Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा - Page 36 - SexBaba
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Desi Sex Kahani कामिनी की कामुक गाथा

“क्या? सबको? सबको मतलब?” मैं चौंक गयी।

“हम सबको पता है मैडम तेरे बारे में। सभी आ जाएंगे। खाली बोलने का देरी है।” कितनी आसानी से सलीम बोला।

“नहीं नहीं, ऐसे कैसे? कैसे होगा सब? साईट में काम तो होगा नहीं, सब के सब आ कर क्या करेंगे?” मैं घबराई।

“का करेंगे मतलब? वही करेंगे जिस काम के लिए आएंगे अऊर का।”

“त त त तो तुम्हारा मतलब……”

“हां हां, मेरा मतलब वही है जो तुम सोच रही है चोदाचोदी, और का?”

“नहीं नहीं, ऐसे में मत ही आओ।” मैं बोली। लेकिन एक गंदी सोच मेरे मन में सर उठाने लगी। क्यों न यह भी कर के देख लिया जाय? कितने मर्द होंगे? छ: कुली, जिनमें से एक कम उम्र का चिकना गांडू, तीन मिस्त्री तथा औरतों की तरह शरीर वाला सुपरवाइजर मुंडू, कुल मिला कर दस पुरुष। उनमें से दो नामर्दों को कम भी कर दिया जाय तो बचते हैं आठ। तो क्या मैं उन आठ पुरुषों को झेल पाऊंगी? शायद नहीं।

“ऐसा न बोलो मैडम।” बोदरा बोला।

“फिर कैसा बोलूं मै?”

“बुला ही लो ना, जब बात निकलिए गया है तो अब काहे का मना करना।” सलीम बोला।

“हट हरामी, मैं क्या कोई रंडी हूं?” मैं सलीम से छिटक कर अलग हो गयी।

“वईसे रंडी से कम तो हो नहीं, फिर भी, बताए दे रहे हैं, दू गो गांडू तो रहबे करेंगे, खोकोन अऊर मुंडू।”

“मुंडू सुपरवाइजर? वह भी गांडू है?” आश्चर्य तो नहीं हुआ सुनकर, फिर भी बोली मैं।

“हां, ऊ भी गांडू है। गांडू है तभी तो हम लोगों को रखा है काम में। काम तो होईए जाता है, काम के साथ साथ उसका गांड़ का भी काम हो जाता है।” रफीक मुस्कुराता हुआ बोला।

“अऊर साथ में बुरचोदी छमिया कांता तो हईए है। ऊ कम लंडखोर थोड़ी है। हम सबका लौड़ा खाती रहती है।” सलीम ने जोड़ा।

“और बाकी तीन रेजा?” मैं अब थोड़ी सहज थी।

“बाकी तीन रेजा में से एक सोमरी, उसका मरद मरियल, रेक्सा चलाता है। चुदवाती हमी लोगों से है।”

“और बाकी दो?” मैं बोली। अब मुझे उनकी बातों से मजा आ रहा था।

“बाकी दो, सुखमनी अऊर रूपा, ऊ दोनों को देखा नहीं तुमने? बड़ा बड़ा चूची अऊर बड़ा बड़ा गांड़। काली हैं तो का, चुदक्कड़ नंबर एक, इंजीनियर साहब का पसंद। हमलोग भी कभी कभी रगड़ लेते हैं ऊ लोग को। इंजीनियर साहब को पते नहीं है कि उसके लिए रिजर्व माल में भी हमलोग हाथ साफ कर लेते हैं।” सलीम फिर से मेरे नंगे बदन को बांहों में भर कर मेरी चूचियों को सहलाते हुए बोला। अब फिर रफीक और बोदरा भी मुझ से चिपक गये थे।

“आह्ह, छोड़ो मुझे। फिर से चालू हो गये तुम लोग? फिर से रगड़ने का इरादा है क्या? फिर से गरम कर दिया हरामी लोग। बस, अब टाईम नहीं है।” उनकी घेरेबंदी से अलग हो कर बोली। “समझ गयी, सब समझ गयी। मतलब यही कि तुम सब लोग कल यहां आने वाले हो। जितना सुनी, समझ गयी कि तुम सब लोग हरामी ठेकेदार के हरामी कामगार हो।” मैं मन ही मन सोचने लगी कि हरिया, करीम और रामलाल को किस बहाने से कल यहां से हटाऊँ ताकि कल यहां जो कुछ होने वाला है वह बेरोकटोक हो सके, बिना किसी व्यवधान के।

“हां, हम सब हरामी हैं और बिल्कुल आने वाले हैं कल यहां हम, लेकिन तुम्हारे यहां के ये तीन लोग?”

“इन तीनों को किसी तरह यहां से हटाऊंगी।” मैं बोली।

“तो पक्का? हम कल आ रहे हैं।” सलीम बोला।

“आओ, सब के सब आओ। मैदान खाली रखूंगी।”

“वाह, यह बात हुआ ना।” सबके सब एक स्वर में बोले और फिर से मुझे दबोच कर चूमने लगे। रफीक जहां मेरी चूचियां दबाने लगा था, वहीं बोदरा मेरी गांड़। मैं छिटक कर अलग हो गयी।

“छोड़ो मुझे हरामियों। गरम करके दुबारा चोदने का इरादा है क्या?” मैं बोली।

“हां, दे दे न, एक बार और चोदने।” सलीम कुत्ते की तरह लार टपकाती नजरों से मेरी नंगी देह को देखते हुए बोला।

“नहीं नहीं, अब कल, कल जितना चोदना है चोद लेना तुम लोग।” कहकर मैं अपने कपड़े पहनने लगी। मन मसोस कर सभी वहां से रुखसत हुए। मैं कल की योजना बनाने लगी।

आगे की कथा अगली कड़ी में। तबतक के लिए मुझे आज्ञा दीजिए।
 
पिछली कड़ी में आप लोगों ने पढ़ा कि किस तरह अपने नये भवन के निर्माण स्थल के गोदाम में, निर्माण कार्य में लगे मिस्त्रियों की हवस के आगे खुद को समर्पित कर बैठी। उन गंदे हवस के पुजारियों नें सम्मिलित रूप से बड़े ही गंदे तरीके से मेरे जिस्म को नोच खसोट कर अपनी वासना की आग को बुझाया। मैं कमीनी अपनी आदत के मुताबिक़, आरंभ में नखरे दिखाती रही, फिर वही हुआ, मेरी वासना की भूख नें उन कामुक भेड़ियों के सम्मुख खुद को परोसने को मजबूर कर दिया। अपने कामुक जिस्म की कमीनी भूख के वशीभूत बेशरमी से लुटाती रही अपने जिस्म को और खुल कर मजे लेती रही। वे खुश, तृप्त, मैं तृप्त। इस रोमांचक खेल के पश्चात बातों ही बातों में मैं जान गयी कि सभी कामगर एक ही थैले के चट्टे बट्टे हैं। मेरे प्रति उन तीनों के मनोभाव के साथ ही साथ अन्य कामगरों के मनोभावों से अवगत हुई। वे आजतक मुझे किस दृष्टि से देखते थे, उनके मन में क्या चल रहा था, इससे अवगत हुई। सोच कर ही रोमांचित हो उठी कि मेरी कमनीय देह को देखकर उनके मन में यह सब चल रहा है। अब उनका यह नया प्रस्ताव, कि कल रविवार को छुट्टी के दिन सभी आएंगे, काम करने, “मेरा काम” करने। सर्वप्रथम मैं हिचकी, असमंजस में पड़ी कि उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार करके कहीं मैं खुद को सस्ती तो नहीं बना बैठूंगी। निश्चित तौर पर मैं बेहद सस्ती किस्म की औरतों की श्रेणी में शामिल हो जाऊंगी, यह मैं जानती थी। लेकिन एक नये रोमांचक अनुभव से गुजर कर अपनी कामाग्नि शांत करने का जोखिम भरा निर्णय मुझे लेना था। जोखिम तो था, किंतु इस नये रोमांच भरे कुकृत्य में आनंद प्राप्त करने की लुभावनी कल्पना के सम्मुख मैंने हथियार डाल दिया। मेरी सहमति सुनकर उनकी प्रसन्नता का पारावार न रहा। आनन फानन सारी बातें तय हो गयीं। उस दिन मेरी देह का भोग लगा कर दूसरे दिन भी मेरी मदमस्त देह का भोग लगाने की कल्पना में डूबे, मुदित मन तीनों वहां से रुखसत हुए।

