hotaks444
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"पहले पहले तुम्हारी बहन की बातों से और उसके चले जाने के बाद तुम्हारे बर्ताव से मुझे लगा था तुम दोनो में बहुत ज़्यादा प्यार है. एक भाई बहन के प्यार की एसी गहराई वो भी आजकल के ज़माने मे देखकर मैं हैरान रह गयी थी. मुझे कुछ शक तो पहले से ही था मगर कल जो तुमने किया उससे मेरा शक यकीन में बदल गया"
"को शक? कैसा शक? दुनिया का कोई भी भाई जिसे अपनी बहन से प्यार है, जिसे अपनी बहन की इज़्ज़त का ख़याल है, अपनी बहन के लिए कोई भी हद पार कर सकता है " मैने थोड़ा लापरवाही दिखाते हुए कहा जबकि मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा था.
"कर सकता है. ज़रूर कर सकता है"
हालाँकि मैं उसकी ओर नही देख रहा था मगर उसकी चाकू की धार जैसी नज़र को मैं खुद के आर पार होता ज़रूर महसूस कर रहा था. "मगर एक भाई के तरीके और एक प्रेमी के तरीके में बहुत फरक होता है. जो दीवानगी कल मैने तुम्हारी आँखो में देखी थी, जो जनुन तुम्हारे सर चढ़ कर बोल रहा था वो एक भाई का हरगिज़ नही था, वो तो अपनी प्रेयसी के लिए पागल किसी प्रेमी..........."
"आपको कोई बहुत बड़ी ग़लतफहमी हो गयी है. ऐसा वैसा कुछ भी नही है जैसा आप सोच रही हैं" मैं उसकी बात को बीच में काटते हुए बोला और एकदम से उठ खड़ा हुआ. मैं वहाँ से हटने ही वाला था कि उसके हाथ ने मेरा हाथ जाकड़ लिया.
"मैं ग़लत हूँ तो इतना घबरा क्यों रहे हो? ऐसे भाग क्यों रहे हो? मैं कोई इल्ज़ाम नही लगा रही तुम्हारे उपर. कम से कम मेरी बात तो सुन लो. बैठो". वो मेरा हाथ खींचते हुए बोली
मैं ना चाहते हुए भी फिर से बैठ गया. मेरे बैठने के बाद भी उसने मेरा हाथ नही छोड़ा था.
इस बार जब वो बोली तो उसकी नज़र मेरी ओर नही थी. वो सामने देख रही थी. उसकी नज़र सामने खेतों की ओर थी मगर वो खेतों को नही किसी और अग्यात स्थान की ओर देख रही थी.
"मेरा भी एक भाई था. बहुत सुंदर, तुम्हारी तरह उँचा लंबा जवान. जैसे तुम अपनी बहन को प्यार.करते हो.उसका ख़याल.रखते हो उसकी हिफ़ाज़त के लिएकिसी भी हद तक .जा सकते हो वैसे ही वो..वो भी मुझे .मुझे ऐसे ही प्यार करता था.हमेशा मेरा ख़याल रखता था" उसकी आवाज़ भारी हो गयी थी, जैसे उसका गला भर आया था. मैने चेहरा उठाकर उसकी और देखा तो उसकी आँखे नम हो गयी थी, बोलते बोलते उसके होंठ कांप रहे थे. वो एक दो पल के रुकी जैसे खुद को संभालने की कोशिश कर रही थी.
"और फिर मेरे पिताजी ने मेरी शादी तय करदी. हमारे पिताजी का नाम हमारा खानदान इतना उँचा था कि मुझे और भाई को.. " मेरा हाथ अभी भी उसके हाथों में था और मैं उसके हाथों का कंपन महसूस कर रहा था. वो अभी भी सामने की ओर देख रही थी. "मेरी शादी के बाद भाई ने खुद को शराब में डुबो लिया. परिवार वालों ने बहुत कोशिस की, मगर वो नही माना, उन्हे तो मालूम ही नही था उसको क्या गम है. शराब उसकी लत नही उसके जीने का सहारा बन गयी. और फिर वो और फिर.वो एक दिन सदा सदा के .......".लिए वो वाक्य पूरा ना कर सकी. उसका चेहरा झुक गया. उसका पूरा जिस्म कांप रहा था. उसकी आँखो से आँसू निकल उसके गालों पर लुढ़क रहे थे. मैं हतप्रभ रह गया. मुझे कुछ समझ नही आया मैं क्या करूँ.
