Desi Chudai Kahani मकसद - Page 2 - SexBaba
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Desi Chudai Kahani मकसद

“ऐसे बड़े गैंगस्टर भी उसकी आंख में डंडा किए हैं ?”
“पूरा पूरा ।”
“क्यों ?”
“उनकी माकूल खिदमत नहीं की । उनसे बाहर जा के अपना वजूद बनाने की कोशिश की । वो खफा हो गए । नतीजतन दो नम्बर के तमाम धंधों से मदान को अपना हाथ खींचना पड़ा । न खींचता तो बड़े दादाओं के हाथों कुत्ते की मौत मरता ।”
“और ?”
“और ऊपर से सरकार से पीछे पड़ गई । टैक्स वाले पीछे पड़ गए । कुछ गलत किस्म की लीडरान की शह पर कई सरकारी महकमात में ऐसे पंगे फंसा बैठा कि दिल्ली के लाट साहब तक खफा हो गए उससे और ऐसे ऐसे हुक्म फरमा बैठे कि आइन्दा दिनों में मदान साहब को रोटी के लाले पड़ जाएं तो बड़ी बात नहीं ।”

“कमाल है ।”
उसने थूक की एक और पिचकारी छोड़ी ।
“और ?” मैं मंत्रमुग्ध सा बोला ।
“और कोढ़ में खाज जैसा काम ये किया” वो धीरे से बोला, “कि बुढौती में ऐसी कड़क नौजवान छोकरी से शादी कर ली जो हीरे-जवाहरात जड़ी पौशाकें पहनती है, सोने का निवाला खाती है ।”
“कितनी उम्र होगी मदान की ?”
“पचपन के पेटे में तो शर्तिया है ।”
“और छोकरी ? “
“वो है कोई तेईस चौबीस साल की ।”
“बहुत खूबसूरत है ?”
“ताजमहल देखा है ?”
“हां ।”
“कैसा है ?”
“ओह ! इतनी खूबसूरत है ?”
“इससे ज्यादा । इतनी ज्यादा खूबसूरत है कि देखकर ही यकीन आता है ।”

“मैं देखूंगा ।”
“बस देख ही पाएगा । और उसे भी अपनी खुशकिस्मती समझना ।”
“पहलवान ! इस पंजाबी पुत्र की” मैंने अपनी छाती ठोकी, “खुशकिस्मती का जुगराफिया बड़ा टेढ़ा है । खासतौर से खूबसूरत औरतों के मामले में ! आखों में ऐसा मिकनातीसी सुरमा लगाता हूं कि एक बार कोई आंखों में झांक ले तो कच्चे धागे से बंधी पीछे खिंची चली आए । बल्कि कच्चे धागे की भी जरूरत नहीं ।”
वो खामोश रहा । प्रत्यक्षत: मेरी वैसी किसी खूबी से उसे कोई इत्तफाक नहीं था ।
“शादी क्यों की ?” मैंने नया सवाल किया, “खूबसूरत औरत को हासिल करने के लिए मदान जैसे अण्डरवर्ल्ड डान कहीं शादी के बंधन में बंधते हैं !”

“नहीं बंधते । मदान साहब की भी ऐसी कोई मर्जी नहीं थी । लेकिन और किसी तरीके से वो छोकरी पुट्ठे पर हाथ ही नहीं रखने देती थी मदान साहब को । उसको हासिल करने की वाहिद शर्त शादी थी मदान साहब के सामने ।”
“अपना जलाल दिखाया होता ।”
“दिखाया था । काम न आया । मदान साहब उसकी पीठ पीछे गरजता था कि उठवा दूंगा, बोटी-बोटी काटकर चील कौवों को खिला दूंगा, ये कर दूंगा, वो कर दूंगा, लेकिन जब छोकरी के सामने पड़ता था तो भीगी बिल्ली की तरह मिमियाने लगता था । जादू कर दिया था अल्लामारी ने मदान साहब पर । सात फेरों के लपेटे में लेकर ही मानी कमबख्त मदान साहब को ।”

“थी कौन ? करती क्या थी ?”
“चिट्ठियां ठकठकाती थी पुनीत खेतान के दफ्तर में ।”
“टाइपिस्ट थी ?”
“यही होगी अंग्रेजी में ।”
“और ये पुनीत खेतान कौन साहब हुए ?”
“खेतान साहब मदान साहब का कोई नावें-पत्ते का सलाहकार है और कोरट कचहरी की भी कोई सलाह मदान साहब को चाहिए होती है तो मदान साहब उसी के पास जाता है ।”
“फाइनांशल एंड लीगल एडवाइजर !”
“वही होगा अंग्रेजी में ।”
“इतनी खूबसूरत लड़की उसकी मुलाजमत में थी तो उसने नहीं हाथ रखा उस पर ?”
“कोशिश तो जरूर की होगी । खीर का कटोरा सामने पाकर कोई उसमें चम्मच मारने की कोशिश से बाज आता है !”

“यानी कि कोशिश करने वाले कई थे लेकिन वो खीर खाई मदान साहब ने ही ।”
“यही समझ ले ।” वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला, “वैसे मुझे तो अफसोस ही हुआ था !”
“क्यों ?”
“अरे, इतना वड़ा दादा, इतना बड़ा साहब, गिरा तो एक चिट्ठियां ठकठकाने वाली छोकरी की जूतियों में जाकर ! और छोकरी भी कम्बख्त ऐसी खर्चीली कि देख लेना मदान साहब को नंगा करके छोड़ेगी । लाखों रुपये से कम कीमत की चीज की ख्वाहिश ही नहीं करती पट्ठी । और वो भी मदान साहब की ऐसी हालत के दिनों में जबकि न धंधा साथ दे रहा है न तकदीर !”

“विनाशकाले विपरीत बुद्धि ।”
“क्या ?”
“कुछ नहीं । तो पट्ठा बुझती चिलम में फूंके मार-मार के नौजवानी के मजे लूट रहा है । हजम हो या ना हो, खीर खा रहा है ।”
“हां । फिलहाल तो बैठा है सांप की तरह कुंडली मारकर हुस्नो-शबाब की दौलत पर ।”
“वाह, खलीफा ! बहुत उम्दा जुमला कसा । और अभी कहते हो कि अनपढ़ हूं ।”
वो दांत निकालकर एक भद्दी-सी हंसी हसा ।
“यूं तो” मैं बोला, “तेरा उम्रदराज बॉस कभी हुस्न के सैलाब में बह जाएगा, जोबन के पहलू में दम तोड़ देगा ।”
“कोई बड़ी बात नहीं ।”

“पहले तो वो देवनगर में कहीं रहता था । अब भी वहीं रहता है ?”
“नहीं । अब तो वो एक होटल में रहता है ।”
“कौन से होटल में ?”
“जो बाराखम्भा रोड पर नया बना है । उसकी सबसे ऊपरली मंजिल तमाम की तमाम मदान साहब के कब्जे में है ।”
“और कौन रहता है वहां ?”
“कोई नहीं ।”
“भाई भी नहीं ?”
“वो तो अलग कोठी में रहता है ।”
“कहां ।”
“मेटकाफ रोड । कोठी नंबर दस ।”
“जहां कि तू मुझे दिन के ग्यारह बजे पहुंचाने वाला था ?”
“हां ।”
“छोटे भाई का नाम क्या है ?”

“शशिकांत ।”
“शादीशुदा है ?' “
“नहीं ।”
“वहां मेटकाफ रोड पर अकेला रहता है ?”
“हां ।”
“भाई के पास क्यों नहीं रहता ?”
“वजह नहीं मालूम ।”
“अब साथ नहीं रहता या पहले भी साथ नहीं रहता था ?”
“जहां तक मुझे मालूम है, पहले भी साथ नहीं रहता था ।”
“मेरे अगवा का हुक्म तुझे लेखराज मदान से मिला लेकिन मुझे अगवा करके तूने मुझे उसके छोटे भाई की कोठी पर पहुंचाना है । ऐसा क्यों ? उसी के पास क्यों नहीं जिसने कि अगवा का हुक्म दिया ?”
 
