desiaks
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फिर मैंने एक चाल चली।
तुरुप चाल!
जिस चाल को चलना मेरा वास्तविक उद्देश्य था।
वह सब उस समय शयनकक्ष में ही मौजूद था और अभी थोड़ी बहुत देर वहां से हिलते भी नजर नहीं आ रहे थे। मौका देखकर मैं शयनकक्ष से बाहर निकली और बड़ी खामोशी के साथ ड्राइंग हॉल में पहुंची।
वहां पहुंचकर मैंने बड़ी तेजी के साथ टेलीफोन का रिसीवर उठाया और फिर जल्दी—जल्दी तिलक राजकोटिया के फोन का नम्बर डायल करना शुरू किया। मैं जानबूझकर लेंडलाइन पर फ़ोन कर रही थी।
उस समय मेरी एक—एक हरकत देखने योग्य थी।
तुरन्त दूसरी तरफ घण्टी जाने लगी।
“हैलो।”
जल्द ही मुझे फोन पर तिलक की निढाल—सी आवाज सुनाई पड़ी।
मैंने फौरन टेलीफोन के माउथपीस पर मोटा—सा कपड़ा रख लिया।
“कौन- तिलक राजकोटिया?” मैं अपनी आवाज को मर्दाना और भारी बनाने की कोशिश करते हुए बोली।
“हां- मैं ही बोल रहा हूं।”
मैं हंसी।
कुछ तो मैं आवाज बदलकर बोल ही रही थी और कुछ कपड़े के कारण भी मेरी आवाज काफी बदल गयी थी।
“कौन हो तुम?” तिलक गुर्राया।
“मैं वही हूं तिलक राजकोटिया!” मैंने अपने दांत किटकिटाये—”जिसने अभी—अभी तुम्हारे ऊपर गोली चलायी।”
“न... नहीं।” तिलक कांप उठा—”लेकिन तुम्हारी मेरे से क्या दुश्मनी है?”
“कोई दुश्मनी नहीं। तुम्हारे से सावंत भाई की दुश्मनी है और मैं सावंत भाई का खास आदमी हूं।”
दूसरी तरफ एकाएक सन्नाटा छा गया।
घोर सन्नाटा!
“जो गोली अभी—अभी तुम्हारे कंधे में लगी है तिलक राजकोटिया!” मैं विषधर की भांति फुंफकारकर बोली—”वह अभी तुम्हारी खोपड़ी को भी अण्डे के छिलके की तरह फोड़ते हुए गुजर सकती थी। यह मत समझना कि मेरा निशाना चूक गया है, मेरा निशाना कभी नहीं चूकता। बल्कि यह सावंत भाई ने तुम्हें एक मौका दिया है।”
“क... कैसा मौका?” तिलक का शुष्क स्वर।
“अगर तुम्हें अपनी जान की जरा भी फिक्र है, तो फौरन पैंथ हाउस और होटल का कब्जा सावंत भाई को दे दो।”
“ल... लगता है- तुम लोग पागल हो गये हो?”
“पागल हम नहीं बल्कि तुम हो गये हो बेवकूफ आदमी!” मैं मर्दाना आवाज में ही चिंघाड़ी—”ऐसा मालूम होता है, दौलत के साथ—साथ तुम्हारी अक्ल भी घास चरने चली गयी है। एक बात बहुत अच्छी तरह कान खोलकर सुन लो तिलक राजकोटिया! अगर तुमने सावंत भाई को कब्जा नहीं दिया, तो बहुत जल्द तुम्हारी खोपड़ी के आर—पार एक नहीं बल्कि कई गोलियां निकल जाएंगी।”
“लेकिन... ।”
मैंने उसके आगे की कोई बात नहीं सुनी।
फौरन लाइन काट दी।
मैं अपना काम कर चुकी थी।
•••
तुरुप चाल!
जिस चाल को चलना मेरा वास्तविक उद्देश्य था।
वह सब उस समय शयनकक्ष में ही मौजूद था और अभी थोड़ी बहुत देर वहां से हिलते भी नजर नहीं आ रहे थे। मौका देखकर मैं शयनकक्ष से बाहर निकली और बड़ी खामोशी के साथ ड्राइंग हॉल में पहुंची।
वहां पहुंचकर मैंने बड़ी तेजी के साथ टेलीफोन का रिसीवर उठाया और फिर जल्दी—जल्दी तिलक राजकोटिया के फोन का नम्बर डायल करना शुरू किया। मैं जानबूझकर लेंडलाइन पर फ़ोन कर रही थी।
उस समय मेरी एक—एक हरकत देखने योग्य थी।
तुरन्त दूसरी तरफ घण्टी जाने लगी।
“हैलो।”
जल्द ही मुझे फोन पर तिलक की निढाल—सी आवाज सुनाई पड़ी।
मैंने फौरन टेलीफोन के माउथपीस पर मोटा—सा कपड़ा रख लिया।
“कौन- तिलक राजकोटिया?” मैं अपनी आवाज को मर्दाना और भारी बनाने की कोशिश करते हुए बोली।
“हां- मैं ही बोल रहा हूं।”
मैं हंसी।
कुछ तो मैं आवाज बदलकर बोल ही रही थी और कुछ कपड़े के कारण भी मेरी आवाज काफी बदल गयी थी।
“कौन हो तुम?” तिलक गुर्राया।
“मैं वही हूं तिलक राजकोटिया!” मैंने अपने दांत किटकिटाये—”जिसने अभी—अभी तुम्हारे ऊपर गोली चलायी।”
“न... नहीं।” तिलक कांप उठा—”लेकिन तुम्हारी मेरे से क्या दुश्मनी है?”
“कोई दुश्मनी नहीं। तुम्हारे से सावंत भाई की दुश्मनी है और मैं सावंत भाई का खास आदमी हूं।”
दूसरी तरफ एकाएक सन्नाटा छा गया।
घोर सन्नाटा!
“जो गोली अभी—अभी तुम्हारे कंधे में लगी है तिलक राजकोटिया!” मैं विषधर की भांति फुंफकारकर बोली—”वह अभी तुम्हारी खोपड़ी को भी अण्डे के छिलके की तरह फोड़ते हुए गुजर सकती थी। यह मत समझना कि मेरा निशाना चूक गया है, मेरा निशाना कभी नहीं चूकता। बल्कि यह सावंत भाई ने तुम्हें एक मौका दिया है।”
“क... कैसा मौका?” तिलक का शुष्क स्वर।
“अगर तुम्हें अपनी जान की जरा भी फिक्र है, तो फौरन पैंथ हाउस और होटल का कब्जा सावंत भाई को दे दो।”
“ल... लगता है- तुम लोग पागल हो गये हो?”
“पागल हम नहीं बल्कि तुम हो गये हो बेवकूफ आदमी!” मैं मर्दाना आवाज में ही चिंघाड़ी—”ऐसा मालूम होता है, दौलत के साथ—साथ तुम्हारी अक्ल भी घास चरने चली गयी है। एक बात बहुत अच्छी तरह कान खोलकर सुन लो तिलक राजकोटिया! अगर तुमने सावंत भाई को कब्जा नहीं दिया, तो बहुत जल्द तुम्हारी खोपड़ी के आर—पार एक नहीं बल्कि कई गोलियां निकल जाएंगी।”
“लेकिन... ।”
मैंने उसके आगे की कोई बात नहीं सुनी।
फौरन लाइन काट दी।
मैं अपना काम कर चुकी थी।
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