मैं जानती थी कि हरिया, करीम और रामलाल को दूसरे दिन कैसे घर से बाहर रखा जाए। उन तीनों के जाने के पश्चात जब मैंने घर के अंदर कदम रखा, संध्या का साढ़े छ: बज रहा था। अबतक रामलाल वापस नहीं आया था। उसे लेकर करीम कहीं बाहर गया हुआ था। हरिया अकेले घर में था। हालांकि मैं बाहर नल में खुद को धो धा कर साफ सुथरी कर चुकी थी फिर भी जब मैं अपने कमरे में गयी और पुनः निर्वस्त्र होकर आदमकद दर्पण में खुद को देखकर लज्जित हो उठी। बिखरे बाल, शरीर के कई हिस्सों पर सीमेंट के दाग, खासकर मेरी चूतड़ पर, मेरी गर्दन पर और बालों पर भी कई जगह। मेरे उरोज लाल हो चुके थे, कई जगह तो दांतों के लाल लाल निशान उभर आए थे। दो दो लिंगों से कूट कूट कर मेरी योनि को मालपूए की तरह फुला कर रख दिया था कमीनों नें। कुत्तों से चुदी कुतिया की तरह उभर आई थी मेरी योनि। कुल मिला कर रंडी की तरह हालत कर दी थी मेरी, उन तीनों नें मिल कर। खैर, आज तो जो हुआ सो हुआ, मगर कल का क्या? अब कल के बारे में सोचना था। आज तो सिर्फ तीन लोग थे, कल पता नहीं कितने लोग होंगे? क्या क्या होगा? सब कुछ मेरे नियंत्रण में होगा या मेरे नियंत्रण से बाहर होगा? और किस तरह उन लोगों को निपटाऊंगी? खैर जो होगा देखा जाएगा, ऊखल में सर दिया है तो मूसल से क्या डरना। मुझे खुद पर पूरा विश्वास था। मैं यही सब सोचती हुई बाथरूम में घुसी और रगड़ रगड़ कर खुद को अच्छी तरह से साफ किया। जैसे ही मैं फ्रेश हो कर अपने कमरे से बाहर निकली, रामलाल भी करीम के साथ वापस आ गया। बहुत खुश नजर आ रहे थे दोनों।

“बहुत खुश लग रहे हैं आपलोग, क्या बात है?” मैं पूछ बैठी।

“हमलोग रबिया के यहां गये थे।” करीम मुस्कुराते हुए बोला।

“ओह, तो ये बात है? तभी इतने खुश हो। मां बेटी को कूट कर आ रहे हो?”

“हां।”

“दोनों?”

“हां।”

“वाह, और सरोज को?” मैं नें यूं ही पूछ लिया।

“छोड़ दिया उसको। रबिया और शहला ही काफी थी हमलोगों के लिए।” करीम बोला।
 
सरोज को पता लगेगा तो?”

“तो क्या?”

“उसको बुरा नहीं लगेगा?”

“बुरा क्यों लगेगा? वैसे भी कल फिर हम जा रहे हैं। उससे भी मिल लेंगे।” वह बोला और मैं सोचने लगी, लो, मैं झूठ मूठ का परेशान हो रही थी कि इनको कल कैसे घर से बाहर रखूंगी।

“वाह रे बुढ़ऊ, कल फिर? आपने तो आज रबिया को ही निपटाया होगा?”

“नहीं नहीं, रबिया तो रामलाल से ही उलझी हुई थी। शहला मुझ पर मरी जा रही थी।”

“वाह, उस लौंडिया को बुढ़ऊ पसंद है? आप तो बड़े खुशकिस्मत निकले। उस लौंडिया को बुड्ढा पसंद आया, वाह, आपकी तो निकल पड़ी।” मैं बोली।

“बार बार बुड्ढा बोल कर मेरी बेईज्जती न कर। अभिए पटक के चोद दूंगा हरामजादी।” ताव में आ गया करीम।

“ज्यादा ताव खाने की जरूरत नहीं है। मैं तो यूं ही मजाक कर रही थी।” मैं मुस्कुरा कर बोली।

“कल भी जाएंगे। कल शहला की भी छुट्टी है ना।दिनभर का प्रोग्राम है।” करीम बोला।

“मैं भी जाऊंगा कल इनके साथ। कल सरोज को भी नहीं छोड़ेंगे।” हमारी बातों के बीच हरिया भी कूद पड़ा। वह भी वहां पहुंच कर हमारी बातें सुन रहा था। वाह रे ऊपर वाले, कैसी कैसी योजना बना लेते हो तुम? कहाँ तो मैं इन सबको कल घर से बाहर रखने के लिए जुगत सोच रही थी और कहाँ ऊपरवाले नें इसकी व्यवस्था खुद ब खुद कर दी।

अंदर की खुशी को किसी प्रकार छुपाती हुई प्रत्यक्षतः बोली, “हरामियों, छुट्टी के दिन तुमलोगों की मस्ती चढ़ रही है? कहीं नहीं जा रहे हो तुमलोग।”

“हम तो जाएंगे जरूर।” अब हरिया बोला।

“ठीक है, जाओ तुम सब भाड़ में, मरो सालो।” मैं रोष से बोली।

“हाय हाय, गुस्सा हो गयी हमारी छम्मकछल्लो मैडम?” रामलाल जो अबतक चुप था, मुझ से लिपट कर बोला।

“चलिए हटिए, बड़े आए हैं लल्लो चप्पो करने। छोड़िए मुझे” मैं नाराज होने का ड्रामा करती हुई छिटक कर अलग होने की कोशिश करने लगी।

“नहीं छोड़ता जा। क्या कर लोगी आप?” मुझे कस के दबोच कर चूमते हुए बोला वह। अब मैं उसकी बांहों में कसमसाती पिघलने लगी थी। फिर से उफान मारने लगीं मेरे अंदर की वासना की तरंगें।

“ओह, पागल, छोड़िए मुझे, उफ।” मैंने बड़ी मुश्किल से अपने अंदर की उफान मारती वासना की तरंगों पर नियंत्रण पाया और पूरी शक्ति लगा कर खुद को उसके चंगुल से मुक्त किया और कहा, “बड़े कमीने हो तुमलोग। अभी मुझे छोड़कर रबिया और शहला को नोचने गये थे, जी नहीं भरा जो अब मेरे पीछे पड़ गये हरामियों।”

“अरे मैडम जी, तुम तो देती ही बड़ी मुश्किल से हो, तो जाएं कहां? चले गये जहां हमें मिलने की गुंजाइश थी। अब इसमें हम क्या करें?” बड़ी मासूमियत से रामलाल बोला।

“तो वहीं रह जाते, सरोज को भी ठोक आते।” मैं तनिक रुष्ट दिखा रही थी अपने को।

“अच्छा छोड़िए गुस्सा। तरसाती भी हो और गुस्सा भी करती हो। चलिए अभी तुम्हारा गुस्सा शांत कर देता हूं। देखिए खड़ा हो गया मेरा।” अपने पैंट के अग्रभाग की ओर इंगित करते हुए बोला रामलाल।

“खाली तुम्हारा? मादरचोद, हमारा भी खड़ा हो गया।” हरिया बोला।

“तो मैं क्या करूं?” मैं कलप कर बोली।

“करना क्या है रानी बिटिया, बस, दे दे चोदने।” साला बेटीचोद ठरकी बुढ़ऊ हरिया बोला। “ये दोनों मुझे यहां अकेले छोड़कर गये और चोद आए मां बेटी को। यहां साला मेरा लंड इतनी देर से इनकी बकवास सुन सुन कर उठक बैठक कर रहा है।” मेरे पैर ठिठक गये उसकी बात सुनकर। उस चुदक्कड़ बुड्ढे बाप पर तरस आ गया मुझे।

