Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - Page 14 - SexBaba
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Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस

सुनकर वे मुस्करा उठे। उनकी मुस्कराहट में क्या रहस्य था, इस बात को विनीत न समझ सका। वे बोले-"ठीक है....जाओ....!"

विनीत कोतवाली से निकलकर बाहर आ गया। उसकी बेचैनी और बढ़ गयी थी। एस.पी.ने बताया था कि गोमती किनारे मजदूरों की बस्ती है। सुधा और अनीता नाम की दो लड़कियां वहां रहती हैं। विनीत के मन-मस्तिष्क में यह बात पूरी तरह बैठ चुकी थी कि सुधा तथा अनीता उसी की वहनें होंगी। उसके मन में यह बात नहीं आ सकी थी कि एस.पी. साहब उसका पीछा करेंगे।

वह गोमती किनारे चल दिया। लखनऊ पहली बार आया था इसलिये उसे पूछना पड़ा। शहर के बाहर तक वह एक रिक्शा लेकर पहुंचा।
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अनीता लम्बे-लम्बे कदम बढ़ाती हुई बस्ती की ओर लौट रही थी। वह रूपचंद आलूबाले से मिलने गयी थी। रूपचन्द मिला तो था परन्तु उसकी बातों में भी खुदगर्जी के अलावा और कुछ न था। शाम वहां पुलिस आयी थी और उसने घुमा-फिराकर उन पर खून का इल्जाम लगाना चाहा था। सुधा तो घबरा ही उठी थी। परन्तु उसने बड़ी सफाई से पुलिस के प्रश्नों का उत्तर दिया था तथा स्वयं को मध्य प्रदेश के एक गांव की रहने वाली बताया था। उसका परिवार कहां था, इस प्रश्न के उत्तर में उसने एक मनगढन्त कहानी भी सुना दी थी। जिसमें वह एक लड़के के प्रेम के चक्कर में फंसकर लखनऊ तक आ गयी थी। बाद में लड़का उसे छोड़कर धोखा देकर चला गया था। वह घर से कुछ नकदी और जेवर लेकर भागी थी, लड़का नकदी लेकर उसे धोखा दे गया था। सुधा के विषय में उसने बताया था कि सुधा एक बेसहारा लड़की है, जो उसे एक दिन फुटपाथ पर भीख मांगती हुई मिली थी। उसका विचार था कि पुलिस उसके उत्तरों से सन्तुष्ट होकर गयी थी। लेकिन वह जानती थी कि पुलिस जब यहां तक आ पहुंची है तो वह उनका पीछा नहीं छोड़ेगी। इसी विषय को लेकर रात भर दोनों वहनों में विचार-विमर्श होता रहा था। जीने की समस्या एक बार फिर सामने खड़ी हो गयी थी। अंत में अनीता ने इस बस्ती को ही छोड़ देने का निश्चय किया था। उसे कोई और ठिकाना चाहिये था, इसी विषय में वह रूप चन्द आलूबाले से मिलने गयी थी। परन्तु रूपचन्द की आंखों में भी बासना के डोरे थे, जिन्हें देखना उसके वश की बात नहीं थी। और वह निराश होकर लौट आयी थी। सहसा किसी ने पीछे से उसका नाम लेकर पुकारा तो उसके बढ़ते कदम जड़ हो गये। उसने पलटकर देखा—मंगल था।

क्या है....?" उसने सीधा प्रश्न किया।

"मैं शहर से आ रहा हूं।"

"तो....?"

"दो पुलिस बाले तुम्हें पूछ रहे थे। जुम्मन भी कुछ कह रहा था।"

"क्या ....?

"कि तुम दोनों पुलिस के डर से इस बस्ती में छुप रही हो। रात बस्ती में इसी बात की चर्चा हो रही थी। जुम्मन यह भी कह रहा था कि उसने तुम दोनों के मुंह से कई बार खून और कत्ल की बातें सुनी थीं। वह अपनी झोपड़ी में पड़ा हुआ तुम्हारी बातों को सुनता रहता था...."

