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- Dec 5, 2013
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ऐसे ही वक़्त गुजरने लगा और आदिरीशि और राजनंदिनी का प्रेम सब के लिए मिशल बनता गया…दोनो एक दूसरे के बिना एक पहर भी नही रह पाते थे…वो पेड़ उन्न दोनो के प्रेम मिलन की यादगार बन चुका था.
तभी उन दिनो तभका कोइली मे भीषण बाढ़ का प्रकोप हो गया…कयि गाँव इस बढ़ की चपेट मे आ गये..कयि लोगो की जान गयी…आदिरीशि उस महात्मा की बात को भूल कर सब की मदद करने मे लग गया…क्या रात क्या दिन वो कयि कयि दिन तक भूखा रह कर भी
लोगो को बचाने के काम मे जुटा रहा…राजनंदिनी और उसके दोस्तो ने भी उसका इसमे साथ दिया….उन्ही दिनो नांगु की माँ का भी देहांत हो गया.
उस महात्मा द्वारा अपना शिष्य बनने के लिए आदिरीशि को दी गयी एक माह की अवधि बाढ़ पीड़ित लोगो की मदद करने मे ही समाप्त हो गयी.
अब आगे……
उस महात्मा की दी गयी अवधि समाप्त होने के बाद भी मैं घायल और बीमार लोगो की मदद करने मे ही रात दिन लगा रहा…
इस काम मे बहुत समय निकल गया….तभी एक दिन कुछ बीमार लोगो की मदद कर के घर लौट रहा था तो कयि दिन से खाना ना खाने से कमज़ोरी और थकावट के कारण मैं रास्ते मे गिर कर बेहोश हो गया.
मुझे जब होश आया तो मैने खुद को किसी आश्रम मे लेटा हुआ पाया…ये देख कर मैं सोच मे पड़ गया कि यहाँ कौन लाया मुझे…?
“अब कैसी तबीयत है वत्स.” किसी ने मुझे होश मे आते देख कर कहा.
मैने चौंक कर आवाज़ की दिशा मे गर्दन घुमा के देखा तो ये देख कर हैरान रह गया कि मेरे सामने वही महात्मा खड़े हुए थे.
आदिरीशि (हैरान हो कर)—प्रणाम महात्मा जी..!
महात्मा—अब कैसी तबीयत है तुम्हारी पुत्र.... ?
आदिरीशि (इधर उधर देखते हुए)—मैं तो ठीक हूँ…..लेकिन मुझे हुआ क्या था और मैं यहाँ कैसे आया.... ? जहाँ तक मुझे याद है, मैं तो अपने घर जा रहा था.
महात्मा—तुम मुझे यहाँ आश्रम मे आते समय रास्ते मे बेहोश मिले थे….तब कुछ लोगो की मदद से मैं तुम्हे यहाँ ले आया.
आदिरीशि—आपका कोटि कोटि धन्यवाद महात्मा जी….और मैं आप से क्षमा चाहता हूँ कि मैं आपको निर्धारित अवधि मे कोई भी अनमोल
चीज़ भेंट नही कर सका…..शायद आपका शिष्य बनने का सौभाग्य मेरी किस्मत मे ही नही लिखा था.
महात्मा—परंतु मुझे तो अनमोल उपहार तुमसे मिल चुका है, वत्स…..मैं तुम्हे अपना शिष्य बनाने के लिए सहर्ष तैयार हूँ….तुम जैसा शिष्य बनाने और तुम्हे शिक्षा देने मे मुझे भी खुशी होगी.
आदिरीशि (शॉक्ड)—लेकिन महात्मा जी ..मैने आप को अभी तक कोई अनमोल उपहार दिया ही नही…? फिर आप ने ये क्यो कहा कि उपहार आप को मिल चुका है….? जबकि मैं पिछले एक महीने से भारी बारिश से हुए तबाह लोगो की मदद करने मे ही लगा रहा….आपका
उपहार ढूँढने का मुझे समय ही नही मिल पाया.
