hotaks444
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करिश्मा किस्मत का
मेरा नाम सुनील श्रीवास्तव है और मैं इलाहाबाद का रहने वाला हूँ। प्यार से सब मुझे सोनू बुलाते है। इलाहाबाद उत्तर प्रदेश का एक खूबसूरत सा शहर है जो कुम्भ मेले की वजह से पूरी दुनिया में मशहूर है। लेकिन उत्तर प्रदेश से बाहर के बहुत कम लोग ही जानते है कि इलाहाबाद अपनें उच्च शैक्षणिक माहौल के लिये भी काफी जाना जाता है, आज भी आईएयस और पीसीयस के कम्पटीशन को क्लीयर करने वाले सबसे ज्यादा केन्डीडेट इलाहाबाद के ही होते हैं। अब जो घटना मैं आपको बताने जा रहा हूँ उसकी शुरूआत आज से करीब डेढ़ साल पहले य़ानि कि मई 2017 में हुई।
दोस्तो किस्मत का खेल भी बहुत निराला है। जिन्दगी में जिस चीज की हमने कभी कल्पना भी नही की होती, जिसके होनें की कभी दूर दूर तक भी कोई गुन्जाईश नजर नहीं आती, अपनी लाख कोशिशो के बावजूद जिसे पानें का ख्वाब तक भी हम कभी देख नही पाते उसी असम्भव को करवटें बदल बदल कर किस्मत थोड़े ही समय में इस तरह सम्भव कर दिखाती है कि विश्वास करना तक कठिन हो जाता है। कई बार तोहफे परेशानीयों में बदल जाते हैं और कभी इसके ठीक उलट बड़ी से बड़ी परेशानीयाँ भी पलक झपकते ही तोहफों में तब्दील हो जाती हैं।
वैसे मेरा जन्म उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुआ था, लोकिन हम मूलतः रहने वाले इलाहाबाद के ही है। मेरे पापा सरकारी नौकरी (इन्डियन सीविल सर्वीस) में एक बहुत ऊँचे ओहदे पर अफसर हैं। मुश्किल कामों को हल करनें की अपनी काबिलियत की वजह से अपने डिपार्टमेन्ट में उनकी बहुत इज्जत थी। लेकिन पापा का काबिल अफसर होने का यह वरदान हम सबके लिये अभिश्राप बन चुका था। अपनी इसी काबिलियत की वजह से उनका हर 2-3 साल में किसी न किसी न मुश्किल काम को सुलझानें की जिम्मेदारी सौंप कर तबादला कर दिया जाता था। पापा की नौकरी की वजह से हम कई शहरों में रह चुके थे, जिसका आखिरी पड़ाव हमारा अपना मूल निवास इलाहाबाद था।
पापा के तबादलों से हम सब तंग आ चुके थे और यह पहली बार था कि पिछले सात सालो से हम एक ही जगह रह रहे थे। इन सात सालो में एक दो बार पापा के तबादले की कोशिशे भी हुईं पर पापा नें अपनें ऊँचे रसूख का इस्तेमाल कर उसे हर बार रूकवा दिया था। दरअसल इलाहाबाद हम सब को बेहद पसन्द था। एक तो यह हमारा अपना मूल निवास था और दूसरे यहाँ का कम भीड़-भाड़ वाला शान्त वातावरण हम सब के मन को भा गया था। यहाँ आने के बाद हमने तय कर लिया था कि अब हम हमेशा के लिए यहीं रहेंगे। पापा के रिटायरमेन्ट को कुछ ही साल और रह गये थे और पिछले साल ही हमनें अपना एक अलीशान तीन मंजिला मकान भी बनवा लिया था और वहीं रहने लगे थे। हम सब बहुत खुश थे।
हमारे परिवार में कुल 4 लोग हैं, मेरे मम्मी-पापा, मैं और मेरी बड़ी बहन नेहा। अपने नये घर में शिफ्ट हुए हमें कुछ ही दिन हुए थे कि अचानक पापा का ट्रान्सफर लखनऊ हो गया जिसकी हमें बिल्कुल उम्मीद नहीं थी, यह समाचार हमारे लिए काफी दुखद था । हर बार की तरह इस बार भी पापा ने अपने तबादले को रूकवाने की पूरी कोशिशे की, लेकिन लखनऊ का काम इतना कठिन था कि सारे बड़े अफसर एक मत से यही मानते थे कि यह काम पापा के अलावा और कोई नही कर सकता था और आखिर में न चाहते हुये भी भारी मन से पापा को जाना ही पड़ा।
