Horror Sex Kahani अगिया बेताल - Page 6 - SexBaba
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Horror Sex Kahani अगिया बेताल

मैं अपनी गुफा में जा पहुंचा।

चन्द्रावती उस वक़्त सो रही थी। मेरी आहट पाते ही जाग गई।

मैंने रौशनी जलाई।

उसने अंगड़ाई ली और मैंने देखा इस बीच उसका चेहरा काफी मुर्झा गया है। चेहरे पर पीली पर्त चढ़ी थी, आँखें धसती जा रही थींऔर गालों की हड्डियाँ उभरती जा रही थी। आज मैंने पहली बार महसूस किया कि वह जवान नहीं रही... उसकी सुन्दरता मिट चुकी है और कुल मिलाकर वह दायाँ सी हो गई है।

“इतने रोज कहाँ रहे तांत्रिक ?” उसने पूछा।

“तू जानती है, मैं क्या करता फिर रहा हूं।”

“जानती हूँ... पर इतने दिन मुझे अकेले छोड़कर रखना तुझे अच्छा लगता है ?”

“क्यों क्या तू मेरे बिना मर जायेगी। सो जा चुपचाप...मैं बहुत थका हुआ हूं...पर ज़रा मेरी टांगे तो दबा दे।”

मेरा मोह तो सारी दुनिया से ख़त्म हो चुका था, चन्द्रावती से क्यों रखता। मैं तो अब जंगली पशु था।

“कभी-कभी मुझसे प्यार से भी बात कर लिया करो तांत्रिक।”

मैं चुप रहा।

“मैं तुम्हारे बिना किस तरह दिन काटती हूं तुम क्या जानो।”

“पागलपन की बातें मत कर – चल ज़रा टांगे दबा।”

वह एकदम बिखर पड़ी – “मैं तुम्हारी नौकरानी नहीं हूं जो...।”

“हरामजादी ! बक-बक मत कर... मेरे पास रहना है तो तुझे वही करना होगा जो मैं कहूंगा वरना मार-मार कर तेरी खाल उतार दूँगा।”

मैं आराम से लेट गया और टांगे पसार दी।

उसकी आँखों में आंसू छलक आये और चुपचाप मेरे पांव दबाने लगी, न जाने कौन सी बात थी जो वह कहना चाहकर नहीं कह पा रही थी। जब वह मेरे साथ थी तो उसे यह सब भोगना ही था, क्योंकि मुझे गंदे रास्ते पर ले जाने वाले पाप की भागीदार थी, ऐसी बातें उसे सोचनी चाहिए मुझे नहीं।

चन्द्रावती मेरे पैर दबाने लगी उसके नरम नरम हाथो के स्पर्श की वजह से मेरी कामाग्नि कामुक अंगड़ाइयाँ लेने लगी . मैने चन्द्रावती को अपने पहलू मे खींच लिया
***
 
मैंने चन्द्रावती की चिकनी कमर पर एक और किस किया और फिर मैंने चन्द्रावती की पूरी कमर पर किस करना शुरू कर दिया, और साथ-साथ में अपनी जीभ भी फेरता रहा।

चन्द्रावती को इतनी मस्ती छाने लगी थी की उससे जबर्दाश्त नहीं हुआ, तो बो पेट के बल बेड पर लेट गई। चन्द्रावती के गोल-गोल नितंब लाल पेटिकोट में इतनें सेक्सी लग रहें थे की मैंनें चन्द्रावती के पेटिकोट को खींचकर उसके आधे नितंबों तक कर दिया। अब चन्द्रावती के गोल-गोल गोरे नितंब मेरी आँखों के सामने थे, और मैं खुद को रोक नहीं पाया और मैंने चन्द्रावती के दोनों नितंबों पर हल्के-हल्के काटने शुरू कर दिए।

मेरे काटने से चन्द्रावती को बड़ी गुदगुदी हो रही थी, और वो अपने नितंबों को उछाल देती थी। मैंने चन्द्रावती के पेटिकोट को उतार दिया, और अपना लंगोट भी उतार दिया। फिर मैं चन्द्रावती के नितंबों की दरार में अपने लण्ड को सटाकर चन्द्रावती के ऊपर लेट गया। अब में चन्द्रावती की कमर और उसकी गर्दन पर चूम रहा था और नीचें मेरे लण्ड को चन्द्रावती के गदराए हए नितंबों से जो मजा मिल रहा था उसका तो कोई जबाब ही नहीं था।

