Desi Porn Kahani नाइट क्लब - Page 9 - SexBaba
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Desi Porn Kahani नाइट क्लब

मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि सावंत भाई की हालत सांप—छंछूदर जैसी थी।
वो बुरी तरह फंसा हुआ था।
तिलक राजकोटिया अभी भी शराब के नशे में सराबोर कुर्सी पर बैठा था और अपनी बर्बादी की दास्तान सुना रहा था।
“अब सावंत भाई क्या चाहता है?” मैं कौतुहलतापूर्वक बोली—”वो अपने आदमी भेजकर तुम्हें किस तरह की धमकी दे रहा है?”
“द... दरअसल सावंत भाई की इच्छा है,” तिलक ने पुनः नशे से लड़खड़ाये स्वर में कहा—”कि मैं इस होटल और पैंथ हाउस का कब्जा उसे दे दूं।”
“कब्जा देने से क्या होगा?” मैं बोली—”जबकि तुम बता रहे हो कि यह दोनों चीजें पहले ही किन्हीं और साहूकारों के पास गिरवी पड़ी हैं।”
“ठ... ठीक बात है। असल मामला ये है कि वह इन दोनों चीजों का कब्जा इसलिए लेना चाहता है, ताकि फिर उन साहूकारों के साथ मिलकर वह प्रॉपर्टी को बेच सके। सौ करोड़ नहीं तो चालीस—पचास करोड़ ही यहां से उठा सके। अपनी रकम उगहाने का उसे यही एक सॉलिड तरीका दिखाई दे रहा है कि उन साहूकारों को बलि का बकरा बनाया जाए और इसीलिए अब वो हाथ धोकर इस काम को अंजाम देने के वास्ते मेरे पीछे पड़ा है।”
इसमें कोई शक नहीं- सावंत भाई ने अपनी रकम उगहाने का एक बेहतरीन जरिया सोचा था।
उसी तरह वो अपनी रकम वसूल सकता था।
“फिर तुम्हें अब कब्जा देने में क्या ऐतराज है?”
“म... मैं अपनी मार्किट पोजीशन की खातिर उसे कब्जा नहीं दे रहा।” तिलक बोला—”जिस दिन मैंने उसे कब्जा दिया, उसी दिन मेरी रही—सही इज्जत भी मिट्टी में मिल जाएगी और मैं पूरी तरह सड़क पर खड़ा होऊंगा। म... मैं किसी प्रकार अपनी इस इज्जत को अभी तक बरकरार रखे हुए हूं। लेकिन मुझे लगता नहीं कि यह इज्जत अब और ज्यादा दिन बच पाएगी।”
मैं आश्चर्यचकित—सी तिलक राजकोटिया की सूरत देखे जा रही थी।
“म... मैं तुम्हें भी यह बात नहीं बताना चाहता था शिनाया।” तिलक पुनः गहरी सांस लेकर बोला—”लेकिन अफसोस मुझे मजबूरी में तुम्हें यह सारी कहानी सुनानी पड़ रही है। क्योंकि मैं तुमसे आखिर यह सब छिपाकर भी कब तक रख सकता था! आखिर कभी—न—कभी तो तुम्हें मेरी बर्बादी की यह दास्तान मालूम ही होती।”
•••
 
मेरे छक्के छूट पड़े।
जिस दौलत के लिए मैंने तीन—तीन हत्यायें की थीं, जिस दौलत की खातिर मैंने अपनी सहेली और सरदार करतार सिंह जैसे बेहद भले आदमी तक को मौत के घाट उतार डाला था, वही दौलत अब मेरे पास नहीं थी।
मैं फिर वहीं—की—वहीं थी।
तिलक राजकोटिया की बात सुनकर मेरे ऊपर कैसा वज्रपात हुआ होगा, इसका आप सहज अनुमान लगा सकते हैं।
आखिर मैंने दौलत के लिए ही तो तिलक राजकोटिया से शादी की थी।
एक सुखद भविष्य के लिए ही तो उसकी अद्र्धांगनी बनना स्वीकार किया था।
और कितने मजाक की बात है।
दौलत फिर भी मेरे पास नहीं थी।
मैं फिर कंगाल थी।
किस्मत मेरे साथ कैसा अजीब खेल, खेल रही थी।
सारी रात मुझे नींद न आयी।
मैं बस बेचैनीपूर्वक करवटें बदलती रही।
कभी उधर!
कभी इधर!