“और अभी रात का खाना क्या तेरा बाप बनाएगा बेटीचोद?” मैं मुड़ कर वापस आई और हरिया से लिपट कर बोली।

“पहले अपनी चूत खिला दे मां की लौड़ी, खाना तो दो मिनट में बन जाएगा। मुंह से बाद में खा लेना, पहले चूत से मेरा लौड़ा तो खा मेरी रानी बिटिया।” खुशी से मुझे अपनी बांहों में समेट कर चूमते हुए बोला। इसी तरह कभी कभी मैं अपने तन को उन बुड्ढों के आगे बिछा देती थी, आखिर मेरी कमसिन उम्र में ही औरत बनाने वाले यही लोग तो थे। मेरे दादाजी, बड़े दादाजी तथा नानाजी के साथ मेरी उतनी कम उम्र में, अल्पविकसित कली से फूल बनाने वाले, एक नादान बाला से औरत बनाने वाले, सम्मिलित रूप से साझा भोग्या बना कर मेरे तन में कामुकता की आग जगा कर उसी अल्पव्यस्क उम्र में संभोग सुख प्रदान करन वालों में से ले दे कर यही दो तो बचे थे। हरिया और करीम। दादाजी, बड़े दादाजी और नानाजी तो कब के काल कवलित हो चुके थे। अपनी जवानी इन लोगों के हवाले करके मैं कितनी निर्द्वन्द्, निश्चिंत अपने कैरियर संवारती गयी और आज इस मुकाम पर पहुंची हूं। अपनी कमसिन देह लुटाने का तनिक भी मलाल नहीं था, बल्कि खुश थी, बेहद खुश थी, बेहद संतुष्ट तथा आभारी थी उनकी। आभार स्वरूप मैं अपना तन उन्हें सौंपती थी, हालांकि मुझे घर से बाहर मर्दों की कमी कहाँ थी। फिर भी चल रहा था सब कुछ निहायत आत्मीयता तथा भावनात्मक जुड़ाव सहित।
 

“तो? अभिए?” मैं हरिया से लिपटी बोली।

“हां, अभिए।” वह बूढ़ा बड़ी जल्दी बाजी में खड़े खड़े मेरी देह को निर्वस्त्र करने लगा। छिलके की तरह मेरी देह का आवरण हटता गया और वहां उपस्थित तीनों मर्दों की आंखों में वही पुरानी जानी पहचानी हवस भरी चमक नृत्य करने लगी। अंतिम आवरण, ब्रा और पैंटी के हटने की देर थी, टूट पड़े मुझ पर गिद्धों की तरह। कोई चूम रहा था, कोई मेरी चूचियां और नितंब दबा रहा था और कोई सीधे मेरी योनि पर अपनी उंगलियों के जादुई स्पर्श से मेरी कामुकता की ज्वाला धधका रहा था। उफ उफ, कुछ देर पहले की उन मिस्त्रियों के नोच खसोट से हलकान मेरे शरीर में मानों नवजीवन का संचार हो गया। पगला गयी मैं।

“ओह राजा, उई मां, आह आह, अब बस ओह बहुत हो गया आह सालों चुदक्कड़ों, आह ओह, अब चोद भी डालो आह।” मेरी धौंकनी की तरह चलती सांसों के साथ मैं बोली।

“हां हां रे हमारी बिटिया रानी, बस अब तैयार हो जा।” हरिया नें समय गंवाने की जहमत नहीं उठाई। अपने पैजामे के नाड़े को खोला, और लो, कमर से नीचे हो गया नंगा। अंदर कुछ नहीं पहना था मेरा बाप। फनफनाए लंड के साथ मुझे लिए दिए सोफे पर ही लंबा हो गया। मैंने खुद को समर्पित कर दिया था, जो करना है कर लो। उसने मेरी दोनों टांगें ऊपर उठा कर अपने कंधे पर चढ़ाया और अपने तने हुए लिं का सुपाड़े को मेरी यौनगुहा के प्रवेश द्वार पर ज्यों ही रखा, उफ ओह, भूल ही गयी कि कुछ देर पहले मैं तीन तीन कमीनों से चुद चुकी थी। बेताबी से अपनी कमर उछाल कर गप्प से उसके लिंग को खा गयी अपनी चुदी चुदाई चूत में।

“आ्आ्आ्आ्ह,”

“हां ओह रंडी बिटिया हां, खा खा मेरा लौड़ा, हुं हुं हुं हुं हुं हुं,” गपागप ठोंकने लगा मुझे।

“ओह रज्जा।”

“ओह मेरी बिटिया रानी।” इधर रामलाल और करीम मेरी देह के बाकी हिस्सों पर हाथ फिरा फिरा कर और भी पागल किए दे रहे थे।

“ओह्ह्ह्ह्ह्ह मा्ं्मां्मां्आं्आं्आं आं आं आं, ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ गयी्यी्यी्ई्ई्ई्ई्ई” मैं पांच मिनट में ही खल्लास हो गयी, इतनी उत्तेजित हो चुकी थी मैं। लेकिन हरिया कहां, वह तो लगा हुआ था भका भक चोदने।

“गयी साली कुतिया, अभी कहाँ, खाती रह मेरा लौड़ा तेरी मां की चूत, मां की लौड़ी चूतमरानी रांड।”बोलते हुए चोदता रहा और मैं चुदती रही, उसकी कमर को अपनी टांगों से लपेटे।

“आह् हां हां हां हां आह्ह, नजरों के आगे नुनु नचा कर नानी को नोचते उसके भोंसड़े का भुर्ता बनाने वाले चोदू भालू, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, मेरी नानी की नाक के नीचे मेरी मां की मुनिया को मथने वाले मादरचोद मां के लौड़े, इस्स्स्स अपनी बेटी की चूत की चटनी बना चूत के चटोरे चूतिए बेटी चोद, चोद आह्ह, चोद ओह्ह्ह्ह्ह्ह मेरे बा्आ्आ्आप, चोद बेटीचोओ्ओ्ओ्ओ्ओद आ्आ्आआ्ह्ह्ह्ह।” मैं मस्ती में भर कर बेगैरत वेश्या की भांति बेहद घृणित अल्फाज निकालते हुए न जाने किस किस उपाधी से विभूषित कर रही थी हरिया को और बेशर्मी की हद को पार करती सड़क छाप आवारा कुतिया की भांति आनंद विभोर अपनी कमर उछाल उछाल कर हरिया के हर ठुकाई का प्रत्युत्तर दिए जा रही थी।

“वाह्ह्ह्ह्ह्ह वाह्ह्ह्ह्ह्ह, ये हुई ना रंडी वाली बात।” करीम मेरे गालों को नोचते हुए बोला। अबतक वे दोनों भी नंगे हो चुके थे और अपने खूंखार लिंगों का प्रदर्शन करते हुए हरिया के फारिग होने का बड़ी बेकरारी से इंतजार कर रहे थे।

करीब बीस मिनट बाद, आ््आआ््आआ््हह्ह्ह्ह्ह्ह स्स्स्स्स्साआ्आ्आ्आ्आली्ई्ई्ई्ई् रंडी्ई्ई्ई्ई्ई आ्आ्आ्आ।” आहें भरते, हांफते कांपते, मुझे निचोड़ते हरिया स्खलित हुआ।

