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- Dec 5, 2013
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"आप मेरे साथ मेरे घर चलिए.....मैं आपके पति के बारे में सब कुच्छ बताता हूँ." दीवान जी घर की तरफ रुख़ करते हुए बोले.
कमला जी उनका अनुसरण करती हुई उनके पिछे चल पड़ी.
दीवान जी, कमला जी के साथ घर के अंदर दाखिल हुए.
"बैठिए बेहन जी.....!" दीवान जी हॉल में पड़े सोफे की तरफ इशारा करते हुए बोले.
कमला जी सकुचाते हुए बैठ गयी.
"कहिए क्या लेंगी आप?" दीवान जी सोफे पर बैठते हुए बोले.
"इस वक़्त कुच्छ भी खाने पीने की इच्छा नही है दीवान जी. आप कृपा करके ये बता दीजिए कि आप मेरे पति को कैसे जानते हैं? और इस वक़्त वे कहाँ हैं? आप नही जानते दीवान जी मैं उनसे बातें करने के लिए उनकी एक झलक देखने के लिए कितनी बेचैन रही हूँ."
"मैं आपकी पीड़ा समझ सकता हूँ. किंतु आप धीरज रखिए.....आज आपके सभी सवालों का जवाब मिल जाएगा." दीवान जी बिस्वास दिलाते हुए बोले - "आपको याद है जिस दिन आप हवेली में आईं थी. उस दिन मैं आपका शुभ समाचार लेने आपके कमरे में गया था."
"हां याद है, किंतु उस बात का मेरे पति से क्या संबंध है?"
"उस दिन मैने आपके कमरे में एक फोटो फ्रेम देखा था, तब मैने फोटो की तरफ इशारा करके पुछा था कि ये किन की तश्वीर है. और आपने कहा था कि वो आपके पति हैं."
"हां....मुझे याद है...." कमला जी तत्परता से बोली.
"मेरे ऐसा पुछ्ने का कारण ये था कि मैं आपके पति की तश्वीर को पहचान गया था. आपकी पुष्टि के लिए बता दूं कि उनका नाम मोहन कुमार है."
"हां......आपने ठीक कहा, उनका नाम मोहन कुमार ही है. लेकिन आप उनसे कब और कहाँ मिले थे? और यदि आप उन्हे पहले से जानते थे तो आपने अब तक ये बात हम से छुपाई क्यों?" कमला जी के मन में एक साथ कयि सवाल उमड़ पड़े.
"सही वक़्त का इंतेज़ार कर रहा था बेहन जी, और अब वो वक़्त आ गया है" दीवान जी अपने शब्दों में पीड़ा भरते हुए बोले - "मोहन बाबू से मेरी पहली मुलाक़ात देल्ही में हुई थी. मैने ही उन्हे रायगढ़ आने का न्योता दिया था."
"रायगढ़....? लेकिन किस लिए?" कमला जी दीवान जी के तरफ सवालिया नज़रों से देखती हुई बोली.
"बेहन जी.....! आज आपके सामने ये जो चमकती दमकती खूबसूरत काँच की हवेली खड़ी दिखाई दे रही है. इसका निर्माण आपके पति के ही हाथों हुआ है."
कमला जी की आँखें आश्चर्य से फैल गयी.
"आप ये तो जानती ही होंगी कि आपके पति काँच के कुशल कारीगर थे." दीवान जी ने बोलना आरंभ किया. - "जब ठाकुर साहब ने मुझसे हवेली के निर्माण की बात कही, तब मैं काँच के कारीगरों की तलाश में देल्ही गया. वहीं पर आपके पति से मुलाक़ात हुई और उन्हे कुच्छ पेशगी देकर रायगढ़ आने का निमंत्रण दिया."
कमला जी बिना हीले डुले दीवान जी की बातों को सुनती रही.
दीवान जी आगे बोले - "मेरे लौटने के तीसरे दिन ही मोहन बाबू रायगढ़ आ पहुँचे. मैने उन्हे हवेली के निर्माण संबंधी बातें बताई. अगले रोज़ वो देल्ही लौट गये. उन्हे अपने साथ काम करने के लिए कुच्छ और सहायक कारीगर की ज़रूरत थी. 2 दिन बाद जब वो आए तो उनके साथ 20 और कारीगर थे.
