desiaks
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सुनकर वे मुस्करा उठे। उनकी मुस्कराहट में क्या रहस्य था, इस बात को विनीत न समझ सका। वे बोले-"ठीक है....जाओ....!"
विनीत कोतवाली से निकलकर बाहर आ गया। उसकी बेचैनी और बढ़ गयी थी। एस.पी.ने बताया था कि गोमती किनारे मजदूरों की बस्ती है। सुधा और अनीता नाम की दो लड़कियां वहां रहती हैं। विनीत के मन-मस्तिष्क में यह बात पूरी तरह बैठ चुकी थी कि सुधा तथा अनीता उसी की वहनें होंगी। उसके मन में यह बात नहीं आ सकी थी कि एस.पी. साहब उसका पीछा करेंगे।
वह गोमती किनारे चल दिया। लखनऊ पहली बार आया था इसलिये उसे पूछना पड़ा। शहर के बाहर तक वह एक रिक्शा लेकर पहुंचा।
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अनीता लम्बे-लम्बे कदम बढ़ाती हुई बस्ती की ओर लौट रही थी। वह रूपचंद आलूबाले से मिलने गयी थी। रूपचन्द मिला तो था परन्तु उसकी बातों में भी खुदगर्जी के अलावा और कुछ न था। शाम वहां पुलिस आयी थी और उसने घुमा-फिराकर उन पर खून का इल्जाम लगाना चाहा था। सुधा तो घबरा ही उठी थी। परन्तु उसने बड़ी सफाई से पुलिस के प्रश्नों का उत्तर दिया था तथा स्वयं को मध्य प्रदेश के एक गांव की रहने वाली बताया था। उसका परिवार कहां था, इस प्रश्न के उत्तर में उसने एक मनगढन्त कहानी भी सुना दी थी। जिसमें वह एक लड़के के प्रेम के चक्कर में फंसकर लखनऊ तक आ गयी थी। बाद में लड़का उसे छोड़कर धोखा देकर चला गया था। वह घर से कुछ नकदी और जेवर लेकर भागी थी, लड़का नकदी लेकर उसे धोखा दे गया था। सुधा के विषय में उसने बताया था कि सुधा एक बेसहारा लड़की है, जो उसे एक दिन फुटपाथ पर भीख मांगती हुई मिली थी। उसका विचार था कि पुलिस उसके उत्तरों से सन्तुष्ट होकर गयी थी। लेकिन वह जानती थी कि पुलिस जब यहां तक आ पहुंची है तो वह उनका पीछा नहीं छोड़ेगी। इसी विषय को लेकर रात भर दोनों वहनों में विचार-विमर्श होता रहा था। जीने की समस्या एक बार फिर सामने खड़ी हो गयी थी। अंत में अनीता ने इस बस्ती को ही छोड़ देने का निश्चय किया था। उसे कोई और ठिकाना चाहिये था, इसी विषय में वह रूप चन्द आलूबाले से मिलने गयी थी। परन्तु रूपचन्द की आंखों में भी बासना के डोरे थे, जिन्हें देखना उसके वश की बात नहीं थी। और वह निराश होकर लौट आयी थी। सहसा किसी ने पीछे से उसका नाम लेकर पुकारा तो उसके बढ़ते कदम जड़ हो गये। उसने पलटकर देखा—मंगल था।
क्या है....?" उसने सीधा प्रश्न किया।
"मैं शहर से आ रहा हूं।"
"तो....?"
"दो पुलिस बाले तुम्हें पूछ रहे थे। जुम्मन भी कुछ कह रहा था।"
"क्या ....?
"कि तुम दोनों पुलिस के डर से इस बस्ती में छुप रही हो। रात बस्ती में इसी बात की चर्चा हो रही थी। जुम्मन यह भी कह रहा था कि उसने तुम दोनों के मुंह से कई बार खून और कत्ल की बातें सुनी थीं। वह अपनी झोपड़ी में पड़ा हुआ तुम्हारी बातों को सुनता रहता था...."
"तो....कल पुलिस में तुम गये थे?" अनीता ने उसे घूरा।
“नहीं जाता तो क्या करता?" मंगल बोला—“तुम्हारे हाथ का चपत गाल पर पड़ा तो सब कुछ करना पड़ा। इसमें मेरा क्या दोष?"