महात्मा (मुश्कुरा कर)—पुत्र तुम्हे क्या लगा था कि उपहार मे मैने तुम्हे कोई हीरे, मोटी, मणि, मनिक्य जैसी कोई चीज़ भेंट करने को कहा है…! नही पुत्र, ये सब तो मेरे लिए कंकड़ और पत्थर के समान हैं, इनको ले कर मैं क्या करूँगा…? जो तुमने पिछले एक महीने मे किया,
पीड़ित लोगो की निःस्वार्थ भावना से उनकी हर संभव बिना कुछ खाए पिए उन सब की मदद की….रात को रात और दिन को दिन नही
समझा, बस सब कुछ भूल कर केवल जन कल्याण मे ही लगे रहे……वास्तव मे वही मेरा उपहार है….
आदिरीशि (शॉक्ड)—मैं कुछ समझा नही महात्मा जी…?
महात्मा—वत्स, मैने तुम्हे कहा था कि मुझे कोई ऐसा अनमोल उपहार चाहिए जो किसी के भी पास ना हो….तो तुम ही विचार करो….क्या ये हीरे, जवाहरात..ये धन दौलत और किसी के पास नही हो सकती…? ये अनमोल कैसे हो सकती है… जबकि सच बात तो ये है कि रत्न और
अभुसान तो तीन ही होते हैं लेकिन मूर्ख लोग हीरे, जवाहरात, सोना, चाँदी को आभूषण समझते हैं.
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥
वास्तव मे जल, अनाज और मधुर वाणी के अतिरिक्त कोई रत्न नही है….एक ही उपहार ऐसा है जो हर किसी के पास अलग अलग होता है, और वह है उसका कर्म….तुम्हारा ये निःस्वार्थ भाव से किया गया कर्म ही मेरे लिए सबसे अनमोल भेंट है, जो की मुझे अब मिल चुका है.
आदिरीशि (खुश हो कर)—सच महात्मा जी..! इसका मतलब अब मैं आपका शिष्य बन सकता हूँ ना…?
महात्मा—अवश्य पुत्र….अब से तुम मेरे शिष्य हो….मैं तुम्हे हर तरह के लौकिक और अलौकिक ज्ञान से परिपूर्ण करूँगा….साथ मे तुम्हे अष्ट्र शस्त्र विद्या मे निपुण बनाउन्गा जिससे कि तुम आने वाले समय मे अधर्मी और पपियो का नाश कर के उनके क्रूर अत्याचार से असहाय लोगो
की मदद कर सको…किंतु पुत्र मैं तुम्हे शिक्षा देना शुरू करूँ उससे पहले इस समय तुम्हारा एक बेहद ज़रूरी कर्तव्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है.
आदिरीशि—कैसा कर्तव्य…महात्मा जी…नही नही…महात्मा जी नही बल्कि आज से गुरुदेव…?
महात्मा—वत्स, एक दुखद समाचार है…..यहाँ से काफ़ी दूरी पर एक निर्जन वन है….जहाँ साधना करते हुए तुम्हारे पिता की मृत्यु हो चुकी है
या ये समझ लो कि इस दौरान उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी है…
आदिरीशि (शॉक्ड)—क्य्ाआअ….? नही…ये नही हो सकता.
उन महात्मा के मुख से अपने पिता जी की मृत्यु का समाचार पाते ही मैं दुख के अतः सागर मे डूबने लगा… मेरी आँखो से आँसुओं की लाड़िया बहने लगी.
महात्मा—वत्स, ये समय दुखी हो कर आँसू बहाने का नही बल्कि तुम्हे अपने पिता के पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि करने का है, इससे पहले कि
कोई जंगली जानवर उनके मृत शरीर को क्षत विक्षत कर दे….तुम्हे अपना ये पुत्र धर्म निभाना होगा…उठो वत्स
आदिरीशि—जैसी आपकी आग्या गुरुदेव
मैं अश्रु पूरित पलकों के साथ अपने गाओं आ गया और अपने दोस्तो को साथ ले कर गुरुदेव की बताए गये स्थान की ओर चल दिया….ये खबर आग की तरह पुर गाओं मे फैल गयी….
