Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास ) - SexBaba
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Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास )

hotaks444

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[size=large]बेगुनाह हिन्दी नॉवेल चॅप्टर 1[/size]

मैं कनाट प्लेस में स्थित यूनिर्सल इनवेस्टिगेशन के अपने ऑफिस में अपने केबिन में बैठा था। बैठा मैंने इसलिए कहा क्योंकि जिस चीज पर मैं विराजमान था, वह एक कुर्सी थी, वरना मेरे पोज में बैठे होने वाली कोई बात नहीं थी। मेज के एक खुले दराज पर पांव पसारे अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर मैं लगभग लेटा हुआ था। मेरे होंठों में रेड एंड वाइट का एक ताजा सुलगाया सिगरेट लगा हुआ था और जेहन में पीटर स्कॉट की उस खुली बोतल का अक्स बार-बार उभर रहा था जो कि मेरी मेज के एक दराज में मौजूद थी और जिसके बारे में मैं यह निहायत मुश्किल फैसला नहीं कर पा रहा था कि मैं उसके मुंह से अभी मुंह जोड़ लें या थोड़ा और वक्त गुजर जाने दें।

अपने खादिम को आप भूल न गए हों इसलिए मैं अपना परिचय आपको दोबारा दे देता हूं । बंदे को राज कहते हैं। मैं प्राइवेट डिटेक्टिव के उस दुर्लभ धंधे से ताल्लुक रखता हूं जो हिंदुस्तान में अभी ढंग से जाना-पहचाना। नहीं जाता लेकिन फिर भी दिल्ली शहर में मेरी पूछ है। अपने दफ्तर में मेरी मौजूदगी हमेशा इस बात का सबूत होती है कि मुझे कोई काम-धाम नहीं, जैसा कि आज था । बाहर वाले कमरे में मेरी सैक्रेटरी डॉली बैठी थी और काम न होने की वजह से जरूर मेरी ही तरह बोर हो रही थी। स्टेनो के लिए दिये मेरे विज्ञापन के जवाब में जो दो दर्जन लड़कियां मेरे पास आई थीं, उनमें से डॉली को मैंने इसलिए चुना था क्योंकि वह सबसे ज्यादा खूबसूरत थी और सबसे ज्यादा जवान थी । उसकी टाइप और शॉर्टहैंड दोनों कमजोर थीं लेकिन उससे क्या होता था ! टाइप तो मैं खुद भी कर सकता था। बाद में डॉली का एक और भी नुक्स सामने आया था - शरीफ लड़की थी। नहीं जानती थी कि डिक्टेशन लेने का मुनासिब तरीका यह होता है कि स्टेनो सबसे पहले आकर साहब की गोद में बैठ जाये।

अब मेरा उससे मुलाहजे का ऐसा रिश्ता बन गया था कि उसके उस नुक्स की वजह से मैं उसे नौकरी से निकाल तो नहीं सकता था लेकिन इतनी उम्मीद मुझे जरूर थी कि देर-सबेर उसका वह नुक्स रफा करने में मैं कामयाब हो जाऊंगा।

"डॉली !" - मैं तनिक, सिर्फ इतने कि आवाज बाहरले केबिन में पहुंच जाये, उच्च स्वर में बोला ।

फरमाइए ?" - मुझे डॉली की खनकती हुई आवाज सुनाई दी।

"क्या कर रही हो?"

"वही जो आपकी मुलाजमत में करना मुमकिन है।”

"यानी ?"

"झक मार रही हूं।"

"यहां भीतर क्यों नहीं आ जाती हो ?"

"उससे क्या होगा ?"

"दोनों इकट्टे मिलकर मारेंगे।"

"नहीं मैं यहीं ठीक हूं।"

"क्यो ?"

"क्योंकि आपकी और मेरी झक में फर्क है ।"

"लेकिन.."

"और दफ्तर में मालिक और मुलाजिम का इकट्टे झक मारना एक गलत हरकत है। इससे दफ्तर का डैकोरम बिगड़ता है।"

"अरे, दफ्तर मेरा है, इसे मैं..."

"नहीं ।" - डॉली ने मेरे मुंह की बात छीनी - "आप इसे जैसे चाहें नहीं चला सकते । यह आपका घर नहीं, एक पब्लिक प्लेस है।"

"तो फिर मेरे घर चलो।"

“दफ्तर के वक्त वह भी मुमकिन नहीं ।”

"बाद में मुमकिन है ?"

