Hindi Antarvasna - आशा (सामाजिक उपन्यास) - Page 3 - SexBaba
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Hindi Antarvasna - आशा (सामाजिक उपन्यास)

“ठीक है लेकिन वह तो जवानी के साथ ज्यादा से ज्यादा देर तक चिपकी रहना चाहती है । एक बार उसने हीरोइन से कम कोई रोल किया तो वह फौरन बी ग्रेड ऐक्ट्रेस हो जायेगी ।”
“अर्चना माथुर से बात करते समय मुझे छोटी सी बात का इतना लम्बा चौड़ा फैलाव नहीं सूझा था ।”
“लेकिन वह तो तुम्हारी बात सुनकर अंगारों पर लोट गई है । एक मर्द के सामने तुमने उसे ऐसी बात कह दी थी जिस से यह जाहिर होता था कि वह पक्की औरत है ।”
“मेरा ऐसा इरादा नहीं था ।” - आशा खेदपूर्ण स्वर से बोली ।
“तुमने कौन सा दुबारा मिलना है उससे ।”
आशा चुप रही ।
सिन्हा भी कुछ नहीं बोला ।
आशा उठ खड़ी हुई ।
“फिर तुम्हारा सिनेमा स्टार बनने का कतई इरादा नहीं है, आशा ।”
“मैंने आपको कल ही अपना उत्तर दे दिया था ।”
“मैंने सोचा शायद बात को गम्भीरता से सोचने के बाद तुम्हारा इरादा बदल गया हो ।”
“मेरा इरादा नहीं बदला है ।” - आशा निश्चय पूर्ण स्वर से बोली ।
“आल राइट ।” - सिन्हा गहरी सांस लेता हुआ बोला ।
आशा केबिन से बाहर निकल आई ।
वह अपनी सीट पर आ बैठी ।
टाइपराइटर की बगल में कोई एक नई फाइल रख गया था ।
आशा ने बड़े आशा पूर्ण ढंग से फाइल का कवर उठाया । भीतर दफ्तर के लैटर हैड के कागज में लिपटा हुआ चाकलेट का पैकेट मौजूद था । उसने चाकलेट का पैकेट निकाल कर अपने पर्स में डाल लिया और फिर कागज खोलकर देखा ।
कागज खाली था । पिछले दिन की तरह उस पर कुछ लिखा हुआ नहीं था ।
आशा ने एक गहरी सांस छोड़ी और कागज का गोला सा बना कर रद्दी की टोकरी में डाल दिया ।
उसी क्षण टैलीफोन की घन्टी घनघना उठी ।
आशा ने रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया और दूसरे हाथ से एक्सचेंज का बटन दबाती हुई बोली -” हल्लो ।”
“आशा जी ।” - दूसरी ओर से उसे एक उत्तेजित स्वर सुनाई दिया ।
“यह प्लीज ।” - आशा बोली ।
“आशा जी, मुझे पहचाना आपने ?”
“आप...”
“भूल गई न ? मैं अशोक बोल रहा हूं । कल चार बजे सिन्हा साहब के दफ्तर में आया था ।”
“ओह, अच्छा, अब पहचान लिया ।” - आशा बोली । अशोक को वह सचमुच ही भूल चुकी थी ।
“मैंने कहा था न कि अगर मेरा काम बन गया तो कल आपको फोन करूंगा ?”
“हां । बन गया काम ?”
“पूरे पचास हजार रुपये का बीमा किया है । मेरा बहम ठीक निकला न । काने की सूरत देखकर गये तो धेले का बिजनेस नहीं मिला और दूसरी जगह आपकी सूरत देखकर गये तो पूरे पचास हजार रुपये का हाथ मार दिया ।”
“फिर तो तगड़ी कमीशन मिलेगी ?”
“बिल्कुल । मजा आ जायेगा । आशा जी, अब आप मेरी एक प्रार्थना स्वीकार कर लें तो मैं अपने आप को संसार का सब से अधिक भाग्यवान व्यक्ति समझूंगा ।”
“क्या ?” - आशा सन्दिग्ध स्वर से बोली - “मैं भी बीमा करा लूं ?”
“अजी बीमे को गोली मारिये । एक ही दिन में महीने भर का धन्धा हो गया है ।”
“तो फिर ?”
“आज आप मेरे साथ कहीं चाय पीने चालिये ।”
“मिस्टर अशोक, मैं...”
“देखिये इनकार मत कीजियेगा ।” - अशोक का याचनापूर्ण स्वर सुनाई दिया - “यह भावना का सवाल है । मेरा मन कहता है कि अगर मैं आप की सूरत देखकर न गया होता तो मुझे इतना तगड़ा केस कभी नहीं मिलता ।”
“भई पहले अपनी कमीशन हासिल तो कर लो । जब पैसा जेब में आ जाये तब चाय पिलाना मुझे ।”
“कमीशन की चिन्ता मत कीजिये आप । मैं सारी कागजी कार्यवाही पूरी कर चुका हूं । बड़ी पक्की पार्टी है । पालिसी कैन्सिल नहीं होगी । कमीशन तो मुझे मिलेगी ही । आप हां कीजिये । आशा जी, प्लीज ।”
“भई, आज तो मैं कहीं नहीं जा सकूंगी ।” - आशा अनिश्चित स्वर से बोली ।
“तो फिर कल...”
“शायद कल भी न जा सकूं ।”
“तो फिर उससे अगले कल, अगले हफ्ते, अगले महीने, अगले साल, अगले...”
“बस, बस, बस” - आशा हंसती हुई बोली - “अपनी आज की सफलता की सैलिब्रेशन की उमंग इतने लम्बे अरसे तक बरकरार रहेगी तुम्हारे मन में ।”
“बिल्कुल रहेगी ।” - अशोक उत्साहपूर्ण स्वर से बोला ।
“शायद न रह पाये ।”
 
“आजमा कर देख लीजिये । मैं आपको रोज फोन करके पूछा करूंगा । कभी तो आप मेरा निमन्त्रण स्वीकार करेंगी ही ।”
“न बाबा न । रोज फोन मत किया करना ।”
“तो फिर बताइये कब चलियेगा ।”
“चलूंगी किसी दिन लेकिन फिलहाल कोई वादा नहीं कर सकती ।”
“आल राइट । लेकिन जल्दी ही चलिये या वाकई मेरी उमंग आजमाइयेगा ?”