अब हमारे लिए बहुत बड़ी मुश्किल आ खड़ी हुई थी। इधर पापा का जाना भी जरुरी था और उधर अभी पिछले साल ही हमनें अपना नया मकान भी बनवा लिया था। तबादलों की वजह से मेरी और दीदी की पढ़ाई का भी नुकसान होता था। पापा को डायबीटीस का प्राब्लम था इसलिये उनके खाने पीने की देखभाल के लिये मम्मी का उनके साथ रहना जरूरी था। तो हम लोगों ने यह फैसला किया कि मम्मी पापा के साथ लखनऊ जाएँगी और हम दोनों भाई बहन इलाहाबाद में ही रहेंगे। लेकिन हमें यूँ अकेला भी नहीं छोड़ा जा सकता था।
हमें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। हमारी इस परेशानी का कोई हल नहीं मिल पा रहा था, तभी अचानक इसी बीच एक दिन सिन्हा अंकल जो चित्रकूट में डीएम थे और पापा के कोलेज के दिनों के दोस्त थे पापा से मिलने आये।
बातों ही बातों में दुखी मन से जब पापा ने सिन्हा अंकल से अपनीं परेशानी का जिक्र किया तो सिन्हा अंकल ने तपाक से जवाब दिया कि भाई मै तो अपनी परेशानी का हल ढूंढ़नें तुम्हारे पास आया था लेकिन मै अपनी समस्या की चर्चा करू उससे पहले तुम्हारी समस्या सुन कर तो लगता है तुम्हारी समस्या मेरी वाली से भी ज्यादा बड़ी और गम्भीर है। फिर मुस्कुराते हुये बोले कि अब तो ऐसा लगता है कि अगर हम दोनों अपनी अपनी समस्याओं को इकठ्ठी कर दें तो हमारे पास कोई समस्या ही न रह जायेगी। पापा ने तुरन्त पूछ लिया “वो कैसै?” अब पहले के मुकाबले पापा के चेहरे पर तनाव कम और उत्सुकता ज्यादा झलक रही थी।
फिर सिन्हा अंकल ने बताया कि उनके अपने बच्चे भी बड़े हो गये है और चित्रकूट में इलाहाबाद जैसे अच्छे कालेज नहीं होने की वजह से वो खुद भी काफी दिनो से सोच रहे थे कि इलाहाबाद में कोई अच्छा सा मकान किराये पर ले कर परिवार को यहाँ शिफ्ट कर दें जिससे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई अच्छे से हो सके। पर फिर वो भी यही सोच सोच कर रूक जाते थे कि जवान बेटियों और पत्नी को एक अनजान किरायेदार के मकान मे अकेले कैसे छोडा जा सकता है? लेकिन जब पापा नें अपना नया मकान बना लिया तो उनकी चिन्ता जाती रही और उन्होने पापा से बात करनें की ठान ली बस इन्तजार कर रहे थे बेटियों की पढ़ाई के साल के पूरा होने का।
सिन्हा अंकल ने पापा को जो हल सुझाया वह प्यासे को पानी नही अमृत जैसा था। हम सब को यह उपाय बहुत पसंद आया, इसी बहाने हमारी देखभाल के लिए एक भरा पूरा परिवार हमारे साथ हो जाता और मम्मी पापा आराम से बिना किसी फ़िक्र के जा सकते थे। तो यह तय हो गया कि सिन्हा अंकल का परिवार हमारे मकान के ऊपर की तीसरी मंजिल पर जो कि फिलहाल पूरी तरह से खाली ही पड़ा था आकर हमारे साथ ही रहेंगा। लखनऊ और चित्रकूट दोनों ही इलाहाबाद से ज्यादा दूर नहीं हैं, चित्रकूट तो मात्र दो ढ़ाई घण्टे का रास्ता है, इसलिए तय हुआ कि एक शनिवार को मम्मी-पापा और फिर उसके बाद वाले शनिवार को सिन्हा अंकल बारी बारी से इलाहाबाद आते जाते रहेगें और फिर अगली सोमवार की सुबह फिर से वापस लखनऊ या चित्रकूट वापस चले जाया करेगें।
आज इतवार था और पापा को कल के बाद वाले सोमवार को, आज से ठीक नौवें दिन लखनऊ में अपना चार्ज लेना था, समय ज्यादा नही था इसलिये सिन्हा अंकल अगले शनिवार को ही शिफ्ट होने का कह कर लौट गये। प्लान के मुताबिक सिन्हा अंकल का परिवार अगले शनिवार को हमारे घर में शिफ्ट हो गया ओर उसके अगले ही दिन पापा और मम्मी लखनऊ चले गए। अब घर पर रह गए बस मैं और मेरी दीदी। मैंने नेहा दीदी के बारे में तो बताया ही नहीं, उस वक्त उनकी उम्र 23 साल थी। दीदी ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली थी और घर पर रह कर सिविल सर्विसेस की तैयारी कर रही थी। उनका रिश्ता भी तय हो चुका था और दिसम्बर में उनकी शादी होनी थी।
