hotaks444
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[size=large]बेगुनाह हिन्दी नॉवेल चॅप्टर 1[/size]
मैं कनाट प्लेस में स्थित यूनिर्सल इनवेस्टिगेशन के अपने ऑफिस में अपने केबिन में बैठा था। बैठा मैंने इसलिए कहा क्योंकि जिस चीज पर मैं विराजमान था, वह एक कुर्सी थी, वरना मेरे पोज में बैठे होने वाली कोई बात नहीं थी। मेज के एक खुले दराज पर पांव पसारे अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर मैं लगभग लेटा हुआ था। मेरे होंठों में रेड एंड वाइट का एक ताजा सुलगाया सिगरेट लगा हुआ था और जेहन में पीटर स्कॉट की उस खुली बोतल का अक्स बार-बार उभर रहा था जो कि मेरी मेज के एक दराज में मौजूद थी और जिसके बारे में मैं यह निहायत मुश्किल फैसला नहीं कर पा रहा था कि मैं उसके मुंह से अभी मुंह जोड़ लें या थोड़ा और वक्त गुजर जाने दें।
अपने खादिम को आप भूल न गए हों इसलिए मैं अपना परिचय आपको दोबारा दे देता हूं । बंदे को राज कहते हैं। मैं प्राइवेट डिटेक्टिव के उस दुर्लभ धंधे से ताल्लुक रखता हूं जो हिंदुस्तान में अभी ढंग से जाना-पहचाना। नहीं जाता लेकिन फिर भी दिल्ली शहर में मेरी पूछ है। अपने दफ्तर में मेरी मौजूदगी हमेशा इस बात का सबूत होती है कि मुझे कोई काम-धाम नहीं, जैसा कि आज था । बाहर वाले कमरे में मेरी सैक्रेटरी डॉली बैठी थी और काम न होने की वजह से जरूर मेरी ही तरह बोर हो रही थी। स्टेनो के लिए दिये मेरे विज्ञापन के जवाब में जो दो दर्जन लड़कियां मेरे पास आई थीं, उनमें से डॉली को मैंने इसलिए चुना था क्योंकि वह सबसे ज्यादा खूबसूरत थी और सबसे ज्यादा जवान थी । उसकी टाइप और शॉर्टहैंड दोनों कमजोर थीं लेकिन उससे क्या होता था ! टाइप तो मैं खुद भी कर सकता था। बाद में डॉली का एक और भी नुक्स सामने आया था - शरीफ लड़की थी। नहीं जानती थी कि डिक्टेशन लेने का मुनासिब तरीका यह होता है कि स्टेनो सबसे पहले आकर साहब की गोद में बैठ जाये।
अब मेरा उससे मुलाहजे का ऐसा रिश्ता बन गया था कि उसके उस नुक्स की वजह से मैं उसे नौकरी से निकाल तो नहीं सकता था लेकिन इतनी उम्मीद मुझे जरूर थी कि देर-सबेर उसका वह नुक्स रफा करने में मैं कामयाब हो जाऊंगा।
"डॉली !" - मैं तनिक, सिर्फ इतने कि आवाज बाहरले केबिन में पहुंच जाये, उच्च स्वर में बोला ।
फरमाइए ?" - मुझे डॉली की खनकती हुई आवाज सुनाई दी।
"क्या कर रही हो?"
"वही जो आपकी मुलाजमत में करना मुमकिन है।”
"यानी ?"
"झक मार रही हूं।"
"यहां भीतर क्यों नहीं आ जाती हो ?"
"उससे क्या होगा ?"
"दोनों इकट्टे मिलकर मारेंगे।"
"नहीं मैं यहीं ठीक हूं।"
"क्यो ?"
"क्योंकि आपकी और मेरी झक में फर्क है ।"
"लेकिन.."
"और दफ्तर में मालिक और मुलाजिम का इकट्टे झक मारना एक गलत हरकत है। इससे दफ्तर का डैकोरम बिगड़ता है।"
"अरे, दफ्तर मेरा है, इसे मैं..."
"नहीं ।" - डॉली ने मेरे मुंह की बात छीनी - "आप इसे जैसे चाहें नहीं चला सकते । यह आपका घर नहीं, एक पब्लिक प्लेस है।"
"तो फिर मेरे घर चलो।"
“दफ्तर के वक्त वह भी मुमकिन नहीं ।”
"बाद में मुमकिन है ?"
"नहीं ।”
"फिर क्या फायदा हुआ ?"
"नुकसान भी नहीं हुआ ।"
"चलो, आज कहीं पिकनिक के लिए चलते हैं।"
“कहां ?"
"कहीं भी। बड़कल लेक । सूरज कुंड । डीयर पार्क ।”
"यह खर्चीला काम है।"
"तो क्या हुआ ?"
"यह हुआ कि पहले इसके लायक चार पैसे तो कमा लीजिये।"
"डॉली !" - मैं दांत पीसकर बोला ।
"फरमाइए ?"