“जल्दी ही चलूंगी ।”
“मैं सोमवार को फोन कर लूं आपको ।”
“कर लेना ।”
“ओ के । थैंक्यू वैरी मच । बाई टिल टूमारो ।” - दूसरी ओर से सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
आशा ने भी रिसीवर रख दिया ।
अशोक उसे बड़ा ही निश्छल और स्पष्टवादी लड़का लगा ।
***
सोमवार को जिस समय आशा ने दफ्तर में प्रवेश किया उस समय साढे नौ बजे थे ।
अमर अपनी सीट पर बैठा था ।
आशा ने एक उड़ती सी दृष्टि उसके झुके हुए सिर पर डाली और अपने केबिन की ओर बढी । यह दफ्तर में इतनी जल्दी क्यों आ जाता है और आते ही दफ्तर का काम क्यों करने लगता है - उसने मन ही मन सोचा ।
“नमस्ते ।” - उसकी सीट के समीप से गुजरते समय अमर का नपा तुला स्वर उसके कानों में पड़ा ।
“नमस्ते ।” - आशा हौले से बोली और आगे बढ गई ।
अमर ने यूं सिर उठाया जैसे कोई बहुत अप्रत्याशित घटना हो गई हो । वास्तव में आज पहली बार आशा ने आफिस में अमर की नमस्ते का जवाब दिया था ।
आशा अपने केबिन में अपनी सीट पर जा बैठी ।
साढे दस बजे एक चपरासी ‘अमर साहब ने भेजी है’ कह कर एक फाइल उसके सामने रख गया ।
फाइल में हमेशा की तरह दफ्तर के छपे हुये लेटर हैड में चाकलेट का पैकेट लिपटा हुआ था । आशा ने चाकलेट पर्स में डाली और फिर कागज को पूरा खोल लिया ।
आज कागज खाली नहीं था ।
आशा कागज पर लिखे छोटे छोटे शब्दों को पढने लगी । लिखा था:
मैं तुमसे मुहब्बत करता हूं लेकिन शायद तुम्हारे शरीर में तो दिल के स्थान पर बर्फ का टुकड़ा रखा हुआ है ।
आशा का दिल धड़कने लगा । उसके उन शब्दों को दुबारा पढा । फिर उसके होठों पर एक मीठी मुस्कराहट फैल गई और नेत्र स्वाप्निल हो उठे ।
एक एक कागज उसके हाथ से निकल गया ।
आशा एकदम हड़बड़ा गई । उसने सिर उठाया ।
सिन्हा न जाने कब उसकी बगल में आ खड़ा हुआ था और उसने आशा की उंगलियों में से कागज खींच लिया ।
आशा के मुंह से आवाज नहीं निकली । उसको सूरत से यूं लग रहा था जैसे वह चोरी करती पकड़ी गई हो ।
“गुड मार्निग ।” - सिन्हा बोला ।
“अ.. मार्निग, सर ।” - आशा धीरे से बोली ।
“मैं तुम से मुहब्बत करता हूं ।” - सिन्हा बड़े नाटकीय ढंग से कागज पर लिखे शब्द पढता हुआ बोला - “लेकिन शायद - तुम्हारे शरीर में तो - दिल के स्थान पर - बर्फ का टुकड़ा रखा हुआ है । - वाह, कविता है क्या ! ...नहीं कविता नहीं है । गद्य को ही कविता के ढंग से सजा कर कागज पर लिखा है... तुमने लिखा है ।”
आशा चुप रही ।
“नहीं ।” - सिन्हा कहता रहा ।” - तुमने नहीं लिखा । किसी और ने लिखा है । तुम्हारे लिये किसी खत के तौर पर । कोई वाकई तुमसे मुहब्बत करता है । कौन है वह ? हैण्डराइटिंग तो कुछ पहचाना हुआ मालूम होता है ।”
आशा फिर भी चुप रही ।
“अच्छा मत बताओ । मैं तो...”
उसी क्षण फोन की घन्टी घनघना उठी ।
आशा ने रिसीवर उठा लिया । कुछ क्षण सुनती रहने के बाद उस ने रिसीवर सिन्हा की ओर बढा दिया और बोली - “आपका टेलीफोन है ।”
“कौन है ?”
“सेठ मगन भाई ।”
“मैं अपने आफिस में रिसीव करता हूं ।” - सिन्हा बोला और लम्बे डग भरता हुआ अपने आफिस में घुस गया ।
आशा ने अपना रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया ।
कागज सिन्हा अपने साथ ही ले गया था ।
लगभग आधे घन्टे बाद सिन्हा ने उसे अपने आफिस में बुलाया ।
आशा शार्टहैड की नोट बुक और पैसिल लेकर भीतर पहुंच गई ।
“आशा ।” - सिन्हा वही कागज उसकी ओर बढाता हुआ बोला - “यह अपनी चिट्ठी ले लो । फोन सुनने की हड़बड़ाहट में उसे मैं अपने साथ ही ले आया था । सारी ।”
आशा ने चुपचाप चिट्ठी ले ली ।
“एण्ड थैंक्यू ।” - सिन्हा मुस्कराकर बोला ।
आशा भी मुस्कराई और बाहर निकल आई ।
अपनी सीट पर आते ही उसने उस कागज के हजार टुकड़े किये और उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया ।
 
आशा भी मुस्कराई और बाहर निकल आई ।
अपनी सीट पर आते ही उसने उस कागज के हजार टुकड़े किये और उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया ।
फिर उसने पर्स में से चाकलेट का पैकेट निकाला और चाकलेट का एक टुकड़ा तोड़ कर मुंह में रख लिया ।
तीन बजे के करीब अशोक का फोन आया ।
आशा जी ।” - उसने पूछा - “फिर क्या फैसला किया आपने ?”
“हल्लो !” - उसे अशोक का व्यग्र स्वर सुनाई दिया ।
“मुझे सोचने दो ।”
“ओके ।”
“आल राइट ।” - अन्त में आशा निर्णयात्मक स्वर से बोली - “आज चलूंगी ।”
“तो फिर में शाम को आपके दफ्तर में आ जाऊं ।”
“नहीं ।”
“बस स्टैण्ड पर ?”
“नहीं । मैं साढे पांच बजे के बाद तुम्हें जेकब सर्कल पर मिलूंगी ।”
“वहां क्यों ?”
“वहां मुझे थोड़ा काम है । बाद में तुम जहां कहोगे चलूंगी ।”
“प्रामिस ?”
“प्रामिस ।
“ओ के ।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
आशा फिर काम में जुट गई ।
पांच बजे उसने टाइपराइटर बन्द कर दिया और पर्स उठाकर केबिन से बाहर निकल आई ।
सिन्हा अभी भी आफिस में मौजूद था । सिन्हा अपने आफिस में देर तक बैठा करता था लेकिन आशा को पांच बजे के बाद रुकने के लिये बहुत कम कहा करता था । सिन्हा द्वारा पांच के बाद पहली बार रोके जाने पर ही उसने इस विषय में अपनी बड़ी तीव्र अनिच्छा प्रकट की थी क्योंकि आफिस टाइम के बाद रोके जाने पर सिन्हा के स्वर्गवासी बाप की हरकतें याद आ जाती थीं । सिन्हा ने अपने बाप की तरह आशा को पांच बजे के बाद दफ्तर में रोक कर कोई जबरदस्ती करने की कोशिश तो नहीं की थी लेकिन वह आशा ने दफ्तर के काम के अतिरिक्त और क्या चाहता है, इस बात के उसने आशा को बड़े तगड़े संकेत दिये थे । इसीलिये आशा दफ्तर में सिन्हा के साथ अकेला रह जाना पसन्द नहीं करती थी ।
उसने बाहर आकर देखा, अमर भी अभी अपनी सीट पर बैठा था ।
“आज फिल्म देखने जा रहे हो ।” - आशा ने उसके समीप पहुंच कर पूछा । सुबह की चिट्ठी की बात याद करके उसके चेहरे पर लालिमा दौड़ गई थी ।
“आपने कैसे जाना ?” - अमर ने सिर उठाकर पूछा ।
“तुम तो पांच बजे के बाद दफ्तर में तभी रुकते हो जब फिल्म देखने जाना हो ।”
“आज वैसी बात नहीं है ।”
“तो फिर ?”
“सिन्हा साहब ने रुकने के लिये कहा है । कह रहे थे कोई जरूरी बात करनी है ।”
“आई सी ।” - आशा बोली ।
अमर ने अपना सिर दुबारा मेज पर फैले कागजों पर झुकाकर जैसे वार्तालाप के पटाक्षेप का संकेत दे दिया ।
आशा कुछ क्षण अनिश्चित मुद्रा बनाये उसके समीप खड़ी रही । पहले उसका जी चाहा कि वह सुबह की चिट्ठी के बारे में अमर से कुछ बात करे लेकिन फिर उसने अपने सिर को झटका दिया और मुख्य द्वार से होती हुई दफ्तर से बाहर निकल गई ।
अशोक जेकब सर्कल पर मौजूद था । वह पिछले दिन वाला ही अपना टैरेलीन का खूबसूरत सूट पहने हुआ था । आज उसके हाथ में ब्रीफकेस नहीं था । आशा को देखकर उसका चेहरा चमक उठा । वह लपक कर आशा के समीप जा पहुंचा ।
“आ गई आप ?” - वह उत्साहपूर्ण स्वर से बोला ।
“नहीं ।” - आशा मुस्कराती हुई बोली - “तुम्हारे सामने मेरा भूत खड़ा है ।”
“ओह ।” - अशोक बोला और बेतहाशा हंसने लगा - “आप भी सोचती होगी कैसा मूर्ख आदमी है । आबवियस बात पर भी सवाल करता है ।”
आशा मुस्कराई ।
“आइये, यहां से तो हिलें ।” - अशोक बोला ।
“कहां चलोगे ?”
“मेहमान तो आप हैं । आप बताइये कहां चले ? ताजमहल, सन्-एण्ड सन, सी ग्रीन, रिट्ज, नटराज, एयर लाइन्स, एम्बैसेडर...”