“ओह रज्जा, आ्आ्आ्आ्ह,” मैं आनंदित मुद्रा में आंखें बंद किए स्खलन के सुख में डूबी हुई थी, तभी हरिया का स्थान करीम नें लिया। इधर हरिया का लिंग भींगे मुरझाए चूहे की तरह फुच्च से मेरी से मेरी योनि से बाहर निकला कि पल भर में करीम का टनटनाया खतना किया हुआ लिंग भच्चाक से घुस्स्स्स्स्स्स गया, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, आ्आ्आ्आ्ह। क्या करती मैं? छोड़ दिया खुद को उस कामुक बूढ़े के रहमो करम पर। फिर शुरू हुआ सटासट चुदाई का दूसरा दौर। मुझे नोचते खसोटते, रगड़ते घसड़ते, चोदता रहा अपने खतना किये लिंग से, कूटता रहा, भोगता रहा। करीब आधे घंटे की भीषण चुदाई से मुझे बेहाल कर दिया। उसने मुझे कुतिया की तरह चौपाया बना कर पीछे से चोदा। मेरी चूचियों को आटे की तरह गूंथता हुआ चोदा। मेरी गर्दन को कुत्ते की तरह काटते हुए चोदा। उफ्फो्ओ्ओ्ह्ह, और मैं चुदती रही चुदती रही, लंडखोर कुतिया की तरह। मैं पगली उस चुदाई में भी मगन, मजा ले रही थी। जब उसने मुझे चोद कर छोड़ा, मैं थकान के मारे खुद को संभाल भी नहीं पायी और धम्म से सोफे पर ही मुंह के बल गिर पड़ी। अभी मैं सांसें संयमित भी नहीं हो पायी थी कि अधपगला रामलाल शिकारी कुत्ते की तरह मेरी थकान से निढाल शरीर पर टूट पड़ा।

 

“हां अब मेरी बारी।” प्रतिरोध में अक्षम, मेरे अधमरे नंगी देह पर छाता हुआ बोला। मेरा शरीर अभी भी सोफे पर औंधे मुंह पड़ा था। रामलाल नें मेरी कमर पकड़ कर उठाया और अपने साढ़े ग्यारह इंच का भीमकाय मूसल मेरी चुद चुद कर पावरोटी सरीखी योनि में ठूंसने का उपक्रम करने लगा।

“आ्आ्आ्आ्ह, ननननहीं्ई्ई्ई्ई्ईं्ईं्ई़।” मेरी मरी मरी आवाज थी।

“क्या नहीं नहीं, इतने दिन बाद तो ढंग से चोदने दो मैडम। रबिया, शहला और सरोज के मुकाबले हमारी परी मैडम, ले लीजिए हमारा भी लौड़ा। आपको चोदने का मजा ही और है। ले ले्ए्ए्ए्ए्ए्ए आ्आ्आ्आ, ओ्ओ्ओ्ओह्ह्ह्ह ये गय्य्य्य्या्आ्आ्आ्आ्ह्ह््ह, ओह मेरी लंडरानी मैडम।” बोलता बोलता घुसाता चला गया, सर्र से। मैं इस तीसरे हमले से कलप उठी। मेरा सर अब भी सोफे पर टिका था, हाथों में इतनी शक्ति नहीं थी कि हाथों के बल चौपाया भी बन पाऊं। मेरी कमर रामलाल की मजबूत पकड़ में थी, चूतड़ हवा में। उसी अवस्था में लगा भकाभक चोदने। अजब दृष्य था। ऐसा लग रहा था मानो कोई भूखा शेर एक निर्जीव हिरण के शरीर को भंभोड़ रहा हो।

“आ्आ्आ्आ्ह धीरे, ओ्ओ्ओ्ओह्ह्ह्ह आराम से आ्आ्आ्आ्ह।” मैं कराहती हुई बुदबुदा उठी। लेकिन अब कहाँ धीरे और आहिस्ते, भूखा शेर अपनी काम ज्वाला में धधकता, नोचने खसोटने पर उतारू हो चुका था।

“हुम्म्म्म्म्म्म, हुम्म्म्म्म्म्म, हुम्म्म्म्म्म्म, क्या धीरे, हुम्म्म्म्म्म्म, क्या आहिस्ते, हुम्म्म्म्म्म्म, ले मेरा लौड़ा हुम्म्म्म्म्म्म, अह्ह्ह्हा अह्ह्ह्हा, चुद बुरचोदी मैडम हुम्म्म्म्म्म्म, कुत्ती मैडम हुम्म्म्म्म्म्म, रंडी मैडम हुम्म्म्म्म्म्म, हुं हुं हुं हुं।” किसी रोबोट की तरह भयानक रफ्तार से फचफच चोदने में तल्लीन, अनाप शनाप बके जा रहा था। उस अल्पबुद्धी नर को औरतों के तन का ऐसा चस्का लग चुका था कि चुदाई के वक्त औरतों का शरीर उसके लिए चुदने वाली गुड़िया से ज्यादा और कुछ नहीं थी, उस पर तुर्रा यह कि चुदाई के दौरान उपयुक्त गंदी गंदी गालियां भी सीख गया था। औरतों के मन की भावनाओं से उसे कुछ लेना देना नहीं था, औरत मतलब चूत और चूत मतलब चोदना, बस, और कुछ नहीं। अच्छा ही है, भावनात्मक जुड़ाव वाले ही दूरियां, अलगाव तथा बिछुड़न के गम में गमगीन रहते हैं। अपने में मस्त, बालसुलभ स्वभाव, किंतु औरतखोरी के वक्त भावनाशून्य पशु की तरह उसका व्यवहार। कुछ पलों तक हलकान होती रही, फिर जैसा कि आप सभी जानते हैं, शनैः शनैः मेरे शरीर में नवजीवन का संचार होने लगा और रामलाल के कामुक कृत्य से मुझ कमीनी के अंत:करण में स्थित कुत्सित कीड़े की कुलबुलाहट से कलकलाती हुई जैसे ही पूर्ण जागृत हुई, वहां का माहौल बद से बदतर कर बैठी मैं।

“चोद चूत के चटोरे चूतखोर चुदक्कड़, चोद आह लठ्ठधारी लठैत सरीखे लंड वाले लंडराज, मां के लौड़े, ठोंक आह ठीक से ठुकाई ठोंक मादरचोद, आ्आ्आ्आ्ह ओ्ओ्ओ्ओह्ह्ह्ह ससेट सटासट स्स्स्साले्ए्ए्ए सरिया ससेट, मार मार मेरी चू्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊत, चोद मेरी बू्ऊ्ऊऊ्ऊ्ऊर, बना आह्ह, बना मेरी बू्ऊ्ऊ्ऊर का भोंसड़ा, कमीने, कुलकलंक, कुच्चड़ कुत्ते, कर कचकचा कर इस कुतिया का कचरा, आ आ आ आ चुदक्कड़ रज्ज्ज्ज्जा्आ्आ्आ्आह।” मैं अपनी गांड़ उछाल उछाल कर चुदते हुए अपने गंदे कल्फाज से उस माहौल और भी गंदा करने लगी। करीब बीस पच्चीस मिनट की उस भीषण चुदाई के पश्चात लगा झड़ने वह चुदक्कड़ पागल।

“आ्आ्आ्आ्ह आ्आ्आ्आ्ह, आ्आ्आ्आ्ह, आ्आ्आ्आ्ह।” मेरी कमर को किसी कुत्ते की तरह जकड़ कर तीव्र वेग से लगा छर्र छर्र छर्रा छोड़ने अपने वीर्य का। गरमागरम लावा मेरी कोख में भरता रहा, भरता रहा और मैं आनंद के सागर में डूबती अपनी योनि में उसके वीर्य का कतरा कतरा जज्ब करती रही, बेशकीमती धरोहर की मानिंद। पूर्ण तृप्ति का अहसास रामलाल के चेहरे पर था और मुझ बेगैरत गलीज कुतिया के चेहरे पर भी। मेरे निढाल शरीर को उसी सोफे पर धम्म से छोड़ा रामलाल नें और मैं पूर्ववत मुंह के बल पड़ गयी। मेरे निष्प्राण से शरीर को उसी तरह छोड़ कर तीनों चुदक्कड़ खिसक लिए थे। मैं वहां उसी प्रकार नंगी भुजंगी, चुदी चुदाई, थकी मांदी पड़ी रही करीब घंटे भर। करीब घंटे भर बाद हरिया की आवाज सुनी मैं।