“पता नहीं ।”
“सुर बदल रहा है, पहलवान । एकाध दांत हलक में उतर गया नहीं देखना चाहता तो पहले वाले सुर का ही रियाज रख ।”

“अल्लाह कसम, नहीं पता ।”
“मैं मालूम करूंगा ।”

“तू उससे मिलने जाएगा ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ! मैं तो मरा जा रहा हूं ये जानने के लिए कि क्यों वो मेरे अगवा का तलबगार है ।”
“वो बताएगा ?”
“राजी से तो नहीं बताएगा ।”
“तू तो यूं कह रहा है जैसे तू मदान साहब के साथ कोई जोर-जबरदस्ती कर सकता है ।”
“ठीक पहचाना ।”
उसके चेहरे पर विश्वास के भाव न आए ।
“जिन्दा लौट के नहीं आएगा ।” वो बोला ।
“यकीनन आऊंगा । साथ में इस बात की भी मुकम्मल जानकारी लेकर आऊंगा कि जिसको तू ताजमहल का दर्जा दे रहा है, वो ताजमहल जैसी अजीमोश्शान है भी या नहीं ।”

“भैय्ये, अगर तेरे ऐसे ही इरादे हैं तो तू मदान साहब की गोली से नहीं मरेगा, तू और तरीके से मरेगा ?”
“और तरीके से कैसे ?”
“तू मदान साहब की हुस्नपरी पर निगाह डालेगा और गश खा जाएगा । फिर पछाड़ खाकर उसके कदमों में गिरेगा और इस फानी दुनिया से रुखसत फरमा जाएगा ।”
“देखेंगे ।” मैं लापरवाही से बोला और उठ खड़ा हुआ ।
“मेरा क्या होगा ?” एकाएक वो व्याकुल भाव से बोला ।
“कुछ नहीं होगा । थोड़ा वक्त तुझे यहां यूं ही गुजारना पड़ेगा । मैं तेरे बॉस को तेरी खबर करूंगा, फिर आगे वो ही फैसला करेगा कि तेरा क्या होगा ।”

“वो मुझे जान से मार डालेगा ।”
“काहे को ! तूने क्या किया है ?”
“मैं काम को अंजाम जो न दे सका । मैं तेरे को उस तक पहुंचा जो न सका ।”
“तो क्या हुआ ? मैं खुद ही पहुंच रहा हूं । समझ ले तेरी खातिर मैं उसके हुजूर में खुद पेश हुआ ।”
“लेकिन...”
“तुझे इस बात पर शक है कि मैं तेरे बॉस के पास जा रहा हूं ।”
“वो बात तो नहीं है लेकिन...”
“क्या लेकिन ? तू क्या चाहता है कि मैं तेरे को आजाद कर दूं और ये रिवॉल्वर तुझे थमा दूं ताकि अपने ओरिजिनल प्रोग्राम के मुताबिक तू मुझे बकरी की तरह हांक के अपने बाप के खूटे से बांध आए और पचास हजार रुपए की फीस वसूल कर ले । यही चाहता है न ?”

“चाहता तो मैं यही हूं ।” वो बड़ी संजीदगी से बोला, लेकिन भैय्ये, ऐसा हो तो नहीं सकता न !”
“सोच कोई तरकीब ।”
वो खामोश रहा ।
“तंबाकू थूक ।” मैंने आदेश दिया ।
वो असमंजसपूर्ण ढंग से मेरी ओर देखने लगा ।
मैंने जेब से रूमाल निकालकर उसका एक गोला सा बनाया और बोला, “मुंह खोल ।”
तब मेरा इरादा उसकी समझ में आया ।
“मेरा दम घुट जाएगा ।” उसने आर्तनाद किया ।
“नहीं घुटेगा ।”
“मैं मर जाऊंगा ।”
“नहीं मरेगा ।”
“भैय्ये, रहम कर, मैं...”
“खलीफा, दिन चढे तक तेरी हालत कितनी भी बद क्यों न हो जाए, उस हालत में तू फिर भी नहीं पहुंचेगा जिसमें बाहर गलियारे में पड़ा तेरा जोड़ीदार पहुंचा हुआ है ।”

मैंने रूमाल जबरन उसके मुंह में ठूंस दिया ।
फिर मैंने उसकी जेबें टटोली ।
एक जेब से एक लंबा, रामपुरी, कमानीदार चाकू बरामद हआ । चाकू देखकर मुझे अपनी अक्ल पर बहुत अफसोस हुआ । तलाशी का वो काम मुझे तब करना चाहिए था जबकि वो टॉयलेट के फर्श बेहोश पड़ा था । वो खतरनाक चाकू उसके हक में बाजी पलट सकता था लेकिन गनीमत थी कि ऐसा हुआ नहीं था ।
यानी कि इस पंजाबी पुत्तर की फेमस लक ने अभी उसका साथ देना बंद नहीं किया था ।
उसकी एक और जेब से चौंतीस सौ रूपये के नोट बरामद हुए ।

“पहलवान ।” मैं बोला ये उस झापड़ की एबज में कब्जा रहा हूं जो तूने मुझे मारा था ।”
उसकी ऑखें अपनी कटोरियों में बड़ी बेचैनी से घूमी ।
गैरेज में खड़ी कार की चाबियां मैंने गलियारे में जाकर हामिद की जेब से बरामद कीं । इतनी रात गए मुझे आसानी से कोई सवारी मिलने वाली जो नहीं थी ।
आखिर में मैंने हर उस स्थान को रगड़-रगड़ कर पोंछा जहां से मेरी उंगलियों के निशान बरामद होने की सम्भावना हो सकती थी ।
 
Chapter 2

वातावरण में भोर का उजाला फैल रहा था जबकि मैंने अपने अपहरणकर्ताओं से झपटी एम्बेसडर बाराखम्बा रोड के उस होटल की लॉबी में ले जाकर रोकी, बकौल हबीब बकरा, जिसके पेंथाउस अपार्टमेंट में लेखराज मदान नाम का सुपर गैंगस्टर रहता था ।
भीतर पहुंचने पर मुझे मालूम हुआ कि तेरहवीं मंजिल पर स्थित उसके पेंथाउस तक एक लिफ्ट सीधी जाती थी जो कि उस वक्त मजबूती से बंद थी ।
“ये लिफ्ट” पूछने पर रिसेप्शन पर मौजूद क्लर्क ने मुझे बताया, “मदान साहब अपने अपार्टमेंट से एक बटन दबाते हैं तो खुलती है ।”
“ऐसा कब होता है ?” मैंने पूछा ।

“नौ बजे से पहले तो कभी नही होता ।”
“ऐसा क्यों ?”
“मदान साहब देर से सो के उठते हैं । वो नौ बजे से पहले डिस्टर्ब किया जाना पसन्द नहीं करते ।”
“रास्ता यही एक है ऊपर पहुंचने का ?”
“जी हां ।”
“लेकिन मेरी तो उनसे मुलाकात बहुत जरूरी है । बहुत ही जरूरी है । हकीकत ये है कि वो ही पसंद नहीं करेंगे कि मैं देर से उन्हें रिपोर्ट करूं ।”
“ऐसा है तो आप” उसने काउंटर पर पड़ा एक फोन मेरी तरफ सरका दिया, “उन्हें फोन कर लीजिए ।”
“गुड ।” मैंने रिसीवर उठाकर हाथ में लिया, “नम्बर बोलो ।”

“वो तो” क्लर्क मुस्कराया, “आपको मालूम होना चाहिए ।”
मैंनै हौले से रिसीवर वापस क्रेडल पर रख दिया ।
यानी कि राष्टषति भवन में दाखिला आसान था दादा लोगों की डेन में दाखिला मुश्किल था ।
नौ बजे लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था ।
नौ बजने में अभी तीन घंटे बाकी थे ।
मैं मोतीबाग जाकर हबीब बकरे से वहां का नम्बर उगलवा सकता था, आखिर उसने फोन पर मदान से बात की थी, लेकिन एक तो उसमें भी ढेर वक्त लगता और दूसरे मुझे फिर ऐसे घर में कदम डालने पड़ते जहां कि गोलियों से बिंधी एक लाश मौजूद थी ।

वक्तगुजारी के लिए मैंने अपने दोस्त मलकानी के पास जाने का फैसला किया जो कि करीब ही पहाड़गंज में एक साधारण सा होटल चलाता था ।
नौ बजे तक मैं वापस होटल की लॉबी में पहुंचा तो तब मुझे सीधे पेंथाउस जाने वाली लिफ्ट लॉबी में खड़ी मिली जिसमें सवार होने से मुझे किसी ने न रोका ।
सुपरफास्ट लिफ्ट पलक झपकते तेरहवीं मजिल पर पहुंच गई ।
मैं लिफ्ट से निकला तो वहां सामने मुझे एक ही दरवाजा दिखाई दिया जिसकी चौखट में कॉलबैल का पुश लगा हुआ था । मैंने पुश को दबाया और प्रतीक्षा करने लगा ।