"नहीं ।”

"फिर क्या फायदा हुआ ?"

"नुकसान भी नहीं हुआ ।"

"चलो, आज कहीं पिकनिक के लिए चलते हैं।"

“कहां ?"

"कहीं भी। बड़कल लेक । सूरज कुंड । डीयर पार्क ।”

"यह खर्चीला काम है।"

"तो क्या हुआ ?"

"यह हुआ कि पहले इसके लायक चार पैसे तो कमा लीजिये।"

"डॉली !" - मैं दांत पीसकर बोला ।

"फरमाइए ?"

"तुम एक नंबर की कमबख्त औरत हो ।”

"करेक्शन ! मैं एक नंबर की नहीं हूं। और औरत नहीं, लड़की हूं।"
 
"अपने एम्प्लॉयर से जुबान लड़ाते शर्म नहीं आती है तुम्हें ?"

"पहले आती थी । अब नहीं आती।"

"अब क्यों नहीं आती ?"

"इसलिए क्योंकि अब मेरी समझ में आ गया है कि जब मेरे एम्प्लॉयर को मेरे से जुबान लड़ाने से एतराज होगा तो वह खुद ही वाहियात बातों से परहेज करके दिखाएगा।"

"मैं वाहियात बातें करता हूं?"

"अक्सर ।"

"लानत ! लानत !"

वह हंसी ।

"जी चाहता है कि मार-मार के लाल कर दूं तुम्हें ।"

"लाल !"

"हां ।"

"हैरानी है। आम मर्दो की ख्वाहिश तो औरत को हरी करने की होती है।"

* इससे पहले कि मैं उस शानदार बात का कोई मुनासिब जवाब सोच पाता, टेलीफोन की घंटी बज उठी।

"फोन खुद ही उठाइये" - डॉली बोली - "और भगवान से दुआ कीजिये कि भूले-भटके कोई क्लायंट आपको फोन कर रहा हो । चार पैसे कमाने का कोई जुगाड़ कीजिये ताकि मुझे पहली तारीख को अपनी तनखाह मिलने की कोई उम्मीद बन सके ।

" मैं कुर्सी पर सीधा हुआ । मैंने हाथ बढ़ाकर फोन उठाया । “यूनिवर्सल इन्वैस्टीगेशन ।" - मैं माउथपीस में बोला ।

"मिस्टर राज !" - दूसरी तरफ से आती जो जनाना आवाज मेरे कानों में पड़ी, वह ऐसी थी कि उसे सुनकर : कम-से-कम राज जैसा कोई पंजाबी पुत्तर बेडरूम की कल्पना किए बिना नहीं रह सकता था।

"वही ।" - मैं बोला।

“आप प्राइवेट डिटेक्टिव हैं ?"

“दुरुस्त । मैं डिटेक्टिव भी हूं और प्राइवेट भी ।"

"मुझे आपकी व्यावसायिक सेवाओं की जरूरत है।"

"नो प्रॉबलम । यहां कनाट प्लेस में मेरा ऑफिस है। आप यहां..."

"मैं आपके ऑफिस में नहीं आ सकती ।"
 
स्टिल नो प्रॉबलम। आप नहीं आ सकती तो मैं आ जाता हूं । बताइये, कहां आना होगा ?"

"आपकी फीस क्या है ?"

"तीन सौ रुपए रोज जमा खर्चे । दो हजार रुपए एडवांस ।"

फीस पर उसने कोई हुज्जत नहीं की, खर्चे से क्या मतलब था, उसने इस बाबत भी सवाल नहीं किया, इसी से मुझे अंदाजा हो गया कि वह कोई सम्पन्न वर्ग की महिला थी।

"आपको छतरपुर आना होगा ।" - वह बोली ।

"छतरपुर !" - मैं अचकचाकर बोला ।

घबराइए नहीं । यह जगह भी दिल्ली में ही है।"

"दिल्ली में तो है लेकिन ...."

"यहां हमारा फार्म है।"

"ओह !"

"बाहर फाटक पर नियोन लाइट में बड़ा-सा ग्यारह नंबर लिखा है। आज शाम आठ बजे मैं वहां आपका इंतजार करूंगी।"

"बंदा हाजिर हो जाएगा।"

"गुड ।"

"वहां पहुंचकर मैं किसे पूछू ?"