वो एकदम से उठ खड़ी हुई और अपनी चुनरी से चेहरा पोंछते जाने लगी. मैं उठ खड़ा हुआ. कोई दस एक कदम जाने के बाद वो ठिठक गयी और फिर वापस मेरी ओर घूमी "बहन की चिंता मत करना. उसकी ज़िम्मेदारी मेरी है. मैं उसका पूरा ख़याल रखूँगी" इतना बोल वो मुड़ने ही वाली थी कि फिर रुक गयी "बहन को कोई संदेशा देना है तो बोलो, मैं पहुँचा दूँगी"
संदेशे का नाम सुनकर मुझे चिट्ठी का याद आया जो अभी भी मेरी जेब में थी. मैं चिट्ठी निकाल कर उसके पास गया. उसकी आँखे अभी भी आँसुओं से तर थीं. उसके हंसते मुस्कराते चेहरे के पीछे कितनी वेदना कितनी पीड़ा छिपी हुई थी, इस बात का अहसास होते ही मैं कांप उठा. मैने खत उसको पकड़ाया तो हमारी नज़रें मिली. उसकी आँखो से झाँकती वो अंतहीन उदासी देख मेरा दिल धक से रह गया. उसने खत ले लिया और पीड़ा से विकृत चेहरे से मुस्कराने की कोशिस की मगर वो सफल ना हो सकी और वो मूड कर जाने लगी. मैं उसे कुछ कहना चाहता था. कुछ ऐसा जिससे उसका दुख उसकी वेदना कम हो सके, कुछ ऐसा जो उसके नासूर बन चुके ज़ख़्मो पर मलम का काम करता. मगर मुझे कुछ नही सूझा मैं उसे क्या बोलूं, मेरी कुछ समझ में ना आया और वो चलती चलती मुझसे दूर होती चली गयी. मैं बट बना वहीं खड़ा रहा, तब भी जब उसका साया मेरी नज़रों से ओझल हो गया.
वापस शेड की ओर जाते हुए जैसे मैं, मैं नही था. मुझे लगता था बहन से बिछड़ कर जो दुख जो तकलीफ़ मैने झेली है वो किसी ने ना झेली होगी. आज मालूम चला था दुख की असली परिभाषा का. मुझे तो उम्मीद थी कि मैं बहन को ढूँढ लूँगा, मेरी बहन मुझे मिल जाएगी और ज़िंदगी फिर से खुशहाल हो जाएगी मगर देविका? उसे तो ना कोई उम्मीद है ना कोई सहारा. उसे तो ज़िंदगी की आख़िरी साँस तक इस पीड़ा को झेलना होगा, जिंदगी की आख़िरी साँस तक. इसे उपरवाले की निर्दयता कहूँ या अभागी देविका की बदक़िस्मती मगर इतने बड़े संसार में किसे खबर थी, किसे परवाह थी उस निरीह जीव की जिसे ज़िंदगी के उस अनंत सफ़र में आख़िरी पड़ाव तक उस वेदना को झेलना था, उस पीड़ा को बर्दाश्त करना था जिसे मैं कुछ दिन भी भी बर्दाश्त नही कर पाया था और अपनी जान देने पर उतारू हो गया था. ऐसा अंत हुआ था उस जवानी, उत्साह से उमागाते, शानदार प्रेम का!