मैंने फिर से चन्द्रावती की चूचियों को अपने हाथों में ले लिया और चन्द्रावती की दोनों चूचियों को अपने हाथ से दबाने लगा। कछ ही देर में मेरे लण्ड को चन्द्रावती के नितंबों ने इतना कडा बना दिया था की अब तो सिर्फ वो चन्द्रावती की चूत में जाने के लिए बेकरार हो उठा था। मैंने फिर चन्द्रावती का सीधा करके लिटा दिया और चन्द्रावती की दोनों जांघों का फैलाकर उसकी जांघों के बीच में बैठ गया।

फिर मैंने अपनी जीभ को चन्द्रावती की नाभि के चारों तरफ गोल-गोल करके घुमाया, और फिर धीरे-धीरे अपनी जीभ को चन्द्रावती की चूत के पास ले आया।

जैसे ही मेरी जीभ चन्द्रावती की चूत के पास गई, चन्द्रावती ने अपनी दोनों जांघों को आपस में मिलाने की कोशिश की। पर मैंने अपने हाथों से चन्द्रावती की दोनों
जांघों को फिर से फैला दिया और अपनी जीभ को चन्द्रावती की रसभरी चूत की फांकों पर रख दिया, और चन्द्रावती की चूत में घुसा दिया।

अब मैं चन्द्रावती की चूत से बहते हुए रस को अपनी जीभ से चाटने लगा। मेरी जीभ ने चन्द्रावती की चूत में इतनी हलचल मचा दी थी। अब तो चन्द्रावती का इतना बुरा हाल हो रहा था की वो बार-बार अपने नितंबों को उछालकर सिसकियां भरे जा रही थी।

चन्द्रावती ने मेरे लण्ड को अपने हाथ में कसकर पकड़ लिया और बोली- "आह्ह्ह्ह्ह. अब और नहीं बस करिए ना...

मेने चन्द्रावती की चूत से अपने मुँह को हटा लिया और अपना लण्ड चन्द्रावती के मुँह के पास कर दिया। जैसे ही मेरा लण्ड चन्द्रावती के मुँह के पास गया, चन्द्रावती ने मेरे लण्ड को अपने होंठों में भूखी बिल्ली की तरह दबा लिया और अपने मुँह में भरकर चूसने लगी। चन्द्रावती ने मेरे लण्ड को चूस-चूसकर पूरा गीला कर दिया था।

फिर मैंने अपना लण्ड चन्द्रावती के मुँह से बाहर खींच लिया और चन्द्रावती की जांघों के बीच में फिर से अपने लण्ड का सुपाड़ा चन्द्रावती की चूत पर सटा दिया। फिर हल्का सा जोर लगाते ही चन्द्रावती की चूत में मेरा लण्ड घुसता चला गया। जब मेरा पूरा लण्ड चन्द्रावती की चूत में चला गया तो मैंने अपने लण्ड को आधा बाहर निकालकर जोर से एक धक्का मारा तो मेरा लण्ड चन्द्रावती की चूत की पूरी गहराई तक चला गया।

इस धक्के से चन्द्रावती की मस्ती पूरे उफान पर आ गई, और चन्द्रावती ने अपने नितंबों को पूरी तरह से ऊपर उठाकर मेरे लंड को धन्यवाद बोला, और फिर तो मैंने अपने लण्ड को चन्द्रावती की चूत में अंदर-बाहर करना शुरू कर दिया। मेरे हर धक्के पर बस चन्द्रावती की सुख भरी सिसकियां निकलती थी।

चन्द्रावती के चेहरे पर जो स्माइल थी वो साफ जाहिर कर रही थी की चन्द्रावती को पूरा सुख मिल रहा है। और फिर लण्ड और चूत की लड़ाई में चूत ने फिर से बाजी मार ली और मेरे लण्ड को रोना आ गया। मैंने अपने लण्ड को चन्द्रावती की चूत की गहराईयों में लेजाकर चिपका दिया। चन्द्रावती और मैं एक दूसरे के होंठों से होठों को चिपकाए पड़े रहे।

कुछ देर तक ऐसे ही चन्द्रावती के ऊपर रहने के बाद में चन्द्रावती के ऊपर से हट गया और फिर में चन्द्रावती के साथ में ही लेट गया।