"तो....कल पुलिस में तुम गये थे?" अनीता ने उसे घूरा।

“नहीं जाता तो क्या करता?" मंगल बोला—“तुम्हारे हाथ का चपत गाल पर पड़ा तो सब कुछ करना पड़ा। इसमें मेरा क्या दोष?"

"किसी को यूं ही बदनाम करते हुये तुम्हें शर्म आनी चाहिये थी!" अनीता गरजी।

"लेकिन अब भी क्या बिगड़ा है।" मंगल ने अपने होठों पर जीभ फिरायी—"इस इलाके का दरोगा मेरा जानकार है। मैं उसे समझा दूंगा। लेकिन....!"

“लेकिन क्या....?"

"बुरा न मानो तो कहूं....?"

"कहो....."

“मैं तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं।"

"मंगल।” अनीता चीख उठी।

“यकीन करो, मैं तुम्हें अपनी झोंपड़ी की रानी बनाकर रखूगा। अभी तो मैं मजदूरहूं, परन्तु दो-चार दिन बाद मुझे एक फैक्ट्री में नौकरी मिल जायेगी। शहर में क्वार्टर ले लूंगा। फिर तो मौज रहेगी।"

"मंगल।" अनीता ने समय की नाजुकता को देखकर उसे समझाने की कोशिश की—“मैं तुमसे दसियों बार पहले भी कह चुकी हूं कि मुझे अथवा सुधा को इस तरह की बातें। बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं। तुम्हारे मन में जो कुछ है, उसे मैं जानती हूं लेकिन मैं बाजारू औरत नहीं हूं। आइन्दा कभी इस तरह की बातें मत करना।"

"क्यों....?"

“इसलिये कि तुम्हारे लिये मुझसे बुरा कोई न होगा।"

"और जब पुलिस तुम दोनों को गिरफ्तार करके ले जायेगी, तब तुम्हारा क्या होगा?" मंगल ने अनीता की ओर देखा।

पुलिस का नाम सुनकर अनीता को कुछ सोचना पड़ा। लेकिन वह अपनी कमजोरी जाहिर नहीं करना चाहती थी इसलिये बोली- "यह मेरी अपनी बात है। सांच को आंच नहीं होती। जब मैंने कुछ किया ही नहीं तो पुलिस मुझे क्यों गिरफ्तार कर लेगी?"

मंगल हंस पड़ा-"तो, तुम नहीं मानोगी....?"
 
“मंगल, बकवास करने की जरूरत नहीं है।" । अनीता ने कहा और फिर लम्बे-लम्बे डग भरती हुई आगे बढ़ने लगी। अभी बस्ती से दर थी तथा मैदान में झाड़ियां फैली हुई थीं। मंगल को देखकर वह भयभीत तो हुई थी, परन्तु दूसरे ही क्षण उसने अपने आपको संभाल लिया था।

मंगल तेजी से चलकर ठीक उसके सामने आ गया। उसका इरादा अच्छा नहीं था। अनीता ने उसे घूरा रास्ता छोड़ो....।"

"रानी, अगर रास्ता छोड़ता तो रास्ते में ही क्यों आता....." मंगल बोला- इन्तजार की भी हद होती है....."

"मंगल...."

“मैं मजबूर हूं रानी। आज तो फैसला होकर ही रहेगा। या तो तुम रहोगी या मैं। दोनों में से एक को हारना ही पड़ेगा।"

आस-पास कोई न था। उसने अनुनय विनय से ही काम लेना उचित समझा। वह बोली ____"मंगल, फालतू बात मत करो....और मेरा रास्ता छोड़ दो।"

"और मेरा ख्वाब....?"

"तुम्हारा....?"

