Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - Page 3 - SexBaba
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Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस

एक दिन दोपहर के समय अनीता अपनी छोटी वहन सुधा के साथ बाजार से कुछ सामान खरीदकर घर आ रही थी। रास्ते में विशाल ने अनीता को रोक लिया। "सुनिये मिस अनीता....।" विशाल ने शिष्ट भाव से कहा।

अनीता उसकी आवाज को अनसनी करके आगे चल दी। मगर तभी अनीता के कानों में विशाल का स्वर दुबारा पड़ा-"प्लीज अनीता, मेरी बात तो सुनिये। आप मुझे गलत मत समझिये। बस एक बात का जबाब हां या ना में दे दीजिये।" ।

अनीता उसके याचना भरे स्वर को सुनकर घड़ी भर के लिये ठहर गई। विशाल उसके घर से दो-तीन घर छोड़कर रहता था। विशाल काफी अमीर फेमिली से सम्बन्ध रखता था। अनीता का उनके घर कम ही आना-जाना था। मगर विशाल की मां अनीता की बहुत प्रशंसा करती रहती थीं। विशाल का घर काफी बड़ा था। मगर घर में प्राणी केबल तीन ही थे। विशाल के पिता सरकारी नौकरी पर थे। विशाल की भी सरकारी नौकरी लगने ही वाली थी। अमीर होने के साथ-साथ ये लोग गरीबों से कोई दूरी नहीं रखते थे। विनीत और विशाल के परिवार में आपस में अच्छी बोल-चाल थी। विशाल जब-जब अनीता को देखता तो उसका दिल सीने से बाहर आने को मचल पड़ता। मगर वह आज तक अपने प्रेम का इजहार कभी भी अनीता के सामने नहीं कर पाया था। उसे हमेशा इसी बात का डर रहता था कि कहीं अनीता उसकी मौहब्बत का मजाक न बनाये। वह किसी भी हाल में यह नहीं चाहता था कि उसके सच्चे प्रेम पर शक की कोई भी दृष्टि उठाये। बस यही सोचकर वह अपने जबान दिल की धड़कनों को काबू में रखे था। मगर वह किसी भी हाल में अनीता को अपनी जिन्दगी से अलग नहीं करना चाहता था। वह उसे अपने घर की दुल्हन बनाना चाहता था। लेकिन वह अपनी पसंद पर किसी भी । प्रकार की कोई इच्छा नहीं थोपना चाहता था। उसे पूरा विश्वास था कि अगर वह अपनी मां से कहेगा कि वह अनीता के पिता से अनीता का हाथ मेरे लिये मांग लें तो वह कभी मना नहीं करेंगी। क्योंकि अनीता पढ़ी-लिखी एक खूबसूरत लड़की थी, जिसके आने से हमारे सूने आंगन में उजाला-ही-उजाला हो जाएगा। मगर वह यह सोच-सोचकर भी परेशान था कि अनीता कहीं उसे निराश न कर दे।

वह अपनी शादी के विषय में अनीता की इच्छा जानना चाहता था। यही सोचकर आज उसने पक्का दिल करके अनीता से बात करने का इरादा किया था। कि कहीं वह बाद में न पछताये। वह देखता रह जाए और अनीता को कोई और ब्याहकर ले जाये। यह ख्याल आते ही विशाल का दिल दहल गया। नहीं....ऐसा नहीं हो सकता। वह मेरी है, सिर्फ मेरी! मैं किसी और से शादी की कल्पना भी नहीं कर सकता। अगर अनीता ने मेरे सच्चे प्यार को ठुकरा दिया तो मैं मर जाऊंगा। वह इन्हीं सोचों में खोया था कि उसे ख्याल आया कि अनीता बाजार से आती होगी। आज वह उससे बात करके ही रहेगा। "अनीता, देखो, मैं तुमसे सड़क पर बात नहीं करना चाहता था। तुम्हारी इज्जतही मेरी इज्जत है। मैं नहीं चाहता कि कोई तुम पर उंगली उठाये। अगर किसी की उंगली तुम्हारी तरफ उठ भी गई तो मैं उसे तोड़ दूंगा।" विशाल की बातों में किस कदर अपनापन था।

अनीता यह सुनकर स्तब्ध रह गई। उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि विशाल उसके लिये ऐसी भावनायें रखता होगा। विशाल की यह बात सीधी अनीता के दिल में जा उतरी थी। विशाल देखने में खूबसूरत ब अमीर घराने का शहजादा था। अनीता तो क्या कोई भी लड़की उसे देखकर मर-मिटने को तैयार न हो जाये तो कोई बात नहीं।

अनीता को वह अच्छा तो लगता था, मगर उसने कभी उसके विषय में ऐसा नहीं सोचा था। अगर पागल दिल में ऐसा ख्याल कभी आ भी जाता तो वह यह सोचकर ख्याल को झटक देती कि कहां ये अमीर लोग....कहां हम गरीब आदमी....हम तो उनके कदमों की धूल भी नहीं। आज विशाल की यह बात सुनकर दिल के सारे सोये हुए अरमान जाग उठे। वह शर्म से लाल हो गई। बड़ी मुश्किल से शर्माती हुई बोली-“कहिये विशाल जी, आप क्या कहना चाह रहे थे...."

विशाल तपाक से बोला—“मैं....तो आपको चाहता हूं....और हर हाल में तुमको अपनाना चाहता हूं।"
 
अनीता के दिल के सारे तार एक साथ झनझना गये। वह चाहकर भी कुछ न कह सकी। वह मूक बनी दूर चीड़ के वृक्षों को एकटक देख रही थी।

विशाल अनीता को मूक खड़ा देख रहा था। उसकी आंखों में वह अपने प्रेम की तहरीर पढ़ चुका था, लेकिन वह प्रत्यक्ष रूप में हां चाहता था। वह पुनः बोला-"तो क्या मैं इस प्रेम की डगर में तुम्हें अपना हमसफर समझू?"