"मिसेज चावला को ।"

तभी एकाएक संबंध विच्छेद हो गया।

मैंने भी रिसीवर वापिस क्रेडिल पर रख दिया और रेड एंड वाइट का एक ताजा कश लगाया।

नाम और पता दोनों से रईसी की बू आ रही थी। अब मुझे लगा रहा था कि मैंने अपनी फीस कम बताई थी।
बहरहाल काम तो मिला था। तभी दोनों केबिनों के बीच डॉली प्रकट हुई। उसके चेहरे पर संजीदगी की जगह विनोद का भाव था।

मैंने अपलक उसकी तरफ देखा ।

निहायत खूबसूरत लड़की थी वो। मर्द जात की यह भी एक ट्रेजेडी है कि मर्द शरीफ लड़की की कद्र तो करता है लेकिन जब लड़की शरीफ बनी रहना चाहती है तो उसे कोसने लगता है। मैंने डॉली की शराफत से प्रभावित होकर उसे नौकरी पर रखा था और अब मुझे उसकी शराफत पर ही एतराज था। “काम मिला ?" - उसने पूछा।
 
"काम की बात बाद में" - मैं बोला - "पहले मेरी एक बात का जवाब दो ।”

पूछिए ।"

"कोई ऐसा तरीका है जिससे तुम मुझे हासिल हो सको ?"

"है" - वह विनोदपूर्ण स्वर में बोली - "बड़ा आसान तरीका है।"

"कौन सा ?" - मैं आशापूर्ण स्वर में बोला।

मुझसे शादी कर लो।" ।

"ओह !" - मैंने आह-सी भरी ।

वह हंसी ।

"मैं एक बार शादी करके पछता चुका हूं, मार खा चुका हूं। दूध का जला छाछ फेंक-फूककर पीता है।"

"दैट इज यूअर प्रॉबलम ।" मैं खामोश रहा।

"अब बताइये, काम मिला ?"

"लगता है कि मिला । अब तुम भी अपनी तनखाह की हकदार बनकर दिखाओ ।”

"वो कैसे ?"

"डायरैक्ट्री में एक नंबर होता है जिस पर से पता बताकर वहां के टेलीफोन का और उसके मालिक का नंबर जाना जा सकता है।"

"बशर्ते कि उस पते पर फोन हो ।"

"फोन होगा। तुम ग्यारह नंबर छतरपुर के बारे में पूछकर देखो । यह कोई फार्म है और इसका मालिक कोई चावला हो सकता है। ऐसे बात न बने तो डायरैक्ट्री निकाल लेना और उसमें दर्ज हर चावला के नंबर पर फोन करके मालूम करना कि छतरपुर में किसका फार्म है।"

"कोई बताएगा ?"

"जैसे मुझे ईट मार के बात करती हो, वैसे पूछोगी तो कोई नहीं बताएगा । आवाज में जरा मिश्री, जरा सैक्स घोलकर पूछोगी तो सुनने वाला तुम्हें यह तक बताने से गुरेज नहीं करेगा कि वह कौन-सा आफ्टर-शेव लोशन इस्तेमाल करता है, विस्की सोडे के साथ पीता है या पानी के साथ, औरत..."

"बस बस । मैं मालूम करती हूं।" पांच मिनट बाद ही वह वापस लौटी।

"उस फार्म के मालिक का नाम अमर चावला है । गोल्फ लिंक में रिहायश है । कोठी नंबर पच्चीस ।”

"कैसे जाना ?"

"बहुत आसानी से । मैंने अपने एक बॉयफ्रेंड को फोन किया । वह दौड़कर छतरपुर गया और वहां से सब-कुछ पूछ
आया ।"

"इतनी जल्दी ?"

"फुर्तीला आदमी है। बहुत तेज दौड़ता है। आपकी तरह हर वक्त कुर्सी पर पसरा थोड़े ही रहता है..."

"वो शादी करने को भी तैयार होगा ?"

"हां ।"

"तो जाकर मरती क्यों नहीं उसके पास ?"
 
"अभी कैसे मरू? अभी तो शहनाई बजाने वाले छुट्टी पर गए हुए हैं। उनके बिना शादी कैसे होगी ?"

“मुझे उस बॉयफ्रेंड का नाम बताओ।"

"क्यों ?"