कुछ देर बाद मैं निंद्रा देवी की गोद में समा गया।

***
 
काफी दिन चढ़े मेरी आँख खुली। मैं उठ कर खुली हवा में टहलने निकल पड़ा। मनहूस दोपहरी छाने लगी थी। खाने के लिए मुझे किसी मुर्दा गोश्त की तलाश थी। मैं जानता था जंगल में यदा-कदा कोई न कोई जानवर मरता ही रहता है। इस प्रकार की कोई कठिनाई यहाँ नहीं थी। कुछ देर बाद मुझे एक बूढा बन्दर मरा हुआ मिल गया, उसे एक जंगली बिलाऊ खींच रहा था। मैंने बिलाऊ को खदेड़ दिया और खुद उस बन्दर को उठा लाया।

चन्द्रावती अपना खाना अलग पकाती थी, उस वक़्त वह एक वृक्ष की छाया में बैठी एक स्वेटर बना रही थी। मैं अपना मांस पकाने के लिए गुफा में चला गया।

एक घंटा बाद मैं बाहर निकला। वह अब भी चुप-चाप अपना काम कर रही थी।

“क्यों – कोई काम नहीं है क्या... कुछ लकडियाँ वगैरह चुन लाया कर...।”

“सूखी लकड़ियां बहुत पड़ी है।” वह निगाह उठाये बिना बोली।

“यह स्वेटर किसके लिये बुन रही है।”

“तुम्हें क्या लेना... तुम मेरा ध्यान ही कब रखते हो।”

मुझे याद आया मैंने रात उसे फटकारा था।

“इस ठाकुर के बच्चे से फुर्सत मिले तो तेरा ध्यान करूं... तू सूख क्यों रही है।”

उसने अपनी निगाह उठाई और स्वेटर बुनना बंद कर दिया।

“इस जगह रहकर मुझे डर लगता है। क्या तुम मुझे कहीं और नहीं ले चलोगे... तुम्हें तो मेरी हालत का जरा भी पता नहीं, तुम क्या जानो कि मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूं।”

“क्या...?”

“हाँ दूसरा महीना ख़त्म होने को है... दो-चार रोज में बस तीसरा चढ़ जाएगा।”

“ये क्या बक रही है तू ?”

“क्या तुम्हें ख़ुशी नहीं हुई ?”

“ख़ुशी... किस बात की ख़ुशी। तू मेरी बीवी तो है नहीं, जो मुझे ख़ुशी होगी। मुझे नहीं चाहिए ऐसी औलाद, फिर यह कोई जरूरी तो नहीं कि वह मेरी हो।”

“रोहताश।”

“क्यों... क्या तू बड़ी पतिव्रता है, देख मैं कोई दवा का इंतज़ाम करता हूँ, इसे गिराना होगा। क्या पता वह ठाकुर या किसी और का पाप हो। फिर दुनियां जानती है कि तू मुझसे नहीं मेरे बाप से ब्याही थी, तू विधवा है, तेरी औलाद तेरा सर्वनाश कर देगी।”

“हे भगवान्...।” वह सहमी आवाज में बोली –”तुझे मुझसे इतनी नफरत हो गई है, मुझ पर यकीन नहीं।”
 
“जो औरत की बात पर भरोसा करे, वो पागल।” मैंने ठहाका लगाया – “और तुझे औलाद का मोह नहीं रहना चाहिए जैसे तैसे अपना जीवन गुजार। यह बदनामी अपने साथ रखेगी तो तुझे कोई पानी को भी नहीं पूछेगा। खैर – अभी कुछ नहीं बिगड़ा – आज मैं बेताल से कह दूंगा – वह दवा ला देगा और तेरा पेट साफ़ हो जायेगा।”

“रोहताश! मैं ऐसा नहीं होने दूँगी।” वह चीख पड़ी – “बहुत हो चुका... त... तुझे यह औलाद स्वीकार करनी ही होगी... पहले ही मैं बहुत पाप कर चुकी हूं, यह मुझसे नहीं होगा।”

मैंने बाल पकड़ कर उसके गाल पर एक तमाचा जड़ दिया और वह रोती बिलखती गुफा में भाग गई। उसका आधा बुना स्वेटर उसी जगह रह गया। मैंने उसकी चिड़िया उड़ा दी। कुछ देर बाद ही मैंने देखा कि वह गुफा से पोटली उठाये निकल रही है, शायद कहीं जाने की तैयारी में है।

“कहाँ जा रही है तू...।” मैंने गरजकर पूछा।

“कहीं भी जाऊं... तुझे क्या लेना ?”

