desiaks
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कलंकिनी
लेखक -राजहंस
विनीत की विचारधारा टूटी, बारह का घण्टा बजा था। लेटे-लेटे कमर दुःखने लगी थी। वह उठकर बैठ गया। सोचने लगा, कैसी है यह जेल की जिन्दगी भी। न चैन न आराम। बस, हर समय एक तड़प, घुटन और अकेलापन। इन्सान की सांसों को दीवारों में कैद कर दिया जाता है....जिन्दगी का गला घोंट दिया जाता है। वह उठकर दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया। खामोश और सूनी रात....आकाश में शायद बादल थे। तारों का कहीं पता न था। संतरीके बटों की आवाज प्रति पल निकट आती जा रही थी। संतरी ठीक उसकी कोठरी के सामने आकर रुक गया। देखते ही विनीत की आंखों में चमक आ गयी।
"विनीत , सोये नहीं अभी तक.....?"
"नींद नहीं आती काका।" स्नेह के कारण विनीत हमेशा उसे काका कहता था।
"परन्तु इस तरह कब तक काम चलेगा।" सन्तरी ने कहा- अभी तो तुम्हें इस कोठरी में छः महीने तक और रहना है।"
“वे छः महीने भी गुजर जायेंगे काका।" विनीत ने एक लम्बी सांस लेकर कहा-"जिन्दगी के इतने दिन गुजर गये....। छः महीने और सही।"
"विनीत , मेरी मानो....इतना उदास मत रहा करो।” सन्तरी के स्वर में सहानुभूति थी।
"क्या करूं काका!" विनीत ने फिर एक निःश्वास भरी—“मैं भी सोचता हूं कि हंसू... दूसरों की तरह मुस्कराकर जिन्दा रहूं परन्तु....।
" "परन्तु क्या?"
"बस नहीं चलता काका। न जाने क्यों यह अकेलापन मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। पिछली जिन्दगी भुलाई नहीं जाती।"
"सुन बेटा।" सन्तरी ने स्नेह भरे स्वर में कहा- "इन्सान कोई गुनाह कर ले और बाद में उसकी सजा मिल जाये तो उसे पश्चाताप नहीं करना चाहिये। हंसते-हंसते उस सजा को स्वीकार करे और बाद में बैसा कुछ न करने की सौगन्ध ले। आखिर इस उदासी में रखा भी क्या है? तड़प है, दर्द है, घुटन है। पता नहीं कि तुम किस तरह के कैदी हो। न दिन में खाते हो, न ही रात में सोते हो। समय नहीं कटता क्या?"
“समय!" विनीत ने एक फीकी हंसी हंसने के बाद कहा-"समय का काम तो गुजरना ही है काका! कुछ गुजर गया और जो बाकी है वह भी इसी तरह गुजर जायेगा। यदि मुझे अपनी पिछली जिन्दगीन कचोटती तो शायद यह समय भी मुझे बोझ न लगता। खैर, तुम अपनी ड्यूटी दो—मेरा क्या, ये रातें भी गुजर ही जायेंगी....सोते या जागते।"
लेखक -राजहंस
विनीत की विचारधारा टूटी, बारह का घण्टा बजा था। लेटे-लेटे कमर दुःखने लगी थी। वह उठकर बैठ गया। सोचने लगा, कैसी है यह जेल की जिन्दगी भी। न चैन न आराम। बस, हर समय एक तड़प, घुटन और अकेलापन। इन्सान की सांसों को दीवारों में कैद कर दिया जाता है....जिन्दगी का गला घोंट दिया जाता है। वह उठकर दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया। खामोश और सूनी रात....आकाश में शायद बादल थे। तारों का कहीं पता न था। संतरीके बटों की आवाज प्रति पल निकट आती जा रही थी। संतरी ठीक उसकी कोठरी के सामने आकर रुक गया। देखते ही विनीत की आंखों में चमक आ गयी।
"विनीत , सोये नहीं अभी तक.....?"
"नींद नहीं आती काका।" स्नेह के कारण विनीत हमेशा उसे काका कहता था।
"परन्तु इस तरह कब तक काम चलेगा।" सन्तरी ने कहा- अभी तो तुम्हें इस कोठरी में छः महीने तक और रहना है।"
“वे छः महीने भी गुजर जायेंगे काका।" विनीत ने एक लम्बी सांस लेकर कहा-"जिन्दगी के इतने दिन गुजर गये....। छः महीने और सही।"
"विनीत , मेरी मानो....इतना उदास मत रहा करो।” सन्तरी के स्वर में सहानुभूति थी।
"क्या करूं काका!" विनीत ने फिर एक निःश्वास भरी—“मैं भी सोचता हूं कि हंसू... दूसरों की तरह मुस्कराकर जिन्दा रहूं परन्तु....।
" "परन्तु क्या?"
"बस नहीं चलता काका। न जाने क्यों यह अकेलापन मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। पिछली जिन्दगी भुलाई नहीं जाती।"
"सुन बेटा।" सन्तरी ने स्नेह भरे स्वर में कहा- "इन्सान कोई गुनाह कर ले और बाद में उसकी सजा मिल जाये तो उसे पश्चाताप नहीं करना चाहिये। हंसते-हंसते उस सजा को स्वीकार करे और बाद में बैसा कुछ न करने की सौगन्ध ले। आखिर इस उदासी में रखा भी क्या है? तड़प है, दर्द है, घुटन है। पता नहीं कि तुम किस तरह के कैदी हो। न दिन में खाते हो, न ही रात में सोते हो। समय नहीं कटता क्या?"
“समय!" विनीत ने एक फीकी हंसी हंसने के बाद कहा-"समय का काम तो गुजरना ही है काका! कुछ गुजर गया और जो बाकी है वह भी इसी तरह गुजर जायेगा। यदि मुझे अपनी पिछली जिन्दगीन कचोटती तो शायद यह समय भी मुझे बोझ न लगता। खैर, तुम अपनी ड्यूटी दो—मेरा क्या, ये रातें भी गुजर ही जायेंगी....सोते या जागते।"