hotaks444
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वह अपने बहकते कदम पर पहरा लगाती और खुद को तलाश करती हुई यह बात समझने की कोशिश करती कि कहीं दो जगह बंटी जिंदगी उसे समझा तो नहीं रही है कि दुनियावी जिंदगी से हटकर एक रूहानी जिंदगी भी होती है और इन दोनों के बीच तालमेल बिठाकर, अपनी पहली जिंदगी का विस्तार मानक दूसरी जिंदगी को जीना होगा. एक का संबंध समाज में होगा और दूसरे का उसके निज से?
आसिया के दिमाग ने दिल को समझाया मगर दिल तन को न समझा सका. यह कोशिश भी जब बेकार गई तो हिम्मत करके आसिया ने तय किया कि वह अफ़ज़ल को सब कुछ बता देगी, कुछ नहीं छिपाएगी. इस तरह तनाव में हर रातबसर करना उसके बस की बात नहीं है. उसके सारे तंतु टूट रहे हैं. वह अफ़ज़ल को सुख देने की जगह एक जिंता में डुबो देती है. फैसला कर वह उस रात आराम से सोई मग सुबह उठते ही उसे दूसरी फिक्र लग गई
"दुनिया क्या कहेगी? उसे बुरी औरत का नाम देगी, मगर उसने तो कभी अपने को अच्छी औरत कहलाने का सपना नीं देखा. सच्ची ईमानदारी ज़रूरत की बात करना बेईमानी है क्या? अच्छी औरत के परदे में वह दोहरी जिंदगी कब तक जिएगी? वह खराब औरत है, हाँ वह बदकार और आवारा औरत है." आसिया सिर पकड़कर बैठ जाती और उसे लगता कि अब इस घर में पल-भर भी ठहरना उसके लिए मुश्किल है. जब वह उठक अफ़ज़ल से बात करने जाती तो रास्ता रोककर आसमा खड़ी होती.
"इस तन की खातिर सब कुछ दांव पर लगा दिया?
"हाँ, कौन, इससे बचा हुआ है? तुम भी नहीं तुम तन को आबादी मानक घर का बहाना बनाती हो और तन को रूह से अलग देखती हो मगर मैं किसी बहाने की ज़रूरत महसूस नहीं करती हूं. मेरे लिए तन ही सब कुछ है, वही जिंदगी की हकीकत और वही मेरे जीने का लक्ष्य"
आसमन से जाने क्या-क्या वार्तालाप ख़यालों में कर जाती आसिया. अंत में उसने फैसला ले लिया कि अफ़ज़ल को अभी आराम से जाने दे मगर जिस दिन वह वापस जाएगा उसे वह अपना यह फैसला सुना देगी. इस छा: महीने के अरसे में तीनों को एका-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारी का भी अहसास हो जाएगा और वे परख भी लीं कि खुद वे कितने पानी में हैं.
अफ़ज़ल चला गया. घर सूना और दिल उदास हो गया. कई दिन सोते-जागते, थकान उतारते गुजर गए. मां और आसमा ने बहुत जोर दिया मगर वह उनके साथ नहीं गई उन्हीं यह जानकर खुशी हुई कि बेटा माना-मर्यादा का अर्थ समझने लगी है.
अब आसिया को उसके टेलीफोन का इंतजार था, खुद फोन करना उसे पसंद न था क्योंकि वह बड़े आराम से अब एक दूर खड़े दर्श्क की तरह अपने साथ होनेवाली घटनाओं और दुर्घटनाओं का अवलोकन कर सकती है. वह अंदर से इतनी बड़ी और पुख्ता हो चुकी है कि दूसरे के किए गए फैसले का केवल कारण ही नीं समझ सकती है, बल्कि उसको सम्मान देना भी जान गई है.
एक दिन दोपहर को फोन की घँटी बज उठी. बेख़याली में उसने फोन उठाया. आवाज सुनकर धक से रह गई इतने दिनों के इंतजार ने उससे उम्मीद छीन ली थी. उन खूबसूरत गुजरे क्षणें को महज एक इत्तफाक समझकर, उसकी हसीन यादों को संजोकर रखने का मन बना चुकी थी, मगर अब वह आसमा को कैसे समझाए कि उसका तजुर्बा किसी और का सच नहीं हो सकता है और कसी दूसरे का सच उसका अपना तजुर्बा नहीं बन सकता है.