कुछ क्षण बाद दरवाजे में एक झरोखा सा खुला और मुझे उसमें से दो हिरणी जैसी काली कजरारी मदभरी आंखें दिखाई दीं ।
“यस” साथ ही एक खनकता हुआ स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
“मदान साहब से मिलना है ।” मैं बोला ।
“क्यों मिलना है ?”
“उनके लिए एक संदेशा है ।”
“किसका ?”
“हबीब बकरे का ।”
“किसने मिलना है ?”
“बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं ।”
“वेट करो ।”
झरोखा बंद हो गया ।
मैं प्रतीक्षा करने लगा ।
दो मिनट बाद दरवाजा खुला ।
दरवाजे पर रेशमी गाउन में लिपटी हुई रेशम जैसी ही अनिद्य सुंदरी प्रकट हुई । उस पर एक निगाह पड़ते ही आपके खादिम की हालत बद हो गई और ओर फिर बद से बदतर हो गई । अगर वही औरत लेखराज मदान की बीवी थी तो हबीब बकरे ने गलत नहीं कहा था कि मैं उस पर एक निगाह डालूंगा और गश खा जाऊंगा, फिर पछाड़ खाकर उसके कदमों में गिरूंगा और इस फानी दुनिया से रुखसत फरमा जाऊंगा ।

मेरी पसंद की हर चीज उसमें थी, न सिर्फ थी, ढेरो में थी ।
 
लंबा कद । छरहरा बदन । तनी हुई सुडौल भूरपूर छातियां जो अंगिया के सहारे की कतई मोहताज नहीं थीं और अगर खाकसार की निगाहबीनी गलत नहीं थी तो अपने रेशमी गाउन के नीचे अंगिया वो पहने भी नहीं हुई थी । गोरे चिट्टे हाथ-पांव । खूबसूरत नयन-नक्श । पतली कमर । भारी नितंब । सरू सा लंबा कद । सुराहीदार गर्दन । रेशम से मुलायम सुनहरी रंगत लिये भूरे बाल। हुस्न की दौलत से मालामाल होने के अभिमान से दमकता चेहरा । कोई खराबी थी तो वो ये कि वो इतने शानदार जिस्म को लिबास से ढके हुए थी ।

उस घड़ी मैं फैसला नहीं कर पा रहा था कि उस मुजस्सम हुस्न की शान में मेरे मुंह से आह निकलनी चाहिये थी या वाह !
या शायद कराह !

“हो गया ?” वो अपने सुडौल मोतियों जैसे दांत चमकाती हुई उसी खनकती आवाज में बोली जो कुछ क्षण पहले मैंने बंद दरवाजे के पार से सुनी थी ।”

“क्या ?” मैं हड़बड़ाकर बोला ।

“ब्रेकफास्ट ।”

“जी !”

“आंखों ही आंखों में हज्म तो कर रहे हो मुझे ।”

“ओह ! खाकसार आपकी पैनी निगाह की दाद देता है और कबूल करता है कि ये गुनहगार आंखें उसी काम को अंजाम दे रही थीं जिसका कि आपने जिक्र किया ।”

“ब्रेकफास्ट का !” वो अपने दांतों से अपना निचला होंठ चुभलाती हुई तनिक कुटिल स्वर में बोली ।

“जी हां ।”

“पेट भर गया ?”

“पेट तो भर गया लेकिन नीयत नहीं भरी । अब बंदा ब्रेकफास्ट के फौरन बाद, हाथ के हाथ लंच और डिनर का भी तमन्नाई है ।”

“इतना खाना इकट्ठा खाओगे तो बदहजमी हो जाएगी ।”

“तो क्या होगा ?”

“मर जाओगे ।”

“तो क्या बुरा होगा ! खाली पेट मरने से तो ऐसी मौत बेहतर ही होगी ।”

“खुशबू का लुत्फ उठाओ और जायके के ख्वाब लो ।” वो अपना एक नाजुक हाथ चौखट से हटाकर अपने कूल्हे के खम पर टिकाती हुई बोली, “तुम्हारी किस्मत में बस इतना ही लिखा है ।”

“हू नोज, मैडम ! मर्द की किस्मत को तो देवता नहीं जान पाते ।”

वो हंसी और फिर बोली, “नाम क्या बताया था तुमने अपना ?”

“सुधीर कोहली” मैं तनिक सिर नवाकर बोला, “दि ओनली वन ।”

“कोई टॉप के हरामी मालूम होते हो ।”

“दोनों बातें दुरुस्त । हरामी भी हूं और टॉप का भी । आम, मामूली हरामियों से तो यह शहर भरा पड़ा है । टॉप का हरामी एक ही है राजधानी में और आसपास चालीस कोस तक । सुधीर कोहली । दि ओनली वन ।”

“बातें बढिया करते हो ।”

“और भी कई काम बढ़िया करता हूं । कभी आजमाकर देखिए ।”

“देखेंगे” एकाएक वह चौखट पर से हटी, “कम इन एंड सिट डाउन । साहब आते हैं ।”

“थैंक्यू ।” मैंने भीतर कदम रखा तो उसने मेरे पीछे अपार्टमेंटं के इकलौते प्रवेशद्वार को मजबूती से बंद कर दिया । बड़े ऐश्वर्यशाली ढंग से सुसज्जित ड्राइंगरूम की ओर मेरे लिए हाथ लहराती हुई वो पिछवाड़े का एक दरवाजा खोलकर मेरी निगाहों से ओझल हो गई ।

मैंने बैठने का उपक्रम न किया मैंने डनहिल का एक सिगरेट सुलगा लिया और मन ही मन उसके नंगे जिस्म की कल्पना करते हुए मदान की प्रतीक्षा करने लगा ।

मैं नया सिगरेट सुलगा रहा था जबकि मदान ने वहां कदम रखा ।

मदान एक लाल भभूका चेहरे वाला विशालकाय व्यक्ति था । उसके तीन-चौथाई बाल सफेद थे, कनपटी पर लंबी सफेद कलमें थीं लेकिन दाढ़ी-मूंछ सफाचट थीं । उसकी आंखों के लाल डोरे, आंखो के नीचे थैलियों की तरह लटकती खाल और खमीरे की तरह फूला हुआ अति विशाल पेट उसके दारू-कुकड़ी का भारी रसिया होने की चुगली कर रहा था । वो एक तम्बू जैसा महरून कलर का ड्रेसिंग गाउन पहने था ।

उस घड़ी में उस पहाड़ जैसे जिस्म के नीचे उस नाजुक बदन हसीना की कल्पना - बदमजा कल्पना किये बिना न रह सका जो अभी-अभी वहां बिजली की तरह चमक के गई थी ।

मैंने कभी एक मेंढक की कहानी पढ़ी थी जो शहजादी द्वारा चूमे जाने पर खूबसूरत नौजवान बन गया था । मदान उस घड़ी मुझे एक ऐसे विशालकाय मेंढक जैसा लगा जिस पर शहजादी के चुंबन का भी कोई असर नहीं हुआ था ।

वो मेरे से बगलगीर होकर मिला ।

मुझे बहुत हैरानी हुई ।
 
मुझे इस खौफ ने फौरन अलग हो जाने के लिए प्रेरित किया कि कहीं मैं उसकी बगल में ही न समा जाऊं ।

“कोल्ली !” वो फटे बांस जैसी आवाज में बोला, “तेरा इस घड़ी यहां मेरे सामने मौजूद होना ही साबित करता है कि मेरे पहलवान और उसके शागिर्द की सीटी वज्ज गई ।”

“दुरुस्त ।” मैं सरल स्वर में बोला ।

“कैसा है अपना हबीब बकरा ?”

“जिन्दा है ।”

“शागिर्द ?”

“मर गया ।”

“कहां ?”

“मोतीबाग वाली इमारत में ।”

“पहलवान भी वहीं है ?”

“नहीं ।”

“वो कहां है ?”

“मेरे कब्जे में ।”

मैंनै सिगरेट का लंबा कश लगाया ।

“यानी कि बताना नहीं चात्ता ।”

“जाहिर है ।”

“क्यों ?”

“क्योंकि वो अगवा का अपराधी है । अगबा एक संगीन जुर्म है । उस संगीन जुर्म की गंभीरता को कम करने के लिए और हो सके तो सजा से बचने के लिए उसे बताना होगा कि ऐसा उसने किसके कहने पर किया था ।”

“वो मेरा नाम लेगा ?”

“यकीनन लेगा । नहीं लेगा तो मैं उसकी ऐसी दुक्की पीपीटूंगा कि उसकी आत्मा त्राहि-त्राहि कर उठेगी । सारी पहलवानी भूल जाएगा ।”

“कोल्ली ! तू मुझे फंसायेगा ?”

“जिसकी करतूत होगी, वो ही भुगतेगा ।”

“कोल्ली ! तू मेरा पंजाबी भ्रा...”

“अच्छा ।”

“मेरा पंजाबी भ्रा हो के तू मेरे साथ ऐसा..”

“कुत्ते का कुत्ता बैरी ।”

“तभी इतना भौंक रहा है !”

