Horror Sex Kahani अगिया बेताल - Page 8 - SexBaba
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Horror Sex Kahani अगिया बेताल

इधर हमें कोई सफलता नहीं मिल पा रही थी। हम उन पर भटकते रहे पर कोई भी ऐसा चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं हुआ, जिसे हम अपनी मंजिल कह सकें। मुझे निराशा होने लगी परन्तु अर्जुनदेव आशावादी था। इधर कुमार को कै होने लगी थी, सारी दवा दारू व्यर्थ साबित हो रही थी।

एक रात जब सम्पूर्ण वातावरण चांदनी तले खामोश था... तब अर्जुनदेव परेशानी की सी मुद्रा में खुली हवा में चहल-कदमी करने चला गया। उस रात वह बहुत सुस्त नजर आ रहा था और परेशानी में खजाने के कागजात देखता रहा था फिर वह बाहर निकल गया।

कुछ देर बाद ही मैंने उसकी चीख सुनी और मैं उछल कर खड़ा हो गया। आशंका से घिरा मैं बाहर निकला और उसे पुकारने लगा।

शीघ्र ही उसकी आवाज सुनाई दी।

“इधर आओ।”

मैंने उस तरफ घूमकर देखा – वह एक ऊँची चट्टान पर खड़ा था। मैं भी उस चट्टान पर चढ़ गया।

“क्या बात है... तुम चीखे क्यों?”

“वह ख़ुशी की चीख थी रोहताश।”

“क्यों – क्या खजाना मिल गया।” मैंने व्यंगपूर्ण स्वर में कहा।

“वह देखो...।”

मैंने उस तरफ देखा जिधर वह संकेत कर रहा था। काफी दूर मुझे एक चमकीली सी वस्तु नजर आई। चांदनी ने उसकी चमक को जैसे रौशन कर दिया था। वह एक छत्र जैसा था। मेरी समझ में नहीं आया कि वह क्या है?

“वह है क्या?”

“यह लो...अब ज़रा दूरबीन से देखो।”

मैंने दूरबीन आँखों पर चढ़ा ली, अब मुझे एक मीनार नजर आई, जिसके उपर वह धातु सा चमकीला छत्र रखा था। मीनार के दोनों तरफ खतरनाक तीखी चट्टानों वाली पहाड़ियां थी। एक प्रकार से वह मीनार खाई में बनी थी और छत्र पहाड़ियों को जोड़ता नजर आ रहा था। इस प्रकार छत्र उस खाई के लिये पुल का सा काम कर रहा था और यदि वह रात के समय चमकता प्रतीत न होता तो उसे कोई भी पहाड़ी चट्टान मान सकता था, किन्तु इस समय चांदनी रात के कारण उसका लाल खाका काले पत्थरों के बीच उभर आया था।

“गनीमत है कुछ तो सफलता मिली।” मैंने दूरबीन हटाते हुए कहा।

“मेरा अनुमान है की इन चारमीनारों के बीच पुराने नगर के अवशेष होने चाहिए और ये चारों मीनारें उस पुराने नगर का प्रवेश द्वार हो सकती है, ऐसा मैंने नक्शा देखकर अनुमान लगाया है।”

“सम्भव है।”

“प्यारे रोहताश अब हम खजाने के द्वार पर है...........दौलत हमारा इन्तजार कर रही है। कल हम वहां तक पहुँच जायेंगे। उस छत्र में पहुँचने के बाद हमें आनंद की आनुभूति होगी।

“शायद ठाकुर वहीँ कहीं होगा।”

“अगर वह हमारे हाथ आ गया तो शेष काम भी पूरा हो जायेगा उस पर कब्जा करने के लिये हमारे पास तुरुप का पत्ता है – उसका बेटा हमारे कब्जे में है, इसलिये उसे बिना शर्त हथियार डालने होंगे।”

उसके स्वर में ख़ुशी थी।
 
लेकिन हमारा यह हर्ष रात के तीसरे पहर सहसा गम में डूब गया, जब सारे प्रयासों के बावजूद भी हम कुमार सिंहल के प्राण नहीं बचा सके। हमारे हाथ से तुरुप का पत्ता सहसा खिसक गया। हम दोनों ने एक दूसरे के चेहरे की ओर देखा।

“अब क्या होगा ?”

उसी समय हल्का तूफ़ान चलना शुरू हुआ। हवा के झोंके धीरे-धीरे तेज़ पड़ते जा रहे थे। खेमा हिलने लगा था और यूँ लगने लगा था जैसे असंख्य साये खेमे के इर्द-गिर्द डोल रहे हैं।

एक भयानक शब्द दिमाग में गूँज उठा।
काला जादू...।

काले पहाड़ की गुप्त शक्तियां।

मेरे माथे पर सहसा पसीने की बूंदे भरभरा आई।

और मैं सहसा उठ खडा हुआ।

सवेरा होते-होते हमारा खेमा उखड़ गया और उसके चीथड़े-चिथड़े तूफ़ान में खो गये। हमारा सामान उड़ रहा था और हम दोनों अपने आपको सँभालने के लिये पत्थरों को जकड़े पड़े थे। जब तक तूफ़ान नहीं रूका – हमें कुछ भी होश नहीं रहा। भयानक साये सवेरा होते ही ओझल हो गये थे।

तूफ़ान थमने के बाद हमें कुछ सुध आई।

जब हमने चारो तरफ का निरीक्षण किया तो यहाँ कुछ शेष नहीं था, हमारे सामान तक का पता न था। न जाने कैसा तूफ़ान था, जो सब कुछ उड़ा कर ले गया था। कुमार सिंहल के शव का भी कहीं पता न था और हमारे घोड़े भी वहां नहीं थे। कुछ समझ में नहीं आया कि यह सब कुछ कैसे हो गया। इस तूफ़ान की कल्पना ही हमारे मस्तिष्क को जड़वत किये दे रही थी और हमारे चेहरों की सारी रौनक गायब हो गई थी।

“यह कैसे हुआ?” अर्जुनदेव ने सिर्फ इतना ही पूछा।

“मैं नहीं बता सकता परन्तु मुझे ऐसा लगता है, अब हम यहाँ से जीवित वापिस नहीं लौट सकते।”

“ऐसा न कहो रोहताश! हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।”

“यह तो तय है की अपनी जान बचाने के लिये हम जिंदगी के आखिरी दम तक लड़ेंगे, फिर भी हम गुप्त शक्तियों का वार नहीं रोक सकते। कुमार सिंहल का साया ही हमें काले जादू से बचाये हुए था।”

“तो क्या रात जो कुछ हुआ काले जादू का प्रभाव था?”