"कुछ देर के लिए हो आओ न, आज महीना भर हो गया है घर से निकले, न कहीं आई-गई" सास ने पीछे से बहू की मुनहार की.
"फिर कभी", कहकर आसिया ने फोन रख दिया. वह घबरा गई थी. इन्हें क्या पता यह किसका फोन था और वे उसे कहाँ भेजने का इस तरह इसरार कर रही हैं.
दो महीने के इस लंबे बिरहा ने मिलन की इस घड़ी को नया अर्थ दे दिया था. मेंह टूटकर बरसा, प्यासी नदी उबलने लगी, आबशार दोगुने वेग से गै मगर न तपिश ठंडी पड़ी न प्यास बुझी. दोनों अपनी शक्ता, इ अपनी मजबूरी और अपनी-अपनी ज़रूरत समझ चुके थे. दोनों में से कसी ने कुछ कहने पूछने और सफाई देने की ज़रूरत नहीं नहीं महसूस की, जहाँ से बिछुड़े थे वहीं आकर फिर मिल गये थे. जैसे साथ-साथ बहना ही उनकी तकदीर हो.
"तुम्हारे इस पाक जिस्म पर आज मैं नमाज अदा करूँगा ताकि यह एबादतगाह मेरे लिए और मैं उसके लिए सदा महफूज रहूँ." कहकर वह आसिया के पहलू से उठा और उसके पैरों के पास आकर खड़ा हो गया. सीने पर हाथ रखकर नियत बांधी, फिर दोनों हाथ उठाकर खामोशी से उस खुदा को याद किया जिसका दूसरा नाम मोहब्बत है फिर रूकू में झुका और उस नंगी छाती के बीच सिजदे में गिरा.
दोनों संगमरमरी गुंबदों के बीच बालों से भरा सिर आस्ताने पर टिका, अपनी निष्ठा और वफ़ादारी की कसम आता रहा. सूरज ढलने लगा. चारों तरफ से उड़ते परिंदे थके-हारे-से इन गुंबदों में पनाह लेने लगे ताकि नई सुबह के नमूदार होने पर वे और ऊँची उड़ान भर सकें.
आसिया के दिमाग ने दिल को समझाया मगर दिल तन को न समझा सका. यह कोशिश भी जब बेकार गई तो हिम्मत करके आसिया ने तय किया कि वह अफ़ज़ल को सब कुछ बता देगी, कुछ नहीं छिपाएगी. इस तरह तनाव में हर रातबसर करना उसके बस की बात नहीं है. उसके सारे तंतु टूट रहे हैं. वह अफ़ज़ल को सुख देने की जगह एक जिंता में डुबो देती है. फैसला कर वह उस रात आराम से सोई मग सुबह उठते ही उसे दूसरी फिक्र लग गई
"दुनिया क्या कहेगी? उसे बुरी औरत का नाम देगी, मगर उसने तो कभी अपने को अच्छी औरत कहलाने का सपना नीं देखा. सच्ची ईमानदारी ज़रूरत की बात करना बेईमानी है क्या? अच्छी औरत के परदे में वह दोहरी जिंदगी कब तक जिएगी? वह खराब औरत है, हाँ वह बदकार और आवारा औरत है." आसिया सिर पकड़कर बैठ जाती और उसे लगता कि अब इस घर में पल-भर भी ठहरना उसके लिए मुश्किल है. जब वह उठक अफ़ज़ल से बात करने जाती तो रास्ता रोककर आसमा खड़ी होती.
"इस तन की खातिर सब कुछ दांव पर लगा दिया?