“इस जंगल को पार कर लेगी?”

“इस जिंदगी से बेहतर है कि रास्ते में कोई जंगली जानवर मुझे खा जाए – लेकिन मैं यहाँ नहीं रुकुंगी। अगर मुझे पहले मालुम होता कि तांत्रिक बनने के बाद तु ऐसा हो जायेगा तो मैं कभी तेरा साथ न देती – परन्तु इसमें दोष मेरा भी है – इसलिये अपने आपको भाग्य के सहारे छोड़कर जा रही हूं।”

मैं हंस पड़ा – खोखली हंसी।

“तो क्या तू इस प्रकार चली जायेगी। अब तो मैं वैसे भी खूनी हूं और तेरे अलावा कौन जानता है कि मैं कहाँ छिपा हूं। वैसे तुझ पर मेरा कोई दबाव नहीं, लेकिन तू तब तक यहीं रहेगी जब तक मेरा काम पूरा नहीं हो जाता। उसके बाद जहाँ चाहे चली जाना।”

“रोहताश – मुझ पर यह जुल्म क्यों?”

“कुछ दिन और सहना पड़ेगा।”

“लेकिन मैं एक ही शर्त पर यहाँ रह सकती हूं।”

“किस शर्त पर।”

“तु मुझे मां बनने से नहीं रोकेगा... चाहे वह किसी की भी औलाद हो... उसका भार तेरे ऊपर नहीं थोपूंगी।”

“यह बात है तो मुझे मंजूर है, तू शौक से बच्चा जन सकती है।”

वह वापिस लौट गई। मुझे पहली बार अहसास हुआ कि एक स्त्री को बच्चा जनने का कितना मोह होता है। मैं क्या जानता था की मां की ममता क्या चीज़ होती है।
 
रात हो चुकी थी।

वातावरण वैसा ही भयानक हो चुका था। जीव जंतु विश्राम के लिये जा चुके थे और बेतालों की रहस्मय शक्तियां जाग चुकी थी। रात के समय विशेषकर चांदनी रात में इनकी शक्ति कई गुना बढ़ जाती थी, बेताल को मैं अक्सर रात के समय ही याद करता था। मैं टहलता हुआ बाहर निकला।

आकाश पर सितारे चमक रहे थे। दरख्तों के काले साये रहस्मय आवरण ओढ़े भयंकर प्रतीत होते थे। हवा धीमी गति से बह रही थी। झाड-झंकारों में झींगुर सीटियां बजा रहे थे।

मैं सोचने लगा उन बाईस राक्षसों का क्या हुआ – क्या उन्हें कैद कर लिया गया? क्या भैरव तांत्रिक के हाथ से वह बड़ी शक्ति छिन गई? मैं यह भी जानना चाहता था की गढ़ी वालों पर क्या बीत रही है। वे लाशें गढ़ी वालों को प्राप्त हो गई या नहीं? अब तो बेताल बिना किसी हिचकिचाहट के वहां का वृतांत मुझे सुना सकता था।

मैंने बेताल को याद किया।

पर बेताल हाजिर नहीं हुआ।

मैं असमंजस में पड़ गया, इतनी देर क्यों... बेताल तो मेरा दास है, मैं जहाँ रहूँ वह एक पल में हाजिर हो जाता है। मैंने दूसरी बार याद किया। इस बार हलकी-सी प्रातक्रिया हुई। काफी दूर एक शोला सा चमका और बेताल की छाया नजर आई। मैंने सोचा वह पास आयेगा।

किन्तु वह उसी जगह खड़ा रहा।

“बेताल! तुम वहां क्या कर रहे हो, मेरे पास आओ।”

वह पास तो नहीं आया परन्तु उसकी आवाज मेरे कानों में पड़ी।

“अब हमारी दूरी बढ़ चुकी है – तुम्हें अपना वचन निभाना होगा, अगर ऐसा नहीं होता तो सवेरा होने तक मैं हमेशा के लिये ओझल हो जाऊं गा।”

“क्या मतलब... कौन सा वचन।”

“भूल गये तांत्रिक... मैं जानता हूं इंसान भुलक्कड़ होता है। वह अक्सर ऐसी गलतियों से मारा जाता है।”

“मैं समझा नहीं।”

“आज तेईसवीं रात है, मुझे दास बनाये तुम्हें तेईस दिन बीत चुके है।”

“मतलब?”