“नहीं – वह हमारी मौत का संकेत था, काला जादू तो जान लेकर छोड़ता है। काश! कि हम लौट जाते। अब तो हमारे पास वह नक्शा भी नहीं।”

“घबराओ मत! मैंने नक्शा संभाल कर रखा है– उसे अपने सीने से लगाए रखा, ताकि वह भी तूफ़ान के साथ उड़ ना जाए। अगर हम दिन के उजाले में उस मीनार तक पहुँच जाते है तो हम काले जादू से बच सकते है। मेरा अपना विचार है की वहां इसका असर नहीं होगा क्योंकि वहां पुराना शहर है, जिस पर राजघराने का साया रहा है।”

“शायद यही हमारे बच निकलने का मौक़ा है। गुप्त शक्तियां सूर्य में अधिक कारगर सिद्ध नहीं होती। रात शायद हम इसलिये बच गये क्योंकि कुमार का शव हमारे पास था लेकिन आने वाली रात में नहीं बच पायेंगे।”

“ऐसी निराशाजनक बातें मत करो और आगे की तैयारी करो।”
 
शीघ्र हम आगे की यात्रा के लिये तैयार हो गये। अब हम खाली हाथ पैदल आगे बढ़ रहे थे। भय की छाया में दुर्गम पहाड़ियों का रास्ता तय करते हुए उस दिशा में बढ़ रहे थे जहाँ हमने रात वह मीनार देखी थी। हम एक पहाड़ी की चोटी पर जा पहुंचे। यहाँ पहुँचते-पहुँचते शाम का धुंधलका छा चुका था और बियाबान घाटी मुँह फाड़े खड़ी थी।

सामने दूसरी पहाड़ी थी। नीचे वह छत्र स्पष्ट हो रहा था, जिसे हमने देखा था। परन्तु वहां तक पहुंचना अत्यंत कठिन कार्य था। वह भी ऐसे समय जब अँधेरा सर पर सवार था। ज़रा सा पांव फिसलने पर सैकड़ो फीट नीचे खाई में पहुंच सकते थे, जहां हमारी हड्डियों का भी नामोनिशान नहीं मिलता। फिर भी मरता क्या न करता। हम जल्दी से जल्दी मीनार में पहुच जाना चाहते थे।

अर्जुनदेव के पास रेशमी डोरी का एक गुच्छा था, जिसे वह हर समय बेल्ट में लटकाए रहता था। यह संयोग ही था कि उस वक़्त भी यह डोरी उसके पास ही थी उसने तुरंत निर्णय किया। एक नजर छत्र तक पहुँचने की दूरी का अनुमान लगाया और फिर रेशमी डोरी खोल दी।

उसके लिये तो ऐसे खेल नए नहीं थे।

रस्सी को एक वृक्ष से बाँधकर उसने नीचे डाल दिया। छत्र से लगभग पंद्रह फीट ऊपर तक रस्सी का छोर पहुँच गया। उसने नजरों से ही दूरी को नापा और बिना आराम किये मेरी तरफ मुड़कर देखा।

“पहले मैं उतर रहा हूं, इससे पहले कि रात का काला साया और गहरा हो हमें मीनार के तर पहुँच जाना चाहिए, वहां से कोई न कोई रास्ता अवश्य मिल जाएगा। क्या तुम उतर सकोगे?”

“क्यों नहीं! आखिर मुझे भी तो जिंदगी प्यारी है।”

“ठीक है, मैं नीचे से संकेत करूंगा – फिर तुम तुरंत नीचे उतर जाना।”

अर्जुनदेव तैयार हुआ और रस्सी थामकर किसी बन्दर की तरह नीचे उतरने लगा।मैं उसे उतरता हुआ देखता रहा। कुछ देर बाद ही वह मेरी नज़रों से ओझल होने लगा। अँधेरा शनैः शनैः बढ़ता जा रहा था। कुछ क्षण बीते... फिर मिनट... उसके बाद रस्सी एकाएक ढीली हो गई। मैं समझ गया कि वह छत्र पर उतर गया है। उसकी धीमी आवाज मेरे कानो में पड़ी – उसने मुझे उतर आने के लिये कहा था।

और फिर मैं नीचे उतरने लगा। उत रते समय मैंने अपने रक्षक बेताल को याद किया, फिर चट्टानों पर पांव जमा-जमा कर नीचे उतरने लगा। धीरे-धीरे मैं छत्र के निकट होता जा रहा था।

कुछ देर बाद मैं एक चट्टान पर पांव जमा कर सांस लेने के लिये रुका।

मैंने मुड़कर नीचे देखा। छत्र साफ़ नजर आ रहा था और उस पर मेरा दोस्त अर्जुनदेव खड़ा था जो दोनों हाथ हिला रहा था। अभी मैं उसे देख ही रहा था की अचानक मैंने उसके पीछे एक साया उभरता देखा। साये के हाथ में कोई वस्तु चमक रही थी।

“अर्जुनदेव... तुम्हारे...पीछे....।” मैं जोर से चीख पड़ा।

अर्जुनदेव ने कुछ न समझकर पूछा।

“क्या कह रहे हो...?”