राजनंदिनी भी इस खबर को सुन कर खुद को इश्स गमगीन घड़ी मे मेरे पास आने से नही रोक सकी…उसके पिता समेत गाओं के कयि लोग भी हमारे साथ चल दिए…. वहाँ पहुचते ही मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा जब मैने अपने पिता के शरीर को काई टुकड़ो मे इधर उधर पड़ा हुआ देखा.
हम सभी दोस्तो की आँखे इस समय नम थी….मैने अपने दोस्तो और गाओं वालो की मदद से वही पिता जी का अंतिम संस्कार किया…पहले माँ और अब पिता जी के जाने से मैं बिल्कुल टूट चुका था….किंतु राजनंदिनी के प्यार और अपने दोस्तो की दोस्ती के ने मुझे जीवित रहने पर विवश कर दिया था.
किंतु मेरे मंन मे अशांति ही अशांति थी….राजनंदिनी और अपने दोस्तो के समझाने पर मैं गुरुदेव के पास चला गया अपनी भीगी पलकों के साथ.
महात्मा (गुरुदेव)—आओ वत्स.
आदिरीशि—प्रणाम गुरुदेव
गुरुदेव—कल्याण हो पुत्र
आदिरीशि (रोते हुए)—अब मेरा इस संसार मे कोई नही रहा गुरुदेव…मैं अब बिल्कुल अकेला और अनाथ हो गया हूँ.. मेरा मन अशांत हो चुका है पूरी तरह से….
गुरुदेव—वत्स, अगर ये सुख दुख के मायाजाल से अपने आपको अलग कर के देखोगे तो सारी सृष्टि ही तुम्हे अपनी लगेगी.
आदिरीशि—गुरुदेव, मेरे पिता की हत्या किसने और क्यों की…? उनकी तो किसी से दुश्मनी भी नही थी…
गुरुदेव—शैतान अजगर ने तुम्हारे पिता की हत्या की है....वो सभी लोको मे अंधकार और पाप का साम्राज्य स्थापित करना चाहता है...जब उसने तुम्हारे पिता को किसी और की साधना करते हुए देखा तो उसने उनकी हत्या कर दी...और इसमे उसका साथ दिया कील्विष् ने.....
आदिरीशि (रोते हुए)—उस पापी को क्या हक़ था ऐसा करने का... ? उसने अकारण ही मेरे पिता को मार डाला...मुझे अनाथ कर दिया..
गुरुदेव—वत्स, जीवन मारन तो सतत प्रक्रिया है…मैने तुम्हे समझाया था कि जिसका जनम हुआ है एक दिन उसकी मृत्यु होना भी निश्चित
है…फिर शोक कैसा पुत्र..
इस शरीर में सुनो आदिरीशि एक सूक्ष्मा शरीर समाए रे,
ज्योति रूप वही सूक्ष्म शरीर तो जीवात्मा कहलाए रे,
मृत्यु समय जब यह जीवात्मा तंन को छोड़ कर जाए रे,
धन दौलत और सगे संबंधी कोई संग ना आए रे,
पाप पुण्य संस्कार वृत्तिया ऐसे संग ले जाए रे,
जैसे फूल से उसकी खुश्बू पवन उड़ा ले जाए रे,
संग चले करमो का लेखा जैसे कर्म कमाए रे,
अगले जनम में पिछले जनम का आप हिसाब चुकाए रे.
गुरुदेव का ऐसे बार बार समझाने से मेरे मन के अंदर छाए दुख के बदल धीरे धीरे कम होते गये और जब मैने खुद को कुछ संयमित समझा तो उनसे शिक्षा आरंभ करने के लिए कहा.
गुरुदेव—वत्स, सबसे पहले तुम्हे ध्यान लगाना सीखना होगा….क्यों कि शस्त्र ज्ञान अष्ट्र शस्त्र का ज्ञान तो मैं तुम्हे दे दूँगा किंतु कुछ अलौकिक शक्तियो को ग्रहण कर उन्हे आत्मसात करने के लिए ध्यान की आवश्यकता होती है.