“बस, बस ।” - आशा उसे टोकती हुई बोली - “कमीशन तो तुम्हें अभी न जाने कब मिलेगा, तुम अभी से ही क्यों अपनी कम से कम एक महीने की कमाई को एक दिन में बरबाद करने का इन्तजाम कर रहे हो ?”
“यह बरबादी नहीं है जी ।”
“बरबादी नहीं तो और क्या है यह । तुम बाबा, ऐसी जगह चलो, जहां चार आने में चाय मिलती हो । अगर तुम्हें कोई जगह ऐसी नहीं मालूम है तो मैं बता देती हूं ।”
अशोक कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला - “अच्छा, ऐसा करते हैं, ‘टी-सैंटर’ में चलते हैं । वहां चाय पिंयेगे । और उसके बाद थोड़ी देर मेरिन ड्राइव और समुद्र के बीच के बान्ध पर बैठेंगे ।”
“यह ठीक है ।” - आशा बोली - “वहां से मुझे घर जाने में भी आसानी रहेगी ।”
“आप रहती कहां हैं ?”
“कोलाबा में । स्ट्रैंड सिनेमा के पास ।”
“ठीक है । आइये ।”
आशा उसके साथ हो ली ।
“टैक्सी ले लें ?” - अशोक बोला ।
“क्यों पैसे बरबाद करते हो ? जल्दी क्या है ? बस में चलते हैं ?”
“ओ के ।”
दोनो बस स्टैन्ड की ओर बढे ।
 
“या ऐसा करते हैं” - एकाएक आशा बोली - “महालक्ष्मी स्टेशन पर चलते हैं । लोकल ट्रेन द्वारा चर्च गेट तक चले जायेंगे । वहां से तो टी सेन्टर पास ही है ।”
“यह सबसे अच्छा है ।”
दोनों महालक्ष्मी पहुंच गये । अशोक ने टिकटें खरीदी । गाड़ी आई । दोनों गाड़ी में सवार हो गये । गाड़ी चल पड़ी । बम्बई सैन्ट्रल गया, ग्रांट रोड गया, चरनी रोड गया, मेरिन लाइन्स गया और अन्त में गाड़ी चर्च गेट पर आ रुकी ।
दोनों गाड़ी से उतर कर स्टेशन से बाहर निकले और टी सैन्टर की ओर चल दिये ।
वे टी सैन्टर की ओर चल दिये ।
वे टी सैन्टर में जा बैठे । अशोक ने वेटर को चाय वगैरह का आर्डर दे दिया ।
चाय के दौरान में अशोक टेप रिकार्डर की तरह लगातार बोलता रहा । संसार के हर विषय पर उसने अपनी राय जाहिर की । आशा को ऐसे चुटकले सुनाये कि उसकी बरबस हंसी निकल जाती थी । आशा को सबसे दिलचस्प बात यह लगी कि उसकी एक एक आदत सरला से मिलती थी । सरला की तरह अशोक भी बोलता था तो बोलता ही चला जाता था । एक बार अपना रिकार्ड चालू करने के बाद उसे यह भी देखने की फुरसत नहीं रहती थी कि दूसरा आदमी उसको बात सुन भी रहा है या नहीं ।
अन्त में अशोक ने बिल चुका दिया और फिर दोनों बाहर निकल गये ।
“तुम वाकई सेल्ज मैन बनने के काबिल हो ।” - बाहर आकर आशा बोली ।
“क्यों ?”
“तुम बहुत बातें करते हो और तुम्हारा बात करने का ढंग भी बहुत शानदार है । इंश्योरेंस की पालिसियां मामूली चीज है । तुम्हें तो मौका दिया जाय तो तुम सारी दुनिया बेच दो ।”
अशोक हंसने लगा ।
“आप तो मजाक कर रही हैं ।” - वह बोला ।
“नहीं मैं सच कह रही हूं वैसे तुम्हारा बात करने का ढंग बड़ा विश्सासपूर्ण है । मेरे ख्याल से तुम जिसे भी पालिसी प्रपोज कर देते होगे वह फौरन ही महसूस करने लगता होगा कि वह अपना बीमा न करवा कर अपनी जिन्दगी की भारी गलती कर रहा है ।”
“आप के सिन्हा साहब ने तो ऐसा महसूस नहीं किया ।
“उसकी जरूर कोई वजह होगी । मुझे पूरा विश्वास है कि तुम्हारी ओर से कोई कसर नहीं रही होगी ।”
“खैर सिन्हा साहब बीमा नहीं करवाते तो न करवाया, हमें तो फायदा ही हुआ । आप से मुलाकात हो गई ।”
“एक बात बताओ ।”
“दस पूछिये ।”
“तुम कम्पनी के कर्मचारी हो या कमीशन पर काम करते हो ?”
“कमीशन पर काम करता हूं ।”
“अच्छा, फिर तो तुम अपने लिबास पर बहुत पैसा खर्च करते हो । मैं तो समझी थी कि ये सूट वगैरह भी तुम्हें कम्पनी से मिलते हैं ।”
“नहीं जी यह सूट तो मैंने खुद सिलवाया है बड़ी मुश्किल से पैसे इकट्ठे किये थे । यह तो धन्धा ही ऐसा है आशा जी, कि अगर आप अपनी परसनेलिटी बनाकर न रखें तो कोई पास नहीं फटकने दे । इन बढिया कपड़ों की वजह से ही तो मैं बड़े-बड़े साहब लोगों के पास पहुंच भी जाता हूं वर्ना कोई पास नहीं फटकने नहीं दे ।”
आशा चुप हो गई ।
वीर नरीमन रोड से होते हुए वे मैरिन ड्राइव पर आ गये उन्होंने सड़क पार की और मैरिन ड्राइव और समुद्र के बीच में बने बान्ध आ बैठे । बान्ध की दीवारों की कोलाबा से लेकर चौपाटी तक की लम्बाई में जोड़े ही जोड़े बैठे हुए थे पीछे विशाल सागर फैला हुआ था । और उसको छू कर आती हुई ठन्डी हवा बड़ी सुखकर लगती थी ।
“अच्छा अब अपने बारे में कुछ बताओ ।” - एकाएक आशा बोली ।
“क्या बतायें ।” - अशोक एकदम हड़बड़ा कर बोला ।
“तुम इतने हड़बड़ाये क्यों रहते हो ?”
“सच बताऊं ?”
“हां ।”
“मैं केवल आप ही के सामने हड़बड़ा जाता हूं आप ऐसे एकाएक सवाल कर देती हैं जैसे कोई छुपकर हमला कर देता है ।”
“अच्छी बात है अब मैं कोई सवाल करने से पहले तुम्हें नोटिस दे दिया करूंगी ।”
“आप क्या पूछ रही थीं ?
“मैं कह रही थी, तुम अपने बारे में कुछ बताओ ।”
“क्या बताऊं ?”
“तुम रहते कहां हो ?”
“नेपियन सी रोड पर ।” - अशोक ने सहज स्वर से उत्तर दिया ।
“अच्छा ।”
“इसमें हैरानी की क्या बात है ?”
“वहां तो सिर्फ रईस आदमी ही रहते हैं ।”
“सिर्फ रईस आदमी तो कहीं भी नहीं रह सकते । उनकी सेवा के लिये उनके साथ रहने वाले नौकर-चाकर, बेयरे-खानसामे, ड्राईवर वगैरह तो गरीब ही होंगे ।”
“लेकिन तुम तो किसी रईस आदमी के बेयरे-खानसामे या ड्राइवर नहीं हो ।”
“मैं नहीं हूं । मेरा एक दोस्त नेपियन सी रोड की चार नम्बर कोठी के साहब का ड्राइवर है और कोठी के गैरेज के ऊपर रहता है । मैं भी उसी के साथ रहता है ।”
“बम्बई में अकेले रहते हो ?”
“नहीं, मेरे डैडी भी यहीं रहते हैं ।”
“तुम्हारे साथ ?”
“मेरे साथ कैसे रह सकते हैं ? मैं तो तो खुद किसी के साथ रहता हूं ।”
“तो फिर वे कहां रहते हैं ?”
“भायखला में ।”
“तुम भी भायखला में क्यों नहीं रहते ?”