“तुम्हारे पीछे खतरा... बचो...।”

परन्तु अर्जुनदेव को पलटने का मौक़ा नहीं मिला, अगले पल उसके कंठ से दर्दनाक चीख गूंजी। मैंने नेत्र एक दम मूंद लिये।

“आओ...आओ......।” सहसा नीचे से अट्टहास सुनाई पड़ा – “अब तुम्हारी बारी है। बचकर कहाँ जाओगे, मैं तेरा खात्मा कर दूंगा... तु भैरव के हाथों से बच नहीं सकता।”

रेशमी डोरी के कारण मेरे हाथ छिल रहे थे और अब मैं ऊपर जाना चाह कर भी नहीं चढ़ सकता था। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कुछ ही देर में मैं नीचे गिर पडूंगा, दुश्मन नीचे मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।

कुछ पल में ही मैंने निर्णय ले लिया। जब मरना ही है तो भैरव तांत्रिक से डटकर मुकाबला क्यों ना किया जाए। क्या मैं इतना कायर हूं जो उससे डरकर ऊपर जाऊं.... जहाँ काला जादू मुझे ख़त्म कर देगा। मेरे शरीर में बल भर आया और मैं तेजी के साथ नीचे उतरता हुआ छत्र पर जा पहुंचा।

तुरंत ही संभलकर खडा हो गया।

कुछ फ़ुट के फासले पर श्वेत दाढ़ी वाला खौफनाक शक्ल का भैरव तांत्रिक नंग-धड़ंग खड़ा था। उसके हाथ में छुरा चमक रहा था। उसने छुरे को सीधा किया और कह-कहा लगाता हुआ मुझ पर पलट पड़ा। मैं एकदम कलाबाजी खा गया और भैरव सीधा चट्टान से जा भिड़ा। फिर मैंने एक लम्बी कूद लगाई और उसके पलट जाने से पहले ही उसे पीठ पीछे से जकड लिया।

मैंने एक हाथ से उसकी छुरे वाली कलाई ऊपर उठा दी और दूसरा हाथ उसकी मोटी गर्दन में फसा दिया। इसी स्थिति में हम एक दूसरे पर जोर आजमाने लगे।

अचानक उसने दूसरे हाथ से मेरे बाल पकड़ लिये और मुझ पर धोबी पाट दांव दे मारा। भैरव की शक्ति का पहली बार मुझे अंदाजा हुआ। मैं चीखकर गिरा और छत्र पर रपटता चला गया। मेरी टाँगे छत्र से बाहर निकलकर हवा में झूमने लगी। उसने एक ठोकर मेरे मुँह पर मारी... मैं और पीछे खिसक गया। मेरे हाथ छत्र पर फिसल रहे थे, पकड़ने का कोई स्थान नहीं था और वह मुझ पर बार-बार वार किये जा रहा था। कुछ क्षण में ही मैं छत्र पर लटक रहा था।

अब सिर्फ हाथों की पकड़ शेष रह गई थी– जरा सा हाथ फिसला नहीं कि मेरी हड्डियाँ भी बिखर जायेंगी। नीचे गहन अन्धकार व्याप्त था। मौत के मुह में पहुंचने के बाद मेरी साँसे तेज़-तेज़ चलने लगी।

अचानक मैंने अर्जुनदेव को धीमे-धीमे हरकत करते देखा, वह भयंकर पीड़ा के बीच भी होश में आने का प्रयास कर रहा था। अब तक मैं समझा था कि वह मर चुका है...पर उसमें शायद प्राण बाकी थे।
और मैं मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि उसे कुछ पल के लिये जिंदगी दे दे।

आसमान पर चाँद उदय हो गया था। भैरव उस चांदनी में बड़ा भयंकर लग रहा था। उसने मुझे दयनीय स्थिति में देख ठहाका लगाया और छुरा चमकाया।

“ले! अब मैं तेरी गर्दन काटने जा रहा हूं। बुला ले अपने बेताल को।”

उसी पल न जाने कहाँ से अर्जुनदेव में बिजली भर गई। इससे पहले कि भैरव मेरी गर्दन काटता – अर्जुनदेव कांपती टांगो पर खड़ा हुआ और झोंक में चलता हुआ तेजी के साथ भैरव से टकराया। उसने भैरव को बाहों में भर लिया था– उसके बाद दोनों मेरे सिर के उपर से तैरते चले गये।

भैरव की भयाक्रांत चीख गूंजी और फिर डूबती चली गई।
 
मैं कांपकर रह गया। दिल डूबने लगा। सहसा जिंदगी का ध्यान आया और मैं ऊपर चढ़ने का प्रयास करने लगा। शीघ्र ही मैं छत्र पर पड़ा-पड़ा लम्बी-लम्बी सांसे ले रहा था। वह दृश्य मेरी आँखों से ओझल नहीं हो पा रहा था।

मैंने नेत्र मूंद लिये।

कुछ देर तक मैं इसी प्रकार पड़ा रहा फिर उठ खड़ा हुआ और छत्र पर चलने लगा। छत्र में मुझे एक खोखला स्थान नजर आया। चांदनी उससे भीतर भी छन रही थी और मैंने उसी प्रकाश में नीचे सीढियाँ देखीं। मैं उस खोखले भाग में उतर गया।

उसके बाद धीरे-धीरे सीढियाँ उतरने लगा। ना जाने कितनी सीढियाँ उतरा फिर एक बड़े हाल में खड़ा हो गया। सारा कमरा खाली था... सिर्फ दीवारों की मनहूसियत शेष थी। उस हाल कमरे का बड़ा सा द्वार खुला था... मैं उसी तरफ बढ़ गया।

तभी तेज़ प्रकाश चमका और मैं रोशनी में नहाता चला गया।

“वहीँ रुक जाओ – वरना गोली मार दूंगा।” एक रौबदार स्वर मुझे सुनाई पड़ा।

मैं ठिठक गया।

“अपने हाथ ऊपर उठा लो।”

मैंने आज्ञा का पालन किया। फिर धीरे-धीरे एक साया मेरे सामने आ गया। मैं उसे तुरंत पहचान गया। यह ठाकुर भानुप्रताप था। और उसने भी मुझे पहचान लिया था।

“ओह्ह तो तू है... और तू यहाँ तक आ गया।”

“हाँ मैं तुझसे मिलने के लिये आतुर था इसलिये यहाँ तक चला आया।”

“कुत्ते – क्या तुझे भैरव ने ठिकाने नहीं लगाया?”

“बेचारा खुद परलोक सिधार गया है।”

“क्या...?”

“यकीन नहीं आता ठाकुर… तो बाहर चल कर देख ले शायद उस में एक आध सांस बाकी हो।”

“नहीं मुझे विश्वास नहीं।”

“तो फिर खोज ले अपने भैरव को।”

“उधर की तरफ घूम जा… मैं अभी पता लगाता हूं…. चल वरना गोली से उड़ा दूंगा।”
 
“ऊपर वाले की मर्जी नहीं है कि मैं इतनी जल्दी मरुँ ... जहां कहोगे चला चलूंगा।”

मीनार के भीतर ही एक अंधेरी कोठी थी। उसने मुझे कोठरी में धकेल दिया और लोहे वाला द्वार बंद कर दिया। लगभग 20 मिनट बाद वह लौटा तो पसीने-पसीने हो रहा था। चेहरे से हवाइयां सी उड़ रही थी… वह दहाड़ कर बोला।

“कमीने यह तूने क्या कर दिया? मेरी बरसों की मेहनत पर पानी फेर दिया। मैं तुझे जिंदा नहीं छोड़ूँगा।”

“क्या भैरव की लाश देख आए ठाकुर ?”