"मैंने भी तो एक सपना देख रखा हैं उसका क्या होगा? कसम ऊपर बाले की, सारा शहर छान मारा, मगर तुम्हारे जैसी परी किसी गली में भी दिखलाई न पड़ी। और फिर....मैं इतना बुरा भी तो नहीं हूं। काले की छोकरी कह रही थी, मंगल तू तो एकदम छैला है....तेरा कसरती बदन इतना प्यारा लगता है। खैर, तुम्हें किसी काले साले से क्या लेना....अपनी तो....." मंगल की बात पूरी भी न हो पायी थी कि तभी अनीता के हाथ का भरपूर चपत उसके गाल पर पड़ा।

उसने आश्चर्य एवं क्रोध से अनीता की ओर देखा, बोला-"तो....तो मेरी मुहब्बत का यह अन्जाम है....?"

"इससे भी बुरा होता, यदि मेरे पास कुछ और होता तो।” अनीता फुफकारती हुई आगे बढ़ी।

मंगल ने झपटकर उसकी कलाई पकड़ ली और कहा-"मंगल का गुस्सा नहीं देखा अभी।"

"कमीने....." उसने पूरी शक्ति से अपनी कलाई छुड़ाने का प्रयत्न किया।

"आज तो फैसला होकर ही रहेगा....." मंगल का इरादा आज कुछ और ही था। उसने अनीता की दूसरी कलाई भी थाम ली और झाड़ियों की ओर खींचने लगा। ठीक उसी समय जैसे चमत्कार हुआ हो। कोई व्यक्ति फुर्ती से झाड़ियों में से निकला और उसने पीछे से मंगल की गरदन को पकड़ लिया। मंगल ने तुरन्त ही अनीता को छोड़कर अप्रत्याशित रूप से हमला करने वाले व्यक्ति को देखा। वह पलटा, परन्तु गरदन नछड़ा। सका।

अनीता समझ नहीं सकी कि यह सब क्या है। मंगल ने अपनी गरदन छुड़ाकर उस युवक को घूरा-"तुम....तुम कौन हो? क्या मतलब है तुम्हारा?"

“मतलब की बात पूछी तो होठों की मूंछे उखाड़कर माथे पर लगा दूंगा। शर्म नहीं आती एक लड़की के साथ जबरदस्ती करते हुए?" युवक ने कहा।

मंगल खून का चूंट पीकर रह गया। रात का समय होता, तब भी बात दूसरी थी, परन्तु दिन था और सड़क भी अधिक फासले पर न थी इसलिये वह अपना मुंह बनाता हुआ एक ओर को चला गया।

"धन्यवाद।" अनीता ने आ भारपूर्ण दृष्टि से युवक की ओर देखा—“यदि आज आप न आते तो...."

"तो कोई दूसरा आता....." युवक ने कहा-"भगवान को सभी की इज्जत का ख्याल रहता है। लेकिन आपको इस जंगल में अकेली नहीं गुजरना चाहिये था। पास ही सड़क है, आप उससे होकर जा सकती थीं।"

"लेकिन मेरा रास्ता तो यही है।”

"कहीं इधर ही रहती हैं क्या....?" उसने पूछा।

“बो, सामने गोमती किनारे बाली मजदूरों की बस्ती में।

अच्छा....मैं चलूँ!"

अनीता के कदम जैसे जड़ होकर रह गये थे। जैसे कि पीछे से कोई उसे खींच रहा हो, फिर भी उसने आगे बढ़ने के लिये अपने कदम उठाये।

“सुनिये।” युवक ने पुकारा—“आपकी बस्ती में दो लड़कियां रहती हैं?"

"लड़कियां...?" उसने पलटकर युबक की ओर देखा।

"हां....." उसने कुछ सोचते हुये कहा-"एक का नाम अनीता है, दूसरी का सुधा.....। क्या आप उन्हें जानती हैं?"

"परन्तु आप....?" अनीता चौंकी।

युबक ने एक गहरी सांस लेकर कहा-"क्या करेंगी जानकर? मैं उन दोनों का बदनसीब भाई हूं....।"

सुनकर अनीता अपलक विनीत की ओर देखती रह गई। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब स्वप्न है अथवा सत्य? उसने पलकें झपकायीं। स्वप्न नहीं हो सकता था। कई क्षणों तक अनीता की यही दशा रही। इसके बाद वह भैया' कहती हुई विनीत से लिपट गयी। आंखों से प्रसन्नता के आंसू वह निकले। रोते-रोते बोली-"मैं ही तुम्हारी अभागी वहन अनीता हूं भैया....."

