desiaks
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“अरे कोई राम सलाम नहीं, कोई नमस्ते नहीं, कोई गुड मार्निंग नहीं । ईंट मार दी । बोलिए । मैं तुम्हारा एम्प्लायर हूं या तुम्हारा दूध वाला हूं ?”
“आप मेरे दूध वाले होते तो फिर मैं ऐसे थोड़े ही बोलती !”
“फिर कैसे बोलती ?”
“फिर मैं कहती नमस्ते चाचाजी ।”
“चाचाजी !”
“हां । आप मेरे चाचा जी बनना चाहते हैं ?”
“अरे, जहन्नुम में गया तेरा चाचा जी मूड खराब कर दिया ।”
“सारी ।”
“कहती है सारी ।”
“आप अगर इस वक्त अपने एम्प्लोयर की फोन कॉल रिसीव करने का मेरा पोज देख पाते तो खुश हो जाते । फिर न कहते कि ईंट मार दी ।
“देख पाता तो क्या देखता मैं ?”
“आप देखते कि मैं सावधान की मुद्रा में खडी हूं । मेरा दायां हाथ सैल्यूट की सूरत में मेरे माथे पर है और मैं थर-थर कांप रही हूं ।
“रजनी मैं जो सवेरे दफ्तर नहीं पहुंचा, तूने कोई फिक्र की इत बात की ?”
“बहुत फिक्र की ।”
“फिक्र की तो क्या किया ?”
“सारे बड़े अस्पतालों की केजुअलटी पर फोन किया आस-पास के सारे थानों से पूछताछ की । अभी डायरेक्ट्री में तिहाड़ जेल का नम्बर देख रही थी कि आपका फोन आ गया ।”
“लानत ! लानत !”
“अब आप कहां से बोल रहे हैं ? इन्ही जगहों में से किसी में से या कहीं और से ?”
“कहीं और से ।”
“शुक्र है भगवान का । जान मे जान आ गई ।”
“कम से कम ये तो पूछना था कहीं और से कहां से ।”
“होंगे आप किसी नई बहन जी के पहलू में । हफ्ता दस दिन तो अब दफ्तर क्या आ पाएंगे आप !”
“अहमक ! जानती नहीं कि मैं मरता-मरता बचा हूं ।”
“अच्छा !”
“हां । वो रात को ....”
“जरूर कोई विषकन्या पल्ले पड़ गई होगी इस बार ।”
“तौबा ! तेरे से तो बात करना भी गुनाह है । एक नंबर की कम्बख्त औरत है तू ।”
“करेक्शन । एक नंबर की नहीं हूं । औरत नहीं हूं ।”
“लेकिन कम्बख्त है ।”
“बन गई हूं कुछ-कुछ आपकी सोहबत में ।”
“अब ये बात अभी कितनी बार कहेगी ?”
“जितनी बार आप मुझे ये एक नम्बर की कम्बख्त औरत वाला फिकरा कहेंगे ।”
“ठीक है, मर ।”
“खड़े खड़े ? सावधान और सैल्यूट की मुद्रा में थर थर कांपते हुए ?”
“जैसे मुझे यकीन आ गया है कि तू ऐसे खड़ी है ।”
“आके तसदीक कर लीजिये ।”
“आना जैसे आसान है ।”
“जो बहन जी आने से रोके हुए हैं, वो इजाजत दे तो कोई दिव्यदृष्टि पैदा कीजिये अपने आपमें ।”
“क्या मुश्किल काम है ?” मैं व्यंगपूर्ण स्वर में बोला ।
“आपके लिये । आखिर इतने बड़े जासूस हैं आप ।”
तभी मुझे सीढियां उतरती सुजाता दिखाई दी ।
“ठीक है ।” मैं बोला, मैं आके खवर लेता हूं तेरी ।” मैंने फोन हुक पर टांग दिया ।
***
मैं फ्लैग स्टाफ रोड पहुंचा ।
कृष्णबिहारी माथुर की कोठी पर एक निगाह पड़ते ही मुझे कबूल करना पड़ा कि मदान ने उसके बारे में गलत नहीं कहा था । वो भव्य, विशाल कोठी जिसके सामने मैं उस घड़ी खड़ा था, यकीनन किसी बादशाह के आवास के ही काबिल हो सकती थी ।