ठाकुर पागलों के समान दरवाजा खोलकर अंदर आया और मेरी छाती पर बंदूक टिकाकर हांफने लगा।”

“मैं जानता हूं ठाकुर... तू यहां तुम बिना नक़्शे का राजवंश का खजाना ढूंढ रहा है, तेरी अपनी दौलत तुझे नहीं मिल पा रही है और जिसके सहारे तू रहस्य खोज रहा था वह भी चिरकाल के लिये विदा हो गया। मैंने उसे नहीं मारा बल्कि उसे अपनी करनी का फल मिल गया। ठाकुर तेरे कारण मेरे जीवन की शांति भंग हो गई थी और मुझे आदमी से हैवान बनना पड़ा लेकिन अब स्थिति यह है कि अगर मैंने तुझे मार दिया तो मैं यहां से जीवित नहीं निकल सकता और तूने मुझे मार दिया तो तू खजाना कभी नहीं पा सकता।”

“क्या मतलब - तू खजाने के बारे में क्या जानता है?”

“जितना मेरा पिता जानता था और वह नक्शा भी मेरे पास है।”

“कहां है नक्शा?” ठाकुर ने थर्राते स्वर में कहा।

“ठाकुर तू मेरी सारी तलाशी ले लेगा तब भी नहीं मिलेगा… मेरी जान भी चली जाएगी तो भी नहीं मिलेगा इसलिये समझौता कर ले।”

“कैसा समझौता?”

“यह बन्दूक हटा और मुझे यहां से बाहर ले चल फिर हम इत्मिनान से बात करेंगे।”

“अगर तूने कोई गड़बड़ की तो याद रखना मेरे पास बंदूक है और तू निहत्था है।”

“याद रहेगा।”

वह मुझे बाहर ले आया। हर हाल में बैटरी से जलने वाला प्रकाश जगमगा रहा था, जिसके प्रकाश में ऊपर की सीढ़ियां साफ नजर आ रही थी।

“हां अब बोल।”

“समझौता यह है ठाकुर की जो प्राप्ति होगी वह हम दोनों बराबर-बराबर बांट लेंगे और उसके बाद यहां से बाहर चले जाएंगे।”

“तेरी सूरत है ऐसी - जो राजघराने का धन प्राप्त करें।”

“सूरत तो अब बिगड़ गई है ठाकुर बस पहले मैं तुमसे अच्छी सूरत वाला था। अब अगर तुम्हें सौदा मंजूर ना हो तो जो दिल चाहे करो।”

थोड़ी देर तक वह ना जाने क्या सोचता रहा - फिर एकाएक बोला।

“चलो तुम्हारी यह शर्त मंजूर है।”

“कोई धोखा ना करना ठाकुर… वरना पछताना पड़ेगा।”

“अगर मुझे ऐसा करना होता तो तुम्हें अभी कत्ल कर देता। अब बताओ नक्शा कहां है ?”

“नक्शा मेरे दिमाग में है ठाकुर।”

“ओह्ह।”

ठाकुर ने जैसे हथियार डाल दिये।

“अब हमें सवेरे का इंतजार करना चाहिए। भैरव के साथ-साथ मेरा एक दोस्त भी मरा है, क्यों ना तब तक हम उनकी चिता बना दें।”

“ठीक है।”

ठाकुर को अभी तक इसका कुछ भी पता नहीं था कि उसके घर पर क्या बीती है। यदि उसे मालूम होता तो वह निश्चय ही पागल हो जाता।”
 
मैंने ठाकुर की आंख बचाकर अर्जुनदेव के सीने से चिपका वह नक्शा उतार लिया था और उसे छिपा दिया था। ठाकुर ने वहां एक मीनार में अपना पड़ाव डाल रखा था।

दिन के उजाले में उसने इस उजड़ चुके पुराने खंडहर की सैर करवाई और उसका इतिहास मुझे सुनाता रहा।

उस शहर का नाम पहले सिंहल नगर था और इस शहर के चार दरवाजे थे... चारों दरवाजे मीनारों के रूप में थे और यह चारों मजबूत ऊंची चारदीवारी से जुड़े थे… पूरा शहर खतरनाक जंगल और पर्वतों से घिरा था। बाहर निकलने के मार्ग गुप्त हुआ करते थे। सिंहल नगर वास्तव में पहले डाकुओं का गढ़ था फिर शहर की आबादी बढ़ी तो वहां राजा बन गया और वह बकायदा एक राज्य बन गया।

सिंहल नगर के राजा के पास जब बेशुमार दौलत हो गई थी तो उसे इस बात का खतरा हुआ कि कहीं उस नगर पर कोई हमला ना कर दे और सारा धन ना लूट ले जाये इसीलिये उसने बकायदा राज्य व्यवस्था का मार्ग अपनाया।

और उस दौर के मशहूर तांत्रिक कृपाल भवानी को यह कार्य सौंपा गया। कृपाल भवानी राजा का सबसे विश्वासपात्र आदमी था। खजाने को सुरक्षित छिपाने की जिम्मेदारी उस पर सौंप दी गई। उस काल में सूरजगढ़ बसा और सिंहल नगर के लोग सूरजगढ़ में बस गये। उसके बाद बाकायदा नया राज्य बना... जिसके शासक उसी देश के लोग रहे और सिंहल नगर का अस्तित्व काला पहाड़ के रूप में बदल गया। काले पहाड़ के बारे में भयानक किस्म की बातें प्रचलित हो गई, ताकि उस तरफ आने का कोई साहस न कर सके और खजाने का नक्शा पीढी-दर-पीढी लोगों के हाथों में बदलता रहा।