“तुमने वचन दिया था कि तेइसवीं रात तुम मुझे नरबलि दोगे, मैं इसी शर्त पर राजी हुआ था और अगर तुमने अब मेरी शर्त पूरी नहीं की तो तुम अपने अंजाम के जिम्मेदार खुद होगे।”

मुझे एकाएक वचन याद आ गया। इस बारे में तो मैं पूरी तरह भुला बैठा था। अगर मुझे याद रहता तो आज की रात बलि का प्रबंध कर देता, पर अभी कुछ नहीं बिगड़ा था। यहाँ से बारह मील दूर एक आदिवासी गाँव था, वहां जाकर मैं किसी का भी हरण कर सकता था।

“बेताल! अच्छा हुआ तुमने मुझे याद दिला दिया, लेकिन तुमने दो रोज पहले याद दिला दिया होता तो मैं शमशेर की ही यहाँ बलि चढ़ाता।”

“याद दिलाना मेरा काम नहीं।”

“खैर अब भी क्या बिगड़ा है – मुझे तुम्हारी सवारी चाहिए। अभी तो पूरी रात बाकी है, सवेरे से पहले मैं बलि दे दूंगा – बस आदिवासी गाँव तक जाने भर की देर है।”

“मुझे अफ़सोस है कि अब मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता और इस काम में तो कभी नहीं। यह तो तुम्हें खुद करना है, वरना वचन भंग समझा जायेगा। मैं जा रहा हूं। बलि देते समय मुझे याद कर लेना।”

मैं एकदम सन्नाटे में आ गया।
 
बेताल की मदद बिना सुबह तक यह काम किसी सूरत में नहीं हो सकता था। अगर इस जंगल के खौफनाक रास्ते पर मैं बारह मील की दौड़ भी लगाता तो भी सुबह तक नहीं पहुच सकता था। छोटी-मोटी पहाड़ियों का मार्ग पार कर पाना क्या सम्भव था। और सबसे बड़ा जोखिम तो यहां का मार्ग था। बेताल की सहायता के बिना मैं साधारण मनुष्य रहूँगा तब तो भाग्यशाली ही जीते जी इस भयानक जंगल को पार कर सकता था, ऊपर से किसी का अपहरण करने का कार्य।

मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी गर्दन तलवार की धार पर रखी है।

अगर बलि नहीं दे पाया तो बेताल रुष्ट हो जाएगा – फिर बदला लेना तो अलग बात, जीना भी दूभर हो जायेगा। यहाँ से जीवित निकल ही नहीं सकता था।

पहली बार मुझे ध्यान आया की यह खेल सचमुच खतरनाक है। बेताल वचन भंग करने वाले को क्षमा नहीं करता वह भी पहली बार, उसने तेईस दिन मेरी सेवा की है, अब एक रात मुझे उसकी सेवा करनी है, अन्यथा जीवन समाप्त।

बेताल जा चुका था।अब चारों तरफ वृक्षों के अँधेरे साये खड़े मेरा मजाक उड़ा रहे थे। समझ में नहीं आया क्या करूँ... बैचैनी से टहलता रहा... पांव पटकता रहा। सहसा एक ध्यान आया और मैं गुफा की तरफ चल पड़ा।

गुफा का दीपक बुझा हुआ था। मैं उसे जलता छोड़ आया था, मेरी समझ में नहीं आया कि चन्द्रावती ने उसे क्यों बुझाया।

“चन्द्रावती।” मैंने आवाज दी।

गुफा में मेरी आवाज गूंजकर लौट आई।

“चन्द्रावती...।” मैंने क्रोधित स्वर में पुकारा परन्तु इस बार भी कोई जवाब नहीं मिला। मैं क्रोध से पांव पटकता आगे बढ़ा – आखिर अभी से इतनी गहरी नींद की क्या तुक। मैंने टटोल कर दीपक जलाया।

गुफा का अन्धकार पीली मुर्दा रोशनी से छट गया। घूमकर मैंने चन्द्रावती के बिस्तर की तरफ देखा। वह कम्बल में लिपटी हुई थी।

“उसे मेरा जरा भी ख्याल नहीं – मैं किस मुसीबत से गुजर रहा हूं।” मेरे मन में ख्याल आया और मैंने लपक कर कम्बल खींच लिया। लेकिन... यह क्या... वहां चन्द्रावती नहीं थी, बल्कि पत्थर और कपड़े पड़े हुए थे।

मैं एकदम चौंक पड़ा। मैंने चारो तरफ देखा, चन्द्रावती गुफा में कहीं नहीं थी। मेरे मस्तिष्क में बिजली सी कौंध गई। चन्द्रा भाग गई है। मैं दौड़कर गुफा से बाहर निकला।

कहाँ गई ?