क्या मजाल- जो मेरी एक पल के लिए भी आंख लगी हो।
और सोया तिलक भी नहीं।
अलबत्ता फिर हम दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई थी।
मुझे यह कबूल करने में कुछ हिचक नहीं है कि अब हम दोनों के बीच दूरियां बढ़ने लगी थीं। कम—से—कम पहले जैसा प्यार तो अब हमारे दरम्यान हर्गिज भी नहीं था।
अगले दिन सुबह—ही—सुबह शक्ल—सूरत से बहुत गुण्डे नजर आने वाले चार आदमी ऊपर पैंथ हाउस में आये।
उन्होंने कीमती सूट पहना हुआ था।
टाई लगाई हुई थी।
और हाथ की कई उंगलियों में सोने की मोटी—मोटी अंगूठियां थीं।
फिर भी कुल मिलाकर बदमाशी उनके चेहरे से झलक रही थी।
वह साफ—साफ गुण्डे दिखाई पड़ रहे थे।
उनमें से एक की जेब में मुझे रिवॉल्वर का भी स्पष्ट अहसास हुआ।
“गुड मॉर्निंग तिलक साहब!”
“गुड मॉर्निंग!”
उन चारों को देखकर तिलक राजकोटिया के नेत्र सिकुड़ गये।
वह तेजी से उनकी तरफ बढ़ा।
“कौन हो तुम लोग?”
“हमें आपके पास सावंत भाई ने भेजा है।”
सावंत भाई!
उस नाम ने एक बार फिर मेरे शरीर में सनसनाहट दौड़ा दी।
जबकि एक गुण्डा अब बड़ी अश्लील निगाहों से मेरी तरफ देख रहा था।
जैसे कोई नंगी—बुच्ची औरत को देखता है।
मेरे ऊपर कोई फर्क न पड़ा।
आखिर ऐसे बद्जात मर्दों को और उनकी ऐसी वाहियात निगाहों को मैं बचपन से झेलती आयी थी।
मैं खूब जानती थी, किसी ठीक—ठाक औरत को देखने के बाद ऐसे मर्दों के दिल में सबसे पहली क्या ख्वाहिश जन्म लेती थी।
वह एकदम उसके साथ अभिसार की कल्पना करने लगते थे।
“अगर तुम्हें सावंत भाई ने भेजा है,” तिलक राजकोटिया थोड़े कर्कश लहजे में बोला—”तो तुम्हें नीचे मैनेजर से बात करनी चाहिए थी।”
“जी नहीं।” वही गुण्डा बोला, जो बड़ी प्यारी निगाहों से मुझे घूरकर देख रहा था—”मैनेजर से हम लोग बहुत बात कर चुके। अब सावंत भाई का आर्डर है कि हम लोग सीधे आपसे बात करें और जल्द—से—जल्द इस मामले को निपटायें । चाहें कैसे भी!”
“कैसे भी से क्या मतलब है तुम्हारा?”
गुण्डा हंसा।
“आप समझदार आदमी हैं तिलक साहब। दुनिया देखी है आपने। क्यों सारी बात हमारी जबान से ही ‘हिन्दी’ में सुनना चाहते हैं।”
तिलक राजकोटिया ने अपने शुष्क अधरों पर जबान फेरी।
हालात खुशगवार नहीं थे।
“तुम लोग मेरे साथ अंदर कमरे में आओ।”
“कमरे में क्यों?”
“तुम्हें जो कहना है- वहीं कहना।”
चारों गुण्डों की निगाह एक—दूसरे से मिली।
“ठीक है।” फिर उनमें से एक बोला—”कमरे में चलो, हमारा क्या है!”
तिलक राजकोटिया और वह चारों एक कमरे में जाकर बंद हो गये।
उसके बाद उनके बीच जो बातें हुईं, उसी कमरे के अंदर हुईं।
बातों का तो मुझे कुछ पता न चला।
अलबत्ता फिर भी मैं यह अंदाजा भली—भांति लगा सकती थी कि उनके बीच क्या बातें हुए होंगी।
वह गुण्डे जिनती देर पैंथ हाउस में रहे- मेरी सांस गले में अटकी रही।
थोड़ी ही देर बाद वह चले गये।
•••
 
फिर दोपहर के वक्त पैंथ हाउस में एक ऐसी टेलीफोन कॉल आयी, जिससे मुझे एक और जानकारी हासिल हुई।
जिसके बाद एक और खतरनाक सिलसिले की शुरूआत हुई।
दोपहर के कोई दो बजे का समय था, जब घण्टी की आवाज सुनकर मैंने टेलीफोन का रिसीवर उठाया।
तिलक राजकोटिया तब पैंथ हाउस में नहीं था और न ही नीचे होटल में था।
वो अपनी किसी ‘साइट’ पर गया हुआ था।
“हैलो!”
