desiaks
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“ऐसे बड़े गैंगस्टर भी उसकी आंख में डंडा किए हैं ?”
“पूरा पूरा ।”
“क्यों ?”
“उनकी माकूल खिदमत नहीं की । उनसे बाहर जा के अपना वजूद बनाने की कोशिश की । वो खफा हो गए । नतीजतन दो नम्बर के तमाम धंधों से मदान को अपना हाथ खींचना पड़ा । न खींचता तो बड़े दादाओं के हाथों कुत्ते की मौत मरता ।”
“और ?”
“और ऊपर से सरकार से पीछे पड़ गई । टैक्स वाले पीछे पड़ गए । कुछ गलत किस्म की लीडरान की शह पर कई सरकारी महकमात में ऐसे पंगे फंसा बैठा कि दिल्ली के लाट साहब तक खफा हो गए उससे और ऐसे ऐसे हुक्म फरमा बैठे कि आइन्दा दिनों में मदान साहब को रोटी के लाले पड़ जाएं तो बड़ी बात नहीं ।”
“कमाल है ।”
उसने थूक की एक और पिचकारी छोड़ी ।
“और ?” मैं मंत्रमुग्ध सा बोला ।
“और कोढ़ में खाज जैसा काम ये किया” वो धीरे से बोला, “कि बुढौती में ऐसी कड़क नौजवान छोकरी से शादी कर ली जो हीरे-जवाहरात जड़ी पौशाकें पहनती है, सोने का निवाला खाती है ।”
“कितनी उम्र होगी मदान की ?”
“पचपन के पेटे में तो शर्तिया है ।”
“और छोकरी ? “
“वो है कोई तेईस चौबीस साल की ।”
“बहुत खूबसूरत है ?”
“ताजमहल देखा है ?”
“हां ।”
“कैसा है ?”
“ओह ! इतनी खूबसूरत है ?”
“इससे ज्यादा । इतनी ज्यादा खूबसूरत है कि देखकर ही यकीन आता है ।”
“मैं देखूंगा ।”
“बस देख ही पाएगा । और उसे भी अपनी खुशकिस्मती समझना ।”
“पहलवान ! इस पंजाबी पुत्र की” मैंने अपनी छाती ठोकी, “खुशकिस्मती का जुगराफिया बड़ा टेढ़ा है । खासतौर से खूबसूरत औरतों के मामले में ! आखों में ऐसा मिकनातीसी सुरमा लगाता हूं कि एक बार कोई आंखों में झांक ले तो कच्चे धागे से बंधी पीछे खिंची चली आए । बल्कि कच्चे धागे की भी जरूरत नहीं ।”
वो खामोश रहा । प्रत्यक्षत: मेरी वैसी किसी खूबी से उसे कोई इत्तफाक नहीं था ।
“शादी क्यों की ?” मैंने नया सवाल किया, “खूबसूरत औरत को हासिल करने के लिए मदान जैसे अण्डरवर्ल्ड डान कहीं शादी के बंधन में बंधते हैं !”
“नहीं बंधते । मदान साहब की भी ऐसी कोई मर्जी नहीं थी । लेकिन और किसी तरीके से वो छोकरी पुट्ठे पर हाथ ही नहीं रखने देती थी मदान साहब को । उसको हासिल करने की वाहिद शर्त शादी थी मदान साहब के सामने ।”
“अपना जलाल दिखाया होता ।”
“दिखाया था । काम न आया । मदान साहब उसकी पीठ पीछे गरजता था कि उठवा दूंगा, बोटी-बोटी काटकर चील कौवों को खिला दूंगा, ये कर दूंगा, वो कर दूंगा, लेकिन जब छोकरी के सामने पड़ता था तो भीगी बिल्ली की तरह मिमियाने लगता था । जादू कर दिया था अल्लामारी ने मदान साहब पर । सात फेरों के लपेटे में लेकर ही मानी कमबख्त मदान साहब को ।”
“थी कौन ? करती क्या थी ?”