आते ही उन्होने निर्माण कार्य शुरू कर दिया. लगभग 20 महीने बाद हवेली का निर्माण कार्य पूरा हुआ. उन दिनो ठाकुर साहब अपनी पत्नी राधा जी के साथ बनारस में रहते थे. हवेली के निर्माण के दौरान वो महीने में एक दो बार आते, थोड़ा बहुत काम का ज़ायज़ा लेते फिर चले जाते.
जब हवेली का निर्माण कार्य पूरा हुआ. उस दिन ठाकुर साहब, अपनी पत्नी राधा देवी के साथ आए. उस दिन राधा जी की गृह प्रवेश की खुशी में हवेली को दुल्हन की तरह सज़ाया गया था. काम करने वाले सभी कारीगर जा चुके थे. सिवाए मोहन बाबू के. वे जाने से पहले ठाकुर साहब से कुच्छ ज़रूरी बात करना चाहते थे.
मैं उस पूरा दिन हवेली में ही रहा था. गृह प्रवेश के बाद.....जब लोगों की भीड़ कम हुई.....ठाकुर साहब राधा जी को हवेली दिखाने लगे. उस दिन ठाकुर साहब बहुत खुश थे. उनका खुश होना लाजिमी भी था. काँच की हवेली उनका सपना था.....जिसे उन्होने राधा जी के बतौर मूह दिखाई बनवाने का प्रण किया था.
शाम का वक़्त हो चला था. ठाकुर साहब राधा जी के साथ हॉल में खड़े थे. मैं उनके पिछे खड़ा था. वे राधा जी को काँच की बनी दीवारों को दिखाते हुए कह रहे थे. - "राधा इन दीवारों को देखो. क्या इनमें तुम्हे कुच्छ विशेषता दिखाई देती है?"
राधा जी ध्यान से काँच की दीवार को देखने लगी. किंतु उनके समझ में कुच्छ ना आया. राधा जी ने पलट कर ठाकुर साहब की तरफ अपनी निगाह घुमाई.
राधा जी को अपनी और सवालिया नज़रों से देखते पाकर....ठाकुर साहब जान गये कि राधा जी को कुच्छ भी समझ में नही आया है. - "राधा....इसके काँच के टुकड़ों में देखो. तुम्हे कहीं भी तुम्हारी ताश्वीर दिखाई नही देगी. ये इस तरह से बनाई गयी है कि किसी भी चीज़ का प्रतिबिंब इसपर नज़र नही आता."
राधा जी ने अबकी बार ध्यान से देखा. अबकी बार उनकी आँखें आश्चर्य से फैलती चली गयी. ठाकुर साहब मुस्कुरा उठे. साथ ही उन्हे ये आश्चर्य भी हुआ कि इतनी अनोखी चीज़ देखने के बाद भी राधा जी ने प्रशन्शा नही की.
"आओ.....तुम्हे और भी कुच्छ दिखाते हैं." ठाकुर साहब वहाँ से मुड़ते हुए बोले. फिर राधा जी को लेकर हवेली के विशाल कमरों की तरफ बढ़ गये. मैं उनके पिछे था.
"इन्हे देखो राधा. इसकी कारीगरी को देखो. जानती हो ये काँच हम ने फ्रॅन्स से मँगवाए हैं." ठाकुर साहब इस वक़्त अपने शयन-कक्ष में थे. ये कहने के बाद ठाकुर साहब राधा जी के तरफ देखने लगे. राधा जी काँच की अद्भुत कारीगरी देखने में मगन थी.
ठाकुर साहब इसी तरह हवेली का कोना कोना घूम घूम कर राधा जी को हवेली दिखाते रहे और हर एक काँच की विशेषता बताते रहे.
पूरी हवेली घूम लेने के पश्चात ठाकुर साहब राधा जी को लेकर अपने कमरे में वापस आए.
राधा जी गर्भवती से होने की वजह से हवेली घूमते घूमते काफ़ी थक चुकी थी.
"अब बताओ राधा, तुम्हे ये हवेली कैसी लगी?" ठाकुर साहब हसरत भरी नज़र से राधा जी को देखते हुए बोले.
"अत्यंत सुंदर.....!" राधा जी मुस्कुरकर बोली - "किंतु उस प्यार से अधिक सुंदर नही जो आपके दिल में मेरे लिए है. आपने जिस प्यार से मेरे लिए ये हवेली बनवाया है, उसी प्यार से अगर आप मेरे लिए कोई झोपड़ा भी बनवाते तब भी मुझे उतनी ही खुशी होती, जितनी की आज हो रही है."