मेरे कान में एक बेहद सुरीली आवाज पड़ी।
वह किसी लड़की का स्वर था।
“कौन?”
“मुझे तिलक राजकोटिया से बात करनी है।”
“तिलक साहब तो यहां नहीं है, आप कौन हैं?”
“क्या आप उनकी पत्नी बोल रही हैं?” दूसरी तरफ मौजूद लड़की ने सवाल किया।
“जी हां।”
“मैं एल.आई.सी. (भारतीय जीवन बीमा निगम) की एक एजेण्ट बोल रही हूं।” लड़की ने कहा—”तिलक साहब के बीमे की किश्त अभी तक ऑफिस में जमा नहीं हुई है- आप कृपया उन्हें ध्यान दिला दें कि वो बीमे की किश्त जमा कर दें।”
मैं चौंकी।
बीमा!
वह मेरे लिए एक नई खबर थी।
“क्या तिलक साहब ने बीमा भी कराया हुआ है?”
“आपको इस बारे में नहीं मालूम?” वह बोली।
“नहीं तो।”
“आश्चर्य है मैडम!” लड़की की आवाज में विस्मय का पुट था—”पूरे मुम्बई शहर में अगर किसी का सबसे बड़ा बीमा है, तो वह तिलक साहब का है। उन्होंने पांच—पांच करोड़ के दस बीमे कराये हुए हैं। कुला मिलाकर उनका पचास करोड़ का बीमा है।”
“प... पचास करोड़ का बीमा!”
“जी हां मैडम! किसी एक अकेले आदमी का इतना बड़ा बीमा सिर्फ उनका है।”
मेरे कानों में सीटियां बजने लगीं।
पचास करोड़ का बीमा!
तिलक राजकोटिया ने अपना इतना बड़ा बीमा कराया हुआ था।
“आप उन्हें किश्त के बारे में ध्यान दिला दें मैडम!”
“जरूर।” मैंने तत्पर अंदाज में कहा—”मैं उनसे आते ही बोल दूंगी।”
“थैंक्यू।”
लड़की ने लाइन काट दी।
•••
 
फिर मैंने आनन—फानन उस अलमारी की तलाशी ली, जिस अलमारी में तिलक राजकोटिया इस तरह के जरूरी डाक्यूमेण्ट रखता था।
वह अलमारी उसके शयनकक्ष में ही थी और सबसे बड़ी बात ये है कि उस अलमारी की चाबी तक भी मेरी आसान पहुंच थी। जल्द ही मैंने अलमारी खोल डाली।
फिर उसमें कागज तलाशने शुरू किये।
शीघ्र ही बीमे के डाक्यूमेण्ट मेरे हाथ लग गये।
वाकई!
उसका पचास करोड़ का बीमा था।
पचास करोड़ की ‘मनी बैक पॉलिसी’!
मेरे हाथ—पैरों में कंपकंपी छूटने लगी।
वह एक अजीब—सा अहसास था, जो यह पता लगने के बाद मेरे अंदर हो रहा था कि तिलक राजकोटिया का पचास करोड़ का बीमा है।
मैं इस बात को बखूबी जानती थी कि ‘मनी बैक पॉलिसी’ में अगर पॉलिसी धारक का कोई एक्सीडेण्ट हो जाता है या उसकी हत्या हो जाती है, तो उसके उत्तराधिकारी को दोगुनी रकम मिलती है।
यानि सौ करोड़!
सौ करोड़- इतने रुपये मेरे सुखद भविष्य के लिए बहुत थे।
उस दिन मेरे दिमाग में एक और बड़ा खतरनाक ख्याल आया।
तीन हत्या मैं कर चुकी थी।
तो फिर दौलत के लिए एक हत्या और क्यों नहीं?
एक आखिरी दांव और क्यों नहीं?
क्या पता इस बार कुछ बात बन ही जाए।
 
14
हसबैण्ड का मर्डर

अगले दो दिन मैंने तिलक राजकोटिया की हत्या की योजना बनाने में गुजारे।
आप मेरी बुद्धि पर इस समय आश्चर्य अनुभव कर रहे होंगे।
आखिर मैं अपने पति की हत्या करने जा रही थी।
उस पति की हत्या- जिसे मैंने भारी जद्दोजहद के बाद हासिल किया था और जो कभी मुझे बहुत पसंद था।
लेकिन मैं समझती हूं- इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं।
मेरी गारण्टी है, अगर आप मेरी जगह होते, तो शायद आप भी यही कदम उठाते- जो मैंने उठाया।
जरा सोचिये- अब इसके सिवा मेरे सामने रास्ता ही क्या था?