हरिया मुझे चोद चाद कर चल दिया था कब का और अपने काम में लग चुका था। खाना तैयार होते ही मेरे पास आ कर बोला, “इस तरह गोल गोल गांड़ दिखाती हुई पड़ी मत रह बुरचोदी बिटिया, नहीं तो अब तेरी चिकनी गांड़ में भी शुरू हो जाएंगे हम। उठ बुरचोदी, खाना तैयार है। इसी तरह नंगी खाने का इरादा है क्या? ऐसा है तो अपने लंड मेेंं बैैैठा कर खिलाएंगे हम।”

“साले बेटीचोद, बेटी की बुर चोद के पेट नहीं भरा, बात करता है गांड़ चोदने की।” मैं बड़बड़ाती हुई सोफे से उठी और सीधे बाथरूम में घुस गयी। बाथरूम में मैं ने सिर्फ हाथ मुंह धोया। शरीर के किसी और हिस्से में पानी तक लगने नहीं दिया, इसलिए इन तीनों मर्दों के शरीर के पसीने से तर मेरा तन वैसा का वैसा ही था। उनका पसीना मेरे तन पर सूख चुका था। उनका वीर्य मेरी योनि के मुहाने पर, नीचे मेरी जांघों पर बहकर सूख चुका था। उनके शरीर की मिली जुली गंध से मेरा तन महक रहा था। मैं इस दुर्गंध से मुक्त होना भी नहीं चाहती थी। करीब आधे घंटे बाद मैं खाने की मेज पर थी। तीनों हवस के भूखे भेड़िए पहले से मौजूद थे और मुझे देख कर मुस्कुरा रहे थे।

“अब मुझे देख कर दांत मत दिखाओ तुमलोग, खाना खाओ चुपचाप।” मैं उनकी हंसी से झल्ला कर बोली। मैं वैसी ही गंदी हालत में खाना खा रही थी। हम सभी खाना खा कर अपने अपने कमरे में चले गये। मेरे मन में अगामी कल जो होने वाला था, उसकी सोच घूम रही थी। मैं एक गंदी सी चादर का बिछावन फर्श पर ही बिछा कर सोने की तैयारी करने लगी। संध्या करीब साढ़े चार बजे से लेकर करीब आठ बजे तक छ: मर्दों से मसली गयी थी किंतु फिर भी अब दूसरे दिन जो कुछ मेरे साथ घटने वाला था, उसके अनजाने रोमांच की कल्पना के साथ, इस बात से बेखबर कि कामुकता के इस दलदल में मैं कितनी अंदर धंस जाऊंगी, खुद को कितनी सस्ती बना बैठूंगी, कब निद्रा देवी के आगोश में समा गयी पता ही नहीं चला।
 
पिछली कड़ी में आपलोगों नें पढ़ा कि किस तरह मैं ऑफिस से लौट कर अपनी वासना की आग बुझाने हेतु अपने यहां के कामगरों में से तीन मिस्त्रियों की हवस की शिकार बनी, उसी गोदाम में, जहां एक दिन पहले सलीम मियां नें मेरे तन का रसपान किया था। उस दिन तो एक था, आज तीन। उन तीनों नें उसी गंदे गोदाम में बेहद गंदे तरीके से मेरे तन को नोचा, खसोटा, भोगा और मैं मुदित मन नुचती रही। उनसे नुच चुद कर बेहाल, अपनी सांसों पर अभी नियंत्रण भी नहीं पायी थी कि एक घृणित प्रस्ताव सलीम की ओर से आया और बिना सोचे समझे, अपनी वासना की भूख और रोमांच की चाह में स्वीकार बैठी। सारे कामगरों से मेरे तन को साझा करने के उस घृणित प्रस्ताव को कबूल बैठी। उनके रुखसत होते ही मैं आ गिरी अपने ही घर के अंदर उपस्थित तीन कामुक भेड़ियों की बांहों में। हरिया की बेचारगी भरी मुद्रा और प्रणय निवेदन के आगे नतमस्तक, एक एक करके हरिया, करीम और रामलाल के साथ रासलीला रचाने को वाध्य हुई। पहले तीन मिस्त्रियों की नोच खसोट और तत्पश्चात इन तीन कामांध कामपिपाशुओं की चेष्टाओं में सहभागी होकर अपने तन की अदम्य भूख मिटाते मिटाते निढाल हो गयी।

ऊपरवाले का करिश्मा तो देखिए, दूसरे दिन मेरी पूर्व निर्धारित योजना को सरल बनाने हेतु इन तीनों, हरिया, करीम और रामलाल को घर से बाहर रखने का उपाय भी कर दिया। छुट्टी के दिन उन औरतखोरों नें खुद ही दिनभर सरोज, रबिया और शहला के तन का भोग लगाने का निर्णय ले लिया। खुश हो गयी मैं कि दूसरे दिन जो घृणित खेल यहां होने वाला था, खुद ब खुद निष्कंटक हो गया।

दूसरे दिन का प्रभात एक नया प्रभात था। छ: बजे मेरी नींद खुली। मैं चाहती थी कि ये तीनों जितनी जल्दी यहां से दफा हों उतना अच्छा। कहीं ऐसा न हो कि इनके जाने के पहले ही ‘कामगरों’ के आने का तांता आरंभ हो जाय। ऊपरवाला भी कितना बड़ा अंतर्यामी है, मेरी मनोदशा को समझकर सब योजना तय कर चुका था। यथासमय ये तीनों औरतखोर नाश्ता करके गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गये। अब मैं निर्द्वंद्व, निश्चिंत, स्वच्छंद, स्वतंत्र थी अपनी कमीनी हरकत के लिए। मैंने मैदान साफ देख कर अपनी एक पूर्व परिचित मेकअप आर्टिस्ट को फोन करके फौरन बुला लिया और मेरा मेकअप करने को कहा। जैसा जैसा मैं कहती गयी वैसा ही करती गयी। मेरे चेहरे से लेकर गर्दन से काफी नीचे तक मेरे चमड़े का रंग सांवला हो गया। चेहरा मेरा एक देहातिन की तरह हो गया था। करीब घंटे भर में मैं काफी बदल गयी थी। बाल मेरे तनिक घुंघराले हो गये थे।

उस मेकअप आर्टिस्ट, रेहाना की जिज्ञासा, “क्या बात है कामिनी, आज इस तरह मेकअप का क्या अर्थ है?”

“कुछ नहीं, बस यूं ही मन किया।” मैं बोली।

“मैं जहां तक तुम्हें जानती हूं, तेरा कोई काम यूं ही नहीं होता है। बता ना।” वह तो पीछे ही पड़ गयी थी।

“बताऊंगी बाबा बताऊंगी, लेकिन काम होने के बाद।”

“क्या ऐसा काम है जरा मैं भी तो सुनूं।”

“बोली ना, काम होने के बाद बताऊंगी।”

“तुम जरूर कुछ खुराफात करने वाली हो।”

“हां करने वाली हूं खुराफात। अब हुई तसल्ली?”

“मुझे टाल रही हो तुम।”

“हां टाल रही हूं। अब तुम फूटो जल्दी यहां से।” रेहाना अच्छी मेकअप आर्टिस्ट तो थी ही, मेरी हम उम्र सहेली भी थी। कुछ हद तक हमराज भी थी। नामकुम में ही रहती थी। उसका एक ब्यूटी पार्लर था रांची मेन रोड में।

“कुछ तो गड़बड़ करोगी।”

“हां करूंगी। अब तुम भागो यहां से। कल बताऊंगी सब कुछ। ठीक है?”