"अनीता....." विनीत की आंखें भी भर आयी थीं। कुछ क्षणों बाद वहन भाई अलग हुए।

अनीता ने पूछा-"तुम....तुम सीधे जेल से आ रहे हो भैया....?"

"हां....सुधा कहां है....?"

"वहां झोंपड़ी में।” अनीता बोली-"आओ भैया, वह रात-दिन तुम्हारे लिये आंसू बहाती है....आओ....."
 
दोनों बस्ती में पहुंचे। सुधा भी विनीत को पहचान नहीं सकी थी। परन्तु जब अनीता ने उसे बताया तो वह भी विनीत से लिपट गयी और देर तक रोती रही। थोड़ी देर बाद सुधा विनीत के लिये खाना ले आयी। आज उस झोंपड़ी में भी जैसे जीवन लौट आया था। तीनों अपने-अपने आंसू बहाकर पुराने दुःखों को भूलने की कोशिश कर चुके थे। खाने के समय विनीत ने कहा—“अनीता, कल यहां पुलिस आयी थी?"

"हां भैया....परन्तु तुम.....!"

"एस.पी. साहब ने मुझे सब कुछ बता दिया है।"

"जो कुछ बताया है, वह ठीक ही है भैया।" अनीता बोली- लेकिन हम दोनों को अपनी इज्जत बचाने के लिये ही....!"

“मैंने उनके मुंह से सुन लिया था."

विनीत अभी खाना खाकर उठा ही था, ठीक उसी समय झोंपड़ी के सामने पुलिस की एक जीप आकर रुकी। महिला पुलिस के साथ एस.पी. साहब भी नीचे उतरे। महिला पुलिस बाहर ही रही। एस.पी. साहब विनीत के निकट आ गये, बोले- क्या तुम अब भी अपनी वहनों के हाथों में हथकड़ी नहीं लगाओगे....?"

"हां, एस.पी. साहब।"विनीत बोला-"इन दोनों ने कभी मेरे हाथ में राखी बांधकर मुझसे अपनी रक्षा का वचन लिया था। आज मैं इनकी रक्षा तो नहीं कर सकता। परन्तु अपने ही हाथों से फांसी के तख्ते पर भी नहीं चढ़ा सकता। लेकिन एस.पी. साहब....."

"कहो।"

"शायद आप इसी अवसर की खोज में थे....."

“मतलब...?"

"मैं वर्षों के बाद अपनी वहनों से मिला हूं....और आप इन्हें गिरफ्तार करने आ जाये? आपको एक दो दिन का समय तो देना चाहिए था....।" कहते-कहते विनीत का गला भर आया। उसने याचना भरी दृष्टि से उनकी ओर देखा।

एस.पी. बोले-"विनीत, इन्सान भाबुक होता है। परन्तु इन्साफ को सीमा के अन्दर बांध लेने वाला कानून भाबुक नहीं होता। यदि वह भी तुम्हारी तरह भाबुक हो जाये तो वह अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता। ये दोनों लड़कियां समाज की दृष्टि में तुम्हारी वहनें हैं, परन्तु कानून इन सब रिश्तों से परे है। उसकी दृष्टि में ये खूनी के अलावा और कुछ नहीं हैं, जो कि कानून की दृष्टि में अपराध है।"

"ओह......"

"और कुछ कहना है तुम्हें?"