"ताकि मैं अभी जाकर उसकी गर्दन मरोड़कर आऊं।"

"फांसी हो जाएगी ।" ।

"ऐसे जीने से तो फांसी पर चढ़ जाना कहीं अच्छा है।"

"अभी आपके पास वक्त भी तो नहीं । जो ताजा-ताजा काम मिला है, उसे तो किसी ठिकाने लगाइए ।"

"कैसे जाना तुमने अमर चावला के बारे में ? और अगर तुमने फिर अपने बॉयफ्रेंड का नाम लिया तो कच्चा चबा जाउन्गा।"

"आज मंगलवार है ।"

मैंने कहरभरी निगाहों से उसकी तरफ देखा ।।

"सब कुछ डायरैक्ट्री में लिखा है" - वह बदले स्वर में बोली - "उसके घर का पता । उसके फार्म का पता । उसके धंधे को पता । मैंने फोन करके तसदीक भी कर ली है कि वह ग्यारह छतरपुर वाला ही चावला है।"

"धधे का पता क्या है ?"

"चावला मोटर्स, मद्रास होटल, कनॉट प्लेस ।"

"यह वो चावला है ?"

"वो का क्या मतलब ? आप जानते हैं उसे ?"

"जानता नहीं लेकिन उसकी सूरत और शोहरत से वाकिफ हूं। चावला मोटर्स का बहुत नाम है दिल्ली शहर में । वह इंपोर्टेड कारों का सबसे बड़ा डीलर बताया जाता है।"

"और वह आपका क्लायंट बनना चाहता है !"

"वह नहीं । कोई मिसेज चावला, जो कि पता नहीं कि उसकी मां है, बीवी है, बेटी है या कुछ और है।"

"बेटी हुई तो चांदी है आपकी ।"

मैंने उत्तर न दिया। अब बहस का वक्त नहीं था। मुझे काम पर लगना था। शाम आठ बजे की मुलाकात के वक्त से पहले मैंने कथित मिसेज चावला की बैकग्राउंड जो टटोलनी थी। मद्रास होटल के पीछे वह एक बहुत बड़ा अहाता था, जिसमें दो कतारों में कोई दो दर्जन विलायती कारें खड़ी थीं। पिछवाड़े में एक ऑफिस था जिसका रास्ता कारों की कतारों के बीच में से होकर था।
 
मैं सड़क के पार अपनी पुरानी-सी फिएट में बैठा था और अपना कोई अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश कर रहा था।

आते ही मैंने वहां के एक कर्मचारी से संपर्क करके अमर चावला के बारे में कुछ जानने की कोशिश की थी। लेकिन मेरी इसलिए दाल नहीं थी क्योंकि तभी अमर चावला वहां पहुंच गया था। उस क्षण वह भीतर ऑफिस में बैठा था और ऑफिस के शीशे की विशाल खिड़की में से मुझे दिखाई दे रहा था।

रेड एंड वाइट के कश लगाता मैं उसके वहां से टलने की प्रतीक्षा कर रहा था।

ऑफिस के दरवाजे पर वह मर्सिडीज कार खड़ी थी, जिस पर कि वह थोड़ी देर पहले वहां पहुंचा था । उसका वर्दिधारी ड्राइवर कार के साथ ही टेक लगाए खड़ा था, इससे मुझे लग रहा था कि वह जल्दी ही वहां से विदा होने वाला था।

दस मिनट बाद वह दो दादानुमा व्यक्तियों के साथ बाहर निकला । वे सब सैंडविच की सूरत में - पहले दादा फिर
चावला, फिर दादा - कार में सवार हो गए । ड्राइवर भी वापिस अपनी सीट पर जा बैठा। उसने कार का इंजन स्टार्ट किया। उस घड़ी किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर मैंने चावला का पीछा करने का फैसला किया। मर्सिडीज वहां से रवाना हुई तो मैंने अपनी फिएट उसके पीछे लगा दी।