“अभी तो काटूंगा भी ।”

“तू मुझे काटेगा !”

“जब चलकर यहां आया हूं तो कुछ तो करूंगा ही ।”

“वहम है तेरा, कोल्ली पुत्तर ।”

“क्या ?”

“कि तू यहां आ के कुछ कर लेगा । गलती की तूने यहां आ के ।”

“अच्छा !”

“हां आ तो गया । अब जाएगा कैसे ?”

“'वैसे ही जैसे आ गया हूं ।क्या मुश्किल है ?”

उसके चेहरे पर उलझन के भाव आए । उसने घूरकर मुझे देखा ।

“मदान दादा, मैंने एक पूर्वनिर्धारित वक्त पर कहीं वापस पहुंचना है । जीता-जागता । सही-सलामत न पहुंचा तो मेरे साथी तुम्हारे पहलवान को सीधे पुलिस कमिश्नर के पास ले के जाएंगे जहां वो गा गाकर बता रहा होगा कि कैसे उसने तुम्हारे हुक्म पर मेरा अगवा किया था । पुलिस बहुत खुश होगी तुम्हारी गर्दन नापने का मौका पाकर ।”

“यार, तू तो खफा हो रहा है ।”

“नहीं मैं तो खुशी से पागल हुआ जा रहा हूं । मेरी नन्हीं सी जान इतने बड़े दादा के किसी काम आए, इससे ज्यादा खुशी की बात और मेरे लिए क्या हो सकती है !”

”विल्कुल ।”

मैंनै हकबका कर उसकी तरफ देखा ।

“क्या बिल्कुल ?” मैं बोला ।

“तेरी जान मेरे कम्म आए । इसीलिए तो पहलवान को तेरे पास भेजा था ।”

“क्या किस्सा है, मदान दादा ? “

“किस्सा जानना चात्ता है ?”

“तड़प रहा हूं जानने के लिए तभी तो सुबह-सवेरे यहां आया हूं ।”
 
“सिगरेट कौनसी पीता है ?”

मैंने उसे डनहिल का पैकेट दिखाया ।

“एक मुझे दे ।”

मैंने उसे सिगरेट दिया और लाइटर से उसे सुलगाया ।

उसने बड़े तजुर्बेकार अंदाज से सिगरेट का लंबा कश लगाया और नथुनी से धुंए की दोनाली छोड़ी ।

“बैठ ।” वो बोला ।

“ऐसे ही ठीक है ।” मैं शुष्क स्वर में बोला ।

“ओए, बै जा मा सदके । क्यों इतना खफा हो रहा है ?” उसने बांह पकडकर जबरन मुझे एक सोफे पर बिठाया और स्वयं भी मेरे सामने बैठ गया ।
“थुक दे गुस्सा ।” वह बोला ।

“क्या कहने । तुम मेरी जान के पीछे पड़े हो और मैं एतराज भी न करूं ।”

“ओए कोल्ली पुत्तर । ओए मा सदके, मेरी तेरे से कोई जाती अदावत थोड़े ही है ।”

“जाती अदावत नहीं है” मैंने व्यंगपूर्ण स्वर में दोहराया, “फिर भी मेरी जान के पीछे पड़े हो क्योकि गाहे-बगाहे अपने किसी पंजाबी भाई की जान न लो तो तुम्हारी जान में जान नहीं आती ।”

“यारा, तू तो फिर खफा हो रहा है ।”

मैंने भुनभुनाते हुए सिगरेट का लंबा कश लगाया ।

“देख ।” उसने मुझे समझाया, “सुन । ईद पर बकरा काटते हैं कि कि नहीं ? काटते हैं न ? क्यों काटते हैं ? कुर्बान करना होता है उसे । ऐसा करने वाले की बकरे से कोई जाती अदावत होती है ? बोल होती है ?”

“मैं कुर्बानी का बकरा नहीं ।”

“नहीं है l मुझे मालूम है । तू तो मेरा पंजाबी भ्रा है । अब फिर मत कह देना कुत्ते का कुत्ता बैरी ।” वो हा हा करके हंसा, “वीर मेरे मैने तो एक मिसाल दी थी ।”

“मिसाल छोड़ो । मिसालें सुबह-सवेरे मेरी समझ में नहीं आतीं । असली बात कर ।”

“वो भी करते हैं । चा पिएगा ?” फिर मेरे हां या न करने से पहले ही उसने उच्च स्वर में आवाज लगाई, “मधु ।”

वही परीचेहरा हसीना वहां प्रकट हुई ।

“ये मेरी बीवी है । मधु ।”

मैंने सिर नवाकर शहद से कहीं मीठी मधु का अभिवादन किया ।

वो बड़े मशीनीअंदाज से मुस्कराई ।

“ये अपना कोल्ली है ।” वो मधु से बोला, “सुधीर कोल्ली । जसूस है । प्राइवट किस्म का बहुत बड़ी-बड़ी जसुसियां कर चुका है । सारी दिल्ली में मशहूर है । अपना पंजाबी भ्रा है । चा पिला इसे ।”

मधु सहमति में सिर हिलाती हुई वहां से चली गई ।

“कैसी है ?” मदान ने सगर्व पूछा ।

“शानदार ।” मेरे मुंह से अपने आप निकल गया, “तौबाशिकन ।”

“मेरा माल है । सालम । कोल्ली” उसके स्वर में चेतावनी का पुट आ गया, “नीयत मैली नहीं करनी ।”

“सवाल ही नहीं पैदा होता । मुझे क्या दिखाई नहीं देता कि हूर की रखवाली के लिए कितना बड़ा लंगूर बैठा है ।”

“क्या !”

“कुछ नहीं ।” मैं एक क्षण ठिठका और बोला, “वैसे एक बात मैं फिर भी कहना चाहता हूं ।”

“क्या ?”

“मेरी राय में खूबसूरत औरत का दर्जा ताजमहल जैसा होता है । उसकी खूबसूरती का आनन्द लेने का हक हर किसी को होना चाहिए । पति नाम का कोई सांप उसका मालिक बनकर उसकी छाती पर जमकर बैठ जाए, यह मुनासिब बात नहीं ।”

“पागल हुआ है ?” उसने तत्काल एतराज किया, “बेवकूफ बनाता है ! गुमराह करता है । अरे, मेरा माल, मेरा माल है । मेरे माल पर कोई दूसरा कैसे काबिज हो सकता है ?”

“सोशलिज्म में मेरा-मेरा नहीं किया जाता ।”

“बातें जितनी मर्जी बना ले । आखिर पढ़ा-लिखा है लेकिन याद रखना । नीयत मैली नहीं करनी ।”

“बिल्कुल नहीं करनी ।”
कहना आसान था । हकीकतन इतनी शानदार औरत को देखकर जिसकी नीयत मैली न ही वो या हिजड़ा होगा या नपुंसक ।
अप्सरा चाय की ट्रे के साथ वहां पहुंची और हमारे सामने बैठकर चाय बनाने लगी । जितनी देर वो वहां रुकी, उतनी देर मैं अपलक उसे देखता रहा और मदान अपलक मुझे देखता रहा ।
तभी तो कहते हैं कि खूबसूरत औरत के पति की एक जोड़ी आंखें पीठ पीछे भी होनी चाहिए ।
 
उसने चाय हम दोनों को सर्व की और फिर ट्रे में रखी एक डिबिया उठाकर अपने पति को सौंपी ।

“क्या है ?” मदान बोला ।

“देखो ।” वो बोली ।

उसने डिबिया को खोला । भीतर मेरी भी निगाह पड़ी । भीतर हीरों से जड़े दो टोप्स जगमगा रहे थे । सात-सात हीरे । एक मिडल में और छ: उसके गिर्द दायरे की शक्ल में । लेकिन एक में से एक हीरे की जगह खाली थी । जहां हीरा होना चाहिए था वहां खाली छेद दिखाई दे रहा था ।
“एक हीरा निकल के गिर गया है ।” वो बड़े अधिकारपूर्ण स्वर में बोली, “लगवा के दो ।”

“कैसे गिर गया ?” मदान बोला ।
“क्या पता कैसे गिर गया !” वो झुंझलाई, “ढीला पड़ गया होगा ।”
“ढूंढ ले । यहीं कहीं होगा ।”
“ढूंढ लिया । नहीं है । नया लगवा के दो ।”
“आज ही ?”
“अभी । मैंने पहनने हैं । आज नहीं लगता तो नए टोप्स ला के दो ।”
“ठीक है, ठीक है । आज ही लग जाएगा हीरा लेकिन दोनों क्यों दे रही है ? वो ही दे जिसमें हीरा लगना है ।”
“सारे चेक करने हैं । कोई और भी लूज हो सकता है ।”
“अच्छा !”
वो उठकर चला गई ।