मेरे सामने दो ही रास्ते थे।
या तो मैं ‘नाइट क्लब’ की उस झिलमिलाती दुनिया में वापस लौट जाऊं। लेकिन जब—जब मुझे अपनी दम तोड़ती हुई मां का चेहरा याद आ जाता था, तो वहां लौटने की कल्पना से ही मुझे दहशत होने लगती थी।
या फिर मैं किसी तरह दौलत हासिल करूं?
कैसे भी!
कुछ भी करके!
मैंने दूसरा रास्ता चुना।
दौलत हासिल करने का रास्ता।
मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया कि मैं तिलक राजकोटिया को भी रास्ते से हटाऊंगी।
अलबत्ता तिलक राजकोटिया की हत्या मैंने इस तरह करनी थी, जो उसकी हत्या का सारा शक सावंत भाई पर आये।
सावंत भाई को निशाना बनाकर मैंने सारा खेल, खेलना था।
हमेशा की तरह जल्द ही मैंने हत्या की एक बहुत फुलप्रूफ योजना बना ली।
योजना को अंजाम देने के लिए मुझे सबसे पहले एक रिवॉल्वर की जरूरत थी।
वह मेरे पास पहले से ही थी।
डॉक्टर अय्यर की देसी पिस्तौल- जिसे मैंने उससे छीना था।
•••
 
अगले दिन से ही मेरा खेल शुरू हो गया।
बड़े हिसाब से मैंने एक—एक चाल चली।
जो किसी को भी मेरे ऊपर शक न हो।
तिलक राजकोटिया नीचे अपने ऑफिस में जाने के लिए सुबह ठीक दस बजे तक तैयार हो जाता था। फिर वह लिफ्ट में सवार होकर नीचे पहुंचता। ऊपर से नीचे ग्राण्ड फ्लोर तक पहुंचने में उसे दो मिनट लगते थे।
लिफ्ट ग्राउण्ड फ्लोर पर जिस जगह जाकर रुकती, वो एक काफी सुनसान गलियारा था।
उसके बाद वो लम्बे—लम्बे डग रखता हुआ गलियारा पार करता। एक लॉबी में पहुंचता। लॉबी के बराबर में ही एक काफी लम्बा—चौड़ा गलियारा और था- जो आगे उसके ऑफिस तक जाता था।
उस दिन मैं सुबह पोने दस बजे ही नहा—धोकर तैयार हो गयी थी।
मैंने बड़ी खूबसूरत ड्रेस पहनी।
टाइट जीन!
हाइनेक का पुलोवर!
और चमड़े का मेहरून कोट। जिसमें कमर वाली जगह बहुत चौड़ी बेल्ट लगी थी और उसमें सुनहरी बक्कल फिट था।
“तुम कहां जा रही हो?” तिलक राजकोटिया मेरी तरफ देखकर बोला।
“मैंने आज से एक नया फैसला किया है तिलक।”
“क्या?”
“मैं अब हमेशा तुम्हारे साथ रहा करूंगी।” मैंने कहा—”ऑफिस में भी और जहां—जहां तुम जाया करोगे, वहां भी। यूं समझो- अब मैं हमेशा साये की तरह तुम्हारे साथ लग गयी हूं।”
“ऐसा क्यों?” तिलक चैंका।
“दरअसल तुम नहीं जानते—सावंत भाई के आदमियों से अब तुम्हारी जान को पूरा खतरा है।” मैंने अपनी योजना के पत्ते फैलाने शुरू किये—”वह किसी भी पल, कुछ भी कर सकते हैं। पैंथ हाउस में वो जिस तरह दनदनाते हुए घुस आये थे, उससे उनके इरादे साफ झलक रहे हैं।”
“लेकिन तुम मेरे साथ रहकर बिगड़ते हुए हालातों को सम्भाल थोड़े ही सकती हो शिनाया?”
“सही कहा तुमने।” मैंने बे—हिचक कबूल किया—”मैं बिगड़ते हुए हालातों को नहीं सम्भाल सकती। लेकिन मैं समझती हूं, एक से भले हमेशा दो होते हैं। दो आदमियों का असर, दो आदमियों का रुतबा अलग होता है। इसके अलावा मैं तुमसे एक बात और कहूंगी।”
“क्या?”