राधा जी के जवाब से ठाकुर साहब निराश हो गये. उनकी सारी खुशियों, सारे उमंगों पर जैसे पानी फिर गया. राधा जी के द्वारा ऐसी भव्य हवेली की तुलना किसी साधारण झोपडे से किए जाने पर उनके दिल को गहरा आघात लगा. -"राधा, लगता है थकान की वजह से तुम हवेली के दरो-दीवार को ठीक से देख नही पाई हो, इसलिए इसकी तुलना एक साधारण झोपडे से कर रही हो. किंतु जब तुम इसकी अद्भुत कारीगरी को ध्यान से देखोगी तब इसकी प्रशन्शा किए बगैर नही रह सकोगी."
ठाकुर साहब के चेहरे पर उदासी की लकीर खिंच गयी थी. राधा जी को शीघ्र ही अपनी भूल का एहसास हुआ. उन्होने अपनी भूल सुधारते हुए कहा - "मेरा ये मतलब नही था. मेरे कहने का मतलब था कि आप अगर मेरे लिए प्यार से एक झोपडे का भी निर्माण करवाते तब भी वो मुझे अपने प्राणो से प्रिय होता. किंतु यहाँ तो आपने मेरे लिए साक्षात इन्द्र-महल बनवा दिया है. सच-मुच ऐसी भव्य इमारत की तो मैने कल्पना तक नही की थी."
इससे पहले की ठाकुर साहब राधा जी को कोई उत्तर दे पाते....दरवाज़े पर नौकर की आवाज़ गूँजी.
"मालिक.....मोहन बाबू आपसे मिलना चाहते हैं." सरजू बोला और सर झुकाकर उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा.
"उन्हे यहीं भेज दो." ठाकुर साहब सरजू से बोले.
उत्तर पाकर सरजू वापस लौट गया.
कुच्छ ही देर में मोहन बाबू कमरे के अंदर दाखिल हुए. अंदर आते ही उन्होने हाथ जोड़कर सभी को नमस्ते किए.
"राधा.....!" ठाकुर साहब राधा जी से बोले. - "इनसे मिलो......ये मोहन हैं. इन्होने ही इस अद्भुत हवेली का निर्माण किया है. काँच की जितनी भी कारीगरी तुम देख रही हो.....सब इन्ही के हाथों का चमत्कार है."
कमला जी उनका अनुसरण करती हुई उनके पिछे चल पड़ी.
दीवान जी, कमला जी के साथ घर के अंदर दाखिल हुए.
"बैठिए बेहन जी.....!" दीवान जी हॉल में पड़े सोफे की तरफ इशारा करते हुए बोले.
कमला जी सकुचाते हुए बैठ गयी.
"कहिए क्या लेंगी आप?" दीवान जी सोफे पर बैठते हुए बोले.
"इस वक़्त कुच्छ भी खाने पीने की इच्छा नही है दीवान जी. आप कृपा करके ये बता दीजिए कि आप मेरे पति को कैसे जानते हैं? और इस वक़्त वे कहाँ हैं? आप नही जानते दीवान जी मैं उनसे बातें करने के लिए उनकी एक झलक देखने के लिए कितनी बेचैन रही हूँ."
"मैं आपकी पीड़ा समझ सकता हूँ. किंतु आप धीरज रखिए.....आज आपके सभी सवालों का जवाब मिल जाएगा." दीवान जी बिस्वास दिलाते हुए बोले - "आपको याद है जिस दिन आप हवेली में आईं थी. उस दिन मैं आपका शुभ समाचार लेने आपके कमरे में गया था."
"हां याद है, किंतु उस बात का मेरे पति से क्या संबंध है?"
"उस दिन मैने आपके कमरे में एक फोटो फ्रेम देखा था, तब मैने फोटो की तरफ इशारा करके पुछा था कि ये किन की तश्वीर है. और आपने कहा था कि वो आपके पति हैं."
"हां....मुझे याद है...." कमला जी तत्परता से बोली.
"मेरे ऐसा पुछ्ने का कारण ये था कि मैं आपके पति की तश्वीर को पहचान गया था. आपकी पुष्टि के लिए बता दूं कि उनका नाम मोहन कुमार है."
"हां......आपने ठीक कहा, उनका नाम मोहन कुमार ही है. लेकिन आप उनसे कब और कहाँ मिले थे? और यदि आप उन्हे पहले से जानते थे तो आपने अब तक ये बात हम से छुपाई क्यों?" कमला जी के मन में एक साथ कयि सवाल उमड़ पड़े.