“चा पी, कोल्ली ।” मदान फिर मेरी तरफ आकर्षित हुआ ।
मैंने चाय की एक चुस्की ली और बोला, “तुम्हारा भाई मेरा इंतजार कर रहा होगा ।”
“क्या ?” वह सकपकाया ।
“ग्यारह बजे । अपनी कोठी पर । मैटकाफ रोड । दस नम्बर । भूल गए !”
“ओह ! तो सब कुछ बक दिया हमारे पहलवान ने ।”
“सिवाए इसके कि असल किस्सा क्या है । असल किस्सा, मदान दादा, जिसको सुनने के लिए मेरे कान तरस रहे हैं ।”
“यार, तू मुझे दादा क्यों कहता है मैं तेरे से इतना बड़ा थोड़े ही हूं ! कुछ कहना ही है कोई चाचा, ताया, मामा कह ले ।”

“मैंने तुम्हें दादा अपने से तुम्हारी कोई रिश्तेदारी जोड़ने के लिए नहीं कहा, बल्कि तुम्हारा दर्जा, तुम्हारा समाजी रुतबा बयान करने लिए कहा ।”
“एक बात माननी पड़ेगी, कोल्ली । एक नम्बर का हरामी है तू ।”
“शक्रिया ।” मैं तनिक सिर नवाकर बोला, “अब मेरी तारीफ के साथ-साथ अगर असली किस्से का भी जिक्र हो जाए तो...”
“मैं कपडे बदल के आता हूं ।” एकाएक वह उठ खड़ा हुआ, “वो जिक्र मेटकाफ रोड के रास्ते में करेंगे ।”
“मेरा वहां क्या काम ?”
“है काम । चलेगा तो पता चल जाएगा ।”
फिर मेरे और कुछ कह पाने से पहले ही वो वहां से उठकर चल दिया ।

मैंने एक नया सिगरेट सुलगा लिया और सिगरेट और चाय चुसकते हुए उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा ।
***
मैं मदान के साथ उसकी मर्सिडीज में सवार था जिसे कि वो खुद ड्राइव कर रहा था । मर्सिडीज पुरानी थी लेकिन थी तो मर्सिडीज ही । हाथी बूढा भी हो तो कुत्ते बिल्लियों से कमजोर नहीं हो जाता ।
उस वक्त वो सूट रहने हुए था और आकार में और भी पसरा हुआ लग रहा था । सच पूछिए तो ऐसा विशालकाय आदमी किसी मर्सिडीज जैसी कार में ही समा सकता था ।
अपने घर से निकलते ही पहले वो कनाट प्लेस मेहरासंस की दुकान पर गया था जोकि उस वक्त अभी खुल ही रही थी और जहां उसने बीवी के टॉप्स जमा कराये थे ।

उस वक्त कार सिकंदरा रोड पर दौड़ी जा रही थी ।
तिलक ब्रिज के नीचे से से गुजरकर कार आई टी ओ के चौराहे पर पहुंची । वहां से वह दाएं घूमी और पुलिस हैडक्वार्टर के जेरेसाया आगे बढ़ी ।
“कोल्ली” एकाएक वह बड़ी संजीदगी से बोला, “अजीब निजाम है इस मुल्क का । यहां अंडरवर्ल्ड के बॉस लोगों से भिड़ना आसान है, यहां कायदे कानून की मुहाफिज पुलिस से निपटना तो भौत ही आसान है लेकिन सरकारो बाउ से निपटना बड़ा मुश्किल है । ये इनकम टैक्स और कमेटी के महकमें के बाउ लोग हैं जिन्होंने आजकल मेरी बजाई हुई है । कमेटी वालों ने लाखों रुपयों की मेरे से रिश्वत खाई, फिर भी मेरी आठमंजिला इमारत गिरवा दी, हाईकोर्ट के स्टे तक की परवाह नहीं की । स्टे दिखाया तो उसे देखने की जगह मुझे पकड़कर हवालात में बंद कर दिया और तभी छोड़ा जबकि आठ मंजिला इमारत मलबे का ढेर बन गई । एक करोड़ रूपये का नुकसान हो गया । पूरा-पूरा हफ्ता चुकाते रहने के बावजूद एक महीने में चार बार बाडर पर शराब पकड़ी गई । कैब्रे हाउस पर ताले लग गए । इनकम टैक्स वाले अलग आंख में डंडा किये हैं और इतना ज्यादा जुर्माना करने पर आमादा हैं कि सब कुछ बेचकर भी शायद ही चुकता कर पाऊंगा । कुछ महीनों में ही ये सब कुछ हो गया । माईंयेवां रब्ब ही रूठ गया एकाएक लेखराज मदान का ।”

“तभी तो कहते हैं कि मुसीबत आती है तो अकेले नहीं आती है ।”
“लक्ख रुपए की बात कही,कोल्ली । इकट्ठी आई तमाम मुसीबतें । पता नहीं किस कलमुहें की नजर लग गई लेखराज मदान को । सब चौपट हो गया । आज ये हालत है कोल्ली कि होटल वाला फ्लैट तक गिरवी पड़ा है और किसी भी रोज ये मर्सरी भी बेचने की नौबत आ सकती है । अभी गनीमत है कि मधु को इन बातों की भनक नहीं ।”
“उसको भनक लगने से क्या फर्क पड़ता है ?”
“पूरा-पूरा फर्क पड़ता है वीर मेरे । तू क्या समझता है, मैं खूबसूरत बहुत हूं या नौजवान बहुत हूं जो उसने मेरे से शादी करना मंजूर किया ?”

“यानी कि दौलत की दीवानी है ?”
“हर औरत होती है ।”
“फिर तुम्हारी शादी थोड़े ही हुई ! वो तो एक समझौता हुआ, करार हुआ जो तुमने एक नौजवान लड़की से किया । वो कपड़े उतारकर तुम्हारे साथ लेटेगी और तुम्हारे दो क्विंटल के जिस्म के नीचे पिसेगी, और तुम उसे दौलत से मालामाल करोगे, सोने-चांदी से निहाल करोगे ।”
उसने अनमने मन से हुंकार भरी ।
“अब जबकि तुम्हें लग रहा है कि करार के अपने हिस्से की शर्त पूरी करने की सलाहियात तुम्हारे हाथों से निकली जा रही तो ये सोच के तुम्हारा कलेजा कांप रहा है कि कहीं इतनी हसीन औरत भी तुम्हारे हाथों से न निकल जाए ।”

वो अप्रसन्न दिखाई देने लगा । प्रत्यक्षत: मेरा बात को यूं दो टूक कहना उसे रास नहीं आया था ।
“बहरहाल” मैं बोला, “हालात का खुलासा ये है कि रूपए-पैसे के मामले में तुम्हारी दुक्की पूरी तरह से पिटने वाली है ।”
“पिट चुकी है ।”
“लेकिन अपनी मौजूदा दुश्वारियों का कोई हल है तुम्हारे जेहन में ।”
“एकदम ठीक पहचाना ।”
”कहां है हल ?”
”मेरी बगल में बैठा है ।”
“यानी कि मैं ?”
“यानी कि तू ।”
“मैं कुछ समझा नहीं ।”
“कोई बड़ी बात नहीं । अभी कुछ समझाया ही कहां है मैंने ?”
“उम्मीद रखूं कि इसी हफ्ते में समझा लोगे ?”

“मैं अभी समझाता हूं । मैं बात को दूसरी ओर का सिर पकड़कर समझाता हूं ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“शशिकांत का बीमा है । जीवन बीमा ।”
“जरूर होगा । सबका होता है ।”
“पचास लाख का ।”
“ये सबका नहीं होता ।” मैं नेत्र फैलाकर बोला, “रकम फ्यूज उड़ा देने वाली है ।”
“मेरे हक में ।”
“ठहरो, ठहरो । जरा मुझे बात को तरीके से समझने दो । तुम ये कह रहे हो कि तुम्हारे छोटे भाई की पचास लाख रुपए की लाइफ-इंश्योरेंस पॉलिसी है जिसके नामिनी तुम हो ।”
“हां ।”
“यानी कि अगर तुम्हारा भाई शशिकांत मर जाए तो तुम्हें पचास लाख रुपए का क्लेम बीमा कंपनी से मिलेगा ।”

“किसी हादसे का शिकार होकर मरे तो एक करोड़ ।”
“तुम” मैं सख्त हैरानी से उसे घूरता हुआ बोला, “अपने भाई की मौत चाहते हो ?”
“हरगिज भी नहीं ।”
“फिर क्या बात बनी ?”
“बनी ।”
“कहीं तुम ये तो नहीं कहना चाहते कि तुमने ऐसी तरकीब सोच निकाली है जिससे तुम्हारा भाई तो नहीं मरेगा लेकिन बीमे की रकम फिर भी तुम्हें मिल जाती ।”
“काबिल आदमी है तू कोल्ली । आखिर समझ गया ।”
“मैं काफी देर से एक बात कहना चाहता था । मेरा नाम कोल्ली नहीं । कोहली है !”
“वही तो मैंने कहा । कोल्ली ।”