“रिवाल्वर हमेशा अपने पास रखा करो- चौबीसों घण्टे उसे तकिये के नीचे रखना ठीक नहीं है।”
मैंने अपने कोट की जेब से स्मिथ एण्ड वैसन रिवॉल्वर निकालकर उसकी तरफ बढ़ाई।
“ओह शिनाया!” तिलक ने एकाएक कसकर मुझे अपनी बांहों के दायरे में समेट लिया—”तुम कितना ख्याल रखती हो मेरा।”
“आखिर मैं पत्नी हूं तुम्हारी!” मैं अमरबेल की तरह उससे लिपट गयी—”अगर मैं तुम्हारा ख्याल नहीं रखूंगी- तो कौन रखेगा?”
तिलक राजकोटिया ने बुरी तरह भावुक होकर मेरा प्रगाढ़ चुम्बन ले लिया।
उसकी बांहों का दायरा मेरी पीठ के गिर्द कुछ और ज्यादा कसा।
“अब इस रिवॉल्वर को अपनी जेब में रखो।”
तिलक ने वह रिवॉल्वर अपनी जेब में रखी।
“सचमुच मैं तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में पाकर धन्य हो गया हूँ शिनाया!”
मैं धीरे से मुसकुरा दी।
उसे कहां मालूम था- मुझे पत्नी के रूप में पाकर उसके गले में कितनी बड़ी मुसीबत की घण्टी बंध गयी थी।
उसने मुझे फिर भी बांहों के दायरे से मुक्त नहीं किया।
बल्कि उसने मुझे और ज्यादा कसकर अपने सीने से चिपटा लिया।
उसकी उंगलियां धीरे—धीरे मेरी पीठ पर सरसराने लगीं।
उसने अपने जलते हुए होंठ स्थायी तौर पर मेरे नाजुक और सुर्ख होठों पर रख दिये।
उसकी सांसें भारी होने लगी।
आंखों में नशा—सा छाने लगा।
मैं भी अपने बदन में अब अजीब—सी सनसनाहट अनुभव कर रही थी।
“क्या कर रहे हो, अब और ज्यादा शरारत मत करो।” मैंने तिलक राजकोटिया को जबरन धकेलकर अपने से अलग किया—”ये दिन है, कोई रात नहीं है।”
“मैं जानता हूं डार्लिंग- यह दिन है।” तिलक मुस्कुराया—”लेकिन शरारत करने के लिए दिन ही कौन—सा मना करता है।”
तिलक ने मुझे फिर आलिंगनबद्ध कर लेना चाहा।
“अच्छा अब बस करो।” मैं तुरंत दो कदम पीछे हटी—”और मेरी बात ध्यान से सुनो।”
“कहो।”
“मैं फिलहाल नीचे ऑफिस में जा रही हूं, तुम भी तैयार होकर जल्दी से वहां पहुंचो।”
“ठीक है बॉस!” वह बड़ी अदा से सिर नवाकर बोला—”बंदा अभी हाजिर होता है।”
मैं धीरे से हंस पड़ी।
•••
 
लेकिन सच तो ये है कि उस समय मेरा दिमाग पूरी तरह सक्रिय था।
मेरी हंसी, मेरा चुहलपन, सब एक नाटक था।
ड्रामा!
तिलक राजकोटिया से विदा लेकर मैं तेजी से लिफ्ट की तरफ बढ़ गयी।
अगले ही पल मैं लिफ्ट के अंदर दाखिल हुई और झटके के साथ लिफ्ट का दरवाजा बंद किया।
फिर लिफ्ट का ग्राउण्ड फ्लोर वाला बटन दबाया।
लिफ्ट तूफानी गति से नीचे की तरफ भागने लगी।
वह समय आ गया था- जब मैंने तिलक की हत्या की दिशा में अपनी पहली चाल चलनी थी।
ठीक दो मिनट बाद लिफ्ट ग्राउण्ड फ्लोर पर पहुंचकर रुकी।
मैं लिफ्ट से बाहर निकली।
अब मैं गलियारे में थी।
गलियारा हमेशा की तरह बिल्कुल सुनसान पड़ा था। वहां कोई न था। इंसान का एक बच्चा तक नहीं!