हर शासक मरते समय शासक को यह बता कर मरता था कि सिंहल नगर के खजाने का दुरुपयोग न करें और उसमें से धन निकालने तभी जाये, जब धन की भारी कमी राज्य में पड़ जाये। साथ ही यह उपदेश देता था कि कृपाल भवानी के किसी प्रतिनिधि तांत्रिक को साथ लेकर जाये। हर युग में कृपाल भवानी का प्रतिनिधि तांत्रिक रहा, जो काले पहाड़ पर रहता था और उसका काम सिर्फ खज़ाने की रक्षा करना होता था का। क्योंकि यह जानकारी उसे भी नहीं होती थी कि खजाना कहां रखा है - वह बस नक्शे को पढ़ सकता था। इस प्रकार दोनों के मिले बिना उस जगह तक कोई नहीं पहुंच सकता था। कृपाल भवानी के तंत्र में यह विशेषता थी कि एक बार जो रास्ता नक्शे में रहता है - वह उस हालत में बदल जाता है जब उस रास्ते का उपयोग करके कोई राज परिवार का आदमी खज़ाने तक पहुंच जाये… दूसरी बार वह उस मार्ग से नहीं जा सकता - यही नक्शे का जादू था। इसलिये एक बार मार्ग मालूम होने के बाद भी दोबारा फिर खज़ाने तक पहुंचना असंभव होता था।”

“इसका मतलब यह हुआ कि इस बार हम जिस रास्ते से वहां तक पहुंचेंगे, अगली बार वह रास्ता बंद हो जायेगा।”

“हाँ!” ठाकुर ने दीर्घ सांस खींची - “और मैं यह व्यवस्था ख़त्म कर देना चाहता हूँ, क्योंकि अब राजा महराजाओं का युग ख़त्म हो गया। आज हम गढ़ी के ठाकुर हैं, हो सकता है भविष्य में न रहें। युग बदलते देर नहीं लगती… और वह समय भी आ सकता है, जब काला पहाड़ सरकारी सम्पति बन जाये। इसलिये मैं इसे अपने अधिकार में कर लेना चाहता हूँ।”

“क्या तुम पहले कभी वहां पहुंचे हो?”

“नहीं - मुझे इसकी आवश्यकता नहीं पड़ी, क्योंकि मुझ पर कोई संकट नहीं आया। मैं पहली और आखिरी बार वहां जाना चाहता हूँ। मेरी समझ में नहीं आता कि तुमने किस विश्वास पर वहां तक पहुँचने का दावा किया था।”

“तुम यह क्यों भूल गये कि मैं तांत्रिक भी हूँ और मेरा बाप भी इसी चक्कर में मारा गया।”

“क्या तुम लखनपाल से मिले हो?”

“नहीं...!”

“फिर तुम्हारे पास वह नक्शा कहाँ से आया। साधू नाथ के पास तो था नहीं।”

“तुम इस फेर में मत पड़ो… अब हमें काम शुरू कर देना चाहिए। पहले मैं वह मीनार देखना चाहता हूँ।”

“चलो।”

हम लोग चल पड़े।

पहले मैंने चारों मीनारें देखी और उनकी सीढियाँ गिनता रहा। नक़्शे के अनुसार मीनारों में 20...40….45… 54… सीढ़ियों का क्रम होना चाहिए था परंतु यह सब कुछ उनमें नहीं था।

सिर्फ एक मीनार, जो सबसे छोटा या 50 सीढ़ियों वाला था शेष क्रमशः 120... 80… और 90 सीढ़ियों वाले थे। यह बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी। और पहली ही बार निराशा हाथ आई मीनारों की छानबीन के बाद हम लौट आये। यह बात समझ में नहीं आई की यह गलत आंकड़ा कैसे निकला। क्या नक्शा गलत पढ़ा गया था ?

काफी रात गए मैं माथा पच्ची करता रहा, फिर गणित लड़ाता रहा… फिर रात को अचानक एक सपना नजर आया। सपने में कोई छाया नजर आई थी, जिसने मुझे एक दोहा पढ़कर सुनाया।

जितने हैं मीनार, उतने खड़े हैं बीमार
बीमारों को नीचे रख, देख तमाशा यार।
मरने वाले बीमारों की चिता जला दे तू
शेष बचेगा जो, वैसा ही सबक पढ़ा दे यार।।

कुछ इसी प्रकार का दोहा था, जो सवेरे आंख खुलने पर भी मेरे मन में कुलबुलाता रहा। मुझे ऐसा लगा जैसे सपने में कोई मेरी सहायता के लिये आया था। मैंने तुरंत वह पंक्तियां नोट कर ली। उसके बाद उन पंक्तियों पर गौर करने लगा।

जितने हो मीनार उतने खड़े हैं बीमार।
मीनार चार है तो बीमार भी चार।
बीमारों को नीचे रख, देख तमाशा यार।

इसका अर्थ यह निकल रहा था कि चार की संख्या को नीचे रख दो, पर किसके नीचे। ये बात पल्ले नहीं पड़ रही थी। फिर अचानक खयाल आया कि सीढ़ियों की संख्या नोट की जाये और चार की संख्या प्रत्येक के नीचे रखी जाए, देखें क्या नतीजा निकलता है।
मैंने ऐसा ही किया।

120/ 4, 80/4, 90/4, 54/ 4

अब मैंने गणित लगाया। चार से इन संख्या को भाग दिया। पहले भाग देने पर 30 और 20…. तीसरी संख्या में पूरा भाग नहीं कटा और ना चौथी संख्या में। मैं सिर्फ 30 और 20 पर गौर करने लगा। फिर सहसा चौंक पड़ा। बीस की संख्या अस्सी में आ जाती थी और नक्शे के हिसाब से मुझे संख्या की आवश्यकता थी।

मेरा दिमाग तेजी के साथ चलने लगा।

मैंने अस्सी को अलग हटा कर रख दिया। उसके बाद अगली पंक्तियों पर गौर किया - मरने वाले बीमारियों की चिता जला दे तू।
 
कौन सा मरा… हाँ… एक संख्या कम हो गयी... अस्सी की, जितने मीनार है उतने बीमार हैं - इसका मतलब तीन बीमार बच गये। शेष बचेगा जो, वैसा ही सबक पढा दे यार।

वैसा सबक…. इसका अर्थ क्या पहले जैसा अर्थात जैसे पहले हल निकाला। अब मैंने 80 को हटाकर से तीन संख्याओं के नीचे तीन रख दिया।