ओह जवानी! जवानी! तुम किसी भी चीज़ की परवाह नही करती, तुम तो मानो संसार की सभी निधियों की स्वामिनी हो. तुम्हे तो उदासी में भी खुशी मिलती है, दुख भी अच्छा लगता है, तुममे आत्मविश्वास है, अकड़ है अहंकार है. तुम हर पल यही कहती लगती हो----देखिए, मैं अकेली ही जिंदा हूँ, जबके वास्तव में तुम्हारे दिन जल्दी जल्दी बिताते जाते हैं. गिनती और चिन्हो के सिवा तुम्हारे भीतर और जो कुछ भी है वो उसी तरह लुप्त हो जाता है जैसे धूप में बर्फ शायद तुम्हारा सौन्दर्य सब कुछ कर पाने की संभावना में नही बल्कि यह सोचने में निहित है कि तुम सब कुछ कर लोगि, कि तुम उन्ही शक्तियों को नष्ट कर रही हो जिनका कोई उपयोग नही कर सकती, कि हम में से हर कोई अपनी शक्ति का अप्व्यय करता है..कि हममें से हर किसी को यह कहने का उचित अधिकार प्राप्त है : अगर मैने अपना समय व्यर्थ नष्ट ना किया होता तो मैं क्या कुछ ना कर डालता"
उसदिन शाम को जब मैं खेतों से घर पहुँचा तो बुरी तरह से थक चुका था. बदन का पोर पोर दुख रहा था. घर में घुसते ही मैने माँ को रसोई मे खाना बनाते देखा. माँ ने आवाज़ सुनकर मेरी ओर देखा, उसके चेहरे की मुस्कान ही बता रही थी कि उसे सहर से अच्छी खबर मिली थी, मैं उससे पूछना चाहता था, बहुत सारे सवाल थे मगर मुझे माँ से बहुत झीजक महसूस हो रही थी. 'बाद मैं बात करता हूँ' सोचकर मैं वहाँ नहाने चला गया. नहा कर कमरे में कपड़े पहन ही रहा था कि माँ खाना लेकर आ गयी, होंठो पर वोही मुस्कान चिपकी हुई थी माँ के.
मैं माँ से नज़रें चुराता बेड पर बैठकर खाना खाने लगा. समझ नही आ रहा था कि माँ से कैसे पूछूँ और माँ थी कि मेरी हालत से खूब मज़ा ले रही थी जैसे उसे मुझे सताने में कोई विशेष आनंद आ रहा था. मैने खाना खाया तो माँ ने बर्तन उठाए और फिर कुछ पलों बाद दूध ले आई. मैं ग्लास पकड़ नज़रें झुकाए बेड पर अधलेटा सा दूध पीने लगा. माँ मेरे पास बैठ गयी. कुछ पल वो यूँ ही चुप रही.
"उसके लिए इतने परेशान थे, अब पुछोगे भी नही वो कैसी है?" माँ ने मुझे छेड़ते हुए कहा.
मैने माँ की ओर देखा और फिर नज़रें झुक गयी. मुझसे कुछ बोला ना गया.
"को शक? कैसा शक? दुनिया का कोई भी भाई जिसे अपनी बहन से प्यार है, जिसे अपनी बहन की इज़्ज़त का ख़याल है, अपनी बहन के लिए कोई भी हद पार कर सकता है " मैने थोड़ा लापरवाही दिखाते हुए कहा जबकि मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा था.
"कर सकता है. ज़रूर कर सकता है"
हालाँकि मैं उसकी ओर नही देख रहा था मगर उसकी चाकू की धार जैसी नज़र को मैं खुद के आर पार होता ज़रूर महसूस कर रहा था. "मगर एक भाई के तरीके और एक प्रेमी के तरीके में बहुत फरक होता है. जो दीवानगी कल मैने तुम्हारी आँखो में देखी थी, जो जनुन तुम्हारे सर चढ़ कर बोल रहा था वो एक भाई का हरगिज़ नही था, वो तो अपनी प्रेयसी के लिए पागल किसी प्रेमी..........."
"आपको कोई बहुत बड़ी ग़लतफहमी हो गयी है. ऐसा वैसा कुछ भी नही है जैसा आप सोच रही हैं" मैं उसकी बात को बीच में काटते हुए बोला और एकदम से उठ खड़ा हुआ. मैं वहाँ से हटने ही वाला था कि उसके हाथ ने मेरा हाथ जाकड़ लिया.
"मैं ग़लत हूँ तो इतना घबरा क्यों रहे हो? ऐसे भाग क्यों रहे हो? मैं कोई इल्ज़ाम नही लगा रही तुम्हारे उपर. कम से कम मेरी बात तो सुन लो. बैठो". वो मेरा हाथ खींचते हुए बोली
मैं ना चाहते हुए भी फिर से बैठ गया. मेरे बैठने के बाद भी उसने मेरा हाथ नही छोड़ा था.