"नहीं साहब।” विनीत को अपनी आंखें पोंछनी पड़ीं—“यदि मैं कहना भी चाहूं....तब भी नहीं कह सकता। क्योंकि मेरी आवाज को सुनने वाला कोई भी नहीं है। यहां किसी के पास भी वह हृदय नहीं है जो वहन और भाई के रोदन को सुनकर रो उठे....जो यह महसूस कर सके कि एक भाई अपनी वहनों के बिना कैसे जिन्दा रहेगा। एस.पी.साहब....मैं समझता हूं आज तक आपने कानून को ही पढ़ा है, किसी के दिल की गहराई को आप नहीं जान सके। मैं केबल इन्हीं दोनों के लिये जिन्दा था साहब.....इन्हीं के लिये....।" विनीत की आंखें फिर छलक उठीं। उसने बल-पूर्वक अपने आंसुओं को अन्दर-ही-अन्दर पी लिया।

उन्होंने कहा—“परन्तु तुम अदालत की मदद ले सकते हो।"

“एस.पी. साहब, आप जान-बूझकर ऐसी बात कर रहे हैं।"

"क्यों....?"

"आप जानते हैं कि मैं एक बेघर, बेसहारा इन्सान हूं।"

उन्होंने कुछ नहीं कहा। हाथ का संकेत किया। महिला पुलिस इन्सपेक्टर अन्दर आ गयी। उनके संकेत पर सुधा और अनीता के हाथों में हथकड़ी लगा दी गयी। दोनों रो उठीं। विनीत ने कहा- "मुझे अफसोस है कि मैं तुम दोनों के लिये कुछ भी न कर सका। यदि मेरे ही हाथों एक गुनाह न हुआ होता तो आज तुम्हें यह दिन देखना न पड़ता। खैर, अनीता....जहां तक सम्भव हो, सुधा का ध्यान रखना।"

"भैया....!"

फिर बही उदासी और अकेलापन। स्टेशन से बाहर आकर विनीत फुटपाथ पर बैठ गया। बिल्कुल थका सा....जैसे अन्दर का इन्सान मर गया हो। जीने की लालसा बिल्कुल समाप्त हो चुकी थी। न कोई संगी था....न सहारा। सोचने लगा, शायद उसका जन्म ही इसलिये हुआ था कि वह जीवन भर भाग्य के थपेड़ों से टकराता रहे। भटकता रहे और उसे एक पल के लिये भी कभी चैन न मिले। बचपन में जो सपना देखा था, वह इस प्रकार अधूरा रह जायेगा, वह ऐसा कभी सोच भी नहीं सकता था। एक बार फिर नाब किनारे पर लगी थी, परन्तु वक्त की आंधी ने उसे फिर से बीच धारा में धकेल दिया था। एक बार फिर जीवन ने आंखें खोली थीं परन्तु फिर दुर्भाग्य ने उसे सदा सदा के लिये अंधेरों में डाल दिया था। समझ नहीं सका कि उसे अब करना क्या है। आखिर क्यों जिन्दा है वह? वहनों के लिये तो वह कुछ कर नहीं सकेगा। परन्तु आज भी एक और स्वप्न उसकी राह देख रहा था। इसी शहर के किसी कोने में से दो आंखें उसी की ओर देख रही थीं—प्रीति की आंखें। उन आंखों को धोखा देने का साहस उसमें न था....वह उसके प्रेम को नहीं ठुकरा सकता था। शायद इसीलिये अपना सब कुछ खो जाने के बाद भी एक आशा शेष थी।

यदि यह लालसा न होती तो वह कदापि उसी शहर में न आता। अब तो उसने एक निश्चय कर लिया था कि वह प्रीति से कह देगा, प्रीति....तुमने पत्थर के देवता की पूजा की थी। उसका जन्म-जन्म का प्यार तुम्हारे लिये हैं। अनजाने में ही उसके कदम उन्हीं गलियों की ओर उठ गये। अपने विचारों में उलझा वह प्रीति के घर के सामने पहुंचा। अभी उसकी आंखें उस ओर उठी ही थीं कि पीछे से एक सुरीला स्वर उसके कानों में पड़ा _____“मिस्टर विनीत ....।"
 
वह पलटा। आशा थी। प्रीति की एक सहेली, जो शादी के एक वर्ष बाद ही विधवा हो चुकी थी। आशा तथा प्रीति ने बचपन के दिनों को एक साथ ही बिताया था। देखकर उसे प्रसन्नता हुई। वह आशा के द्वारा प्रीति तक अपना सदश भेज सकता था। आशा निकट आ गयी— शायद आप प्रीति से मिलने आये हैं....।"

"हां....।" उसके मुंह से निकला।

"आओ मेरे साथा"

"कहां....?" उसने आश्चर्य से पूछा।

"सामने सड़क तक।"

"परन्तु प्रीति.....”