“मैं अपने वर्तमान निवास स्थान पर रहने में ज्यादा सुविधा का अनुभव करता हूं । अमीर लोगों में रहने से अच्छा बिजनेस मिलने की सम्भावना रहती है ।”
“तुम्हारा बाकी परिवार भायखला में रहता है ?”
“बाकी परिवार है ही नहीं । मां मेरी मर चुकी है और मैं अपने बाप का अकेला लड़का हूं ।”
“ओह ।”
अशोक चुप रहा ।
“तुम्हारे डैडी क्या करते हैं ?”
“कुछ नहीं करते । वे दरअसल जिन्दगी की उस स्टेज पर पहुंच चुके हैं जहां इनसान को कुछ करने की जरूरत भी नहीं होती ।”
“अच्छा ! बहुत बूढे हो गये हैं क्या ?”
“हां शरीर तो बूढा हो ही गया है ।”
“यही समझ लीजिये । कभी आप मेरे साथ उनसे मिलने चलियेगा फिर आपको कोई सवाल पूछने की जरूरत नहीं रहेगी ।”
“खाना होटल में खाते हो ?”
“जी हां । मेरी कौन सी अम्मा या बीवी बैठी है जो मुझे पकाकर खिलायेगी ।”
“तुम शादी कर लो ।”
“सोच तो मैं भी रहा हूं कि शादी कर ही लूं । बहुत सहूलियत हो जायेगी फिर ।”
“हां ।”
“लेकिन सवाल तो यह है कि कोई लड़की मुझसे शादी करेगी ?”
 
“क्यों नहीं करेगी ? क्या कमी है तुम में ? अच्छे खासे खूबसूरत आदमी हो । पैसा भी कमाते ही हो । बड़ा अच्छा बड़ा मीठा स्वभाव है तुम्हारा । और क्या चाहिये किसी लड़की को ? और फिर तुम जैसे अपनी बातों में फंसा कर लोगों को बीमे की पालिसी बेच लेते हो, मेरे ख्याल से तो वैसे ही तुम किसी लड़की को यह आईडिया बेच लोगे कि उसे तुम से बेहतर पति चान्द पर भी नहीं मिल सकता ।”
“देखते हैं ।”
“क्या देखते हैं ?”
“यही कि शादी के मामले में हमारी हाई प्रैशर सेल्ज मैन शिप काम आती है या नहीं ।”
“जरूर देखो । वैसे कोई लड़की है नजर में ?”
“लड़कियां तो बहुत नजर में हैं लेकिन वे मानेंगी नहीं ।”
“कौन हैं ?”
“कई हैं ।” - अशोक लापरवाही से बोला - “जैसे वहीदा रहमान, आशा पारेख, बबीता, सिमी...”
“मजाक मत करो ।” - आशा उसकी बात काट कर बोली ।
अशोक हंसने लगा ।
आशा ने उसे घूर कर देखा ।
“दरअसल एक लड़की है मेरी नजर में ।” - अशोक बोला - “अगर आप मुझसे शादी के लिये उससे हां कहलवा दें तो मैं आपका भारी अहसान मानूंगा ।”
“कौन है वह ?”
“मैं कभी आपको मिलवाऊंगा उससे ।”
“खूबसूरत है ?”
“बहुत ।”
“सच्चरित्र है ?”
“बहोत...”
“पढी लिखी है ? स्वाभाव की अच्छी है ?”
बहोत...”
“मुझे मिलवाना उससे ।”
“जरूर मिलवाऊंगा ।”
“चलें ?”
“वाह साहब, आपके बारे में कुछ पूछने की मेरी बारी आई तो आप चलने के लिये तैयार हो गई । आप भी तो अपने बारे में कुछ बताइये ।”
“क्या बताऊं ?”
“वही कुछ जो आपने मुझसे पूछा है ।”
“सुन लो ।” - आशा तनिक गम्भीर स्वर में बोली - “मेरा नाम और काम-धाम तो तुम जानते ही हो । कोलाबा में स्ट्रैंड सिनेमा के पीछे की गली में, एक पांच मंजिली इमारत की चौथी मंजिल पर एक कमरे के फ्लेट में अपनी एक सहेली के साथ रहती हूं और इस संसार में बिल्कुल अकेली हूं ।”
“क्या ?” - आखिरी बात सुनकर अशोक चौंका ।
“हां । मेरे मां बाप, भाई बहन कोई नहीं है ।”
“क्या कोई दुर्घटना...”
“हां । भूचाल से मकान गिर गया था और मेरा सारा परिवार उसमें दबकर मर गया था । मैं उस समय पढने गई हुई थी इसलिये बच गई थी ।”
“ओह !” - अशोक गम्भीर स्वर से बोला - “यह तो बड़ी ट्रेजिक बात सुनाई आपने ।”
“आओ चलें ।” - आशा बोली और बान्ध की दीवार से नीचे उतर आई ।
“वापिस ।” - अशोक भी दीवार से उतरकर फुटपाथ पर खड़ा होता हुआ बोला ।
“हां ।”
“कैसे जाओगी ?”
“बस से जाऊंगी और कैसे ?”
“चलिये फिर आपको बस स्टैण्ड तक छोड़ आऊं ।”
“चलो ।”
दोनों फुटपाथ पर चलने लगे ।”
“आज बहुत मजा आया ।”
“हूं ।”
“बम्बई की एकरसता भरी जिन्दगी में आज जैसी लुभावनी शाम पता नहीं फिर कब आयेगी ।”
आशा चुप रही ।
“कभी फिर मिलियेगा ।” - अशोक बोला । उसके पूछने के ढंग से यह मालूम नहीं होता था कि वह सवाल पूछ रहा है या राय दे रहा है ।
“हां, हां क्यों नहीं ?”
“मैं आपको कभी कभी फोन कर दिया करूं तो कोई हर्ज तो नहीं है ?”
“क्या हर्ज है ?” - आशा दार्शनिक भाव से बोली ।
“मैं आपको फोन करूंगा ।”
“करना ।”
“बस पर जाने की जगह अगर कोलाबा तक पैदल ही चलें तो कैसा रहे ?” - अशोक आशापूर्ण स्वर से बोला ।
“नहीं ।” - आशा बोली - “मैं चलने के मूड में नहीं हूं ।”
“तो फिर टैक्सी ले लें ?” - अशोक ने एकदम राय दी ।
“क्या जरुरत है ? बस बड़ी सहूलियत से मिल जाती हैं । क्यों खामाखाह टक्सी का भाड़ा भरा जाये ।”
“आप ठीक कह रही हैं ।” - अशोक एक गहरी सांस लेकर बोला ।
आशा चुप रही ।
 
आशा आज की शाम के बारे में सोच रही थी । अपनी ओर से तो वह अशोक के साथ इसलिये ‘बोर’ होने के लिये चली आई थी क्योंकि वह उससे साथ चलने के लिये हां कर बैठी थी लेकिन अशोक के साथ इतना समय कब गुजर गया उसे मालूम भी नहीं हुआ । इतनी ढेर सारी बात उसने सरला के सिवाय आज तक किसी के साथ नहीं की थी । और फिर शायद यह अशोक के व्यवहार की विशेषता थी कि उसने पहुंचने के बाद से ही वह उससे यूं खुलकर बात करने लगा था, जैसे उसे बरसों से जानता हो । एक ही शाम की मुलाकात में कितनी ढेर सारी बातें कर डाली थी उन्होंने उसे ‘आप’ कहता था । क्या हर्ज है ? उम्र में तो वह अशोक से बड़ी ही होगी । उसने एक उड़ती हुई दृष्टि अशोक पर डाली । वह बड़ी गम्भीर मुद्रा बनाये आशा के साथ चल रहा था ।
एकाएक आशा को यूं लगा जैसे वह कोई बड़ी ही जानी पहचानी सूरत देख रही हो ।
***
अगले दिन आशा दफ्तर में आई ओर बम्बई के मोनोटोनस (एक रसतापूर्ण) जीवन का एक और दिन गुजारने में जुट गई ।
हमेशा की तरह आज अमर ने चाकलेट नहीं भिजवाई थी ।
बारह बजे तक आशा कई बार अपने केबिन से बाहर अमर की सीट पर झांक चुकी थी लेकिन अमर वहां नहीं था ।
शाम को चार बजे जब चपरासी आशा के लिये चाय लाया तो आशा ने उस से पूछा - “सुनो, आज अमर साहब कहां हैं ?”