"किसी को यूं ही बदनाम करते हुये तुम्हें शर्म आनी चाहिये थी!" अनीता गरजी।
"लेकिन अब भी क्या बिगड़ा है।" मंगल ने अपने होठों पर जीभ फिरायी—"इस इलाके का दरोगा मेरा जानकार है। मैं उसे समझा दूंगा। लेकिन....!"
“लेकिन क्या....?"
"बुरा न मानो तो कहूं....?"
"कहो....."
“मैं तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं।"
"मंगल।” अनीता चीख उठी।
“यकीन करो, मैं तुम्हें अपनी झोंपड़ी की रानी बनाकर रखूगा। अभी तो मैं मजदूरहूं, परन्तु दो-चार दिन बाद मुझे एक फैक्ट्री में नौकरी मिल जायेगी। शहर में क्वार्टर ले लूंगा। फिर तो मौज रहेगी।"
"मंगल।" अनीता ने समय की नाजुकता को देखकर उसे समझाने की कोशिश की—“मैं तुमसे दसियों बार पहले भी कह चुकी हूं कि मुझे अथवा सुधा को इस तरह की बातें। बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं। तुम्हारे मन में जो कुछ है, उसे मैं जानती हूं लेकिन मैं बाजारू औरत नहीं हूं। आइन्दा कभी इस तरह की बातें मत करना।"
"क्यों....?"
“इसलिये कि तुम्हारे लिये मुझसे बुरा कोई न होगा।"
"और जब पुलिस तुम दोनों को गिरफ्तार करके ले जायेगी, तब तुम्हारा क्या होगा?" मंगल ने अनीता की ओर देखा।
पुलिस का नाम सुनकर अनीता को कुछ सोचना पड़ा। लेकिन वह अपनी कमजोरी जाहिर नहीं करना चाहती थी इसलिये बोली- "यह मेरी अपनी बात है। सांच को आंच नहीं होती। जब मैंने कुछ किया ही नहीं तो पुलिस मुझे क्यों गिरफ्तार कर लेगी?"
मंगल हंस पड़ा-"तो, तुम नहीं मानोगी....?"
विनीत कोतवाली से निकलकर बाहर आ गया। उसकी बेचैनी और बढ़ गयी थी। एस.पी.ने बताया था कि गोमती किनारे मजदूरों की बस्ती है। सुधा और अनीता नाम की दो लड़कियां वहां रहती हैं। विनीत के मन-मस्तिष्क में यह बात पूरी तरह बैठ चुकी थी कि सुधा तथा अनीता उसी की वहनें होंगी। उसके मन में यह बात नहीं आ सकी थी कि एस.पी. साहब उसका पीछा करेंगे।
वह गोमती किनारे चल दिया। लखनऊ पहली बार आया था इसलिये उसे पूछना पड़ा। शहर के बाहर तक वह एक रिक्शा लेकर पहुंचा।
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अनीता लम्बे-लम्बे कदम बढ़ाती हुई बस्ती की ओर लौट रही थी। वह रूपचंद आलूबाले से मिलने गयी थी। रूपचन्द मिला तो था परन्तु उसकी बातों में भी खुदगर्जी के अलावा और कुछ न था। शाम वहां पुलिस आयी थी और उसने घुमा-फिराकर उन पर खून का इल्जाम लगाना चाहा था। सुधा तो घबरा ही उठी थी। परन्तु उसने बड़ी सफाई से पुलिस के प्रश्नों का उत्तर दिया था तथा स्वयं को मध्य प्रदेश के एक गांव की रहने वाली बताया था। उसका परिवार कहां था, इस प्रश्न के उत्तर में उसने एक मनगढन्त कहानी भी सुना दी थी। जिसमें वह एक लड़के के प्रेम के चक्कर में फंसकर लखनऊ तक आ गयी थी। बाद में लड़का उसे छोड़कर धोखा देकर चला गया था। वह घर से कुछ नकदी और जेवर लेकर भागी थी, लड़का नकदी लेकर उसे धोखा दे गया था। सुधा के विषय में उसने बताया था कि सुधा एक बेसहारा लड़की है, जो उसे एक दिन फुटपाथ पर भीख मांगती हुई मिली थी। उसका विचार था कि पुलिस उसके उत्तरों से सन्तुष्ट होकर गयी थी। लेकिन वह जानती थी कि पुलिस जब यहां तक आ पहुंची है तो वह उनका पीछा नहीं छोड़ेगी। इसी विषय को लेकर रात भर दोनों वहनों में विचार-विमर्श होता रहा था। जीने की समस्या एक बार फिर सामने खड़ी हो गयी थी। अंत में अनीता ने इस बस्ती को ही छोड़ देने का निश्चय किया था। उसे कोई और ठिकाना चाहिये था, इसी विषय में वह रूप चन्द आलूबाले से मिलने गयी थी। परन्तु रूपचन्द की आंखों में भी बासना के डोरे थे, जिन्हें देखना उसके वश की बात नहीं थी। और वह निराश होकर लौट आयी थी। सहसा किसी ने पीछे से उसका नाम लेकर पुकारा तो उसके बढ़ते कदम जड़ हो गये। उसने पलटकर देखा—मंगल था।
क्या है....?" उसने सीधा प्रश्न किया।
"मैं शहर से आ रहा हूं।"
"तो....?"