“ठीक है ठीक है, अभी तो जाती हूं। कल मिलती हूं, बॉय। वैसे तुम बहुत गंदी महक रही हो।” जाते जाते वह बोली।

 

“साली तू भागती है कि नहीं। ओके, चल बॉय।” चलो पीछा छूटा। मेकअप समाप्त होते होते करीब आठ बज गये थे। अब मजदूरों के आने का समय हो चला था। जल्दी से रेहाना को रुखसत करके मैं अब तैयार होने लगी। आज मैं फ्रेश नहीं होना चाहती थी। गंदी ही रहना चाहती थी। शरीर पर गंदी महक बरकरार रखना चाहती थी। गंदे कपड़े पहनना चाहती थी। पुराने कपड़ों की ढेर से एक पुरानी सी साड़ी खोज निकाली और पुराना ब्लाऊज, पुराना पेटीकोट, अंत:वस्त्र भी फटे पुराने, मटमैली ब्रा, गंदी फटी पैंटी। सिर्फ ब्रश किया था सवेरे उठकर बस। बिना कंघी किए अपने घुंघराले हो चुके बालों को समेट कर यूं ही कामचलाऊ जूड़े की शक्ल दे दी थी मैंने। तैयार हो कर दर्पण के सम्मुख खड़ी हुई तो एकाएक खुद को ही पहचान नहीं पाई। परिधान और हुलिया किसी रेजा या कामवाली बाई से भी बदतर था। बस हो गयी मैं तैयार, आने वाले मुसीबत या होने वाले रोमांचक मजे के लिए। अब मैं क्या करूंगी, जो करना है वे करेंगे, मैं तो बस सहयोग करूंगी, आखिर सहमति तो दे ही चुकी थी अपनी। पता नहीं कैसे और क्या क्या होना था, यह तो उस समय की परिस्थिति और माहौल पर निर्भर था। जो भी होने वाला था, उसके लिए मानसिक रूप से खुद को तैयार कर चुकी थी। होना भी आखिर क्या था? अंकशायिनी ही तो बनना था मुझे उनकी, लेकिन किस तरह से, पता नहीं। खेली खाई तो थी ही मैं। न जाने किन किन परिस्थितियों से गुजर चुकी थी मैं, उनको निबटा नहीं पाऊंगी क्या? आत्मविश्वास की कमी भी नहीं थी मुझमें। अपनी क्षमता पर भी पूरा भरोसा था। बस यही था कि इस समय मैं कोई योजना नहीं बना रही थी। मेरी समझ से योजना तो ऊपर वाला बना चुका था। इस वक्त मैं ठान चुकी थी कि बिना किसी पूर्व योजना के यथा परिस्थिति अपने साथ जो होना है उसे होने दूं। ऊपरवाला परिस्थितियां पैदा करता जा रहा था, योजना बनाता जा रहा था तो मैं भला कौन होती हूं अपने दिमाग को व्यर्थ कष्ट देने वाली। अब जो होगा सो होगा। एक अनजाने रोमांच से रूबरू होने की कामना थी और उसी में नये किस्म के आनंद के प्राप्ति की जुगुप्सा थी। मन ही मन बोली, “ऊपरवाले, तू देख रहा है ना, अब आगे जैसी तेरी मर्जी।”

भीतर ही भीतर रोमांचित हो रही थी। धमनियों में रक्त का संचार तूफानी गति से हो रहा था। दिल की धड़कनें पल प्रतिपल बढ़ती ही जा रही थीं। मैं घर के सामने वाले बगीचे में फूलों के पौधों की कटाई छंटाई में व्यस्त थी।

“ओय।” तभी मुझे गेट पर से सलीम की आवाज सुनाई पड़ी।

“का है?” मैं गेट की तरफ देखती हुई बोली। मैं आवाज भी थोड़ी बदल कर बोल रही थी। बोलने का लहजा ठेठ देहाती। हुलिया तो खैर बिगड़ा हुआ था ही। एक बार में पहचान पाना थोड़ा मुश्किल था।

“गेट खोल।” सलीम बोला। सलीम के साथ रफीक और बोदरा भी थे। बाकी लोग नजर नहीं आ रहे थे।

“काहे?”

“अरे काम करने आए हैं।” रफीक बोला।

“ओ आप लोग ही यहां काम करने आते हैं?” मैं मजा ले रही थी।

“अरे तू है कौन? जा मालकिन के बुला ला।” बोदरा बोला।

“मालकिन नाही है। ऊ बाहर गयी है।”
 

“अईसे कईसे? ऊ हमको बुला के अईसे कईसे जा सकती है।” सलीम तनिक मायूस दिखने लगा था अब। वे तीनों अच्छे से, अपने हिसाब से बन ठन कर आए थे।

“अब कईसे जा सकती है ऊ हम का जानें। ठीक है, आपलोग आईए अंदर और मालकिन का इंतजार कीजिए।” मैं गेट खोलते हुए बोली। सलीम मुझे घूर घूर कर देख रहा था।

“तू है कौन?” सलीम से रहा नहीं गया।

“कामवाली, अऊर कौन? चांदनी नाम है मेरा।” मैं गेट बंद कर के कूल्हे मटकाती हुई उनके आगे आगे घर की ओर बढ़ी।

“इससे पहिले तो नहीं देखे तुमको?”

“आज ही तो आए हैं हम गांव से।”

“तू और मैडम में कोई रिश्ता है का?”

“काहे?”

“थोड़ी थोड़ी मैडम जैसी दिखती हो, इसी लिए पूछा।”

“हां, हम उसकी चचेरी बहिन हैं। गांव में रहते हैं। हमको बुलाई है घर का काम वास्ते।”

“ओह, इसी लिए। और बाकी लोग?”

“सब आज घूमने गये हैं। बोले कि सीधे शाम को आएंगे।” मैं बोली।

“ठीक है, ठीक है, मैडम कब आएगी?”

“पता नहीं।”

“तबतक हम का करेंगे रफीक?”

“अब हम का कर सकते हैं? इंतजार करेंगे और का।”

“हमारे बारे में कुच्छो नहीं बोली का?” सलीम मुझसे बोला।

“बोली थी। बोली थी, मिस्त्री, रेजा कुली लोग आएंगे, बैठाना और खातिर करना, ख्याल रखना। काम वाम तो आज करना है नहीं।” मैं आंखें मटकाते हुए बोली।

“का खातिर?” अब उनकी लार टपकाती नजरें मेरे तन पर टिकी थीं।

“यही, चाह पानी अऊर कौनो चीज जो चाहिए, आपलोग बईठिए तो, हम अम्भी आए।” सोफे की ओर दिखा कर बैठने को बोली और मैं कूल्हे मटकाती, लुभावने अंदाज में अपने नितंबों को हिलाती किचन की ओर बढ़ी। पानी ले कर आई और टेबल पर रख दी। अभी मैं वापिस मुड़ी ही थी कि बाहर गेट खड़कने की आवाज आई।

“जा के देख तो, बाकी लोग भी आए हैं का?” सलीम नें रफीक की ओर देखते हुए कहा। रफीक उठ कर गया और उसके साथ साथ मंगरू, मुंडू थे और साथ में छम्मकछल्लो छमिया कांता छमक छमक कर चली आ रही थी। उनके पीछे पीछे तीन और कुली रेजा सोमरी के साथ आ रहे थे।

“रूपा और सुखमनी का क्या हुआ?” सलीम बोल उठा।

“पता नहीं।” मंगरु नें संक्षिप्त सा उत्तर दिया।

“खैर कोई बात नहीं। काम चल जाएगा। ई छम्मकछल्लो, सोमरी अऊर मुंडू तो हईए हैंं। मैडम आ जावेगी तो हो जावेंगे चार। हमलोग हैं सात। हिस्सा बट्टा करके काम चला लेंगे।” सलीम बोला। “हां तो तू का कह रही थी? जो हम चाहें मिलेगा का?” अब उसकी नजरें मेरे तन को ऊपर से नीचे तौल रही थीं। अंदर ही अंदर पुलकित हो उठी, इस अनाकर्षक चेहरे के बावजूद अपने तन के खूबसूरत बनावट पर। पता नहीं कि मेरे तन की खूबसूरती का ही आकर्षण था या मात्र एक सुलभ उपलब्ध भोग्या नारी तन का। इन औरतखोरों की नजरों में स्त्री के सौंदर्य का क्या महत्व है, इसका तो पता नहीं, किंतु स्त्री एक भोग्या है, यह महत्व तो अवश्य पता है उनको। खैर मुझे इससे क्या, इतना तो समझ गयी इनकी नजरों से कि मैं इनकी दृष्टि में आ चुकी हूं, एक शिकार।

“हां, मालकिन तो अईसा ही बोली। जो मांगेंगे दे देना।” मैं बोली।

“जो मांगेंगे वो दोगी तुम हमें?”