वह अपने दिल में प्रेम के फूटने वाले अंकुर को दबाते हुए बोली-“मैं अपने घरवालों के खिलाफ एक कदम भी नहीं उठा सकती। वरना मैं....हर पल तुम्हारे साथ हं....। तुम्हारी जिन्दगी में आकर मैं खुद को बहुत खुशनसीब समझूगी....।" इतना कहती हुई वह सुधा का हाथ पकड़कर लम्बे-लम्बे डग भरती हुई घर की ओर बढ़ी।

अनीता का उड़ता हुआ आंचल विशाल के गाल को छ्रता हुआ चला गया। कुछ पल के लिये वह अनीता को जाते देखता रहा....उसकी कमर पर काले बालों की लम्बी चोटी, नागिन की तरह बल खा रही थी। वह अपने घर आ गया। धीरे-धीरे शाम घिर रही थी। वह अपनी छत पर चढ़ा तो अनीता अपने घर में बैठी खाना खा रही थी। अचानक अनीता की निगाह ऊपर गई तो उसको फन्दा लग गया। निवाला सीधा हलक में चला गया था। विशाल परेशान हो गया। जल्दी से नीचे आया, अपनी मम्मी को अनीता के घर भेजा-कहीं उसकी तबियत ज्यादा खराब न हो जाये। अनीता को उल्टी लग गई थी। जो कुछ खाया-पिया था, सब बाहर आ गया था। विशाल की मां विशाल के दिल में उठने बाली प्रेम-अग्नि की तपन को जान गई थीं। उन्होंने मौके को देखकर विशाल से बात करनी चाही।

अनीता के घर से वापस आयी अपनी मां को देखकर विशाल मां के पास मंडराने लगा कि मां स्वयं ही अनीता की तबियत के विषय में बता दें। विशाल की मां विशाल की ये बेचैनी अच्छी तरह देख रही थीं।

हारकर विशाल ने विनीत के विषय में पूछा-"मां, क्या विनीत घर पर है? मुझे विनीत से कुछ बात करनी थी।"

“विनीत तो घर पर है मगर....अनीता को डॉक्टर के पास ले गये हैं....." मां ने उसकी स्थिति का जायजा लेने के लिये झूठ का सहारा लिया।

इतना सुनते ही विशाल के ऊपर सांप-सा लोट गया— क्या?" वह एकदम परेशान हो गया। “मां, कौन से डॉक्टर के पास ले गये हैं?" वह ना चाहकर भी पूछ बैठा।

उसकी ऐसी दशा देखकर विशाल की मां जोरदार ठहाका लगाकर हंसने लगीं। विशाल असमंजस में पड़ गया। विशाल की मां उसे बड़ी गौर से देख रही थीं। बड़े प्यार भरे लहजे में उन्होंने उसे अपने पास बुलाया—"विशाल बेटा, जरा इधर तो आओ।"

विशाल मां के करीब आकर बैठ गया— क्या....बात है....बेटा? क्यों इतना परेशान है?"

“अ....हा नहीं मां....कोई बात नहीं है।” वह झट बोल गया।

"सफेद झूठ!" मां ने झट से कहा। विशाल अब अपनी मां की गोद में सिर रखकर बैठ गया। उसकी मां उसके बालों में हाथ
फेरने लगीं। "मैंने भी झूठ बोला था कि अनीता को डॉक्टर के यहां ले गये हैं....। तुमने भी झूठ बोला। अब तुम्हारा और हमारा हिसाब बराबर।"
 
विशाल ने इत्मीनान की सांस ली। उसको अहसास हो गया कि माताजी उसके दिल का हाल जान गई हैं।

"विशाल बेटा, एक बात पूडूं।" विशाल की मां ने विशाल की आंखों में झांकते हुए पूछा।

"हां-हां, क्यों नहीं।” झिझकते भाव में वह बोला।

"अनीता के लिये इतने क्यों परेशान हो? क्या समझू?"

"बही समझो मां जी जो आपको समझना चाहिये।” मां के सामने बैठते हुए उसने आहिस्ता से कहा।

"तो बात करूं अनीता के पिताजी से? अब मैं भी घर में अकेली बोर होती रहती हूं....."

"माई ग्रेट मदर! तुम कितनी अच्छी हो?" विशाल मां के गले में बांहें डालकर घूम गया।

विशाल की मां स्वयं भी अनीता को बहुत चाहती थीं। मगर इस बात से ही डरती थीं कि कहीं मेरी पसंद विशाल को पसंद न आये। मगर आज विशाल की पसंद के विषय में जानकर वह बहुत खुश थी। वह जल्दी ही अनीता को अपने घर की दुल्हन बनाना चाहती थीं। अनीता एक सुलझी हुई लड़की थी। वह हमारे परिवार को अच्छी तरह चला लेगी यही सोचकर विशाल की मां अनीता को अपने घर में लाना चाहती थीं।

विशाल मां के पास से उठकर अपने कमरे में चला गया। नौकर ने शाम की चाय उसके कमरे में ही दे दी। पहाड़ी इलाकों की फैली धूप भी धीरे-धीरे सिमटने का प्रयास कर रही थी। और....। और धुप हल गई थी। शाम का धंधलापन चारों ओर फैलने लगा। आसमान के मुखड़े पर चांद के चिन्ह उभर आये थे, मानो रात की प्रथम बेला ने आकाश के माथे पर मंगल टीका लगा दिया हो। चाँद-तारों की चमक ने शाम के धुंधलेपन को निगल लिया था। धीरे-धीरे रात का प्रथम चरण प्रारम्भ होता जा रहा था।