आदिरीशि—ध्यान कैसे लगाते हैं गुरुदेव….? क्या ध्यान लगाने का कोई सरल तरीका है….?
गुरुदेव—हां, एक आसान तरीका है किंतु वो कोई विधि नही है बल्कि एक कला है…एक यौगिक कला….जिससे ध्यान लगाने मे बड़ी सहयता मिलती है.
आदिरीशि—वो आसान तरीका, वो यौगिक कला क्या है गुरुदेव….?
गुरुदेव—वत्स, संसार के झमेलो से बचने के लिए एकांत मे बैठ कर मन को ध्यान मे लगाना चाहिए… क्यों कि एकांत मे मानव अपने भीतर झाँक सकता है.
आदिरीशि—परंतु ध्यान लगाने के लिए अपने अंतर मे झाँकने की क्या आवश्यकता है….?
गुरुदेव—पुत्र, शायद तुम भूल रहे हो कि परमात्मा का अंश अर्थात आत्मा मानव के भीतर ही वास करती है…इसी आत्मा से संपर्क ही उससे मिलने का पहला चरण है…इसलिए ध्यान लगाने के लिए सबसे पहले अपने अंतर मे ही झाँकना चाहिए और ये तभी संभव हो सकता है जब
मनुष्य का अपना शरीर उसके नियंत्रण मे हो…यदि उसका शरीर ही काबू मे ना हो तो उसको ध्यान लगाने का उद्देश्य नही मिल पाएगा.
आदिरीशि—और ध्यान लगाने का अंतिम उद्देश्य क्या है…?
गुरुदेव—ध्यान का उद्देश्य उस शक्ति से संपर्क करना होता है…परंतु इसके प्रथम चरण मे मानव को आत्मा शुद्धि प्राप्त होती है और ध्यान
लगाने वाले का अंतर मन निर्मल हो जाता है.
आदिरीशि—ध्यान कैसे लगाए…?
गुरुदेव—ध्यान लगते समय अचल बैठ कर अपनी पीठ, सिर और गले को समान और सीधा रखना चाहिए और अपनी दृष्टि को अपनी नाक के अगले भाग पर इस तरह जमाए रखे कि दूसरी सारी दिशाएं आँखो से ओझल हो जाए…ऐसा करने से अपने आस पास के वातावरण से
उसकी इंद्रियो का संपर्क टूट जाएगा और मनुष्या अपने अंतर मे मन लगा सकेगा.
गुरुदेव ने मुझे कुछ दिन तक ध्यान लगाना सिखाया और जब मैं उसमे सक्षम हो गया तो उन्होने मुझे बाकी शिक्षा देना शुरू कर दी…कयि
तरह के अस्त्र शस्त्र और कुछ अलौकिक शक्तियो का ज्ञान दिया.
गुरुदेव—पुत्र इन शक्तियो का उपयोग हमेशा जन कल्याण मे ही करना…किसी निर्दोष प्राणी पर इनका प्रहार मत करना…यही मेरी गुरु दक्षिणा होगी.
आदिरीशि—ऐसा ही होगा गुरुदेव.
जिस समय मैं गुरुदेव से शिक्षा ग्रहण करने मे लगा हुआ था उस समय मेरी और राजनंदिनी की मुलाक़ात होना बंद हो गयी थी....राजनंदिनी का मंन कही नही लग रहा था, वो मुझसे मिलने के लिए आतुर हो रही थी...उसने मेरी शिक्षा मे रुकावट पैदा करने की जगह खुद को माता महाकाली की एक प्रतिमा बना कर जब घर के सब लोग सो जाते तो वह चुपके से निकल जाती और पूरी रात उनकी आराधना करती रहती.
उसी समय अजगर जो कि हर जगह जा जा कर लोगो का क़त्ले आम करता फिर रहा था....वहाँ से गुज़रते हुए अचानक उसकी नज़र राजनंदिनी पर पड़ गयी और फिर....