“अगर यहाँ है तो काहे न देंगे।” मैं बोली।

“यहाँ है वही मांगेंगे।”

“तो मिलेगा।” मैं बोली।

“ना तो नहीं करोगी?”

“हम भला काहे ना करेंगे। हम ना करेंगे तो दीदी भगा न देगी हमको?” मैं बोली।

“सोच लो।”

“अब इसमें हमको का सोचना। दीदी सब कुछ सोच के ही ना अईसा बोली होगी?” मैं आंखें नचाती हुई बेधड़क बोली। मैं जानती थी कि उनके कथन का आशय क्या था, फिर भी अनजान बनी, नादान बाला बनी हुई थी। मैं जानती थी कि बात का रुख किधर जा रहा है, फिर भी अनजान बन रही थी।

“अच्छा ई बता, मैडम कब तक आवेगी।” रफीक बोला। अब वे लोग उतावले हो रहे थे।

“पता नहीं, शायद ना भी आवे। कह रही थी कि जरूरी काम से जा रही हूं।” मैं बोली।

वहां उपस्थित सभी लोग दुविधा में डूबे एक दूसरे को देख रहे थे। आंखों ही आंखों में बातें भी कर रहे थे। अंततः सलीम बाकी लोगों से मुखातिब हो कर बोला, “तो अब का इरादा है?”

“इरादा क्या है पता नहीं है का तुमको? हम यहां काहे आये हैं पता नहीं है का तुमको?” रफीक बेसब्र हो रहा था।

“ऊ बात नहीं, बात ई है कि, चांदनी……” सलीम रुक गया।

“ई तो बोल ही रही है, जो मांगेगे मिलेगा, फिर काहेका सोचना। वैसे भी यह अपनी दीदी से कम थोड़ी न है।” अब बोदरा बोला।
 

“हां तो चांदनी, जो मांगेंगे मिलेगा ना?” सलीम अब तसल्ली कर रहा था।

“कह तो रही हूं, सब कुछ मिलेगा।”

“बाद में मैडम को शिकायत तो नहीं करोगी?”

“काहे की शिकायत? दीदी ही तो बोली है।”

“ठीक है, तो तुम तैय्यार हो?”

“हां बाबा हां।”

“हम सब यहां अभी एक खेल खेलेंगे।”

“तो खेलो ना।”

“तुमको भी हमारे साथ खेलना होगा।” ललचाई नजरों से मुझे देखते सलीम बोला।

“कैसा खेल?” मैं अनजान बनती हुई पूछी।

“सब समझा देंगे। खेलोगी ना?”

“खेल में मजा आएगा तो?” उत्सुकता से पूछी।

“बड़ा मजा आएगा पगली।”

“ठीक है, खेलूंगी।” मैं धड़कते दिल से सहमत हो गयी। जानती थी कि इस खेल का मतलब क्या है, लेकिन जरा देखना था कि ये शुरुआत कैसे करते हैं। मेरी सहमति पा कर सभी की बांछें खिल गयीं। मेरी कमनीय देह का आकर्षण ही ऐसा था।

“बहुत बढ़िया, वैसे भी कामिनी मैडम और चांदनी में कोई खास फर्क भी नहीं है। मजा आएगा।” रफीक प्रसन्नता से बोला।

“तो ठीक है, चलो हम खेल शुरू करते हैं।”

“कौन सा खेल?” मंगरू अब बोला।

“अरे वही, जो हम बीते इतवार कांता के यहां खोकोन और मुंडू के साथ खेले थे।”

“हट हरामी।” कांता तुनक गयी।

“वाह, ताश लाए हो?” कांता की बात को नजरअंदाज करते हुए प्रसन्नता से रफीक बोल उठा।

“हां भाई, ये रहा ताश।” पॉकेट से ताश की गड्डी निकालते हुए बोला सलीम।

“तो चलो शुरू करते हैं।” सलीम बोला।

“पहिले खेल का नियम तो बताओ।” मैं बोली।

“ठीक है। तुम पहली बार खेल रही हो ना। बताते हैं। सुनो। अभी हम सबको पत्ते बांटेंगे। जिसको पहला गुलाम मिलेगा, वह हुकुम मानेगा और जिसको पहला बादशाह मिलेगा वह हुकुम देगा। बादशाह जो बोलेगा, गुलाम को वही करना होगा। इसके बाद यह चलता रहेगा।” मुझे खेल रोचक लगा। मैं जानती थी हुक्म क्या होगा, और यह खेल कहां जाकर खत्म होगा। उधर कांता मुझे घूरे जा रही थी।

“ठीक है, हमें मंजूर है।” मैं बोली। खुश हो गये सब।

“सोच ले।”

“सोच लिया।”

“पीछे नहीं हटना है।”

“नहीं हटूंगी। सब खेल में शामिल हैं तो हमें क्या दिक्कत?”

“ई अनाड़ी को बता काहे नहीं देते कि असल में का करने वाले हो तुमलोग।” कांता बोल पड़ी।

“बताने का क्या जरूरत है? और तू काहे परेशान हो रही है। यह खुद ही खेलने को राजी है। वैसे भी, इस खेल में इसे भी मजा आएगा।” सलीम बोला। उसे कांता की बात पसंद नहीं आई। अच्छी खासी शिकार फंस रही है और यह छमिया व्यवधान पैदा करने का प्रयास कर रही है। उसे भय था कि खेल के बारे में पूरा सत्य जानकर कहीं मैं मना न कर दूं। “अब तू ज्यादा पटर पटर न कर।” डांट दिया उसने कांता को।

“तो हम ही बता देते हैं।” कांता खिसिया कर बोली। उसे खुद का महत्व घटने का भय सता रहा था शायद, या फिर मुझसे ईर्ष्या हो रही थी। मैं उसकी मनोभावों को खूब समझ रही थी।

“क्या बताएगी? बता।” मैं बोली।

“यही कि ई सब यहां क्या करने वाले हैं।”

“अब घुमा फिरा के काहे बोल रही है, सीधे बोल ना।” मैं मजे ले रही थी।

“उल्टा सीधा काम करवाएंगे।”

“कैसा उल्टा सीधा। हमसे न होगा क्या?”

“बुद्धू, गंदा काम करवाएंगे।”

“कैसा गंदा काम?” मैं जानती बूझती अनजान बन रही थी।

“तुम समझ नहीं रही हो।”

“तू खेल रही है ना?” मैं उल्टा सवाल दाग बैठी।

“हां।”

“तुम्हें मजा आता है ना खेलने में?”

“हां, काहे कि हमें आदत है।”

“जब तुझे मजा आता है तो हमें काहे मना कर रही है?”