इस बार जब वो बोली तो उसकी नज़र मेरी ओर नही थी. वो सामने देख रही थी. उसकी नज़र सामने खेतों की ओर थी मगर वो खेतों को नही किसी और अग्यात स्थान की ओर देख रही थी.
"मेरा भी एक भाई था. बहुत सुंदर, तुम्हारी तरह उँचा लंबा जवान. जैसे तुम अपनी बहन को प्यार.करते हो.उसका ख़याल.रखते हो उसकी हिफ़ाज़त के लिएकिसी भी हद तक .जा सकते हो वैसे ही वो..वो भी मुझे .मुझे ऐसे ही प्यार करता था.हमेशा मेरा ख़याल रखता था" उसकी आवाज़ भारी हो गयी थी, जैसे उसका गला भर आया था. मैने चेहरा उठाकर उसकी और देखा तो उसकी आँखे नम हो गयी थी, बोलते बोलते उसके होंठ कांप रहे थे. वो एक दो पल के रुकी जैसे खुद को संभालने की कोशिश कर रही थी.
"और फिर मेरे पिताजी ने मेरी शादी तय करदी. हमारे पिताजी का नाम हमारा खानदान इतना उँचा था कि मुझे और भाई को.. " मेरा हाथ अभी भी उसके हाथों में था और मैं उसके हाथों का कंपन महसूस कर रहा था. वो अभी भी सामने की ओर देख रही थी. "मेरी शादी के बाद भाई ने खुद को शराब में डुबो लिया. परिवार वालों ने बहुत कोशिस की, मगर वो नही माना, उन्हे तो मालूम ही नही था उसको क्या गम है. शराब उसकी लत नही उसके जीने का सहारा बन गयी. और फिर वो और फिर.वो एक दिन सदा सदा के .......".लिए वो वाक्य पूरा ना कर सकी. उसका चेहरा झुक गया. उसका पूरा जिस्म कांप रहा था. उसकी आँखो से आँसू निकल उसके गालों पर लुढ़क रहे थे. मैं हतप्रभ रह गया. मुझे कुछ समझ नही आया मैं क्या करूँ.
वो एकदम से उठ खड़ी हुई और अपनी चुनरी से चेहरा पोंछते जाने लगी. मैं उठ खड़ा हुआ. कोई दस एक कदम जाने के बाद वो ठिठक गयी और फिर वापस मेरी ओर घूमी "बहन की चिंता मत करना. उसकी ज़िम्मेदारी मेरी है. मैं उसका पूरा ख़याल रखूँगी" इतना बोल वो मुड़ने ही वाली थी कि फिर रुक गयी "बहन को कोई संदेशा देना है तो बोलो, मैं पहुँचा दूँगी"
संदेशे का नाम सुनकर मुझे चिट्ठी का याद आया जो अभी भी मेरी जेब में थी. मैं चिट्ठी निकाल कर उसके पास गया. उसकी आँखे अभी भी आँसुओं से तर थीं. उसके हंसते मुस्कराते चेहरे के पीछे कितनी वेदना कितनी पीड़ा छिपी हुई थी, इस बात का अहसास होते ही मैं कांप उठा. मैने खत उसको पकड़ाया तो हमारी नज़रें मिली. उसकी आँखो से झाँकती वो अंतहीन उदासी देख मेरा दिल धक से रह गया. उसने खत ले लिया और पीड़ा से विकृत चेहरे से मुस्कराने की कोशिस की मगर वो सफल ना हो सकी और वो मूड कर जाने लगी. मैं उसे कुछ कहना चाहता था. कुछ ऐसा जिससे उसका दुख उसकी वेदना कम हो सके, कुछ ऐसा जो उसके नासूर बन चुके ज़ख़्मो पर मलम का काम करता. मगर मुझे कुछ नही सूझा मैं उसे क्या बोलूं, मेरी कुछ समझ में ना आया और वो चलती चलती मुझसे दूर होती चली गयी. मैं बट बना वहीं खड़ा रहा, तब भी जब उसका साया मेरी नज़रों से ओझल हो गया.