फिर मैं लिफ्ट के बिल्कुल सामने वाले कमरे की तरफ बढ़ी। वह कमरा खाली पड़ा था। कमरे के पास पहुंचकर मैंने उसका ताला खोला। उसकी चाबी हासिल करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं आयी थी- वह बड़ी सहजता से हासिल हो गयी।
दरअसल तिलक के पास एक ऐसी मास्टर—की थी, जो उस होटल के लगभग सभी दरवाजों के ताले सहूलियत के साथ खोल देती थी। सबसे बड़ी बात ये है, तिलक राजकोटिया मास्टर—की को पैंथ हाउस की उसी अलमारी में रखता था, जिसमें दूसरे जरूरी डाक्यूमेण्ट रखे रहते हैं।
ताला खोलते ही मैं कमरे के अंदर दाखिल हुई और दरवाजा पहले की तरह वापस बंद कर लिया।
फिर मैं एक खिड़की की तरफ बढ़ी।
वह ग्लास—विण्डो थी, जिसमें से लिफ्ट बिल्कुल साफ नजर आ रही थी।
मैंने अपने चमड़े के मेहरून कोट की जेब से पिस्तौल निकाली।
उसका चैम्बर खोलकर देखा।
उसके चार खानों में गोलियां मौजूद थीं।
मैंने चैम्बर सैट करके उसे वापस बंद किया। फिर मैंने ग्लास—विण्डो मुश्किल से एक इंच खोली।
इतनी—जो बस पिस्तौल की नाल उसमें से बाहर निकल सके।
फिर मैं बहुत धैर्यपूर्वक तिलक का इंतजार करने लगी।
•••
 
वक्त गुजरता रहा।
ठीक दस बजे लिफ्ट ऊपर की तरफ सरकनी शुरू हुई और जल्द ही वो मेरी नजरों से ओझल हो गयी।
जरूर तिलक ने ऊपर से इंडीकेटर पैनल में लगा बटन दबाया था।
मैंने फौरन पिस्तौल की नाल ग्लास—विण्डो की झिरी से बाहर निकाल दी।
मेरी व्याग्रता बढ़ गयी।
तिलक अब नीचे आने वाला था।
उस क्षण मुझे अपनी सांस गले में घुटती अनुभव हो रही थी। मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे मेरे हाथ—पांव ठण्डे पड़ते जा रहे हों।
मेरी निगाह लिफ्ट के लाल इंडीकेटर पर जाकर ठहर गयी।
वह अब बुझ चुका था।
कुछ देर इंडीकेटर पर कोई हरकत न हुई।
फिर एकाएक इंडीकेटर की सुर्ख लाइट पुनः जल उठी।
उसके बाद पैनल पर बड़ी तेजी के साथ नम्बर जलने—बुझने शुरू हुए।
नौ।
आठ।
सात।
छः।
लिफ्ट नीचे की तरफ आ रही थी।
मेरी उंगली सख्ती से रिवॉल्वर के ट्रेगर पर जाकर कस गयी।
मेरी निगाह अपलक इंडीकेटर को घूर रही थी।
तभी झटके के साथ लिफ्ट नीचे आकर रुकी। उसमें तिलक मौजूद था। वह सफेद कोट—पैंट पहने था और ब्लू कलर की फूलदार टाई लगाए था, जिसमें उसका व्यक्तित्व काफी खूबसूरत दिखाई पड़ रहा था।
वह लिफ्ट का दरवाजा खोलकर बाहर निकला।
तभी मैंने पिस्तौल का ट्रेगर दबा दिया।
गोली चलने की ऐसी तेज आवाज हुई, मानो तोप से गोला छूटा हो। साथ ही तिलक राजकोटिया की अत्यन्त हृदयग्राही चीख भी वहां गूंजी।
गोली चलते ही मैंने ग्लास विण्डो बंद की और फौरन दरवाजे की तरफ भागी।
दरवाजे तक पहुंचते—पहुंचते मैं पिस्तौल वापस कोट की जेब में रख चुकी थी।
मैंने दरवाजा खोला और बाहर झांका।
तिलक लिफ्ट के पास औंधे मुंह पड़ा हुआ था।
मैं तुरन्त कमरे से बाहर निकल गयी।
दरवाजे को मैंने पहले की तरह ही मास्टर—की से लॉक भी कर दिया।
•••
 
गोली चलने की आवाज इतनी तेज हुई थी कि वो दूर—दूर तक प्रतिध्वनि हुई।
जो गलियारा अभी तक बिल्कुल सुनसान पड़ा हुआ था, एकाएक उस गलियारे की तरफ कई सारे कदमों के दौड़कर आने की आवाज सुनाई पड़ी।
मैं तब तक तिलक राजकोटिया के पास पहुंच चुकी थी।
मैंने देखा- गोली उसके कंधे में लगी थी और वहां से बुरी तरह खून रिस रहा था। दर्द से उसका बुरा हाल था।
“तिलक!” मैंने तिलक राजकोटिया को बुरी तरह झंझोड़ा—”तिलक!”
