?"

"जरूर लगेगी। एक तो तीस दिन मां वा जगह खाल्ली की जानी जरूरी है। दूसरे एस्टेट ड्यूटी भरने के लिए बेवा के पास रोकड़ा और किधर से आवेगा ?"

"यह आपको किसने बयाया कि चावला साहब के बिजनेस की खरीद के मामले में आपका वास्ता उसकी विधवा से पड़ेगा ?"

"और किससे पड़ेगा ? एक ही तो वारिस है सुसरे का ।"

"वह सुसरा काले चोर को अपना वारिस बना सकता था।"
 
बनाए गया के ?"

"हां । बनाए गया । आपने उसके वकील से बात की थी। उसने कुछ नहीं बताया आपको ?"

"नां, जी ।"

"मालूम हो जाएगा" - मैं उठ खड़ा हुआ ।

"बैठो, जी । कॉफी मंगावें ?"


"नहीं, शुक्रिया । अब मैं रुखसत चाहता हूं । जाती बार आपको एक बात बता जाना चाहता हूं।"
"वा का ?"

"मैं पुलिस नहीं हूं। मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूं।

" पिराइवेट डिटेक्टिव ?" - वह बोला - "फिर तो हम थमें जान गए होड़ ।"

"अच्छा !"

"हां ! थम राज हो ?"

"कैसे जाना ?"

"चावला की मौत की खबर के साथ थमारा नाम छापे में छपा होड़ ।"

"ओह !"

"वैसे जो बातां मैंने थमारे सां की, वा म्हारे को पिराइवेट डिटेक्टिव से भी करने से गुरेज न होवे था । म्हारा दिल साफ

"जानकार खुशी हुई।” मैं फिर से उसका शुक्रिया अदा करके वहां से विदा हो गया।
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टेलीफोन डायरेक्ट्री के मुताबिक शैली भटनागर की मैट्रो एडवरटाइजिंग एजेंसी एंड साउंड स्टूडियो जनपथ पर शॉपिंग सेंटर की भीड़-भाड़ से परे उसके कनाट प्लेस से लगभग दूसरे सिरे पर क्लेरिसीज होटल के करीब था। शैली भटनागर का व्यवसाय-स्थल मैंने अंग्रेजों के जमाने की बनी एक एकमंजिला कोठी में पाया । कोठी के गिर्द विशाल लान था और उसके लकड़ी के फाटक पर एक चौकीदार बैठा था। टैक्सी को भीतर दाखिल होने की ख्वाहिशमंद पाकर उसने बिना हुज्जत किए फाटक खोल दिया । कोठी की पोर्टिको में मैं टैक्सी से उतरा । मैंने टैक्सी का भाड़ा चुकाकर उसे विदा किया। भीतर मेरे कदम एक सजे रिसेप्शन पर पड़े। "मैं डिटेक्टिव हूं।" - मैं जानबूझकर रूखे स्वर में वहां बैठी सुंदरी बाला से बोला - "मैं अमर चावला के कत्ल की बाबत शैली भटनागर से मिलना चाहता हूं।"

डिटेक्टिव शब्द का अनोखा रोब था। उसने फौरन शैली भटनागर को फोन किया। फिर उसने मुझे एक चपरासी के सुपुर्द कर दिया। जिस ऑफिस में चपरासी मुझे छोडकर गया, वह एडवरटाइजिंग के ग्लैमरस धंधे जैसा ही ग्लैमरस था । वहां की हर बात में रईसी की बू बसी थी । शैली भटनागर निश्चय ही बहुत पैसे कमाता था। वह एक अधेड़ावस्था का लेकिन फिल्म अभिनेताओं जैसा खूबसूरत व्यक्ति था । उसके बाल तकरीबन सफेद थे लेकिन वह उनमें भी जंच रहा था । वह एक शानदार सूट पहने था। "हैलो !" - उसने उठकर मुझसे हाथ मिलाया - "मुझे शैली भटनागर कहते हैं।"

"और बंदे को राज ।" - मैं बोला।

"तशरीफ रखिए ।"

मैं एक निहायत आरामदेह कुर्सी में ढेर हो गया।

"तो आप डिटेक्टिव हैं ?" - वह बोला ।

"प्राइवेट ।" - मैंने बताया।

"मुझे मालूम है।"

"कैसे मालूम है ?"

"अभी-अभी मालूम हुआ है, जनाब ! आपके नाम से । पेपर में मैंने चावला के कत्ल के संदर्भ में राज
नामक एक प्राइवेट डिटेक्टिव का जिक्र पढ़ा था।"

"आई सी !"