गरीब आदमी के लिए पैसा भगवान है लेकिन दौलतमंद के लिए पैसे का रोल बड़ा सीमित होता है । दौलतमंद की जिदगी में दौलत की एक ऐसी स्टेज आ जाती है, जबकि बतौर दौलत वो यूजलेस शै बन जाती है, तब उसका कोई इस्तेमाल मुमकिन होता है तो यही कि उससे और दौलत कमाई जा सकती है । दौलतमंद को जरूर इस बात का अफसोस रहता होगा कि खुदा ने उसका दस मुंह और बीस पेट क्यों न दिए, वो चांदी घोल के क्यों नहीं पी सकता, सोने का निवाला क्यो नहीं खा सकता, हीरे जवाहरात क्यों नहीं चबा सकता ? शायद यही वजह है कि दौलतमंद आदमी अपनी दौलत का सबसे व्यापक और भौंडा प्रदर्शन इमारत बनाने और औलाद की शादी करने पर करता है ।
वल्गर डिस्पले ऑफ वेल्थ का एक नमूना माथुर की कोठी की सूरत में उस वक्त मेरे सामने मौजूद था । कोठी दोमंजिला थी और एक कोई पांच हजार गज के प्लाट के बीचों-बीच ताजमहल की तरह खड़ी थी । आयरन गेट से कोठी तक पहुचते ड्राइव-वे के दायें-बायें ऊचे-ऊचे पेड़ थे और मखमली घास था, खूबसूरत फूल थे, फव्वारे थे और संगमरमर की प्रस्तर प्रतिमाएं थीं । दिल्ली शहर में उस ढंग से उतनी जगह में बनी दूसरी इमारत जरूर राष्ट्रपति भवन ही होगा ।
आयरन गेट पर खड़े सशस्त्र गोरखे को मैंने अपना परिचय दिया ।
जैसा कि हुक्म हुआ था, आधे घंटे बाद मैं वहां फोन करके आया था और मेरी माथुर से मुलाकात की दरख्वास्त कबूल हो चुकी थी ।
चौकीदार ने मुझे भीतर दाखिल हो लेने दिया, एक वर्दीधारी नौकर को वहां तलब किया और मुझे उसके हवाले कर दिया । नौकर मुझे एक रेलवे प्लेटफार्म जितने बड़े ड्राइंगरूम में ले गया ।
“आप यहां बैठिए ।” वह बड़े अदब से बाला, “मैं भीतर खबर करता हूं ।”
मैने सहमति में सिर हिलाया लेकिन मैने बैठने का उपक्रम नहीं किया ।
नौकर वहां से विदा हो गया ।
मै सोचने लगा ।
हालात बड़े उम्मीद अफजाह थे । ये बड़ा सुखद संयोग था कि मर्डर वैपन का मालिक एक रईस आदमी निकला था । युअर्स ट्रूली को कोई अतिरिक्त चार पैसे हासिल होने की उम्मीद किसी रईस आदमी से ही हो सकती थी । कड़के से क्या हासिल होता !
मुझे सिगरेट की तलब लग रही थी लेकिन वहां कहीं ऐश-ट्रे न दिखाई दे रही होने की वजह से मुझे अपने पर जब्त करना पड़ रहा था इतनी शानदार जगह पर सिगरेट की राख बिखराने की जुर्रत आपके खादिम से नहीं हो रही थी ।
कुछ क्षण जब वही पहले वाला नौकर ट्रे पर कोल्ड ड्रिंक का एक गिलास रख वपिस लौटा ।
उसने ट्रे मुझे पेश की ।
मैंने गिलास उठा लिया ओर बोला, “ऐश ट्रे ।”
उसने एक सोफे के सामने पड़ी शीशे की मेज की तरफ इशारा किया ।
वहां कांसे का बना एक हाथी पड़ा था । हाथी का हौदा ऐश ट्रे की तरह इस्तेमाल होने के लिए बना था ।
तौबा । मैंने जिसे सजावटी मुजस्मा समझा था, वो ऐश ट्रे निकली थी ।
“मैंने नायर साहब को खबर कर दी है ।” नौकर बोला, “आगे वही आपसे बात करेंगे ।”
“नायर साहब कौन हैं ?” मैंने पूछा ।
“साहब के प्राइवेट सैक्रेट्री हैं ।”
“ओह ।”
नौकर फिर वहां से रुखसत हो गया ।
कोल्ड ड्रिंक का गिलास मैंने हाथीनुमा ऐश ट्रे वाली मेज पर रखा और उसके सामने एक सोफे पर ढेर हो गया । मैने अपना डनहिल का पैकेट निकालकर एक सिगरेट सुलगा लिया ।
सोफा किसी तजुर्बेकार कॉलगर्ल की आगोश जैसा आरामदेय था । मुझे डर लग रहा था कि उस पर बैठा-बैठा कहीं मैं ऊंघने न लगूं ।
“आप मेरे दूध वाले होते तो फिर मैं ऐसे थोड़े ही बोलती !”