“ये कोल्ली वाला है पंजाबी में मेरा नाम कोहली है । कोहली । को.. ह.. ली । जैसे हल से हली और शुरू में को ।”
“की फर्क पैंदा ए ।”
“मेरे को फर्क पैंदा है । मैं नहीं चाहता कि कोई मेरे नाम की दुर्गत करके मेरे से मुखातिब हो ।”
“यार” वो झल्लाया “ये इतनी गंभीर बातचीत में तेरा नाम कहां से आ घुसा ?”
“मैंने घुसाया । कोहली नहीं कह सकते हो तो सुधीर कहो ।”
 
“ठीक है । सुधीर ।”
“अब आगे बढ़ो ।”
“देख । बात यूं है कि मैं अपनी मौजूदा जिन्दगी से ही नहीं, इस शहर से, इस मुल्क से ही किनारा कर जाना चाहता हूं । इस सिलसिले में शशिकांत सिंगापुर हो भी आया है और नकली नाम और नकली कागजात के जरिए खुद को वहां स्थापित कर भी चुका है । बीमे की रकम हासिल हो जाने के बाद उसे सिंगापुर पहुंचाने का पुख्ता इन्तजाम भी मैं कर चुका हूं । पहले शशिकांत सिंगापुर चला जाएगा । फिर बीमे की रकम का क्लेम मिल जाने के बाद मैं भी मधु को लेकर उसके पीछे वहां पहुंच जाऊंगा । यूं यहां की तमाम कानूनी पेचीदगियां और गैरकानूनी बखेड़े यहीं रह जाएंगे । आज की तारीख में ये मेरा आखिरी मकसद है । जिनका मैं कर्जाई हूं मैं उन्हें ढूंढ़े नहीं मिलूंगा । यूं मेरी जान भी सांसत से निकल जाएगी और अपनी बाकी की जिन्दगी चैन से गुजारने के लिए मेरे पास पचास लाख रुपया भी होगा ।”

“एक करोड़ ।” मैंने याद दिलाया ।
“पचास लाख । शशिकांत कोई सच में ही थोड़े मर जाएगा । आधा वो भी तो लेगा !”
“वो मरेगा नहीं तो बीमे की रकम कैसे मिलेगी ? जब मुर्दा नहीं होगा तो मौत कैसे स्थापित होगी ? इतनी बड़ी रकम का मामला है । मुर्दा तो बड़े चौकस तरीके से ठोक-बजाकर देखा जाएगा । यहां मर गया होने का कोई पाखंड या कोई एक्टिंग काम नहीं आने वाली ।”
“मुझे मालूम है ! ये तो बच्चा भी समझ सकता है कि मुर्दा होना जरूरी है, तू तो सौ सयानों का सयाना है, कोल्ली !..मेरा मतलब है सुधीर ।”

“मुर्दा कहां से आएगा ?”
“मेरा पहलवान कल रात फेल न हो गया होता तो मुर्दा आ ही गया था ।”
“तुम्हारा इशारा मेरी तरफ है !”
“जाहिर है । लेकिन मैं फिर कहता हूं । मेरी कोई जाती अदावत नहीं तेरे से ।”
“लेकिन...”
“ठहर । सुन ।” उसने जेब से एक तस्वीर निकाल कर मेरी गोद में डाल दी, “देख !”
मैंने तस्वीर देखी ।
“ये” मैं बोला, “मेरी तस्वीर...”
“ये” वो धीरे से बोला, “शशिकांत की तस्वीर है ।”
“ओह ! ओह !”
मैंने फिर तस्वीर पर निगाह डाली । इस बार मुझे अपनी और तस्वीर की सूरत में दो फर्क दिखाई दिए ।

तस्वीर में चित्रित व्यक्ति के ऊपरले होंठ पर शत्रुघ्न सिन्हा स्टाइल मूंछें थीं और हेयर स्टाइल जुदा था ।
“हेयरस्टाइल बदला जा सकता है ।” वो जैसे मेरे मन की बात भांपकर बोला, “मूंछें साफ की जा सकती हैं । बाकी कद-काठ, हड गोडे सब तेरे जैसे ही हैं शशिकांत के ।”
मैं सन्नाटे में आ गया ।
“तो ये बात है ।” मैं बोला, “मौत मेरी होगी और मरा हुआ शशिकांत समझा जाएगा ।”
“जाती कुछ नहीं, कोल्ली । जाती कुछ नहीं । तेरी शक्ल शशिकांत से न मिलती होती तो मैंने क्या लेना-देना था तेरे से !”
“मेरी जान इतनी सस्ती नहीं, मदान दादा ।”

“किसने कहा तेरी जान सस्ती है ! तेरी जान तो एक करोड़ रुपए की है ।”
“वो शशिकांत की जान है ।”
“एक ही बात है ।”
“नहीं है एक ही बात । तुम क्या समझते हो कि मैं यूं एकाएक गायब हो जाता तो मेरी कोई पूछ नहीं होती ?”
“कोल्ली । सुधीर । तेरे में ये भी एक खूबी हैं कि इस शहर में तेरा कोई सगेवाला नहीं ।”
“तो क्या हुआ ? यार-दोस्त तो हैं ।”
“लेकिन जिगरी कोई नहीं । मैंने पड़ताल की है । ऐसे यार-दोस्त किसी के एकाएक गायब हो जाने पर थोड़ा-बौत हैरान तो होते है, हलकान नहीं होते ।”

“मेरी सेक्रेट्री रजनी है जो मेरे पर जान छिड़कती है ।”
“गलत । वो तेरे पर नहीं, तू उस पर जान छिड़कता है ।”
“वहम है तुम्हारा । वो तो..”
“वहम है तो उसका भी जवाब है मेरे पास ।”
“क्या ?”
“ये चिट्ठी देख ।” जेब से एक लिफाफा निकालकर उसने मेरी गोद मे डाल दिया ।
मैंने देखा, लिफाफा बन्द था और उस पर रजनी का नाम और मेरी डिटेक्टिव एजेंसी, यूनिवर्सल इन्वेस्टिगेशंस का नाम और नेहरू प्लेस का पता लिखा हुआ था ।
“खोल ले ।” वो बोला, “इसकी जरूरत तभी थी जब पहलवान तुझे डिलीवर कर पाता, जब तू मेरे काबू में होता । अब तो ये बेकार है ।”

मैंने लिफाफा खोला ।
भीतर पाच-पाच सौ के नोटों की एक गड्डी थी और एक चिट्ठी थी । चिट्ठी टाइपशुदा थी, जिसमें लिखा था..
डियर रजनी,
एकाएक एक बहुत ही महत्वपूर्ण और पेचीदा केस हाथ लग गया है । जान जोखम का काम है लेकिन फीस लाखों में है । उस केस के सिलसिले में मैं तत्काल नेपाल जा रहा हूं । वहां से आगे बर्मा, थाईलैंड और फिर सिंगापुर जाऊंगा । कम से कम एक साल सारे योरोप के धक्के खाने का सिलसिला है । साल सुरक्षित गुजरा तो एक ही केस मुझे मालामाल कर देगा । आइंदा एक साल के दौरान तुमसे संपर्क का मौका मुझे शायद ही मिले इसलिए एक स्पेशल मैसेंजर के हाथ ये चिट्ठी भेज रहा हूं । चिट्ठी के साथ पचास हजार रुपए हैं जो एक साल तक ऑफिस का किराया और तुम्हारी तनखाह के खर्चे निकालने के लिए काफी होंगे । मेरी असाइनमेंट बहुत गोपनीय है, इसलिए इस बाबत किसी से कोई विस्तृत वार्तालाप न करना ।

शुभकामनाओं सहित ।
तुम्हारा एम्प्लायर
सुधीर कोहली ।
अपने हस्ताक्षर देख कर मेरे छक्के छूट गए ।
वो सौ फीसदी मेरे हस्ताक्षर थे ।
“अपने दस्तखत देखकर हैरान हो रहा है ?” वह बोला ।
“हो तो रहा हूं ।” मैं बोला ।
“मत हो । अरे जो जाली पासपोर्ट तैयार कर सकता हो, और सौ तरह के जाली कागजात तैयार कर सकता हो, उसके लिए तेरे दस्तखतों की नकल मार लेना क्या मुश्किल काम रहा होगा ।”
मैं खामोश रहा । मैने चिट्ठी तह कर के चिट्ठी और नोट लिफाफे में रखे । उसने बड़ी सफाई से लिफाफा मेरी गिरफ्त से निकाल लिया और वापस अपनी जेब में डाल लिया ।