ऐसे ही वक़्त गुजरने लगा और आदिरीशि और राजनंदिनी का प्रेम सब के लिए मिशल बनता गया…दोनो एक दूसरे के बिना एक पहर भी नही रह पाते थे…वो पेड़ उन्न दोनो के प्रेम मिलन की यादगार बन चुका था.
तभी उन दिनो तभका कोइली मे भीषण बाढ़ का प्रकोप हो गया…कयि गाँव इस बढ़ की चपेट मे आ गये..कयि लोगो की जान गयी…आदिरीशि उस महात्मा की बात को भूल कर सब की मदद करने मे लग गया…क्या रात क्या दिन वो कयि कयि दिन तक भूखा रह कर भी
लोगो को बचाने के काम मे जुटा रहा…राजनंदिनी और उसके दोस्तो ने भी उसका इसमे साथ दिया….उन्ही दिनो नांगु की माँ का भी देहांत हो गया.
उस महात्मा द्वारा अपना शिष्य बनने के लिए आदिरीशि को दी गयी एक माह की अवधि बाढ़ पीड़ित लोगो की मदद करने मे ही समाप्त हो गयी.
अब आगे……
उस महात्मा की दी गयी अवधि समाप्त होने के बाद भी मैं घायल और बीमार लोगो की मदद करने मे ही रात दिन लगा रहा…
इस काम मे बहुत समय निकल गया….तभी एक दिन कुछ बीमार लोगो की मदद कर के घर लौट रहा था तो कयि दिन से खाना ना खाने से कमज़ोरी और थकावट के कारण मैं रास्ते मे गिर कर बेहोश हो गया.
मुझे जब होश आया तो मैने खुद को किसी आश्रम मे लेटा हुआ पाया…ये देख कर मैं सोच मे पड़ गया कि यहाँ कौन लाया मुझे…?
“अब कैसी तबीयत है वत्स.” किसी ने मुझे होश मे आते देख कर कहा.
मैने चौंक कर आवाज़ की दिशा मे गर्दन घुमा के देखा तो ये देख कर हैरान रह गया कि मेरे सामने वही महात्मा खड़े हुए थे.
आदिरीशि (हैरान हो कर)—प्रणाम महात्मा जी..!
महात्मा—अब कैसी तबीयत है तुम्हारी पुत्र.... ?
आदिरीशि (इधर उधर देखते हुए)—मैं तो ठीक हूँ…..लेकिन मुझे हुआ क्या था और मैं यहाँ कैसे आया.... ? जहाँ तक मुझे याद है, मैं तो अपने घर जा रहा था.
महात्मा—तुम मुझे यहाँ आश्रम मे आते समय रास्ते मे बेहोश मिले थे….तब कुछ लोगो की मदद से मैं तुम्हे यहाँ ले आया.
आदिरीशि—आपका कोटि कोटि धन्यवाद महात्मा जी….और मैं आप से क्षमा चाहता हूँ कि मैं आपको निर्धारित अवधि मे कोई भी अनमोल
चीज़ भेंट नही कर सका…..शायद आपका शिष्य बनने का सौभाग्य मेरी किस्मत मे ही नही लिखा था.
महात्मा—परंतु मुझे तो अनमोल उपहार तुमसे मिल चुका है, वत्स…..मैं तुम्हे अपना शिष्य बनाने के लिए सहर्ष तैयार हूँ….तुम जैसा शिष्य बनाने और तुम्हे शिक्षा देने मे मुझे भी खुशी होगी.
आदिरीशि (शॉक्ड)—लेकिन महात्मा जी ..मैने आप को अभी तक कोई अनमोल उपहार दिया ही नही…? फिर आप ने ये क्यो कहा कि उपहार आप को मिल चुका है….? जबकि मैं पिछले एक महीने से भारी बारिश से हुए तबाह लोगो की मदद करने मे ही लगा रहा….आपका
उपहार ढूँढने का मुझे समय ही नही मिल पाया.