चावला कोई पचास साल का ठिगना, मोटा, तंदरुस्त आदमी था । मुझे फोन करने वाली कथित मिसेज चावला से उसकी क्या रिश्तेदारी थी, इसका संकेत मुझे अभी भी हासिल नहीं था। मैं उसकी कल्पना अमर चावला से किसी रिश्तेदार के तौर पर महज इसलिए कर रहा था कि उसने जिस जगह पर मुझे मिलने को बुलाया था, उसका मालिक अमर चावला था । हकीकतन दोनों का एक जात का होना महज इत्तफाक हो सकता था और मुझे फार्म पर बुलाये जाने की वजह रिश्तेदारी की जगह यारी हो सकती थी। अगली कार राजेन्द्र प्लेस जाकर रूकी। चावला और उसके दोनों साथी कार से निकलकर एक बहुमंज़िली इमारत में दाखिल हुए । अपनी कार को पार्क करके जब मैंने उस इमारत में कदम रखा तो मैंने उन्हें लिफ्ट के सामने खड़े पाया। मेरे देखते-देखते लिफ्ट वहां पहुंची। उनके साथ ही मैं भी लिफ्ट में दाखिल हो गया। किसी की तवज्जो मेरी तरफ नहीं थी। लिफ्ट पांचवी मंजिल पर रूकी तो वे दोनों बाहर निकले । मैं भी बाहर निकला। लिफ्ट फ्लोर के मध्य में खुलती थी । वे बायीं तरफ चले तो मैं जानबूझकर विपरीत दिशा में चल पड़ा।

एक क्षण बाद मैंने गर्दन घुमाकर पीछे देखा तो मैंने उन्हें कोने का एक दरवाजा ठेलकर भीतर दाखिल होते देखा। वे दृष्टि से ओझल हो गए तो मैं वापिस लौटा। कोने के उस दरवाजे पर पीतल के चमचमाते अक्षरों में लिखा था - जॉन पी एलेग्जेंडर एंटरप्राइसिज ।

| मैं सकपकाया । तब मुझे पहली बार सूझा कि मैं कहां पहुंच गया था।

एलेग्जेंडर शहर का बहुत बड़ा दादा था और उसकी एंटरप्राइसिज जुआ, अवैध शराब, प्रोस्टिच्युशन, स्मगलिंग और ब्लैकमेलिंग वगैरह थीं ।

और चावला अपने दो दादाओं के साथ वहां आया था। मैं वहां से टलने ही वाला था कि एकाएक मेरे कान में एक आवाज पड़ी –

"क्या चाहिये ?"

मैंने चिहुंक कर पीछे देखा। मेरे पीछे एक दरवाजा निशब्द खुला था और उसकी चौखट पर उस वक्त चावला के दो। | दादाओं में से एक खड़ा मुझे अपलक देख रहा था।

वह कंजी आंखों और चेचक से चितकबरे हुए चेहरे वाला सूरत से ही निहायत कमीना लगने वाला आदमी था। प्रत्यक्षत: वह दरवाजा भी एलेग्जेंडर के ऑफिस का था।

"कुछ नहीं ।” - मैं सहज भाव से बोला।

"तो ?"

"मैं टॉयलेट तलाश कर रहा था ।"
 
"वो दूसरे सिरे पर है।" |

"मुझे नहीं मालूम था ।”

"अब मालूम हो गया ?"

"हां, हो गया । शुक्रिया।"

मैं लम्बे डग भरता हुआ दूसरे सिरे की तरफ बढ़ा । वहां टॉयलेट में दाखिल होने से पहले मैंने पीछे घूमकर देखा । वह दादा अभी भी चौखट के साथ टेक लगाये खड़ा था और मेरी ही तरफ देख रहा था। मैंने झूठमूठ लघुशंका का बहाना किया जो कि अच्छा ही साबित हुआ । मैं घूमकर वाश बेसिन की तरफ बढ़ा तो मैंने उसे टॉयलेट के दरवाजे पर खड़ा पाया। मैंने हाथ धोये और बालों में कंघी फिराने लगा। उसने भीतर कदम रखा।

"मैंने तुम्हें मद्रास होटल के करीब भी देखा था।" - वह बोला ।

"देखा होगा ।" - मैं लापरवाही से बोला ।

"ऐसा कैसे हो गया ?"

"इत्तफाक से हो गया और कैसे हो गया ?"

“मुझे इत्तफाक पसन्द नहीं ।"

"मुझे ऐसे लोग पसंद नहीं जिन्हें इत्तफाक पसन्द नहीं ।”

उसने घूरकर मुझे देखा।

“मुझे खामखाह गले पड़ने वाले लोग भी पसन्द नहीं ।" - मैं बोला । मैंने आगे बढ़कर उसके पहलू से गुजरने की कोशिश की तो उसने मेरी बांह थाम ली। "बांह छोड़ो ।" - मैं सख्ती से बोला।

"कौन हो तुम ?"- उसने पूछा।

"मैंने कहा है, बांह छोड़ो।"

उसने बांह छोड़ दी ।

"बांह मैंने छोड़ दी है तुम्हारी" - वह बोला - "लेकिन मेरी शक्ल अच्छी तरह से पहचान लो । वैसे ही जैसे मैंने तुम्हारी शक्ल अच्छी तरह पहचान ली है।"

"वो किसलिए?"