“दस्तखतों का नमूना कैसे हासिल किया ?” मैं बोला ।
“क्या मुश्किल काम था ?” वह बोला, “सुधीर, कोई चिट्ठी लिखकर अगर तेरे से पूछे कि तू बतौर प्राइवेट जसूस क्या फीस ले के काम करता था तो उसे जवाब में चिट्ठी लिखेगा कि नहीं ?”
“लिखूंगा ।” मैं बोला ।
“और उस जवाबी चिट्ठी पर तेरे दस्तखत होंगे कि नहीं ?”
“होंगे ।”
“बस । मिल गया तेरे दस्तखतों का नमूना ।”
“तैयारियां, लगता है, काफी अरसे से चल रही हैं ।”
“चार महीने से । सब कुछ वाह-वाह चल रहा था । एक उस पहलवान के बच्चे की नालायकी ने सब गुड़ गोबर कर दिया । तुझे काबू में न रख सका ।”

“ये इकलौती चिट्ठी मेरे गायब हो जाने की मिस्ट्री पर लगे सब सवालिया निशान मिटा देती ?”
“इकलौती किसलिए, वीर मेरे । ऐसी एक चिट्ठी लगभग हर महीने कभी सिंगापुर से तो कभी हांगकांग से तो कभी लंदन से तेरी सैक्रेट्री के पास पहुंचती जिसमें तूने उसे ये खबर की होती कि तू कामयाबी की मंजिलें तो तय करता जा रहा था लेकिन जान-जोखम बढ़ता जा रहा था । फिर एकाएक चिट्ठियां आनी बंद हो जाती, कोल्ली... ”
“कोहली ।” मैं चिढकर बोला ।
“फिर इससे तेरी सेक्रेट्री क्या नतीजा निकालती ? वो यही सोचती न कि जोखम ने तेरी जान ले ली थी ? आखिरकार तेरी किस्मत तुझे दगा दे गई थी और तू परदेस में कहीं मर-खप गया था । कैसी रही ?”

मैं खामोश रहा ।
“आखिर वो तेरी सेक्रेट्री ही तो है, कोई ब्याहता बीवी तो नहीं जो तेरी लाश की बरामदी के अरमान के साथ महकमा-दर-महकमा टक्करें मारती फिरती ।”
रजनी से मेरी उम्मीदें बीवी से कहीं बढ़कर थीं, लेकिन फिर भी मेरा सिर सहमति में हिला ।
“तुम्हारा भाई” फिर मैंने पूछा, “मेरा मतलब है तुम्हारे भाई की जगह मैं, मरता कैसे ?”
“गोली खा के ।” वह बड़े इत्मीनान से बोला, “पहलवान तुझे शशिकांत की कोठी में ले जाता, तुझे वहां शशिकांत की जगह स्थापित करता और तुझे शूट कर देता ।”
“स्थापित करता क्या मतलब ?”
“तुझे जबरन तैयार कर के वो पहले सारी कोठी में तेरी उंगलियों के निशान फैलाता, फिर तुझे शशिकांत की कोई पोशाक पहनने को मजबूर करता, पोशाक की जेबों में शशिकांत के जाती इस्तेमाल की चीजे रखता, तुझे उसकी चेन पहनाता अंगूठी पहनाता, शशिकांत के नाम वाला ब्रेसलेट पहनाता और फिर तुझे यूं कत्ल कर देता जैसे वो काम कोठी में जबरन घुस आए किसी मवाली का था ।”

“पुलिस को ये बात हजम हो जाती ?”
“क्यो न होती ? मेरी तरह ही शशिकांत भी कई लोगों का कर्जाई है । राजेंद्रा प्लेस में हमारी जो नाईट क्लब वो चलाता था, वो भी सिंडीकेट के दबाव की वजह से बंद पड़ी है । पुलिस जरा-सी तफ्तीश करती तो उन्हें मालूम हो जाता कि पिछले कुछ अरसे से कत्ल कर दिए जाने की धमकियां उसे मुतवातर मिल रही थी । पुलिस यही समझती कि किसी ने अपनी धमकी पर खरा उतरकर दिखा दिया था ।”
“मेरे कत्ल के दौरान शशिकांत कहां होता ?”
“वो एयरपोर्ट की तरफ दौड़ा जा रहा होता जहां से उसने काठमांडू की दोपहरबाद की फ्लाइट पकड़नी थी । वो दो दिन नेपाल ठहरता और फिर अपने जाली पासपोर्ट के सदके सिंगापुर उड़ जाता ।”
 
“और तुम यहा भाई की मौत पर रो-रो के जान देने को आमादा उसकी - यानी कि मेरी - चिता की राख भी ठंडी होने से पहले इन्श्योरेंस क्लेम भर रहे होते ।”
“जाहिर है । लेकिन सब गुड़-गोबर हो गया । एक लल्लू पहलवान की लापरवाही से इतनी उम्दा स्कीम का कचरा बन गया ।”
“उसकी लापरवाही से या मेरी होशियारी से ?”
“इक्को गल ए । खेल तो चौपट हो गया । सुधीर, वैसे तू अभी भी मान जाए तो बिगड़ी बात बन सकती है ।”
“मान जाऊं ! क्या मान जाऊं ?”
“लाश की जगह लेने के लिए । मैं तेरी कोई भी फीस भरने के लिए तैयार हूं ।”

“क्या कहने ! अरे, जब मैं ही नहीं रहूंगा तो फीस मेरे किस काम आएगी ?”
“कोल्ली, तू इतना बड़ा जसूस है, कोई ऐसी तरकीब सोच न जिससे लाश भी रहे, तू भी रहे और फीस भी तेरे काम आए ।”
“कहीं इसी चक्कर में तो तुम मुझे मेटकाफ रोड नहीं ले जा रहे कि मैं ऐसी कोई तरकीब सोचूं ?”
“इसी चक्कर में ले जा रहा हूं ।”
“ये काम तुम्हारे फ्लैट में ही नहीं हो सकता था ?”
“कैसे होता ? वहां शशिकांत जो नहीं था ।”
“बुलवा लेते उसे ।”
वो खामोश रहा ।
“लगता है” मैं बोला, “अपनी खूबसूरत बीवी के मामले में तुम्हे किसी का भरोसा नहीं । अपने भाई का भी नहीं ।”

उसके चेहरे पर झुंझलाहट के भाव आए ।
“तुम्हारा पहलवान ठीक कहता था ।”
“क्या?” वो उखड़े स्वर में बोला, “क्या कैत्ता था ?”
“यही कि मदान साहब बैठा है सांप की तरह कुंडली मारकर हुस्नो-शबाब की दौलत पर ।”
“लनतरानियां छोड़ कोल्ली, मतलब की बात कर । सोच कोई तरकीब जिससे लाश भी रहे, तू भी रहे और फीस भी तेरे काम आए ।”
“ऐसी कोई तरकीब मुमकिन नहीं ।”
“कोई तो होगी । अकल लड़ा । जोर दे दिमाग पर । निकाल कोई तरकीब । मैं तेरी कोई भी फीस भरने को तैयार हूं । और..”
वो ठिठका ।

“और क्या?” मैं तनिक उत्सुक भाव से बोला ।
“पहलवान को छोड़ ।”
“क्या कहने ! पहलवान छूट गया तो मेरे पास क्या रह गया तुम्हारे खिलाफ ?”
“ओए वीर मेरे, तू मेरे खिलाफ होना क्यों चात्ता है ? अब तो हम तीनों इकट्ठे हैं ।”
“तीनों ! कौन तीनों ?”
“मैं, शशिकांत और तू ।”
“मैं, शशिकांत और मधु कहा होता तो कोई बात भी होती ।”
“मैं, शशिकांत और” वो सख्ती से बोला, “तू ।”
“अफसोस । अफसोस ।”
“कोल्ली, मैंने क्या कहा था ?”
“क्या कहा था ?”
“नीयत मैली नहीं करनी । भूल गया ?”
“पहले भूल गया था । अब फिर याद आ गया है ।”

“वदिया । तो समझ गया ? अब तो हम तीनों - मैं, शशिकात और तू - इकट्ठे हैं ।”
“किसने कहा ?”
“क्या ?”
“कि हम तीनों इकट्ठे हैं ?”
“नहीं हैं ?”
“बिल्कुल भी नहीं हैं । जो शख्स मेरी जान लेने पर आमादा हो, वो तो मेरा घोर शत्रु हुआ ।”
“यार, अब तो वो कहानी खत्म हो गई ।”
“तुम्हारी तरफ से खत्म हो गई । मेरी तरफ से तो..”
“तू भी खत्म कर न, वीर मेरे । तू ऐसा कर, तू बीमे की रकम हथियाने की कोई कारआमद तरकीब सुझा और अपनी फीस खुद मुकर्रर कर ले ।”