विशाल ने चाय की चुस्की ले-लेकर पी। कप खाली हो चुका था। कप को साइड टेबल पर रखकर वह बार्डरोब से नाईट सूट निकालकर चेन्ज करने के लिये बाथरूम में घुस गया। खाना खाने के लिये उसकी मां ने उसे पुकारा– विशाल बेटा! अन्दर घुसा क्या कर रहा है? चल जल्दी आ जा, खाना तैयार है....।"

"मां, मैं अभी आया....।" उसने जोर से कहा। उसके कमरे के पास बाला रूम ही डाइनिंग रूम था। वह हाथ धोकर डाइनिंग रूम में आ गया। खामोशी से खाना खाकर वह अपने कमरे में चला गया। उसकी आंखों के सामने अनीता का मासूम चेहरा बार-बार घूम रहा था। उसका दिल चाह रहा था कि वह किसी तरह अनीता के पास पहुंच जाये और ढेर सारी बातें करे। उसकी मीठी सुरीली आवाज कानों में गूंज रही थी। अनीता आजकल की फैशनेबल लड़कियों से अलग थी। वह ऐसी ही लड़की को अपनी जिन्दगी में लाना चाहता था। वह अनीता के रूप में उसे मिल गई थी। उनका तकाजा भी यही कह रहा था....बस जल्दी ही उसे अपने घर की रानी भी बना डाल। दिल की रानी तो वह कई सालों से बनी बैठी है। रात। गहरी खामोश रात। चारों ओर केबल गहरा सन्नाटा उतरा हुआ था। रात के दो बज गये थे। रात्रि का दूसरा चरण यौबन पर था। वह रात भर सोचता रहा....सिर्फ अनीता के विषय में।
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आज विनीत के घर में अनीता के सिवा कोई नहीं था। सब लोग किसी रिश्तेदारी में गये थे। अनीता बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी, इसलिये वह नहीं गई थी। जाते-जाते अनीता की मां कह गई थी “दिल न लगे तो विशाल की मां के पास चली जाना।” दोनों घरों के लोगों में अच्छे सम्बन्ध थे। “वैसे मैं विनीत को शाम को जल्दी भेज दूंगी।" "अच्छा मांजी।" अनीता ने 'हां' में गर्दन हिलायी। सब लोगों के जाने के पश्चात् अनीता मैगजीन पढ़ने बैठ गई। मगर उसका मन मैगजीन पढ़ने में न लगा। वह बार-बार किताब के पन्ने पलट रही थी। विशाल की तरह वो भी रात में चैन से न सो पायी थी। उसका मन कर रहा था कि वह विशाल से बात करे। बस यही सोचकर कि शायद विशाल से बात हो जाये, वह विशाल के घर पहुंची। घर में प्रवेश करते ही विशाल के दर्शन हुए। वह ड्राइंगरूम में बैठा टी.बी.देख रहा था।

अनीता को अपने घर में आता देख विशाल सोफे से खड़ा हो गया। "आइये....आईये मिस।" बाक्य को अधूरा छोड़कर पुनः बोला—"आइये अनीता जी। कैसी हो?"

"ठीक हूं।” अनीता ने सपाट लहजे में कहा।

"अरे, आप खड़ी क्यों हैं? बैठिये ना....." विशाल ने सोफे की ओर इशारा करते हुए कहा।

"नहीं-नहीं, मैं ठीक हूं। आप बैठिये...।" इश्वर-उधर देखते हुए बोली—“मां जी कहां हैं? दिखाई नहीं दे रही हैं?"

"मां....बो।" कुछ सोचता हुआ बोला- वो यहीं कहीं गई हैं। आती ही होंगी। आप बैठ जाइये।" विशाल ने बहाना बनाया कि कहीं वह यह सुनकर चली न जाये कि मां शाम तक आयेगी। यह सुनकर अनीता सामने पड़े सोफे पर बैठ गई। विशाल एक गिलास पानी लेकर आया तो वह टी.बी. की ओर मुंह करके बैठी थी।

"लीजिये।" विशाल ने ट्रे अनीता के सामने की। अनीता ने पानी का गिलास उठा लिया और पानी पीने लगी। पानी पीकर उसने गिलास बापस ट्रे में रख दिया। जब तक अनीता ने पानी पिया, तब तक विशाल लेकर खड़ा रहा। अनीता मन-ही-मन मुस्करा उठी।

विशाल ने ट्रे सामने मेज पर रख दी। स्वयं अनीता के पास बाले सोफे पर बैठ गया। कुछ देर दोनों मौन रहे। खामोश विशाल अनीता को देख रहा था। जबकि अनीता नीचे गर्दन को झुकाये बैठी थी।

“अनीता, मैं तुमसे बहुत जल्दी शादी करना चाहता हूं। अब मैं ज्यादा दिन इन्तजार नहीं कर सकता। मैं तुम्हें कब से चाहता हूं, तुम्हें इस बात का अहसास तक भी न होगा।" विशाल ने खामोशी तोड़ी।

"विशाल, तुम किसी और लड़की से शादी कर लो.....” अनीता ने गर्दन नीचे किये हुए कहा।

अनीता के ये शब्द विशाल के कानों में ऐसे पड़े जैसे किसी ने गर्म लाबा उसके कानों में उड़ेल दिया हो। "मुझे तुम्हारे सिवा किसी भी लड़की से कोई दिलचस्पी नहीं है....।" विशाल के स्वर में दर्द था।

"विशाल, घर बसते ही तुम्हें अपनी पत्नी से मोह हो जाएगा। पत्नी के प्रेम और घर की जिम्मेदारियों में मुझे भूल जाओगे....।" अनीता ने फुसफुसाते हुए कहा।
 