120/ 3, 90/3, 54/ 3
हल निकला 40, 30, 18

इस बार तीनों संख्या कट गई पर मैंने अपने मतलब की संख्या लेनी थी, जो चालीस थी। अब मैं इसी प्रकार आगे का हल निकालने लगा। 120 को एक तरफ हटाने के बाद मैंने दो से भाग दिया तो 90 में पैंतालिस निकल आया। अब सिर्फ 54 बचा था, एक से भाग देने पर 54 था ही।

मैं खुशी से उछल पड़ा। हल मिल गया था। अस्सी सीढ़ियों वाले मीनार में 20 का नंबर 120 में 40 और 90 में 45… चौथा 54। मैंने इन मीनारों को क्रमबद्ध रख दिया। नक्शे में सीढ़ियों पर चढ़ते पांव थे। यह संकेत नहीं मिला कि सबसे पहले 54 पर चढ़ना है या 20 पर… पांवों का अर्थ चढ़ना ही हो सकता है। मैंने दोनों तरफ से प्रयोग कर लेना उचित समझा। सबसे पहले हम 54 सीढ़ियों वाले मीनार पर पहुंचे। मैंने मीनार की सीढ़ी पर चढ़ना शुरू किया। सबसे अंतिम सीढ़ी पर चढ़ने के बाद मैंने उसका निरीक्षण किया कोई विशेष बात नजर नहीं आई। यह सीढ़ी भी अन्य सीढ़ियों के समान थी। मैं हाथ से उसे टटोलने लगा। अचानक मेरी निगाह कांसे की बनी एक तस्वीर पर अटक गई यह एक चेहरे की प्रतिमा जैसी थी और हर सीढ़ी के दाएं हिस्से पर लगी थी। धूल जम जाने के कारण वह स्पष्ट नजर नहीं आती थी।

मैंने उस पर से धूल हटाई और अजमाइश करने लगा। पूरी तस्वीर मेरे पंजे में आ गई। मैंने ठाकुर को नीचे ही रखा था - मैंने उसे समझाया कि नक्शे के अनुसार एक ही आदमी को चढ़ना था। वह नीचे खड़ा मुझे देख रहा था।

मैंने तस्वीर को घुमाने का प्रयास किया तस्वीर दाई ओर घूम गई और फिर खट की आवाज हुई साथ ही उसने घूमना बंद कर दिया। अब मैं प्रफुल्लित हुआ और अपनी सफलता की मनोकामना करता हुआ नीचे उतरा।

फिर मैं ठाकुर को लेकर दूसरी मीनार पर पहुंचा।

इन मीनार की सीढ़ियों पर वैसे ही तस्वीर बनी थी।

मैंने तस्वीर के बारे में ठाकुर से पूछा कि यह किसकी है ?

“यह कृपाल भवानी का चेहरा है।” ठाकुर ने बताया।

मैंने इस टावर की सीढ़ी पर चढ़कर पैतालिसवीं सीढ़ी का चयन किया और उसकी तस्वीर भी वैसे ही घुमा दी। यही प्रयोग मैंने अन्य टॉवरों में भी किया परंतु नतीजा कुछ ना निकला। इस प्रकार शाम हो गई। प्रत्येक मीनार एक दूसरे से काफी दूर थी। जिस मीनार से मैं भागा था

वह एक सौ बीस सीढ़ियों वाली थी।

अगले दिन नीचे से ऊपर की संख्या पर कार्य हुआ।

मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि तस्वीर घूमकर यथास्थान आ चुकी थी। मैंने उसे पुनः घुमाया और खट की आवाज होते ही छोड़ दिया। उसके बाद मैं इसी क्रम में आगे बढ़ा। चालीस, पैतालीस, और अंत में चौवन नंबर पर जा पहुंचा।

चौवन नंबर सीढ़ी की तस्वीर घुमाते समय मेरी सांस रुक गई , क्योंकि उसके साथ ही घरघराहट का धीमा स्वर सुनाई पड़ा था। सामने एक आला खुलता चला गया। उसके भीतर से एक काला नाग निकला… वह फन उठाए अपनी छोटी-छोटी आंखों से मुझे देखने लगा। फिर वह सीढ़ियों से उतरता हुआ नीचे चला गया।

“सांप…. सांप….।” ठाकुर चिल्लाया।

“उसे मारना नहीं।” मैं जोर से बोला और सीढ़ियां उतरने लगा।

उसके बाद नाग अपने रास्ते पर चलता रहा और हम उसके पीछे पीछे चल पड़े। वह मीनार से बाहर निकल गया। फिर वह हमें एक उजड़े मकान में ले गया। खंडहर में एक रास्ता उदय हुआ - जो काफी ढलुआ और जमीन के गर्भ में समा गया था। उस में अंधकार छाया हुआ था। ठाकुर ने टॉर्च जला ली।

यह रास्ता आगे जाकर एक द्वार में खत्म हुआ और फिर लगभग 200 गज लंबी सुरंग का मार्ग तय हुआ। सर्प बिना हिचक आगे-आगे रेंग रहा था। सुरंग एक अन्य दरवाजे से जुड़ी थी। वह द्वार भी अचानक खुलता चला गया।

मैं समझ गया कि हम खजाने के निकट है और सर्प उसका रखवाला है। यहां से हम सुनहरी सीढ़ियां उतरने लगे फिर सांप ने हमें एक कमरे में छोड़ दिया और ना जाने कहां गायब हो गया।

ठाकुर ने टॉर्च के प्रकाश में कमरे का निरीक्षण किया। फिर हर्ष से चीख पड़ा।

“मिल गया… खजाना मिल गया…।”

कमरे के बीच में एक हौज था, जिसमें पानी था। ठाकुर उसी में बार-बार हाथ डाल रहा था। उसने सोने की कुछ मूर्तियां पानी से निकाल ली थी, फिर मैं भी उसके पास पहुंच गया।

“इसी में है और या भरा पड़ा है। हमें इसका पानी निकाल लेना चाहिए। इसकी निकासी कहां है…..?”