महात्मा (मुश्कुरा कर)—पुत्र तुम्हे क्या लगा था कि उपहार मे मैने तुम्हे कोई हीरे, मोटी, मणि, मनिक्य जैसी कोई चीज़ भेंट करने को कहा है…! नही पुत्र, ये सब तो मेरे लिए कंकड़ और पत्थर के समान हैं, इनको ले कर मैं क्या करूँगा…? जो तुमने पिछले एक महीने मे किया,
पीड़ित लोगो की निःस्वार्थ भावना से उनकी हर संभव बिना कुछ खाए पिए उन सब की मदद की….रात को रात और दिन को दिन नही
समझा, बस सब कुछ भूल कर केवल जन कल्याण मे ही लगे रहे……वास्तव मे वही मेरा उपहार है….
आदिरीशि (शॉक्ड)—मैं कुछ समझा नही महात्मा जी…?
महात्मा—वत्स, मैने तुम्हे कहा था कि मुझे कोई ऐसा अनमोल उपहार चाहिए जो किसी के भी पास ना हो….तो तुम ही विचार करो….क्या ये हीरे, जवाहरात..ये धन दौलत और किसी के पास नही हो सकती…? ये अनमोल कैसे हो सकती है… जबकि सच बात तो ये है कि रत्न और
अभुसान तो तीन ही होते हैं लेकिन मूर्ख लोग हीरे, जवाहरात, सोना, चाँदी को आभूषण समझते हैं.
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥
वास्तव मे जल, अनाज और मधुर वाणी के अतिरिक्त कोई रत्न नही है….एक ही उपहार ऐसा है जो हर किसी के पास अलग अलग होता है, और वह है उसका कर्म….तुम्हारा ये निःस्वार्थ भाव से किया गया कर्म ही मेरे लिए सबसे अनमोल भेंट है, जो की मुझे अब मिल चुका है.
आदिरीशि (खुश हो कर)—सच महात्मा जी..! इसका मतलब अब मैं आपका शिष्य बन सकता हूँ ना…?
महात्मा—अवश्य पुत्र….अब से तुम मेरे शिष्य हो….मैं तुम्हे हर तरह के लौकिक और अलौकिक ज्ञान से परिपूर्ण करूँगा….साथ मे तुम्हे अष्ट्र शस्त्र विद्या मे निपुण बनाउन्गा जिससे कि तुम आने वाले समय मे अधर्मी और पपियो का नाश कर के उनके क्रूर अत्याचार से असहाय लोगो
की मदद कर सको…किंतु पुत्र मैं तुम्हे शिक्षा देना शुरू करूँ उससे पहले इस समय तुम्हारा एक बेहद ज़रूरी कर्तव्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है.
आदिरीशि—कैसा कर्तव्य…महात्मा जी…नही नही…महात्मा जी नही बल्कि आज से गुरुदेव…?
महात्मा—वत्स, एक दुखद समाचार है…..यहाँ से काफ़ी दूरी पर एक निर्जन वन है….जहाँ साधना करते हुए तुम्हारे पिता की मृत्यु हो चुकी है
या ये समझ लो कि इस दौरान उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी है…
आदिरीशि (शॉक्ड)—क्य्ाआअ….? नही…ये नही हो सकता.
उन महात्मा के मुख से अपने पिता जी की मृत्यु का समाचार पाते ही मैं दुख के अतः सागर मे डूबने लगा… मेरी आँखो से आँसुओं की लाड़िया बहने लगी.
महात्मा—वत्स, ये समय दुखी हो कर आँसू बहाने का नही बल्कि तुम्हे अपने पिता के पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि करने का है, इससे पहले कि
कोई जंगली जानवर उनके मृत शरीर को क्षत विक्षत कर दे….तुम्हे अपना ये पुत्र धर्म निभाना होगा…उठो वत्स
आदिरीशि—जैसी आपकी आग्या गुरुदेव
मैं अश्रु पूरित पलकों के साथ अपने गाओं आ गया और अपने दोस्तो को साथ ले कर गुरुदेव की बताए गये स्थान की ओर चल दिया….ये खबर आग की तरह पुर गाओं मे फैल गयी….