"बहीं मिलेगी।"

आशा की बातों ने उसकी बेचैनी को और भी बढ़ा दिया। वह समझ नहीं सका कि यकायक ही आशा के मिलने का क्या कारण है? तथा प्रीति सड़क पर क्या कर रही होगी? चलकर वह आशा के साथ गली से बाहर आ गया।

आशा ने कहा- "मिस्टर विनीत !"

"कहो....!"

"क्या तुम प्रीति को नहीं भूल सकते?"

"क्या मतलब....?"

“मैंने केवल एक बात पूछी है?"

"नहीं।" विनीत ने कहा-“यह मेरे लिये असम्भब है।"

"परन्तु विनीत ....."आशा एक क्षण के लिए रुकी और फिर बोली-"तुम्हारी प्रीति....अब इस दुनिया में नहीं है। वह कल....।"

"आशा!" विनीत का मुंह खुला का खुला रह गया। उसकी आंखें जैसे पथरा गयी थीं। उसने फिर कहा-"यह क्या कह रही हो तुम? प्रीति कभी ऐसा नहीं कर सकती। नहीं, नहीं! तुम झूठ बोल रही हो....।"

"सच्चाई यही है।" आशा बोली- कल दोपहर अचानक ही हृदय की गति रुक जाने से उसकी मृत्यु हो गयी थी। शायद उस बेचारी के भाग्य में यही लिखा था....कि वह जीवन में खोखले स्वप्न ही देखती रहे....उसका सपना अधूरा रह गया। विनीत, तुम्हारी यादों ने उसे बिल्कुल खोखला कर दिया था। उसने तो जीने की बहुत कोशिश की थी....अपनी अंतिम सांस को भी उसने संभालने की बहुत कोशिश की थी, परन्तु कुछ भी न हो सका। कठोर तपस्या ने उसकी सांसों को तोड़ दिया।"

"ओह...." थोड़ी देर बाद आशा चली गयी और विनीत पत्थर की मूर्ति बना हुआ देर तक वहीं खड़ा रहा। ठगा-सा आज वह जिंदगी का आखिरी दांव भी हार चुका था। प्रीति का चेहरा उसकी आंखों के सामने तैर गया। जैसे कह रहा हो—"विनीत ! मैंने तो अपनी प्रत्येक सांस को तुम्हारी माला का दाना बना दिया था। मैंने तो हर सुवह और शाम तुम्हारी पूजा में गुजारी थी....मैंने तो अपनी प्रत्येक रात को रोते और जागते हुये गुजारा था....इस पर भी तुमने मुझे कुछ नहीं दिया....."

विचारों में खोया हुआ वह चौंका। एक गाड़ी ठीक उसके निकट आकर रुकी थी। उसने गाड़ी से बाहर आती अर्चना को भी देख लिया था।

अर्चना ने निकट आकर कहा-"लौट आये विनीत ....."

"हां....।" विनीत ने बुझे स्वर में कहा।

"तो फिर यहां क्यों खड़े हो....?"

विनीत ने एक बार अपनी ग्रीबा उठाकर अर्चना की ओर देखा, फिर एक लम्बी सांस लेकर कहा-"अपने सपनों को देख रहा हूं....।"

“सपने तो बहुत ही कम पूरे होते हैं विनीत, अन्यथा सभी अधूरे रह जाते हैं। आओ...अब इस गली में कुछ भी नहीं है।"

यानि तुम....!"