“फिर कैसे बोलती ?”
“फिर मैं कहती नमस्ते चाचाजी ।”
“चाचाजी !”
“हां । आप मेरे चाचा जी बनना चाहते हैं ?”
“अरे, जहन्नुम में गया तेरा चाचा जी मूड खराब कर दिया ।”
“सारी ।”
“कहती है सारी ।”
“आप अगर इस वक्त अपने एम्प्लोयर की फोन कॉल रिसीव करने का मेरा पोज देख पाते तो खुश हो जाते । फिर न कहते कि ईंट मार दी ।
“देख पाता तो क्या देखता मैं ?”
“आप देखते कि मैं सावधान की मुद्रा में खडी हूं । मेरा दायां हाथ सैल्यूट की सूरत में मेरे माथे पर है और मैं थर-थर कांप रही हूं ।
“रजनी मैं जो सवेरे दफ्तर नहीं पहुंचा, तूने कोई फिक्र की इत बात की ?”
“बहुत फिक्र की ।”
“फिक्र की तो क्या किया ?”
“सारे बड़े अस्पतालों की केजुअलटी पर फोन किया आस-पास के सारे थानों से पूछताछ की । अभी डायरेक्ट्री में तिहाड़ जेल का नम्बर देख रही थी कि आपका फोन आ गया ।”
“लानत ! लानत !”
“अब आप कहां से बोल रहे हैं ? इन्ही जगहों में से किसी में से या कहीं और से ?”
“कहीं और से ।”
“शुक्र है भगवान का । जान मे जान आ गई ।”
“कम से कम ये तो पूछना था कहीं और से कहां से ।”
“होंगे आप किसी नई बहन जी के पहलू में । हफ्ता दस दिन तो अब दफ्तर क्या आ पाएंगे आप !”
“अहमक ! जानती नहीं कि मैं मरता-मरता बचा हूं ।”
“अच्छा !”
“हां । वो रात को ....”
“जरूर कोई विषकन्या पल्ले पड़ गई होगी इस बार ।”
“तौबा ! तेरे से तो बात करना भी गुनाह है । एक नंबर की कम्बख्त औरत है तू ।”
“करेक्शन । एक नंबर की नहीं हूं । औरत नहीं हूं ।”
“लेकिन कम्बख्त है ।”
“बन गई हूं कुछ-कुछ आपकी सोहबत में ।”
“अब ये बात अभी कितनी बार कहेगी ?”
“जितनी बार आप मुझे ये एक नम्बर की कम्बख्त औरत वाला फिकरा कहेंगे ।”
“ठीक है, मर ।”
“खड़े खड़े ? सावधान और सैल्यूट की मुद्रा में थर थर कांपते हुए ?”
“जैसे मुझे यकीन आ गया है कि तू ऐसे खड़ी है ।”
“आके तसदीक कर लीजिये ।”
“आना जैसे आसान है ।”
“जो बहन जी आने से रोके हुए हैं, वो इजाजत दे तो कोई दिव्यदृष्टि पैदा कीजिये अपने आपमें ।”
“क्या मुश्किल काम है ?” मैं व्यंगपूर्ण स्वर में बोला ।
“आपके लिये । आखिर इतने बड़े जासूस हैं आप ।”
तभी मुझे सीढियां उतरती सुजाता दिखाई दी ।
“ठीक है ।” मैं बोला, मैं आके खवर लेता हूं तेरी ।” मैंने फोन हुक पर टांग दिया ।
***
मैं फ्लैग स्टाफ रोड पहुंचा ।
कृष्णबिहारी माथुर की कोठी पर एक निगाह पड़ते ही मुझे कबूल करना पड़ा कि मदान ने उसके बारे में गलत नहीं कहा था । वो भव्य, विशाल कोठी जिसके सामने मैं उस घड़ी खड़ा था, यकीनन किसी बादशाह के आवास के ही काबिल हो सकती थी ।
गरीब आदमी के लिए पैसा भगवान है लेकिन दौलतमंद के लिए पैसे का रोल बड़ा सीमित होता है । दौलतमंद की जिदगी में दौलत की एक ऐसी स्टेज आ जाती है, जबकि बतौर दौलत वो यूजलेस शै बन जाती है, तब उसका कोई इस्तेमाल मुमकिन होता है तो यही कि उससे और दौलत कमाई जा सकती है । दौलतमंद को जरूर इस बात का अफसोस रहता होगा कि खुदा ने उसका दस मुंह और बीस पेट क्यों न दिए, वो चांदी घोल के क्यों नहीं पी सकता, सोने का निवाला क्यो नहीं खा सकता, हीरे जवाहरात क्यों नहीं चबा सकता ? शायद यही वजह है कि दौलतमंद आदमी अपनी दौलत का सबसे व्यापक और भौंडा प्रदर्शन इमारत बनाने और औलाद की शादी करने पर करता है ।