" पत्नी!" विशाल दर्द से नहा उठा, "जिस दिल में सिर्फ अनीता बसी हो, वहां किसी और लड़की का स्थान कहां रह गया है? अगर तुम मुझे न मिलीं तो मैं यहां से चला जाऊंगा। मैं यहां नहीं....रह सकूँगा....।" प्रत्येक शब्द पीड़ा से लथपथ था। उसकी आंखें भर आईं। वह एक पल के लिये चुप हुआ। आंखें साफ की और पुनः बोला-"हां, जाते समय तुम्हें उस शहर का नाम जरूर बता दूंगा जहां मेरे जाने की उम्मीद है। कभी वक्त आने पर तुम मुझे कभी ढूंढना भी चाहो तो मुझे अपना इन्तजार करता ही पाओगी—मैं तुम्हें वहां मिल जाऊंगा।" विशाल अनीता को अपलक देखता रहा।

अनीता स्वयं भी उससे प्रेम करती थी। मगर उसके दिल में ठहरा प्रेम छलककर आंखों में आ गया, "मुझे इतना मत चाहो विशाल! मैं तुम्हारे प्यार के काबिल नहीं हूं। कहां तुम! कहां हम गरीब....।" वह सिर झुकाये-झुकाये बुदबुदायी।

ऐसा मत कहो अनीता....।” विशाल तड़प उठा, "तुम मेरे लिये क्या हो, तुम इसका कभी अहसास कर भी नहीं पाओगी। अगर तुम्हारा यही आखिरी फैसला है तो मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा। तुम्हारी खुशी में मेरी खुशी है।" अब विशाल एक लम्बी सांस लेकर चुप हो गया।

अनीता विशाल के मासूम चेहरे को अपलक देख रही थी। विशाल ने अपनी बात पूरी होने के पश्चात् अनीता की ओर देखा तो वह अपनी ओर अपलक देखती अनीता को देखकर एक फीकी मुस्कराहट अपने होठों पर लाया।

अनीता ने पलकों की झालर नीचे गिरा दी। और किसी गहरी सोच में नीचे गर्दन करके बैठ गई। कमरे में खामोशी का बाताबरण ठहर गया। थोड़ी देर बाद खामोशी रहने के पश्चात् विशाल ने चुप्पी तोड़ी “बैसे क्या मैं तुम्हारे इन्कार की बजह जान सकता हूं....."

अनीता ने सकपकाकर विशाल की ओर देखा और फिर नीचे मुंह करके चुप बैठ गई। क्योंकि उसके खुद के पास इसका जवाब न था। दिल तो विशाल का नाम ले-लेकर धड़क रहा था।

"अनीता, मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूं?" वह गुस्से में बोला। "क्यों स्वयं को धोखा दे रही हो अनीता, क्यों? क्या तुम्हारे दिल के किसी कोने में भी मेरे लिये जरा सी भी जगह नहीं है?"

अनीता विशाल की आंखों में उतरने वाले गुस्से को देखकर डर गई। वह सहमी-सहमी आबाज से बोली-“नहीं-नहीं विशाल! ऐसा कुछ नहीं है....जैसा आप सोच रहे हैं।"

"तो फिर कैसा है? साफ-साफ बताओ, क्या बात है?" विशाल कुछ ठन्डा पड़ा।

वह कुछ शर्माकर बोली- ये दिल तो पूरा तुम्हारा है। मगर मुझे इस बात का डर है कि....कहीं यह अमीरी-गरीबी की दीबार हमारे प्यार के बीच में न खड़ी हो जाये।"

विशाल जोश से बोला- मैं तुम्हारे लिये दुनिया की हर दीवार गिरा दूंगा! तुम्हें चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं। वो सब मैं सम्भाल लूंगा। मुझे सिर्फ....सिर्फ तुम्हारा साथ चाहिये। तुम्हारा प्यार चाहिये।” वह भाबुक हो गया।
 
विशाल जोश से बोला- मैं तुम्हारे लिये दुनिया की हर दीवार गिरा दूंगा! तुम्हें चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं। वो सब मैं सम्भाल लूंगा। मुझे सिर्फ....सिर्फ तुम्हारा साथ चाहिये। तुम्हारा प्यार चाहिये।” वह भाबुक हो गया।

अनीता विशाल की बात से प्रभावित हो उठी। उसने अपना दाहिना हाथ विशाल की ओर बढ़ाया—“मैं तुम्हारे साथ हूं विशाल!"

विशाल ने अपना दायां हाथ उसके हाथ से मिलाया।

"वायदा?" विशाल ने कहा।

"हां बायदा रहा....। अब हम न होंगे जुदा....” अनीता ने अपने दिल से सहमति जताई। वह हाथ छुड़ाकर घर जाने के लिये उठ खड़ी हुई। "अब मैं चलती हूं। मां जी तो पता नहीं कितनी देर में आयेंगी....."

अनीता को उठती देख विशाल शोखी से बोला—"आप की नॉलिज के लिये मैं आपको ये बता दूं कि मां कहीं किसी जरूरी काम से गई हैं और वो अब शाम तक ही आयेंगी। मगर मैंने आते ही आपको यह बात इसलिये नहीं बतायी थी कि कहीं आप बापस न लौट जायें...." वह सोफे से उठकर अनीता के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया—“सॉरी! झूठ बोलने के लिये।"

अनीता विशाल के इस अन्दाज पर खिलखिलाकर हंसने लगी।

"थोड़ी देर और रुक जाओ। अभी तो आयी हो, चली जाना। वैसे भी तुम्हारे घर पर हैही कौन जो तुम्हारा इन्तजार कर रहा होगा?" विशाल ठीक अनीता के सामने खड़ा बोल रहा था।

वह जाती भी कहां को–बो तो सारा रास्ता रोके खड़ा था। हारकर वह फिर से सोफे पर बैठ गई। बातचीत का दौर फिर शुरू हुआ। “अनीता, तुमको एक खुशी की बात बताऊं?" विशाल की नजरों में एक अजीब सी चमक थी।

"हां।” अनीता ने सिर्फ इतना ही कहा।

"मैंने तुम्हारे लिये मां से बात कर ली है। अब हम तुम्हें जल्दी ही अपने घर ले आयेंगे।"

विशाल की बात सुनकर अनीता की आंखें खुशी से फैल गई। विशाल की बात सुनकर अनीता खिलखिलाकर हंस पड़ी। फूलों जैसी मुक्त हंसी। हंसी रुकने पर वह बोली-"तुमने मां को कैसे बताया?"