“आप को नहीं मालूम, मेम साहब !” - चपरासी आश्चर्य का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“क्या ?”
“अमर साहब की तो छुट्टी हो गई ।”
“क्या मतलब ?” - आशा अचकचा कर बोली ।
“सिन्हा साहब ने उन्हें नौकरी से निकाल दिया है ।”
“क्या ?” - आशा हैरानी से लगभग चिल्ला पड़ी । वह चाय पीना भूल गई ।
“जी हां” - चपरासी बोला - “सिन्हा साहब ने कल ही उनका हिसाब कर दिया था ।”
“शाम को । पांच बजे के बाद ।” - आशा के मुंह से अपने आप निकल गया कहीं इसलिये तो सिन्हा साहब ने कल अमर को छुट्टी हो जाने के बाद नहीं रोका था ।”
“जी हां ।”
“लेकिन वजह क्या थी ?”
“वजह तो मालूम नहीं, मेम साहब ।”
आशा चुप हो गई । उसके दिल में एक गुबार सा उमड़ने लगा ।
चपरासी चला गया ।
एकाएक आशा ने चाय का कप परे सरका दिया और अपनी सीट से उठ खड़ी हुई । वह सीधी सिन्हा के केबिन में घुस गई ।
सिन्हा ने सिर उठाया और तनिक अप्रतिभ स्वर से बोला - “मैंने तो तुम्हें नहीं बुलाया ।”
आशा सिन्हा की मेज के सामने जा खड़ी हुई और फिर अपने स्वर को भरसक सन्तुलित रखने का प्रयत्न करती हुई बोलो - “मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं ।”
सिन्हा ने एक सरसरी निगाह से उसे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर सहज स्वर से बोला - “पूछो ।”
“आपने अमर को नौकरी से क्यों निकाल दिया ?”
“तुम वजह क्यों जानना चाहती हो ?”
“सवाल पहले मैंने किया था ।” - आशा धैर्यपूर्ण स्वर से बोली ।
“मैं उसके काम से सन्तुष्ट नहीं था ।” - सिन्हा शान्त स्वर से बोला - “इसलिये मैंने उसे नौकरी से अलग कर दिया ।”
“सिन्हा साहब, आपने अमर को कल की चिट्ठी की वजह से नौकरी से अलग किया है ।”
“उस चिट्ठी का अमर की बर्खास्तगी से कोई वास्ता नहीं है । मैं बहुत पहले से अमर को नोटिस देने की सोच रहा था ।”
“आप झूठ बोल रहे हैं ।” - आशा आवेशपूर्ण स्वर से बोली - “आपको अमर से कोई शिकायत नहीं थी । आपने उसे केवल इसलिये नौकरी से निकाल दिया है क्योंकि उसने आपकी सैक्रेट्री से मुहब्बत जाहिर की थी । आप...”
“आशा ।” - सिन्हा बोला - “माइन्ड युअर लैंग्वेज । माइन्ड युअर मैनर्स ।”
आशा चुप हो गई । उसका चेहरा आवेश से तमतमा उठा था । उसने दुबारा कुछ कहने के लिये मुंह खोला लेकिन फिर उसने इरादा बदल दिया । उसने एक क्रोध और बेबसी भरी दृष्टि सिन्हा पर डाली और फिर वापिस जाने के लिये घूम पड़ी ।
“सुनो ।” - सिन्हा ने पीछे से आवाज दी ।
आशा रुक गई ।
सिन्हा कुर्सी से उठा और अपनी विशाल मेज के गिर्द होता हुआ आशा के सामने आ खड़ा हुआ ।
“तुम्हें अमर में बहुत दिलचस्पी है ।” - सिन्हा उनके नेत्रों में झांकता हुआ बोला ।
“सवाल मेरी दिलचस्पी का नहीं है, सिन्हा साहब । सवाल इस बात का है कि मेरी वजह से किसी तीसरे आदमी का अहित क्यों हो ?”
“तुम अमर से मुहब्बत करती हो ?”
सवाल तोप के गोले की तरह आशा की चेतना से टकराया । उसने उत्तर में कुछ कहना चाहा लेकिन उपयुक्त शब्द उसकी जुबान पर न थे ।
“देखो ।” - सिन्हा बोला - “अगर तुम वाकई अमर में कोई दिलचस्पी रखती हो तो मैं केवल तुम्हारी खातिर उसे पहले से दुगनी तनख्वाह पर दुबारा नौकरी देने को तैयार हूं ।”
“मेरी खातिर !” - आशा के मुंह से अपने आप निकल गया ।
“हां । बशर्ते कि तुम भी मेरी खातिर कुछ करो ।”
“आप मुझसे क्या चाहते हैं ?” - आशा ने संशक स्वर से पूछा ।
उत्तर में सिन्हा ने अपना हाथ आशा की नंगी कमर में डाल दिया ।
आशा तत्काल उससे छिटककर अलग हो गई । उसकी सांस तेजी से चलने लगी ।
“मर्जी तुम्हारी ।” - सिन्हा लापरवाही का प्रदर्शन करता हुआ बोला और दुबारा अपनी सीट पर जा बैठा ।
आशा लम्बे डग भरती हुई केबिन से बाहर निकल गई ।
वह वापिस अपनी सीट पर आ बैठी ।
उसी क्षण टेलीफोन की घण्टी घनघना उठी ।
“हल्लो !” - आशा ने रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया और बोली - “हल्लो ।”
“आशा जी” - उसके कानों में अशोक का उल्लासपूर्ण स्वर पड़ा - “मैं अशोक बोल रहा हूं ।”
“अशोक” - आशा के स्वर में रूक्षता का गहरा पुट था - “इस समय मेरी तबीयत ठीक नहीं है । मैं तुमसे फिर बात करूंगी ।”
और उसने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया ।
कितनी ही देर वह यूं ही बठी हुई लम्बी सांस लेती रही । वह स्वयं को नियंत्रित करती हुई उठी और अपने केबिन से बाहर निकल आई ।
उसने दफ्तर के कई लोगों से अमर के घर का पता पूछा लेकिन कोई भी अधिक कुछ नहीं बता सका कि अमर भिंडी बाजार में कहां रहता था ।
शाम को आफिस से छुट्टी होने के बाद आशा भिंडी बाजार पहुंची लेकिन भिंडी बाजार में केवल नाम के सहारे किसी आदमी को तलाश कर लेना भूस के ढेर में हुई ढूंढने से भी कठिन काम था । पूरे तीन घण्टे भिंडी बाजार के इलाके को छान चुकने के बाद वह थक हार कर कोलाबा लौट आई ।
वह अपने फ्लैट में पहुंची और हताश सी एक कुर्सी पर लेट गई ।
सारी रात आशा के नेत्रों के सामने अमर का चेहरा घूमता रहा ।
***
 
अगले दिन शाम को अशोक का टेलीफोन आया ।
“अशोक बोल रहा हूं ।” - उसे अशोक का सतर्क स्वर सुनाई दिया ।
“हल्लो, अशोक !” - आशा बोली ।
“आज बहुत डरते फोन किया है आपको ।”
“क्यों ?”
“मुझे भय था कि कहीं आज भी आप कल की तरह मेरी आवाज सुनते ही टेलीफोन को क्रेडिल पर न पटक दें । कल तो आपने यूं भड़ाक से टेलीफोन बन्द कर दिया था जैसे दूसरी ओर से शैतान की आवाज सुनाई दे गई हो ।”
“अशोक, वो दरअसल बात यह थी...”
“कि मुझसे कोई गुस्ताखी हो गई थी ?”
“नहीं तो ।”
“तो फिर ?”
आशा चुप रही ।
“खैर छोड़िये मत बताईये । आप यह बताई आपकी तबीयत कैसी है ?”
“तबीयत !”
“हां कल आपकी तबीयत खराब थी न ?”
“ओह हां ! हां, अब ठीक है तबीयत ।”
“तो फिर आज कहीं मुलाकात हो सकती है ?”
“तुम बोल कहां से रहे हो ?”