“ताकि दोबारा ऐसा इत्तफाक न हो।"

"होगा तो तुम क्या करोगे ?"

"वह तुम्हें अगली बार मालूम होगा।"

"मैं अगली बार का इन्तजार करूगा ।"

"मत करना । बेवकूफी होगी ऐसा करना ।”

मैंने बहस न की । कुछ तो उस आदमी की शक्ल ही डरावनी थी, ऊपर से तभी मुझे उसकी बगल में लगे शोल्डर होल्स्टर में से एक रिवॉल्वर की मूठ झांकती दिखाई दी थी। मैं लिफ्ट की तरफ बढ़ा तो वह भी मेरे से केवल दो कदम पीछे था । हम दोनों इकट्टे लिफ्ट में सवार होकर नीचे पहुंचे । मेरी कार तक भी वह मेरे साथ गया। मैं कार में सवार हुआ तो उसने मेरे लिए कार का दरवाजा तक बन्द किया। मैंने कार आगे बढ़ाई तो उसने पीछे हटकर यूं अपनी एक उंगली अपनी पेशानी से छूकर मुझे सैल्यूट मारा जैसे वह कोई दरबान हो और किसी मुअज्जिज मेहमान को वहां से विदा कर रहा हो । मैं कार को मेन रोड पर ले आया । जब मुझे तसल्ली हो गई कि वह किसी और वाहन पर मेरे पीछे नहीं आया था तो मैंने कार को एक गली में मोड़कर खड़ा कर दिया और वापिस सड़क पर आकर एक टैक्सी पकड़ ली। टैक्सी ड्राइवर एक मुश्किल से बीस साल का सिख नौजवान था । टैक्सी पर मैं वापिस राजेंद्रा प्लेस पहुंचा और उस इमारत के सामने से गुजरा जिसमें मैं अभी होकर आया था।
 
चावला की मर्सिडीज अभी भी उस इमारत के सामने खड़ी थी। टैक्सी वहां से थोड़ा परे निकल आई तो मैंने उसे रुकवाया। "अभी थोड़ी देर बाद" - मैं टैक्सी ड्राइवर से पंजाबी में बोला - "एक काली मर्सिडीज यहां से गुजरेगी । तुमने उसके पीछे लगना है।"

कहां तक ?" - टैक्सी ड्राइवर ने पूछा।

"जहां तक भी वह जाये ।"

"बाउजी यह लोकल टैक्सी है। शहर से बाहर नहीं जा सकती ।"

"तो मत जाना । शहर में तो यह काम कर सकोगे न ?"

"कोई लफड़े वाली बात तो नहीं ?" ,

"नहीं ।”

"बाउजी, बात क्या है ?"

"बात तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी । ऐसी बातें समझने की अभी तुम्हारी उम्र नहीं ।"

"फिर भी ?"

"फिर भी यह कि मैं इसकी बीवी का यार हूं। अगर मुझे गारण्टी हो गई कि यह अपने घर नहीं जा रहा तो इसके घर मैं जाऊंगा।"

"इसकी बीवी के पास ?

" "हां ।”

"बल्ले !" - वह प्रशंसात्मक स्वर में बोला ।

मैं प्रतीक्षा करने लगा। कोई दस मिनट वाद चावला इमारत से बाहर निकला।
अकेला !
उसकी मर्सिडीज उसे लेकर वहां से रवाना हो गई लेकिन उसके दादाओं के मुझे दर्शन न हुए । टैक्सी मर्सिडीज के पीछे लग गई। उसके पीछे लगा मैं नारायण विहार के इलाके में गया । वहां मर्सिडीज एकाएक एक गली में दाखिल हो गई। टैक्सी वाला फौरन टैक्सी उसके पीछे ने मोड़ पाया । वह उसे आगे से घुमाकर वापिस लाया और हम गली में दाखिल . हुए । मर्सिडीज मुझे एक बंगले के आगे खड़ी दिखाई दी । मैंने टैक्सी को तनिक आगे ले जाकर रुकवाया और पैदल वापिस लौटा। बंगले के लैटर-बॉक्स पर लिखा था- 70, नारायण विहार । मैंने उससे अगली इमारत की कॉलबैल बजाई । एक जीनधारी युवती ने दरवाजा खोला और बाहर बरामदे में कदम रखा।