“मैंने कहां बताया! बो तो स्वयं ही समझ गईं।"

अनीता आश्चर्य से बोली- कैसे?"

"कल तुमसे मिलने के पश्चात् दिल का अजीब हाल था। फिर तुम्हारी तबियत खराब हो गई थी....तो मैं अधिक ही चिन्तित हो गया था। बस फिर क्या था, मां को जरा भी देर न लगी समझने में कि क्या चक्कर है?"

"फिर?" अनीता ने आगे जानना चाहा।

"फिर क्या....? मैंने बता दिया दिल का हाल। मां तो स्वयं तुम पर फिदा हैं। वे तुरन्त तैयार हो गईं तुम्हें अपने इस स्मार्ट पुत्तर की बहू बनाने को....।" वह इतराकर बोला।

अनीता हंसे बिना न रह सकी। उसका मन खुशी से झूम उठा। मगर उसकी समझ में नहीं आ रहा था वह अपनी प्रसन्नता का इजहार कैसे करे।

अनीता को चुप बैठा देख विशाल पुनः । बोला—“कहां खो गईं? क्या ख्यालों में स्वयं को दुल्हन बने देख रही हो? कैसी लग रही हो मुझ जैसे स्मार्ट बन्दे के संग? कोई बात नहीं अगर अच्छी भी नहीं लग रही तो भी हमें यह काली बिल्ली पसंद है।" वह बड़े इत्मीनान से बोला।

"धत!" अनीता ने तिरछी दृष्टि विशाल पर डाली—"बड़े शरारती हो तुम तो....|" अनीता विशाल की तरह उसकी बातों का जवाब देना चाह रही थी। तभी उसको शरारत सूझी। "हम दोनों को देखकर आपके दोस्त कहा करेंगे—'हूर के साथ लंगूर'।" वह यह कहकर हंस पड़ी।

"अरे-अरे, तुमको तो बोलना आता है—मैं तो समझा था तुम कुछ जानती ही नहीं हो।" विशाल ने कहा।

"अच्छा, अब मैं चलूंगी। काफी देर हो गई है।” वह उठ खड़ी हुई।
 
"ठीक है। अब मैं रोकूगा भी नहीं। मां आती होंगी। वैसे कुछ ही दिनों की तो बात है। फिर कौन जाने देगा।" वह भी उठ गया। "अब कब मिलोगी?" विशाल ने पूछा।

अनीता ने तपाक से कहा—"शादी पर।” इतना कहकर वह घर की ओर चल दी।

विशाल अनीता की पीठ पर नजरें गड़ाये खड़ा रहा। आज अनीता शायद नहाकर सीधी यहां आ गई थी। उसके खुले बाल बहुत चमकदार व खूबसूरत लग रहे थे। वह बार-बार उड़कर आने वाले उन बालों को जो उसके गाल पर आ रहे थे, अपने हाथ से पीछे करती हुई आगे को बढ़ती जा रही थी।
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आज की रात विशाल और अनीता के लिये खुशियों की ढेर सारी सौगात लेकर आयी थी। आकाश ने शाम की अन्तिम लालिमा भी निगल ली थी। खामोशी! चीड़ तथा चिनार के वृक्ष बायु के हल्के-हल्के झोंकों के साथ नाच रहे थे। चारों ओर उतरता आ रहा था शबनमी अन्धेरा। आकाश में चांद मीठी-मीठी मुस्कान बिखेर रहा था। तारे पूरे जोश से टिमटिमा रहे थे। विशाल की शानदार कोठी पर छोटे-छोटे बल्बां की रोशनी जगमगा रही थी। उन बल्बों को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे आकाश से उतरकर छोटे-छोटे तारे टिमटिमा रहे हों। स्तंभों के सहारे बंधी रंग-बिरंगी झंड़ियां हवा के हल्के झोंकों के कारण लगातार फड़फड़ा रहे थीं, मानो अभी उड़कर आकाश से गले मिलना चाहती हों। कोठी के बाहर एक छोटा बगीचा जिसके चारों ओर चीड़, चिनार, गुलमोहर के कुछ पेड़ लगे थे। मेहंदी के झाड़ के आस-पास कारें, बाइकें व अन्य बाहन खड़े थे। मेहमानों का एक बड़ा जमघट बड़े हॉल में था। हॉल भी बड़े शानदार तरीके से सजाया गया था। हॉल में रोशनी-ही-रोशनी थी।