"प्रीति के विषय में मुझे पता है।"

विनीत ने कुछ नहीं कहा। अर्चना ने उसका हाथ थामा और गाड़ी तक ले आयी। यंत्र चलित-सा वह गाड़ी में बैठ गया। गाड़ी चल पड़ी। रास्ते भर वह प्रीति के विषय में ही सोचता रहा। जबरन अपने आंसुओं को पीता रहा। प्रीति का कहा हुआ, अतीत में डूबा प्रत्येक शब्द रह-रहकर उसे याद आ रहा था। अर्चना ने गाड़ी को अपनी कोठी के कम्पाउंड में रोका तथा विनीत को लेकर सीधी अपने कमरे में आ गयी। विनीत की मनोदशा को वह जानती थी। बैठते ही उसने कहा-"विनीत, मैं भी जिन्दगी की एक बाजी हार चुकी हूं....।"

“मतलब?

“पापा ने कल एक लड़के से मेरा रिश्ता पक्का कर दिया....। मैं कुछ भी न कर सकी। तुम्हें न पा सकी विनीत। जो रूप मैं चाहती थी, समाज ने उस रूप को मुझसे छीन लिया है। मैं तुम्हारे जीवन का कोई अभाव पूरा न कर सकी। मैं आज भी एक रिश्ता जोड़ना चाहती हूं....जिसके लिये तुम जीवन भर भटकते रहे हो....!" कहकर अर्चना उठी और आलमारी में रखी एक राखी उठा लायी।

विनीत अब भी पत्थर बना बैठा था। अर्चना ने उसकी कलाई में राखी बांध दी। फिर बोली-“एस.पी.अंकल सुवह ही यहां आये थे। उन्होंने मुझसे सब कुछ बता दिया है....."

"ओह....!" विनीत कुछ सोचने लगा।

क्यों, भाई बनना अच्छा नहीं लगा क्या?"

"नहीं वहन।" विनीत की आंखें भर आई-"सोच रहा था कि जीवन का सब कुछ दांव पर लगने के बाद....एक वहन तो मिली है....।"

—वह पलटा। आशा थी। प्रीति की एक सहेली, जो शादी के एक वर्ष बाद ही विधवा हो चुकी थी। आशा तथा प्रीति ने बचपन के दिनों को एक साथ ही बिताया था। देखकर उसे प्रसन्नता हुई। वह आशा के द्वारा प्रीति तक अपना सदश भेज सकता था। आशा निकट आ गयी— शायद आप प्रीति से मिलने आये हैं....।"

"हां....।" उसके मुंह से निकला।

"आओ मेरे साथा"

"कहां....?" उसने आश्चर्य से पूछा।

"सामने सड़क तक।"

"परन्तु प्रीति.....”

"बहीं मिलेगी।"

आशा की बातों ने उसकी बेचैनी को और भी बढ़ा दिया। वह समझ नहीं सका कि यकायक ही आशा के मिलने का क्या कारण है? तथा प्रीति सड़क पर क्या कर रही होगी? चलकर वह आशा के साथ गली से बाहर आ गया।

आशा ने कहा- "मिस्टर विनीत !"

"कहो....!"

"क्या तुम प्रीति को नहीं भूल सकते?"

"क्या मतलब....?"

“मैंने केवल एक बात पूछी है?"

"नहीं।" विनीत ने कहा-“यह मेरे लिये असम्भब है।"

"परन्तु विनीत ....."आशा एक क्षण के लिए रुकी और फिर बोली-"तुम्हारी प्रीति....अब इस दुनिया में नहीं है। वह कल....।"

"आशा!" विनीत का मुंह खुला का खुला रह गया। उसकी आंखें जैसे पथरा गयी थीं। उसने फिर कहा-"यह क्या कह रही हो तुम? प्रीति कभी ऐसा नहीं कर सकती। नहीं, नहीं! तुम झूठ बोल रही हो....।"