चारो तरफ सन्नाटा।
 
मैं तेजी के साथ पहाड़ी टीकरे पर चढ़ गया, अब बेताल भी मेरा सहायक नहीं रहा था, इस वक़्त मेरे दिमाग में एक ही बात गूँज रही थी, सिर्फ चन्द्रावती ही मेरी समस्या का हल कर सकती थी और इसी इरादे पर मैं गुफा के भीतर आया था।

हालांकि यह सोचना भयानक पाप था। चाहे जो भी हो वह औरत मेरी सहयोगिनी रही थी, और हमने ठाकुर खानदान से सामूहिक रूप से बदला लेने का प्रण किया था, परन्तु इस वक़्त मैं अँधा हो गया था, मुझे अपनी जान की फ़िक्र थी।

बेताल मुझे माफ़ नहीं करेगा।

बेताल मुझे ज़िंदा नहीं छोड़ेगा।
और उसने मुझे क्षमा भी कर दिया तो ठाकुर मुझे कुचल देगा। मैं अपने बाप की तरह मर जाऊंगा और मुझे कोई पूछने वाला भी नहीं होगा। क्या इस भयानक खतरे में कूदकर मैंने अच्छा किया था।

और शायद चन्द्रावती को इसका आभास हो गया था कि आज रात मुझे हर हालत में बलि चढ़ानी होगी, तब जब यहाँ इंसान प्राप्त करने की कोई सूरत नहीं मेरे पास एक ही चारा रह जायेगा। यह तो वह जान ही चुकी है कि मैं अब इंसान नहीं रहा, पशु हो गया हूं।

मेरे सामने अपने सहयोगी का भी कोई मूल्य नहीं।

बात सच थी – और मैं इस सच को खून से लिखने जा रहा था, इसीलिये मैं उसकी तलाश में इतना बावला हो गया था। मैं इधर-उधर चट्टानों पर दौड़ता रहा। आखिर मैं उस रस्ते पर चला जो जंगल से बाहर निकलने का मार्ग था।

आकाश पर चन्द्रमा उदय हो गया था... पूरा चाँद... उसके उजाले में दूर-दूर तक का दृश्य नजर आने लगा था। काफी देर बाद मैंने एक छाया को भागते देखा, कुछ पल के लिये वह स्वेत छाया नजर आई थी, फिर वृक्षों के झुरमुट में ओझल हो गई थी।

मैं पागलों के सामान उसी तरफ भाग खड़ा हुआ।

कुछ देर बाद ही वह मेरी निगाहों में आ गई। वह अब बेतहाशा भागने लगी थी, दो बार उसने मुड़कर भी देखा। मैं समझ गया कि उसे पीछा कि ये जाने का आभास हो गया है, मैंने रफ़्तार बढ़ा दी। झाड़ियों, झुरमुटों में आँख मिचौली चलती रही, फिर वह अचानक ओझल हो गई।

मैं रुक गया।

यहाँ हवा तेज़-तेज़ बह रही थी। वह कहीं भी नजर नहीं आ रही थी, मैं समझ गया कि वह कहीं छिप गई है, परन्तु कहाँ। मैं चारो तरफ निगाह दौडाने लगा, सहसा आहट मिली ठीक पीठ पीछे – और यदि मैं जरा भी विलम्ब करता तो एक चमकता खन्जर मेरे सीने के पार हो गया होता, परन्तु कोई चमकीली वस्तु देखते ही मैं फ़ौरन झुक गया था।

वह चन्द्रावती ही थी, जिसके हाथ में खन्जर चमक रहा था।

मैंने उसकी कलाई दबोच ली और दूसरे हाथ से बाल पकड़ कर उसे पटक दिया। वह बिफरी शेरनी की तरह हांफती हुई मुझसे लड़ने लगी, परन्तु मेरी शक्ति के आगे उसकी एक न चली और शीघ्र ही वह असहाय हो गई। मैंने खन्जर संभाल कर रखा और उसे लाद लिया। इसी स्थिति में धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया। उसके वस्त्र तार-तार हो चुके थे, पर अब उसकी परवाह किसे थी।