छत के बीचों-बीच बल्बों का एक खूबसूरत झाड़ फानूस लगा था। उसके चारों ओर छोटे-छोटे झाड़-फानूस लगे थे, जिसमें रंग-बिरंगे बल्ब लगाये गये थे। हॉल में से बहुत प्यारी खुशबू फूट रही थी। लगता था रुह स्प्रे का भरपूर प्रयोग किया गया था। आने वाले मेहमान परफ्यूम में नहा-नहाकर आये थे। यह हॉल विशेष तौर पर पार्टी इत्यादि के लिये ही बनाया गया था। आम दिनों में इसमें एक ताला लटका हुआ दिखाई देता था। इस सजीले हॉल के बराबर में ही एक सजीला ब आधुनिक ड्राइंगरूम था। ड्राइंगरूम के गेट पर ही फूलों की पंखुड़ियों व रंगों से रंगोली बनाई गई थी। रंगोली गोल आकार में बहुत ही सुसजित लग रही थी। आने वाले, जाने से पहले उसको देखकर प्रशंसा करे बिना नहीं गुजरते। मेहमानों को स्वयं इस बात का अहसास था कि पैर रखने से रंगोली की शोभा बिगड़ जाएगी, इसीलिये सभी लोग उससे बच-बचकर चल रहे थे। दरवाजे पर भी फूलों की कुछ लड़ियां लटकाई गई थीं। जिनके पास से निकलने पर गुलाब की भीनी-भीनी खुशबू मन को तरोताजा कर देती थी। रूम के अन्दर एक शानदार मेज रखी हुई थी, जिस पर छलैक कलर का आधुनिक स्टाइल का शीशा लगा था। जिससे मेज की शोभा बढ़ गई थी। चारों ओर शानदार मखमली कबर के सोफे पड़े थे, जिन पर बहुत ही गुदगुदी गद्दियां लगी थीं। इन पर बैठने बाला नीचे को धंस जाये मगर उठने का मन न करे। मेज पर एक कांच का ही फ्लावर पॉट रखा था, जिसमें ताजे गुलाब की कलियां व अन्य कई तरह के फूल लगे थे। कोने में एक टेबल पर कलर टी.बी. रखा था। जिस पर हाथ से पेन्ट किया कबर पड़ा था। ड्राइंगरूम के दूसरे कोने में एक बड़ा फ्लावर पॉट रखा था। जिसमें बाजार से खरीदे हुए नकली फूल लगे थे। मगर बे ऑरिजनल फूलों से कम नहीं लग रहे थे।

उसी में मोर के कुछ पंख रखे थे। जो पंखे की हवा से इधर-उधर झुकते हुए ऐसे लग रहे थे जैसे नृत्य कर रहे हों। इस ड्राइंगरूम में कुछ विशेष मेहमानों की बैठने की व्यवस्था भी की गई थीं। आज अनीता और विशाल की सगाई पार्टी थी। इस सगाई के अवसर पर अनीता किसी अप्सरा के समान सजी हुई लोगों को घायल कर रही थी। गोल्डन कलर की सिल्क साड़ी, फिटिंग का हॉफ स्लीव का ब्लाउज, लम्बे घने काले खुले केश, कलाइयों में सोने की चूड़ियां, गोरी सुराहीदार गर्दन शानदार लॉकेट से सुशोभित थी, कानों में मैचिंग के खूबसूरत गोलाकार कुंडल। वह स्वयं कम कयामत नहीं लग रही थी। पाटी के लोगों की नजरें घूम-फिर कर अनीता पर टिक जाती थीं।

विशाल भी कम स्मार्ट नहीं लग रहा था। विशाल क्रीम कलर के सूट में काफी जानलेवा प्रतीत हो रहा था। उसके काले बाल जो सुन्दरता से काढ़े गये थे, एकदम सैट लग रहे थे। वह बार-बार उनको हाथों की उंगलियों से ऊपर करता हुआ बहुत दिलकश लग रहा था। सगाई की रस्म पूरी होने में अभी काफी समय था। इस शुभ अवसर पर विशाल अत्यधिक प्रसन्न था। उसकी खुशी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। आंखों में अजीब-सी चमक थी। वह इधर-उधर दोस्तों से मिल-मिलकर बातें कर रहा था। बीच-बीच में वह खिलखिलाकर हंस पड़ता था। अनीता की मम्मी और विनीत मेहमानों में उलझे हुए थे। विनीत की खुशी का ठिकाना न था। प्रीति भी प्रसन्न नजर आ रही थी। प्रीति अनीता के पास बैठी उसके नाज नखरे उठा रही थी। अनीता की शादी के बाद प्रीति और विनीत की शादी का ही नम्बर था। अनीता को प्रीति बार-बार विशाल का नाम ले-लेकर छेड़ रही थी। अनीता शर्मा शर्मा कर निहाल हो रही थी। अनीता अपनी कुछ अन्य सहेलियों के कटाक्ष भी सहन कर रही थी। सगाई की रस्म अदा हुई तो चांदी के थाल में गुलाब की पंखुड़ियां रखी थीं। सगाई में आये मेहमानों ने उन दोनों पर मुट्ठी भर-भर कर उछाला। डिनर के बाद पार्टी समाप्त हुई। विशाल और अनीता आज समाज ब परिवार की नजरों में एक पबित्र बन्धन में बंध गये थे।
 
बे दोनों आज बेहद खुश थे। अनीता के परिवार को तो पहली बार इतनी बड़ी खुशी मिली थी। अनीता की मां की आंखों में खुशी के आंसू छलक आये थे। वह अनीता के पिता से कह रही थीं-"विनीत के पिता जी, हमारी अनीता का कितना अच्छा भाग्य है जो विशाल की मां ने उसको अपने विशाल की बहू बनाना चाहा। पता नहीं हमने कौन-सा पुण्य किया था जिसके बदले हमें इतने अच्छे लोग मिले हैं..... उनकी कोई भी तो डिमान्ड नहीं है।"

"हो....! उसकी मां कह रही थीं हमें तो बस अनीता चाहिये। और सब कुछ तो भगवान का दिया हमारे पास है।" विनीत के पिताजी बोले।

“विशाल की मां कह रही थी बस कोई अच्छा-सा मुहूर्त देखकर दोनों का बिबाह जल्दी ही कर देंगे।" अनीता की मां ने कहा।

"वे ठीक ही कहती हैं। अच्छा है जल्दी से अनीता के हाथ पीले हो जाएं तो सिर से एक बोझ तो उतर जायेगा। फिर विनीत और प्रीति को भी शादी के बन्धन में बांध देंगे। मैं तो मरने से पहले विनीत के सिर पर सेहरा देखना चाहता हूं।" विनीत के पिता भविष्य की बातें करने लगे।