“म... मैं ठीक हूं।” तिलक अपना कंधा पकड़े—पकड़े कंपकंपाये स्वर में बोला—”म... मुझे कुछ नहीं हुआ।”
तभी तीन आदमी दौड़ते हुए गलियारे में आ पहुंचे।
उनमें से एक होटल का मैनेजर था और बाकी दो बैल ब्वॉय थे।
तिलक राजकोटिया की हालत देखकर उन तीनों की आंखें भी आतंक से फैल गयीं।
“किसने चलाई गोली?” होटल का मैनेजर चिल्लाकर बोला—”किसने किया यह सब?”
“म... मालूम नहीं, कौन था।” तिलक अपना कंधा पकड़े—पकड़े खड़ा हुआ—”मैं जैसे ही लिफ्ट से बाहर निकला- ब... बस फौरन धांय से गोली आकर लगी।”
“मैंने देखा था- जिसने गोली चलायी।” एकाएक मैं शुष्क स्वर में बोली।
तुरन्त मैनेजर की गर्दन मेरी तरफ घूमी।
“वह कोट—पैंट पहने आदमी था।” मैं बोली—”लेकिन वो शक्ल से बदमाश नजर आ रहा था। मैंने उसे उस तरफ भागते देखा था।”
मैंने गलियारे में दूसरी तरफ उंगली उठा दी।
तत्काल दोनों बैल ब्वॉय उसी तरफ दौड़ पड़े।
“गोली आपके कंधे के अलावा तो कहीं और नहीं लगी तिलक साहब?” मैनेजर बहुत गौर से तिलक राजकोटिया को देखता हुआ बोला।
“नहीं।”
“चलो- शुक्र है।”
तभी कुछ दौड़ते कदमों की आवाज और हमारे कानों में पड़ी, जो उसी गलियारे की तरफ आ रहे थे।
मैनेजर के चेहरे पर अब चिंता के भाव दौड़ गये।
“लगता है!” वह थोड़ा आंदोलित होकर बोला—”गोली की आवाज कुछ और लोगों ने भी सुन ली है और अब वो इसी तरफ आ रहे हैं। अगर यह बात ग्राहकों के बीच फैल गयी कि होटल में किसी बदमाश ने गोली चलाई है, तो इससे होटल की रेपुटेशन पर बुरा असर पड़ेगा।”
“फिर हम क्या करें?” मेरी आवाज में बैचेनी झलकी।
“एक तरीका है।”
“क्या?”
“आप फौरन तिलक साहब को लेकर ऊपर पैंथ हाउस में चली जाएं मैडम, मैं अभी यहां के हालात नार्मल करके ऊपर आता हूं।”
“ठीक है।”
मैंने फोरन तिलक राजकोटिया को कंधे से कसकर पकड़ लिया और फिर उसके साथ लिफ्ट में सवार हो गयी।
मैंने जंगला झटके के साथ बंद किया।
तभी दोनों बैल ब्वॉय दौड़ते हुए वहां आ पहुंचे।
“क्या हुआ?” मैनेजर ने उनसे पूछा—”क्या उस बदमाश का कहीं कुछ पता चला?”
“नहीं साहब- वह तो इस तरफ कहीं नहीं है।”
“जरूर साला भाग गया होगा।”
मैंने लिफ्ट के पैनल में लगा एक बटन दबा दिया।
तुरन्त लिफ्ट बड़ी तेजी से ऊपर की तरफ भागने लगी।
“मैं तुमसे क्या कहती थी!” लिफ्ट के स्टार्ट होते ही मैं तिलक से सम्बोधित हुई—”अब तुम्हें सावधान रहने की जरूरत है- क्योंकि सावंत भाई के इरादे ठीक नहीं हैं। वह बुरी तरह हाथ धोकर तुम्हारे पीछे पड़ चुका है।”
तिलक राजकोटिया धीरे—धीरे स्वीकृति में गर्दन हिलाने लगा।
•••
 
तिलक अब अपने शयनकक्ष में लेटा हुआ था।
दर्द के निशान अभी भी उसके चेहरे पर थे।
होटल का मैनेजर और दोनों बैल ब्वॉय भी उस समय वहीं मौजूद थे। वह थोड़ी देर पहले ही नीचे से ऊपर आये थे।
“आज तो बस बाल—बाल बचे हैं।” मैनेजर अपने कोट का ऊपर वाला बटन लगाता हुआ बोला।
वह हड़बड़ाया हुआ था।
“क्या हो गया?” तिलक ने पूछा।
“होटल के ग्राहकों के बीच यह बात पूरी तरह फैल गयी थी कि वह गोली की आवाज थी। मैं बड़ी मुश्किल से उन्हें इस बात का यकीन दिला सका कि ऐसा सोचना उनकी गलती थी। वह गोली की आवाज नहीं थी।”
“फिर किस चीज की आवाज थी वो?”