“इसकी निकासी कही नहीं लगती। शायद यह एक प्रकार से कुआं है, क्या पता इसका पानी निकाल पाना संभव न हो।”

“ठहरो पहले मैं इस में उतर कर देखता हूं और इसकी गहराई नापता हूं।”

ठाकुर मुझे टॉर्च पकड़ा कर उस में उतर गया। पानी उसके घुटनों-घुटनों तक था।

“यहां फौलादी बक्से पीछे पड़े हैं…।” वह बोला - “और ना जाने क्या-क्या है… हमें काम शुरू कर देना चाहिए। तुम जाकर बाल्टी और कुदाल ले आओ। मेरे पास सारा इंतजाम है।

ठाकुर सारी व्यवस्था कर लाया था। उसके साथ आठ खच्चर भी आए थे, जिन्हें वह शायद माल ढ़ोने के लिये लाया था।
 
अगले कई घंटे तक हम खजाना निकालने में लगे रहे। कमरे में पेट्रोमेक्स का प्रकाश चल रहा था। वहां तनिक भी घुटन नहीं थी। हम हौज का पानी भी खाली करते जा रहे थे।सारी रात काम करने के बाद भी एक तिहाई निकाल पाए। कई बक्से निकल आए थे, जिन पर सील लगी थी। ठाकुर ने एक बक्से की सील तोड़ कर देखा - उनमें जवाहरात भरे थे। मंदिरों से लूटी गई अनेक नायाब सोने-चांदी की मूर्तियां थी…. हीरे थे... और असली मोती के ढेर थे।

मेरी तो बिसात ही क्या ठाकुर ने भी इतनी दौलत पहली बार देखी थी। एक बक्से में स्वर्ण हार भरे पड़े थे। एक में अंगूठियों का ढेर था। दूसरे दिन भी यह कार्य पूरे जोर-शोर से चलता रहा। सारी थकावट गायब हो गई थी। हमारी आंखों से नींद कोसों दूर जा चुकी थी।

हौज गहरा होता जा रहा था।

आखिर दो दिन की कड़ी मेहनत के बाद हम सारा ख़ज़ाना बाहर निकालने में सफल हो गए। जब सारा खजाना सोलह बक्सों में रख दिया गया और यह बक्से बाहर पहुंचाए गए तो ठाकुर ने एक दिन मीनार में आराम करने की सलाह दी।

यह सोलह बक्से मीनार के हॉल में रख दिये गए।

“मेरे ख्याल से आराम बाद में होता रहेगा।” मैंने कहा - “पहले हमें अपना हिस्सा बांट लेना चाहिए।”

“इतनी बेसब्री भी क्या - पहले हम इन पहाड़ों से बाहर निकल जायें फिर बांट लेंगे।” ठाकुर बोला।

“नहीं ठाकुर बटवारा हो जाना चाहिए।”

“ठीक है - मैं बटवारा किए देता हूं।”

ठाकुर ने अचानक अपनी बंदूक उठाई और मेरी तरफ तान दी। उसके बाद उसके होंठों पर इस वक्त जहरीली मुस्कान खेलने लगी।

“तेरा क्या मतलब था तू राज-घराने की संपत्ति पर हाथ लगा सकेगा।”

“ओह्ह! तो तू अपनी कमीनी हरकत पर उतर आया है।”

मैं उठ खड़ा हुआ।

“आगे ना बढना कुत्ते। वही रह… अब तेरा अंत निकट आ गया है। तू इस खजाने का आखरी राजदार है।”

“ठाकुर भानु प्रताप! मैंने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली है। तुम्हारी ऑटोमेटिक बंदूक में कोई गोली नहीं, जो मेरा सीना फाड़ दे - चाहो तो चला कर देख लो।”

“बकवास...।”

ठाकुर ने ट्रिगर दबाया। बात सच थी। एक पल के लिये ठाकुर के हाथों से तोते उड़ गए परंतु अगले ही क्षण उसे अपना रिवाल्वर का ख्याल आया। ठाकुर ने तुरंत अपने बैग पर झपट्टा मारा। रिवाल्वर उसने इसी में रखी थी। रिवाल्वर से अधिक बंदूक पर भरोसा करता था। क्योंकि उसका दूर का निशाना अच्छा था और बंदूक दूर तक मार कर सकती थी। किंतु जब उसने बैग में हाथ डाला, तो बैग से रिवॉल्वर नदारद थी।

अब ठाकुर चौंका।

“क्यों ठाकुर… अब भी कोई कसर बाकी है।” मैंने ठहाका मारा।

“कमीने... कुत्ते।”

यह कहकर ठाकुर ने बंदूक उल्टी पकड़ी और उसका हत्था तानकर मेरे ऊपर भूखे शेर की तरह झपटा। दूसरे ही पल मैंने फुर्ती के साथ ठाकुर वाली रिवॉल्वर अपनी जांघिये के भीतर से निकाली और उसकी तरफ तान दी।

“मैं हाथा-पाई पर विश्वास नहीं रखता ठाकुर इसलिये हाथ ढीले छोड़ दो मैं चाहता तो अब तक तुम्हें खत्म कर देता परंतु अभी तुम्हारी जिंदगी के कुछ दिन बाकी है।”

ठाकुर के हाथ स्वतःढीले पड़ गए। वह सूनी आंखो से मुझे घूरने लगा।

“तुम्हारी इस नियत से तो मैं पहले ही परिचित था और मुझे भी मजबूरन तुम्हारे साथ की ज़रूरत थी क्योंकि मुझे इन पहाड़ियों से सही सलामत बाहर निकलना है अन्यथा तुम अब तक नर्क सिधार गए होते, भानु प्रताप ! तुझे अपने जुल्मों की ख़बर तो होगी।

“क्या मतलब है तेरा?”’