"मरें आपके दुश्मन!" विनीत की मां ने अपने पति के मुंह पर हाथ रखकर कहा- आपको भगवान लम्बी उम्र दे।"

सगाई को कुछ दिन गुजर गये। अनीता ने विशाल के घर जाना बंद कर दिया। कभी-कभी किसी जरूरी काम से अगर उसे विशाल के घर जाना पड़ता तो वह स्वयं न जाकर सुधा को भेज देती।
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एक दिन अचानक विशाल अपनी मां के साथ अनीता के घर में आया। अनीता की मां अचानक उनको देखकर आश्चर्य में पड़ गईं। किसी अजीब शंका ने दिल पर दस्तक दी। सब ठीक तो है? स्वयं को सम्भालते हुए उन्होंने पूछ ही लिया—"आइये....आइये! आओ विशाल बेटा, आओ। सब कुशल-मंगल तो है?"

"हो.हां मांजी....सब ठीक है।” विशाल बोला।

"ये लो...." विशाल की मां ने मिठाई का डिब्बा आगे बढ़ाते हुए कहा-"विशाल की सर्विस बैंक में लग गई है।"

"ये तो बड़ी अच्छी बात है....." अनीता की मां मिठाई का डिब्बा लेती हुई बोली - "मुबारक हो बेटा! तुम आज अपने पैरों पर मजबूती से खड़े हो गये हो।"

“बैंक्यू मांजी।" विशाल ने अनीता की मां को धन्यवाद दिया। विशाल की निगाहें कुछ खोज रही थीं, शायद वह अनीता को ढूंढ रहा था। मगर वह शायद घर में नहीं थी।

विशाल की मां विशाल की आंखें तुरन्त पढ़ लेती थीं। वह समझ गई कि वह अनीता को खोज रहा है, मगर शर्म के कारण पूछ नहीं पा रहा है। तब उन्होंने स्वयं पूछा-"अनीता कहां है?"
 
"अनीता सुधा के स्कूल में किसी काम से गई है। आती ही होगी।"

अनीता के विषय में जानकारी मिलने के पश्चात् विशाल के दिल की धड़कन काबू में आयी। विशाल और उसकी मां कुछ देर बहां रुकने के पश्चात् अपने घर वापस आ गये।

अब विशाल का ऑफिस जाने का क्रम चलता रहा। वह सुवह दस बजे जाता और शाम पांच बजे के बाद वापस लौट आता। जिन्दगी बहुत मजे में व्यतीत हो रही थी। शादी की तैयारी भी धीरे-धीरे चल रही थी। उधर अनीता की मां ने भी अनीता के लिये कुछ सामान खरीदना शुरू कर दिया था। कभी कभार वह विशाल को भी अपने साथ बाजार ले जातीं। विशाल की मां ने भी अनीता की पसंद से ही सभी कपड़े खरीदे थे। रोज-रोज बाजार के चक्कर लगा-लगाकर वह थक चुके थे। अब तैयारी पूरी सी ही थी। शादी की डेट भी निश्चित कर दी गई थी। शादी में कुछ ही दिन शेष थे। जैसे-जैसे शादी करीब आती जा रही थी, वैसे-वैसे ही विशाल और अनीता के दिल की उमंगें बढ़ती जा रही थीं। वे दोनों तो क्या उनका पूरा परिवार इस रिश्ते से बहुत खुश था।
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विशाल ने बड़ी कठिनाई से आंखें खोलीं। उसके मुंह से दर्द भरी आवाज निकली—"मैं कहां हूं?" उसके शरीर पर अनगिनत चोटें लगी थीं। उसके हिलने मात्र से ही पूरे शरीर में कराह की लहर दौड़ जाती। उसके एक हाथ में प्लास्टर था। सिर पूरा पट्टियों से बंधा था। दोनों पैरों पर प्लास्टर चढ़ा था। पैरों में रॉड डाली गई थी। वह एकदम सीधा लेटा ऊपर चलने वाले हल्की-हल्की हवा फेंकने वाले पंख को देख रहा था। उससे बिल्कुल भी नहीं बोला जा रहा था। बड़ी कोशिशों के पश्चात् बस वह इतना ही पूछ पाया था—“मैं कहां हूं....."

तभी पास बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला ने उत्तर दिया- बेटा, तुम अस्पताल में हो। तुम्हें पांच घन्टे में होश आया है। हम सुवह से बहुत परेशान है। तुम्हारा कोई कान्टेक्ट नम्बर भी तुम्हारे पर्स में नहीं मिला, न ही तुम्हारा पता लिखा मिला जो हम तुम्हारे घर पर सूचना दे देते।"

विशाल मस्तिष्क पर जोर डाले कुछ सोच रहा था। उसे याद आया वह सड़क पार करते समय पता नहीं कैसे दो गाड़ियों के बीच में फंस गया था। वे तेज स्पीड से दौड़ती हुई आ रही थीं। वह भी जल्दी सड़क पार करना चाहता था—बस। जब आंख खुली तो अस्पताल में था। अपने घर के विषय में सोचते ही वह दुःखी हो गया। सबसे पहले उसने अपने घर पर फोन मिलवाया। ट्रिन....ट्रिन। फोन की घण्टी बजी। विशाल की मां ने फोन रिसीव किया-"हैलो...."

"हैलो! मैं डॉक्टर रस्तोगी बोल रहा हूं।"

विशाल की मां ने पूछा-"किससे बात करनी है?"

डॉक्टर रस्तोगी एक क्षण को शान्त हुआ, फिर बोला-"आप विशाल की मदर बोल रही हैं क्या?"

"हां-हां। क्या बात है?" वह कुछ परेशान हो गईं।

"आपके बेटे का एक्सीडेन्ट हो गया है।"

विशाल की मां हड़बड़ा गईं—“वह कहां है?"