मेरा नाम सुनील श्रीवास्तव है और मैं इलाहाबाद का रहने वाला हूँ। प्यार से सब मुझे सोनू बुलाते है। इलाहाबाद उत्तर प्रदेश का एक खूबसूरत सा शहर है जो कुम्भ मेले की वजह से पूरी दुनिया में मशहूर है। लेकिन उत्तर प्रदेश से बाहर के बहुत कम लोग ही जानते है कि इलाहाबाद अपनें उच्च शैक्षणिक माहौल के लिये भी काफी जाना जाता है, आज भी आईएयस और पीसीयस के कम्पटीशन को क्लीयर करने वाले सबसे ज्यादा केन्डीडेट इलाहाबाद के ही होते हैं। अब जो घटना मैं आपको बताने जा रहा हूँ उसकी शुरूआत आज से करीब डेढ़ साल पहले य़ानि कि मई 2017 में हुई।
दोस्तो किस्मत का खेल भी बहुत निराला है। जिन्दगी में जिस चीज की हमने कभी कल्पना भी नही की होती, जिसके होनें की कभी दूर दूर तक भी कोई गुन्जाईश नजर नहीं आती, अपनी लाख कोशिशो के बावजूद जिसे पानें का ख्वाब तक भी हम कभी देख नही पाते उसी असम्भव को करवटें बदल बदल कर किस्मत थोड़े ही समय में इस तरह सम्भव कर दिखाती है कि विश्वास करना तक कठिन हो जाता है। कई बार तोहफे परेशानीयों में बदल जाते हैं और कभी इसके ठीक उलट बड़ी से बड़ी परेशानीयाँ भी पलक झपकते ही तोहफों में तब्दील हो जाती हैं।
वैसे मेरा जन्म उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुआ था, लोकिन हम मूलतः रहने वाले इलाहाबाद के ही है। मेरे पापा सरकारी नौकरी (इन्डियन सीविल सर्वीस) में एक बहुत ऊँचे ओहदे पर अफसर हैं। मुश्किल कामों को हल करनें की अपनी काबिलियत की वजह से अपने डिपार्टमेन्ट में उनकी बहुत इज्जत थी। लेकिन पापा का काबिल अफसर होने का यह वरदान हम सबके लिये अभिश्राप बन चुका था। अपनी इसी काबिलियत की वजह से उनका हर 2-3 साल में किसी न किसी न मुश्किल काम को सुलझानें की जिम्मेदारी सौंप कर तबादला कर दिया जाता था। पापा की नौकरी की वजह से हम कई शहरों में रह चुके थे, जिसका आखिरी पड़ाव हमारा अपना मूल निवास इलाहाबाद था।
पापा के तबादलों से हम सब तंग आ चुके थे और यह पहली बार था कि पिछले सात सालो से हम एक ही जगह रह रहे थे। इन सात सालो में एक दो बार पापा के तबादले की कोशिशे भी हुईं पर पापा नें अपनें ऊँचे रसूख का इस्तेमाल कर उसे हर बार रूकवा दिया था। दरअसल इलाहाबाद हम सब को बेहद पसन्द था। एक तो यह हमारा अपना मूल निवास था और दूसरे यहाँ का कम भीड़-भाड़ वाला शान्त वातावरण हम सब के मन को भा गया था। यहाँ आने के बाद हमने तय कर लिया था कि अब हम हमेशा के लिए यहीं रहेंगे। पापा के रिटायरमेन्ट को कुछ ही साल और रह गये थे और पिछले साल ही हमनें अपना एक अलीशान तीन मंजिला मकान भी बनवा लिया था और वहीं रहने लगे थे। हम सब बहुत खुश थे।
हमारे परिवार में कुल 4 लोग हैं, मेरे मम्मी-पापा, मैं और मेरी बड़ी बहन नेहा। अपने नये घर में शिफ्ट हुए हमें कुछ ही दिन हुए थे कि अचानक पापा का ट्रान्सफर लखनऊ हो गया जिसकी हमें बिल्कुल उम्मीद नहीं थी, यह समाचार हमारे लिए काफी दुखद था । हर बार की तरह इस बार भी पापा ने अपने तबादले को रूकवाने की पूरी कोशिशे की, लेकिन लखनऊ का काम इतना कठिन था कि सारे बड़े अफसर एक मत से यही मानते थे कि यह काम पापा के अलावा और कोई नही कर सकता था और आखिर में न चाहते हुये भी भारी मन से पापा को जाना ही पड़ा।