"सही वक़्त का इंतेज़ार कर रहा था बेहन जी, और अब वो वक़्त आ गया है" दीवान जी अपने शब्दों में पीड़ा भरते हुए बोले - "मोहन बाबू से मेरी पहली मुलाक़ात देल्ही में हुई थी. मैने ही उन्हे रायगढ़ आने का न्योता दिया था."
"रायगढ़....? लेकिन किस लिए?" कमला जी दीवान जी के तरफ सवालिया नज़रों से देखती हुई बोली.
"बेहन जी.....! आज आपके सामने ये जो चमकती दमकती खूबसूरत काँच की हवेली खड़ी दिखाई दे रही है. इसका निर्माण आपके पति के ही हाथों हुआ है."
कमला जी की आँखें आश्चर्य से फैल गयी.
"आप ये तो जानती ही होंगी कि आपके पति काँच के कुशल कारीगर थे." दीवान जी ने बोलना आरंभ किया. - "जब ठाकुर साहब ने मुझसे हवेली के निर्माण की बात कही, तब मैं काँच के कारीगरों की तलाश में देल्ही गया. वहीं पर आपके पति से मुलाक़ात हुई और उन्हे कुच्छ पेशगी देकर रायगढ़ आने का निमंत्रण दिया."
कमला जी बिना हीले डुले दीवान जी की बातों को सुनती रही.
दीवान जी आगे बोले - "मेरे लौटने के तीसरे दिन ही मोहन बाबू रायगढ़ आ पहुँचे. मैने उन्हे हवेली के निर्माण संबंधी बातें बताई. अगले रोज़ वो देल्ही लौट गये. उन्हे अपने साथ काम करने के लिए कुच्छ और सहायक कारीगर की ज़रूरत थी. 2 दिन बाद जब वो आए तो उनके साथ 20 और कारीगर थे.
आते ही उन्होने निर्माण कार्य शुरू कर दिया. लगभग 20 महीने बाद हवेली का निर्माण कार्य पूरा हुआ. उन दिनो ठाकुर साहब अपनी पत्नी राधा जी के साथ बनारस में रहते थे. हवेली के निर्माण के दौरान वो महीने में एक दो बार आते, थोड़ा बहुत काम का ज़ायज़ा लेते फिर चले जाते.
जब हवेली का निर्माण कार्य पूरा हुआ. उस दिन ठाकुर साहब, अपनी पत्नी राधा देवी के साथ आए. उस दिन राधा जी की गृह प्रवेश की खुशी में हवेली को दुल्हन की तरह सज़ाया गया था. काम करने वाले सभी कारीगर जा चुके थे. सिवाए मोहन बाबू के. वे जाने से पहले ठाकुर साहब से कुच्छ ज़रूरी बात करना चाहते थे.
मैं उस पूरा दिन हवेली में ही रहा था. गृह प्रवेश के बाद.....जब लोगों की भीड़ कम हुई.....ठाकुर साहब राधा जी को हवेली दिखाने लगे. उस दिन ठाकुर साहब बहुत खुश थे. उनका खुश होना लाजिमी भी था. काँच की हवेली उनका सपना था.....जिसे उन्होने राधा जी के बतौर मूह दिखाई बनवाने का प्रण किया था.
शाम का वक़्त हो चला था. ठाकुर साहब राधा जी के साथ हॉल में खड़े थे. मैं उनके पिछे खड़ा था. वे राधा जी को काँच की बनी दीवारों को दिखाते हुए कह रहे थे. - "राधा इन दीवारों को देखो. क्या इनमें तुम्हे कुच्छ विशेषता दिखाई देती है?"
राधा जी ध्यान से काँच की दीवार को देखने लगी. किंतु उनके समझ में कुच्छ ना आया. राधा जी ने पलट कर ठाकुर साहब की तरफ अपनी निगाह घुमाई.
राधा जी को अपनी और सवालिया नज़रों से देखते पाकर....ठाकुर साहब जान गये कि राधा जी को कुच्छ भी समझ में नही आया है. - "राधा....इसके काँच के टुकड़ों में देखो. तुम्हे कहीं भी तुम्हारी ताश्वीर दिखाई नही देगी. ये इस तरह से बनाई गयी है कि किसी भी चीज़ का प्रतिबिंब इसपर नज़र नही आता."