राजनंदिनी भी इस खबर को सुन कर खुद को इश्स गमगीन घड़ी मे मेरे पास आने से नही रोक सकी…उसके पिता समेत गाओं के कयि लोग भी हमारे साथ चल दिए…. वहाँ पहुचते ही मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा जब मैने अपने पिता के शरीर को काई टुकड़ो मे इधर उधर पड़ा हुआ देखा.
हम सभी दोस्तो की आँखे इस समय नम थी….मैने अपने दोस्तो और गाओं वालो की मदद से वही पिता जी का अंतिम संस्कार किया…पहले माँ और अब पिता जी के जाने से मैं बिल्कुल टूट चुका था….किंतु राजनंदिनी के प्यार और अपने दोस्तो की दोस्ती के ने मुझे जीवित रहने पर विवश कर दिया था.
किंतु मेरे मंन मे अशांति ही अशांति थी….राजनंदिनी और अपने दोस्तो के समझाने पर मैं गुरुदेव के पास चला गया अपनी भीगी पलकों के साथ.
महात्मा (गुरुदेव)—आओ वत्स.
आदिरीशि—प्रणाम गुरुदेव
गुरुदेव—कल्याण हो पुत्र
आदिरीशि (रोते हुए)—अब मेरा इस संसार मे कोई नही रहा गुरुदेव…मैं अब बिल्कुल अकेला और अनाथ हो गया हूँ.. मेरा मन अशांत हो चुका है पूरी तरह से….
गुरुदेव—वत्स, अगर ये सुख दुख के मायाजाल से अपने आपको अलग कर के देखोगे तो सारी सृष्टि ही तुम्हे अपनी लगेगी.
आदिरीशि—गुरुदेव, मेरे पिता की हत्या किसने और क्यों की…? उनकी तो किसी से दुश्मनी भी नही थी…
गुरुदेव—शैतान अजगर ने तुम्हारे पिता की हत्या की है....वो सभी लोको मे अंधकार और पाप का साम्राज्य स्थापित करना चाहता है...जब उसने तुम्हारे पिता को किसी और की साधना करते हुए देखा तो उसने उनकी हत्या कर दी...और इसमे उसका साथ दिया कील्विष् ने.....
आदिरीशि (रोते हुए)—उस पापी को क्या हक़ था ऐसा करने का... ? उसने अकारण ही मेरे पिता को मार डाला...मुझे अनाथ कर दिया..
गुरुदेव—वत्स, जीवन मारन तो सतत प्रक्रिया है…मैने तुम्हे समझाया था कि जिसका जनम हुआ है एक दिन उसकी मृत्यु होना भी निश्चित
है…फिर शोक कैसा पुत्र..
इस शरीर में सुनो आदिरीशि एक सूक्ष्मा शरीर समाए रे,
ज्योति रूप वही सूक्ष्म शरीर तो जीवात्मा कहलाए रे,
मृत्यु समय जब यह जीवात्मा तंन को छोड़ कर जाए रे,
धन दौलत और सगे संबंधी कोई संग ना आए रे,
पाप पुण्य संस्कार वृत्तिया ऐसे संग ले जाए रे,
जैसे फूल से उसकी खुश्बू पवन उड़ा ले जाए रे,
संग चले करमो का लेखा जैसे कर्म कमाए रे,
अगले जनम में पिछले जनम का आप हिसाब चुकाए रे.
गुरुदेव का ऐसे बार बार समझाने से मेरे मन के अंदर छाए दुख के बदल धीरे धीरे कम होते गये और जब मैने खुद को कुछ संयमित समझा तो उनसे शिक्षा आरंभ करने के लिए कहा.
गुरुदेव—वत्स, सबसे पहले तुम्हे ध्यान लगाना सीखना होगा….क्यों कि शस्त्र ज्ञान अष्ट्र शस्त्र का ज्ञान तो मैं तुम्हे दे दूँगा किंतु कुछ अलौकिक शक्तियो को ग्रहण कर उन्हे आत्मसात करने के लिए ध्यान की आवश्यकता होती है.