“छोड़ो, हमें क्या, झेलो खुद, बाद में हमें दोष न देना कि चेतायी नहीं थी।” झल्ला कर बोली वह। सभी हंस पड़े।

“मर साली कुतिया।” बुदबुदाई वह।

“कुछ बोली का हमसे?” मैं बोली।

“नहीं कुछ नहीं। समझ जाएगी सब।” वह बोली।

“अब तुमलोग बकबक बंद करो। सब आ जाओ सेंटर टेबुल के चारों तरफ। अब खेल शुरू करते हैं।” सलीम बोला।

वहां उपस्थित सभी लोग सेंटर टेबल के चारों तरफ बैठ गये। जैसे ही मैं उन लोगों के बीच बैठी, बगल वाला मंगरु नाक सिकोड़ कर बोला, “उंह, महक रही है यह तो।”

“साले महक रही है? गौर से देख इसे। वैसे भी जब काम के बीच में गंधाती, महकती रेजाओं और मुंडू, खोकोन के साथ गोदाम में ठेल्लम ठेल्ली करते हो तब महक नहीं लगती है साले?” रफीक मेरी कमनीय देह को ललचाई, लार टपकाती नजरों से देखते हुए बोला। मैं सकुचाने का नाटक करती हुई और थोड़ा सिकुड़ कर बैठ गयी।

“सच कहा तूने सलीम। चल बांट पत्ते, रहा नहीं जा रहा है अब।” बेकरार बोदरा बोला। अब सलीम नें पत्ते बांटना आरंभ किया। सबसे पहले गुलाम निकला मंगरू का। वह खड़ा हो गया।

“मंगरू बन गया गुलाम।” सलीम नें घोषणा की। फिर बादशाह निकला मुंडू को। मुंडू खड़ा हो गया।

“हां, तो मंगरू मेरा गुलाम। जो हम कहेंगे वही करेगा ना?” मुंडू बोला।

‘हां, करेंगे।” आज्ञाकारी गुलाम की भांति मंगरू बोला।

“चल उतार मेरे कपड़े।” मुंडू बोला।

“जो हुकुम मालिक।” कहते हुए मुंडू के कपड़े उतारने लगा मंगरू।
 

“यह यह क क क क्या हो रहा है?” मैं अनजान बन कर चौंकने का नाटक करती हुई बोली।

“यही तो खेल है। बादशाह गुलाम को हुकुम करेगा और गुलाम हुकुम का पालन करेगा।” सलीम बोला।

“त त त तो सभी के साथ ऐसा ही होगा क्या?” मैं बोली।

“हां, लेकिन बादशाह जैसा बोलेगा वैसा होगा।”

“हम नहीं खेलेंगे ऐसा खेल।” मैं विरोध करने लगी।

“खेलना पड़ेगा। तुम्हीं बोली थी।”

“हमें का पता कि ऐसा भी करना पड़ेगा। छि:।” मैं खड़ी हो गयी। अबतक मुंडू नंगा हो चुका था। पूरा नंगा। कोई शर्म नहीं थी चेहरे पर। स्त्रियों की तरह बदन था उसका। सीना किसी नवयुवती की तरह उभरा हुआ था। किसी नवयुवती की तरह अर्धविकसित उरोजों की तरह उसके सीने के उभार थे। कमर सामान्य था किंतु नितंब उसके सामान्य से काफी बड़े बड़े थे, किसी खेली खाई व्यस्क स्त्री से भी बड़े। सारा शरीर बाल रहित चिकना। सामने झूल रहा था मात्र तीन इंच का लिंग। अजीब व्यक्तित्व था उसका।

“अब कहां? चल बैठ। पहले कह रही थी तो समझ नहीं आया।” कांता की बात से मेरा ध्यान भंग हुआ।

“नहीं, हम नहीं खेलेंगे ई गंदा खेल।” मैं बोली।

“अब कोई उपाय नहीं है। बैठ जा।” सलीम हुक्म दे रहा था।

“नहीं।”

“मैडम को बता देंगे, तू हमारी बात नहीं सुनी।”

“दीदी को पता है क्या, कि ई सब भी करते हो तुम लोग?”

“और नहीं तो क्या। इसी लिए तो बुलाई है और आए हैं हम।”

“हाय दैया। दीदी भी?”

“हां मैडम भी। बुलाई तो है यही सब खेलने के लिए।”

“हाय रा्आ्आ्आ्आम ऐस्स्स्स्आ्आ्आ।” मैं बनावटी आश्चर्य से आंखें बड़ी बड़ी करके नादान बनने का ढोंग कर रही थी।

“हांआ्आ्आ्आ ऐस्स्स्स्आ्आ्आ। चल अब बैठ जा चुपचाप।” मेरी नकल उतारती हुई कांता बोली। मैं वापस बैठने को बाध्य हो गयी।

“लेकिन यह तो बड़ी बेशर्मी वाला खेल है।” मैं बोली।

“हां, लेकिन हम खेलते हैं। बड़ा मजा आता है। आगे आगे देख, और क्या क्या होता है।”

“हे भगवान, हमें लाज आती है।” मैं बोली।

“खतम हो जाएगी तेरी भी लाज। चलिए भाई मुंडू, आप बादशाह हैंं और मंगरू आपका गुलाम। आगे बोलिए मंगरू से क्या करवाना है।” सलीम बोला।

“खोल अपने कपड़े रे मंगरू।” मुंडू मंगरू से बोला। मंगरू आज्ञाकारी गुलाम की भांंति अपने कपड़े खोलने में व्यस्त हो गया। जैसे जैसे उसके कपड़े खुलते गये, एक एक करके उसके सुगठित शरीर के हिस्से बेपर्दा होते गये। उफ्फ, जब वह पूर्णतया नग्न हुआ, पूरा कामदेव का अवतार लग रहा था। रंग काला था तो क्या हुआ, उसका गठा हुआ छ: फुटा शरीर मेरी नजरों के आगे चमक उठा। रोम रोम सुलग उठा मेरा। धमनियों में रक्त का संचार द्रुत गति से प्रवाहित होने लगा। उसकी जंघाओं के मध्य झूमता तनतनाया तीन इंच मोटा और करीब नौ इंच लंबा दर्शनीय, खूबसूरत किंतु भयावह लिंग हमारी नजरों के सम्मुख नृत्य कर रहा था।

“अब का हुकुम है महाराज?” नंग धड़ंग मंगरू बोला।

“चल अब चाट हमारा गांड़।” मुंडू बोला और झुक गया।

“जो हुकुम महाराज।” मंगरू बोला और मुंडू की चिकनी गुदा को चाटने लगा, किसी कुत्ते की तरह, सटासट।

“अच्छी तरह से चाट गधे।” मुंडू आनंदित होता हुआ बोला, और मंगरू चपाचप चाटता रहा। मुंडू के नितंबों की दरार को फैला कर चाटने लगा। मलद्वार में जीभ घुसा घुसा कर चाटता रहा। मेरी नजर तो सिर्फ मंगरू के आकर्षक लिंग पर ही चिपकी हुई थी। काश मुंडू की जगह मैं होती, कितना मजा आता। मेरी मुखमुद्रा सलीम और रफीक की नजरों से छिपी न थी। सलीम तो मेरे वक्षस्थल को घूरे जा रहा था।

“इनको लगे रहने दो। चलो बाकी लोग खेल को आगे बढ़ाते हैं।” सलीम की घोषणा से मेरी तंद्रा भंग हुई। अगला गुलाम निकला रफीक और बादशाह निकला कांता को। अब? अब क्या होगा? बड़ी दिलचस्प स्थिति थी। मगर कांता ठहरी एक नंबर की खिलंदड़।

स्थिति को अपने काबू में ले कर बोली, “हां, तो हमारे गुलाम, चल जल्दी से उतार अपने कपड़े।”

“जो आज्ञा महारानी जी।” कहते हुए रफीक खड़े हो कर बड़ी बेसब्री और जल्द बाजी से अपने कपड़ों से मुक्त होने लगा। उसकी हालत देखकर सबकी हंसी छूट पड़ी। वह हरामजादी बेशरम कांता खड़ी देख रही थी। उसकी आंखों में वासना की खुमारी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। चंचला, कामुकता की पुड़िया कांता की सांसें धौंकनी की तरह चल रही थी। बेचैनी, बेसब्री, उसके चेहरे पर भी खेल रही थी।

“यही सब होगा क्या?” मैं बोल उठी।

“हां, यही सब होगा।” सलीम बोला।

“छि:, तुम सब गंदे हो।”

“तुम गंदी नहीं हो?” सलीम बोला।

“हूं, मगर ऐसी नहीं।”

“क्या फर्क पड़ता है?”

“पड़ता है।”

“कैसे?”

“तुम सब भीतर से गंदे हो और हम बाहर से।”

“भीतर बाहर में फर्क क्या है? गंदगी तो गंदगी है।”

“हम ई सब नहीं जानते।”

“जान जाओगी। भीतर बाहर में ही तो मजा है, जान जाओगी।”

“हमें नहीं जानना।”

“सिखा देंगे।”

“हमें नहीं सीखना।”

“खेल से हट नहीं सकती तुम।”

 
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