"दो पुलिस बाले तुम्हें पूछ रहे थे। जुम्मन भी कुछ कह रहा था।"
"क्या ....?
"कि तुम दोनों पुलिस के डर से इस बस्ती में छुप रही हो। रात बस्ती में इसी बात की चर्चा हो रही थी। जुम्मन यह भी कह रहा था कि उसने तुम दोनों के मुंह से कई बार खून और कत्ल की बातें सुनी थीं। वह अपनी झोपड़ी में पड़ा हुआ तुम्हारी बातों को सुनता रहता था...."
"तो....कल पुलिस में तुम गये थे?" अनीता ने उसे घूरा।
“नहीं जाता तो क्या करता?" मंगल बोला—“तुम्हारे हाथ का चपत गाल पर पड़ा तो सब कुछ करना पड़ा। इसमें मेरा क्या दोष?"
"किसी को यूं ही बदनाम करते हुये तुम्हें शर्म आनी चाहिये थी!" अनीता गरजी।
"लेकिन अब भी क्या बिगड़ा है।" मंगल ने अपने होठों पर जीभ फिरायी—"इस इलाके का दरोगा मेरा जानकार है। मैं उसे समझा दूंगा। लेकिन....!"
“लेकिन क्या....?"
"बुरा न मानो तो कहूं....?"
"कहो....."
“मैं तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं।"
"मंगल।” अनीता चीख उठी।
“यकीन करो, मैं तुम्हें अपनी झोंपड़ी की रानी बनाकर रखूगा। अभी तो मैं मजदूरहूं, परन्तु दो-चार दिन बाद मुझे एक फैक्ट्री में नौकरी मिल जायेगी। शहर में क्वार्टर ले लूंगा। फिर तो मौज रहेगी।"
"मंगल।" अनीता ने समय की नाजुकता को देखकर उसे समझाने की कोशिश की—“मैं तुमसे दसियों बार पहले भी कह चुकी हूं कि मुझे अथवा सुधा को इस तरह की बातें। बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं। तुम्हारे मन में जो कुछ है, उसे मैं जानती हूं लेकिन मैं बाजारू औरत नहीं हूं। आइन्दा कभी इस तरह की बातें मत करना।"
"क्यों....?"
“इसलिये कि तुम्हारे लिये मुझसे बुरा कोई न होगा।"
"और जब पुलिस तुम दोनों को गिरफ्तार करके ले जायेगी, तब तुम्हारा क्या होगा?" मंगल ने अनीता की ओर देखा।
पुलिस का नाम सुनकर अनीता को कुछ सोचना पड़ा। लेकिन वह अपनी कमजोरी जाहिर नहीं करना चाहती थी इसलिये बोली- "यह मेरी अपनी बात है। सांच को आंच नहीं होती। जब मैंने कुछ किया ही नहीं तो पुलिस मुझे क्यों गिरफ्तार कर लेगी?"
मंगल हंस पड़ा-"तो, तुम नहीं मानोगी....?"