“मैंने उन्हें समझाया कि कार के बैक फायर की आवाज भी बिल्कुल ऐसी ही होती है, जैसे कोई गोली चली हो। जैसे कोई बड़ा धमामा हुआ हो। तब कहीं जाकर उन्हें यकीन हुआ। अलबत्ता एक ग्राहक तो फिर भी हंगामा करने पर तुला था।”
“क्या?”
“वो कहता था कि उसने एक आदमी के चीखने की आवाज सुनी थी। वो बड़े पुख्ता अंदाज में कह रहा था कि अगर वो कार के बैक फायर की आवाज थी, तो उसे किसी आदमी के बुरी तरह चिल्लाने की आवाज क्यों सुनाई पड़ी?”
“उससे क्या कहा तुमने?”
“मैंने उसे समझाया कि वह जरूर उसका वहम था।”
“मान गया वो इस बात को?” मैं अचरजपूर्वक बोली।
“पहले तो नहीं माना। लेकिन जब मैंने उसे यह दलील दी कि अगर होटल में सचमुच कोई गोली चली होती या वहां कोई हादसा घटा होता- तो वह नजर तो आता। दिखाई तो पड़ता। तब कहीं जाकर वह शांत हुआ। तब कहीं उसकी बोलती बंद हुई।”
“ओह!”
वाकई एक बड़ा हंगामा होने से बचा था।
होटल का मैनेजर कुर्सी खींचकर वहीं तिलक के करीब बैठ गया।
“गोली निकालने के लिए किसी डॉक्टर को बुलाया?”
“हां।” मैं बोली—”मैं एक डॉक्टर को फोन कर चुकी हूं, वह बस आता ही होगा।”
“ठीक किया।”
फिर मैनेजर बहुत गौर से तिलक राजकोटिया के कंधे के जख्म को देखने लगा।
उसमें से खून अभी भी रिस रहा था।
“हाथ तो सही हिल रहा है?”
“हां।” तिलक ने अपना हाथ हिलाया—डुलाया—”हाथ तो सही हिल रहा है, बस थोड़ा दर्द है।”
“सब ठीक हो जाएगा। शुक्र है- जो गोली सिर्फ मांस में जाकर धंसी है, अगर उसने किसी हड्डी को ब्रेक कर दिया होता, तो फिर हाथ महीनों के लिए बेकार हो जाता।”
मैंने भी आगे बढ़कर जख्म का मुआयना किया।
गोली कंधे में धंसी हुई बिल्कुल साफ नजर आ रही थी।
वह कोई एक इंच अंदर थी।
“मैं अभी आती हूं।” एकाएक मैं कुछ सोचकर बोली।
“तुम कहां जा रही हो?”
“बस अभी आयी।”
मैं शयनकक्ष से बाहर निकल गयी।
जल्द ही जब मैं वापस लौटी- तो मेरे हाथ में कोई एक मीटर लम्बी रस्सी थी।
रस्सी काफी मजबूत थी।
“इस रस्सी का आप क्या करेंगी मैडम?” मैनेजर ने पूछा।
“इसे मैं इनके कंधे पर ऊपर की तरफ कसकर बांध दूंगी।” मैं बोली—”इससे गोली का जहर पूरे शरीर में नहीं फैल पाएगा और खून का प्रवाह भी रुकेगा। जब तक डॉक्टर नहीं आ जाता- तब तक मैं समझती हूँ कि ऐसा करना बेहतर है।”
“वैरी गुड- सचमुच आपने अच्छा तरीका सोचा है।”
मैनेजर ने प्रशंसनीय नेत्रों से मेरी तरफ देखा।
जबकि मैं रस्सी लेकर तिलक की तरफ बढ़ गयी।
“आप अपना हाथ थोड़ा ऊपर उठाइए।”
तिलक ने अपना वह हाथ ऊपर उठा लिया- जिसमें गोली लगी हुई थी।
मैंने फौरन कंधे से ऊपर रस्सी कसकर बांध दी।
रस्सी कसने का फायदा भी फौरन ही सामने आया। तत्काल खून बहना बंद हो गया।
मैंने डस्टर से तिलक के कंधे पर मौजूद बाकी खून भी साफ कर दिया।
उस समय मेरी एक्टीविटी देखकर कोई नहीं कह सकता था कि मैंने ही वह गोली चलाई है।
मैंने ही तिलक राजकोटिया को उस हालत में पहुंचाया है।
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