"हाँ, कौन, इससे बचा हुआ है? तुम भी नहीं तुम तन को आबादी मानक घर का बहाना बनाती हो और तन को रूह से अलग देखती हो मगर मैं किसी बहाने की ज़रूरत महसूस नहीं करती हूं. मेरे लिए तन ही सब कुछ है, वही जिंदगी की हकीकत और वही मेरे जीने का लक्ष्य"
आसमन से जाने क्या-क्या वार्तालाप ख़यालों में कर जाती आसिया. अंत में उसने फैसला ले लिया कि अफ़ज़ल को अभी आराम से जाने दे मगर जिस दिन वह वापस जाएगा उसे वह अपना यह फैसला सुना देगी. इस छा: महीने के अरसे में तीनों को एका-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारी का भी अहसास हो जाएगा और वे परख भी लीं कि खुद वे कितने पानी में हैं.
अफ़ज़ल चला गया. घर सूना और दिल उदास हो गया. कई दिन सोते-जागते, थकान उतारते गुजर गए. मां और आसमा ने बहुत जोर दिया मगर वह उनके साथ नहीं गई उन्हीं यह जानकर खुशी हुई कि बेटा माना-मर्यादा का अर्थ समझने लगी है.
अब आसिया को उसके टेलीफोन का इंतजार था, खुद फोन करना उसे पसंद न था क्योंकि वह बड़े आराम से अब एक दूर खड़े दर्श्क की तरह अपने साथ होनेवाली घटनाओं और दुर्घटनाओं का अवलोकन कर सकती है. वह अंदर से इतनी बड़ी और पुख्ता हो चुकी है कि दूसरे के किए गए फैसले का केवल कारण ही नीं समझ सकती है, बल्कि उसको सम्मान देना भी जान गई है.
एक दिन दोपहर को फोन की घँटी बज उठी. बेख़याली में उसने फोन उठाया. आवाज सुनकर धक से रह गई इतने दिनों के इंतजार ने उससे उम्मीद छीन ली थी. उन खूबसूरत गुजरे क्षणें को महज एक इत्तफाक समझकर, उसकी हसीन यादों को संजोकर रखने का मन बना चुकी थी, मगर अब वह आसमा को कैसे समझाए कि उसका तजुर्बा किसी और का सच नहीं हो सकता है और कसी दूसरे का सच उसका अपना तजुर्बा नहीं बन सकता है.
"कुछ देर के लिए हो आओ न, आज महीना भर हो गया है घर से निकले, न कहीं आई-गई" सास ने पीछे से बहू की मुनहार की.
"फिर कभी", कहकर आसिया ने फोन रख दिया. वह घबरा गई थी. इन्हें क्या पता यह किसका फोन था और वे उसे कहाँ भेजने का इस तरह इसरार कर रही हैं.
दो महीने के इस लंबे बिरहा ने मिलन की इस घड़ी को नया अर्थ दे दिया था. मेंह टूटकर बरसा, प्यासी नदी उबलने लगी, आबशार दोगुने वेग से गै मगर न तपिश ठंडी पड़ी न प्यास बुझी. दोनों अपनी शक्ता, इ अपनी मजबूरी और अपनी-अपनी ज़रूरत समझ चुके थे. दोनों में से कसी ने कुछ कहने पूछने और सफाई देने की ज़रूरत नहीं नहीं महसूस की, जहाँ से बिछुड़े थे वहीं आकर फिर मिल गये थे. जैसे साथ-साथ बहना ही उनकी तकदीर हो.
"तुम्हारे इस पाक जिस्म पर आज मैं नमाज अदा करूँगा ताकि यह एबादतगाह मेरे लिए और मैं उसके लिए सदा महफूज रहूँ." कहकर वह आसिया के पहलू से उठा और उसके पैरों के पास आकर खड़ा हो गया. सीने पर हाथ रखकर नियत बांधी, फिर दोनों हाथ उठाकर खामोशी से उस खुदा को याद किया जिसका दूसरा नाम मोहब्बत है फिर रूकू में झुका और उस नंगी छाती के बीच सिजदे में गिरा.
दोनों संगमरमरी गुंबदों के बीच बालों से भरा सिर आस्ताने पर टिका, अपनी निष्ठा और वफ़ादारी की कसम आता रहा. सूरज ढलने लगा. चारों तरफ से उड़ते परिंदे थके-हारे-से इन गुंबदों में पनाह लेने लगे ताकि नई सुबह के नमूदार होने पर वे और ऊँची उड़ान भर सकें.