“आप से ज्यादा दूर नहीं हूं ।”
“फिर भी कहां हो ?”
“आर्थर रोड जेल में ।”
“क्या ?”
“घबराइये नहीं । गिरफ्तार नहीं हो गया हूं मैं । यहां भी धन्धे, दफ्तर के लिए ही आया हूं ।”
“ओह !”
“फिर ? होती है कहीं मुलाकात आज ?”
“सुनो, तुम यहां या जाओ ।”
“यहां कहां ? दफ्तर में ?”
“नहीं, दफ्तर की तो छुट्टी होने वाली है । नीचे हेनस रोड के बस स्टैण्ड पर ।”
“ओ के मैडम । आता हूं ।”
आशा ने रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया ।
पांच बजे के बाद जब वह बस स्टैण्ड पर पहुंची तो अशोक वहां पहले से ही मौजूद था ।
अशोक उसे देखकर मुस्कराया ।
“कर आये बिजनेस ?” - आशा ने पूछा ।
“जी हां । कर आया ।”
“कोई बात बनी ?”
“नहीं बनी । बन जायेगी, जल्दी क्या है ? जब तक पचास हजार रुपये के बीमे का नशा नहीं उतर जाता । तब तक मुझे कोई नई पालिसी बेचने की जल्दी नहीं है ।”
आशा मुस्कराई और फिर बोली - “आओ, कहीं चलकर चाय पीयें ।”
“आप इनवाइट कर रही हैं ?” - अशोक बड़े नाटकीय स्वर से बोला ।
“हां, हां, क्यों नहीं । मैं क्या कमाती नहीं । हां, इतना फर्क जरूर है कि मैं तुम्हारी तरह शाह खर्च नहीं हूं ।”
“शाह खर्च क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि मैं तुम्हारी तरह बड़े बड़े होटलों के नाम नहीं ले सकती । मैं तो तुम्हें यहीं हेनस रोड पर ईरानी के रेस्टोरैन्ट की चवन्नी मार्का चाय पिलाऊंगी ।”
“बड़ी कंजूस है आप ?”
“इसमें कंजूसी की क्या बात है ? मेरा नजर में चाय तो सभी जगह एक जैसी होती है ।”
“अच्छी बात है, साहब । आप चाय पिलाइये । चाहे फुटपाथ मार्का पिलाइये ।”
दोनों रैस्टोरेन्ट में आकर बैठ गये ।
आशा ने चाय का आर्डर दे दिया ।
वेटर चाय ले आया ।
दोनों चाय पीने लगे ।
चाय के दौरान में न जाने कब अशोक ने अपना रिकार्ड चालू कर दिया और फिर संसार के हर विषय पर अपनी राय चाहिए करनी आरम्भ कर दी । अपने लगभग एक तरफा वार्तालाप के दौरान में उसने आशा को चुटकले सुनाये, ऐसी हास्यस्पद हरकतें करके दिखाई कि आशा हंसते हंसते बेहाल हो गई ।
 
अन्त में जिस समय चाय के पैसे चुकाकर आशा अशोक के साथ रेस्टोरेन्ट से बाहर निकली उस समय उसका चेहरा गुलाब की तरह खिला हुआ था । पिछले दिन से जो उदासी उसके मन पर छाई हुई थी, वह एकाएक न जाने कहां गायब हो गई थी ।
रेस्टोरेन्ट से निकलकर दोनों बस स्टाप की ओर बढ चले ।
“अशोक ।” - एकाएक आशा बोली ।
“फरमाइये ।”
“भविष्य में तुम मुझे तुम कहकर पुकारा करो, आप कह कर नहीं ।”
“अच्छी बात है, आशा जी” - अशोक विनोदपूर्ण स्वर से बोला - “आगे से मैं आपको तुम कहा करूंगा ।”
“इस वाक्य को यूं कहो ।” -आशा बोली - “अच्छा आशा, आगे से मैं तुम्हें तुम कहा करूंगा ।”
“अच्छा आशा” - अशोक उसके स्वर की नकल करता हुआ बोला - “आगे से मैं तुम्हें तुम कहा करूंगा ।”
और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़े ।
अगले कुछ दिनों में आशा और अशोक में कई मुलाकातें हुई । उन मुलाकातों के बाद दोनों में रहा सहा तकल्लुफ भी समाप्त हो गया ।
दफ्तर में अमर के स्थान पर एक नया कर्मचारी आ गया था ।
अमर दुबारा फिर कभी सिन्हा के दफ्तर में नहीं आया और न ही महालक्ष्मी में ही कहीं दिखाई दिया । फिर भी न जाने क्यों आशा के मन से यह बात निकलती नहीं थी कि अमर जरूर उसे अपनी नई स्थिति की सूचना देगा ।
शाम को तीन बजे के करीब सिन्हा ने आशा को अपने कमरे में बुलाया ।
“आशा” - वह बोले - “आज फिल्म देखने चलो ।”
“आई एम सारी, सर ।” - आशा शिष्ट स्वर से बोली - “आज तो मैं नहीं जा सकूंगी ।”
आशा ने अपने व्यवहार से सिन्हा को कभी भी बढावा नहीं दिया था लेकिन फिर भी कई अप्रिय घटनायें हो जाने के बावजूद भी न जाने क्यों अभी तक सिन्हा ने प्रयत्न करना छोड़ा नहीं था ।
“क्यों ?”
“आज मुझे बहुत जरूरी काम है ।”
“क्या जरूरी काम है आशा !”
आशा चुप रही ।
“आज मैंने घर पर किसी को खाने के लिये बुलाया हुआ है ।” - आशा सरासर झूठ बोलती हुई बोली ।
“उसे खाने पर किसी और दिन बुला लेना ।”
“ऐसा तो अच्छा नहीं लगता सर ।”
“क्या बहुत महत्वपूर्ण मेहमान है वह ?”
“महत्व की बात नहीं है सर । लेकिन मैं किसी की असुविधा का कारण नहीं बनना चाहती ।”
“मैंने तो टिकट मंगवा लिये थे ।”
“आई एस सॉरी सर ।”
“तुम्हें मेरी असुविधा का ख्याल नहीं है ।”
आशा चुप रही ।
“मेहमान कौन है ? ब्वाय फ्रेंड ?”
आशा ने उत्तर नहीं दिया ।
“अच्छी बात है ।” - सिन्हा पटाक्षेप सा करता हुआ बोला - “मर्जी तुम्हारी ।”
आशा छुटकारे की गहन निश्वास लेती हुई कमरे से बाहर निकल आई ।
शाम को उसे अशोक मिला ।
दोनों चौपाटी की रेत में जा बैठे ।
“आज मजा नहीं आ रहा” - एकाएक अशोक बोला - “पता नहीं सुबह किस मनहूस का मुंह देखा था । सारा दिन सख्त बोरियत में गुजरा है ।”
“तो फिर क्या किया जाये ?” - आशा सहज स्वर से बोली ।
“तुम राय दो कुछ ।”
“मेरी राय तो यह है कि छुट्टी करें । तुम अपने घर जाओ । मैं अपने घर जाती हूं । लेट्स काल इट ए डे ।”
“नहीं आज एक मेरी बात मानो ।”
“क्या ?”
“सिनेमा देखने चलते हैं ।”
“न बाबा । आखरी शो देखने में मेरी दिलचस्पी नहीं है ।”
“आखिरी शो की कौन बात कर रहा है, मैडम” - अशोक बोला - “अभी ईवनिंग शो में चलते हैं ।”
“ईवनिंग शो की टिकट कैसे मिलेगी ?”
“टिकट की तुम चिंता मत करो । वह मेरी सिरदर्द है । तुम तो केवल हां कर दो ।”
“कौन से सिनेमा पर चलोगे ?”
“अप्सरा पर । वहां नई फिल्म लगी है ।”
“फिर तो टिकट मिल चुकी ।”
“कहा न तुम टिकट की फिक्र मत करो ।”
“सवा छः तो बज गये हैं ।” - आशा संशक स्वर से बोली
“फिर क्या हो गया । अभी बहुत वक्त है ।”
“शो के वक्त तक तो पहुंच भी नहीं पाओगे ।”
“टैक्सी में चलते हैं । पांच मिनट में पहुंच जायेंगे । मगर बस पर गये तो जरूर लेट हो जायेंगे ।”
“तुम्हें पूरा विश्वास है कि तुम टिकट हासिल कर लोगे ।”
“हां ।”
“ब्लैक में लोगे ?”