“चिट्ठियां ठकठकाती थी पुनीत खेतान के दफ्तर में ।”
“टाइपिस्ट थी ?”
“यही होगी अंग्रेजी में ।”
“और ये पुनीत खेतान कौन साहब हुए ?”
“खेतान साहब मदान साहब का कोई नावें-पत्ते का सलाहकार है और कोरट कचहरी की भी कोई सलाह मदान साहब को चाहिए होती है तो मदान साहब उसी के पास जाता है ।”
“फाइनांशल एंड लीगल एडवाइजर !”
“वही होगा अंग्रेजी में ।”
“इतनी खूबसूरत लड़की उसकी मुलाजमत में थी तो उसने नहीं हाथ रखा उस पर ?”
“कोशिश तो जरूर की होगी । खीर का कटोरा सामने पाकर कोई उसमें चम्मच मारने की कोशिश से बाज आता है !”
“यानी कि कोशिश करने वाले कई थे लेकिन वो खीर खाई मदान साहब ने ही ।”
“यही समझ ले ।” वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला, “वैसे मुझे तो अफसोस ही हुआ था !”
“क्यों ?”
“अरे, इतना वड़ा दादा, इतना बड़ा साहब, गिरा तो एक चिट्ठियां ठकठकाने वाली छोकरी की जूतियों में जाकर ! और छोकरी भी कम्बख्त ऐसी खर्चीली कि देख लेना मदान साहब को नंगा करके छोड़ेगी । लाखों रुपये से कम कीमत की चीज की ख्वाहिश ही नहीं करती पट्ठी । और वो भी मदान साहब की ऐसी हालत के दिनों में जबकि न धंधा साथ दे रहा है न तकदीर !”
“विनाशकाले विपरीत बुद्धि ।”
“क्या ?”
“कुछ नहीं । तो पट्ठा बुझती चिलम में फूंके मार-मार के नौजवानी के मजे लूट रहा है । हजम हो या ना हो, खीर खा रहा है ।”
“हां । फिलहाल तो बैठा है सांप की तरह कुंडली मारकर हुस्नो-शबाब की दौलत पर ।”
“वाह, खलीफा ! बहुत उम्दा जुमला कसा । और अभी कहते हो कि अनपढ़ हूं ।”
वो दांत निकालकर एक भद्दी-सी हंसी हसा ।
“यूं तो” मैं बोला, “तेरा उम्रदराज बॉस कभी हुस्न के सैलाब में बह जाएगा, जोबन के पहलू में दम तोड़ देगा ।”
“कोई बड़ी बात नहीं ।”
“पहले तो वो देवनगर में कहीं रहता था । अब भी वहीं रहता है ?”
“नहीं । अब तो वो एक होटल में रहता है ।”
“कौन से होटल में ?”
“जो बाराखम्भा रोड पर नया बना है । उसकी सबसे ऊपरली मंजिल तमाम की तमाम मदान साहब के कब्जे में है ।”
“और कौन रहता है वहां ?”
“कोई नहीं ।”
“भाई भी नहीं ?”
“वो तो अलग कोठी में रहता है ।”
“कहां ।”
“मेटकाफ रोड । कोठी नंबर दस ।”
“जहां कि तू मुझे दिन के ग्यारह बजे पहुंचाने वाला था ?”
“हां ।”
“छोटे भाई का नाम क्या है ?”
“शशिकांत ।”
“शादीशुदा है ?' “
“नहीं ।”
“वहां मेटकाफ रोड पर अकेला रहता है ?”
“हां ।”
“भाई के पास क्यों नहीं रहता ?”
“वजह नहीं मालूम ।”
“अब साथ नहीं रहता या पहले भी साथ नहीं रहता था ?”
“जहां तक मुझे मालूम है, पहले भी साथ नहीं रहता था ।”
“मेरे अगवा का हुक्म तुझे लेखराज मदान से मिला लेकिन मुझे अगवा करके तूने मुझे उसके छोटे भाई की कोठी पर पहुंचाना है । ऐसा क्यों ? उसी के पास क्यों नहीं जिसने कि अगवा का हुक्म दिया ?”