एक चपरासी नि:शब्द भीतर आया और कॉफी सर्व कर गया। मैंने अपना रेड एंड वाइट का पैकेट निकाला और उसे सिगरेट ऑफर किया।

"शुक्रिया" - वह बोला - "मैं सिगरेट नहीं पीता।"

"अच्छा ! विज्ञापन के धंधे से ताल्लुक रखते आप पहले आदमी होंगे जो सिगरेट नहीं पीते ।"

वह हंसा ।। "लेकिन आप शौक से पीजिए ।" - वह बोला।
 
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया। "ताबूत की कील कहिए इसे" - मैं ढेर सारा धुआं उगलता हुआ बोला - "लेकिन क्या करें, साहब ! छूटती नहीं है। जालिम मुंह की लगी हुई ।" वह बड़े शिष्ट भाव से हंसा । मैंने कॉफी की एक चुस्की ली । "तो" - मैं बोला - "चावला साहब से वाकिफ थे आप ?"

"हां ।" ।

"अच्छी, गहरी वाकफियत थी ?"

"हां, थी ही । मैं उनकी पार्टियों में जाया करता था । वे हमारी पार्टियों में आया करते थे। यही होती है अच्छी वाकफियत की पहचान ।”

"उनके कत्ल से आपको हैरानी नहीं हुई ?"

"हुई । सख्त हैरानी हुई । ऐसी तो कोई बात नहीं थी चावला साहब में जिसकी वजह से कोई उनका कत्ल कर डालता ।"

"क्या वो अपनी जान का खतरा महसूस करते थे ?"

"क्या पता, वो क्या महसूस करते थे ! ऐसे कोई नोट्स उन्होंने कभी मेरे से तो एक्सचेंज किए नहीं थे।"

"आखिरी बार आप कब मिले थे चावला साहब से ?" ,

"कुछ ही दिन पहले ।"

"कहां ?"

"यहीं । मेरे ऑफिस में ।"

"कैसे आना हुआ था उनका ?"

"यूं ही कर्टसी कॉल ।”

"यानी कि" - मैं उसे अपलक देखता हुआ बोला - "जान पी एलैग्जैण्डर का जिक्र तक नहीं आया था ?"

"कौन जान पी एलैग्जैण्डर ?"

"आप इस नाम के किसी शख्स को नहीं जानते ?"

"न ।"

"हैरानी है।"

"किस बात की ?"

"फिर भी आपका नाम उसकी लैजर बुक में दर्ज था । बीस हजार रुपए की रकम के साथ । हैरानी है कि बना एक । ऐसे शख्स को बीस हजार रुपए दिये जिसके नाम से तो आप वाकिफ नहीं लेकिन जो आपके नाम से बाखूबी वाकिफ


वह खामोश रहा। वह कितनी ही देर खामोश रहा। मैं बड़े धैर्यपूर्ण ढंग से सिगरेट के कश लगता उसके दोबारा बोलने की प्रतीक्षा करता रहा। "कैसे जाना ?" - अंत में वह धीरे से बोला ।

"एलैग्जैण्डर की लैजर बुक से जाना जो कि इस वक्त" - मैं तनिक ठिठका - "मेरे पास है।"

"यह कैसे हो सकता है ?"

हो ही गया है किसी न किसी तरह ।"

"फिर भी पता तो लगे कि एलैग्जैण्डर की लैजर बुक तुम्हारे पास कैसे पहुंच गई ?"

"बताता हूं। पहले आप कबूल कीजिये कि आप एलैग्जैण्डर को जानते हैं।"

"किया कबूल ।"

"मुझे वह लेजर बुक चावला साहब की कोठी पर उनकी स्टडी में उसकी मेज के दराज में पड़ी मिली थी । उसमें
आपके नाम वाली एंट्री के गिर्द लाल दायरा खिंचा हुआ था । ऐसा एलैग्जैण्डर ने तो किया नहीं होगा क्योंकि उसके लिए तो लैजर की सब एंटियां एक जैसी थी । ऐसा अगर चावला साहब ने किया था तो वे निश्चय ही आपके और एलैग्जैण्डर के किसी रिश्ते के बारे में कुछ जानते थे ।”

"चावला का कत्ल उस लैजर-बुक की वजह से हुआ हो सकता है ?" |

"हो सकता है। उस लैजर बुक के तलबगार आप भी हो सकते हैं, इसलिये..."
, मैंने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

"कातिल मैं भी हो सकता हूं।" - उसने फिकरा मुकम्मल किया।

"ए वर्ड टु दि वाइज ।"

"मैंने कत्ल नहीं किया ।"

"दैट्स वैरी गुड ।"

"पहाड़गंज में मेरा एक सिनेमा है। वहां तोड़-फोड़ और गुण्डागर्दी की वारदात अकसर हुआ करती थी। फिल्म देखने आने वालों के मन में दहशत बैठती जा रही थी कि वह सिनेमा उनके लिये सेफ नहीं था । जब से मैंने एलैग्जैण्डर को बीस हजार रुपये दिये हैं तब से उस सिनेमा पर कभी कोई गड़बड़ नहीं हुई है।"
 
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