जब मैं उसे गुफा के सामने लाया तो काफी रात बीत चुकी थी।
 
चांदनी धुंधली पड़ती जा रही थी और वातावरण सहमा-सहमा सा लग रहा था। मैंने उसे एक जगह लिटा दिया। उसने उठना चाहा पर मैंने उसके हाथ पांव बाँध दिये।

वह गिड़गिड़ाने लगी।

“मुझे छोड़ दो... मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है...।”

मैंने जवाब नहीं दिया।

“यह पाप न करो... मैं गर्भवती हूं... मैं तुम्हारे बच्चे की मां हूं... तुम सारी जिंदगी पछताओगे।”

मैंने उसके गाल पर एक तमाचा जड़ दिया।

फिर मैंने उसे घसीट कर एक जगह लिटा दिया। उसका सिर एक पत्थर पर रख दिया और पत्थर के सामने मुर्दा खोपड़ी।

अब समय गवाना उचित न था।

मैं अपने आपको तूफ़ान में घिरा महसूस कर रहा था। मैं उससे जल्द बाहर निकल जाना चाहता था। मैंने खन्जर की धार तेज़ की। काफी दूर मुझे बेताल का धुंधला साया नजर आया।

“मैं तुझे बलि दे रहा हूं बेताल। मैं अपना वचन पूरा कर रहा हूं।”

बेताल आगे बढ़ता हुआ मेरे पास आ गया और खोपड़ी के सामने झुक कर बैठ गया।

“मैं बलि स्वीकार करता हूं।” उसका स्वर मेरे कान में पड़ा।

“नहीं...नहीं...।” वह चीख पड़ी और बुरी तरह सर पटकने लगी –”मुझे मत मारो... मुझे...।”

मुझ पर उसकी भयाक्रांत चीखों का कोई असर नहीं पड़ा। मैंने नरबलि मंत्र पढना शुरू किया और एक हाथ से उसके बाल पकड़ लिये... फिर खन्जर वाला हाथ ऊपर उठाया...और...।

उसकी आखिरी चीख कलेजे को दहला देने वाली थी।

खून की धारा उठी और बेताल के मुँह पर गिरने लगी। उसने अपना जबड़ा आसमान की तरफ खोल दिया। मुझे ऐसा लगा जैसे सारा चाँद उसके मुह में रोशन हो रहा हो। वह बड़ा भयानक लग रहा था। उसके नेत्र अंगारों के सामान दहक रहे थे।

मैंने चन्द्रावती की बलि चढ़ा दी।

फिर मुझे धुंध ही धुंध नजर आई। मैं लड़खड़ाते हुए उठ खड़ा हुआ। मुझे ऐसा लगा जैसे वह चीखें अब भी फिजा में गूँज रही हैं और उसके साथ ही किसी बच्चे के रोने की आवाज।

पहली बार मुझे भय महसूस हुआ और मैं गुफा की तरफ दौड़ पड़ा। मैं पूरी तरह पसीने से नहाया हुआ था।
 
जो कुछ मेरे साथ बीत रहा था, वह एक भयानक स्वप्न जैसा था कुछ ही अरसा पहले मैं एक डाक्टर था... रहमदिल डाक्टर ! और अब मैं शैतान बन चुका था। मैं कभी-कभी महसूस करता था कि मुझसे घृणित प्राणी सारे संसार में नहीं। यह अनुभव चन्द्रावती की बलि चढाने के बाद हुआ... और हर रात उसकी चीखें मेरा पीछा करती थी। कभी-कभी मुझे लगता जैसे उसकी भटकती आत्मा मेरे प्राण लेकर ही छोड़ेगी। मैंने जल्दी पलायन की तैयारी कर ली। उस जगह मुझे अपना दम घुटता प्रतीत होता था।

मैं सूरजगढ़ के लिये रवाना हो गया।

वहां पहुँचते ही मुझे खबर मिली की विक्रमगंज की पुलिस बड़ी तत्परता से शमशेर हत्याकांड की जांच कर रही है और कमलाबाई पुलिस की हिरासत में है। मैंने देर करनी उचित नहीं समझा। इससे पहले कि गढ़ी वाले सुरक्षा का कोई उपाय सोच पाये, मैं वहां धावा बोल देना चाहता था।

आधी रात के वक़्त मैंने बेताल को पुकारा।

बेताल हाजिर हो गया।

“विनाश की घडी आ गई है।” मैंने कहा – “हमें गढ़ी पर धावा बोलना है – क्या तुम तैयार हो।”

“मैं तैयार हूं आका।”

“तो चलो। मैं चाहता हूं कि गढ़ी में एक के बाद एक मरता चला जाए, मैं उसे कब्रिस्तान बना देना चाहता हूं।”

“चलिये आका।”

गढ़ी के पार्श्व भाग में चारदीवारी के पास पहुँच कर मैंने कहा – “बेताल भीतर जाने का क्या उपाय है ?”