“तूने मेरे बाप को मरवाया… मरवाया न…।”

“झूठ... कोई साबित नहीं कर सकता।”

“सबूत की जरूरत अदालत में पड़ती है मुझे सबूत की आवश्यकता नहीं। मैं तुझे याद दिलाना चाहता हूं ताकि तुझे अपनी मौत का रंज ना रहे…. मेरी जिंदगी को बर्बाद करने वाला तू है ठाकुर…. तुझे मुझसे और चंद्रावती से क्या दुश्मनी थी कमीने…. चंद्रावती के साथ अत्याचार का बदला मैंने तेरी सुंदर बीवी से ले लिया है…. तू हाल सुनेगा तो पागल हो जाएगा…।”

“मेरी बीवी….। ठाकुर चौक पड़ा - “क्या किया तूने… क्या हुआ मेरी बीवी को।”
 
“तू तो यहां मजे कर रहा था ठाकुर और मै सूरजगढ़ के चप्पे-चप्पे में तुझे तलाश कर रहा था। तूने गढ़ी की सुरक्षा के लिये भैरव का फार्मूला अपनाया, जिन्हें मैंने कैद कर लिया।

उसके बाद तेरी बीवी को गढ़ी में जाकर भोगा। बेचारी मुझे देखते ही अचेत हो गई थी। नमूने के लिये मैं उसकी साड़ी, ब्लाउज और अंगिया साथ में गले का हार अपने साथ ले आया, जो मैं तुझे सबूत के तौर पर दिखाना चाहता था।”

“नहीं….।” वह चीख पड़ा।

“और सुनेगा तो पागल हो जाएगा। तो सुन मैंने गढ़ी को राख की ढेरी में बदल दिया था। इतना ही नहीं तेरे एकलौते बच्चे को कैद कर लाया था पर मुझे दुख है…।”

“मेरा बच्चा... मेरे बच्चे को क्या हुआ….।”

“कुमार सिंहल को मैं यहां ला रहा था…. उसकी मौत का जिम्मेदार मैं नहीं हूं - वह भयानक मलेरिया से पीड़ित हो कर मर गया था।”

“क... मी...ने…।” ठाकुर जोरों से चिल्लाया…। वह सचमुच पागल हो गया था - “तूने मेरी दुनिया उजाड़ दी... तूने मुझे बर्बाद कर दिया। कुमार ने तेरा क्या बिगाड़ा था हरामजादे….। तूने गढ़ी के वंशज को मिटा दिया।”

“जब तू यह पूछता है तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। यही सवाल मैंने भी तो किया था कि मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था। पर ऊपर वाला शायद जो करता है, वह अच्छा ही करता है। अगर तुमने मुझे जालिम ना बनाया होता तो यह धन मुझे कैसे मिलता... अब तो ठाकुर तुझे कुछ समय और जीना है - चाहे खुशी से जी ले चाहे रो कर…।”

ठाकुर हथेलियां रगड़ रहा था।

उसका वश चलता तो उसी वक्त मुझे ठिकाने लगा देता। परंतु मेरी रिवाल्वर एक पल के लिये भी उससे विमुख नहीं हुई थी। और वह बाज की तरह मुझ पर झपट्टा मारना चाहता था। क्रोध के कारण उसका सारा शरीर कांप रहा था।
 
ठाकुर हथेलियां रगड़ रहा था।

उसका वश चलता तो उसी वक्त मुझे ठिकाने लगा देता। परंतु मेरी रिवाल्वर एक पल के लिये भी उससे विमुख नहीं हुई थी। और वह बाज की तरह मुझ पर झपट्टा मारना चाहता था। क्रोध के कारण उसका सारा शरीर कांप रहा था।

“चलो अब इन बक्सों को खच्चरों पर लादो।” मैंने कहा - “संभव है मुझे तुझ पर तरस आ जाए और मैं तुम्हें जिंदा छोड़ दूं।”

वह चुपचाप मुझे घूरता रहा।

“हरामजादे मेरा हुक्म मानता है या नहीं।”

“मैं जानता हूं तुम मुझे गोली नहीं मार सकते।” ठाकुर ने जहरीली मुस्कान के साथ कहा - “क्योंकि मेरे मरने से तू भी यहां से जिंदा नहीं निकल सकता।”

“अच्छा - यह तूने कैसे जाना?”’

“इस क्षेत्र का काला जादू तुझे जीवित नहीं छोड़ेगा। इसलिये तू यह हथियार फेंक दे।”

“यह तेरा भ्रम है ठाकुर ! अगर ऐसा होता तो मैं यहां तक कैसे पहुंच पाता। तू इस बात को भूल रहा है कि मैं तांत्रिक भी हूं। “

“अगर तू काले जादू से निपट सकता है तो मुझे मरने के लिये यही छोड़कर जा सकता है मेरा वंश तूने तबाह कर ही दिया तो फिर मुझे जिंदगी का मोह क्यों…. चला गोली और मेरा खात्मा करके अपनी प्यास बुझा लें।”

“बड़ी बहादुरी वाली बात करता है ठाकुर…। ठीक है, अगर तेरी यही इच्छा है तो जरूर पूरी करूंगा।”

“स... सांप... सांप…।” अचानक वह दरवाजे की तरफ देखता हुआ चीख पड़ा। उसकी एक आवाज के साथ मेरी निगाह घूमी। मीनार के बाहर निकलने के मार्ग पर सचमुच वही सर्प फन फैलाए खड़ा था। उसकी छोटी-छोटी आंखें हम दोनों को घूर रही थी। वह इस प्रकार मार्ग रोके था जैसे हमें ख़ज़ाना ले जाने का अवसर नहीं देगा।

मेरी निगाह चूकनी थी कि एकाएक ठाकुर ने मुझ पर छलांग लगा दी और मैं भरभराता हुआ एक बक्से पर जा गिरा। ठाकुर मुझ से लिपटा हुआ था और उसने मेरा रिवाल्वर वाला हाथ मजबूती के साथ थाम लिया था। वह इसी स्थिति में मुझे दबाये चला जा रहा था। वह मेरे हाथों से रिवॉल्वर को मुक्त कर देना चाहता था और मैं उसे पीछे धकेलने का संपूर्ण संघर्ष कर रहा था।

वह मुझ पर भारी पड़ रहा था। उसका एक हाथ मेरा गला दबाने का प्रयास कर रहा था, अचानक मैंने पूरी शक्ति के साथ करवट बदली और फिर हम दोनों एक दूसरे से लिपटे लुढ़कते चले गए। उस वक्त हमें इसका तनिक भी आभास नहीं था कि मीनार के लोहे वाले भारी दरवाजे धीरे-धीरे बंद होते जा रहे हैं।

उस समय तो हम एक दूसरे को खत्म कर देने की लड़ाई लड़ रहे थे।

जैसे ही फाटक बंद हुए उजाला कुछ कम हो गया।

ठाकुर ने मेरे हाथ को जोर से बक्से पर मारा। इस बार रिवाल्वर की पकड़ छूट गई पर इससे पहले कि ठाकुर उसे उठाता मैंने उसे लपेट कर करवट ले ली और रिवाल्वर पर पांव मार दिया।

अब रिवाल्वर काफी दूर खिसक चुकी थी।
 
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