"सबरवाल साहब घर में हैं ?" -उसके पुष्ट वक्ष से जबरन निगाह परे रखता हुआ मैं बोला।

"कौन सबरवाल साहब ?" - युवती वोली –

"यहां तो कोई सबरवाल साहब नहीं रहते।"

"लेकिन मुझे तो यही पता बताया गया था । 70, नारायण विहार ।"

"यह 71 नम्बर है। 70 नम्बर तो बगल वाला है।"

"ओह, सॉरी !"

"लेकिन सबरवाल तो वहां भी कोई नहीं रहता।"
 
“कमाल है ! वहां कौन रहता है ?"

"वहां तो जूही चावला नाम की फैशन मॉडल रहती है।"

"सबरवाल वहां पहले रहते होंगे !"

"न । जूही चावला तो वहां बहुत अरसे से रहती है।"

"कमाल है ! ऐसी गडबड़ कैसे हो गई पते में !"

"कहीं तुमने नारायणा तो नहीं जाना ?" "नारायणा और नारायण विहार में फर्क है ?"

"हां ।"

"तो यही गड़बड़ हुई है। शायद मैंने नारायणा ही जाना था। बहरहाल तकलीफ का शुक्रिया ।”

वह मुस्कराई । मुस्कराई क्या, कहर ढाया उसने । - उसके कम्पाउंड से निकलकर मैं वापिस सड़क पर जा पहुंचा।

तभी मुझे एक सफेद एम्बैसडर गली में दिखाई दी - जो कि मेरे 71 नम्बर इमारत के कम्पाउंड में दाखिल होते समय
शर्तिया वहां नहीं थी। मैं तनिक सकपकाया-सा आगे बढ़ा । एम्बैसडर का अगला एक दरवाजा खुला और चितकबरे चेहरे वाले दादा ने बाहर कदम रखा। फिर कार का दूसरा ड्राइविंग सीट की ओर वाला, दरवाजा भी खुला और चितकबरे के जीड़ीदार ने बाहर कदम रखा।

मैं थमकर खड़ा हो गया।

आसार अच्छे नहीं लग रहे थे लेकिन वहां से भाग खड़ा होना भी मेरी गैरत गवारा नहीं कर रही थी। मैं मन ही मन हिसाब लगाने लगा कि क्या मैं उन दोनों का मुकाबला कर सकता था ? अगर चितकबरा रिवॉल्वर न निकाले तो - मेरे मन ने फैसला किया - कर सकता था।

दोनों मेरे करीब पहुंचे। सतर्कता की प्रतिमूर्ति बना मैं बारी-बारी उनकी सूरतें देखने लगा। चितकबरे के चेहरे पर एक विषैली मुस्कराहट उभरी । "पहचाना मुझे ?" - वह बोला ।

"हां ।" - मैं सहज भाव से बोला - "पहचाना ।"

"और इसे ?" - एकाएक उसके हाथ में एक लोहे का कोई डेढ़ फुट का डण्डा प्रकट हुआ। मैंने जवाब देने में वक्त जाया न किया, जो कि मेरी दानाई थी। मैंने एकाएक अपने दायें हाथ का प्रचण्ड घूसा उसके थोबड़े पर जमा दिया। वह पीछे को उलट गया। तभी उसके जोड़ीदार का घूसा मेरी कनपटी से टकराया। मेरे घुटने मुड़ गए । एक और घूसा मेरी खोपड़ी पर पड़ा । मैं मुंह के बल जमीन पर गिरा । बड़ी फुर्ती से गिरे-गिरे मैंने करवट बदली तो मैंने उसे अपने भारी जूते का प्रहार मेरी छाती पर करने को आमादा पाया । मैंने फिर कलाबाजी खाकर उसका वह वार बचाया और फिर लेटे-लेटे ही अपनी दोनों टांगें इकट्ठी करके एक दोलत्ती की सूरत में उन्हें उस पर चलाया। मेरी दोलती उसके पेट के निचले भाग पर पड़ी । वह तड़पकर दोहरा हो गया । तब तक चितकबरा उठकर अपने पैरों पर खड़ा हो चुका था और अपने शोल्डर होल्स्टर में से रिवॉल्वर निकाल रहा था। लेकिन उसका रिवॉल्वर वाला हाथ अभी होल्स्टर से अलग भी नहीं हो पाया था कि वह दोबारा धूल चाट रहा था। खुदाई मदद के तौर पर मेरा नौजवान सिख टैक्सी ड्राइवर वहां पहुंच गया था और उसके एक दोहत्थड़ ने चितकबरे को दोबारा धूल चटा दी थी।