"तुम एक नंबर की कमबख्त औरत हो ।”
"करेक्शन ! मैं एक नंबर की नहीं हूं। और औरत नहीं, लड़की हूं।"
मैं कनाट प्लेस में स्थित यूनिर्सल इनवेस्टिगेशन के अपने ऑफिस में अपने केबिन में बैठा था। बैठा मैंने इसलिए कहा क्योंकि जिस चीज पर मैं विराजमान था, वह एक कुर्सी थी, वरना मेरे पोज में बैठे होने वाली कोई बात नहीं थी। मेज के एक खुले दराज पर पांव पसारे अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर मैं लगभग लेटा हुआ था। मेरे होंठों में रेड एंड वाइट का एक ताजा सुलगाया सिगरेट लगा हुआ था और जेहन में पीटर स्कॉट की उस खुली बोतल का अक्स बार-बार उभर रहा था जो कि मेरी मेज के एक दराज में मौजूद थी और जिसके बारे में मैं यह निहायत मुश्किल फैसला नहीं कर पा रहा था कि मैं उसके मुंह से अभी मुंह जोड़ लें या थोड़ा और वक्त गुजर जाने दें।
अपने खादिम को आप भूल न गए हों इसलिए मैं अपना परिचय आपको दोबारा दे देता हूं । बंदे को राज कहते हैं। मैं प्राइवेट डिटेक्टिव के उस दुर्लभ धंधे से ताल्लुक रखता हूं जो हिंदुस्तान में अभी ढंग से जाना-पहचाना। नहीं जाता लेकिन फिर भी दिल्ली शहर में मेरी पूछ है। अपने दफ्तर में मेरी मौजूदगी हमेशा इस बात का सबूत होती है कि मुझे कोई काम-धाम नहीं, जैसा कि आज था । बाहर वाले कमरे में मेरी सैक्रेटरी डॉली बैठी थी और काम न होने की वजह से जरूर मेरी ही तरह बोर हो रही थी। स्टेनो के लिए दिये मेरे विज्ञापन के जवाब में जो दो दर्जन लड़कियां मेरे पास आई थीं, उनमें से डॉली को मैंने इसलिए चुना था क्योंकि वह सबसे ज्यादा खूबसूरत थी और सबसे ज्यादा जवान थी । उसकी टाइप और शॉर्टहैंड दोनों कमजोर थीं लेकिन उससे क्या होता था ! टाइप तो मैं खुद भी कर सकता था। बाद में डॉली का एक और भी नुक्स सामने आया था - शरीफ लड़की थी। नहीं जानती थी कि डिक्टेशन लेने का मुनासिब तरीका यह होता है कि स्टेनो सबसे पहले आकर साहब की गोद में बैठ जाये।
अब मेरा उससे मुलाहजे का ऐसा रिश्ता बन गया था कि उसके उस नुक्स की वजह से मैं उसे नौकरी से निकाल तो नहीं सकता था लेकिन इतनी उम्मीद मुझे जरूर थी कि देर-सबेर उसका वह नुक्स रफा करने में मैं कामयाब हो जाऊंगा।
"डॉली !" - मैं तनिक, सिर्फ इतने कि आवाज बाहरले केबिन में पहुंच जाये, उच्च स्वर में बोला ।
फरमाइए ?" - मुझे डॉली की खनकती हुई आवाज सुनाई दी।
"क्या कर रही हो?"
"वही जो आपकी मुलाजमत में करना मुमकिन है।”
"यानी ?"
"झक मार रही हूं।"
"यहां भीतर क्यों नहीं आ जाती हो ?"
"उससे क्या होगा ?"
"दोनों इकट्टे मिलकर मारेंगे।"
"नहीं मैं यहीं ठीक हूं।"
"क्यो ?"
"क्योंकि आपकी और मेरी झक में फर्क है ।"
"लेकिन.."
"और दफ्तर में मालिक और मुलाजिम का इकट्टे झक मारना एक गलत हरकत है। इससे दफ्तर का डैकोरम बिगड़ता है।"
"अरे, दफ्तर मेरा है, इसे मैं..."
"नहीं ।" - डॉली ने मेरे मुंह की बात छीनी - "आप इसे जैसे चाहें नहीं चला सकते । यह आपका घर नहीं, एक पब्लिक प्लेस है।"
"तो फिर मेरे घर चलो।"
“दफ्तर के वक्त वह भी मुमकिन नहीं ।”
"बाद में मुमकिन है ?"
"नहीं ।”
"फिर क्या फायदा हुआ ?"
"नुकसान भी नहीं हुआ ।"
"चलो, आज कहीं पिकनिक के लिए चलते हैं।"
“कहां ?"
"कहीं भी। बड़कल लेक । सूरज कुंड । डीयर पार्क ।”
"यह खर्चीला काम है।"
"तो क्या हुआ ?"
"यह हुआ कि पहले इसके लायक चार पैसे तो कमा लीजिये।"
"डॉली !" - मैं दांत पीसकर बोला ।
"फरमाइए ?"
"तुम एक नंबर की कमबख्त औरत हो ।”
"करेक्शन ! मैं एक नंबर की नहीं हूं। और औरत नहीं, लड़की हूं।"