आदिरीशि—ध्यान कैसे लगाते हैं गुरुदेव….? क्या ध्यान लगाने का कोई सरल तरीका है….?
गुरुदेव—हां, एक आसान तरीका है किंतु वो कोई विधि नही है बल्कि एक कला है…एक यौगिक कला….जिससे ध्यान लगाने मे बड़ी सहयता मिलती है.
आदिरीशि—वो आसान तरीका, वो यौगिक कला क्या है गुरुदेव….?
गुरुदेव—वत्स, संसार के झमेलो से बचने के लिए एकांत मे बैठ कर मन को ध्यान मे लगाना चाहिए… क्यों कि एकांत मे मानव अपने भीतर झाँक सकता है.
आदिरीशि—परंतु ध्यान लगाने के लिए अपने अंतर मे झाँकने की क्या आवश्यकता है….?
गुरुदेव—पुत्र, शायद तुम भूल रहे हो कि परमात्मा का अंश अर्थात आत्मा मानव के भीतर ही वास करती है…इसी आत्मा से संपर्क ही उससे मिलने का पहला चरण है…इसलिए ध्यान लगाने के लिए सबसे पहले अपने अंतर मे ही झाँकना चाहिए और ये तभी संभव हो सकता है जब
मनुष्य का अपना शरीर उसके नियंत्रण मे हो…यदि उसका शरीर ही काबू मे ना हो तो उसको ध्यान लगाने का उद्देश्य नही मिल पाएगा.
आदिरीशि—और ध्यान लगाने का अंतिम उद्देश्य क्या है…?
गुरुदेव—ध्यान का उद्देश्य उस शक्ति से संपर्क करना होता है…परंतु इसके प्रथम चरण मे मानव को आत्मा शुद्धि प्राप्त होती है और ध्यान
लगाने वाले का अंतर मन निर्मल हो जाता है.
आदिरीशि—ध्यान कैसे लगाए…?
गुरुदेव—ध्यान लगते समय अचल बैठ कर अपनी पीठ, सिर और गले को समान और सीधा रखना चाहिए और अपनी दृष्टि को अपनी नाक के अगले भाग पर इस तरह जमाए रखे कि दूसरी सारी दिशाएं आँखो से ओझल हो जाए…ऐसा करने से अपने आस पास के वातावरण से
उसकी इंद्रियो का संपर्क टूट जाएगा और मनुष्या अपने अंतर मे मन लगा सकेगा.
गुरुदेव ने मुझे कुछ दिन तक ध्यान लगाना सिखाया और जब मैं उसमे सक्षम हो गया तो उन्होने मुझे बाकी शिक्षा देना शुरू कर दी…कयि
तरह के अस्त्र शस्त्र और कुछ अलौकिक शक्तियो का ज्ञान दिया.
गुरुदेव—पुत्र इन शक्तियो का उपयोग हमेशा जन कल्याण मे ही करना…किसी निर्दोष प्राणी पर इनका प्रहार मत करना…यही मेरी गुरु दक्षिणा होगी.
आदिरीशि—ऐसा ही होगा गुरुदेव.
जिस समय मैं गुरुदेव से शिक्षा ग्रहण करने मे लगा हुआ था उस समय मेरी और राजनंदिनी की मुलाक़ात होना बंद हो गयी थी....राजनंदिनी का मंन कही नही लग रहा था, वो मुझसे मिलने के लिए आतुर हो रही थी...उसने मेरी शिक्षा मे रुकावट पैदा करने की जगह खुद को माता महाकाली की एक प्रतिमा बना कर जब घर के सब लोग सो जाते तो वह चुपके से निकल जाती और पूरी रात उनकी आराधना करती रहती.
उसी समय अजगर जो कि हर जगह जा जा कर लोगो का क़त्ले आम करता फिर रहा था....वहाँ से गुज़रते हुए अचानक उसकी नज़र राजनंदिनी पर पड़ गयी और फिर....