“कोई भी फीस ?”
“कोई भी वाजिब फीस ।”
मैं सोचने लगा ।
“मेटकाफ रोड आ गई है । तीनों मिल के सोचते है कोई तरकीब ।”
मैने बेध्यानी में सहमति में सिर हिला दिया ।
मर्सिडीज एक कोठी के सामने पहुंची । कोठी एक मंजिली थी, पुराने स्टाइल की थी और बहुत बड़े प्लाट के बीच मे बनी हुई थी । कोठी के सामने एक विशाल लॉन था जिस के बीच में से गुजरता ड्राइव-वे कोठी तक पहुंचता था । ड्राइव-वे के दोनों ओर ऊचे पेड़ थे और उसके सड़क की ओर वाले सिरे पर एक आयरन गेट था जो कि उस वक्त पूरा खुला हुआ था ।

“फाटक खुला है ।” मैं बोला ।
“तो क्या हुआ ?” वो अनमने स्वर में बोला ।
“क्यों ?”
“क्यों क्या ? ये तो खुला ही रहता है । कोई खराबी है इसमें । झूल के अपने आप पूरा खुल जाता है । ताला लगा हो तो ही अपनी जगह टिकता है ।”
“ठीक क्यों नहीं कराता तुम्हारा भाई ?”
“क्या जरूरत है ? तूने सब घपला न कर दिया होता तो आज के बाद किसने रहना था यहां ।”
मैं खामोश हो गया ।
मदान ने कार को फाटक के भीतर डाला और कोठी के सामने पोर्टिको में ले जाकर रोका । हम दोनों कार से बाहर निकलकर कोठी के मुख्यद्वार पर पहुचे । मदान ने कॉलबैल बजाई ।

कोई प्रतिक्रिया सामने न आई ।
उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह डाली ।
“हम जल्दी आ गए ।” वो बोला, “कहीं अभी तक सो ही न रहा हो । आलसी बहुत है शशिकांत ।”
मै खामोश रहा ।
उसने फिर कॉलबैल बजाई और दरवाजे को धक्का दिया ।
दरवाजा निशब्द खुल गया ।
मदान तनिक सकपकाया और फिर भीतर दाखिल हुआ । मैं उसके पीछे हो लिया ।
वो हमें स्टडी की तरह सुसज्जित एक कमरे में मिला । वहां एक विशाल मेज लगी हुई थी जिसके पीछे लगी एक एग्जीक्यूटिव चेयर पर वो बैठा हुआ था । उसका सिर उसकी छाती पर झुका हुआ था और लगता था कि वो कुर्सी पर बैठा बैठा ऊंघ गया था और फिर सो गया था ।
 
“गड़बड़ हो गई शशि” मदान एक क्षण दरवाजे की चौखट पर ठिठका और फिर आगे मेज की ओर बढ़ता हुआ बोला, “हमारा बंदा आया तो है लेकिन स्कीम के मुताबिक लाया नहीं गया । खुद चल के आया है । उस हबीब के बच्चे ने सब गुड़ गोबर कर दिया...”

तब तक मदान मेज के पीछे उसकी कुर्सी के करीब पहुंच गया था । उसने शशिकांत के कंधे पर हाथ रखा तो वो निशब्द आगे को लुढ़क गया और औंधे मुंह सामने मेज पर जाकर पड़ा ।

मदान फटी-फटी आंखो से औंधे मुंह लुढके हुए निश्चेष्ट शरीर को देख रहा था ।

“दौरा पड़ गया ।” फिर वह आतंकित भाव से बोला, “डॉक्टर को फोन करता हूं ।

“ठहरो !” मैं एकाएक बोला ।
वह ठिठका ।

मैंने झुककर अचेत शरीर का मुआयना किया । मैंने गरदन के करीब उसकी शाहरग को छुआ । मैंने उसकी नब्ज टटोली । अंत में मैंने उसे कुर्सी पर पूर्ववत सीधा किया ।

“इसे कोई दौरा-वौरा नहीं पड़ा ।” मैं बोला, “इसे शूट किया गया है ।”

उसके चेहरे पर हाहाकारी भाव प्रकट हुए ।

“मुबारक हो ।” मैं बोला ।

“किस बात की ?” वो बौखलाया ।

“करोड़पति बनने की । वो भी ऐसे कि कोई धोखाधड़ी का खेल भी नहीं खेलना पड़ा बीमा कम्पनी से । असली बीमांकित व्यक्ति की ट्वेंटी फोर कैरेट खालिस लाश तुम्हारे सामने पड़ी है यही तो था तुम्हारा आखिरी मकसद !”

“क्या बकता है ?”

“बकता कहो या फरमाता, ये हकीकत अपनी जगह कायम है कि तुम्हारे जिस भाई का तुम्हारे हक में पचास लाख का बीमा है, वो तुम्हारे सामने मरा पड़ा है ।”

“य..ये पक्की बात है कि ये मर गया है ?”

“हां ।”

“क...कैसे ?”

“कहा न इसे शूट किया गया है । एक गोली ऐन इसके दिल के ऊपर लगी है । छाती में बने सुराख से मालूम होता है कि रिवॉल्वर 22 कैलीबर की थी । बाईस कैलिबर की रिवॉल्वर जनाना हथियार माना जाता है । गोली ऐन दिल में से ही न गुजर गई होती तो ये कभी न मरता ।”

“फिर तो ये किसी पक्के निशानेबाज का काम हुआ ?”

“नहीं । ये तो किसी निपट अनाड़ी का काम मालूम होता है ।”

“क्या कहता है ! जब गोली ऐन दिल में से...”
“यहां एक नहीं, कई गोलियां चली मालूम होती हैं । लगता है किसी ने रिवॉल्वर का रुख इसकी तरफ किया और वो तब तक घोड़ा खींचता रहा जब तक कि गोलियां खत्म न हो गई ।”
“क...कैसे....कैसे कहां ?”
“रिवॉल्वर से निकली हर गोली कहीं न कहीं टकराई है । देखो, एक गोली मेज पर रखे कलमदान के चार होल्डरों में से एक को, दाएं कोने वाले को, लगी है और वो वहां से उखड़कर परे जा के गिरा है । एक गोली पीछे दीवार पर टंगे सजावटी वाललैंप से टकराई है । एक गोली बायीं दीवार पर लगी भागते घोड़ों की तस्वीर में सबसे अगले घोड़े के ऐन माथे में लगी है । एक और गोली ने कुर्सी के पीछे दीवार के साथ लगी वाल कैबिनेट के बाएं कोने में रखे सजावटी घुड़सवार का सिर उड़ा दिया है । और एक और गोली वाल कैबिनेट के दाएं कोने में रखे एटलस के बुत के सिर पर धरती के रूप में लदी घड़ी में लगी है...ये घड़ी काम करती थी ?”

“बढ़िया । एंटीक आइटम है । ग्लोब की तरह बनी ये घड़ी पुराने जमाने की है जिसमें कि चाबी भरी जाती है । सुइयां भी चाबी से ही आगे-पीछे सरकती हैं । इसे...इसे ये घड़ी बहुत पसन्द थी । हमेशा इसका राइट टाइम चैक करके रखता था । कभी एक सैकेंड भी आगे-पीछे नहीं होती थी ये ।”
“यानी कि गोली लगने से पहले ये चल रही होगी ?”
“यकीनन ।”
“और राईट टाइम दे रही होगी ?”
“पक्की बात ।”
“इस वक्त ये आठ अट्ठाईस पर रुकी हुई है । घड़ी, जाहिर है कि गोली लगने से ही रुकी है । इस का साफ और सीधा मतलब ये है कि ये गोलीबारी आठ अट्ठाइस पर हुई थी ।”

“कोई” वो अपनी कलाई घड़ी देखता हुआ बोला, दो घंटे पहले ।”
“लाश एकदम ठण्डी है और अकड़ी हुई है । इस हालत में लाश दो घंटे में नहीं पहुंच सकती ।”
“यानी कि” वो नेत्र फैलाकर बोला, “घड़ी पिछली शाम का वक्त देती रुकी है । ये कल रात का यहां मरा पड़ा है ।”
“ऐसा ही मालूम होता है ।”
“तौबा ।”
जो गोली मैटल के होल्डर से टकराई थी, वो कहीं धंसी नहीं थी । वो होल्डर से छिटककर फर्श पर जा गिरी थी । मैंने घुटनों केबल बैठकर ऐन गोली तक झुककर उसका मुआयना किया ।
 
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