राधा जी ने अबकी बार ध्यान से देखा. अबकी बार उनकी आँखें आश्चर्य से फैलती चली गयी. ठाकुर साहब मुस्कुरा उठे. साथ ही उन्हे ये आश्चर्य भी हुआ कि इतनी अनोखी चीज़ देखने के बाद भी राधा जी ने प्रशन्शा नही की.
"आओ.....तुम्हे और भी कुच्छ दिखाते हैं." ठाकुर साहब वहाँ से मुड़ते हुए बोले. फिर राधा जी को लेकर हवेली के विशाल कमरों की तरफ बढ़ गये. मैं उनके पिछे था.
"इन्हे देखो राधा. इसकी कारीगरी को देखो. जानती हो ये काँच हम ने फ्रॅन्स से मँगवाए हैं." ठाकुर साहब इस वक़्त अपने शयन-कक्ष में थे. ये कहने के बाद ठाकुर साहब राधा जी के तरफ देखने लगे. राधा जी काँच की अद्भुत कारीगरी देखने में मगन थी.
ठाकुर साहब इसी तरह हवेली का कोना कोना घूम घूम कर राधा जी को हवेली दिखाते रहे और हर एक काँच की विशेषता बताते रहे.
पूरी हवेली घूम लेने के पश्चात ठाकुर साहब राधा जी को लेकर अपने कमरे में वापस आए.
राधा जी गर्भवती से होने की वजह से हवेली घूमते घूमते काफ़ी थक चुकी थी.
"अब बताओ राधा, तुम्हे ये हवेली कैसी लगी?" ठाकुर साहब हसरत भरी नज़र से राधा जी को देखते हुए बोले.
"अत्यंत सुंदर.....!" राधा जी मुस्कुरकर बोली - "किंतु उस प्यार से अधिक सुंदर नही जो आपके दिल में मेरे लिए है. आपने जिस प्यार से मेरे लिए ये हवेली बनवाया है, उसी प्यार से अगर आप मेरे लिए कोई झोपड़ा भी बनवाते तब भी मुझे उतनी ही खुशी होती, जितनी की आज हो रही है."
राधा जी के जवाब से ठाकुर साहब निराश हो गये. उनकी सारी खुशियों, सारे उमंगों पर जैसे पानी फिर गया. राधा जी के द्वारा ऐसी भव्य हवेली की तुलना किसी साधारण झोपडे से किए जाने पर उनके दिल को गहरा आघात लगा. -"राधा, लगता है थकान की वजह से तुम हवेली के दरो-दीवार को ठीक से देख नही पाई हो, इसलिए इसकी तुलना एक साधारण झोपडे से कर रही हो. किंतु जब तुम इसकी अद्भुत कारीगरी को ध्यान से देखोगी तब इसकी प्रशन्शा किए बगैर नही रह सकोगी."
ठाकुर साहब के चेहरे पर उदासी की लकीर खिंच गयी थी. राधा जी को शीघ्र ही अपनी भूल का एहसास हुआ. उन्होने अपनी भूल सुधारते हुए कहा - "मेरा ये मतलब नही था. मेरे कहने का मतलब था कि आप अगर मेरे लिए प्यार से एक झोपडे का भी निर्माण करवाते तब भी वो मुझे अपने प्राणो से प्रिय होता. किंतु यहाँ तो आपने मेरे लिए साक्षात इन्द्र-महल बनवा दिया है. सच-मुच ऐसी भव्य इमारत की तो मैने कल्पना तक नही की थी."
इससे पहले की ठाकुर साहब राधा जी को कोई उत्तर दे पाते....दरवाज़े पर नौकर की आवाज़ गूँजी.
"मालिक.....मोहन बाबू आपसे मिलना चाहते हैं." सरजू बोला और सर झुकाकर उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा.
"उन्हे यहीं भेज दो." ठाकुर साहब सरजू से बोले.
उत्तर पाकर सरजू वापस लौट गया.
कुच्छ ही देर में मोहन बाबू कमरे के अंदर दाखिल हुए. अंदर आते ही उन्होने हाथ जोड़कर सभी को नमस्ते किए.
"राधा.....!" ठाकुर साहब राधा जी से बोले. - "इनसे मिलो......ये मोहन हैं. इन्होने ही इस अद्भुत हवेली का निर्माण किया है. काँच की जितनी भी कारीगरी तुम देख रही हो.....सब इन्ही के हाथों का चमत्कार है."