मैं फुर्ती से उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ और उसके जोड़ीदार की तरफ आकर्षित हुआ जो कि मेरी दोलत्ती के वार से संभलने की कोशिश कर रहा था। मैंने उसे उसकी कोशिश में कामयाब न होने दिया। उसके सीधा हो पाने से पहले ही मैंने उसे घूसों पर धर लिया। तभी 71 नम्बर का दरवाजा खुला और जीनधारी युवती फिर बरामदे में प्रकट हुई । बाहर होती लड़ाई देखकर वह फौरन वापिस भीतर दाखिल हो गई।

"चलो ।" - मैं टैक्सी ड्राइवर से बोला - "यहां पुलिस आ सकती है।" | उन दोनों को सड़क पर छोड़कर हम सरपट टैक्सी की तरफ भागे ।

३ अगले ही क्षण हम दोनों को लेकर टैक्सी वहां से यूं भागी जैसे तोप से गोला छूटा हो ।

पुलिस वहां न भी पहुंचती तो भी चितकबरा गोलियां दागनी शुरू कर सकता था। इस बार मैं टैक्सी में पीछे नहीं, ड्राइवर की बगल में बैठा था। "बरखुरदार !" - मैं प्रशंसा और कृतज्ञता मिश्रित स्वर में बोला - "तू ता कमाल ई कर दित्ता ।"

"बाउजी" - वह तनिक शर्माया - "अब भला मैं अपनी आंखों से अपनी सवारी की दुर्गत होते कैसे देख सकता था ! ऊपर से तुसी निकले साडे पंजाबी भ्रा ।"

"लेकिन सरदार नहीं ।"

"फेर की होया !" - वह तरन्नुम में बोला - "भापा जी, असी दोवे इक देश दी धड़कन, मां दे पुत्तर सक्के भ्रा । क्यों भई रामचन्दा ?" "हां भई रामसिंगा।" - मैं भी तरन्नुम में बोला। वापिस राजेन्द्रा प्लेस पहुंचने तक हम दोनों ने दर्जनों बार वह एक लाइन का गाना आवाज में आवाज मिलाकर गाया
 
वहां किराये की एवज में मैंने उसे सौ का नोट देना चाहा जो कि उसने लेने से सरासर इंकार कर दिया। उसने केवल किराये के अड़तीस रुपए लिए और बाकी रकम मुझे वापिस कर दी।

टैक्सी ड्राइवर के विदा होने के बाद मैं गली में खड़ी अपनी कार में जा सवार हुआ। कार स्टार्ट करने से पहले मैंने एक सिगरेट सुलगाया और घड़ी पर निगाह डाली। छ: बजने को थे।

लगभग चार घंटे का जो वक्त मैंने चावला पर लगाया था, वह एकदम जाया नहीं गया था। इतने अरसे में मुझे चावला के बारे में यह मालूम हुआ था कि वह शहर के माने हुए गैंगस्टर एलेग्जेंडर से अपने दो दादाओं के साथ। मिलने गया था, कि उसके दादा इतने चौकन्ने थे कि पीछे लगे आदमी को फौरन भांप जाते थे, कि उसकी जूही चावला नाम की एक फैशन मॉडल में दिलचस्पी थी। फिलहाल यह जानकारी मेरे किसी काम की नहीं थी । मुमकिन था कि इनमें से किसी भी बात से उस मिसेज चावला का कोई सरोकार न होता जो कि रात आठ बजे छतरपुर में मुझसे मिलने वाली थी। उसे मेरी व्यावसायिक सेवाएं किसी ऐसे काम के लिए भी दरकार हो सकती थीं जिससे कि शायद अमर चावला की आज की गतिविधियों का दूर-दराज का भी रिश्ता नहीं था।
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