अब हमारे लिए बहुत बड़ी मुश्किल आ खड़ी हुई थी। इधर पापा का जाना भी जरुरी था और उधर अभी पिछले साल ही हमनें अपना नया मकान भी बनवा लिया था। तबादलों की वजह से मेरी और दीदी की पढ़ाई का भी नुकसान होता था। पापा को डायबीटीस का प्राब्लम था इसलिये उनके खाने पीने की देखभाल के लिये मम्मी का उनके साथ रहना जरूरी था। तो हम लोगों ने यह फैसला किया कि मम्मी पापा के साथ लखनऊ जाएँगी और हम दोनों भाई बहन इलाहाबाद में ही रहेंगे। लेकिन हमें यूँ अकेला भी नहीं छोड़ा जा सकता था।
हमें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। हमारी इस परेशानी का कोई हल नहीं मिल पा रहा था, तभी अचानक इसी बीच एक दिन सिन्हा अंकल जो चित्रकूट में डीएम थे और पापा के कोलेज के दिनों के दोस्त थे पापा से मिलने आये।
बातों ही बातों में दुखी मन से जब पापा ने सिन्हा अंकल से अपनीं परेशानी का जिक्र किया तो सिन्हा अंकल ने तपाक से जवाब दिया कि भाई मै तो अपनी परेशानी का हल ढूंढ़नें तुम्हारे पास आया था लेकिन मै अपनी समस्या की चर्चा करू उससे पहले तुम्हारी समस्या सुन कर तो लगता है तुम्हारी समस्या मेरी वाली से भी ज्यादा बड़ी और गम्भीर है। फिर मुस्कुराते हुये बोले कि अब तो ऐसा लगता है कि अगर हम दोनों अपनी अपनी समस्याओं को इकठ्ठी कर दें तो हमारे पास कोई समस्या ही न रह जायेगी। पापा ने तुरन्त पूछ लिया “वो कैसै?” अब पहले के मुकाबले पापा के चेहरे पर तनाव कम और उत्सुकता ज्यादा झलक रही थी।
फिर सिन्हा अंकल ने बताया कि उनके अपने बच्चे भी बड़े हो गये है और चित्रकूट में इलाहाबाद जैसे अच्छे कालेज नहीं होने की वजह से वो खुद भी काफी दिनो से सोच रहे थे कि इलाहाबाद में कोई अच्छा सा मकान किराये पर ले कर परिवार को यहाँ शिफ्ट कर दें जिससे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई अच्छे से हो सके। पर फिर वो भी यही सोच सोच कर रूक जाते थे कि जवान बेटियों और पत्नी को एक अनजान किरायेदार के मकान मे अकेले कैसे छोडा जा सकता है? लेकिन जब पापा नें अपना नया मकान बना लिया तो उनकी चिन्ता जाती रही और उन्होने पापा से बात करनें की ठान ली बस इन्तजार कर रहे थे बेटियों की पढ़ाई के साल के पूरा होने का।
सिन्हा अंकल ने पापा को जो हल सुझाया वह प्यासे को पानी नही अमृत जैसा था। हम सब को यह उपाय बहुत पसंद आया, इसी बहाने हमारी देखभाल के लिए एक भरा पूरा परिवार हमारे साथ हो जाता और मम्मी पापा आराम से बिना किसी फ़िक्र के जा सकते थे। तो यह तय हो गया कि सिन्हा अंकल का परिवार हमारे मकान के ऊपर की तीसरी मंजिल पर जो कि फिलहाल पूरी तरह से खाली ही पड़ा था आकर हमारे साथ ही रहेंगा। लखनऊ और चित्रकूट दोनों ही इलाहाबाद से ज्यादा दूर नहीं हैं, चित्रकूट तो मात्र दो ढ़ाई घण्टे का रास्ता है, इसलिए तय हुआ कि एक शनिवार को मम्मी-पापा और फिर उसके बाद वाले शनिवार को सिन्हा अंकल बारी बारी से इलाहाबाद आते जाते रहेगें और फिर अगली सोमवार की सुबह फिर से वापस लखनऊ या चित्रकूट वापस चले जाया करेगें।
आज इतवार था और पापा को कल के बाद वाले सोमवार को, आज से ठीक नौवें दिन लखनऊ में अपना चार्ज लेना था, समय ज्यादा नही था इसलिये सिन्हा अंकल अगले शनिवार को ही शिफ्ट होने का कह कर लौट गये। प्लान के मुताबिक सिन्हा अंकल का परिवार अगले शनिवार को हमारे घर में शिफ्ट हो गया ओर उसके अगले ही दिन पापा और मम्मी लखनऊ चले गए। अब घर पर रह गए बस मैं और मेरी दीदी। मैंने नेहा दीदी के बारे में तो बताया ही नहीं, उस वक्त उनकी उम्र 23 साल थी। दीदी ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली थी और घर पर रह कर सिविल सर्विसेस की तैयारी कर रही थी। उनका रिश्ता भी तय हो चुका था और दिसम्बर में उनकी शादी होनी थी।