“आप मेरे ऊपर सवार हो जाइये... मैं आप को चारदीवारी के पास ले चलता हूं, या आप हुक्म दें तो मैं दीवार तोड़ देता हूं।

दीवार तोड़ने की आवश्यकता नहीं, मुझे भीतर ले चलो।”

मैं बेताल के कन्धों पर सवार हुआ फिर पलक झपकते ही मैंने खुद को भीतर पाया। अँधेरे साये गहरा काला रंग धारण धारण किये थे। गढ़ी का पहरा बढ़ा दिया गया था। दो आदमी टार्च जलाए गश्त लगा रहे थे, पर मैं वहां नहीं रूका.... बेताल की मदद से मैं गढ़ी के एक बुर्ज पर चढ़ गया। बुर्ज पर भी एक आदमी छिपा था। आहट पाते ही वह चौंका पर बेताल ने उसे सम्भलने का मौक़ा नहीं दिया , उसके कंठ से चीख भी न निकल सकी और वह हवा में लहराता हुआ नीचे जा गिरा।

मैदान साफ़ था, मैं सीढियों के द्वार पर पहुंचा फिर तेज़ी के साथ सीढियाँ उतरने लगा। कई बुर्जियों को पार करता हुआ मैं चक्करदार सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था, रास्ता अन्धकार में डूबा था। मुझे उजाले की कतई आवश्यकता नहीं थी।
 
अंत में मैं दीवानखाने में रूका। यहाँ धीमा प्रकाश फैला था– और दो बोतलें फर्श पर लुढ़की पड़ी थी।

मैं एक दरवाजे की तरफ बढ़ गया। यह लम्बे गलियारे का द्वार था। अभी मैं द्वार पर पहुंचा ही था की एक जोरदार गर्जना सुनाई पड़ी।

“वहीँ रुक जाओ...।”

मैं रुक गया, पलक झपकते ही एक आदमी खम्बे की आड़ से निकला और उसने बन्दूक की नाल मेरे सीने पर टिका दी। पल बीता – बेताल को मेरा संकेत मिला और उस व्यक्ति की बन्दूक हवा में झूलती नजर आई। वह एकदम बौखलाकर मुझपर झपटा – समय गंवाये बिना मैंने खन्जर उसके पेट में घोंप दिया और वह कराहता हुआ फर्श पर गिर पड़ा।
…………………………
अब मैं दरवाजे के भीतर समा गया। मैं एक-एक कमरा झाँक रहा था। एक कमरे के सामने मैं ठिठक गया। उस कमरे में धीमा प्रकाश था और एक पलंग पर कोई स्त्री बेसुध सो रही थी। यह स्त्री अत्यंत सुन्दर और जवान थी, मैं बहुत दिनों से प्यासा था, निश्चय ही यह ठाकुर की सबसे छोटी बीवी थी। मैं निर्भयता के साथ कमरे में दाखिल हो गया और दरवाजा भीतर से बंद कर लिया।

अब मैं उसके सौन्दर्य को निहारने लगा।

ठाकुर को सबक सिखाने का अच्छा मौक़ा था। दरअसल मैं ठाकुर को एकदम नहीं मारना चाहता था। मैं उसे इतना आतंकित करना चाहता था की उसे कहीं भी चैन न मिले।

उस शानदार शयनकक्ष में मैं दबे कदम आगे बढ़ने लगा। उसकी निद्रा में कोई अंतर नहीं आया था। मैं ठीक सिरहाने पर जा पहुंचा और अपने होठ फैलाकर उसके गुलाबी चेहरे पर झुक गया। जैसे ही मेरे होठों ने उसे स्पर्श किया वह एकदम जाग गई और मुझे देखते ही उसके नेत्र भय से फ़ैल गये, उसने चीखना चाहा, पर वह ऐसा न कर सकी। मेरा मजबूत पंजा उसके मुँह पर जा पड़ा।
 
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