“पूरा पूरा ।”
“क्यों ?”
“उनकी माकूल खिदमत नहीं की । उनसे बाहर जा के अपना वजूद बनाने की कोशिश की । वो खफा हो गए । नतीजतन दो नम्बर के तमाम धंधों से मदान को अपना हाथ खींचना पड़ा । न खींचता तो बड़े दादाओं के हाथों कुत्ते की मौत मरता ।”
“और ?”
“और ऊपर से सरकार से पीछे पड़ गई । टैक्स वाले पीछे पड़ गए । कुछ गलत किस्म की लीडरान की शह पर कई सरकारी महकमात में ऐसे पंगे फंसा बैठा कि दिल्ली के लाट साहब तक खफा हो गए उससे और ऐसे ऐसे हुक्म फरमा बैठे कि आइन्दा दिनों में मदान साहब को रोटी के लाले पड़ जाएं तो बड़ी बात नहीं ।”
“कमाल है ।”
उसने थूक की एक और पिचकारी छोड़ी ।
“और ?” मैं मंत्रमुग्ध सा बोला ।
“और कोढ़ में खाज जैसा काम ये किया” वो धीरे से बोला, “कि बुढौती में ऐसी कड़क नौजवान छोकरी से शादी कर ली जो हीरे-जवाहरात जड़ी पौशाकें पहनती है, सोने का निवाला खाती है ।”
“कितनी उम्र होगी मदान की ?”
“पचपन के पेटे में तो शर्तिया है ।”
“और छोकरी ? “
“वो है कोई तेईस चौबीस साल की ।”
“बहुत खूबसूरत है ?”
“ताजमहल देखा है ?”
“हां ।”
“कैसा है ?”
“ओह ! इतनी खूबसूरत है ?”
“इससे ज्यादा । इतनी ज्यादा खूबसूरत है कि देखकर ही यकीन आता है ।”
“मैं देखूंगा ।”
“बस देख ही पाएगा । और उसे भी अपनी खुशकिस्मती समझना ।”
“पहलवान ! इस पंजाबी पुत्र की” मैंने अपनी छाती ठोकी, “खुशकिस्मती का जुगराफिया बड़ा टेढ़ा है । खासतौर से खूबसूरत औरतों के मामले में ! आखों में ऐसा मिकनातीसी सुरमा लगाता हूं कि एक बार कोई आंखों में झांक ले तो कच्चे धागे से बंधी पीछे खिंची चली आए । बल्कि कच्चे धागे की भी जरूरत नहीं ।”
वो खामोश रहा । प्रत्यक्षत: मेरी वैसी किसी खूबी से उसे कोई इत्तफाक नहीं था ।
“शादी क्यों की ?” मैंने नया सवाल किया, “खूबसूरत औरत को हासिल करने के लिए मदान जैसे अण्डरवर्ल्ड डान कहीं शादी के बंधन में बंधते हैं !”
“नहीं बंधते । मदान साहब की भी ऐसी कोई मर्जी नहीं थी । लेकिन और किसी तरीके से वो छोकरी पुट्ठे पर हाथ ही नहीं रखने देती थी मदान साहब को । उसको हासिल करने की वाहिद शर्त शादी थी मदान साहब के सामने ।”
“अपना जलाल दिखाया होता ।”
“दिखाया था । काम न आया । मदान साहब उसकी पीठ पीछे गरजता था कि उठवा दूंगा, बोटी-बोटी काटकर चील कौवों को खिला दूंगा, ये कर दूंगा, वो कर दूंगा, लेकिन जब छोकरी के सामने पड़ता था तो भीगी बिल्ली की तरह मिमियाने लगता था । जादू कर दिया था अल्लामारी ने मदान साहब पर । सात फेरों के लपेटे में लेकर ही मानी कमबख्त मदान साहब को ।”
“थी कौन ? करती क्या थी ?”
“चिट्ठियां ठकठकाती थी पुनीत खेतान के दफ्तर में ।”
“टाइपिस्ट थी ?”