वापस शेड की ओर जाते हुए जैसे मैं, मैं नही था. मुझे लगता था बहन से बिछड़ कर जो दुख जो तकलीफ़ मैने झेली है वो किसी ने ना झेली होगी. आज मालूम चला था दुख की असली परिभाषा का. मुझे तो उम्मीद थी कि मैं बहन को ढूँढ लूँगा, मेरी बहन मुझे मिल जाएगी और ज़िंदगी फिर से खुशहाल हो जाएगी मगर देविका? उसे तो ना कोई उम्मीद है ना कोई सहारा. उसे तो ज़िंदगी की आख़िरी साँस तक इस पीड़ा को झेलना होगा, जिंदगी की आख़िरी साँस तक. इसे उपरवाले की निर्दयता कहूँ या अभागी देविका की बदक़िस्मती मगर इतने बड़े संसार में किसे खबर थी, किसे परवाह थी उस निरीह जीव की जिसे ज़िंदगी के उस अनंत सफ़र में आख़िरी पड़ाव तक उस वेदना को झेलना था, उस पीड़ा को बर्दाश्त करना था जिसे मैं कुछ दिन भी भी बर्दाश्त नही कर पाया था और अपनी जान देने पर उतारू हो गया था. ऐसा अंत हुआ था उस जवानी, उत्साह से उमागाते, शानदार प्रेम का!
ओह जवानी! जवानी! तुम किसी भी चीज़ की परवाह नही करती, तुम तो मानो संसार की सभी निधियों की स्वामिनी हो. तुम्हे तो उदासी में भी खुशी मिलती है, दुख भी अच्छा लगता है, तुममे आत्मविश्वास है, अकड़ है अहंकार है. तुम हर पल यही कहती लगती हो----देखिए, मैं अकेली ही जिंदा हूँ, जबके वास्तव में तुम्हारे दिन जल्दी जल्दी बिताते जाते हैं. गिनती और चिन्हो के सिवा तुम्हारे भीतर और जो कुछ भी है वो उसी तरह लुप्त हो जाता है जैसे धूप में बर्फ शायद तुम्हारा सौन्दर्य सब कुछ कर पाने की संभावना में नही बल्कि यह सोचने में निहित है कि तुम सब कुछ कर लोगि, कि तुम उन्ही शक्तियों को नष्ट कर रही हो जिनका कोई उपयोग नही कर सकती, कि हम में से हर कोई अपनी शक्ति का अप्व्यय करता है..कि हममें से हर किसी को यह कहने का उचित अधिकार प्राप्त है : अगर मैने अपना समय व्यर्थ नष्ट ना किया होता तो मैं क्या कुछ ना कर डालता"
उसदिन शाम को जब मैं खेतों से घर पहुँचा तो बुरी तरह से थक चुका था. बदन का पोर पोर दुख रहा था. घर में घुसते ही मैने माँ को रसोई मे खाना बनाते देखा. माँ ने आवाज़ सुनकर मेरी ओर देखा, उसके चेहरे की मुस्कान ही बता रही थी कि उसे सहर से अच्छी खबर मिली थी, मैं उससे पूछना चाहता था, बहुत सारे सवाल थे मगर मुझे माँ से बहुत झीजक महसूस हो रही थी. 'बाद मैं बात करता हूँ' सोचकर मैं वहाँ नहाने चला गया. नहा कर कमरे में कपड़े पहन ही रहा था कि माँ खाना लेकर आ गयी, होंठो पर वोही मुस्कान चिपकी हुई थी माँ के.
मैं माँ से नज़रें चुराता बेड पर बैठकर खाना खाने लगा. समझ नही आ रहा था कि माँ से कैसे पूछूँ और माँ थी कि मेरी हालत से खूब मज़ा ले रही थी जैसे उसे मुझे सताने में कोई विशेष आनंद आ रहा था. मैने खाना खाया तो माँ ने बर्तन उठाए और फिर कुछ पलों बाद दूध ले आई. मैं ग्लास पकड़ नज़रें झुकाए बेड पर अधलेटा सा दूध पीने लगा. माँ मेरे पास बैठ गयी. कुछ पल वो यूँ ही चुप रही.
"उसके लिए इतने परेशान थे, अब पुछोगे भी नही वो कैसी है?" माँ ने मुझे छेड़ते हुए कहा.
मैने माँ की ओर देखा और फिर नज़रें झुक गयी. मुझसे कुछ बोला ना गया.