“कुछ तो करूंगा ही ।”
“खामखा पैसे बरबाद करोगे ।” - आशा उठती हुई बोली ।
“आज बरबादी ही सही ।”
दोनों ने सड़क पर से टैक्सी ली और अप्सरा सिनेमा के सामने पहुंच गये ।
“तुम नहीं ठहरो । मैं अभी आता हूं ।” - अशोक बोला और उसे सिनेमा के बाहर ही खड़ा करके सिनेमा में प्रवेश कर गया ।
पांच मिनट बाद वह वापिस आया ।
“आओ ।” - वह बोला ।
“टिकट मिल गई ?”
“और क्या ? यह देखो ।” - अशोक उसे दो टिकट दिखाता हुआ बोला ।
“कमाल है !” - आशा मंत्रमुग्ध सी बोली - “कैसे ?”
“कैसे को छोड़ो मेम साहब । आम खाने से मतलब रखो, पेड़ गिनने से नहीं । मेरे सारे सीक्रेट एक ही बार में जानने की कोशिश मत करो ।”
“फिर भी ?”
“बस इतना समझ लो कि इंश्योरेंस के धन्धे की वजह से बम्बई में हर जगह मेरे यार मौजूद हैं । आओ ।”
आशा उसके साथ हो ली ।
अशोक लॉबी से होता हुआ बाल्कनी की ओर ले जाने वाली सीढियों की ओर बढा ।
“बाल्कनी की टिकट लाये हो ?” - आशा ने पूछा ।
“हां ।”
“इतने पैसे खराब करने की क्या जरूरत थी । फिल्म फिर कभी देख लेते ।”
“मूड तो आज था ।”
आशा चुप हो गई ।
जिस समय वे हाल में प्रविष्ट हुए, स्कीन पर कमर्शियल दिखाये जा रहे थे । हाल में अन्धकार था । डशन ने उन्हें दो कोने वाली सीटों पर बैठा दिया ।
फिल्म शुरू हुई ।
इन्टरवैल हुआ और हाल की बत्तियां जगमगा उठी ।
लोग सीटों से उठने लगे और खाली कुर्सियों की खड़खड़ाहट से हाल गूंज गया ।
एकाएक आशा की दृष्टि अपने से अगली कतार में सेन्टर कार्नर की सीटों पर पड़ी और वह चौंक गई ।
वहां सिन्हा बैठा था । उसके साथ एक लड़की थी जो फेमससिने बिल्डिंग के ही एक अन्य दफ्तर में काम करती थी ।
“अशोक !” - वह हड़बड़ाकर बोली ।
“हां ।” - अशोक बोला ।
“बाहर चलो ।”
“चलो ।” - और वह अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ ।
आशा भी उठी और तेज कदमों से चलती हुई बालकनी से बाहर निकल गई । वह सीढियों की ओर बढी ।
“उधर कहां जा रही हो ।” - अशोक ने हैरानी से पूछा ।
“तुम आओ तो सही ।” - आशा बोली ।
आशा सीढियां तय करके नीचे पहुंची और फिर सिनेमा की चारदीवारी से बाहर सड़क पर आ गई ।
अशोक भी उसके पीछे था ।
 
“क्या बात है, बाबा !” - अशोक बोला - “तुम तो यूं भाग रही हो जैसे भूत दिखाई दे गया हो ।”
“भूत ही दिखाई दे गया है ।” - आशा बोली ।
“किस्सा क्या है ?”
“किस्सा भी बताती हूं । फिलहाल यहां से चलो ।”
“क्या ? फिल्म नहीं देखोगी ?”
“फिल्म किसी और दिन देखेंगे ।”
अशोक ने असमंजस पूर्ण ढंग से आशा की ओर देखा और फिर कन्धे झटककर उसके साथ हो लिया ।
दोनों सिनेमा से पर रोड पर आ गये ।
“अब बताओ क्या बात थी ?” - अशोक बोला ।
“सिन्हा साहब बैठे थे ।” - आशा बोली ।
“सिन्हा साहब कौन ? अच्छा वो तुम्हारा बास ।”
“हां ।”
“तो फिर क्या हो गया ? क्या सिन्हा साहब की नौकरी में ऐसी भी कोई शर्त है कि जिस सिनेमा में सिन्हा साहब होंगे वहां तुम फिल्म नहीं देख सकती ?”
“यह बात नहीं है । दरअसल आज सिन्हा साहब ने मुझे शाम के शो में फिल्म के लिये आमन्त्रित किया था । मैंने बहाना बनाकर टाल दिया था कि मैंने घर किसी को खाने के लिये बुलाया हुआ है । उस समय मुझे यह मालूम नहीं था कि वे भी अप्सरा में ही आने वाले है अब अगर वे मुझे सिनेमा में देख लेते तो बड़ा घपला हो जाता ।”
“क्या घपला हो जाता ? तुम उसके साथ सिनेमा देखने नहीं आना चाहती थीं, इसलिये तुमने बहाना बना दिया । अक्लमन्द के लिये इशारा ही काफी होता है । अब अगर वह इशारा नहीं समझे तो भाड़ में जाये ।”
“ऐसा नहीं होता, बाबा । वह मेरा बास है । मैंने दफ्तर मैं सारा दिन उसके साथ गुजारना होता है । मेरे लिये उसके सैन्टीमैन्ट्स का ख्याल रखना बहुत जरूरी है ।”
“बहुत ख्याल हे तुम्हें सिन्हा साहब का ।”
“क्या करें ? नौकरी तो करनी ही है न ?”
“वैसे एक बात पूछं ?”
“पूछो ।”
“तुमने सिन्हा साहब का निमन्त्रण स्वीकार क्यों नहीं किया ।”
“क्योंकि सिन्हा साहब केवल कम्पनी या मनोरंजन की खातिर ही मुझे सिनेमा के लिये आमन्त्रित नहीं करते । मुझे साथ ले जाने के पीछे उनके बड़े गन्दे इरादे छुपे हुए होते हैं । सिनेमा हाल की रोशनियां गुल होते ही वे शैतानी हरकतों पर उतर आते हैं ।”
“पहले कभी सिनेमा देखने गई हो उसके साथ ?”
“हां । इसीलिये तो मुझे उनकी गन्दी नीयत का निजी तजुर्बा है ।”
“दफ्तर में भी वे अपनी गन्दी नीयत का प्रदर्शन करते रहते हैं ?”
“हां... खूब । बेहिचक ।”
“फिर भी तुम उनके यहां नौकरी कर रही हो ?”
“और क्या करूं ?”
“नौकरी छोड़ दो । कहीं और नौकरी कर लो ।”
“इतनी आसानी से दूसरी नौकरी कहां मिलती है । और अगर मान लो मिल भी गई तो इस बात क्या गारन्टी है कि नया बास सिन्हा साहब से भी बड़ा शैतान नहीं होगा ? सिन्हा साहब तो मेरी ‘न’ के आगे थोड़ी देर के लिये परास्त हो जाते हैं, चुप हो जाते हैं और मुझे फांसने का प्रोग्राम किसी बेहतर मौके के लिये पोस्टपोन कर देते हैं क्योंकि वे विषय लोलुप होने के साथ साथ हीन भावना के भी शिकार हैं । अग्रैसिव नेचर नहीं है उनकी । किसी चीज को झपट कर अपने कब्जे में कर लेने का साहस वे अपने में नहीं जुटा पाते । लेकिन सम्भव है नया बास ऐसा न हो । वह मेरे विरोध से परेशान होकर शायद किसी न किसी बहाने मुझे नौकरी से ही निकाल दे । अशोक साहब सरकारी नौकरी ही या प्राइवेट, बड़े शहरों में साहब लोग अपनो सैक्रेट्री से इश्क लड़ाना तो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं । सैक्रेट्री मेरे जैसी हुई तो वे सैक्रेट्री बदल लेंगे । कहने का मतलब यह है कि सिन्हा साहब के साथ अच्छा है, जब तक निभती है, निभ जाये । दूसरी नौकरी तो तभी तलाश करूंगी जब सिन्हा साहब ही मुझे निकालने की सोचने लगेंगे ।”
“तुम नौकरी करती ही क्यों हो ?”