"विशाल चौरासिया अस्पताल में एमरजेन्सी बार्ड में है।" डॉक्टर ने अस्पताल का पता बताया। इतना सुनते ही विशाल की मां ने फोन काट दिया।

"विशाल, हमने तुम्हारी मां को तुम्हारे विषय में बता दिया है। अब तुम्हें घरवालों की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। अब तुम फ्री माइन्ड होकर आराम करो...."
 
विशाल अजीब-सी निगाहों से डॉक्टर रस्तोगी को देख रहा था। तभी एक खूबसूरत नौजवान ने उस कमरे में प्रवेश किया। विशाल के पास बैठी हुई अधेड़ उम्र की महिला उसी नौजवान की मां थीं। नौजवान ने कमरे में आते ही पूछा- क्या हुआ डॉक्टर?"

"होश आ गया। मगर खून की एक बोतल चढ़ने के बाद भी दो-तीन बोतल खून की और आवश्यकता है....। सिर फटने से शरीर का बहुत खून वह गया है....।" दिमाग का डॉक्टर रस्तोगी कुछ आगे कहने वाला था लेकिन विशाल को अपनी ओर देखते देख वह चुप हो गया।

नौजवान ने फिर सवाल किया—“कुछ अपने विषय में बताया?"

"हां, इन्होंने अपने घर का नम्बर दे दिया है। मैंने इसके घर पर बता दिया है शायद इनके घरवाले आते ही होंगे।" डॉक्टर रस्तोगी ने नौजवान की परेशानी कम की।

विशाल ने नौजवान की ओर दृष्टि घुमाई और बोला-"आप कौन हैं? आपका नाम क्या है।

"मैं आपका शुभचिन्तक ह।" वह धीरे से मुस्कराया, "मेरा नाम प्रेम है। जब आपका एक्सीडेन्ट हुआ, मैं अपनी मां को लेकर जा रहा था। रास्ते में देखा बहुत भीड़ जमा थी। मैं जल्दी से गाड़ी से उतरा और भीड़ को चीरता हुआ अन्दर घुस गया। सड़क पर तुम बेहोश पड़े थे....सिर से खून वह रहा था। तुम्हें देखकर मुझे पता नहीं कहां से इतनी शक्ति आ गई, तुमको अपने कन्धे पर उठाया, गाड़ी में लिटाकर अस्पताल ले आया। मां को बस तुम्हारे पास बिठाकर मैं स्वयं घर नहाने चला गया।"

बहुत देर से खामोश बैठी प्रेम की मां बोल पड़ीं—“मुझे तो बहुत डर लग रहा था। अच्छा हुआ बेटा तुम बच गये....वरना इतनी लम्बी बेहोशी को देखकर मैं तो घबरा ही गई थी।"

प्रेम डॉक्टर रस्तोगी से बात करने लगा-"आप पैसे की चिन्ता मत कीजिये। जल्द-से-जल्द खून का बन्दोबस्त कर लीजिये। आप इनको गैर मत समझिये। ये मेरे लिये मेरे बड़े भाई जैसे हैं। वैसे भी मेरा कोई भाई नहीं है। आज से मैं इनको अपना भाई मान बैठा हूं....।"

उसी के साथ प्रेम ने नोटों की गड्डी डॉक्टर को थमा दी। डॉक्टर प्रेम से रुपये लेकर जाने लगा।

"थैक्यू प्रेम। मैं तुरन्त खून का बन्दोबस्त करता हूं। अब आपको टेन्शन लेने की आवश्यकता नहीं है।”

"ओके डॉक्टर साहब।" प्रेम ने प्रेमपूर्वक कहा। प्रेम विशाल के पास स्टूल रखकर बैठ गया। विशाल अपलक प्रेम को देख रहा था। उसने डॉक्टर व प्रेम के बीच होने वाले बार्तालाप को सुन लिया था। वह मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दे रहा था कि भगवान ने प्रेम को उसे बचाने के लिये भेज दिया। यदि प्रेम आधा घन्टा और उसे अस्पताल में न लाता तो वह सड़क पर ही दम तोड़ देता। मरने का ख्याल दिमाग में आते ही विशाल दुःखी हो गया। उसकी आंखों में आंसू आ गये। वह अनीता के विषय में सोचने लगा। अगर मुझे कुछ हो गया तो मेरी अनीता का क्या होगा?

विशाल को किसी गहरी सोच में डूबा देख प्रेम ने पूछा-"कहां खो गये विशाल?"

विशाल एकदम चौंका—जैसे नींद से जागा हो। "अ....हां कहीं नहीं।” वह घबराकर इतना ही कह सका।

"डियर विशाल, डॉक्टर ने आपको कुछ भी टेन्शन लेने से मना किया है। अगर तुम अधिक सोचोगे तो मस्तिष्क पर असर पड़ेगा और फिर कुछ भी हो सकता है।" प्रेम इनडायरेक्ट बे में उसे समझाता हुआ बोला।

विशाल धीरे से 'अच्छा जी' कहकर चुप हो गया। उसने अपनी आंखें बंद कर लीं।

प्रेम काफी समय तक उसके पास मौन बैठा रहा। जब काफी समय तक उसने आंखें न खोलीं तो प्रेम यह सोचकर कि शायद विशाल को नींद आ गई है, वहां से बाहर चला गया। प्रेम की मां फिर भी वहीं बैठी रहीं। कहीं विशाल को किसी चीज की जरूरत न पड़ जाये? क्या पता वह कब आंखें खोल दे। पता नहीं वह सोया है या नहीं। अगर सोया है तो....भी मरीज को अकेले नहीं छोड़ना चाहिये। बस यही सोचती हुई, वह वहां बैठी रहीं।
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