"सच्चाई यही है।" आशा बोली- कल दोपहर अचानक ही हृदय की गति रुक जाने से उसकी मृत्यु हो गयी थी। शायद उस बेचारी के भाग्य में यही लिखा था....कि वह जीवन में खोखले स्वप्न ही देखती रहे....उसका सपना अधूरा रह गया। विनीत, तुम्हारी यादों ने उसे बिल्कुल खोखला कर दिया था। उसने तो जीने की बहुत कोशिश की थी....अपनी अंतिम सांस को भी उसने संभालने की बहुत कोशिश की थी, परन्तु कुछ भी न हो सका। कठोर तपस्या ने उसकी सांसों को तोड़ दिया।"

"ओह...." थोड़ी देर बाद आशा चली गयी और विनीत पत्थर की मूर्ति बना हुआ देर तक वहीं खड़ा रहा। ठगा-सा आज वह जिंदगी का आखिरी दांव भी हार चुका था। प्रीति का चेहरा उसकी आंखों के सामने तैर गया। जैसे कह रहा हो—"विनीत ! मैंने तो अपनी प्रत्येक सांस को तुम्हारी माला का दाना बना दिया था। मैंने तो हर सुवह और शाम तुम्हारी पूजा में गुजारी थी....मैंने तो अपनी प्रत्येक रात को रोते और जागते हुये गुजारा था....इस पर भी तुमने मुझे कुछ नहीं दिया....."

विचारों में खोया हुआ वह चौंका। एक गाड़ी ठीक उसके निकट आकर रुकी थी। उसने गाड़ी से बाहर आती अर्चना को भी देख लिया था।

अर्चना ने निकट आकर कहा-"लौट आये विनीत ....."

"हां....।" विनीत ने बुझे स्वर में कहा।

"तो फिर यहां क्यों खड़े हो....?"

विनीत ने एक बार अपनी ग्रीबा उठाकर अर्चना की ओर देखा, फिर एक लम्बी सांस लेकर कहा-"अपने सपनों को देख रहा हूं....।"

“सपने तो बहुत ही कम पूरे होते हैं विनीत, अन्यथा सभी अधूरे रह जाते हैं। आओ...अब इस गली में कुछ भी नहीं है।"

यानि तुम....!"

"प्रीति के विषय में मुझे पता है।"

विनीत ने कुछ नहीं कहा। अर्चना ने उसका हाथ थामा और गाड़ी तक ले आयी। यंत्र चलित-सा वह गाड़ी में बैठ गया। गाड़ी चल पड़ी। रास्ते भर वह प्रीति के विषय में ही सोचता रहा। जबरन अपने आंसुओं को पीता रहा। प्रीति का कहा हुआ, अतीत में डूबा प्रत्येक शब्द रह-रहकर उसे याद आ रहा था। अर्चना ने गाड़ी को अपनी कोठी के कम्पाउंड में रोका तथा विनीत को लेकर सीधी अपने कमरे में आ गयी। विनीत की मनोदशा को वह जानती थी। बैठते ही उसने कहा-"विनीत, मैं भी जिन्दगी की एक बाजी हार चुकी हूं....।"

“मतलब?

“पापा ने कल एक लड़के से मेरा रिश्ता पक्का कर दिया....। मैं कुछ भी न कर सकी। तुम्हें न पा सकी विनीत। जो रूप मैं चाहती थी, समाज ने उस रूप को मुझसे छीन लिया है। मैं तुम्हारे जीवन का कोई अभाव पूरा न कर सकी। मैं आज भी एक रिश्ता जोड़ना चाहती हूं....जिसके लिये तुम जीवन भर भटकते रहे हो....!" कहकर अर्चना उठी और आलमारी में रखी एक राखी उठा लायी।

विनीत अब भी पत्थर बना बैठा था। अर्चना ने उसकी कलाई में राखी बांध दी। फिर बोली-“एस.पी.अंकल सुवह ही यहां आये थे। उन्होंने मुझसे सब कुछ बता दिया है....."

"ओह....!" विनीत कुछ सोचने लगा।

क्यों, भाई बनना अच्छा नहीं लगा क्या?"

"नहीं वहन।" विनीत की आंखें भर आई-"सोच रहा था कि जीवन का सब कुछ दांव पर लगने के बाद....एक वहन तो मिली है....।"


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समाप्त
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