“यही होगी अंग्रेजी में ।”
“और ये पुनीत खेतान कौन साहब हुए ?”
“खेतान साहब मदान साहब का कोई नावें-पत्ते का सलाहकार है और कोरट कचहरी की भी कोई सलाह मदान साहब को चाहिए होती है तो मदान साहब उसी के पास जाता है ।”
“फाइनांशल एंड लीगल एडवाइजर !”
“वही होगा अंग्रेजी में ।”
“इतनी खूबसूरत लड़की उसकी मुलाजमत में थी तो उसने नहीं हाथ रखा उस पर ?”
“कोशिश तो जरूर की होगी । खीर का कटोरा सामने पाकर कोई उसमें चम्मच मारने की कोशिश से बाज आता है !”
“यानी कि कोशिश करने वाले कई थे लेकिन वो खीर खाई मदान साहब ने ही ।”
“यही समझ ले ।” वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला, “वैसे मुझे तो अफसोस ही हुआ था !”
“क्यों ?”
“अरे, इतना वड़ा दादा, इतना बड़ा साहब, गिरा तो एक चिट्ठियां ठकठकाने वाली छोकरी की जूतियों में जाकर ! और छोकरी भी कम्बख्त ऐसी खर्चीली कि देख लेना मदान साहब को नंगा करके छोड़ेगी । लाखों रुपये से कम कीमत की चीज की ख्वाहिश ही नहीं करती पट्ठी । और वो भी मदान साहब की ऐसी हालत के दिनों में जबकि न धंधा साथ दे रहा है न तकदीर !”
“विनाशकाले विपरीत बुद्धि ।”
“क्या ?”
“कुछ नहीं । तो पट्ठा बुझती चिलम में फूंके मार-मार के नौजवानी के मजे लूट रहा है । हजम हो या ना हो, खीर खा रहा है ।”
“हां । फिलहाल तो बैठा है सांप की तरह कुंडली मारकर हुस्नो-शबाब की दौलत पर ।”
“वाह, खलीफा ! बहुत उम्दा जुमला कसा । और अभी कहते हो कि अनपढ़ हूं ।”
वो दांत निकालकर एक भद्दी-सी हंसी हसा ।
“यूं तो” मैं बोला, “तेरा उम्रदराज बॉस कभी हुस्न के सैलाब में बह जाएगा, जोबन के पहलू में दम तोड़ देगा ।”
“कोई बड़ी बात नहीं ।”
“पहले तो वो देवनगर में कहीं रहता था । अब भी वहीं रहता है ?”
“नहीं । अब तो वो एक होटल में रहता है ।”
“कौन से होटल में ?”
“जो बाराखम्भा रोड पर नया बना है । उसकी सबसे ऊपरली मंजिल तमाम की तमाम मदान साहब के कब्जे में है ।”
“और कौन रहता है वहां ?”
“कोई नहीं ।”
“भाई भी नहीं ?”
“वो तो अलग कोठी में रहता है ।”
“कहां ।”
“मेटकाफ रोड । कोठी नंबर दस ।”
“जहां कि तू मुझे दिन के ग्यारह बजे पहुंचाने वाला था ?”
“हां ।”
“छोटे भाई का नाम क्या है ?”
“शशिकांत ।”
“शादीशुदा है ?' “
“नहीं ।”
“वहां मेटकाफ रोड पर अकेला रहता है ?”
“हां ।”
“भाई के पास क्यों नहीं रहता ?”
“वजह नहीं मालूम ।”
“अब साथ नहीं रहता या पहले भी साथ नहीं रहता था ?”
“जहां तक मुझे मालूम है, पहले भी साथ नहीं रहता था ।”
“मेरे अगवा का हुक्म तुझे लेखराज मदान से मिला लेकिन मुझे अगवा करके तूने मुझे उसके छोटे भाई की कोठी पर पहुंचाना है । ऐसा क्यों ? उसी के पास क्यों नहीं जिसने कि अगवा का हुक्म दिया ?”