“यह क्या सवाल हुआ ?” - आशा बोली - “नौकरी नहीं करूंगी तो पैसा कहां से आयेगा ? पैसा नहीं होगा तो खाऊंगी क्या ?”
“तुम मेरी बात नहीं समझी” - अशोक एकाएक बेहद गम्भीर हो गया था - “देखो, पैसा कमाना तो मर्द का काम होता है । औरत का काम तो मर्द के कमाये हुए पैसे को इस ढंग से खर्च करना है कि जिन्दगी की गाड़ी भागे बढती रहे ।”
“तुम्हारा इशारा शादी की ओर है ।”
“हां । शादी कर लो तुम ।”
“शादी कर लूं मैं !” - आशा तनिक खीज भरे स्वर से बोली - “किससे शादी कर लूं ? शादी किसी मर्द से ही तो करूंगी मैं । किसी दीवार से, किसी पेड़ से तो शादी नहीं कर सकती मैं । कोई मुझे प्रपोज तो करे । मुझ से शादी करने के लिये कहे तो सही ।”
“मुझ से शादी कर लो ।” - अशोक बोला ।
उसने ये शब्द इतने सहज से कहे थे कि आशा का मस्तिष्क उनकी गम्भीरता को तत्काल ग्रहण नहीं कर सका । फिर जब राज उसकी समझ में आई तो उसके नेत्र फैल गये ।
 
“अभी क्या कहा था तुम ने ?” - आशा ने विचित्र स्वर से पूछा ।
“मैंने कहा था, तुम मुझसे शादी कर लो ।” - अशोक सुसंयत स्वर से बोला - “वास्तव में इतनी महत्वपूर्ण बात कहने के लिये मैं किसी अब से बेहतर मौके की तलाश में था । लेकिन क्योंकि अभी बातों का सिलसिला ही ऐसा चल पड़ा था तो मैंने सोचा कि क्यों न अपने मन की बात अभी कह दूं । आखिर कभी तो कहनी ही है ।”
“लेकिन यह कैसे हो सकता है !” - आशा बड़बड़ाती हुई सी बोली । वह चलती चलती रुक गई और बिजली के खम्बे से पीठ टिका कर खड़ी हो गई ।
अशोक भी खम्बे का सहारा लेकर खड़ा हो गया और बोला - “क्यों नहीं हो सकता । मैं तुमसे मुहब्बत करता हूं । जिस दिन से तुम्हें देखा है, उसी दिन से मुहब्बत करता हूं । मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं । अब अगर तुम पहले से ही किसी और से शादी करने का इरादा कर चुकी हो या मैं वैसे ही तुम्हें पसन्द नहीं हूं तो अलग्र बात है ।”
“यह बात नहीं है ।” - आशा धीरे से बोली - “तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो लेकिन आज तक मैंने तुम्हारे और अपने विषय में इस सन्दर्भ में नहीं सोचा । मेरे मन में यह विचार तो कभी आया ही नहीं कि तुम्हारी और मेरी शादी भी सम्भव है । मैंने तुम्हें हमेशा एक छोटे से नासमझ, ओवर एक्टिड, शरारती बच्चे जैसा समझा है ।”
“मैं तुम्हें बच्चा दिखाई देता हूं !” - अशोक तनिक नाराज स्वर से बोला ।
“तुम बच्चे नहीं हो लेकिन मैं तुम्हें अपनी मानसिक प्रतिक्रिया बता रही हूं ।”
“तुम्हारे ख्याल से क्या उम्र होगी मेरी ?”
“यही बीस-बाइस साल ।”
“मैं चौबीस साल का हूं ।” - अशोक छाती फुला कर बोला ।
“फिर भी मैं तुमसे बड़ी हूं ।”
“नहीं !” - अशोक अविश्वासपूर्ण स्वर से बोला ।
“मैं पच्चीस साल की हूं और जल्दी ही छब्बीस की होने वाली हूं ।”
“मैं नहीं मानता । तुम्हारी उम्र ज्यादा से ज्यादा इक्कीस साल होगी ।”
“अशोक ।” - आशा उसकी बात अनसुनी करती हुई बोली - “जिस शाम को मैं पहली बार तुम्हारे साथ पीने के लिये टी सेण्टर गई थी । उस दिन घर लौटते समय जानते हो तुम्हारे बारे में मैंने क्या सोचा था ?”
“क्या सोचा था ?”
“मैंने सोचा था कि अगर आज मेरा छोटा भाई जिन्दा होता तो वह भी तुम्हारे जैसा खूबसूरत और तेज तर्रार नौजवान होता ।”
“आशा, तुम एकदम किताबी बातें कर रही हो । आज की जिन्दगी में इतनी गहरी भावुकता की कतई गुंजायश नहीं है । तुम्हारे कह देने भर से मैं तुम्हारा भाई थोड़े ही बन जाऊंगा ।”
“शायद तुम ठीक कहते हो ।” - आशा अनमने स्वर से बोली ।
“तुमने कभी सिगमंड फ्रायड का नाम सुना है ?” - अशोक ने प्रश्न किया ।
“हां, सुना है । वह ‘बेन हर’ में हीरो था न ?”
अशोक के चेहरे पर बरबस मुस्कराइट आ गई ।
“मैडम ।” - वह बोला - “एक साथ महज आधी दर्जन शब्दों के वाक्य में दो भयंकर गलतियां कर रही हो ।”
“क्या मतलब ?”
“जिस आदमी का जिक्र तुम कर रही हो, उसका नाम सिगमंड फ्रायड नहीं स्टीफेन बायड था और वह बेहनर में हीरो नहीं, विलेन था । हीरो दार्लस्टन हरस्टन था ।”
“अच्छा ।” - आशा लज्जापूर्ण स्वर से बोली - “सिगमंड फ्रायड कौन था ?”
“सिगमंड फ्रायड एक बहुत बड़े लेखक और विचारक का नाम है जो स्त्री-पुरुष के यौन सम्बन्धों के विषय में अथारिटी माना जाता है । सिगमंड फ्रायड ने कहा है कि औरत और मर्द में केवल एक ही रिश्ता सम्भव है और वह है सैक्स का रिश्ता । बाकी सारे रिश्ते झूठे हैं, समाज द्वारा लोगों पर जबरदस्ती थोपे गये हैं और...”
“तुम कहना क्या चाहते हो ?”
“मैं यह कहना चाहता हूं कि मैं एक पुरूष हूं और तुम मेरा विपरीत तत्व स्त्री हो । मैं तुम से मुहब्बत करता हूं । और तुम से शादी करना चाहता हूं । तुम्हारा पति बनना चाहता हूं, भाई नहीं ।”
“अशोक, तुम मेरी बात...”
“जल्दबाजी में कोई फैसला मत करो ।” - अशोक उसकी बात काट कर बोला - “जो कुछ मैंने कहा है, उसे गम्भीरता से सोचो लेकिन भावुक मन से नहीं तर्कपूर्ण मस्तिष्क से । उसके बाद भी अगर तुम्हारा यही फैसला होगा कि तुम पति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती तो मैं इसरार नहीं करूगा ।”
आशा चुप रही ।
“तुम्हें याद होगा जब पहली बार हम टी सेन्टर से निकलकर मैरिन ड्राइव के बान्ध पर जाकर बैठे थे तो मैंने तुमसे कहा था कि मैं एक लड़की से मुहब्बत करता हूं और अगर तुम मुझसे शादी के लिये उससे हां कहलवा दोगी तो मैं तुम्हारा भारी अहसान मानूंगा ?”
“याद है ।” - आशा धीरे से बोली ।
“आशा, वह लड़की तुम ही हो । मैं पहले दिन से तुमसे मुहब्बत करता हूं और मुझे पूरा विश्वास है, तुम मेरी मुहब्बत को ठुकराओगी नहीं ।”
आशा ने उत्तर नहीं दिया ।
“आओ चलें - एकाएक अशोक बदले स्वर से बोला । आशा फिर अशोक के साथ पथरीले फुटपाथ पर चल पड़ी ।
***
 
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