वल्गर डिस्पले ऑफ वेल्थ का एक नमूना माथुर की कोठी की सूरत में उस वक्त मेरे सामने मौजूद था । कोठी दोमंजिला थी और एक कोई पांच हजार गज के प्लाट के बीचों-बीच ताजमहल की तरह खड़ी थी । आयरन गेट से कोठी तक पहुचते ड्राइव-वे के दायें-बायें ऊचे-ऊचे पेड़ थे और मखमली घास था, खूबसूरत फूल थे, फव्वारे थे और संगमरमर की प्रस्तर प्रतिमाएं थीं । दिल्ली शहर में उस ढंग से उतनी जगह में बनी दूसरी इमारत जरूर राष्ट्रपति भवन ही होगा ।
आयरन गेट पर खड़े सशस्त्र गोरखे को मैंने अपना परिचय दिया ।
जैसा कि हुक्म हुआ था, आधे घंटे बाद मैं वहां फोन करके आया था और मेरी माथुर से मुलाकात की दरख्वास्त कबूल हो चुकी थी ।
चौकीदार ने मुझे भीतर दाखिल हो लेने दिया, एक वर्दीधारी नौकर को वहां तलब किया और मुझे उसके हवाले कर दिया । नौकर मुझे एक रेलवे प्लेटफार्म जितने बड़े ड्राइंगरूम में ले गया ।
“आप यहां बैठिए ।” वह बड़े अदब से बाला, “मैं भीतर खबर करता हूं ।”
मैने सहमति में सिर हिलाया लेकिन मैने बैठने का उपक्रम नहीं किया ।
नौकर वहां से विदा हो गया ।
मै सोचने लगा ।
हालात बड़े उम्मीद अफजाह थे । ये बड़ा सुखद संयोग था कि मर्डर वैपन का मालिक एक रईस आदमी निकला था । युअर्स ट्रूली को कोई अतिरिक्त चार पैसे हासिल होने की उम्मीद किसी रईस आदमी से ही हो सकती थी । कड़के से क्या हासिल होता !
मुझे सिगरेट की तलब लग रही थी लेकिन वहां कहीं ऐश-ट्रे न दिखाई दे रही होने की वजह से मुझे अपने पर जब्त करना पड़ रहा था इतनी शानदार जगह पर सिगरेट की राख बिखराने की जुर्रत आपके खादिम से नहीं हो रही थी ।
कुछ क्षण जब वही पहले वाला नौकर ट्रे पर कोल्ड ड्रिंक का एक गिलास रख वपिस लौटा ।
उसने ट्रे मुझे पेश की ।
मैंने गिलास उठा लिया ओर बोला, “ऐश ट्रे ।”
उसने एक सोफे के सामने पड़ी शीशे की मेज की तरफ इशारा किया ।
वहां कांसे का बना एक हाथी पड़ा था । हाथी का हौदा ऐश ट्रे की तरह इस्तेमाल होने के लिए बना था ।
तौबा । मैंने जिसे सजावटी मुजस्मा समझा था, वो ऐश ट्रे निकली थी ।
“मैंने नायर साहब को खबर कर दी है ।” नौकर बोला, “आगे वही आपसे बात करेंगे ।”
“नायर साहब कौन हैं ?” मैंने पूछा ।
“साहब के प्राइवेट सैक्रेट्री हैं ।”
“ओह ।”
नौकर फिर वहां से रुखसत हो गया ।
कोल्ड ड्रिंक का गिलास मैंने हाथीनुमा ऐश ट्रे वाली मेज पर रखा और उसके सामने एक सोफे पर ढेर हो गया । मैने अपना डनहिल का पैकेट निकालकर एक सिगरेट सुलगा लिया ।
सोफा किसी तजुर्बेकार कॉलगर्ल की आगोश जैसा आरामदेय था । मुझे डर लग रहा था कि उस पर बैठा-बैठा कहीं मैं ऊंघने न लगूं ।